Saturday, May 28, 2022

 मैंने तो खोमैनी के फतवे और कट्टरपंथियों द्वारा उसके विरोध के चलते सैटनिक वर्सेज के संदर्भ पुस्तकों पर पाबंदी के खिलाफ लिखने के लिए (वह लेख 'अभिव्यक्ति पर सांप्रदायिक घटाटोप', खोजना चाहिए/खोजूंगा) कठिनाई से पुस्तक की फोटोकॉपी का जुगाड़ कर पढ़ा। 'मिड नाइट चिल्ड्रेन' की तुलना में इसकी साहित्यिक स्तरीयता बहुत कम है। मैंने अपने लेख में लिखा था कि लगता है रश्दी और खोमैनी में कोई अनकही मिलीभगत है, प्रतिबंध के चलते पुस्तक की लोकप्रियता बढ़ गयी थी। पुस्तकों पर प्रतिबंध के विरुद्ध हूं, लोगों को पढ़कर खारिज करने दीजिए।


बिना पढ़े किताब और उसके मूल्यांकन-पुरस्कार पर फैसलाकुन राय और लेखक के निराधार चरित्रहनन बौद्धिक अपराध है। अंतर्राष्ट्रीय बुकर्स पुरस्कार से सम्मानित गीतांजलि की रेत की समाधि पढ़ने पर पैसा और समय नहीं खर्च करना चाहते तो बिना पढ़े समीक्षा लिखने से बचिए। पैसा और समय खर्च कर द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स पढ़ा था तो उसकी साहित्यिक समीक्षा कीजिए। थोड़ा दिमाग लगाइए तो पाएंगे गॉड ऑफ स्माल थिंग्स भाई-बहन के संबंधों पर नहीं सीपीएम किस्म की राजनीति पर एक आलोचनातात्मक टिप्पणी है।  

Thursday, May 26, 2022

मार्क्सवाद 264 (मंदिर-मस्जिद)

एक मित्र ने कहा कि उनके कोई मित्र लखनऊ में इमामबाड़ा के हिंदू मंदिर के होने के लिए याचिका दाखिल करने वाले हैं और कि अंदर कई जगह उन लोगों ने निशान खोजा है और कहा कि मैं जामा मस्जिद के पीछे पड़ू। उस पर --

हर युग का शासकवर्ग अपने आंतरिक, कृतृम या मंदिर मस्जिद जैसे गौड़ अंतर्विरोधों को उछालकर मुख्य (आर्थिक) अंतर्विरोध की धार कुंद करने की कोशिस करता है जिससे जनता अंधभक्त बन बिना चूं किए पेट पर लात प्रसाद समझ कर खाती रहे। हम शासक वर्गों की जनता के विरुद्ध इस साजिश में शामिल होने की बजाय जनता को पेट पर लात मारने वाले शासकवर्ग लके विरुद्ध जागृत करने का प्रयास करेंगे। आप अपने शासक आकाओं की सेवा में लोगों को भजन सुनाकर मदहोश कर प्रसाद समझ पेट पर खाते रहने के लिए भ्रमित करने का अभियान जारी रखें, हम उसे नाकाम करने की खोशिस करते रहेंगे।

Sunday, May 22, 2022

बेतरतीब 129 (नास्तिकता की यात्रा)

