Sunday, January 30, 2022

स्व का स्वार्थबोध और परमार्थबोध

 स्वयं को ही बेहतर मानने का कोई इगो नहीं है। मेरी बेटी के साथ मेरे संवाद को कोई सुने तो दांत तले उंगली दबा ले। कभी कहता हूं कि अपने बाप से ऐसा करती हो? दूसरे के बाप के साथ ऐसा करने में खतरा है। समानता के सुख को सर्वोच्च सुख मानता हूं। मिडिल स्कूल में टीचर ने पूछा क्या बनोगे, अब 11-12 साल के गांव के लड़के को क्या मालुम क्या बनेगा? मैंने कहा अच्छा। अच्छा तो प्रेडिकेट है अपने आप में कुछ नहीं, अच्छा इंसान, अच्छा शिक्षक, अच्छा बाप, अच्छा वार्डन। अच्छा बनने के लिए लगातार अच्छा करना पड़ता है। अच्छा करने के लिए 'क्या अच्छा है?' जानना पड़ता है। जानने का कोई फॉर्मूला नहीं है, खास परिस्थिति में दिमाग के इस्तेमाल से जाना जा सकता है। सभ्य (वर्ग) समाज व्यक्तित्व को विखंडित करता है -- स्व के न्यायबोध और स्व के स्वार्थबोध में। स्व के न्यायबोध की प्रथमिकता स्व के स्वार्थबोध की प्राथमिकता से ज्यादा सुखद है। सोचने का साहस और सोच के परिणामस्वरूप समझ को व्यवहार में अमल करना अच्छा करना है। मुझे निजी आक्षेप और मेरा नाम देखते ही पंजीरी खाकर भजन गाने वालों से कोफ्त हो जाती है, उन्हें अपनी भाषा की मर्यादा और समय बचाने के लिए उन्हें अदृश्य करता हूं। अच्छा होने के सुख का मूलमंत्र है, करनी-कथनी में एका।

30.01.2022

Wednesday, January 26, 2022

ईश्वर विमर्श103 (धर्म)

 धर्म की आलोचना का शुरुआती बिंदु यह है कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिक परिस्थियों एवं संदर्भ में अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से ईश्वर की अवधारणा का प्रतिपादन किया। इसीलिए उसका चरित्र और स्वभाव देश-काल के हिसाब से बदलता रहता है। पहले भगवान गरीब और असहाय की मदद करता था, अब उसकी जो अपनी मदद करने में सक्षम है (survival of the fittest)। ठीक उसी तरह जैसी मनुष्य की भौतिक परिस्थितियां उसकी चेतना परिणा नहीं है, बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुईपरिस्थितियों का। लेकिन न्यूटन के गति के नियमों के अनुसार, अपने आप कुछ नहीं बदलता, बदलाव के लिए वाह्यबल की जरूरत होती है। मनुष्य की भौतिक परिस्थितियां उसके चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। इस प्रकार इतिहास के गतिविज्ञान के नियम भौतिक पकिस्थितियों (वस्तु) और चेतना (विचार ) मिलन (मार्क्सवादी शब्दावली में, द्वद्वात्मक एकता) से निर्मित/निर्धारित होते हैं।


अपने पेड़ों की विशालता को देखकर और उससे संभावित आमदनी की बात सोचकर उन्हें लगाने वाले की या उसकी लकड़ी से होने वाले फायदे से लकड़ी के व्यापारी को होने वाली खुशियां वास्तविक खुशी होती है, खुशी की खुशफहमी नहीं। अलग-थलग पड़े व्यक्ति की यह सोच कि जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है यारों, खुशी की खुशफहमी है। जब वास्तविक खुशी मिलती है तो खुशफहमी अनावश्यक हो जाती है।

Monday, January 24, 2022

फिरकापरस्त नफरत है भक्तों का राष्ट्रीय स्वाभिमान

फिरकापरस्त नफरत है भक्तों का राष्ट्रीय स्वाभिमान

युद्धोंमाद है इनकी राष्ट्रीय सुरक्षा क्योंकि जंग चाहते जंगखोर ताकि राज करें हरामखोर बेरोजगारी तथा सार्वजनिक संपत्ति की नीलामी है इनका विकास विश्व गुरू का अभियान है इनका घोटालेबाजों का साथ पर्यवरण और श्रमिकपक्षीय कानूनों का विनाश है इनकाविकास फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोषों की हत्या है इनकी कानून व्यवस्था सांप्रदायिक हिंसा और दुराचार है गुंडागर्दी की इनकी मुखालफत और आतंकवाद की मुखालफत है बजरंगी आतंकवाद न करें वोट कॉरपोरेटी एजेंटों को बनाकर इंसानों को बौना राष्ट्र नहीं बन सकता महान करते रहे भक्त भव्यमंदिर का कितना भी गुणगान

प्रतिभूति घोटला

 प्रतिभूति घोटला, इतिहासका काला अध्याय था

अब तो पूरी किताब ही घोटालों का संकलन है।
सत्ता का एक धनपशु था हर्षद मेहता नाम का
अब तो सत्ता में धनपशुओं का ही प्रचलन है।

नारी विमर्श 23 (स्त्रीवाद)

