Tuesday, March 31, 2020

लल्ला पुराण 286 (वामी)

Arvind Kumar Mishra मैं संघी प्रवृत्ति की बात करता हूं, वामी कहे जाने को आरोप की करह नहीं कांप्लीमेंट की तरह लेता हूं, बस बिना संदर्भ वामी वामी करने वालों से पूछ देता हूं कि वामी होता क्या है? वे शब्द का मतलब समझकर प्रयोग कर रहे हैं या बिना समझे गाली की तरह।मैंने 2-3 बार वामपंथ क्या होता है? पर पोस्ट डाला वामपंथ और मार्क्सवाद पर कई लेख शेयर किया कि लोग अनजाने में वामी वामी न करें, जानबूझ कर करें। लेकिन पढ़ लेंगे या विमर्श से सीख लेंगे तो मुझ पर आक्षेप का मसाला खतम हो जाएगा। एक शिक्षक के नाते धैर्य से सबका जवाब देता हूं, मानवीय सीमाओं के चलते धैर्य खत्म हो जाने पर प्रतिक्रिया में अपनी भाषा भ्रष्ट हो जाने से बचाने के लिए ब्लॉक कर देता हूं। भाषा का श्रोत पूछने पर नाराज होने वालों को अपनी भाषा खुद आपत्तिजनक लगती होगी, वरना नाराज क्यों होंगे। मैं किसी पर निजी आक्षेप नहीं करता यदि गलती से हो जाए या लगे तो इंगित करने पर माफी मांग लूंगा। मुझे जानने वाले लोग जानते हैं, पूरी कीमत चुकाते हुए ईमानदारी के सनक के साथ जीवन जिया हूं उस पर फैसलाकुन वक्तव्य से उंगली उठाने वाले के साथ क्या संवाद हो सकता है?