 गायत्री मंत्र तो हमें अक्षरज्ञान होने तक कंठस्थ हो गया था और बाबा के साथ बैठक में सोता था और वे ब्राह्ममुहूर्त में ही उनसे रामचरित मानस के दोहे-चौपाइयां सुनते और प्राइमरी में पूरा मानस कई बार पढ़ गया टीका पहले पढ़ता और दोहा-चौपाई बाद में। बहुत दिनों तक महाभारत नहीं पढ़ा क्योंकि किंवदंति थी कि महाभारत पढ़ने से घर में झगड़ा होता है, लेकिन पढ़ने का शौक था और घर में यही सब ग्रंथ थे तो मिडिल स्कूल तक पहुंचते-पहुंचते पढ़ ही डाला। गीता भक्तिभाव से कई बार पढ़ा तथा मिडिल स्कूल पास होने तक गीता के कई श्लोक कंठस्थ हो गए थे, 2015-16 में जब सरकार ने इतिहास के पुर्मिथकीकरण का कार्यक्रम शुरू किया तो उस पर लिखने के लिए आलोचक भाव से पढ़ा। छठीं क्लास (1964-65) में 10 साल से कम उम्र में जनेऊ हो गया जो घुटने के नीचे तक लटकने के चलते अटपटा लगता लेकिन एक अनुशासित कर्मकांडी ब्राह्मण बालक की तरह धार्मिक निष्ठा से सुबह उठते ही "कराग्रे बसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती, करमूले तु गोविंदः, प्रभाते कर दर्शनम्" मंत्र के साथ हथेलियां देखकर दिन की शुरुआत कर दैनिक कर्मकांडो का पालन करता था। मुझे किसी ने बताया नहीं था कि किसी भी ज्ञान की कुंजी सवाल-दर सवाल है, जैसा कि मैं अपने छात्रों को बताता था (Key to any knowledge is questioning, question anything and everything beginning from your own mindset), लेकिन बचपन से ही हर बात पर सवाल करने की आदत थी जिसके चलते छुआछूत से शुरूकर धीरे-धीरे मंत्र-तंत्र तथा कर्मकांडी रवायतों से मोहभंग होने लगा। 13 साल की उम्र तक भूत का भय खत्म हो गया तथा चुटिया ओऔर जनेऊ अनावश्यक लगने लगे और दोनों से छुटकारा पा लिया और उसी उम्र में एक सीनियर खो-कबड्डी खेलने के बहाने शाखा में ले गए और कुछ दिन बाल स्वयंसेवक रहा। संघ के प्रचारकों और अधिकारियों का बालप्रेम देख लगा कि यह भी राष्ट्रप्रेम का हिस्सा होगा। 17 साल की उम्र में इलाहाबाद विवि में दाखिला लेने तक ब्राह्मणीय श्रेष्ठता यानि जातिवाद से मोहभंग हो गया था और हर बात पर सवाल करने की आदत से भगवान के भय से नास्तिक हो गया। विशिष्ट परिस्थिति जन्य कारणों से (जिसका विस्तृत वर्णन फिर कभी) विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया यानि मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है। विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के लगभग नीचे पीपीएच की दुकान थी वहां किताबें पढ़कर और युवा मंच के सीनियरों (रवींद्र उपाध्याय, विभूति ना. राय, डीपी त्रिपाठी आदि) से विमर्श-बहस के चलते मार्क्सवाद की तरफ झुकाव हुआ। 2-4-8 आने में खरीदकर कमरे में काफी मार्क्सवादी साहित्य हो गया। 1974-75 में विद्यार्थी परिषद छोड़ने के बाद कुछ वामपंथी छात्र संगठनों में रहा-छोड़ा। 31-32 सालों से बेदल मार्क्सवादी, रोमिला थापर के शब्दों में दार्शनिक (Philosophical) कम्युनिस्ट हूं। अभी संक्षेप में इतना ही, बाकी बाद में। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है तथा बदली चेतना बदली परिस्थितियों का, लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं, मनुष्य के चैतन्य प्रयास से। परिस्थितियां बदलती रहीं और चेतना यानि सोच भी।

शिक्षा और ज्ञान 369 (कट्टरपंथ)

 जिस तरह इस्लामी कट्टरपंथ के विरोध के लिए तस्लीमा नसरीन को तालिबानी किस्म के जेहादियों की बर्बरता का सामना करना पड़ा है उसी तरह हिंदुत्व कट्टरपंथ के विरोध के लिए दाभोल्कर, पंसारे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश को बजरंगी किस्मके जेहादियों की र्बरता का सामना पड़ा। तस्लीमा ने तो तालिबानी जेहादियों से भागकर जान बचाई लेकिन दाभोल्कर, पंसारे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश भागे नहीं तथा बजरंगी जेहादियों ने उनको मार डाला। हर तरह के कट्टरपंथी एकसमान अमानवीय और बेहया होते हैं। एक तरह के कट्टरपंथ का विरोध और दूसरे तरह के कट्टरपंथ का समर्थन नैतिक दोगलेपन का परिचायक है।

Saturday, May 21, 2022

शिक्षा और ज्ञान 358 (सभ्यता)

 सभी सभ्यताएं आदिम कबीलों और कुटुंबों से ही निकली हैं और तमाम विभिन्नताओं के बावजूद एक दूसरे से मिलते हुए सामासिक रूप से आगे बढ़ी हैं। भारतीय सभ्यता अनेक आर्य-अनार्य कुटुंबों के वर्चस्व के संघर्ष-समागमों. विभाजन-सामासिकताओं की प्रक्रिया से गुजरकर निर्मित हुई हैं। हर सभ्यता में सदैव दो द्वंद्वात्मक प्रवृत्तियां काम करती हैं -- एक विभिन्नताओं के आधार पर सभ्यता को विघटित करने की और दूसरी विभिन्नताओं को समेकित कर सामासिकता विकसित करने की। पश्चिमी यूरोप में विभिन्नताओं के संघषों में सदियों के भीषण रक्तपात के बाद राष्ट्रीय सीमाएं वीजा-मुक्त बन गयी हैं। भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलन के दौरान जहां एक तरफ राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा विभिन्नताओं को समेकित कर लोगों को भारतीय के रूप में संगठित कर रही थी वहीं दूसरी तरफ औपनिवेशिक शह पर आंदोलन विरोधी ताकतें उन्हें धर्म के नाम पर बांट रही थीं जिसकी परिणति देश के विध्वंसकारी अनैतिहासिक बंटवारे में हुई तथा जिस घाव के नासूर पता नहीं कितनी पीढ़ियों से रिसते रहेंगे। कहने का आशय यह कि किसी समुदाय की उत्पत्ति और विकास के संदर्भ में जन्मगत अस्मिता पर गर्व या शर्म करने की बजाय हमें मनुष्य होने की साझी अस्मिता को रेखांकित करना चाहिए, हमारे आदिम पुरखों ने विवेक के इस्तेमाल से खुद को पशुकुल से अलग करना शुरू किया। बाभन से इंसान बनने के मुहावरे में अहिर से इंसान बनना भी शामिल है। सादर।