 मर्दवाद न होता तो हमारे यहां सती प्रथा भी न होती न ही विधवा आश्रम होते। आज भी स्त्री भ्रूणहत्या, 'सम्मान हत्या'. बलात्कार इतनी तादाद में न होते। मैं अपनी बेटियों और छात्राओं को कहता था कि वे भाग्यशाली हैं कि 1-2 पीढ़ी पैदा हो गयीं वरना स्कूल-कॉलेज से दूर घर की चारदीवारी में गुलामी में जीवन कटता। नस्लवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद की ही तरह कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं, विचारधारा है और विचारधारा उत्पीड़क और पीड़ित को समान रूप से प्रभावित करता है. मर्दवादी होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है न स्त्रीवादी होने के लिए, स्त्री।


स्त्रियों को कमतर समझना और उस पर वर्चस्व स्थापित करना पुरुषवाद (मर्दवाद) है तथा भेदभाव के विरुद्ध समानता की स्थापना की लड़ाई स्त्रीवाद है।"

शिक्षा और ज्ञान 348 (पेंसन)

 हर तरह की सरकारी नौकरी के प्रयासों में असफल लोगों की कुंठा लगातार पेंसन पर निकलती है। उन्हें लगता है उनका बुढ़ापा असुरक्षित है तो दूसरे मजदूरों का बुढ़ापा क्यों सुरक्षित रहे? वैसे भी एक कॉरपोरेटी रहनुमा शासक ने 2004 के बाद नौकरी पाए फौज को छोड़ सभी सुरक्षा बलों समेत सरकारी मजदूरों को भी पेंसन से महरूम कर दिया है। कॉरपोरेटी सरकारों की कृपा से ज्यादातर सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को वैसे भी कॉरपोरेटी धनपशुओं के हवाले कर दिया गया है। बचे-खुचे सरकारी पदों पर कार्यरत सरकारी कर्मचारियों के पेंसन के लिए संघर्ष को कमजोर करने के लिए कॉरपोरेटी एजेंट उनके विरुद्ध दुष्प्रचार से अपनी कुंठा निकाल रहे हैं। हम हर मजदूर के सुरक्षित बुढ़ापे के लिए पुरानी पेंसन योजना की मांग कर रहे हैं। सरकारी नौकरियों की संभावना से वंचित हो चुके मजदूर अपनी रोटी के लिए लड़ने की बजाय जिन्हें मिल रही है, उनकी रोटी छिनवाने के लिए लड़ रहे हैं। परसंताप का सुख अमानवीय होता है।

Sunday, January 23, 2022

शिक्षा और ज्ञान 348 (सांप्रदायिकता)

  मैं हिंदू-मुसलमान; बाभन-अहिर, सभी को इंसान बनाने के चक्कर में रहता हूं, यहां बिना किसी मुसलमान के सब मुसलमान मुसलमान करके नफरत फैलाते हैं, ऐसा जैसे कि मुसलमान कोई मनुष्येतर प्रजाति हो, मैं केवल यही कहता हूं कि जिस तरह सब बाभन एक से नहीं होते वैसे ही सब मुसलमान एक जैसे नहीं होते। बाभन भी शरीफ हो सकता है, मुसलमान भी। बाभन भी धूर्त हो सकता है मुसलमान भी। लड़के भी शरीफ या दुष्ट हो सकते हैं लड़किया भी। सभी को दुष्टता छोड़ कर शरीफ इंसान बनने की जरूरत है। सामुदायिक नफरत फैलाना अमानवीय फासीवादी प्रवृत्ति है। दो मिश्र या दो सगे भाई एक जैसे नहीं हो सकते तो करोड़ों लोगों की कोई समरस कोटि बनाना मूर्खता के साथ अमानवीय अपराधिक कृत्य है। आपकी पोस्ट धर्म के नाम पर सरकारी जमीन कब्जा करने की धूर्तता को चिन्हित करने की बजाय मुसलमान नाम को चिन्हित करती है। प्रथम पुरुष (first person) में इस घटना का वर्णन अपने आप में गड़बड़ है क्योंकि हबहू यही घटना किसी ने 11 साल पहले शेयर किया था। नाम हो सकता है गुफरान के बदले रहमान रहा हो। इसीलिए आपसे भी आग्रह है कि हिंदू-मुसलमान के बाइनरी से नफरत फैलाने की बजाय इंसानियत का संदेश फैलाएं। आरएसएस में गुरु दक्षिणा का एक पर्व होता है। जिसमें सभी स्वयं सेवक अज्ञात राशि (बिना नाम के लिफाफे में) का दक्षिणा देते हैं। कोई अधिकारी बौद्धिक लेता (भाषण देता) है। सीधे-सादे स्वयंसेवकों के भावनात्मक शोषण के लिए एक आंखों देखी मार्मिक कहानी सुनाता है। एक बाल (या तरुण) स्वयंसेवक बहुत बीमार है, बचने के बारे में आश्वस्त नहीं है। अपनी मां से कहता है कि उसने गुरु दक्षिणा के लिए पॉकेट मनी से बचाकर गुल्लक में पैसे जमा किया है। अगर वह न बचे तो वह गुरु दक्षिणा की वह राशि गुरु दक्षिणा के अवसर पर पहुंचा दे। शब्दशः यही कहानी मैंने जौनपुर, इलाहाबाद और गाजियाबाद में अलग अलग समय सुना। इस कहानी की ही तरह सांप्रदायिक नफरत की अफवाहें भी शब्दशः फैलती हैं।