भारत में अंग्रेजी राज और सांप्रदायिकता


भारत में अंग्रेजी राज और सांप्रदायिकता



ईश मिश्र



समकालीन विश्व – इतिहास पूंजीवाद अंहकार धार्मिक कट्टरता और नस्लीय/कुनवाई पूर्वाग्रहों की विचारधाराओं के उफान का गवाह है। धर्म और राजनीति के संबंधों में अभूतपूर्व गति से हो रहे परिवर्तनों से विस्मित निति निर्माता और धार्मिक नेती दोनों ही राजनीति में धर्म की उपयोगिता के प्रति अधिक सजग हो गए हैं। यहीं नहीं, धर्मनिरपेक्षता के ज्यादतर खेमों में भी राजनीति में धर्म की भूमिका, सरोकार का केंद्रीय बिंदु बन गयी है। धर्म की राजनीति करने वाली ताकतों में एक तरफ पारंपरिक मूल्यों की पूर्ण अवहेलना करके उन्हें पुर्नपरिभिषत करने की प्रवृति दिखायी देती है। तो दूसरी तरफ एक ‘स्वर्णिम अतित’ की पुर्नस्थापना के नारे के साथ धर्म की युध्दोन्मादी आक्रांमकता अनियंत्रित हिंसा और विवेकहीन आतंक की। भारत में युध्दोन्माद इस व्यापक संदर्भ से जुड़ा प्रतीत होता है। 6 दिसम्बर की अयोध्या की घटनाओं के बाद का रक्तपात और दंगे तो इसके बाह्य प्रभाव हैं, संदेह और घृणा की विचारधारा को ऐतिहासिक वैधता प्रदान करने के इन ताकतों के प्रयासों के दूरगामी प्रभाव और भी गंभीर चिंता का विषय है। हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतें ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर और संदर्भ से काटकर अपने राजनैतिक हितों के अनुरूप इतिहास के पुर्नलेखन कर रही हैं। ऐसे में सांप्रदायिकता का इतिहास जानना आवश्यक हो जाता है। ज्ञानेन्द्र पाण्डेय की पुस्तक, कांस्ट्रक्शन ऑफ कम्यूनलिज्म इन कोलोनियल नॉर्थ इंडिया, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
सांप्रदायिकता जीववैज्ञानिक प्रवृति नहीं है,  न ही यह वायु, ब्रह्मांड या आत्मा-परमात्मा की तरह कोई शाश्वत विचार है। सांप्रदायिकता विचार नहीं है बल्कि विचारधारा (ज्ञानेन्द्र पांडेय के शब्दों में एक तरह का औपनिवेशक ज्ञान-पृ. 6) है, जिसका निर्माण औपनिवेशिक शासन के एक खास दौर में, खास ऐतिहासिक जरूरतों के तहत, उपनिवेशवादी के विचारकों इतिहासकारों के तत्वाधान में हुआ। चूंकि इसका उदय ऐतिहासिक कारणों से हुआ, इसलिए इसका अतं भी संभव है।औपनिवेशिक शासन के दौरान उत्तर भारत, खासकर भोजपुरी क्षेत्र के उदाहरण के माध्यम से समीक्षार्थ पुस्तक में लेखक ने ताकिर्क ढंग से यह दिखाया है कि विचारधारा के रूप में भारत में सांप्रदायिकता, उपनिवेशवाद की विरासत है।
      सांप्रदायिक (या सामुदायिक जैसे अंग्रेजी के ‘कम्यूनल’ का शाब्दिक अर्थ है) शब्द, व्याकरण के आधार पर समुदाय का विशेषण होना चाहिए लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह धार्मिक समुदायों के बीच ‘चिरस्थाई रूप से मौजूद’ विव्देष और घृणा का विशेषण बन गया। गौरतलब है कि भारत का  यह इतिहास औपनिवेशवादी इतिहाकारों द्वारा लिखा गया। और ‘भारत के अतीत’ की जो छवि हमारे सामने है, उसकी रचना उपनिवेशवाद ने की (पृ.23) ‘विकसित’ दुनिया के संदर्भ में इस शब्द का यह अर्थ नहीं लागू होता, यह अविकसित या विकासशील देशों की समस्या है। जैसा कि लेखक ने प्रस्तावना में इंगित किया है, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी, खण्ड-2, (1933 संस्करण) में सांप्रदायिकती (कम्यूनलिज्म) की परिभाषा समाज के सामुदायिक गठन और ‘प्रत्येक स्थानीय रूप से परिभाषित समुदाय को व्यापक स्थानीय स्वायत्ता की हिमायत करने वाले शासन के सिध्दान्त’ के रूप में की गई है और सांप्रदायिकतावादी (कम्यूनिलिस्ट) की ‘इस व्यवस्था के समर्थक, या 1871 के पेरिस कम्यून की विचारधारा में आस्था रखने वाले’ के रूप में। इसी प्रकार सांप्रदायिक (कम्यनल) का अर्थ एक कम्यून या पेरिस कम्यून से सदस्य, समुदाय से संबंधित, या किसी बस्ती के नागरिकों ककी सार्वजनिक शिरकत की संस्था, दिया है। किन्तु अपने वरिवर्धी संस्करण (1959) में शॉर्टर आक्सफोर्ड डिक्शनरी में भारत के संदर्भ में इसका नस्लीय या धार्मिक समुदाय का विशिष्ट अर्थ जोड़ दिया गया है। कम्यूनल शब्द की यह भारतीय विशिष्टता, हमारे औपनिवेशक अतीत की विरासत है। ‘सभ्य’ उपनिवेशवाद द्वारा ‘असभ्य’ उपनिवेश को दी गई परिभाषा की भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा अविलंब और पूर्ण स्वीकृति नक इस परिभाषा को स्थाई भाव प्रदान किया (पृ. 7-8)
औपनिवेशक शासन के पहले भारतीय उपमहाव्दीप में राजनैतिक बिखराव एवं धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलता सह-अस्तित्व उपमहाव्दीप (या भारतीय) सभ्यता की एकता की डोर से बंधा रहा। दूर-दराज से आए आगंतुकों और आक्रामकों की धाराओं ने इसकी बहुलता को समृध्द ही किया और कालांतर में इस सहस्त्राब्दि पुरानी सभ्यता की मुख्यधारा में विलीन हो गई। इस्लाम के आगमन से भी धार्मिक बहुलता में बढ़ोतरी के अलावा इस ढर्रे में कोई खास फर्क नहीं आया। लेकिन उपनिवेशवाद ने यहां के सम्यतागत मूल्यों पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव डाला। पारंपरिक समुदायों के टूटने और देसी उधोगों के उजड़ने से बदहाल नागरिकों को संकीर्ण आधारों पर परिभाषित करना, उपनिवेशवादी इतिहाकारों को भारतीय समाज की जटिल संरचना की व्याख्या की तुलना में आसान लगा और उगनिवेशवादी शोषण को वैचारिक आधार प्रदान करने के लिए उपयोगी भी उल्लेखनीय है कि औपनिवेशक भारत के शासकों और इतिहासकारों ने भारतीयों को परिभाषित करने के लिए कम्यूनलिज्म या सांप्रदायिकता शब्द का प्रयोग पिछडेपन. बर्बरता और असभ्यता के उन्हीं अर्थों और उसी अवमानना के साथ किया जैसा कि उन्होंने अमेरिका और अफ्रिका के औपनिवेशीकरण का औचित्य ठहराने हेतु वहां की सभ्यताओं के लिए ट्राइबलिज्म (आदिमपन या कबीलाईपन) शब्द का इस्तेमाल किया था। यह भी उल्लेखनीय है कि इस विशिष्ट भारतीय अर्थ में सांप्रदायिकता का प्रयोग सांमती) यूरोप या अन्य पूर्व – पूंजीवादी समाजों के लिए नहीं होता जिनमें न तो धार्मिकता की कमी थी और न ही विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में परस्पर तनाव और टकराव की। उत्तरी आयरलैंड में कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच जारी खूनी संधर्ष की व्याख्या में भी यह परिभाषा नहीं लागू होती। यह अर्थ ‘पिछडे’ औपनिवेशिक और पूर्व औपनिवेशिक देशों के राजनैतिक और सामाजिक तनावों की व्याख्या के लिए सुरक्षित है (पृ.7) जिस तरह अमेरिका और यूरोप में उपनिवेशवादियों ने रंगरूप में परिभाषित किया और फिर उसी परिभाषा से ‘नस्ल’ को चिरस्थायी स्वयंसिध्दि प्रमाणित किया।
      पूंजीवादी ‘सभ्यता’ मोटे तौर पर प्रकृति पर विजय प्राप्त करने और तदुपरांत अपने हितों के अनुकुल उसके शोषण और दोहन के सिध्दान्त पर आधारित हैं इस नई ‘सभ्यता’ के वाहकों ने इससे अछूते मानवों को भी प्रकृति का ही हिस्सा माना जिसकी तार्किक परिणति औपनिवेशीकरण में हुई। पूंजीवाद तब से कई मंजिलें पार कर चुका है। अब गरीब मुल्कों पर अपने स्थानीय प्रतिनिधियों और विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी विश्व-संस्थाओं के माध्यम से ही शासन कर सकता है।
      उपनिवेशवाद ने अपने हितों के अनुकूल न महज उपनिवेशों के वर्तमान रचना की थी बल्कि उनके अतीत की भी। ऐसा उसने अपने अमानवीय अतिक्रमण और शोषण का औचित्य ठहराने के अलावा पूंजीवादी सभ्यता की श्रेष्ठता साबित करने के लिए भी किया। शासक की विचारधारा शासक – विचारधारा तो होती ही है, शासकों के बदले जाने के बाद भी, यदि सशक्त विरोध न किया तो कायम रहती है। भारत के अंग्रेजी शासकों को ज्ञात था कि वैचारिक प्रभुत्ता, व्यापारिक चतुराई और सैन्य श्रेष्ठता से कहीं अधिक मारक तो होती है। उपनिवेशवादी इतिहाकारों ने इसके लिए भारत के अतीत की ऐसी रचाना करना शुरू किया जो इसके भविष्य पर औपनिवेशिक जकड़ बनाए रखने में सहायक सिध्द हो। उनके इस प्रयास में औरियण्टलवादी विव्दानों के भारत के विषय में अन्वेषण भी मद्दगार साबित हुए।
      19वीं शताब्दी का दूसरा दशक खत्म होते होते, पेशवाओं की पूर्ण-पराजय के साथ संपूर्ण भारत पर अंग्रेजी शासकों का प्रभुत्व स्थापित हो गया लेकिन विदेशी शासन का बरकरार रखने के लिए देशी सहयोगियों और विचारधारात्मक औचित्य की जरूरत होती है। इसके लिए, उन्होंने एक तरफ 1793, 1799 और 1891 के भूस्वामित्व संबंधी अधिनियमों के माध्यम से कुलीन भारतीयों के अर्थ-सामंती जमीदारों का एक वफादार वर्ग तैयार किया और दूसरी तरफ विचारात्मक औचित्य के लिए भारत के अतीत को परिभाषित करने के लिए ऐसी इतिहास दृष्टि का निर्माण किया जो विदेशी शासन की मौजूदगी का औचित्य और भविष्य में उसकी निरंतरता की अपरिहार्यता साबित कर सके। जे. एस. मिल और बर्नाड शॉ सरीखे उदारवादी अंग्रेज विव्दानों ने देसी लोगों को सभ्य बनाकर उन्हें प्रगति का रास्ता दिखाने के लिए औपनिवेशिक शासन की मौजूदगी को उचित ही नहीं उनके स्वयं के ही हित में आवश्यक भी बताया। भारतीय उदारवादियों का दृष्टिकोण भी इस मामले में इनसे भिन्न नहीं था। औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारत के अतीत के चित्रण के लिए यहाँ के बाशिदों को संकीर्ण अस्मिताओं के आधार पर परिभाषित करके उनके ‘पारस्परिक अंतविरोधों’ को शाश्वत एवं सार्वकालिक बताया और उनके निराकरण के लिए ‘तर्केन्मुख’ और ‘विवेकशील’ विदेशियों के शासन को अपरिहार्य।
      औपनिवेशीकरण का यहां उनका अनुभव अमरीका और अफ्रिका से भिन्न था, जहाँ यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने पूरी की पूरी आबादी नस्तनाबूद कर दी थी, बंजर बीहड़ और जंगली इलाकों में खदेड़ दिया था जैसा कि उन्होंने अमरीका में किया था फिर पूरी आबादी को गुलाम बना लिया जैसा कि अफ्रीका में अमरीका या अफ्रीका अभियान की पुनरावृत्ति कर पाने और भारतीय समाज की जटिलताओं को समझ सकने में असफल उपनिवेशवादियों ने भारतीय सभ्यता और लोगों को औपनिवेशक परिप्रक्ष्य से परिभाषित करने की प्रक्रिया प्रांरभ की शासन के शुरूआती दशकों में उन्होंने भारत के सुदुर अतीत को एक गौरवशाली महान सभ्यता बताया जो ‘ऐतिहासिक’ कारणों से अधंकारयुग में प्रवेश कर गई थी उनके अनुसार सुदुर अतीती के इस गौरवशाली सभ्यता पर निकट अतीत में लगे कलंकों को मिटाने के लिए ‘सभ्य और विवेकशील’ अंग्रेजी शासकों का भारत आगमन ‘दैवीय कृपा’ का ही परिणाम था। समकालीन चिंतकों ने भी इसी अवधारणा को दोहराया। वेदों को अंतिम सत्य घोषित करने वाले राजा राममोहन राय ने भारत में अंग्रेजी राज को ईश्वर की अनुकंपा कहा।
                1820 के आसपास इस औपनिवेशिक समझ में फर्क आया और विदेशी शासन के औचित्य के लिए सभ्यता का तर्क दिया जाने लगा। हिंन्दुस्तानी की परिभाषा बर्बर अफ्रीकी और ‘सभ्य यूरोपीय’ के
बीच ‘अर्ध बर्बर’ के रूप में की गयी।
      उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में प्रमुख इतिहासकारों ने धार्मिक कट्टरता और विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच वैमनस्य को भारतीय समाज के अतीत और वर्तमान की विशिष्टता के रूप में व्याख्यायित किया। भारतीय इतिहास के ‘प्राचीन’ एवं ‘मध्यकालीन’ इतिहास को क्रमशः ‘हिन्दू युग’ और ‘मुस्लिम युग’ नाम दिया गया। इस इतिहासबोध नक ‘धार्मिक समुदाय’ और ‘धार्मिक अस्मिता’ को भारतीय राजनीति के केंद्रीय सरोकार के रूप में चित्रित किया। 1920 के दशक में सरकार ने भारत में ‘हिन्दू मुस्लिम’ दंगों की विस्तृत सूची तैयार करना शुरू किया। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के ‘सांप्रदायिक दंगों की अन्य स्रोतों से प्राप्त तथ्यों के प्रकाश में औपनिवेशिक व्याख्या की समीक्षा के जरिए पांडेय ने भारतीय अतीत की औपनिवेशिक रचना पर आधारित सांप्रदायिकता के ऐतिहासिक चरित्र को उजागर करने की कोशिश की है। मार्ले-मिंटो और मोंटाग-चेम्सफोर्ड सुधारों पर बहस के दौरान विभिन्न ‘समुदायों’ की अनुमानित जरूरतों और दावों को चिन्हित करने के लिए,  ‘सांप्रदायिक भावना’ साप्रदायिक प्रतिनिधित्व और प्रतिनिधित्व के ‘सांप्रदायिक सिध्दांत’ जैसे अवधारणाओं का बारबार हवाला दिया गया। किन्तु ‘सांप्रदायिकता39 की इस अवधारणा का ‘पूर्ण विकसित भारतीय रूप’ निर्धारित किया 1920 और 30 के दशकों के दौरान औपनिवेशिक परिभाषा की राष्ट्रीय प्रतिक्रिया ले (पृ. 8) दरअसल ‘भारतीय अतीत का जो खाका आज हमारे सामने है उसका ढर्रा औपनिवेशिक  लेखकों ने तैयार किया था (पृ . 23)। डार्विन के उपनिवेशवादी अनुयायी ‘राष्ट्र’  और ‘राष्ट्रीय की अवधारणाओं का यूरोपिय विशिष्टता मानते थे इसलिए उनके अनुसार, वे देसी लोगों पर नहीं लागू हो सकती थी। देशी लोगों की विशिष्टता को चिन्हित करने के लिए उन्होंने ‘राष्टीय’ के विक्लप के रूप में ‘सांप्रदायिक’ शब्द का प्रयोग किया। ऐसा करने के पीछे औपनिवेशक शासकों का प्रमुख उद्देश्य 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सपष्ट रूप से उभरती भारतीय राष्टीय चेतना को कुंद करना था। इसलिए साम्राज्यवादी ‘नई विश्व व्यवस्था’ के ‘हिंदुत्ववादी’ नुमाइदों द्वारा ‘हिंदुत्व’ या हिंदू सामप्रदायिकता को राष्ट्रीयता का पर्याय घोषित करने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
      सांप्रदायिकता की अवधारणा के ऐतिहासिक चरित्र की विवेचना इसलिए और भी जरूरी हो गई है कि सांप्रदायिक संगठन, अपने विचारों की ऐतिहासिक वैधता स्थापित करने की जी तोड़ कोशिश में लगे हैं। ‘हिदुत्व’ को राष्ट्रीयता का पर्याय घोषित करने वाले राजनीतिज्ञ और उनके साधु-संत मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित सभी ऐतिहासिक इमारतों को बाबरी मस्जिद की अगली कड़ी में जोड़ रहे हैं। दुनियाँ के अजूबों में गिने जाने वाले ताजमहल की सुरक्षा के लिए सेना तैनात करनी पड़ी है। यह कैसी विडंबना है किसी संप्रभु राज्य को ताजमहल जैसी अपनी अद्भुत ऐतिहासिक धरोहर की अपने ही नागरिकों से रक्षा की जरूरत पड़ गई है? क्या यह महज संयोग है कि सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषाई विविधता वाली हमारी इस प्राचीन  सभ्यता को साप्रदायिक राष्ट्रीयताको आक्रमण अभियान का सामना ऐसे समय में करना पड़ रहा है जबकि उसकी अर्थव्यवस्था पर ‘निजीकरण’ और ‘उदारीकरण’ के रास्ते विकसित पूंजीवादी बाजारों की गिरफ्त कसती जा रही है? इसे समझने के लिए भारत के अतीत की औपनिवेशक व्याख्या और राष्ट्रवादी प्रक्रिया को समझना आवश्यक है।
      औपनिवेशिक इतिहास लेखन में भारतीय समाज को उसके वस्तुगत ऐतिहासिक सदंर्भ से काटकर धार्मिक समुदायों और अस्मताओं के संग्रथन के रूप में परिभाषित किया गया और भारतवासियों की राजनैतिक गतिविधियों  को धार्मिक समुदायों हितों की राजनीति के रूप में। धार्मिक समुदाय की औपनिवेशिक अवधारणा की पुष्टी करने और उसे ऐतिहासिक आधार प्रदान करने के लिए औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीयों की धार्मिक अस्मिता को खोज सुदूर अतीत में करना शुरू किया। जेम्स मिल व उदार अंग्रेज लेखकों ने भारतीय इतिहास का काल विभाजन ‘हिंदू युग’ ‘मुस्लिम युग’ और ‘ब्रिटिश युग’ के रूप में किया। औपनिवेशिक या सांप्रदायिक परिप्रक्ष्य के तहत ऐतिहासिक निरंतरता की पूर्ण अवहेलना करते हुए, इस युग को एक दूसरे से बिल्कुल अलग करके प्रस्तुत किया गया। राष्ट्रवादी इतिहास लेखक ने, औपनिवेशिक (या सांप्रदायिक) परिप्रक्ष्य को चुनौती देने की बजाय स्वीकृति ही प्रदान की। फर्क यह था कि ‘हिंद्’ को प्राचीन काल, मुस्लिम युग’ को ‘मध्यकाल’ और ब्रिटिश युग’ को आधुनिक युग’ नाम दिया। ‘राष्ट्रीय’ इतिहास लेखन ने विदेशी शासन के इस दावे को कि वह इन धार्मिक विवादों और पूर्वाग्रहों से अलग एक सेकुलर सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। कोई गंभीर चुनौती नहीं थी अपितु उसी के सैध्दान्तिक आधारों को स्वीकार करते हुए उदारता का अर्भ्य्थना की।
      जैसा कि ज्ञानेन्द्र पांडेय ने औपनिवेशिक इतिहासलेखन के उद्देश्यों और सांप्रदायिक घटनाओं की बदलती व्याख्याओं की समीक्षा के जरिए दिखाया है, “लगान और चढ़ावा” की वसूली के बाजार और कच्चेमाल की तलाश की तरफ बढ़ते औपनिवेशिक अर्थतंत्र की बदलती जरूरतों के चलते भारतीय समाज की औपनिवेशिक समझ में भी उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिलता है”।