मनुष्य अपना इतिहास खुद रचता है

 मनुष्य अपना इतिहास खुद रचता है

 मनुष्य अपना इतिहास खुद रचता है
लेकिन अपने चुने हुए हालात में नहीं
वक्त और हालात तो मिलते हैं उसे विरासत में
उनमें तब्दीली नियम है प्रकृति के गतिविज्ञान का
लेकिन तब्दीली की दशा और दिशा तय करता है
मनुष्य का सुविचारित चैतन्य सतत प्रयास
(ईमि:21.05.2022) 

शिक्षा और ज्ञान 357 (द्वंद्वात्मक पद्धति)

 ज्ञानार्जन की सुकरात की सवाल-दर सवाल की द्वंद्वात्मक पद्धति के इस्तेमाल के लिए साधुवाद। मैं अपनी क्लास में पहली बात यही बताता था कि हर ज्ञान की कुंजी सवाल है तथा अपनी मानसिकता से शुरूकर, हर बात पर सवाल करना चाहिए ।यदि कोई छात्र मुझ पर ही सवाल करता था तो मैं उसे अपनी परम सफलता मानता था। सही कह रहे हैं कि बौद्धिक उद्यम में लीन ब्राह्मण के पास बाध्यकारी शक्ति नहीं होती थी लेकिन उसके पास बौद्धिक और नैतिक शक्ति होती थी। किसी विचारधारा को ही वाद कहते हैं और विचारधारा अपने प्रतिपादक के नाम से जानी जाती है। चूंकि वर्णाश्रम पद्धति की विचारधारा के प्रतिपादक ब्राह्मण थे और शिक्षा द्वारा परिभाषित ज्ञान पर उन्ही का वर्चस्व था इसलिए वर्णाश्रमवाद की विचारधारा ब्राह्मणवाद नाम से भी जानी जाती है।

Tuesday, May 17, 2022

Marxism 48(Communism)

Communism is future world system alternative to capitalism which rose and grew against feudalism in Europe and reached to Asian and African countries through colonial route and hence in perverted crony form. Anything that exists is destined to perish and be replaced by the new. That is true about the historical modes of production too. Previous modes of production -- primitive, slave, feudal -- that exited, perished. Capitalism is no exception. No time table can be fixed as the dynamic of history doesn't follow the astrological predictions but evolves it rule itself in course of its motion. As the bourgeois democratic revolutions in Europe abolished the birth qualifications and witnessed the emergence of a new protagonist of the history -- the hero of the finance. The new protagonist of the post capitalism history shall be the hero of the production -- the proletariat. India, for historical reasons didn't undergo the bourgeois democratic revolution that would have abolished the birth qualifications, I.e. the caste system and hence the need is of twin revolutions -- of social justice and the economic justice-- simultaneously that has been symbolized by the slogan of Jay Bhim-Lal Salaam.

Monday, May 16, 2022

मार्क्सवाद 264 (पक्षधरता)

 एक वर्ग विभाजित समाज में निष्पक्षता एक फरेब है। विभाजित समाज में व्यक्तित्व भी 'स्व के स्वार्थबोध' और 'स्व के परमार्थबोध' में विभाजित होता है। मैं स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह देने का पक्षधर हूं इसीलिए मर्दवाद के विरुद्ध स्त्री अधिकारों का पक्षधर हूं; ब्राह्मणवाद (जातिवाद) के विरुद्ध जातीय समानता का पक्षधर हूं; .....बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर रोजी कमाने वाला मजदूर हूं, इसलिए शोषण के विरुद्ध मजदूरों के अधिकार और वर्गहित का पक्षधर हूं; कुल मिलाकर अन्याय के विरुद्ध न्याय का पक्षधर हूं। विभाजन रेखा खिंची हुई है, आपको अपना पक्ष चुनना है।

मार्क्सवाद 263 (साम्यवाद)