Thursday, January 20, 2022

Marxism 46 (pension)

 The fiancé (monopoly) capitalism functions on the principle -- peoples' money, bankers' control and capitalist's investment. New Pension Scheme (NPS) started by corporate agent Atal govt = No Pension Scheme. By the last quarter of 19th century, at the beginning of the monopoly capitalism, no individual capitalist had capacity or intention/will to invest the required huge capital and hence began the Stock exchange system. along with share market Life long protracted contribution of workers like PF, pension fund etc. were the major sources of finances of monopoly capitalism at negligibly low interest rates, which the workers were paid after retirement in instalment. The post retirement financial security of workers was an inadvertent consequence of the laws of the development of finance capitalism. In neo-liberal capitalism, the workers'' protracted contributions are used in the growth of capitalism but workers are deprived from old age security. Hence pension of a worker was/is not charity of the capitalist state but the repayment in monthly installments of their own lifelong saving.

Wednesday, January 19, 2022

शिक्षा और ज्ञान 347 (सांप्रदायिकता)

 Yogendra Bajpai राष्ट्र और संस्कृति अलग अलग चीजें हैं। राष्ट्र आधुनिक अवधारणा है लेकिन संस्कृतियां आदिम काल से ही विकसित होती और बदलती रही हैं। प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकताएं संस्कृति नहीं है राष्ट्रवाद को विकृत करने और देश की सामासिक संस्कृति को विखंडित करने की औपनिवेशिक पूंजी की कोख से पैदा विचारधाराएं हैं। 1000 साल पहले भारत था ही नहीं खंड-खंड में विभाजित भूखंड था लेकिन 500 साल पहले सोने की चिड़िया था जिसके अंडे चुराने पूंजीवादी संस्कृति के मुहाने पर खड़े यूरोपीय देशों के धनपशु लालायित थे और यहां केमाल में व्यापार करने के लिए 'ईस्ट इंडिया' कंपनियां बना लिए थे। उनमें इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी ज्यादा चतुर और चालाक निकली तथा फ्रांस, पुर्तगाल, नीडदरलैंड की ईस्ट इंडिया कंपनियों को पीछे छोड़, मीर जाफरों, राजारामनारायणों और जगत सेठों की मदद से हिंदुस्तानी माल के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर, मुल्क को गुलाम बनाकर 200 साल तक लूटती रही। इस लूट के विरुद्ध 1857 की संगठित किसान क्रांति ने लूटतंत्र की चूलें हिला दी लेकिन अंग्रेजी धनपशुओं की कंपनी निजामों-सिंधियाओं एवं अन्य सामंती रजवाड़ों की मदद से क्रांति के बर्बर दमन में तो सफल रही। भारत के शासक वर्ग अपने किसान-मजदूरों की आजादी की तुलना में साम्राज्यवादी गुलामी को प्राथमिकता देते रहे हैं। सिलसिला आज भी जारी है। फर्क इतना है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है। सारे सिराज्जुद्दौला भी मीर जाफर बन चुके हैं।


अपने भारतीय सामंती दलालों की मदद से औपनिवेशिक शासक क्रांति को कुचलने में सफल रहे, लेकिन भविष्य की क्रांतियों की संभावनाओं से आतंकित हो हिंदुस्तानी आवामी एकता को खंडित करने के लिए बांटो और राज करो की नीति अपनाया। औपनिवेशिक शासकों को साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के रूप में विकसित हो रहे भारतीय राष्ट्रवाद को खंडित करने के लिए हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र की अनैतिहासिक मिथ्या चेतना के प्रसार के लिए हिंदू-मुस्लिम एजेंट मिल गए। इस तरह सांप्रदायिक विचारधारा औपनिवेशिक देन है। इन औपनिवेशिक दलालों की उंमादी लामबंदी के चलते हमें विभाजित आजादी मिली और सांप्रदायिक विचारधारा विभाजन की घाव के नासूर के रूप में पूरे भूखंड में रिसते ही जा रहे हैं। 'खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद'। कोई किसी को धर्मांतरित नहीं करता लोग खुद धर्मांतरित होते हैं। तीसरी सदी ईशापूर्व तक सारा यूरोप भारत, मिस्र, यूनान, अरब, ईरान की ही तरह बहुदेववादी था।     

Sunday, January 16, 2022

बेतरतीब 124 (बचपन में भूत)

 आईआईटी मंडी के निदेशक की ओझागीरी की एकपोस्ट पर एक सज्जन ने कहा कि भूत होते हैं। उस पर :