19वीं शताब्दी की शुरूआत में ग्राम समुदाय को भारतीय समाज की प्राथमिक इकाई माना गया और शताब्दी के उत्तरार्ध तक ग्राम की जगह ‘जाति’ ने ले लिया जो, खासकर 1840 के भारतीय समाज के संगठन के सिध्दान्त के केंद्र बिंदु बन गयी। भारतीय की पहचान के लिए ‘जाति’ को ‘गाँव’ की तुलना में वरीयता देने के पीछे उत्पादन केंद्रों (यानि) राजस्व स्रोतों की पहचान प्रमुख उद्देश्य था। इसी आधारणा के तहत ‘जयराम पेशा (आपराधिक प्रवृत्ति वाली)’ और ‘मार्शल’ जातियों की परिभाषा की गई। 1857 की आजादी की लड़ाई के बाद औपनिवेशिक इतिहास लेखन में भारतीय समाज की समझ में तब्दीली आई और जाति समुदाय की जगह धार्मिक समुदाय ने लिया उदाहरण के लिए भारतीय वस्त्र उधोग को गति प्रदान करने वाले ‘युध्दोन्मादी’ जुलाहे जातीय समुदाय से धार्मिक समुदाय में तब्दीली कर दिये गए। (पृ. 66.108)। “यदि पूंजीवादी विचारधारा ऐतिहासिक तथ्यों को अपरिहार्य कोटियों में बदलती है” (आर. बार्धस, माइथा लाजीज, लंदन, 1979 पृ.155) तो पूंजीवादी उपनिवेशवाद यह काम अंत्यत क्रूरत्मपूर्वक करता है। जिस बात पर जोर देने की जरूरत है, वह यह है कि ‘मिथ’ या ‘अपरिहार्य कोटि’ न सिर्फ यथार्थ को विकृत करता है बल्कि ऐसा उसे ऐतिहासिक संदर्भ से अलग करके करता है”। (पृ. 107)   
जैसा कि पांडेय ने औपनिवेशिक दस्तावेजों के हवाले से एक फुटनोट में इंगित किया है पश्चिम भारत के ब्राह्मणों के समुदाय के बारे में कहा गया कि वे ‘न समझ में आने वाले, झूटे भ्रष्ट और सिध्दान्तविहीन लोग होते हैं’  (जी. डब्लू. फारेस्ट, सेलेक्शन्स  फ्राम दि मिनट्स एंड आर आफिसियल राइटिंग्स ऑफ दि ऑनरेबुल माउंट स्टुआर्ट एल्फिन्स्टोन, गवर्नर बांबे, दंलन, 1884 पृ. 260)। इसी तरह उत्तर पश्चिम सीमांत  के पठानों के बारे में कही गया कि वे अंग्रेजों के संपर्क में आने वाली सबसे बर्बर नस्ल के हैं जो अत्यंत ही “क्रूर, खुनी, और परसंतापी है। यधपि उनमें साहस की कमी नहीं है फिर भी उन्हैं न तो सत्य की जानकारी है और न आस्था की (इब्बस्टन, पंजाब कास्ट्स पृ. 302) और इस तरह औपनिवेशिक व्याख्या में भारतीयों की परिभाषा ‘धूर्त ब्राह्मण’, युध्दोन्मादी जुलाहा’,  उत्पाती अहीर, और ‘अपराधी पासी’ के रूप में की गई। और इस तरह जाति संस्कृति या प्रकृति का अंग बन गई, जिनके बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए अंग्रेजी राज की निरतरता को अपरिहार्य साबित किया गया (पृ. 107-108)
औपनिवेशिक दस्तीवेजों और जनगणना में किसी भी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा का मानक उसकी जीतीय अस्मिता बन जाने से समाज के तमाम तबकों में ‘संस्कृतीकरण’ और ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया शुरू हुई। जहाँ एक तरफ अहीर, कुर्मी और नोनिया जैसी मध्यम हिंदू  जातियों ने यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करके अपनी उच्च जातीय (क्षत्रिय) उत्पत्ति का दावा करना शुरू किया। कहीं जुलाहों ने अपने पांरपरिक हिंदू निम्न जातीय उपनामों को छोड़कर अपने मोमिन, शेख और सैय्यद घोषित करना शुरू किया। इस प्रक्रिया का विरोध हिंदू और मुसलमान दोनों ही उच्च वर्गों/जातियों ने किया। यादवों के सशक्त आंदोलन को विरोध में मुसलमान जमींदारों ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों और भूमिहारों की साथ दिया। 20वीं शताब्दी के पहले के औपनिवेशिक इतिहासलेखन में ‘अखिल भारतीय हिंदू समुदाय’ या ‘अखिल भारतीय मुस्लिम समुदाय’ की अवधारणाओं का कोई जिक्र नहीं मिलता लेकिन 20वीं शताब्दी के होते ही ये अवधारणाएं औपनिवेशिक इतिहासलेखन में जोरदार  ढ़ग से उभरकर समाने आती हैं (पृ. 109-157)
1907 के बनारस के डिस्ट्रक्ट गजेटियर में 1809 के दंगों के बारे में लिखा गया कि यह सेना और पुलिस के आपसी झगड़ों के चलते हुआ लेकिन ‘निश्चत रूप से इसका कारण हिंदू मुस्लमानों के बीच की चिरंतन शत्रुता ही थी। ‘ये दंगे पुलिस के ‘पुनर्गठन से शांत किया जा सका। ‘बनारस के इतिहास में उहापोह के दिनों को अंग्रेजों द्वारा ‘शहर को सभ्य बनाकर’ शांत किया जा सके। गजेटियर का यह उल्लेख 1920 और 1930 के दशकों में भारत में संवैधानिक और राजनैतिक स्थिति के मूल्यांकन के इस्तेमाल किया गया और इतिहासलेखन का आधार बना। लेखक इस घटना के कारण विभिन्न विवरणों (जिनमें अकारण, मरने वालों की संख्या और घटना की जगहें बदलती रही हैं) के माध्यम से साबित किया है कि भारत में उभरते हुए हिंदू-मुस्लमानों के व्यापक तबकों की शिरकत वाले स्वराजी उफान को दबाने के लिए औपनिवेशिक शासकों और इतिहासकारों ने भारतीय राष्ट्रीयता के बजाय हिंदू राष्ट्रीयता और मुसलमान राष्ट्रीयता की अवधारणा को स्वीकार करते हुए मुसलमानों से अंग्रेजी राज को पूर्ण समर्थन देने का आग्रह किया उसी के बाद बनी पंजाब हिंदू सभा ने मुस्लिम लीग के संपूरक की भूमिका निभाई। 1947 में देश का बंटवारा, औपनिवेशिक चाल की सफलता थी।
मुस्लिम लीग और जमाते इस्लामी तथा हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ जैसे संगठनों ने ही नहीं भारतीय धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीयता के पक्षधर नेताओं ने भी इस औपनिवेशिक चाल की वैचारिक गिरफ्त में अपने को फंसने दिया। (पृ. 233 – 261)। यहाँ तक कि गणेश शंकर विधार्थी जैसे राष्ट्रवादियों ने भी अंग्रेजी शासन के विरूध्द हिंदू संगठन और सुधार की बात की। मस्जिद के बाहर हिंदूओं द्वारा बाजा-गाजा के साथ जुलूस को प्रतिबंधित करने के सरकारी आदेश को अन्य


नवंबर-दिसंबर 1991 

लल्ला पुराण 286 (सांप्रदायिकता)

एक ग्रुप में सांप्रदायिकता की एक पोस्ट पर एक कमेंट:

हम जब संघ में थे तो इसी तरह की (मुसलमानों और कम्युनिस्टों को खलनायक चित्रित करने वाली) नफरती अफवाहों का अन्वेषण करते थे। इस ग्रुप की मुखर बहुसंख्या सांप्रदायिकता के विष से ओत-प्रोत सवर्ण पुरुषों की है। जो बहुसंख्यक पर अल्पसंख्यक का और देश पर गायब हो चुके वामपंथ के खतरे का भजन गाते रहते हैं। बहुसंख्यक पर अल्प संख्यक के खतरे का हव्वा खड़ा करना फासीवादी प्रवृत्ति है। आप शिक्षक हैं जानते हैं कि व्यक्तित्व का निर्माण समाजीकरण से होता है जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना से नहीं। यदि दो सगे भाई एक जैसे नहीं होते तो करोड़ों मुसलमानों, लाखों जाटों का एक समरस समूह कहां से होगा? यह बात अंधभक्ति में हिंदू-मुसलमान रोग से पीड़ित अपने बड़े भाई से मैंने कहा था। ईमानदारी से बताइए यदि आप जहां पैदा हुए वहां से 200-400 मीटर उत्तर या पूरब पैदा होकर द्विवेदी की बजाय यादव या अंसारी होते और इसी शिक्षा-दीक्षा के बाद आप जो हैं वही होते या अलग? हमारे समय इवि में बहुमत सवर्णों का था तो जातीय गिरोहबाजी सवर्ण-गैरसवर्ण नहीं, छात्रों में परस्परविरोधी ब्राह्मण और राजपूत गिरोह थे तथा शिक्षकों में ब्राह्मण और कायस्थ गिरोह थे। बाहुबलियों में क्षेत्रवार गिरोह थे -- बांदा गिरोह और बलिया गिरोह। अब गिरोहबाजी राजपूत-यादव या ऐसे ही कुछ होगी? कुछ दिन पहले तक दिवि में जाट और बिहारी लॉबी के गिरोह थे। जब मैं वार्डन था तो मैंने अपने हॉस्टल में यह गिरोहबाजी खत्म कर दिया था जिसका असर विवि में भी पड़ा।

बेतरतीब 66 (इवि)

मैं विज्ञान से इंटर की पढ़ाई के बाद जब इवि में आया तो सोचता था कि जात-पांत गांव के अपढ़ लोगों का मामला है, शहर और विश्वविद्यालय के पढ़े-लिखे लोग इससे ऊपर उठ चुके होंगे। लेकिन मुझे शिक्षा को लेकर पहला और गहरा कल्चरल शॉक यह देखकर लगा कि प्रोफेसरों में जातीय आधार पर खतरनाक हद कर गिरोहबाजी थी। ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी। दोनों लॉबियों के छात्रों के अपने अपने पालतू गिरोह थे। यदि शिक्षक शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो देश को तरक्की करने से कोई ताकत नहीं रोक सकती, लेकिन ज्यादातर अभागे हैं केवल नौकरी करते हैं और सांप्रदायिक या जातीय गिरोहबाजी और प्रोफेसनल तिकड़म। शिक्षकों का बहुमत ऐसे लोगों का है शिक्षक होना जिनकी प्राथमिकता नहीं होती। यूपीएससी, प्रदेशों की पीएससी की परीक्षाओं में असफलता के बाद नेटवर्किंग तथा गॉडफादरों की कृपा से शिक्षक हो जाते हैं, उनमें कुछ भाग्यशाली होते हैं, जो शिक्षक होने का महत्व समझ लेते हैं और सुखी रहते हैं। मेरी तो नौकरी का कोई सेकंटड प्रिफरेंस ही नहीं था, लेकिन रंग-ढंग ठीक नहीं किया, नतमस्तक समाज में सिर झुकाकर जीना नहीं सीखा, इसलिए नौकरी देर से मिली। कोई अगर कहता है कि नौकरी देर से मिली तो मैं कहता हूं, देर से ही सही मिल कैसे गयी?

