Saturday, April 4, 2020

बेतरतीब 69 (धर्म और सांप्रदायिकता)

कुछ ग्रुपों में तथा अन्यत्र लोग प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कहते रहते हैं कि मैं हिंदू आस्थाओं पर आघात करता रहता हूं, अन्य धर्मों, खासकर इस्लाम की या तो पक्षधरता करता हूं या डर से उनपर कलम उठाने की हिम्मत नहीं करता। वैसे तो सफाई देने की आवश्यकता नहीं है लेकिन फिर भी कुछ बातें स्पष्ट करना चाहता हूं।
1. मैं कभी किसी भी आस्था पर आघात नहीं करता, एक मार्क्सवादी नास्तिक होने के नाते धर्म पर मेरी स्पष्ट राय है जिसे मैं कई बार शेयर कर चुका हूं।मेरी परवरिश एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार में हुई मेरी पत्नी समेत मेरा लगभग पूरा खानदान धार्मिक है। ज्ञान की तलाश में सवाल-दर-सवाल की प्रक्रिया भगवान तक पहुंची। सामाजीकरण के दौरान हम तमाम मूल्य बिना सोचे-विचारे आत्मसात कर लेते हैं, वे व्यक्तिचत्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं। विरासत में मिले अपने जातीय और धार्मिक पूर्वाग्रह-दुराग्रह स्वाभाविक और तार्किक (रेसनल) लगते हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण बालक की नास्तितता की सुविचारित यात्रा विकट आत्मसंघषर्षों की यात्रा थी इसके लिए असाधरण विवेकशक्ति तथा अदम्य साहस की जरूरत थी। कठिनाई में मैं हमेशा खुद से कहता हूं आसान काम तो सब कर लेते हैं।

2. धर्म वेदना की अभिव्यक्ति और वेदना का प्रतिरोध दोनों होता है, जब तक आत्मबल की अनुभूति नहीं होती तब तक धर्म शक्ति का भ्रम प्रदान करता है। 'जिसका कोई नहीं उसका खुदा है यारों'। मार्क्स के हवाले लोग धर्म को अफीम कहते हैं, यह वाक्य का छोटा हिस्सा है। अपनी बौद्धिक यात्रा की शुरुआत (1843-44) के उनके एक कालजयी लेख, "हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा" में यह वाक्य है -- "धर्म आत्माविहीन हालात की आत्मा है, हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, पीड़ित की आह है, धर्म लोगों की अफीम है"। मैंने कुरान से कोरोना से लड़ने की मौलाना की तकरीर का जो वीडियो शेयर किया था, उसका कैप्सन दिया था, 'ऐसे बंटती है धर्म की अफीम'। धर्म पर विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, धर्म पर अपने छपे कई लेख शेयर कर चुका हूं, फिर कर दूंगा।

3. जैसा हमने पहले कहा कि हम किसी के धर्म पर आघात नहीं करते, व्यापक सामाजिक कुपरिणाम वाली धर्मांधता पर करते हैं, जैसा अभी तबलीगी जमात की जहालती तकरीर पर किया। हम इसलिए किसी की आस्था पर हमला नहीं करते क्योंकि हम धर्म नहीं समाप्त करना चाहते, धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, उम्मीद की भ्रांति देता है। मेरी पत्नी नवरात्र भर रोज दुर्गा माता से कोरोना खत्म करने के चमत्कार की प्रर्थना करती थीं, उन्हें उम्मीद है कि दुर्गा जी कोरोना जरूर खत्म कर देंगी। जब तक किसी को सचमुच की खुशी नहीं मिलती तब तक खुशफहमी नहीं छीन सकते, सचमुच की उम्मीद न हो तो भ्रांति ही सही।

4. अराजकतावाद और मार्क्सवाद में यह फर्क है कि अराजकतावाद राज्य को समाप्त करना चाहता है, मार्क्सवाद उन हालात को जिससे राज्य की आवश्यकता होती है, राज्य वर्ग शासन है वर्ग खत्म हो जाएंगे यानि समाज वर्गविहीन हो जाएगा तो राज्य अनावश्यक हो जाएगा तथा अपने आप बिखर जाएगा। उसी तरह अराजकतावादी नास्तिक धर्म समाप्त करना चाहता है, मार्क्सवादी उन हालात को जिनसे धर्म की जरूरत होती है। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, वास्तविक खुशी मिलेगी तो खुशफहमी की जरूरत नहीं होगी, धर्म अनावश्यक हो अपने आप खत्म हो जाएगा।