हमने भी भूत देखा है, लेकिन बाद में वहम साबित हुआ।मिडिल स्कूल मेरे गांव से 7-8 किमी दूर था। हमारे गांव का कक्षा 6 में मैं अकेले था, 7 में कोई नहीं 8 में 3 लोग थे, जिनकी बोर्ड की परीक्षा मार्च में हो जाती थी इसलिए अप्रैल-मई में स्कूल जाने वाला अपने गांव का अकेला था। वैसे तो स्कूल 10 बजे से शुरू होता था लेकिन अप्रैल-मई में 7 बजे से दोपहर 1 बजे तक। मई 1965 में दोपर में स्कूल से आते समय अपने गांव के पहले के गांव के बाहर एक (मुर्दहिया) बाग और अपने गांव के बाहर प्राइमरी स्कूल के बीच लगभग 2 किमी का निर्जन टापू (खेत और ऊसर) था। रास्ते के दाएं-बांए गांव भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर थे। उस समय गर्मी की जलजला धूप होती थी दूर लाल किरणें आवर्ती गति के ग्राफ की आकृति जलजलाती, हिलती दिखती थीं। मैं 9 साल का था (डेढ़-दो महीने में 10 का होता) सलारपर से आगे निकलने पर मुर्दहिया बाग से बखरिया (रास्ते के दायीं तरफ का गांव) के ताल के पास धूप की किरणों में जलजलाती एक कुर्सीनुमा आकृति दिखी। लगा भूत होगा, उस इलाके में कई थे। और हनुमान चालिसा पढ़ना शुरूकर सुरक्षा कवच पहन लिया। नजर थोड़ा इधर-उधर हटी कि वह आकृति गायब। अब तो पक्का हो गया कि भूत ही था। लेकिन लगाकि हनुमान चालिसा काअभेद्य कवच से डरकर भूत भाग गया और उसका डर भी। आगे ताल के पास पहुंचा तो देखा कि एक आदमी गमझे से हाथ पोछते बाहर आ रहा है और मामला समझ में आ गया। वह कुर्सी की पोज में शौच कर रहा था और 'पानी छूने' ताल में चला गया था। यदि वह आदमी न दिखता तो भूत होने की बात गांव के 9-10 साल के बच्चे के दिमाग में घर कर जाती। उसके बाद तो बहुत से खतरनाक भूतों को चुनौती दिया। जब शहर पढ़ने गया और छुट्टियों में घर आने पर रात में चौराहेबाजी करके लौटते समय नदी के बीहड़ में बहुत बाबा-माइयों के स्थानों से गुजरता। कुछ और रोचक कहानियां हैं, फिर कभी।

Saturday, January 15, 2022

मार्क्सवाद 258 (चिली में चुनाव)

 चिली में पिछले महीने राष्ट्रपति पद पर समाजवादी युवा नेता, गैब्रियल बोरिस के निर्वाचन पर मेरे लेख पर एक सज्जन ने 'एक और' नरसंहारी तानाशाह के उदय की आशंका का कमेंट किया। उस पर:


जातीय, सांप्रदायिक या नस्ली नफरत के सियासतदां तथा नरसंहारी शासक के समर्थक किसी भी जनपक्षीय शासन के बारे में ऐसी ही अफवाहें उड़ाकर अपनी भड़ास निकालते हैं तथा नरसंहारी तख्तापलट की कोशिस का समर्थन करते हैं। 1970में चिली में छात्र-मजदूर आंदोलनों से उभरे, निर्वाचित समाजवादी राष्ट्रपति अलेंदे की सरकार का सैनिक तख्ता पलट साम्राज्यवादी खेमे के रिंग लीडर अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने करवाया था। उसके बाद चिली सालों तक पिनोचे की सैनिक तानाशाही के दमन और साम्राज्यवादी लूट का कहर झेलता रहा। अलेंदे की राजनीति के वारिस, युवा समाजवादी नेता गैब्रयल बोरिस को चुनकर चिलीवासियों ने 1970 की याद ताजा कर दी, तब से अब तक प्रशांत महासागर में अनंत लहरे उठ-गिर चुकी हैं, अमेरिका और सीआईए के साम्रज्यवादी लूट के मंसूबों से लैटिन अमेरिकी आवाम वाकिफ है और 1973 जैसी साम्राज्यवादी साजिश के विरुद्ध सजग। उम्मीद है अमेरिका के पिछवाड़े उगा लाल सूरज धीरे-धीरे पूरे लैटिन अमेरिका और पूरे भूमंडल को रोशन करेगा। साम्राज्यवाद का एक जवाब-इंकलाब जिंदाबाद।

Truth

 Truth is a contextually relative qualitative concept and can be known by application of mind, a species-specific human attribute. For example, truth is that everyone is born as human-beings, parentage; place or the gender of birth are coincidental. Attributing pride or shame to it is spreading hatred against it. JJ Rousseau the 18th century philosopher, begins his classic treaties on politics, SOCIAL CONTRACT with the truth, "Man is born free but finds everywhere in chains". These socially imposed chains are hatred against truth. They need to be smashed and removed to re-establish the truth. To be more precise, recent hate campaigns maligning Muslim Women by putting them on auction on social media or calling for the genocide of Muslim community by so-called Dharm Sansad is hatred against the truth that everyone is equal human being and crime against the humanity.