 "साम्यवाद किस प्रकार की समानता की अवधारणा है?" वाजिब सवाल है, लेकिन साम्यवाद तो अभी बहुत दूर की बात है। हमारे यहां तो अभी पूंजीवाद ही ठीक से नहीं आया है। हमारा विशिष्ट वर्णाश्रमी सामंतवाद खत्म नहीं हुआ तथा क्रोनी (कृपापात्र)व पूंदीवाद ने उससे आर-पार की लड़ाई की बजाय उसे अपना साझीदार बना लिया है। यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन (Enlightenment) क्रांतियों ने जन्मजात सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था। यहां उस तरह की नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियां हुईं नहीं तथा पूंजीवाद औपनिवेशिक रास्ते से विकसित हुआ। इसीलिए यहां आज जरूरत सामाजिक-आर्थिक क्रांतियों के गठजोड़ की है। जयभीम-लालसलाम नारे को ठोस राजनैतिक आकार देने की है। अभी साम्यवादी नहीं, पूंजीवादी (औपचारिक) समानता हासिल करने का चरण है। खैर समानता की पहली शर्त है, हर तरह के भेदभाव से मुक्ति। यही सवाल 1880-81 में मार्क्स से किसी ने पूछा था कि साम्यवाद की रूपरेखा क्या होगी, मार्क्स ने जवाब दिया था कि भविष्य की प्रणाली की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां खुद बना लेंगी। भविष्य की क्रांतियों के कार्यक्रम में उलझने का मतलब वर्तमान संघर्षों से मुंह मोड़ना है। सामंतवादी उत्पादन प्रणाली की जगह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ने लिया। सामंती युग में पूंजीवादी भविष्य के बारे में लोग ऐसे ही सवाल पूछते थे, राजा के बिना जीवन की कल्पना ही अकल्पनीय थी। 1648 की क्रांति में इंग्लैंड के राजा का सिर कलम कर दिया गया था लेकिन 12 साल में ही वहां के लोगों को राजा की जरूरत इतनी सिद्दत से महसूस हुई कि राजवंश के राजकुमार को फ्रांस से आयातित किया गया। साम्यवाद पूंजीवाद के खात्मे के बाद का अगला चरण है जिसके कार्यक्रमों की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां बनाएंगी। साम्यवाद एक वर्गविहीन व्यवस्था होगी और राज्य चूंकि वर्गवर्चस्व का औजार है इसलिए वह अनावश्यक हो जाएगा। साम्यवादी उत्पादन पद्धति का आधारभूत सिद्धांत होगा -- सामर्थ्य के अनुसार हर किसी का योगदान और जरूरत के अनुसार हर किसी को भुगतान। जब तक कुछ साकार नहीं होता तब तक वह यूटोपिया जान पड़ता है। सामंती युग में जनता द्वारा निर्वाचित शासन की बात यूटोपिया मानी जाती थी।

Sunday, May 15, 2022

शिक्षा और ज्ञान 356 (सैनिक)

 पानीपत युद्ध में बाबर की सेना में विजित सिंध और पंजाब के पराजित सैनिक भी थे। पर्शिया पर विजय के बाद सिकंदर की सेना में पर्शियन सैनिक और अधिकारी बहुमत में थे। ऐतिहासिक रूप से वैतनिक सैनिक वेतन और लूट में हिस्सेदारी के लिए सैनिक होता रहा है। शिवाजी और औरंगजेब दोनों की सेना में भोजपुरिए सैनिकों की बहुतायत थी। बक्सर सैन्य व्यापार का बड़ा केंद्र हुआ करता था। शिवाजी ने जब वेतन बढ़ाने और चौथ बंद करने की घोषणा की तो बहुत से सैनिक उनकी सेना छोड़ किसी और राजा की सेना में जाने की धमकी दिए और शिवाजी को चौथ बंद करने का फैसला बदलना पड़ा। गौरतलब है कि चौथ, सैनिकों में बंटने वाला युद्ध में लूट के माल का चौथाई हिस्सा होता था।

Tuesday, May 10, 2022

धर्मांतरण

 सर्वाधिक धर्मांतरण आर्थिक रूप से स्वतंत्र किंतु सामाजिक रूप से परतंत्र कारीगर शूद्र जातियों ने किया। बलात् धर्मांतरण होता तो पूरे भारत में मुसलमान बहुसंख्यक होते। अकबर और औरंगजेब (मुगलों) के दरबारियों तथा जागीरदारों में राजपुताने के ज्यादातर रजवाड़े और मराठे थे, किसी का धर्मांतरण नहीं हुआ। अकबरकाल में तो राजपुताने में एक महाराणा प्रताप थे जिन्होंने अपनी आजादी के लिए विद्रोह की मशाल जलाए रखा। औरंगजेब के समय तो मेवाड़ समेत सारा राजपुताना मुगलदरबारी था। जैसे राणा प्रताप के विरुद्ध हल्दी घाटी की लड़ाई में अकबर के सेनापति आमेर के राजा मान सिंह थे वैसे ही शिवाजी के विरुद्ध पुरंदर की सुविदित लड़ाई और संधि में औरंगजेब के सेनापति जय सिंह थे। राज-पाट की लड़ाई होती थी धर्म की नहीं। मुगलों और अंग्रेजों ने जातियों के वर्णाश्रमी पिरामिड से छेड़-छाड़ करने की बजाय इसका इस्तेमाल अपना वर्चस्व कायम करने में किया।

ज्ञानवापी

 ज्ञानवापी (वाराणसी) पर खड़े किए जा रहे विवाद पर एक मित्र ने कहा मुसलमानों से कहिए कि उसे शांति से हिंदुओं को दे दें, उस पर --


हिंदू पक्ष या मुस्लिम पक्ष काल्पनिक समुदाय हैं। किनसे अपील करें और कौन किसको क्या दे दे? इस समय समस्या बेरोजगारी, मंहगाई और सार्वजनिक संपदा की लूट है कि हिंदू-मुसलमान नरेटिव से जहर फैलाकर समाज को प्रदूषित करना? क्या वाकई कोई समरस एक मिश्रा समुदाय है? शासक वर्ग सदा ही गौड़ और कृतिम अंतर्विरोधों को उछालकर जनता को भटकाकर मुख्य अंतर्विरोध की धार कुंद करता है। यदि ज्ञानवापी मस्जिद टूट जाए तो समस्याएं हल हो जाएंगी? देश बहुत आगे बढ़ जाएगा? बाबरी मस्जिद को ध्वस्त हुए 30 साल हो गए, भारत स्वर्ग बन गया?

