Saturday, July 30, 2011

नए की जीत

Uaday Prakash, the known Hindi writer who was awarded with the Bharat Bhushan award for his poem, Tibet, in 1980, is the judge for this award in 2011. He had posted a statement regarding that and this was my comment.


उदय जी!
इतिहास की गति के द्वंदात्मक नियमों को तस्दीक करते हुए उम्मीदवार से निर्णायक तक की आपकी यात्रा पर गया में बधाई देना चाहता था लेकिन कवितानुमा कुछ लिखा गया. लेकिन अब तो आप फैसला सीलबंद कर चुके हैं. हा-हा-हा --....
नए की जीत
कल तक उम्मीदवार था आज बन गया निर्णायक
चुनूंगा वही कविता हो जो पुरस्कार लायक
बहुत सी कवितायें गूँज रही हैं मन में
मचाती नहीं उथल-पुथल कोई भी जीवन में
दिखाई दी तभी यह एक दलित लड़की की कहानी
संघर्ष और संत्रास ने मिटा दिए खयालात रूमानी
बाकी कवितायें बयान थीं एक लड़की से प्यार की
या फिर अमूर्त सबा और फसल-ए- बहार की
चुन लिया मैंने उस लड़की के संत्रास की कविता
ज़िंदगी में छाई थी जिसके घनघोर काली सविता
हदें सारी पार कर गया जब अत्याचार
उठाया उसने तब कलम मच गया हाहाकार
बनाया नहीं कलम को उसने सिर्फ एक औजार
बन गया कलम एक ताकतवर हथियार
देख यह अनहोनी तिलमिलाया ज्ञान का हठ
चरमराने लगा उसका किलेबंद मठ
है यह जंग इस बार आर-पार का
नयी उमंगो से पुराने जर्जर विचार का
अभी तक रही है इतिहास की यही रीत
पुराने पर होती आयी है नए की जीत.

लहराती जुल्फें

उठा हुआ दाहिना हाथ जो दिख नहीं रहा तस्वीर में
व्यस्त दीखता है किसी रूमानी तकरीर में
लहराती जुल्फें भी कुछ कहती हैं
गालों को सहलाते हुए उरोजों तक पहुँचती हैं
घायल करती एक आँख सीधे सीधे
करती दूसरी वार जुल्फों के पीछे से

Thursday, July 28, 2011

उजाले में देखने आदत

उजाले में देखने आदत
ईश मिश्र
छाया अब घटाटोप अँधेरा
उम्मीद है होगा कभी तो बसेरा
रोशनी के कोई गवाह न थे
सभी चश्मदीद हैं इस स्याह रात के
डाल लिया है सबने अँधेरे में देखने की आदत
हैं फिर भी कुछ सिरफिरे करते नहीं कालिमा देवी की इबादत
बढा रहे हैं लहराते हुए हाथ मशालें थामने की बावत
ख़त्म कर देंगे, कहते हैं, अब काले धन की दावत
बढ़ते ही जा रहे लहराते हुए एक हाथ लिए एक में मशाल
होते रहें हाथ कलम , नहीं है रुकने का सवाल
कटेगा एक तो थामेगा मसाल दूसरा हाथ
आयेगा धीरे-धीरे सारा आवाम साथ
हर हाथ में मशालें हैं मिट रहा अँधेरे का नामो-निशान
प्रज्वलित प्रकाश की अब बन रही पहचान
ख़त्म हो रही है अमावस्या के नायकों की आन-बान शान
उजाले में देखने आदत डाल रहा अब नया इन्शान

Saturday, July 23, 2011

नार्वे में धमाका

नार्वे में धमाका
ईश मिश्र
बहुत दिनों से हो रहे हैं बम के धमाके लगातार
मरते और अपाहिज होते रहे हैं मासूम बार-बार
मुम्बई और कराची के बाद यही खबर अब नार्वे से
मर गए सैकड़ों मासूम बम के धमाके से
हो रही हैं हर रोज मासूम मौतें कहीं-न-कहीं
नार्वे में पहले ऐसा हुआ नहीं

जैसे ही मिली ओस्लो में बम धमाके की खबर
इस्लामी भूत हुआ सवार कार्पोरेटी मीडिया पर
लेकिन नहीं है यह आताताई कोई मुसलमान
है नार्वे का ही नव-नाजी दक्षिणपंथी नौजवान
इतनी ही लाशों इतने में ही नहीं उसका मन भरा
और भी मासूमों को मारने निकल पडा
एक सुदूर द्वीप में, सुंदर से जंगल के बीच में
कर रही थीं देश-काल पर विमर्श कुछ युवा उमंगें
पहुँच गया यह धर्मांध बन्दूक लेकर
मारने लगा सबको एक-एक कर
नार्वे है तो वैसे एक शान्तिपोर्ण देश
रखता है फिर भी अस्त्र-शास्त्र और सेना विशेष
दुनिया पर संकट हो गर लीबिया-अफगानिस्तान में
विलम्ब नहीं करता कभी सेना भेजने में
मरते हैं वहां भी कई गुना निर्दोष हर रोज
कई तो बन जाते हैं सेना की खेल के शिकार की खोज
हो रहे है बम विस्फोट मर रहे हैं निर्दोष रोज ही कही-न-कहीं

गिरते रहे हैं बम अबतक
बगदाद से दिल्ली तक, काबुल से कराची तक
मरते हैं रोज तमाम निर्दोष अमरीका के ड्रोन हमले में
भनक नहीं लगती उसकी कार्पोरेटी मीडिया के अमले में
होते हैं ये बलूच, पख्तून या पुश्तो, जान की है जिनकी कीमत कम
अमरीका या यूरोप में हो ऐसा तो ढा जाता है सितम
गिराते हैं बम अंधाधुंध जब नाटो के विमान
गिरफ्त में आ जाते हैं स्कूल, अस्पताल और रिहायशी मकान
बोलते हैं ओबामा हुई निशाने में ज़रा चूक
जारी रहेगा आतंकवाद पर लेकिन हमला दो-टूक