Wednesday, January 12, 2022

शिक्षा और ज्ञान 346 (प्रकृति पूजा)

 प्रकृति पूजा का मतलब मेरी समझ से सूर्य, वायु, इंद्र (बरसात) जैसी प्राकृतिक शक्तियों की पूजा है। आइंस्टाइन भय को धर्म (दैवीयता) की उत्पत्ति का स्रोत मानते है, लेकिन मुझे लगता है कि भय के साथ दृष्टिगोचर की अनभिज्ञता भी दैवीयता की उत्पत्ति का कारण रहा होगा। मुझे लगता है जीवन को आमूल रूप से प्रभावित करने वाली शक्तियों के बारे में अनभज्ञता से उत्रपन्न श्रद्धायुक्त भय (awe) के चलते हमारे ऋगवैदिक पूर्वजों ने उन्हें दैवीय मान लिया। लगता है दैवीयता की यही अववधारणा कौटिल्यकाल तक प्रमुख रही क्योकि वहजब विजीगिषु (विजयकांक्षी राजा) को अभियानपर निकलने के पहले देवताओं का आराधना की सलाह देता है तो वैदिक प्राकृतिक देवताओं की ही बात करता है। उस समय बहुदेव पूजक प्राचीन यूनान में बलि के साथ मूर्तिपूजा प्रचलन में थी। चौथा वेद भी लगता है कौचिल्य काल के बादही संकलित किया गया क्यों की वह राजकुमारोंवकी शिक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में वार्ता(अर्थशास्त्र), अन्विक्षकी (दर्शन), दंडनीति (राजनीतिशास्त्र) के साथ त्रयी (तीन वेद) का जिक्र करता है। लगता है वैदिक आर्यों के वंशजों में मूर्ति पूजा की प्रमुखता काफी बाद में स्थापित हुई। हमारे बचपन में गांव के प्रमुख देवता करियादेव, काली माई और डीहबाबा क्रमशः पीपल, नीम और गाव के बाहर के टीले में स्थापित थे। टीला लगता है पुरानी बसावट के खंडहर का अवशेष लगता था।

शिक्षा और ज्ञान 345 (सनातन)

 यह (सनातन का जाप करने और सनातनद्रोह की सनद बांटने वालों से पूछना कि सनातन क्या है?) मनोवैज्ञानिक गेम नहीं है, निहित सांप्रदायिक मंसूबे से सनातन जैसे अपरिभाषित, अज्ञात, अमूर्त शब्द का जाप करना तथा इसके विरोध के आरोप से वैज्ञानिक सोच को गरियाना अज्ञात धार्मिक भावनाओं के दोहन का मनोवैज्ञानिक खेल है। फासीवादी लोगों की भावनाओं के दोहन और धर्मोंमादी नफरत फैलाकर लोगों को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए अमूर्त, अपरिभाषित अवधारणाओं का इस्तेमाल करता है। हिटलर के जनाधार बने सीधे-सादे जर्मन नहीं जानते थे कि यहूदी किस तरह उनका दुश्मन है तथा उनके विरुद्ध क्या करता है, लेकिन इतना जानता था कि हर यहूदी हैवान है और पूरे आर्य-जर्मन नस्ल का दुश्मन है। फासीवादी जनाधार के सदस्यों के अधिकतर वंशज नाजी फासीवाद से उतनी ही नफरत करते हैं जितना वे यहूदियों से करते थे। मैं यदि कहता हूं कि मैं नास्तिक हूं, या मार्क्सवादी हूं तो मैं जानता हूं और स्पष्ट शब्दों में पूछने पर बता सकता हूं कि नास्तिकता क्या होती है या मार्क्सवाद क्या है? लोग धर्म और संस्कृति में अंतर समझे बिना धर्म-संस्कृति का जाप करते रहते हैं। आपने धर्म और संस्कृति पर गंभीर विमर्श का एक थ्रेड शुरू किया था किसी जाप करनेवाले ने विमर्श में शिरकत नहीं की, मैं भी एक छोट कमेंट करके रह गया। सोचा था तीन-चार कमेंट में बात पूरी करूंगा, लेकिन वह पोस्ट पीछे छूट गयी। आग्रह है, फिर से शुरू करिए ।

Tuesday, January 11, 2022

शिक्षा और ज्ञान 344 (वेस्टमिन्स्टर प्रणाली)

संसदीय शासन की प्रणाली Westminster प्रणाली कहलाती है, जिसका नामकरण मध्य लंदन की इस नाम की एक जगह पर किया गया। थेम्स नदी से ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट तक फैले इस इलाके में पैलेस ऑफ वेस्टमिन्स्टर, बकिंगम पैलेस, संसद भवन समेत में कई ऐतिहासिक स्थल हैं। चूंकि संसदीय प्रणाली की शुरुआत यहीं से हुई, इसलिए संसदीय प्रणाली को वेस्टमिन्स्टर प्रणाली कहते हैं। हर शब्द और अवधारणा का कोई-न-कोई ऐतिहासिक संदर्भ होता है। 

शिक्षा और ज्ञान 343 (मुहूर्त)