मार्क्सवाद 262 (ब्रह्मणवाद)

 विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप होता है, प्राचीन काल में बौद्ध नवजागरण क्रांति वर्णाश्रमवाद (ब्राह्मणवाद) की तत्कालीन प्रतिक्रिया थी तथा ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति के बाद उसके बौद्धिक औचित्य में निर्मित गुरुकुल शिक्षा प्रणाली एवं पुराण आदि द्वारा स्थाप्त सांस्कृतिक वर्चस्व ने सामाजिक चेतना को अधीनस्थ बना दिया जो प्रतिक्रिया में अब जवाबी जातिवाद (नवब्राह्मण) के रूप में अवतरित हुआ और सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद का सहयोगी है।

फुटनोट 365 (हिंदू-मुसलमान)

 स्त्रियों के मामले में ऐय्याश तो तमाम शासक थे, रामायण के राजा दशरथ की कई रानियां थीं, अशोक को कहा जाता है अपने 100 भाइयों की हत्या कर शासक बना था तो बिंदुसार की भी कई दर्जन बीबियां तो रही ही होंगी। राणा प्रताप की 10 पत्नियां थीं। आजादी के बाद हिंदू सिविल कोड कानून बनने के पहले बहुत से रईश कई शादियां करते थे। अधिक उम्र के पुरुषों का कम उम्र की लड़कियों के साथ विवाह के चलते विधवा समस्या विकट थी और विधवा आश्रमों की जरूरत पड़ती थी। विधवा आश्रम की व्यवस्था मेरे ख्याल से किसी और देश में नहीं है। शासक शासक होता है, इस्लामिक या ईशाई नहीं। राणा प्रताप को छोड़कर राजपुताने के सारे रजवाड़े अकबर के दरबारी थे और बिना किसी अपवाद सारे के सारे औरंगजेब के। राणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर का सेनापति राजा मान सिंह था और शिवाजी के विरुद्ध पुरंदर युद्ध में औरंगजेब का सेनापति राजा जय सिंह। औरंगजेब के शासन के ज्यादातर जागीरदार राजपूत और मराठे थे। राजाओं के इतिहास को हिंदू और मुसलमान नरेटिव में पिरोकर समाज को फिरकापरस्ती से विषाक्त करने के अपकर्म से बचना चाहिए।

शिक्षा और ज्ञान 355 (स्वार्थ और परमार्थ बोध)

 एक मित्र ने एक पोस्ट में अपने एक जन्मना ब्राह्मण मित्र द्वारा ब्राह्मणवाद की आलोचना को विरासत में मिले जन्मजात पूर्वाग्रहों से मुक्ति के दावे की तुलना पर्शिय-स्पार्टा युद्ध (शायद 5वीं सदी ईशापूर्व) में पर्शिया समर्थक एक कुबड़े स्पार्टन से की, जिसे विजयोपरांत पर्शियन्स ने मार डाला था। उस पर यह कमेंट लगभग लिख चुका था कि शायद पोस्ट डिलीट कर दी गयी और यह कमेंट पोस्ट नहीं हो पाया। उसे यहां शेयर कर रहा हूं।


यह अपने उन मित्र की बात की बहुत ही फूहड़ और बचकाना तथा दुराग्रहयुक्त व्याख्या है।व्यक्तिवाद, वर्गविभाजित आधुनिक और परा-आधुनिक (modern & post modern) या दार्शनिक अर्थों में क्रमशः उदारवादी और नवउदारवादी समाजों का मूलमंत्र है तथा आधुनिक और परा-आधुनिक व्यक्तित्व का निर्धारक तत्व, जिससे संपूर्ण मुक्ति अव्यवहारिक है। विभाजित (split) समाज में हर व्यक्ति का व्यक्तित्व भी "स्व के स्वार्थबोध और स्व के परमार्थबोध या न्यायबोध" में विभाजित (split) होता है। सामान्यतः सामान्य व्यक्ति स्व के परमार्थबोध पर स्व स्वार्थबोध को तरजीह देने में सुख तलाशता है। , लेकिन इसमें उसे सुख का भ्रम (Illusion of pleasure) मिलता है, क्योंकि वास्तविक सुख "खाओ-पियो-मस्त रहो" सूक्ति में नहीं, बल्कि अपने नैतिक स्वत्व की प्राप्ति में मिलता है, जिसे स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह देकर प्राप्त किया जा सकता है। यदि जन्म के संयोग से आप एक पुरुष के रूप में पैदा हुए हैं तो स्व के स्वार्थबोध को स्व के परमार्थबोध पर तरजीह देकर या पुरुषवादी (मर्वादी) पूर्वाग्रहों के प्रभाव में आपको पितृसत्तात्मक समाज की यौन आधारित (स्त्री विरोधी) भेदभाव की विद्रूपताएं जायज लगेंगी। लेकिन यदि समाज में व्याप्त मर्दवादी (पितृसत्तात्मक) पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार करेंगे तो पितृसत्तात्मक (मर्दवादी) मान्यताओं की निष्पक्ष आलोचनात्मक समीक्षा कर सकेंगे। वही बात भेदभावपूर्ण वर्णाश्रमी समाज में ब्राह्मणवादी (जातिवादी) समाज में जन्मना ब्राह्मण होकर यदि स्व के स्वार्थबोध पर स्कोव के परमार्थबोध को तरजीह देंगे तो ब्राह्मणवादी (जातिवादी) पूर्वाग्रहों के मुक्त होकर ब्राह्मणवाद (वर्णाश्रमवाद) की आधुनिक राजनैतिक अभिव्यक्तियों -- जातिवाद तथा जवाबी जातिवाद (ब्राह्मणवाद तथा नवब्राह्मणवाद) एवं सांप्रदायिकता की निष्पक्ष आलोचनात्मक समीक्षा कर सकते हैं।