बनी रहेगी कब तक यह विडम्बना
कब करेगा बंद इंसान निर्दोषों को मारना

आज़ाद केजन्मदिन पर

आज़ाद केजन्मदिन पर
ईश मिश्र
इन्किलाब जिंदाबाद -जिंदाबाद ज़िंदाबाद
एक इन्किलाबी का जन्मदिन है आज
कांपता था जिससे अंगरेजी साम्राज्य
नाम है उसका चंद्रशेखर आज़ाद
कमांडर था वह हिन्दुस्तान सोसलिस्ट सेना का
आम जनता का राज जो लाना था
गरीबी-गैरबराबरी से मुक्त समाज बनाना था
इंसान का इंसान से शोषण नामुमकिन करना था
मिला भगत-भगवती से विद्वान-वीरों का साथ
थे सारे-के सारे निर्भय और इन्किलाबी जन्मजात
गूँज उठा भारत भर में नारा-ए-इन्किलाब ज़िनाबाद
हुआ जब प्रतिध्वानित यह नारा हिमालय की चोटिओं से
सुनाई दिया लन्दन में उसे बंद महल की खिड़कियों से
चूलें हिल गयीं सम्राट की बौखला गया हुक्मरान
उनमें भी हलचल मची चलाते थे जो शान्ति-अभियान
कद आज़ाद की सेना का जैसे-जैसे बढ़ता गया
जालिम ज़ुल्म में तेजी लाता गया
हो गए थे भगवती-भगत-राजगुरु-सुखदेव शहीद
आज़ाद तलाश रहे थे इन्किलाब की नई तजवीज
डाला इलाहाबाद के एक पार्क के जंगल में अस्थायी डेरा
तभी गद्दारों-मुख्विरों के जरिये वहां डाल दिया दुश्मन ने घेरा
अकेले आज़ाद ने घंटों सम्हाला मोर्चा अंग्रेजी सेना का
दिया नहीं मौक़ा खुद पर निशाना लगाने का
किया अंतिम गोली का इस्तेमाल खुद पर
शहीद-ए-आज़म हो गए आज़ाद मर कर
मरता नहीं शहीद ज़िंदा रहते हैं उसके विचार
देते हैं प्रेरणा होते नए इन्किलाबी उभार
अमर रहो कामरेड आज़ाद, कोटिक लाल-सलाम
जारी रहेगा शोषण-मुक्त समाज का तुम्हारा अभियान
आने वाली पीढियां आगे बढाती रहेंगी इन्किलाबी पैगाम
इन्किलाब जिंदाबाद, जिंदाबाद चंद्रशेखर आज़ाद .

Friday, July 22, 2011

Bhagat Singh

This was initially a comment on a comment on a post ob FB. For broader circulation, I am posting it as a post with marginal modifications.

There is a common trend of aspiring to be inspired by a past icon without knowing his/her ideas authentically. Many people, aspiring to be inspired by Bhagat Singh do not know anything about him except from hearsay that he was a 'hero" specialized in the cult of Bomb!!! Please read THE PHILOSOPHY OF BOMB "to make the deaf hear" and not to kill. The bomb in the Assembly was not hurled at any member but in the vacant space to make the legislators listen.
Given his age (He was killed in the cold blood by the colonial butchers at 22), Bhagat Singh was a visionary and an organic intellectual of high caliber with a foresight of a society in which "exploitation of man by man" shall be made impossible" and did not seek "to kill the bastards" as other bastards are waiting in the gallery to replace them, taking their training from university campuses or some teaching emporiums and shops. If you really want to do something by getting out of your houses, do what? hit your head on the wall or throw a bomb at a crowd? That is what terrorists are doing.
Bhagat Singh was not a terrorist but a revolutionary activist and a visionary intellectual. My dear friends! the British tormentors were not so much tormented by the physical existence of that young boy but by the inspiring ideas of revolutionaries like him who "fought for the oppressed because they had to". If you wish to be inspired by Bhagat singh, know him, by reading and discussing-debating his ideas. In jail, on the eve of his life spent mostly reading and writing, when the priest asked him to remember the "God", he wrote an eternal piece, "Why I am an Atheist". Collection of his writings are published by Rajkamal Prakaash an and also by Rahul foundation available at reasonable cost. My dear young friend, if you really want do do "something", you need to know for transforming your uninformed restlessness into a creative rebellion. Key to any knowledge is: questioning -- questioning anything and everything beginning with oneself, albeit it involves the risk of turning into n atheist, as had happened with Bhagat Singh.
I will post an overview of Bhagat Singh's writings, whenever I find time.

Wednesday, July 20, 2011

बेचैन आँखें

क्या कहती हैं ये चकित हिरनी सी बेचैन आँखें?
कभी कुछ कहती हैं, कभी बतातीं कुछ और बातें
एक-एक करके कह डालना चाहती हैं सबकुछ
रह जाता है फिर भी कहने को बहुत कुछ
तोते सी नाक के नीचे अर्थपूर्ण मंद मुस्कान
इरादा दर्शाती भरने की कन्चनजंगा की ऊंची उड़ान

बादलों के बीच जो रोशनी दिख रही
काले पर्दों के पीछे लड़की है एक खड़ी
खोज रही हैं आँखे कोइ असंभव लक्ष्य
मद्धिम मुस्कान है उसके आशावादिता का साक्ष्य

मुस्कराती है जब प्रकाश हो मद्धिम
दांत लगते हैं कंचनजंगा कि धवल शिखाओं माफिक

बेचैन आँखें
सजकर आती होती है जब कोइ उत्सव की बात
अलग तब भी दिखती हो हों जब और लोग भी साथ
काले परिधान में वह  जब होती है
बादल फाड़कर निकलता सूरज दिखाई देती हो.

आँखों का रूमानी अंदाज़ और केशों की काली घटा
अर्थपूर्ण मंद मुस्कान बिखेरती अद्भुत छठा
दो लटों के बीच चमकता मोती
फबता इतना नहीं यदि गर्दन यदि कमसिन न होती
उन्नत उरोजों पर फ़ैली है  माला ऐसे
छलकने से रोकना चाहती  हो प्याला जैसे
[ईमि/20.7.2011]

Saturday, July 16, 2011

आषाढ़-सावन

मित्रों ऋतुराज की "शिकायत" , आषाढ़ के साथ नाइंसाफी पर मेरे मौन पर वाजिब है. अषाढ़ के पक्ष में एक गद्यात्मक टिप्पणी किया था लेकिन ई-अज्ञानता के चलते चिपक नहीं पायी. मैं तो जैसा पहले बता चुका हूँ, स्लेट-पेन्सिल वाला तुक्बंदीबाज हूँ, नैसर्गिक कवि नहीं. इस लिए गद्य में कही बात को पद्य में लिखने की कोशिस करता हूँ.

आषाढ़-सावन
ईश मिश्र
दिखी बूदों की पहली फुहार
ख़त्म हुआ चिलचिलाती धूप और लिसलिसाती उमस से निजात का इंतज़ार
होने लगी निर्मल बूंदों की बौछार खुशियों की बाढ़ लिए आ गया आषाढ़
भीगते हुए रिम-झिम में मोटर-साइकिल पर
लगता आ गयी फसल-ए-बहार धरती पर
बैठी हो पीछे अगर कोइ जिगरी दोस्त
आषाढ़ की बूँदें करें और भी मदहोश
जब-जब बादल करता बरसना बंद
इन्द्र धनुष भरता प्यार के नए रंग