शिक्षा और ज्ञान 274 (गॉड फादर)

विश्वविद्यालयों में 99% नौकरियां गॉडफादरों की कृपा और नेटवर्किंग पर मिलती हैं, 1% दुर्घटना बस। एक बार सौभाग्य से कई संयोग टकरा गए और दुर्घटना हो गयी और नौकरी मिल गयी। बाकी सब गॉडफादर मेरी प्रामाणिक नास्तिकता और बाभन से इंसान बन जाने की वास्तविकता से वाकिफ थे। गॉडफादरी में दक्षिण, वाम एवं सेंटर के प्रोफेसरों में कोई खास गुणात्मक फर्क नहीं है। वामपंथी गॉडफादरों की ही शरण में चला जाता तो भी कल्याण हो जाता। अब नास्तिक के लिए जब गडवै नहीं है तो गॉडफदरवा कहां से होगा?

Monday, March 30, 2020

लाकडाउन

दुष्यंत कुमार का एक शेर है,
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
इस मुल्क में मध्यवर्ग का ऐसा कुत्सित अंधभक्त तपका पैदा हो गया है जो सरकार की हर सही-गलत नीति-काम का महिमामंडन ही राष्ट्र सेवा मानता है और सरकार की कमियों की समीक्षा को देशद्रोह। बिना योजना के, बिना किसी तैयारी के लाखों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ की सरकार की योजना की आलोचना करे तो अनुपम खेर जैसे लंपट अंधभक्त नकारात्मकता का रोना रोने लगेंगे। कल प्रधानमंत्री जी ने मन की बात में (वे जन की बात कभी नहीं करते, मन की ही करते हैं), लोगों से लाकडाउन की माफी मांगी कि लोगों को तकलीफों हो रही हैं, खासकर गरीबों को। नोटबंदी के समय उन्होंने उप्र की चुनावी सभा में 50 दिन की मोहलत मांगी थी कि 50 दिन में सब ठीक न हो जाए तो उन्हें लोग चौराहे पर जूता मारें। अजीब प्रधानमंत्री है मार-काट की ही भाषा बोलते हैं, 100 दिन में काला धन वापस न लाने पर फांसी लगा देने की बात की थी। नोटबंदी का खामियाजा देश अभी तक भुगत रहा है लेकिन प्रधान मंत्री जी कभी जेड प्लस छोड़कर चौराहे पर आए नहीं। प्रधानमंत्री जी लाकडाउन की आलोचना कोई नहीं कर रहा है, बिना सोचे, बिना योजना बनाए, संभावित प्रभावितों से बिना कोई विमर्श किए, राज्यों के साथ बिना किसी समन्वय के नोटबंदी की तरह लाक डाउन की घोषणा से आपने मुल्क को अनिश्चितता की मझधार में डाल दिया। मन की बात में आपको पुलिस वालों से भी निवेदन करना था कि जो लोग बिना अन्न पानी के सामान और बीबी-बच्चों के साथ किसी यातायात के अभाव में सैकड़ों किमी कि पैदल यात्रा पर निकल पड़े हैं उनके साथ पशुवत व्यवहार न करें। वीडियो में दिख रहा है कि पैदल जाते लोगों को पुलिस मुर्गा बना रही है। बरेली के एक वीडियो में दिल्ली से बरेली पहुंचे मजदूरों पर कीटनाशक छिड़क कर सैनिटाइज किया जा रहा है। राजस्थान के प्रवासी मजदूरों को मकान मालिकों ने घर से निकाल दिया है वे अधर में लटके हैं, हजारों मजदूर गुजरात से काम-काज बंद होने से भाग रहे हैं।

सरकारी खर्च पर आप विदेशों से अमीर भारतीयों को स्वदेश वापस लाए, उसका साधुवाद, लेकिन गरीबों का भी कुछ ध्यान देना चाहिए, सुना है आप चाय बेचते थे लेकिन अडानी-अंबानी की सोहबत में गरीबी भूल गए होंगे। मैंने गरीबी और भूख पढ़ा ही नहीं जिया भी है, बहुत दिनों सुविधा संपन्न नौकरी में रहने के बाद भी गरीबी और भूख भूला नहीं हूं। प्रवासी मजदूर ही दिल्ली की ईंधन-पानी हैं। भूमंडलीकरण के उदारीकरण ने संगठित क्षेत्र खत्म कर दिया है ज्यादातर प्रवासी मजदूर ठेकेदारी प्रथा में हैं, दिहाड़ी करते हैं, निर्माण मजदूर हैं, रिक्शा चलाते हैं, रेड़ी-खोमचा लगाते हैं, रिक्शा चलाते हैं या छोटे-मोटे उद्योगों में काम करते हैं। वे दिल्ली या एनसीआर में 2500-5000 रुपए में 10 X10 के कमरे में 5-6 के परिवार के साथ रहते हैं या ऐसे रिक्शाचालक या दिहाड़ी मजदूर जो परिवार घर छोड़ अकेले कमाने आए हैं एक कमरे में 5-6 रहते हैं। लाक डाउन, काम-धंधा बंद। ज्यादातर रोज कुंआ खोदने-पानी पीने वाले हैं। केजरीवाल ने कहा वे सबके खाने का इंतजाम कर रहे हैं, लेकिन लोग बहुत ज्यादा हैं, वीडियो में केवल आनंद विहार बस अड्डे पर ही लाखों का हुजूम दिख रहा है। यह भीड़ सोसल-डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) का पालन कैसे कर सकती है? जनवरी से ही चीन से चेतावनी मिल रही है लेकिन आपकी सरकार तो दिल्ली पुलिस के गुजरातीकरण से दंगा आयोजन में व्यस्त थी। काश! थोड़ा समय निकाल कर कोरोना प्रकोप से निपटने की पूर्व तैयारी करते। लाक डाउन के पहले प्रभावित होने वाले पक्षों से बात करते, प्रदेश सरकारों से बात करते। लाकडाउन घोषित करने के पहले प्रवासी मजदूरों के लिए डॉक्टरों और सेनिटाइजेसन सुविधा के साथ कुछ विशेष रेल गाड़ियां चलाते। दिल्ली सरकार से कहते, वैसे उसे खुद ही यह करना चाहिए था कि डीटीसी की कुछ बसें चिकित्सा सुविधा के साथ प्रवासी मजदूरों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए लगा देते। राज्य सरकारों को कहते और उन्हें खुद करना चाहिए था कि शहरों से मजदूरों के घर वापसी का प्रबंध करते। सुना है झारखंड सरकार ने ऐसा किया है। मैं तो नास्तिक हूं तो इन गरीबों के उत्पीड़कों भगवान की सजा में यकीन नहीं करता, लेकिन इतना जानता हूं कि गरीब की आह बहुत खतरनाक होती है। सुनो घरों में सुरक्षित रामायण-महाभारत देख कर समय काटने वाले मध्य वर्ग तुम्हें मेरी बात बुरी लगे तो जितनी बददुआ देना हो दे लेना, शैलेंद्र के शब्दों में, “ये गम (कोरोना) के और चार दिन, सितम के और दिन ये दिन भी जाएंगे गुजर, गुजरलगए हजार दिन”।
जारी....

लल्ला पुराण 285 (कोरोना)

बरेली में दिल्ली से गए मजदूरों को झुंड में बैठाकर उन पर कीटनाशक के छि ने कहा ड़काव के एक वीडियो के लिंक पर एक सज्जन (कॉलेज शिक्षक) ने कमेंट किया कि संक्रमण रोकने के उपाय में करीकों पर सवाल नहीं करना चाहिए, इस पर सवाल करने पर उन्होंने कहा केरल का भी ऐसा वीडियो है। उस पर :

कीटनाशक से ही सेनेटाइज किया जा सकता है? जिन्होंने आंख में जलन की शिकायत की उन्हें अस्पताल की बजाय घर भेज दिया गया। गरीब कीट है क्या? आप अपना और अपने बच्चों का सेनेटाइजेसन कीटनाशक से करवाना चाहेंगे? मध्यवर्ग परिभाषा से ही अमानवीय होता है, वह अंधभक्त हो तो सोने में सुहागा।

Rupesh Shukla सीधे ही पूंछ रहा हूं, गरीबों पर कीटनाशक का विषैला छिड़काव वाजिब है क्या? एक और अनुचित से दूसरे अनुचित का औचित्य साबित होता है क्या? अपराध के पक्षधरो का घिसापिटा तर्क है कि यही नहीं वह भी अपराधी है। उसके अपराध की अलग से विवेचना करें। अगर और साधन न हों तब न? पहली बात तो उनका टेस्ट नहीं हुआ कि वे संक्रमित हैं कि नहीं। दूसरी बात कैसे पता कि और साधन नहीं है जहर के छिड़काव के अलावा? कोई तथाकथित सम्मानित व्यक्ति ( मान लीजिए हमारी तरह प्रोफेसर होते) तब भी क्या उनपर पशुओं की तरह झुंड में बैठाकर बिषैले कीटनाशक का छिड़काव होता?

Sunday, March 29, 2020

लल्ला पुराण 284 (वामपंथ)

एक बार फिर मैं यही बात दोहराता हूं, इस ग्रुप में मुझे लगता नहीं कि बहुत से या कोई वामपंथी हैं, मैं अकेला हूं जिसे आप परिघटनाओं के वैज्ञानिक विवेचना में विश्वास करने के चलते मोटे तौर पर वामपंथी कह सकते हैं। वैसे तो किसी कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं हूं और पेंसनयाफ्ता रिटायर्ड प्रोफेसर की हैसियत से आर्थिक रूप मध्य वर्ग ही हूं। राजनैतिक ताकत के रूप में वामपंथ भारत में ही नहीं दुनिया में हाशिए से भी नीचे है, जिसका फिलहाल कोई खतरा नहीं है। लेकिन इस ग्रुप में कई लोग हर बात पर वामपंथ वामपंथ करने लगते हैं जैसे कि इस ग्रुप और देश को सबसे अधिक खतरा वामपंथ से हो! पूछो वामपंथ क्या होता है? आंय-बांय बकते हैं -- वही जो अपनी बात पर नहीं रहता, खाकर थाली में छेद करता है, खाता है उनका गाता बजाता है किसी का,....। यह नहीं बताते कौन वह वाम पंथी है और किस थाली में छेद करता है.....। वामपंथ की ऐसी-तैसी कीजिए लेकिन तथ्य-तर्कों के साथ संदर्भ में। जैसे ब्राह्मणों में अनेक कोटियों हैं वैसे वामपंथ में भी सब holier than thou belief के साथ। मेरी पत्नी कहा करती थीं कि हमलोग उनसे छोटे ब्राह्मण हैं। मैं उनसे कहता था मैं तो अब ब्राह्मण ही नहीं, छोटा-बड़ा क्या?