Saturday, May 7, 2022

फुटनोट 264 (किसी की नजर में)

 

Simin Akhter
August 23 at 12:57am
आज बहुत दिनों बाद हिन्दू कॉलेज जाना हुआ और बहुत दिनों बाद ही Ish से मुलाक़ात हुई. बचपन से ही जो बच्चे सहमत और जनम के नाटक देककर और रादुगा की किताबें पढ़कर बड़े हों उन्हें गोरख और विद्रोही की कविताएं ही अच्छी लगती हैं और कॉलेज-यूनिवर्सिटी में SFI और DTF के पर्चों में ग़लतियाँ ही नज़र आती हैं, मगर मैं और मेरे कई दोस्त ऐसे हैं जिनकी पोलिटिकल ट्रेनिंग का एक हिस्सा Ish जैसे टीचर्स भी रहे हैं जिन्होंने हमे टीचर न होते हुए भी बहुत कुछ सिखाया है .. मैं सत्यवती कॉलेज की छात्र रही हूँ जहाँ एक तरफ सी.पी.एम. और dtf के कुछ बेहद 'कमिटेड' और शानदार टीचर्स थे जैसे नेता जी, महेंद्र सिंह और शरत चंद, वहीँ दूसरी तरफ विजय सिंह और शम्सुल इस्लाम जैसे लोग भी थे जिन्हें सुनने के लिए हम अपनी सब्जेक्ट-क्लासेज़ मिस कर के जाते थे .. तीसरे दुसरे कॉलेजेस के वो शिक्षक थे जिनके लेख और वक्तव्य हम सुनते-पढ़ते थे .. मैं Ish को एक लम्बे समय से जन-हस्तक्षेप में पढ़ रही हूँ और हालांकि मैं बहुत से मुद्दों पर उनसे वैचारिक विरोध रखती हूँ, मैंने उनसे एक बहुत अहम बात सीखी है .. यह कि टीचर्स की लड़ाई सिर्फ टीचर्स की लड़ाई नहीं होती, और वह कर्मचारी और छात्रों की लड़ाई से अलग नहीं है .. एक ऐसा सबक़ जो आज सामाजिक चेतना और संघर्ष के लिए बहुत अहम है. यूनिवर्सिटी के स्तर पर अब्सॉर्प्शन का मुद्दा हो या समाज के स्तर पर तीन-तलाक़ का, बहुत सारे जवाब इसी एक सवाल से निकलेंगे.

Ish आज कुछ कमज़ोर नज़र आये और देखकर अफ़सोस भी हुआ मगर उससे कहीं ज़्यादा मज़ा उनसे बात कर के आया .. इसी तरह बेबाक लिखते रहिये, बोलते रहिये .. प्रतिरोध की हर आवाज़ को सलाम, सत्ता और समाज के दमन के विर्रुध हर जन-हस्तक्षेप को सलाम.
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Book Review (Secularism , Communalism and Intellectuals by Zaheer Baber)