यादें हैं ये मेरे बचपन की
दस साल बीत गए थे आई थी जब बाढ़ पचपन की
हुई थोड़ी देर आषाढ़ के आगमन में
साँसें लगी फूलने धरती के चमन में
पेड़-पौधे सूख गए सूख गयी घास
फटने लगी धरती बढ़ने लगी प्यास
इंसानों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी हो गए उदास
घरों में लगता जैसे ले लिया हो चूल्हा-चक्की ने संन्यास
बची रहीं फिर भी इंसानों की जिजीविषा और जीने की चाह
यकीन था की निकलेगी कोइ-न-कोइ राह
लगा लोगों को वह नतीज़ा इन्द्र की नाराज़गी का
खुश करने को उसे करने लगे टोना-टोटका
निर्वस्त्र महिलाओं ने रात में चलाया हल
कीचड़ में लोटते बच्चों ने किया कोलाहल
गाये गीत देते हुए इन्द्र को धमकी
क्या कर लेगा वह एक उजड़े उपवन की
"बादल सारे पानी दे नाहीं-त आपण नानी दे "
तब भी नहीं इन्द्र ज़रा भी पसीजे
हो गया था इंतज़ार का इन्तेहाँ
तभी बादल ने धरती के कान में कुछ कहा
धूप धीरे-धीरे छंटने लगी
उपवन में शीतल हवा बहाने लगी
आ गयी लगता सभी में नई जान
ताकने लगे सब मिलकर आसमान
बरसा आषाढ़, था उसका जब अवसान
बिलखती धरती में फिर भी दाल दी जान
पडी जब बुड्ढे आषाढ़ की पहली फुहार
आ गयी धरती पर जन्नत की बहार
बूढ़े-बच्चे- जवान उल्लास में नाचने-गाने लगे
आषाढ़ के आगमन का उल्लास मनाने लगे.

आता है मानसून जब आषाढ़ के साथ साथ
होती है तब कुछ और ही बात
मिलाती नहीं सिर्फ गर्मी और उमस से निजात
लाता है खुशियाँ तमाम साथ-साथ
जब हम बच्चे होते थे
पहली बारिस के कीचड में लोट-पोत हो जाते थे
खेलते थे तरह-तरह के खेल
बदता था इससे बच्चों में आपसी मेल
मिठास आम-जामुन-कैंत में आ जाती थी
फल का मजा लेते हुए पेड़ों पर लखनी शुरू हो जाती थी
खुलती थी नीद सुबह हल में नधाते बैलों की घाटियों से
निकल पड़ते थे बाग़ में मिलने साथियों से
हरे हो जाते थे खेत-बाग़ और चारागाह
छोटी सी मझुई का तट लगता जैसे कोइ बंदरगाह
जैसे-जैसे आषाढ़ बढ़ने लगा
हरियाली का आलम मचलने लगा
बढ़ता ही रहा बेबाक विस्तार की ओर
आते-आते सावन बचा न ओर-छोर
इसी लिए सावन की हरियाली पर जोर दिया कवियों ने
आषाढ़ के साथ नाइंसाफी की सबने
पड़ते नहीं बीज यादि खेत में आषाढ़ में
लहलहाती नहीं फसलें सावन की बाड़ में
होते अग़र निराला
कहते अबे सावन साला
जिस हारियाली पर तुझे है गुरूर
आषाढ़ की नीव पर खडी है, हुजूर !
आता सावन जोड़े हाथ
कहता मैं तो मिलकर रहता हूँ सावन के साथ
इन्सान करते रहते आपस में मार-पीट-लड़ाई
एकता हमारी उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाई
लगा गए तोड़ने में हमारे एकता
आषाढ़-सावन की जोड़ी कोइ तोड़ नहीं सकता
करता है इन्शान प्रकृति से ज्यादा छेड़-छाड़ जब
मानवता के लिए आफत बुलाता तब-तब
आइये बंद करें प्रकृति से जंग
सामंजस्य से मिलजुल कर रहें संग-संग.

gadya-padya

@ख़ुर्शिद अनवर: तुम्हारी तुक्बंडी ने तो और भी हौसला अफ्जाइ किया चेतावनी की बजाय. पहले कह्ता था जब ईश कविता लिख सकता है तो कोई भी लिख सकता है और अब तो खुर्शीद भी.@ऋतु आशाढ-सावन के द्वंद्व पर एक गद्यात्मक छोटी टिप्पणी लिखा था वह चिपकी ही नही. अब पद्यात्मक लिखने कि कोशिश करुंगा.@चंद्र प्रकश झा: यार, अपने आप कई दिन ड्राई हो जते हैं और अब तो कालेज भी खुल रहा है तो ड्राई ही ड्राई होगा.@जगजित: कोइ सजग-वजग और तत्पर नही रहता पहले जैसा ही हूँ - लापरवाहह और आवारा. बस कभी कभी गद्य का पद्य हो जता है.
मै गांधीवाद-विरोधी गाँधी का प्रशंसक हूँ इसलिए गाँधी कहा जना अति सम्मान की बत मानता हूँ. स्वतंत्रता-आंदोलन के नेताओं मे गाँधी ही एकमात्र मौलिक चिंतक हुए हैं जिन्होंने "एसेन्स एंड अपीअरेंस" के अंतर्विरोधों को त्रांसेंद किया. गांधी इतिहास के चंद शक्शियतो मे हैं जो अपने जीवनकाल मे हही किम्वदंति बन गये. गाँधी का राज्य का सिद्धांत, रूसो के जनरल विल की तरह आधुनिक औद्योगिक युग के लिये अव्यावहारिक होने बव्जूद मौलिक है और सहभागी जंतंत्र का एक सैद्धांतिक नमूना. उस तरह कि जवाबदेही चुनावी जंतंत्र को भ्रष्टाचार से कुछ हद तक मुक्त कर सकता है.

आषाढ़-सावन

हम सब जानते हैं कि उत्सव-धर्मिता बोध समेत, मानव-चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों और समाजीकरण के माहौल से बनती-बिगड़ती है. हमारे बचपन में आषाढ़ में पहली बरसात के बाद उलास और धमाचौकड़ी का माहौल बन जाता था. (तब तक मालुम नहीं था कि मैं आषाढ़ में पैदा हुआ था जिसके पखवाड़े बाद भीषण बाढ़ आ गयी थी गाँव की छोटी सी नदी में) बच्चों गर्मी से निजात की खुशी तो रहती ही थी जिससे बाग़ और बन में तरह तरह के खेल होते थे, इससे भी अधिक खुशी होती थी कि जामुन, आम, बदहल, कैंत, खिरनी के फलों में मिठास आ जाती थी और आम-जामुन खाते, शुट्तुर, लखनी और नदी के कई खेल खेलते हुए चरवाही करने में छुट्टियाँ तफरीह में बीतती थीं.
सावन में चहुँ-ओर फ़ैली हरियाली और सुविधाजनक मौसम से तो ख़ुशी होती ही थी लेकिन अतिरिक्त ख़ुशी इस बात की होती थी कि आषाढ़ में घर-द्वार में ही बोई गयी लौकी, कोहणा, नेनुआ, तरोई, सरपुतिया, कुनरू तथा मक्के और चारी में बोए गए बोड़ा अवं कुछ और फ़लिआ सावन में फल देने लगते थे और सभी घरों में रोज सब्जी बनती थी.
जहां तक सावन के अंधे गधे की कहावत है तो इसमे बेचारे गधों का कोई कसूर नहीं है उनके बारे में यह अफवाह इन्शानो ने फैलाई है.

