सही कह रहे हैं, किसी की किसी कुदरती कमी का मजाक उड़ाना, ईश्वर को मानने वाले के लिए, ईश्वरका मजाक उड़ाने जैसा है। मेरा एक दृष्टि हीन सहकर्मी है, कोलम्बिया से पीएचडी किया है, छात्रों में बहुत लोकप्रिय है, कभी कुछ टाइप करना होता था तो कहता था, 'क्या, ईशदा आप घंटों लगाएंगे, लाइए मैं फटाफट कर देता हूं'। कंप्यूटर सबके लिए क्रांति है, दृष्टिहीन लोगों के लिए सुपरक्रांति। अब उन्हें लिखने-पढ़ने के लिए किसी पर निर्भरता की जरूरत नहीं है। पहले कोई कह देता था कि कोई लूजे लंगड़े हैं तो कहावत गड़बड़ नहीं लगती थी, संवेदना में कहावत की क्रूरता का एहसास नहीं होता था। 14-15 साल पहले की बात होगी, मैं हॉस्टल का वार्डन था, हॉस्टल का एडमिसन क्लास शुरू होने के बाद होता था।एक लड़का बैशाखियों पर ठकाठक चलता ऑफिस में आ गया, 'सर मेरे लोकल गार्जियन गाजियाबाद रहते हैं, मेरे लिए वहां से क्लास आना मुश्किल होगा। नाम याद है, मृत्युंजय। दोनों पैर बचपन से पैरलाइज्ड थे। आज की तरह 100% अंक नहीं मिलते थे। 89ृ-90% बहुत बड़ी बात होती थी, बलिया में सरकारी स्कूल से पढ़े उस लड़के के 96% थे। मैंने केयर टेकर से कहा, इसे तो वैसे ही एडमिसन मिल जाएगा, बिना कोटे के, एक कमरा खोल दो। केयरटेकर नियम-कानून की बात करने लगा, मैंने कहा कानून इंसानों के लिए ही बने हैं। मृत्युंजय का 5-6 महीने बाद भाभा रिसर्च सेंटर में एडमिसन हो गया, चला गया। तबसे मैं लूजे-लंगड़े की कहावत को हतोत्साहित करता हूं।
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