 BOOK REVIEW

Secularism, communalism and the intellectuals, by Zaheer Baber, New Delhi, Three Essays Collective, 2006, ISBN 8-1887-8947-X Intellectuals do not create injustices; they only provide the ideological justifications to already existing ones. With the political ascendance of the Hindutva brand of communalism into power, many mainstream intellectuals overtly and covertly joined hands with the ideologues of Hindu nationalism (or Hindutva), in attacking secularism in India, as ‘pseudo’, ‘alien’ and ‘western’ (p. 23). Instead of looking at the communalism as an ideology that thrives on the exploitation of the religious sentiments of the masses by creating communal hatred and violence, many intellectuals have played the role of the apologist for Hindutva forces, laying the blame for communal strife and pogroms at the door of secularism (p. 24). The book under review, a collection of three essays by Zaheer Baber, dissects some of such attacks on secularism. The essays analyze the rise and growth of communalism and its Hindutva variety in an historical context to expose the apologetic role of the intellectuals, who provide it with ideological justifications. The author takes to task three prominent intellectuals in particular : T.N. Madan, Ashish Nandy and Veena Das ‘who argue that the very policy of aggressive secularism has contributed to the communal violence’ (p. 59). Madan describes secularism as ‘alien’ (p. 24); Nandy asserts that ‘secularists’ are ‘intellectually crippled and morally flawed’ (p. 35). Veena Das is quoted as calling for a ‘courageous experimentation with our heritage’ based on the ‘. . . principles of the Varnashrama and Purusartha’ (p. 33).India’s freedom struggle generated many ideologies. Some sought to unite the Indian people from across the boundaries of caste, ethnicity, religion, region and language, in order to create India as a secular nation state. Others sought to divide the people on sectarian and regressive principles. Communalism, as an ideology, was constructed by the reactionary elements in active connivance of the colonial rule and sought to mobilize people on religious lines and consequently diluted the anti-colonial struggle. The ‘. . . postcolonial state was predominantly secular in its orientation’ in India but with substantive definitional changes. Secularism does not imply separation between state and religion but ‘equal respect to all the religions instead of equal indifference to all and equal accommodation of ‘religious demands and pressures from all religious communities’ (p. 59).With the emergence of Hindutva amidst the communal frenzy created by the long campaign leading to the demolition of Babri Masjid in 1992 by Hindu nationalists sunder the leadership of the then-president of the Bharatiya Janata Party (BJP), L.K.Advani, many intellectuals came forward in their support and attacked secularism. Madan, for example, described secularism as an ‘alien cultural ideology’, ‘a gift of Christianity’, and as an ‘impractical basis of state action’ (p. 19). These intellectuals seem to foresee the failure of secularism in India because of the religious beliefs of the majority. It should be pointed out that in Europe secularism arose as a response to the control of the church over the affairs of the state. The author of this collection picks up the arguments of these intellectuals and demolishes them by providing a theory of communalism rooted in historical specificity. This is a useful reference book for the students of communalism and secularism in India. Ish Mishra Hindu College, University of Delhi, India Email: mishraish@yahoo.co Contemporary South Asia Vol. 17, No. 4, December 2009, 449–468ISSN 0958-4935 print/ISSN 1469-364X onlineDOI: 10.1080/09584930903343997http://www.informaworld.comDownloaded By: [SOAS Library] At: 16:00 16 December 2009

Thursday, May 5, 2022

बेतरतीब 128 (शिक्षा)

 मैं भी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली पहली पीढ़ी का हूं, दरअसल विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला अपने गांव का मैं पहला लड़का था। 1967 में 12 साल की उम्र में जब मैं जूनियर हाई स्कूल (मिडिल स्कूल ) की बोर्ड की परीक्षा पास कर कक्षा 9 में प्रवेश लेने शहर (जौनपुर) जाने लगा तो किसान पिताजी ने कहा था कि अब मैं उनसे ज्यादा पढ़ लिया हूं तो अपने फैसले खुद लूं। उनके समय में मिडिल सतवी क्लास तक होता था तो अंदाज लगाया था कि पिताजी शायद मिडिल तक पढ़ रहे होंगे। हाई स्कूल में 2 रु. 2 आना फीस थी, 5 रु. हॉस्टल का रूमरेंट तथा 16 रु महीने मेरिट स्कॉलरशिप मिलती थी। हमने भी लगभग मुफ्त में पढ़ाई की है। इवि में 12-13 रु यूनिवर्सिटी फीस थी और 8-10 रु. रूम रेंट तथा 50-70 मेस बिल। जेएनयू में यूनिवर्सिटी और हॉस्टल की एडमिसन फीस 496 रु थी तथा 10-12 रु फीस और 10 रु हॉस्टल का रूम रेंट जो 120 रु मेरिट-कम-मींस स्कॉलरशिप पाने वालों की माफ हो जाती थी। हम लोगों की पढ़ाई-लिखाई हमारे ऊपर समाज का कर्ज है। इसीलिए हम शिक्षा को राज्य की जिम्मेदारी की मांग करते हैं। दिवि में शिक्षक होने का सौभाग्य मिला।

Wednesday, May 4, 2022

बेतरतीब 127 (विवाह)