जिसका नाम है ईश

यह शख्स है जिसका नाम है ईश
करता नही अनर्गल प्रलाप की कोशिश
कहता है वही, लगता है उसको जो सही
परवाह भला-बुरा लगने की करता नहीं
करता वही जो मन को भाये उसके
हो जाए जो भी झेलता नही किसी के ठसके
हो जाती जो उससे कोई भी गलती
अपराधबोध से जिंदगी बोझिल हो जाती
सुकून पाता तभी जब माँग लेता माफी
कला के लिए कला को मानता अपराध
बहस के लिए बहस को कहता प्रलाप
लगाये उस पर जो भी आरोप प्रलाप का
होगा वह रोगी किसी मानसिक संताप का
होती है ऐसे लोगों से उसको सहानुभूति
बनी रहे जिससे भाईचारे की अनुभूति
16.07.2011

Friday, July 15, 2011

nakal

मैंने कभी इम्तहानों में नक़ल नहीं किया क्योंकि मैं अपने से ज्यादा तेज किसी को समझता ही नहीं था.(इसे कृपया आत्म-मोह न समझें). दर-असल बचपन में गाँव में सभी कहा करते थे, "ईश बहुत अच्छा है". सब कहते थे इस लिये मैने भी मान लिया और ज्यादा अच्छा बनने की कोशिश करता था. इसी तरह सभी कहते थे "ईश बहुत तेज है" लेकिन उनकी यह बात मैंने पूरी तरह नहीं माना क्योंकि मेरा गाँव-गिरांव शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़ा हुआ था. सबसे नजदीक मिडिल स्कूल ८ किमी दूर था. १२ साल की उम्र में जब शहर आया तो वहां भी लोग कहने लगे, "ईश इज वैरी इंटेलिजेंट". मैंने भी सोचा सब कह रहे हैं तो होऊंगा ही. नक़ल न करने बचपन की आदत कभी छूटी नहीं.
जहां तक प्रेरणा का सवाल है वह बचपन से अब तक के अनुभव-अध्ययन का संचित प्रभाव होता है. आई.पी.आर. (बौद्धिक संपदा अधिकार) एक धोखा है क्योकि हर पीढी पिछली पीढ़ियों के योगदानों और उपलब्धियों को समेकित(कंसोलिडेट) करता है और आगे बढाता है.

Thursday, July 14, 2011

ऐतिहासिक भौतिकवाद


ऐतिहासिक भौतिकवाद
ईश मिश्र

भाग १

भूमिका के बदले

1
ऐतिहासिक भौतिकवाद दर्शन नहीं विज्ञान है
तथ्यों-तर्कों पर दुनिया को समझने का ज्ञान है
इतिहास की गतिविज्ञान का द्वंदात्मक विधान है

सत्य वही जिसका है ठोस भौतिक प्रमाण

बाकी सब है अमूर्त पाखण्ड, हवाई आख्यान

करता है इतिहास की व्याख्या भौतिक आधार पर
न कि किसी अमूर्त, अदृश्य, दार्शनिक विचार पर
यथार्थ वही जो प्रमाणित हो व्यवहार में
न कि भगवान की मर्जी या आध्यात्मिक विचार में 
आर्थिक ढाँचे में खोजता इतिहास का गतिविज्ञान
राजा-रानी की कहानियां हैं इतिहास के सतही आख्यान
कर उत्पादन आजीविका का जानवरों से अलग हुआ इंसान
श्रम बन गया आत्मा जीवन की और उद्पादन का आधार
बना हुआ है श्रम तभी से इतहास की निरंतरता का तार
समझना है अगर समाज की संरचना का सार
समझना पडेगा राजनैतिक अर्थशास्त्र के विचार
बनता-बिगड़ता है उत्पादन के संबंधों से मानव इतिहास 
अंतिम कारण और संचालक है जिसका समाज का आर्थिक विकास  
कुंजी है उत्पादन पद्धति और आधारभूत संरचना
निर्धारित होती जिससे राजनैतिक-वैधानिक अधिरचना
होता है जब उत्पादन शक्तियों का उत्पादन संबंधों से टकराव
होता है उत्पादन संबंधों में मूलभूत बदलाव
बदलते हैं जब उत्पादन पद्धति और विनिमय नियम
बदल जाते हैं रीति-रिवाजों के उपक्रम   
होता है समाज में नया परस्पर-विरोधी वर्ग विभाजन
बनता है वह वर्ग शासक कब्जे में होते जिसके उत्पादन साधन
 फिर शुरू होता है एक नए वर्ग संघर्ष का इतिहास
कसता शासक सिकंजा वर्चस्व का शोषित करता तोड़ने का प्रयास  

ऐतिहासिक भौतिकवाद करता है दुनिया की व्याख्या आर्थिक अर्थों में

सत्यापित दम दिखता है इसके अकाट्य तर्कों में

कहता है यह अर्थ ही है इतिहास का मूल-मंत्र

खडा होता है जिसपर धर्म-क़ानून सी अधिरचानाओं का तंत्र

उत्पादन संबंधों से तय होता है सामाजिक चेतना का स्वरुप
सामाजिक सम्बन्ध खुद बनते हैं उत्पादन-विकास के स्तर के अनुरूप
अर्थप्रणाली ही है देश-काल की गति का मूल-कारण

यही करता है ऐतिहासिक युग के चरित्र का निर्धारण


१८९२ में एंगेल्स ने लिखी एक बहुत पतली सी किताब

विषय और शीर्षक था उसका, वैज्ञानिक या वायवी समाजवाद

साफ़ साफ़ लिखा है उसमें कि क्या है ऐतिहासिक भौतिकवाद

उत्पादन पद्धति है कुंजी इतिहास की बगैर अपवाद

राजाओं, रानी-रखैलों और लड़ाइयों का इतिहास है बकवास

 इतिहास की असली कुंजी है,श्रम के साधनों का क्रमिक विकास

(२९.०८.२०१२)


नहीं है अमूर्त विचारों में भ्रमण ऐतिहासिक भौतिकवाद

है यह समाज को समझने और बदलने का प्रामाणिक संवाद

देता नहीं है यह किसी काल्पनिक अतीत का विवरण

करता है यह देखी-सुनी और प्रमाणित बातों का ही चित्रण

 (२९.०८.२०१२)


१८५९ में मार्क्स ने लिखा पूंजीवाद के नियमों पर एक कथन

ऐतिहासिक भौतिकवाद का सार है जिसका प्राक्कथन

शीर्षक है राजनैतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान

माना जाता है जिसे ३ खण्डों में लिखी पूंजी का पूर्वानुमान 

 (२९.०८.२०१२)


श्रम ही है जीवन की आत्मा

नहीं है और कोई दूजा उसका परमात्मा

इतिहास की निरंतरता की कड़ी श्रम है

भूत और भगवान छलावा और भ्रम है

मनुष्य में होता है एक खास नैसर्गिक गुण

श्रम के औजारों को निखारने में होता वह निपुण

जैसे-जैसे विकसित होते गए श्रम के साधन

बढती रही श्रम-शक्ति की उद्पादकता और सामाजिक उत्पदान


जीने की जरूरतों के उत्पादन के सिलसिले के दौरान
अनचाहे-अनजाने एक सामाजिक रिश्ता बनता है इंसानों के दरम्यान