फुटनोट 365 (कोरोना)

राहुल गांधी ने 31 जनवरी को ट्वीट किया, मैं उसे कोई दूरदर्शी नेता नहीं मानता लेकिन पढ़ा-लिखा है और संवेदना दिखाया लेकिन उसका मजाक उड़ाया गया कि वह अफवाह से पैनिक को हवा दे रहा है। चीन ने सभी देशों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस प्रकोप सेननिपटने की तैयारी के साथ शुरू से ही चेताना शुरू किया, क्यूबा, वियतनाम, वेनेजुेला आदि देशों ने चेतावनी को गंभीरता से लिया और प्रकोप की भारी मार से बचे रहे। चीन और क्यूबा बाकी देशों में भी बचाव दल भेज रहे हैं। ट्रंप और उसका ब्रजीली चमचा कॉरपोरेटी दंभ में चीन को गालियां देने में लगे रहे, ट्रंप भारत में अपने अगले चुनाव की तैयारी करने में तथा भारत सरकार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की निरंतरता बनाए रखने तथा मध्य प्रदेश की सरकार गिराने के लिए विधायक खरीदने और उन्हें बड़े-बड़े होटलों में बंधक (मेहमान) बनाने में व्यस्त रही। सरकारी विमान सेवा से संभावित संक्रमण के अमीरों को विदेशों से लाने में मशगूल रही, लेकिन लॉक डाउन के साथ यातायात बंद करने के पहले उसे मजदूरों के घर वापसी के प्रबंध की चिंता नहीं रही। यह संकट कृत्रिम तथा सरकार निर्मित है।

फुटनोट 364 (कोरोना)

मेरी थेसिस तो सैद्धांतिक है, अपने गांव-कस्बे में जुगाड़ हो तो रिक्शा चलाने या चौकीदारी करने कोई 1000 किमी दूर क्यों आएगा? वापस क्यों जा रहे हैं? विकल्पहीनता में, शायद किसी अदृश्य उम्मीद में। हम सब घर-बार छोड़कर वहां रोजी-रोटी की समुचित जुगाड़ न होने के चलते ही तो इतनी दूर आए हैं। मैंने तो इवि, बीएचयू, काशी विद्यापीठ सब जगह इंटरविव दिया नौकरी लग जाती तो दिल्ली में क्यों जिंदगी खपाता? अपने गांव के आस-पास रिक्शा चलाने से काम चलता तो समस्तीपुर से रिक्शा चलाने क्यों यहां आते सब। समस्तीपुर का ख्याल इसलिए आया कि यूनिवर्सिटी में रिक्शा लगाने वाले भूपत का वहां से फोन आया वह कोरोना के लॉकडाउन के पहले ही चले गए थे। 5 साल पहले हमने उनपर एक कविता लिखा था, 'भूपत के जमीन नहीं है'। किसी मुसीबत में हैं 1500 रु. चाहिए था बेटी से उनके खाते में डलवा दिया।

मार्क्सवाद 203 (श्रम और पूंजी)

एक सज्जन ने कहा कि कोई अथक परिश्रम से पूंजीपति बनता है, मैंने कहा पूंजीपति कोई श्रम से नहींं बल्कि दूसरों के श्रम के शोषण से बनता है, फिर उन्होंने प्रोफेसरों के वेतन का तुलनात्मक मुद्दा उठा दिया, उस पर:

लेकिन पूंजीपति कितने घंटे उत्पादक काम करता है? निश्चित ही आय में इतना अंतर पूंजीवादी व्यवस्था की विडंबना है। प्रोफेसर तथा पाइमरी शिक्षक के वेतन में जमीन-आसमान का अंतर अनुचित है। लेकिन पूंजीपति तो एक धेले का काम नहीं करता दूसरों के काम पर पूंजी बनाता है। श्रमिकों में एकता की संभावनाओं को क्षीण करने के लिए पूंजीवाद उन्हें तमाम खानों में बांट कर रखता है। पूंजीवाद और हिंदू जाति व्यवस्था के पिमिडाकार ढांचों में एक समानता यह है कि दोनों में सबसे नीचे वाले को छोड़कर, सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है।

इस पर एक सज्जन ने कहा कि फिर पूंजी, बौद्धिकता तथा तकनीकी ज्ञान का कोई महत्व नहीं, उस पर:

तकनीकी या बौद्धिक श्रम उत्पादकता के अनुपात में साधारण श्रम का ही गुणक होता है तथा उनका मूल्य उसी अनुपात में होना चाहिए। पूंजी तो कोई कहीं से लेकर नहीं आता और धरती के फल पर सबका साझा हक होता है। पूंजीपति को कोई तकनीकी, प्रबंधन या बौद्धिक ज्ञान नहीं होता वह हड़पी हुई (खुद या पूर्वजों द्वारा) संपत्ति से सभी ज्ञान वालों को खरीद लेता है।

पूंजीपति के अथक श्रम के तर्क वाले सज्जन ने फिर कहा कि प्रोफेसर किताबों के ज्ञान की बदौलत लाखों वेतन लेता है और यह कि जिसकी जितनी बड़ी चोंच वह उतना मांस नोचता है, उस पर:

उस तरह तो मौलिक ज्ञान कोई नहीं होता, हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेटता है और उसे आगे बढ़ाता है। न्यूटन की मेकैनिकल फीजिक्स के बिना क्वांटम फीजिक्स का विकास संभव नहीं था, इस अर्थ में बौद्धिक संपदा के अधिकार की बात बेमानी है, मैंने पहले ही कहा जहां औसत आय 15000 हो वहां लाखों का वेतन अनुचित है। मैंने ऊपर कहा कि श्रमिकों (बौद्धिक या भौतिक श्रम बेचकर रोजी कमाने वाला हर व्यक्ति श्रमिक होता है) ऊंची नीची वैतनिक कोटियां पूंजीवाद की चाल है उसी तरह जैसे जातियों की सामाजिक ऊंची-नीची कोटियां ब्राह्मणवाद की। अमेरिका में 1991 में सबसे नीचे के 20 फीसदी और सबसे ऊपर की 20 फीसदी में आय का अनुपात 1:78 था जो अब बढ़ा ही होगा, ये खुद वैसे भ्रामक कोटियां हैं। इसीलिए साम्यवाद का प्रस्तावित फार्मूला है -- हर किसी सेक्षमता के अनुसार काम तथा हर किसी को आवश्यकता अनुसाकर भुगतान।

छोटा-मोटा कारोबारी न पूंजीपति होता है न मजदूर उसे मार्क्सवादी शब्दावली में पेटी बुर्जुआ कहा जाता है।

लल्ला पुराण 283 (कृषि उद्योग)

कृषि के महत्व पर एक पोस्ट पर एक मित्र ने कहा कि नेहरू ने कृषि की बजा. उद्योग को बढ़ावा दिया, उस पर :

उद्योग भी जरूरी हैं, जब पाकिस्तान समेत बाकी पूर्व उपनिवेश औद्योगिक पिछड़ेपन के चलते नव उपनिवेश बन गए थे तब नेहरू की औद्योगिक नीति के चलते भारत आत्मनिर्भरता से आगे निर्यातक भी बन गया। सबसे अधिक विकास कृषि उद्योग का हुआ। हमारे यहां रहट और बाद में ट्यूबवेल ने खेती ने खेती की काया पलट कर दिया। पहले आलू-प्याज और बरसाती सब्जियों के अलावा सब्जी के लिए बाजार की ही निर्भरता थी। रहट और फिर ट्यूबवेल के बाद बारहों महीने अपने खेत की सबजी पर्याप्त से अधिक होने लगी, मसाले भी। नहरों के इलाकों की पूछना ही क्या? खलिहानों के आकार दो गुना हो गए।

Saturday, March 28, 2020

लल्ला पुराण 282 (कोरोना)

कोरोना की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने कहा आलोचना की बजाय समाधान दूं। उस पर:

मैं विशेषज्ञ नहीं हूं, मैं राजनैतिक दर्शन का प्रोफेसर था, मेडिकल और जीवविज्ञान का ज्ञान आम आदमी की तरह है। विशेषज्ञों से जरूरतों की लिस्ट बनवानी चाहिए। अभी डॉक्टर बता रहे हैं विंटीलेटर की बहुत जरूरत है, एक कंपनी कह रही है वह सरकार को पर्याप्त मात्रा में विडिलेटर बनाकर दे सकती है, उससे बात की जानी चाहिए। स्रेन ने सभी अस्पतालों का अस्थाई तौर पर राष्ट्रीयकरण कर लिया है, उस पर विचार करना चाहिए। जो मजदूर काम की जगहों से भाग रहे हैं उन्हें मजदूरी के लिए आश्वस्त तथा उनके रहने-खाने की न्यूनतम व्यवस्था करनी चाहिए। जो घर जा सतके हैं जाना चाहते हैं उन्हें सैनिटाइज्ड वाहनों में भेजने का प्रबंध करना चाहिए, झारखंड सरकार की तरह। यह तो एक आम आदमी की सलाह है लेकिन विशेषज्ञ सलाह लेकर उस दिशा में काम करना चाहिए। चीन ने खतरे की चेतावनी दिसंबर में ही दे दी थी, राहुल गांधी ने 31 जनवरी को चेताया, लेकिन सरकार ट्रंप की वफादारी और ध्रुवीकरण के लिए दिल्ली में दंगों के प्रबंधन में व्यस्त थी। देर आए तब भी दुरुस्त आना चाहिए, ठोस कदम की जरूरत है रामायण की नहीं। रामायण भी दिखाइए लोगों का ध्यान बंटेगालेकिन जनता की मांग का बहाना मत कीजिए, परेशान जनता चिकित्सा और राहत की मांग करेगी, सारियल की नहीं।

लल्ला पुराण 281 (राम)

रामायण को लेकर मैंने तो किसी को हाय हुसेन करते नहीं देखा, जावेडकर का जनता की मांग (पॉपुलर डिमांड) का ट्वीट पढ़कर जिज्ञासा जरूरहुई कि इस महामारी से त्रस्त एकांत वास के इंतजाम में फंसी जनता सीरियल की मांग करने प्रसारण मंत्री के पास पहुंच गयी? वैसे राम से कौन बराबरी कर सकता है जिसके जन्मस्थान की मुक्ति के नाम पर देश में कोहराम मच गया और मस्जिद ढहने के पहले ही उप्र में उनके नाम पर सरकार बन गयी जिसने भक्तों को उनके जन्मस्थान पर बनी मस्जिद ढहाने की सुविधा प्रदान करके अपनी बलि दे दी, जिसके बाद उनकी सेना के आधुनिक भालू बंदरों ने अयोध्या से बंबई तक राक्षसों (मुसलमानों) का संहार किया। राक्षसों के संहार की अगले एपीसोड का वेन्यू गुजरात शिफ्ट हो गया। राक्षसों का संहार छिटपुट जारी रहा, मुजफ्फरपुर में एक राक्षस ने फिर रावणी कृत्य किया और राम की सेना के जवाब की दस्तक से दिल्ली की गद्दी कब्जे में आ गयी। अब तो देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी जन्मस्थान की प्रामाणिकता पर मुहर लगा दी, आप किसी को ऐसा कुछ करने की चुनौती दे रहे हैं कि लोग राम के पहले उसका नाम लें।

Friday, March 27, 2020

लल्ला पुराण 280 (कोरोना)

एक ग्रुप में ट्रंप के महिमामंडन के साथ कोरोना प्रकोप को विश्व अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व की चीनी साजिश बताते हुए घूम रहे एक व्हाट्सअप मेसेज पर:

पहली बात कि चीन एक पूंजीवादी देश है। चीन ने इस महामारी के आगाज के बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसके शमन की तैयारी के साथ दुनिया को वैज्ञानिक एहतियात की चेतावनी दी थी। चीन ने जान-माल के कुछ नुक्सान के साथ अब तक महामारी पर नियंत्रण पा लिया, बेजिंग समेत तमाम इलाकों को इसके कहर से बचा लिया। क्यूबा, बेनेजुएला, वियतनाम ने चेतावनी को समझा और बचाव के वैज्ञानिक उपाय अपनाए और कहर से बच गए। कॉरपोरेटी अहंकार में अमेरिका, ब्राजील और यूरोप के कई देशों ने इस चेतावनी को चीनी चाल समझ नजरअंदाज किया और चपेट में आ गए। क्यूबा पर आर्थिक नाकेबाजी में अमेरिकी नेतृत्व में इटली, इंगलैंड भी शामिल थे। लैटिन अमेरिकी देशों के अलावा क्यूबा के डॉक्टर इटली में महामारी से निपटने में लगे हैं। कैरीबियन सागर में संक्रमण ग्रस्त इंगलैंड के क्रूज को जब कोई देश अपने तट पर लगने की अनुमति नहीं दे रहा था तो क्यूबा ने उसे अपने तट पर अनुमति दी तथा मरीजों का इलाज करके क्रूज को वापस भेजने का इंतजाम किया। इस तरह के व्वाट्सअप खबरे सीआईप्रायोजित किस्म की अफवाहें लगती हैं। भक्तिभाव प्रधान इस देश में लगता है, ट्रंप भक्तों की भी कमी नहीं है।

लल्ला पुराण 279 (शाहीन बाग)

किसी ने सवाल पूछा क्या अफगानिस्तान में गुरुद्वारे पर हमला शाहीन बाग के सीएए विरोध से जुड़ा नहीं है? उस पर:

बिल्कुल नहीं, दोनों में (अफगानिस्तान में गुरुद्वारा में हमले और शाहीवन बाग) कोई संबंध नहीं है। ये सिख अतीत में जाकर 2014 में तो यहां न आ जाते! सीएए फासीवादी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार भर है। इजरायल के जरिए अमेरिका द्वारा प्रायोजित आएसएस के नरपिशाचों का अमानवीय तांडव कब से जारी है, संयोग से इस बार पीड़ित सिख हैं। सीएए का विरोध हिंदू और सिख भी कर रहे हैं, भाजपा के सहयोगी अकाली दल तक ने अपना विरोध दर्ज किया है। दोनों को जोड़ना सांप्रदायिक साजिश है। शाहीन बाग एक मुहल्ले की महिलाओं की पहल थी। सांप्रदायिक मानसिकता दुनिया में कुछ भी बुरा हो उसे शाहीन बाग से जोड़ देगी।

बेतरतीब 65 (दूसरी बेटी)

एक मित्र ने कहा कि मैडम (मेरी पत्नी) को स्वतंत्रता के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा होगा? उस पर:

आपकी यह बात कि मैडम को काफी संघर्ष के बाद स्वतंत्रता मिली होगी तो उनकी स्वतंत्रता का संघर्ष भी मैंने ही किया। अपने सिद्धांतों की परख तभी होती है जब अपने ऊपर लागू होती है। दुनिया में नारीवाद का पताका फहराने के पहले अपने घर में फहरना चाहिए। मेरी शादी लगभग बचपन में, इवि आने के पहले हो गयी थी, शादी का फैसला मेरा नहीं था लेकिन निभाने का फैसला मेरा था। आपको चुनाव की आजादी और सामाजिक उत्तरदायित्व में सामंजस्य और संतुलन बनाना होता है। किसी भी रिश्ते का असली आनंद तभी आता है जब वह जनतांत्रिक, समतामूलक औक पारदर्शी हो। लंबे समय हम अलग रहे मैं हॉस्टल में वे घर। जब हम साथ रहना शुरू किए और मैं बर्तन धोने से शुरू किटन का काम करता तो उनके संस्कारों को आघात लगता, अब उल्टा है। इस ग्रुप के जो भी मित्र घर आए हैं वे गवाह हैं कि उनके लिए चाय मैंने ही बनाया होऊंगा। मेरी दूसरी बेटी नियत समय से पहले पैदा हुई तो मैं किसी काम से जोधपुर से लौटा था, जेब में 10 रुपए थे। लगा कि अभी उत्सव नहीं मनाऊंगा तो लोग कहेंगे कि देखो बड़का नारीवादी बनता है, दूसरी बेटी हुआ तो दब गया। बाइक में किक मारा और पेट्रोल पंप से 10 रुपए का पेट्रोल (लगभग 1 लीटर) डलवाकर एक मित्र के ऑफिस पहुंचा और उससे 1 हजार उधार मांगा। तब एक हजार काफी होता था, उसने कहा, इतने पैसे क्या करोगे? मैंने कहा अबे विश्व बैंक हो गए हो जो प्रोजेक्ट डिटेल जानकर दोगे, उधार मांग रहा हूं, लौटा दूंगा। खैर उसने पैे दिया और मैं पालिका बाजार से नवजात के इफरात कपड़े और बंगाली मार्केट से मिठाइयां खरीदा। मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाओं में एक है, सिद्धांत-व्यवहार की एकता।

लल्ला पुराण 278 (चीन)

Raj K Mishra चीन में पूंजीवादी पुनरस्थापना 1977-78 में शुरू हो गयी थी। चीन में भिखारीपन, बेरोजगारी, वेश्यावृत्ति, बहुपत्नी प्रथा आदि बुराइयां गधे की सींग की तरह गायब हो गयीं थी, कम्यूनों के विघटन और निजी स्वामित्व के साथ सब बुराइयां वापस हो गयीं। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान देंग आदि पूंजीवाद-पथगामी नेताओं को पार्टी के पदों से हटाया गया था, इन्हें पर्ज नहीं किया गया था जो शक्ति अर्जित करते रहे और माओ के मरने के बाद सत्तासीन हो गए। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी एक अधिनायकवादी दल है तथा चीन एक साम्राज्यवादी देश। थिएनमन स्क्वायर छात्र आंदोलन समाजवादी आजादी का आंदोलन था। मैंने उस समय मंथली रिविव में एक लेख लिखा था -- स्टूडेंट्स मूवमेंट फॉर सोसलिस्ट फ्रीडम। इस समय क्यूबा को छोड़कर कोई समाजवादी देश नहीं है।

Thursday, March 26, 2020

लल्ला पुराण 277 (योंही)

Vibha Pandey मैं तो नास्तिक हूं, मेरे दादा जी कट्टर कर्मकांडी थे दादी बिना स्नान और पूजा जल नहीं ग्रहण करती थीं, मां भी। मेरे साथ ही रहती थीं, बेटी से कहता कि तुम कितनी भाग्यशाली हो कि बाप की दादी के साथ रहती हो। 100 के आस-पास तक रहीं। मेरी पत्नी पहली बार 9 दिन का ब्रत नहीं रख रहीं। मुझे धार्मिकता से कोई परेशानी नहीं है। मेरी पत्नी रोज एक घंटे पूजा करती हैं। जो बच्चचे दादा-दादी के जितने दुलारे होते हैं वे मां-बाप को भी उतना ही प्यार करते हैं। मेरी दोनों बेटियां कष्टदायक हद तक प्यार करती हैं।

Paritosh Singh मैं कहां कह रहा हूं जो मैं कह रहा हूं, वही सही है। मैं तो अपनी गलती दुरुस्त करने के लिए हमेशा राजी रहता हूं। ऊपर मैंने यही कहा कि हर धर्म, जाति में हर तरह के लोग होते हैं, किसी धर्म या जाति के आधार पर किसी प्रवृत्ति को generalize नहीं किया जा सकता।


रही बात रोटी बनानाे की तो उसमें कौन सी कला है, जब बनाना होगा तो बेटी बना लेगी, वैसे ही जैससे मैं बना लेता हूं। लेकिन बेटी ही रोटी बनाए यह जरूरी नहीं है।

Paritosh Singh हम तो किसी की आस्था का मजाक नहीं उड़ाते। बेबात ईशु-मुहम्मद अभुआऊंगा तो नहीं। एक नास्तिक के लिए कोई भगवान ही जब नहीं होतातो उसके पैगंबर या अवतार कहां से आएगे? सारे धर्मों के कठमुल्ले एक से ही होते हैं इस पर लिखते हो तो उस पर क्यों नहीं? जो भी संदर्भ होगा उसी पर कमेंट करेंगे, जो जानते हैं वही लिखेंगे। मेरे गांव में एक बार मेरे खानदान के एक सज्जन ने मंदिर के लिए चंदा मना करने पर बोले ये मस्जिद के लिए देंगे। अरे मान्यवर, मंदिर के लिए चंदा न देने का मतलब मस्जिद के लिए चंदा देना नहीं होता। अरे भाई संघी न होने का मतलब मुसंघी होना नहीं होता ।

Paritosh Singh अच्छा हुआ सब सीख गए। मेरा मानना है बिना कुछ दिन हॉस्टल में रहे छात्रजीवन अधूरा रह जाता है। मैं भी 12साल की उम्र में गांव से शहर (जौनपुर) आ गया, खाना तो मेस में खता था लेकिन बाकी काम करने ही पड़ते थे। इंचर के बाद इलाहाबाद आ गया तब हॉस्टल में मेलस चलता था। 18 साल में पिता जी से मतभेद और उनकी राय न मानने से उनसे पैसा लेना बंद कर दिया, तबसे अपने बल पर अपनी, भाई तथा बहन की पढ़ाई का इंतजाम किया, इन सबसे आत्मविश्वास अपार हो गया तथा भगवान से भरोसा हटने से अद्भुत आत्मबल का एहसास हुआ, उसी एहसास के साथ 65 की उम्र तक पहुंच गया। इस नतमस्तक समाज में थोड़ सर झुकाकर चलना सीख लेता तो 10 साल पहले नौकरी मिल जाती। लेकिन हर शौक की कीमत चुकानी पड़ती है।

Wednesday, March 25, 2020

लल्ला पुराण 276 (ईश्वर)


Arvind Rai मेरा भी सैद्धांतिक रूप से कई (परदादा के दादा की पीढ़ी) पीढ़ियों से संयुक्त परिवार है, मेरे दादा उस लाइन में अकेले थे, पिता जी दो भाई हम सगे-चचेकरे मिलाकर बहुत भाई-बहन, लेकिन एक चचेरे भाई को छोड़कर सभी शहरों में पलायन कर चुके हैं। आपकी अंतिम बात से सहमत हूं कि आस्था मनोबल बढ़ाती है. यही बात मार्क्स भी कहते हैं। धर्म हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, मजलूम की आह है। 'जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है यारों'। लेकिन जो जान गए हैं खुदा नहीं होता उन्हें मनोबल बढ़ाने के लिए आत्मबल का ही सहारा है, जिन्हें आत्मबल का एहसास हो जाता है उन्हें खुदा के सहारे की जरूरत नहीं होती, मिलता भी नहीं, मिल ही नहीं सकता।

किसी के माध्यम से करे, सही क्यों नहीं करता? कोरोनो वायरस क्यों फैलाया जिससे तमाम देशों में लॉक डाउन करना पड़ा और जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया? पहले से ही मंदी की मार झेलती अर्थ व्यवस्था को पीछे धकेल दिया? महाभारत इतिहास नहीं पौराणिक महाकाव्य है जिसमें कृष्ण युद्ध का उपदेश देते हैं। युद्ध के विनाश के बाद कुछ नहीं बचता, कृष्ण के परिजन आपस में मर-कट जाते हैं तथा कृष्ण खुद एक बहेलिए के हाथ मारे जाते हैं।