 हो सकता है सापेक्षता सिद्धांत पर संदेह किया जा रहा हो, संदेह और सवाल करना ही ज्ञान की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कुंजी है। संदिग्ध होना अप्रमाणित होना नहीं है, जब कोई उच्चतर ज्ञान सापेक्षता सिद्धांत को खारिज कर खुद को स्थापित करेगा तो वह नया सत्य हो जाएगा। जिस दिन ज्योतिष के सिद्धांत प्रमाणित हो जाएगे, ज्योतिष को सत्य मान लूंगा। जब तक व्यवहार में कुछ प्रमाणित नगृहीं होता वह सत्य नहीं होता यानि असत्य होता है। मेरे बाबा के लिए पंचांग की गणना ही अंतिम सत्य था। खेत सूख जाए लेकिन बिना साइत (मुहूर्त) के हल नहीं चलेगा। 4-6 दिन स्कूल छूट जाए लेकिन बिना साइतके बच्चा स्कूल नहीं जाएगा। 12 साल से कम उम्र में घर से नदी के बीहड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते वाले 24-25 किमी दूर परीक्षाकेंद्र पर मेरी जूनियर हाई स्कूल की परीक्षा थी, परीक्षा के पहले वाली रात 12 बजे साइत थी। हम रात भर चलकर सुबह 6 बजे परीक्षा केंद्र पहुंचे, 7 बजे से परीक्षा थी। 9 वीं में मैं पढ़ने शहर चला गया और उसके एक साल बाद यथासंभव दिशाशूल में घर से निकलता कोई अशुभ नहीं हुआ उसके बाद मुहूर्तशास्त्र पाखंड लगने लगा। सही कह रहे हैं विज्ञान भी परिकल्पना (hypothesis) का इस्तेमाल करता है, लेकिन वह परिकल्पना प्रमाणित या सत्यापित होने के बाद ही प्रमेय बनती है, वरना खारिज हो जाती है।

बेतरतीब 123(जनेऊ)

 मेरे बाबा पंचांगकी गणना से हर काम का मुहूर्त निकालते। मैंने हाई स्कूल से ही मुहूर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया था। बाबा की मान्यताओं का सर्वाधिक उल्लंघन मैं ही करताम था और मुझे लगता है कि पोतों में सर्वाधिक प्यार वे मुझे ही करते थे। हर बार जब घर आता, मंत्र के साथ नया जनेऊ पहना देते। वापसी में गांव से बाहर निकलते ही निकालकर किसी पेड़ में टांग देता। कुछ दिन बाद उन्होंने यह बंद कर दिया। वे मुझे पागल कहते थे। गौने के बाद मेरी पत्नी जब मेरे घर आईं तो बाबा की बात से उन्हें लगा कि कहीं धोखे से तो उनकी शादी किसी पागल से नहीं हो गयी। पहले तो उन्हें संदेह था फिर यकीन हो गया। अब भी कभी किसी बात पर याद दिला देती हैं कि इसीलिए बाबा पागल कहते थे।

Monday, January 10, 2022

अनूठी होती है बेमौसम की कोई भी बात

 अनूठी होती है बेमौसम की कोई भी बात

पहाड़ों की बेमौसम बर्फबारी हो
या हो मैदानों की बेमौसम बरसात
नियमों की तो सबको आदत होती है
अलग ही अनुभूति देते हैं उनके अपवाद
बचने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे से
मन में ही रखते हैं अपने जज्बात
खामोशी में छिपा लेते हैं
जब भी आती है आपकी याद।
(यूं ही, कलम बहुत दिनों बाद आवारा हुआ)
(ईमि: 10.01.2022)

शिक्षा और ज्ञान 342 (भाषा)

 जो भाषा दूसरी भाषाओं के प्रति जितनी ही उद्दात्त होगी वह उतनी ही समृद्ध और दीर्घजीवी तथा व्यापक होगी। श्री श्रीरंग जी की बात से सहमत हूं कि लगभग 200 साल के इतिहास वाली हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता इसीलिए रही है कि यह अंग्रेजी की ही तरह दूसरी भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने और अपने में समाहित करने में उदार रही है। हर शब्द की उत्पत्ति और विकास का विशिष्ट इतिहास होता है। हिंदी की ही तरह अंग्रेजी की व्यपकता का एक कारण यह भी है कि इसने दूसरी भाषाओं के शब्दों को बहुत उदारता से ग्रहण किया। इसने ग्रीक, लैटिन, डच, फ्रेंच तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं के ही नहीं, भारतीय, फारसी, अरबी, चीनी आदि भाषाओं के शब्दों को भी अपनाया है। डकैत, लूट, मंत्र, पंडित, मीडिया मुगल आदि शब्द भारतीय मूल के हैं। हिंदी के लोक-विमर्श और बातचीत में अंग्रेजी और फारसी मूल के कई शब्द संस्कृत मूल के शब्दों से अधिक सहजता से प्रयोग होते हैं। बलिदान शहीद का नहीं, शहादत का लगभग समतुल्य पर्याय है। शहीद भगतसिंह की तुलना में बलिदानी भगत सिंह कहना अटपटा लगेगा। संविधान के प्रति जेएनयू के छात्रों की निष्ठा असंदिग्ध है की जगह जेएनयू के छात्रों की संविधान के प्रति ईमानदारी असंदिग्ध है, अटपटा लगता है। वस्तु विचार (शब्द) से पहले है तथा विचार (शब्द) से वस्तु की नहीं वस्तु से विचार की उत्पत्ति होती है। जैसे अंग्रेजी शब्द बंगलो के हिंदीपर्याय बंगला शब्द की उत्पत्ति का स्रोत बंगाल है। 18वीं शताब्दी में शाह आलमों, मीरजाफरों और जगत सेठों, राजा रामनारायणों की 'निष्ठा (वफादारी)' से बंगाल (आज का बंगाल-बिहार-झारखंड-उड़ीसा -आसाम) में लूट के लिए जड़ जमा चुकी ईस्टइंडिया कंपनी के कोठरियों में रहने वाले कर्मचारी वापस इंगलैंड जाकर खुली जगहों में बाग-बगीचे वाली, हवेलीनुमा बड़े-बडे घर (कोठियां) बनवाए तथा बंगाल की लूट के धन से बने होने के कारण उन्हें बंगलो कहा जाने लगा।