कहे जाते हैं ये उत्पादन के सामाजिक सम्बन्ध

तय करते हैं जो मनुष्यों के आपसी अनुबंध

ये रिश्ते नहीं हैं अंजाम किसी भगवान की भक्ति के

बनते-बदलते हैं ये विकास से उद्पादन शक्ति के

चेतना का स्तर होता इन्ही रिश्तों के अनुरूप

सचेत मानव प्रयास बदलता जिसका स्वरुप

सच है वस्तु और विचार की द्वंद्वात्मक एकता

वस्तु की है लेकिन इसमें प्राथमिकता

नहीं हुई न्यूटन के सिद्धांतों से सेबों के गिरने की शुरुआत

सेबों के गिरने से आई न्यूटन के मन में कारण खोजने की बात


मनुष्य की चेतना से नहीं बनतीं भौतिक स्थितियां

उलटे भौतिक हालात तय करते हैं मानव-चेतना की परिस्थितियाँ

मनाव चेतना है उसके ऐतिहासिक हालात का परिणाम

बदली चेतना है बदले हालात का अंजाम

अपने आप बदलते नहीं इतिहास के हालात

इंसान करता इसके लिए सजग, अनवरत प्रयास

बदलाव है इतिहास का द्वंदात्मक नियम

माझी है जिसका मनुष्य का सामाजिक उपक्रम

क्रमिक परिवर्तन होता रहता है लगातार मात्रात्मक रूप में

क्रांतिकारी परिपक्वता से होता है प्रगट गुणात्मक रूप में

नष्ट होना है उन सबको जिनका भी है वजूद

पूंजीवाद भी नहीं रहेगा सदा मौजूद

होगा उदित इसके अवशेषों से एक नया समाज

न होगा कोई राजा न ही कोई राज

 (३०.०८.२०१२)

भाग२

आदिम साम्यवाद


इन्सान ने जब दो पैरो पर चलना शुरू किया

चलना छोड़ कर अगली टांगो से, उन्हें चलाना शुरू किया

कहने का मतलब उन्हें पैर से हाथ बना लिया

तब अपने को पशु-समूह से अलग कर लिया

बनाया हाथों को औजार और श्रम का साधन

करने लगा अपनी आजीविका का उत्पादन

पडी इस तरह मानव सभ्यता की बुनियाद

बनती जा रही हैं जिसपर मंजिलें बेमियाद


ज़िंदा रहने के लिये फ़ल-फूल-कंद्मूल खाते थे,

पीकर सोते से पानी पीपल तले सो जाते थे

भाषा ज्ञान न था

संवाद का भान न था

एकाकी जीवन बिताते थे

पशुवत, ध्वनि से काम चलाते थे


आत्म-संरक्षण ही एकामात्र नैसर्गिक प्रवृत्ति थी

बाकी अन्तर्निहित पर सुप्त थीं

रहने लगे समूहों मे बचने के लिये जानवरो से

कहने-सुनने लगे धवनियों, संकेतों, इशारों से

होता जब भी शेर-चीते का डर

तना पकड चढ जाते पेड पर

होती रही इस तरह मेल-जोल की पुनरावृत्ति

जागी इंसान की एक और प्रवृत्ति

रहता नहीं अब सिर्फ आत्म-प्रेम के भाव में

हमदर्दी भी आ गयी अब उसके स्वभाव में

करते-करते ध्वनि-संकेतों से संवाद

किया उसने ध्वनि से शब्द ईजाद

शब्दों के मेल से हुई भाषा की शुरुआत

है मानव इतिहास में यह अति क्रांतिकारी बात

और भी इन्द्रियाँ जगने लगीं

विवेक से पहले अंतरात्मा जगी

धीरे-धीरे दिमाग तेज चलने लगा

जीने का तौर तरीका बदलने लगा


वे पत्थरो से हथियार और औजार बनाने लगे

बीन कर ही नहीं, तोड्कर भी फल खाने लगे

शुरू किया छोटे-मोटे जानवरो का शिकार

होते गये जैसे-जैसे परिमार्जित हथियार

चिंगारी सी निकली हुआ जब पत्थरों का घर्षण

हुआ इस तरह अग्नि का क्रांतिकारी अन्वेषण

जीवन की धारा ही बदल गयी

आग जिलाने की कला जब आ गयी.

हुआ जब तीर-धनुष का आविष्कार

करने लगा वह बड़े जानवरो का शिकार

मांसाहार से दिमाग तेजी से बढने लगा

इन्शान नई--नई खोज करने लगा

स्त्री-पुरुषों का मेल होता था परिस्थिति के संयोग से

मुक्त थे लेकिन वे मोह-माया के योग से

हुई धीरे धीरे घर बनाने की चलन

कुनबो मे होने लगा इंशानों का रहन-सहन

बनाने लगे बर्तन बुनने लगे कपडे वे

शुरू किया सम्पत्ति का आगाज पशु-धन से

आया वजूद मे इतिहास का पहला श्रम-विभाजन

मर्द करेगा शिकार, औरत देखेगी घर-बार और पशुधन

हुआ जब लोहे का आगाज़ और पैदा होने लगा अनाज

नीव पड गयी जिस पर आगे चलकर बनते रहे वर्ग समाज



जब भी होता है नये ज्ञान का आगाज

हथियारों की होड़ में फंस जाता समाज

हथियरो का इस्तेमाल होता नही महज शिकार मे

होने लगा उनका इस्तेमाल कुनबो के आपसी जनसंहार मे

लूटते पशुधन और करते कत्ल-ए-आम

जो बच जाते बना लेते उनको गुलाम

शुरू हुआ इस तरह सभ्यता का इतिहास

होता रहा शोषण और लूट की संस्कृति का विकास.