Rupesh Shukla कर्म-करण (cause-effect) का समीकरण वैज्ञानिक है, इसमें ईश्वरका कोई योगदान नहीं है। सभी समीक्षाओं की शुरुआत धर्म की समीक्षा से शुरू होती है और धर्म की आलोचना की शुरुआत िस बात से कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया, इसीलिए उसका स्वरूप और चरित्र, जैसा ऊपर कहा, देश-काल के हिसाब से बदलता रहा है। फिलहाल पैगंबर मुहम्मद द्वारा खोजा गया ईश्वर नवीनतम है, उसके बाद राम-रहीम जैसे बहुतों ने खुद को खुदा घोषित किया लेकिन सार्वभौमिक मान्यता नहीं मिली। हमारे देवी-देवताओं में, मेरी जानकारी में, संतोषी माता नवीनतम हैं जिनकी उत्पत्ति, 1980 के आस-पास इसी नाम की एक फिल्म से हुई।

ईश्वर विमर्श 92 (ईश्वर)

इवि में बीएससी में था तो मेरी पेन खो गयी थी, ईश्वर की बहुत मिनन्तें की लेकिन नहीं मिली, फिर लगाकि जब एक पेन खोजने जैसा छोटा काम ईश्वर नहीं कर सकता तो और क्या करेगा? हा हा। यह देश वैसे ही चल रहा है जैसे बाकी देश। अब अगर ईश्वर है तो कोरोना का विनाशकर दे! अगर ईश्वर ही देश चला रहा है तो न्यायपूर्ण ढंग से क्यों नहीं चलाता? ईश्वर की राय से बुश ने इराक़ पर हमला किया और ईश्वर के आदेश से सद्दाम हमले के विरुद्ध बिना लड़े जान दे दी? ईश्वर अलग अलग देश अलग अलग ढंग से क्यों चलाता है? जो आत्मबल प्राप्त कर लेता है, उसे ईश्वर की बैशाखी की जरूरत नहीं होती, ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से ईश्वर की अवधारणा का निर्माण किया। इसीलिए देश-काल के अनुसार उसका स्वरूप और चरित्र बदलता रहा है। पहले ईश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था अब सबल की -- जो अपनी मदद कर सकता है, Survival of fittest.

ईश्वर विमर्श 91 (वोल्तेयर)

अभी अभी सरोज जी (पत्नी) ने नवरात्रि के पहले दिन का व्रत तोड़ने की पूजा समाप्त करेत हुए दुर्गा चालिसा की एक चौपाई का इंप्रोवाइजेसन करते हुए दुर्गा मैया से कोरोना के विनाश के चमत्कार की प्रार्थना की। दुर्गा जी इसलिए थोड़े बनी हैं। वोल्तेयर की बात याद आई लेकिन दिन भऱ के ब्रत के तुरंत बाद उनसे यह बात शेयर करना उचित नहीं समझा। वैसे उचित तो यहां भी नहीं है, लेकिन अरविंद तो बजरंगबली के भक्त हैं देवी दुर्गा जी के नहीं। वोल्तेयर यूरोपीय प्रबोधन आंदोलन के एक प्रमुख फ्रांसीसी दार्शनिक थे, नागरिक स्वतंत्रता के प्रखर पैरोकार, प्रशासन तथा ईशाइयत के समालोचक होने साथ के खुदा-नाखुदाओं के विरुद्ध भी बोलते रहते थे। जेल-वेल भी गए और देश निकाला भी झेला। भूमिका लंबी हो गयी लेकिन अब हो ही गयी तो थोड़ा और। 'आपकी हर बात से मैं असहमत हूं लेकिन अंतिम सांस तक इसे अभिव्यक्त करने के आपके अधिकार के लिए लड़ूंगा' ('I disapprove of what you say, but I will defend to the death your right to say it.') यह बात युवा वोल्तेयर ने एक अंग्रेज लेखक बीट्रिस हाल से कही थी। खैर जिस बात के लिए उनकी याद आई और जिसने उनके आस्तिक समकालीनों को अवाक कर दिया था, वह ईश्वरके अस्तित्व को लेकर है। समाज में मौजूद बुराइयों के संदर्भ में उन्होंने कहा यदि ईश्वर है और बुराइयां दूर नहीं करता तो तीन बातें हो सकती हैं -- 1. वह बुराइयां दूर करना तो चाहता है लेकिन कर नहीं पाता, फिर कैसा सर्वशक्तिमान; 2. कर तो सकता है लेकिन करना नहीं चाहता, जो दुराचार (wickedness) है; 3. न कर ही सकता न करना ही चाहता, जो दुृराचारके साथ सर्वशक्तिमानत्व का भी खंडन है। इसका किसी के पासजवाब नहीं था। दुर्गा जी के कोरोना विनाश के चमत्कार के बारे में कुछ नहीं कहूंगा। वोल्तेयर ईशाइयों वाले भगवान को कहा था। अरविंद जी से बिना गलती के ही माफी मांग लेता हूं।

लल्लापुराण 275 (मिडिल क्लास)

समस्या का समाधान खैरात नहीं है,जनोन्मुख नीति है। करोड़ों दिहाड़ी मजदूर कहां जाएंगे? यातायात बंद हो गया, काम से बेदखल मजदूर, रेड़ी-पटरी वाला अपने गांव कैसे जाए? रोज कुंवा खोद पानी पीने वाले रिक्शा, बैटरी रिक्शा वाला कहां जाए? मध्य वर्ग तो 21दिन का इंतजाम कर लेगा, गरीब क्या करे? लॉक डाउन की घोषणा करते समय सरकार को इनका भी इंतजाम करना चाहिए था।

इसे अपने पर न लें, मिडिल क्लास क्रांतिकारी हालात में पाला बदलता है लेकिन उसके अलावा वह एक ऐसा क्लास होता है जो देश की किसी समस्या के लिए सरकार से सवाल पूछने के बजाय पब्लिक को ही दोषी ठहराता है जिसमें वो ख़ुद भी शामिल होता है या दो चार की संख्या में सरकार से सवाल पूछने वाले लोगों को गाली देने लगता है! देश के करोड़ों ग़रीबों के लिए इनकी संवेदना इतनी निर्मम हो चुकी है कि वो उनको पुलिस द्वारा पिटते देख खुश होता है, ख़ुद घर में राशन लाकर भर लिया है लेकिन जिनको रोज़ कमाना, रोज़ ख़रीदना होता है उनके लिए कुछ कह रहे हैं कि जो बाहर दिखे उसे गोली मार दो, कुछ उनकी पुलिस से ढंग से सुताई करवाना चाहते हैं! ... कोरोना का गुस्सा ये सरकार द्वारा शुरू में की गयी लापरवाही या अब की जा रही बदइन्तज़ामी पर सवाल करने के बजाय सवाल करने वालों पर उतारते हैं।

मैं भी मिडिल क्लास ही हूं, 4 दिन में आज घर से गाड़ी में निकला सोसाइटी के अंदर सफल की सब्जी की दुकान में लाइन में लगने के लिए .. ... लेकिन
सरकार से ज़्यादा क्रूर तो ये मिडिल क्लास हो चला है जो सवाल करने वालों की मॉब लिंचिंग तक कर गुजरने तक असंवेदनशील हो चुका है!

लल्ला पुराण 274 (कोरोना)

राहुल गांधी कितना भी बड़ा पप्पू है लेकिन संवेदनशील है, उसने बहुत पहले टअवीट कर चेताया था लेकिन सरकार हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के ध्रुवीकरण के लिए दंगा प्रबंधन में व्यस्त थी, समय से कदम उठाए गए होते तो पैनिक की स्थिति शायद न आती। शायद इसलिए कह रहा हूंकि मेरा मेडिकल ज्ञान खास नहीं है। वैसे मुझे इसके पूंजीवाद के मौजूदा संकट से संबंध होने का संदेह होता है। क्योंकि इस संकट का हल नव उदारवाद में दिखता नहीं। आर्थिक मंदी भारत का ही नहीं भूमंडलीय संकट है। इस महामारी के संकट से उत्पन्न लॉक डाउन से उत्पादन पर लगी रोक सेे दुनिया भर के पूंजीपतियों और व्यापारियों को सारा पुराना माल खपा देने का स्वर्णिम अवसर मिल गया है। सेनेटाइजर जांच किट व दवाइयों की दुगने व चार गुने दामों पर बिक्री से भारी मुनाफा पैदा किया जा रहा है। आलू 40 रुपए में देकर बोला 50 का बिक रहा है। किराने की दुकानों पर लगी कतारें नोटबंदी के समय एटीएम के बाहर की कतारों की याद दिला रही हैं। यातायात बंद होने से मजदूर अपने घर नहीं जा पा रहे हैं। सब्जी व अनाजों की थोक आपूर्ति बाधित हो जाने के कारण इनके दाम बढ़ गये हैं।अगले तीन हफ्ते में थोक व खुदरा मंहगाई कहाँ तक पहुंचती है इसका अनुमान लगाया जाना मुश्किल नही है। पिछले (1930) के महासंकट से उदारवादी पूंजीवाद (अहस्तक्षेपीय राज्य) को ध्वस्त होने से युद्ध और केंन्स (कल्याणकारी राज्य) ने बचाया था। फिलहाल तो भूमंडलीय नवउदारवादी पूंजीवाद में कोई खेवनहार सिद्धांत दिख नहीं रहा है, वैकल्पिक व्यवस्था समाजवाद की ताकतें नदारत हैं। देखते हैं आगे क्या होता है? 21 दिन के लॉकडाउन के आर्थिक कुप्रभाव से निपटने में कितना वक्त लगेगा कहा नहीं जा सकता। आस्ट्रेलिया की उदारवादी सरकार ने सोसल सेक्टर का बजट बढ़ा दिया और चिकित्सकीय गतिविधियां तेज कर दी लेकिन लॉक डाउन से इंकार कर दिया लेकिन उसकी आबादी उप्र की आबादी के दशमांश से थोड़ा ही अधिक है।

मार्क्सवाद 206 (साम्यवाद)

कोरोना के कहर से निपटने में क्यूबा के डॉक्टर-नर्सों की भूमिका पर एक लिंक की पोस्ट पर एक मित्र ने कमेंट किया कि क्यूबा का साम्यवाद चीन के साम्यवाद से भिन्न है, उस पर:

चीन में अब साम्यवाद नहीं है। साम्यवाद कहीं नहीं है, साम्यवाद भविष्य की व्यवस्था है। नामकरण की सुविधा के लिए पूंजीवाद से साम्यवाद की संक्रमणकालीन व्यवस्था को समाजवाद कहा गया। पूंजीवादी जनतंत्र में राज्य पूंजीपतियों के सामान्य हित (मुनाफा) के प्रबंधन की कार्य समिति होता है, सामाजवादी जनतंत्र में पूंजी जनहित में राज्य नियंत्रित होती है। राज्य के नियंत्रण में पूंजी का नियोजित विकास निजी स्वामित्व के पूंजी के विकास से बेहतर होता है, पूर्व सोवियत संघ इसका ज्वलंत उदाहरण था। पूर्व सोवियत संघ, चीन, क्यूबा में पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच संक्रमणकालीन व्यवस्थाएं थीं -- पूंजीवाद में ही जनवादी जनतंत्र। लेनिन ने इसे जनता का जनतंत्र नाम दिया था तथा माओ ने नया जनतंत्र। साम्यवाद भूमंडलीय पूंजीवाद की वैकल्पिक व्यवस्था है, इसलिए जब भी आया तो भूमंडलीय होगा। भविष्य की व्यवस्था की रूपरेखा तो भविष्य की पीढ़ियां तय करेंगी, लेकिन पूंजीवाद का अंत तो निश्चित है क्योंकि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत भी अवश्यंभावी है, पूंजीवाद अपवाद नहीं है। यह अलग बात है कि इसकी कोई समयसीमा नहीं तय की जा सकती, इतिहास का गतिविज्ञान ज्योतिष के नियम से नहीं चलता। सामंतवाद से पूंजीवाद का संक्रमण एक वर्ग समाज से दूसरे वर्ग समाज का संक्रमण था। पूंजीवाद से साम्यवाद का संक्रमण गुणात्मक रूप से भिन्न -- एक वर्ग समाज से वर्गहीन समाज का संक्रमण है।

Tuesday, March 24, 2020

बेतरतीब 64 (हॉस्टल)

यह एक कमेंट पोस्ट के रूप में पोस्ट कर रहा हूं, मैं 3 साल पॉस्टल का वार्डन था और मेरे आने के पहले हर तीसरे दिन पुलिस आती थी, मैं सोच कर आया था कि बच्चों की नाक की लड़ाई की विभाजन रेखा डिलीट कर दूंगा। एक ग्रुप में किसी ने कहा बिना गुंडों के गुंडों से नहीं निपटा जा सकता, उनका इस्तेमाल कर उन्हें दूध की मक्खी की तरह भले फेंक दिया जाए। उस पर:

मैं मैंने बिना गुंडे-मवालियों और बिना पुलिस के हॉस्टल में गुंडा गर्दी खत्म की थी। सारे तथाकथित गुंडों को खुली चुनौती दी थी कि 46 किलो का आदमी हूं, अकेले घूमता हूं, जिसमें दम है मुझसे गुंडई करे। 6 महीने में सभी गुंडागर्दी (गिरोहबाजी) छोड़ शरीफ हो गए। एक बार दो साल बाद (दोनों गिरोहों के) बच्चे घर मिलने आए, एक लड़के (आजकल आईआऱएस है) ने पूछा "सर एक बात पूछूं बुरा नहीं मानेंगे?" बोला "सर हम 50-60 लोग हॉकी-रॉड आदि से मार-पीट कर रहे होते थे और आप 12 बजे रात को अकेले बिना पुलिस के हमारे बीच में घुस आते थे"? मैंने पूछा कि उनकी सिट्टी क्यों गुम हो जाती थी? एक दूसरे ने (आजकल मप्र पुलिस सेवा में है) ने कहा "सर बुरा मत मानिए, आप की आवाज सुनते ही हमारी फटने लगती थी"। भाषा के लिए प्यार से डांट कर बोला जिसे बाद के बैच वाले डायलॉग बना लिए। "सत्ता का भय होता है, ईमानदारी का आतंक", जिसे संपादित कर मार्क्स पर एक लेख में लिखा, "सत्ता का भय होता है विचारों का आतंक"। हॉस्टल की वार्डनशिप के मेरे 3 साल बहुत खूबसूरत थे। हॉस्टल के किसी अनुभव पर एक पोस्ट डाला था जिस पर उस समय के हॉस्टल में रहे अब अच्छे पदों पर स्थित दर्जनों छात्रों ने कमेंट किया था। हॉस्टल में जाते समय मैं 3 बातें तय करके गया था । 1. छात्रों की नाक की लड़ाई (गुंडागर्दी) समाप्त कर दूंगा; 2. जिस दिन पुलिस बुलाना होगा अपना सामान पैक करूंगा (अपने छात्रों से निपटने के लिए पुलिस बुलाना पड़े तो आप के शिक्षक होने में खोट है); 3. किसी भी छात्र को रस्टीकेसन का सम्मान नहीं दूंगा। हमारे बच्चे समझदार युवा हैं, अपराधी तो हैं नहीं। इस उम्र में इतना ऊर्जा होती है कि कुछ दादा-भैया की अस्मिता बनाने में खर्च कर देते हैं। उन्हें इस ऊर्जा का रचनात्मक, सकारात्मक इस्तेमाल समझा दीजिए। इसीलिए कहता हूं कि आधे शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ जाएं तो आधी क्रांति ऐसे ही हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादातर महज नौकरी करते हैं। खैर फेयरवेल तक तीनों काम सुचारु रूप से हो गए। अगले 2 साल अपने चुनाव समेत सब काम बच्चे ही करते रहे, मैं बेरोजगार ही रहा। सारे कर्मचारी और छात्र आज भी उन 3 सालों को याद करते हैं। आज भी हॉस्टल में बच्चों में उस समय की कहानियां किंवदंतियों के रूप में प्रचलित हैं। जिन बच्चों की ज्यादा 'क्लास' लिया वे उतनी ही ज्यादा इज्जत से याद करते हैं। मेरे वार्डन न रहने पर बच्चे होली मिलने अपने वार्डन के घर न जाकर मेरे ही घर ढोल-मजीरा लेकर आ जाते थे। बाजार की मिठाई के अलावा 6-7 किलो गुझिया घर पर बनती थी। इस बार की होली में पत्नी दुखी थी कि ज्यादा गुझिया नहीं बनाया। एक शिक्षक को बल की नहीं नैतिक बल की जरूरत होती है। कोई भी छात्र किसी शिक्षक के साथ असम्मान का व्यवहार नहीं कर सकता।

Sunday, March 22, 2020

लल्ला पुराण 273 (कोरोना और ताली)

पोस्ट और कमेंट्स की फिरकापरस्त, मर्दवादी तथा कब्रिस्तानी अमानवीय संवेदना की भाषा में ही वैज्ञानित बुद्धिमत्ता झलक रही है। मुझे लगता नहीं किसी ने कहा थाली बजाने से विज्ञान की हत्या हो जाएगी, किसी ने तंज इस बात को लेकर किया होगा कि महामारी के समय राष्ट्र के नाम राष्ट्राध्यक्ष के संदेश में लोगों को इससे निपटने की तैयारियों और योजनाओं की अपेक्षा होती है, प्रभावित होने वालों के लिए केरल की तरह किसी राष्ट्रीय पैकेज की घोषणा की उम्मीद होती है, लगभग निजीकरण की गिरफ्त आ चुके मेडिकल संस्थानों को टेस्ट और चिकित्सा के रियायती निर्देश की अपेक्षा होती है, साथ में ताली-थाली बजवा लो। मनुष्य के विवेक और मानवीयता की तुलना मेंभावनाओं और आवेश को अपील करना आसान होता है। विज्ञान और आस्था परस्पर विरोधी हैं। बुद्धिमत्ता तथा नैतिकता में विवेक और अंतःआत्मा का योग होता है। भावना में बहकर इंसान कई बार अविवेकी काम कर जाता है। इसरो के निर्देशक के निजी रूप से मंदिर जाने से किसी को कोई आपत्ति नहीं है, सार्वजनिक वैज्ञानिक उपक्रम की सफलता के लिए वैज्ञानिक कौशल की बजाय धार्मिक कर्मकांड की आस्था पर निर्भरता का सार्वजनिक प्रदर्शन निश्चित ही आपत्तिजनक है। ताली बजाने की बात के लिए 'मोमिनो की मां ही क्यों मिली? खैर मैं जानता हूं इस कमेंट पर तोहमतों की भरमार होगी।

Saturday, March 21, 2020

लल्ला पुराण 272 (उम्र)

इस ग्रुप में गौरवशाली भारतीय संस्कृति के वाहक कुछ संस्कारी (सवर्ण पुरुष) लोग मेरी उम्र पर तंज करते रहते हैं। प्रकृति (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) का एक नियम है कि परिवर्तन एक निरंतर प्रक्रिया है, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन परिपक्व होकरं क्रांतिकारी, गुणात्मक परिवर्तन में तब्दील होता है। दूसरा संबंद्ध नियम है जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत निश्चित है। जो भी पैदा हुआ है वह जवान होगा; बुड्ढा होगा और मरेगा। उम्र छिपाने की कोशिस नहीं करता, सफेद दाढ़ी की प्रोफाइल पिक लगाया हूं दिवि से रिटायर हो गया हूं यानि सरकारी कागजात के अनुसार, पैंसठिया चुका हूं तथा जन्मकुंडली के अनुसार, 26 जून 1955 को पैदा हुआ था और जून 2020 में पैंसठिया जाऊंगा। दिल के दो दौरों के बावजूद, इस उम्र में भी दिमाग ठीक-ठाक काम करता है (ऐसा मुझे लगता है) तो जो भी समीक्षा करना हो मेरी बातों की करें, उम्र की नहीं।
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बेतरतीब 63 (बचपन 12)

लखनी खेलते समय पेड़ से गिरने वाली बात शेयर करने का मन कर रहा है। घर के पास नदी के किनारे एक जामुन का एक बहुत बड़ा पेड़ है। एक तरफ की डालों के नीचे कंकड़ीली जमीन थी और दूसरी तरफ की डालों के नीचे नदी। उसी जामुन पर हम लोग लखनी खेल रहे थे। 9-10 साल का रहा होऊंगा। . एक हम उम्र दामोदर पत्ता खींचने की लॉटरी से पहले चोर थे, उन्होने कहा कि कि मुझे ही छुएंगे और मैं ऊपर चढ़ता गया,नदी की तरफ बहुत ऊपर छढ़ गया था। दूसरी तरफ की डालों पर चढ़ता तो इतनेऊपर से गिरने पर बतानेके लिए शायद ही बचा होता। जामुन की डाल बहुत आरर होता है, हाथ से पकड़ी डाल टूट गई और लगा कि अब गया। मौत जब करीब दिखती है तो मौत का खौफ खत्म हो जाताहै। जीवन रक्षण प्रवृत्ति तेज होती है। एक दम दिमाग में आया कि पानी में गिरते समय पानी काटने के लिए हाथ नीचे कर लेना चाहिए। गुरुत्वाकर्षण बल इतना था कि नदी की तलहटी तक चला गया। नीचे सीप ठोढ़ी में लगी और कट गया ऊपर पानी पर खून तैरने लगा, साथ के लड़के घबरा गए। थोड़ी देर में जब मैं ऊपर आ गया तब सबकी जान में जान आई। जहां कटा था वहां अब भी दाग है तथा उस जगह दाढ़ी नहीं उगती। दामोदर को बहुत अपराधबोध हुआ। सबसे बुरा जो हुआ कि चोट ऐसी जगह थी कि छिपाया नहीं जा सकता था। घर पहुंचकर साफ साफ बता दिया और दादी (अइया) की गोद की सुरक्षा कवच में पहुंच गया तथा डांट खाने से बच गया। माथे पर स्थाई तिलक के अलावा शरीर पर अभी भी बचपन की चोटों के कई निशान हैं। बहुत बचपन में जाता पीसती मां की पीठ पर लदे हुए जाते के हत्थे की नोक से लगी चोट से बने माथे पर बने स्थाई तिलक की कहानी फिर कभी