इसी तरह कैबिनेट (मंत्रिपरिषद) की भी उत्पत्ति का इतिहास है। आधुनिक काल में इंग्लैंड वैज्ञानिक अन्वेषण और दार्शनिक-राजनैतिक नवीनताओं में आगे रहने के बावजूद रूढ़िवादिता में भी पीछे नहीं रहा है। 1648 की रक्तिम क्रांति के बाद राजा (चार्ल्स प्रथम) का सिर कलम कर दिया गया और गणतंत्र की स्थापना हुई। लेकिन इंगलैंड राजाविहीन नवीनता पचा नहीं पाया और फ्रांस से चार्ल्स द्वितीय को आयातित कर राजा बनाया। 1688 की रक्तविहीन या तथाकथित गौरवशाली क्रांति (Glorious evolution) के फलस्वरूप राजा जोम्स द्वितीय चुपके से भाग गया। क्रांति के बाद विलियम द्वितीय (प्रिंस ऑफ रोजेज) को आयातित कर राजा बनाया गया और 1689 की संधि के तहत, एक तरह से संसदीय शासन की शुरुआत हुई। राजा संवैधानिक संप्रभु बन गया और संप्रपभुतान राजा से 'संसद में राजा' को स्थांतरित हो गयी। राजा संसद की सहमति के बिना कोई अहम फैसला नहीं ले सकता था। छोटे से टेक्स्ट की भूमिका लंबी हो गयी। 1714 में जॉर्ज प्रथम राजा बना तो उसने संसद से प्रत्यक्ष परामर्श बंद कर दिया।उसने अंग्रेजी सीखाही नहीं। उसे लगा होगा कि महल की ऐशोआराम की जिंदगी है तो क्यों मिलने-जुलने की झंझट करे? एक राजा का सिर कलम हो गया था, एक को जान बचाने केलिए चोरी से भागना पड़ा था। वह अपने कुछ वफादारों से अपने कैबिनेट (निजी कमरा) में मिलता था जो उसके और संसद के बीच बिचौलिए का काम करते थे। इन्हें राजा के कैबिनेट सदस्य के रूप में जाना जाता था। कालांतर में, जब वेस्टमिनस्टर प्रणाली लागू हुई तो राजा के कैबिनेट सदस्य मंत्री हो गए और प्रमुक कैबिनेट सदस्य प्रधान मंत्री। और इस तरह कैबिनेट (कमरा) मंत्रिपरिषद बन गया। बहु लंबा कमेंट हो गया, संक्षेप में, हर समुदाय अपने ऐतिहासिक संदर्भ में अपनी भाषा शब्द, मुहावरे और रीति रिवाज का निर्माण करते हैं। शब्द एक भाषा से दूसरी में अनूदित हो भाषाओं को समृद्ध करते हैं।

शिक्षा और ज्ञान 341 (वेस्टमिन्स्टर प्रणाली)

 संसदीय शासन की प्रणाली Westminster प्रणाली कहलाती है, जिसका नामकरण मध्य लंदन की इस नाम की एक जगह पर किया गया। थेम्स नदी से ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट तक फैले इस इलाके पैलेस ऑफ वेस्टमिन्स्टर, बकिंगम पैलेस, संसद भवल समेत में कई ऐतिहासिक भवन स्थल हैं। चूंकि संसदीय प्रणाली की शुरुआत यहीं से हुई, इसलिए संसदीय प्रणाली को वेस्टमिन्स्टर प्रणाली कहते हैं। हर शब्द और अवधारणा का कोई-न-कोई ऐतिहासिक संदर्भ होता है।

Saturday, January 8, 2022

शिक्षा और ज्ञान 340 (मार्क्सवाद)

 समाज की व्यक्ति केंद्रित व्याख्या की शुरुआत करने वाला 17वीं शताब्दी का एक (प्रथम) उदारवादी (पूंजीवादी) दार्शनिक, थॉमस हॉब्स कहता है, "मेरी बात मानने के लिए आपको कुछ और नहीं करना है, बस अपने अंदर झांक कर दीजिए"। उसकी समस्या है कि वह खास ढंग से समाजीकृत व्यक्ति को ही सार्वभौमिक व्यक्ति मान लेता है जो स्वतंत्र ओऔर स्वयत्त होता है। हकीकत है कि व्यक्ति का अस्तित्व स्वायत्त व्यक्ति के रूप में न होकर सामाजिक जीव के रूप में होता है जहां वह अन्य लोगों के साथ अपनी इच्छा से स्वतंत्र खास सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता है जिसे मार्क्सवादी शब्दावली में उत्पादन का सामाजिक संबंध कहा जाता है। मार्क्सवादी मान्यताओं से सहमति के लिए अपने इर्द-गिर्द देखने के अलावा कुछ और करने की जरूरत नहीं है।