                               १५.०७.२०११


Wednesday, July 13, 2011

मुम्बई में धमाका

मुम्बई में धमाका
ईश मिश्र
फिर आई खबर मुम्बई में बम फटने की
सैकड़ों निर्दोषों के मरने की
कई जा रहे थे दिहाड़ी अपनी करने
रात को जल सके चूल्हा जिससे घर में
कई नन्हे-मुन्ने जा रहे थे स्कूल
बम का मतलब भी नहीं जिन्हें मालुम
नहीं है यह कोई बात नई
सदयों पहले इसकी शुरुआत हुई
होता आ रहा है यह तब से
बारूद का ईजाद हुआ जबसे
जिसके पास बारूद का जितना बड़ा जखीरा
मारे उसने उतने ही इन्शान, लूटा सोना-चांदी-हीरा
हो चुका था जब दूसरे महा युद्ध का अंत
अमरीका बन कर उभरा बारूद का नया महंथ
उसने पहला परमाणु बम बना दिया
लिटिल बॉय और फैट मैन नाम दिया
किया दुनिया पर नए वर्चस्व ऐलान
भेज दिया जापान में परमाणु-लैस विमान
हिरोशिमा में गिराया लिटिल बॉय,नागाशाकी में फैट मैन
मारे हजारों इन्शान कर दिया दुनिया को बेचैन
छीन लिया आने वाली पीढ़ियों का अमन-चैन
बन गया वह दुनिया का नया वाचमैन
बढाता रहा जखीरा परमाणु-बमों का
लूटता रहा संसाधन आम-जनों का
जारी है अभी भी उसका यह अभियान
समझ चुका है बम का खेल आज का इन्शान
ख़त्म कर देगा वह बम-गोलों का खेल
इन्शानियत के उसूलों से है नहीं जिसका मेल
बनाएगा ऐसी दुनिया फूले-फलेगी इन्शानियत जिसमे
बम-गोलों से नहीं रहेगी वाकफियत उसमे.
[ईमि/13.07.2011]

Tuesday, July 12, 2011

जब वर्षा शुरु होती है

जब वर्षा शुरु होती है घास हरी हो जाती है
गर्मी की उमस का एहसास कम हो जाती है
उड़ते है उन्मुक्त चील कौवे आकाश में
मय मिल जाती है प्रेम के मधुमास में
[ईमि/12.07.2011]

कहते रहेंगे हम

कहते रहेंगे हम
सुनें-न-सुनें आप
एक-न-एक दिन महसूंसेंगे
इसका गुरुत्व और ताप
बढ़ जाएगा जब चारणों का पाप
खुद-ब-खुद होगा कलम हाथ में
कवि बन जायेंगे आप
निहित है यह खतरा विमर्श में
समझें इसे चाहे तो वरदान या समझें अभिशाप
[ईमि/12.07.2011]

Sunday, July 10, 2011

कुछ कहो मत

कुछ कहो मत
ईश मिश्र
मत करो घपलों की बात इस देश में
देश-द्रोह होगा वह आलोचना के भेष में
करोगे अगर बात रानी और युवराज की
जनतांत्रिक राजवंश की बादशाही बेताज की
मनमोहन बताएँगे इसे साज़िश नक्साल्वाद की
शासक हो अगर चोर और बेईमान
जय बोलो उसकी, कहो उन्हें महामहिम ईमानदार श्रीमान
राज चला रहे हों जब पोस्को के दलाल
विरोध का होगा ही चिदामबरम को मलाल
टाटा को चाहिए कलिंगनगर की जमीन
मार रहे हैं अंधाधुंध किसानो को बीजू-पुत्र नवीन
खडा है जो भी किसानों के साथ
लगेगा उसपर विकास-विरोध का पाप
टाटा को मालुम है देश कैसे चलेगा
विकास की गाडी में कौन-कौन नधेगा
होती नहीं बहनजी व्याकुल दलितों-नारिओं पर अत्याचार से
कहती हैं बच कर रहो मनुवादी दुष्प्रचार से
होगी यदि मुलायम-लालू के घपलों की बात
माना जायेगा इसे सामाजिक न्याय पर अघात
बात अगर बुद्धदेब की पूंजी-सेवा की होगी
कम्युनिस्ट-विरोधी अफवाह हो जायेगी
इस लिए ऐ वुद्धिमानों
एक धागा खरीदो कर लो जुबान बंद
खाओ-और-खाने दो बने रहो अक्लमंद
११.०७.२०११

Tuesday, July 5, 2011

Delhi University

Unfortunately, Delhi University, with theoretical possibility of becoming the hub of radicalism to set an example for other universities, does not have any history of any radical student movement, at least since the early seventies. There have been, though, small radical students groups. The DUSU and the College Unions perform just one function : organization of annual fests and eating up consequent commission from sponsorship. We, the teachers never intervene. Most of the "teacher material" is supplied from the same students into the academic job market and is bound to transcend into teachers' consciousness. there have been militant and successful teachers' movements in 1970s and 1980s but the goal was not to set any national academic agenda, nevertheless, these movements deserve salutes.
The argument put forth by DUTA of attracting the 'talent" by monitory incentive sounds laughable. May be it suits UPSC rejects.
Most tragic part of the Delhi University academics is the patronage and "job fixing". People know the result in advance of the interview. On the basis of my observation of the DU job-market, as a candidate for many years and as a member of Selection Committee, by virtue of rotational teacher-in-chargeship, I am forced to conclude that 99% teaching jobs are given on extra-academic considerations, academic competence is an added qualification. 1% accidently. If we want to make this university, a center of excellence and radical ideas, the job-fixing has to be rooted out.

The oldest civilization

India is oldest civilization evolving and perpetuating most inhuman social structure of Varnashrami patriarchy that kept the education and public offices out of reach for the vast majority making the social progress stagnant and the country vulnerable to foreign invasion. Any one with just few thousands of cavalry like Nadir Shah could overrun from Peshawar to Bengal in the vast country of so maany "heroic" traditions? Yes India has become self-sufficient in agriculture (BHARAT EK KRISHI PRADHAN DESH HAI) and agricultural lands are being gifted to global corporate for throw away prices after being confiscated from peasants with the arms and army raised on peoples' money. Those who oppose are killed, maimed, arrsted and trapped into many forged criminal charges as is happening in kalinganagar;niyam giri;nrayan patna;Npoida; jagatsinghpur.............. India is economic power with highest level of corruption; starvation deaths; peasants' suicides; criminalization of populace by raising private armies like salwa Judum....... The Indian state is in tough competition with Pakistan to prove itself as the more loyal dog to US imperialism on whose instance it is destroying the Adivasee population , expropriating their lands and subje cting them to all kinds of atrocities including burning of the villages; rapes and murders........ If some Vinayak Sens try to raise the voices of dissent they are silenced by draconian laws......... India is great as it has imposed an undeclared emergecy........

Sunday, July 3, 2011

निर्माण मजदूर

Ish Mishra
निर्माण मजदूर
ईश मिश्र
I
रहते थे गाँव में करते थे खेती
रहने खाने की कोइ कमी नहीं थी
चावल-दाल-सब्जी अंचार के साथ खाते थे
नदी तीरे जंगल में गाय-भैंस चराते थे
दूध-घी की कमी न थी
लुटी अपनी ज़मीं न थी
खेत-बाग़ अपने थे
आते-सुहाने सपने थे
तभी हुआ राष्ट्र निर्माण का ऐलान
खेतों में उगेंगे अब सीमेंट के बगान
जिसके लिए चाहिए जेपी सेठ को हमारी जमीन
आ गया राष्ट्र तानी बा अरूद की मशीन
हमको भी दिखाया भविष्य के सपने हसीन
टूट गए जो जन्मते ही बेचारे दीं-हीन
उजाड़ दिए घर लूट ली जमीन
II
निकल पडा रोजी-रोटी की तलाश में
बुलाया जेपी सेठ ने कहा काम तो है पास में
मरता-क्या न करता मान लिया सेठ की बात
देख खेत के हाल रो पड़े जज़्बात
बनने लगी गगनचुम्बी अट्टालिका जब मेरे खेत में
उगा लिया हम मजदूरों ने झुग्गी बस्ती नदी की रेत में
शहर बन गया गाँव जेपी नगर पड़ गया नाम
शहर की शहनाइयों में झुग्गी के ढोलक का क्या काम?
हो गयीं जब अट्टालिका पूरी तरह आबाद
कर दिया हमारी बस्ती को आगजनी से बर्बाद
ख़ाक हो गए विस्तार-वर्तन आग की चिंगारी से
जोड़ा था जिसको हमने खून-पसीने की मजदूरी से
03.07.2011