 Brijendra Dwivedi मैं अपने पिताजी या दादाजी को अपने बालविवाह का अपराधी नहीं मानता क्योंकि अपराध जानबूझकर किया गया गलत काम अपराध होता है। किसी भी बाल विवाह की तरह मेरे भी बालविवाह की अपराधी प्रचलित सामाजिक कुरीति थी। सामाजिक विकास के अनुरूप सामाजिक चेतना होती है। इस विवाद मैं अपने पिताजी या दादाजी को अपने बालविवाह का अपराधी नहीं मानता क्योंकि अपराध जानबूझकर किया गया गलत काम अपराध होता है। किसी भी बाल विवाह की तरह मेरे भी बालविवाह की अपराधी प्रचलित सामाजिक कुरीति थी। सामाजिक विकास के अनुरूप सामाजिक चेतना होती है। इस विवाह का निर्वहन अच्छे हिंदू नहीं, अच्छे इंसान के रूप में कर रहा हूं। हर व्यक्ति को इच्छाओं की स्वतंत्रता और सामाजिक निष्ठा में समन्वय स्थापित करना चाहिए। मेरी ही तरह मेरी पत्नी की भी शादी तो उनकी मर्जी के बगैर ही हुई थी। यदि किसी सामाजिक कुरीति के दो भुक्तभोगी हों तो एक भुक्तभोगी को दसरे अधिक भुक्तभोगी पर और अत्याचार नहीं करना चाहिए तथा पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री सामाजिक कुरीतियों के अपेक्षाकृत अधिक भुक्तभोगी होती है। विवाह का फैसला मेरा नहीं था लेकिन विवाह निभाने का फैसला मेरा था। इस महीने विवाह के 50 सेल हो जाएंगे, गवन के 47 और साथ रहते 36।

Sunday, May 1, 2022

नारी विमर्श 24 (अंधविश्वास)

 फरेबी बाबाओं पर एक विमर्श में किसी ने कहा कि डर और अंधविश्वास के चलते पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां ज्यादा ऐसे बाबाओं के शरण में जाती हैं। उस पर --


स्त्रियों में अपेक्षाकृत यह अतिरिक्त असुरक्षा, डर, आत्मविश्वास की कमी, दैवीय चमत्कार में अंधविश्वास उनके स्त्री होने के नाते नहीं बल्कि सांस्कृतिक प्रशिक्षण और सामाजीकरण के चलते होता है। स्त्रीवादी दार्शनिक सिमोन द बुआ ने सही कहा है कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है। आर्थिक बदलाव के साथ राजनैतिक और कानूनी बदलाव तुरंत होते हैं, लेकिन सांस्कृतिक बदलाव में चेतना में बदलाव की जरूरत होती है, जो अपेक्षाकृत अधिक मुश्किल होते हैं और अधिक उसमें अधिक समय लगता है। जन्म से ही समाजीकरण के दौरान संस्कार के रूप में, विरासत के नाम पर सांस्कृतिक मूल्यों को हम अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं, जिनमें बदलाव के लिए अतिरिक्त वाह्य ही नहीं आंतरिक आत्मसंघर्ष की भी जरूरत होती है। लेकिन बदलाव अवश्यंभावी है, स्त्रियां जैसे-जैसे शिक्षा एवं आर्थिक क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं, वर्जित क्षेत्रों का अन्वेषण कर रही हैं, नए आसमान गढ़ रही हैॆं, उनकी चेतना का अग्रगामी होना अवश्यंभावी है। जैसे जैसे आत्मविशवास मजबूत होगा दैवीयता का भय और दैवीय चमत्कारों में अंधविश्वास घटता जाएगा और वे मुक्ति के नए नए द्वीप रचेंगी। स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी का रथ इतना आगे बढ़ चुका है कि आज कोई भी बेटा-बेटी में फर्क करने की बात सार्वजनिक रूप से नहीं करता, एक बेटे के लिए 4 बेटियां भले ही पैदा कर ले और इसका दोष एकमात्र स्त्री के सिर नहीं मढ़ा जा सकता वह तो मिथ्याचेतना के चलते पुरुष की सहभागी बन जाती है।

मार्क्सवाद 262 ( मैं हूं इसलिए मैं सोचताहूं)

 हम सब चिंतनशील साधारण इंसान हैं। मैं प्रबोधनकालीन चिंतक देकार्त (Descartes) के इस विचार से असहमत हूं कि मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं (I think therefore I am.)। यह प्लेटो और हेगेल की तरह सच्चाई को सिर के बल खड़ा करता है। मैं हूं, इसीलिए सोच सकता हूं तथा सोचता हूं इसीलिए जो हूं, वह हूं। सोचना ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व होने और सोचने का द्वंद्वात्मक युग्म है लेकिन प्रथमिकता होने की है। वस्तु विचार के बिना भी रह सकती है और ऐतिहासिक रूप से विचार की उत्पत्ति वस्तु से ही हुई है। लेकिन यथार्थ की संपूर्णता दोनों के द्वंद्वात्मक युग्म से ही बनती है। सेब तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के पहले भी गिरते थे और न्यूटन के दिमाग में सेबों के गिरने का कारण जानने का विचार उन्हें देखकर ही आया। लेकिन पहले हम केवल "क्या" का उत्तर दे सकते थे, "क्यों" और "कैसे" आदि प्रश्नों के नहीं जो न्यूटन के नियमों की जानकारी से दे सकते हैं। अतः सेब के गिरने की परिघटना का संपूर्ण सत्य उस भौतिक परिघटना और उससे निकले विचारों का द्वंद्वात्मक युग्म है। अतः मैं हूं इसलिए मैं सोचता हूं तथा मेरे होने की सामाजिक सार्थकता के लिए मेरा सोचना जरूरी है।