5. अंत में जिस बात के लिए यह लेख शुरू किया, कई बार भूमिका इतनी बड़ी हो जाती है कि टेक्स्ट गौड़ हो जाता है। तो यह आरोप कि मैं हिंदू आस्था पर आघात करता हूं तथा बाकी धर्मों की या तो पक्षधरता करता हूं, बिल्कुल आधारहीन है। मैं आस्था पर नहीं धर्मांधता और सांप्रदायिकता पर आघात करता हूं क्योंकि दोनों ही समाज और मानवता के लिए घातक हैं। मैंने एक लेख लिखा था, शेयर भी किया था -- धर्म और सांप्रदायिकता। जिसमें यह साबित किया है कि एक आस्था के रूप में धर्म का सांप्रदायिकता से कुछ नहीं लेना-देना नहीं है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्म के नाम पर उंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है।

6. राज के मिश्र ने एक पोस्ट डाला है कि अल्लाह के अस्तित्व को खारिज करने से जो लोग खुश होते हैं वे भगवान के रूप में राम को नकारने से नाराज होते हैं, या ऐसा ही कुछ। एक रेल यात्रा में दो सह यात्री अपने अपने खुदा की प्रशंसा और दूलरे के खुदा की आलोचना करते बहस कर रहे थे। बीच में दोनो को नकारते हुए मैंने टांग अड़ा दी, दोनों मेरे खिलाफ एक हो गए। विरासत में संस्कार के रूप में मिले जातीय-धार्मिक पूर्वाग्रहों तथा जातिवादी-धार्मिक मिथ्या चेतना से मुक्ति मुश्किल है, कठिन आत्मसंघर्ष की जरूरत पड़ती है। बहुत लोग नाम के आगे-पीछे प्रोफेसर और मिश्र देखकर जोड़ते हैं, प्रोफेसरी और मिश्रपन के कोई गुण न देख निराश होते हैं। इन पूर्वाग्रहों-मिथ्या चेतना से ऊपर उठ समीक्षा कुछ लोगों को आस्था पर आघात लगता है।

7. बिल्कुल अंत में, कुछ भी करने का मक्सद होता है, मोटिव होता है। पहली बात मुझे पक्षधरता करना होगा तो हिंदू की करूंगा, मेरे सारे परिजन भक्त और कुछ अंधभक्त है, उनमें अलोकप्रयता की जगह लोकप्रयता हासिल करूंगा। मेरे विस्तारित खानदान (गांव) के कई लड़के मेरी लिस्ट में हैं। मेरा भाई और मेरी बेटियां भी मेरी लिस्ट में हैं। मेरे गांव के कई लड़के मुझसे बहुत नाराज रहते थे कि मैं अपनी जाति-खानदान के विरुद्ध लिखता हूं उनमें से अब कई मेरी बातें थोड़ा-बहुत पसंद करने लगे हैं। तो अगर किसी धर्मांधता की पक्षधरता करना होगा तो मेरा हित ब्राह्मणीय धर्मांधता की पक्षधरता में होगा क्योंकि हिंदुत्व ब्रह्मणवाद (जातिवाद) का ही राजनैतिक संस्करण है। मैंने 1986-87 में एक शोधपत्र लिखा था आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी की विचारधाराओं की तुलनात्मक समीक्षा पर जो कई बार शेयर किया हूं। निष्कर्ष यह है कि दोनों एक दूसरे के पूरक तो हैं ही, सभी प्रमुख सामाजिक, राजनैतिक आर्थिक मुद्दों पर उनकी समान राय है। रेखागणित की भाषा में दोनों समरूप (सिमिलर) नहीं सर्वांगसम (कांग्रुएंट) त्रिभुजों की तरह हैं। दोनों के ही सांगठनिक ढांचे अधिनायकवादी हैं। एक फॉर्मेट बना लीजिए और खाली जगह छोड़ दीजिए। आरएसएस पर निबंध लिखना हो तो आरएसएस और हिंदू राष्ट्र लिख दीजिए, जमाते इस्लामी पर लिखना हो तो जमाते इस्लामी और निजामे इलाही लिख दीजिए। पक्षधरता के बाद कई लोग कहते हैं कि डर से इस्लाम पर नहीं लिखता, अरे भाई बेबात इस्लाम इस्लाम अभुआने लगूं, जैसे कई अंधभक्त बेबात वाम वाम अभुआने लगते हैं? जिसको भगवान और भूत का भय खत्म हो जाए उसे किसी का भय नहीं होता। क्या कर लोगे? मार दोगे? कोई किसी को मार सकता है।

निवेदन है जो लिखूं उसकी समीक्षा करें, इसपर क्यों नहीं लिखते? सवाल तलब न करें, या इसपर लिखो का निर्देश न दें, हर किसी की सीमित बौद्धिक शारीरित क्षमता होती है, जिस पर मैं नहीं लिखता आप खुद लिखें।
सादर।

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