Saturday, July 2, 2011

Criticality and patriotism

Criticality and patriotism
Ish Mishra
Freedom of thought and expression is the core of democracy and essential ingredient of creatively healthy development of individual personality and the character of the society. There is nothing like JNUite freedom to express – lineage”, owing to the legacies of its democratic academic culture that was possible to build in the first decade of its inception, due to its very small size and intellectually enlightened composition, JNU provides conducive atmosphere to critically comprehend the importance of debates; discussions - freedom of expression. I shall fight for your freedom to express, even if I detest your ideas.

I am a teacher. In my first class, I begin with telling my students, who become my friends (JNU syndrome), that key to any knowledge is questioning; questioning anything and everything, including your own mind set. But it involves the risk of turning into an atheist. In fact, during our growing up and training, we acquire many senses of moralities including uncriticality in general and uncritical patriotism with jingoistic tendencies independent of our will or conscious effort. This uncritical mind-set does not allow us to critically asses the historical celebrities and hence your sarcastic reaction on my stating the historical fact that Subhash Bose was an ally of Hitler during the 2nd World War.
I advise my student-friends to question the acquired moralities, beginning with the standing up in the class on the arrival of the teacher, reject them if irrational and replace them with rational moralities. “It has been like that for ages” is an untenable answer as our ancestors may not have been wiser than us. Every next generation is always smarter, is the proven law of the dynamics of  human history, as every generation builds upon the contributions of previous generations. And history never repeats itself. History does not repeat, only echoes. Due to our ignorance unaffected by Ph.D. degree or success in UPSC or becoming a professor after being rejected in all such examinations with the help of some God fathers eager to adopt God sons.

We mistake echoes for the real sound. Karl Marx has rightly said that the traditions weigh on our heads like the corpses of the dead generations. One must be unburden oneself at the earliest. The engine of the history does not have reverse gear. It may go zigzags but will move ahead. There is no final knowledge that has already been invented by our ancestors, as some people say about our semi-nomadic-pastoral Rig Vedic ancestors. If one reaches the "cliff" of the knowledge and keeps looking down the slope with self-obsession one stops to grow and stagnates. Knowledge is on-going, continuous process. The educational institutions do not seek to impart knowledge but to equip the children and the youth with information and skills required for the status-quo. No wonder all the builders and property dealers are becoming patrons of the educational institutions for a lucrative price. Students too do not join prestigious institutions for the knowledge but to enhance their market value. To acquire knowledge based on critical rationality one has to make independent efforts and JNU culture provided conducive, conditions for that. Addebajees on the Dhabas were the primary forums for such independent efforts aided by debates and discussions on various other forums.

Now coming back to the issue of Subhash Bose, who till becoming the President of Congress twice was a Bengal based leader in the shadows of Chitaranjan Das, one of the advocates of Council entry against the boycott call by Gandhi. If Bose was so popular in the Congress and in the masses that he became congress President twice, once against the declared wishes of Gandhi, and if he was a visionary as is generally projected by uncritical patriotism, why could he not fight out within the various streams of national movement his conflict with Gandhi, if he was not opportunistically but ideologically opposed to him? He was a fence sitter between Left and right wings of the Congress. He could win the elections against the Gandhi’s wishes, not for his national popularity but due to active support and protracted campaign by the Congress Socialist Party (CSP) that included the members of the banned Communist Party.  Acharya Narendra Dev was it founding President; JP as General Secretary and Namboodaripad as Joint Secretary. Subhash who was unanimously elected in 1938 Haripura Congress and against Gandhi’s candidate at Tripuri Congress in 1939 but became ineffective due to passage of the notorious Pant resolution, as the CSP members abstained. By the time Subhash decided to take shelter with Hitler and began his regular broadcast of exchanging blood with Azadi, from Hitler’s radio station in Berlin, Hitler’s fascist and expansionist character was clear to any bearer of common sense. Bose was highly meritorious to clear ICS examination and therefore, may be under desperation, chose to be subservient ally of Hitler putting the lives of patriotic rebels of British Royal Army under the supreme command of the axis forces.
Just imagine, had the results of the world war been opposite that seemed imminent before Hitler committed the Napoleonic blunder, India would have slipped under extra-constitutional fascist imperialism from the clutches of constitutional bourgeois imperialism. May be the freedom struggle would have prolonged and post-colonial India would have been more wrecked. I conclude by referring to Morarji’s interview on TV by MJ Akbar sometime around 1992-3. Akbar: “Do you think Subhash Chandra Bose if alive would have been better prime minister than Nehru?” Morarji: “who says so? Nehru was a thorough democrat. May be Bose would have been a worst kind of fascist!”
In order to comprehend the history, one needs to be critical and self-critical. It is not to undermine the sacrifices of INA soldiers who under false consciousness of patriotism fought on the side of fascists.

Friday, July 1, 2011

शिक्षक संघ की सदारत २

शिक्षक संघ की सदारत २
मेरे व्यक्तित्व की विडम्बना है की मेरे मित्र और परिजन मुझे आवारा (जो कि मैं हूँ भी और किसी कीमत पर इसे छोड़ नहीं सकता), गैर-जिम्मेदार और गैर-संजीदा छवि प्रचारित करते हैं और मुझे संजीदगी की जिम्मेदारी भी सौंप देते हैं या मैं स्वतः ले लेता हूँ तो कोइ आपत्ति नहीं करता. मेरा अपना मानना है कि गंभीरता के लिए टेंसन सिंह बनना जरूरी नहीं है. कालेज के शिक्षक संघ के अध्यक्ष होने पर जितना आश्चर्य आप सबको है उतना ही मुझे.कुछ साल पहले नंदीग्राम पर एक सम्मलेन में कलकत्ता गया था भोपाल गैस पीड़ितों में काम करने वाला एक दोस्त है सत्तू -- सत्यनाथ सारंगी -- जब मैंने उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया हॉस्टल वार्डन का तो उसने सब दोस्तों को बुलाकर कहा, "यह देखो, ईश साला वार्डेन है हॉस्टल का क्या होगा?" और जब कभी आत्म कथा लिखूंगा तो उन तीन सालों का ज़िक्र नोस्टालजिक हो कर करूंगा.

मित्रों! मैं लेनिन के जवाले से अपने छात्रों को कहता हूँ कि जब भी चुनाव न्याय और लोकप्रियता में करना हो तो न्याय के पक्ष में खड़े हो लोकप्रियता बहुत अस्थिर है. और शिक्षक को मिशाल से पढ़ाना होता है. इसी कालेज में १० साल पहले नियुक्ति में हेरा-फेरी के खिलाफ मैं और मेरा एक सहकर्मी डॉक्टर मनिवंनन(अभी वह मद्रास विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर है) भ्हूख हड़ताल पर बैठे थे. एक भी शिक्षक साथ मही आया एक दलाल किस्म का कमीना अध्यक्ष था. सात्क्शात्कार के समय ६००-७०० विद्यार्थी आ गए और इन्तेरविव कैंसिल हो गया. उसी शिक्षक-संघ ने जब लड़ने की जरूरत हुई तो सर्व-सम्मति से मुझे अध्यक्ष चुन लिया. मैं फंस गया अपने एक भाषण के चक्कर में. जो नियमित अध्यक्ष था वह अपनी जातीय अस्मिता को बरकरार रखने के लिए संघर्ष के समय इस्तीफा दे दिया. उसके एक जातीय बंधू ने कहा इस्तीफा देना नैतिक साहस का काम है. मैंने कहा संघर्ष के समय मुखिया का इस्तीफा कायरतापूर्ण पलायन है. अगले दिन अनपेक्षित रूप से मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया और मई कायरतापूर्ण पलायन नहीं कर सकता था.
(जारी)

कालेज के शिक्षक संघ के अध्यक्षता की कहानी

कालेज के शिक्षक संघ के अध्यक्षता की कहानी
पकाने के लिए दो-चार पंक्तियाँ पद्य में फिर गद्य में. पकाने से विशेषण क्या बनेगा? चाटने का विशेषण चाट होता है, लेकिन पाक से तो पाकिस्तान का रिश्ता बन चुका है. मैं पाकनस्टाइन प्रस्तावित करता हूँ जो जानते हैं वे समझ जायेंगे और जो नहीं जानते वे समझेंगे आइन्स्टाइन जैसा कोइ सम्मानजनक शब्द है. पद्य तो शायद छोटा हो लेकिन गद्य के बारे में अभी से कुछ नहीं कह सकता. दशकों बाद डेड लाइन की समस्या से मुक्त हुआ हूँ और संयोग से पेड़-पौधों और लताओं से आच्छादित हरी घास पर चीकू (सब कहते हैं अभी तक फल नहीं देखा इसमे हाँ कुछ तोरियाँ लगी हैं) तले बैठकर बकचोदी का मौका मौका मिला हो और कुछ भी करने, न करने का नैतिकेतर कोंई अन्य दबाव न हो तो मै तो जो मन में आयेगा लिखूंगा और सेचुरेसन प्वाइंट तक मित्रों को पकाऊंगा जो बेचारे इस वर्चुअल वर्ल्ड में गाली देने के अलावा कुछ कर ही नहीं पाएंगे. चलो भूमका इतनी ही.

देखो पंचों ईश मिश्र की हिमाकत
कल तक करते थे जो आवारगी की हिमायत
मिलते ही भा गयी छोटी सी सदारत
दिखाने लगे मालिक को जनबल की ताकत
नहीं मालुम इनको जनतंत्र की रवायत
भूल गए कहो कुछ, करो कुछ और की कहावत
मिल गया इनको एक दलित अर्जुन
बन बैठे खुद ही उसके चक्रधारी किशन
सामने खड़े थे कई द्रोणाचार्य और दुर्योधन
सोच आसन्न मौत इनकी दुखी हुआ मन
देख दुर्योधानी उत्पात हो गए अधीर
पुकारा नहीं अर्जुन को, चला दिया तीर
देखा पीछे एकलव्यों की जमात
टालने की सोचा संभावित रक्तपात
बात चीत से शायद बन जाए बात
लेकिन तभी सुनाई दी पाश की आवाज़
लड़ाई के बिना मिलता नहीं भात
इसी लिए जारी रहेगा यह संघर्ष
अगली पीढ़ियाँ करेंगी इस पर विमर्श
२.०७.२०११
माफ़ करना मित्रों पद्य की लम्बाई ज्यादा हो गयी इस लिए गद्य फिर कभी .
शिक्षक संघ की सदारत २
मेरे व्यक्तित्व की विडम्बना है की मेरे मित्र और परिजन मुझे आवारा (जो कि मैं हूँ भी और किसी कीमत पर इसे छोड़ नहीं सकता), गैर-जिम्मेदार और गैर-संजीदा छवि प्रचारित करते हैं और मुझे संजीदगी की जिम्मेदारी भी सौंप देते हैं या मैं स्वतः ले लेता हूँ तो कोइ आपत्ति नहीं करता. मेरा अपना मानना है कि गंभीरता के लिए टेंसन सिंह बनना जरूरी नहीं है. कालेज के शिक्षक संघ के अध्यक्ष होने पर जितना आश्चर्य आप सबको है उतना ही मुझे.कुछ साल पहले नंदीग्राम पर एक सम्मलेन में कलकत्ता गया था भोपाल गैस पीड़ितों में काम करने वाला एक दोस्त है सत्तू -- सत्यनाथ सारंगी -- जब मैंने उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया हॉस्टल वार्डन का तो उसने सब दोस्तों को बुलाकर कहा, "यह देखो, ईश साला वार्डेन है हॉस्टल का क्या होगा?" और जब कभी आत्म कथा लिखूंगा तो उन तीन सालों का ज़िक्र नोस्टालजिक हो कर करूंगा.

मित्रों! मैं लेनिन के हवाले से अपने छात्रों को कहता हूँ कि जब भी चुनाव न्याय और लोकप्रियता में करना हो तो न्याय के पक्ष में खड़े हो लोकप्रियता बहुत अस्थिर है. और शिक्षक को मिशाल से पढ़ाना होता है. इसी कालेज में १० साल पहले नियुक्ति में हेरा-फेरी के खिलाफ मैं और मेरा एक सहकर्मी डॉक्टर मनिवंनन(अभी वह मद्रास विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर है) भ्हूख हड़ताल पर बैठे थे. एक भी शिक्षक साथ मही आया एक दलाल किस्म का कमीना अध्यक्ष था. सात्क्शात्कार के समय ६००-७०० विद्यार्थी आ गए और इन्तेरविव कैंसिल हो गया. उसी शिक्षक-संघ ने जब लड़ने की जरूरत हुई तो सर्व-सम्मति से मुझे अध्यक्ष चुन लिया. मैं फंस गया अपने एक भाषण के चक्कर में. जो नियमित अध्यक्ष था वह अपनी जातीय अस्मिता को बरकरार रखने के लिए संघर्ष के समय इस्तीफा दे दिया. उसके एक जातीय बंधू ने कहा इस्तीफा देना नैतिक साहस का काम है. मैंने कहा संघर्ष के समय मुखिया का इस्तीफा कायरतापूर्ण पलायन है. अगले दिन अनपेक्षित रूप से मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया और मई कायरतापूर्ण पलायन नहीं कर सकता था.
(जारी)