शिक्षा और ज्ञान 339 (बलि)

 सीता के आग्रह पर हिरण का शिकार राम किस लिए करने गए? जिस समुदाय की जीवन चर्या बलि कुंड के इर्द-गिर्द घूमे उसमें बलि की परंपरा आम है। वैदिक आर्यों और प्रचीन यूनानियों में विभिन्न देवताओं की आराधना बलि से ही होती थी। मैं बहुत बच्चा था जब पहली बार विंध्याचल गया तो मंदिर से नाली में बहता खून देख मन खराब हो गया। उत्तराखंड और हिमाचल में सभी मंदिरों में भेंड-बकरों की बलि आम है। कामाख्या में पंडे जिस फुर्ती से बलि के बाद खाल अलग करते हैं, पेशेवर कसाई भी ऐसा नहीं कर पाएंगे। एक वार में सिर धड़ से अलग न हुआ तो मनौती में खोट माना जाता है। मैं पहली बार (1980) कामाख्या गया तो पंडों द्वारा बलि दिए जाने पर लगा कि शायद पंडे ब्राह्मण न होते हों। कड़ा-मानिकपुर देवी के मंदिरमें माली पंडे होते हैं। मैंने एक पंडे से पूछा कि बलि के प्रसाद [मुंडी देवी (पंडे) का धड़ भक्त (चढ़ावा चढ़ाने वाले) का] पंडा लोग क्या करते हैं? गुस्से में बताया खाते हैं और क्या करते हैं। मैंने यह पूछकर उन्हे और नाराज कर दिया कि पंडा ब्राह्मण होते हैं क्या? उनका गुस्से में जवाब था "और कौन होगा"? ऋगवेद में युद्ध, यातायात-परिवहन में उपयोगिता के चलते केवल अश्व को अबध्य माना गया है। साल में एक बार इंद्र (कुटुंब के नेता) के सम्मान में अश्वमेध यज्ञ होता था। सभी सभ्यताएं कुटुंबों (कुनबों) से निकल कर विकसित हुई है तथा विकास के एक चरण में शिकार आजीविका का प्रमुख स्रोत रहा है। पशुधन के रूप में संपत्ति का ईजाद हुआ। पशुपालन की शुरुआत खेती या दूध के लिए नहीं, आरक्षित ( reserve)भोजन के लिए हुई।

Thursday, January 6, 2022

मोदी विमर्श 110 (मैक्यावली)

 मोदी जी पर पंजाब में 'जानलेवा हमले की साजिश' की एक पोस्ट पर किसी ने रैली में भीड़ कम होने के चलते वहां का कार्यक्रम रद्द करने के प्रायोजित बहाने की आशंका जताया तो किसी ने सवाल किया कि मोदीजी इतने नासमझ नहीं हैं कि ऐसाकर ऐसे कयास की गुंजाइश छोड़ेंगे। उस पर --


मोदी जी की समझ तो मैक्यावलियन सम्राट की तरह बहुत गहन है लेकिन मोदी जी भक्तिभाव का मनोविज्ञान जानते हैं कि भक्तों की भीड़ जयकारा करने वाली ही होती है, उसे जो दिखेगा उसी को सत्य मानती है और दिखावे के पीछे छिपे सत्य को नास्तिकों का कुप्रचार। नीचे के कमेंटबॉक्स में मैक्यावली की नवउदारवादी प्रासंगिकता पर एक लेख शेयर कर रहा हूं।

Monday, January 3, 2022

बेतरतीब 122 (कृष्ण प्रताप सिंह)

 जब (1972 में)हम इलाबाद विवि में आए तो युवामंच नामक एक सांस्कृतिक ग्रुप संस्कृति-साहित्य की गतिविधियों में बहुत सक्रिय था। एक अनिश्चितकालीन पत्रिका, परिवेश निकालते थे। कविवर रवींद्र उपाध्याय (दिवंगत); देवी प्रसाद त्रिपाठी[डीपीटी] 'वियोगी' (दिवंगत) विभूति नारायण राय, कृष्ण प्रताप सिंह (दिवंगत), अनीश खान, रामजी राय और प्रसाद जी (नाम भूल रहा है) इस ग्रुप के प्रमुख लोगों में थे। कृष्ण प्रताप जी उप्र पुलिस सेवा में थे और पुलिस वालों ने ही उनका एनकाउंटर कर दिया था। केपी भाई गोंडा में डीएसपी थे, नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने की ही तरह भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदारी की सनक मंहगा शौक है।1982-83 की बात होगी, जेएनयू में यह दुखद खबर सुनी थी। गोंडा में कार्यरत थे और कुछ अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस टीम के साथ छापा मारने गए और उनके अधीनस्थ पुलिसियों की अपराधियों से मिलीभगत थी जिन्होंने उनकी हत्या कर दी। उस समय उनकी बडी बेटी मां की गोद में थी और छोटी गर्भ में। अब बड़ी आईएएस है और छोटी आईआरएस। पीपीएस होने के बाद पिता द्वारा तय शादी करने से इंकार कर प्रेमविवाह किया था। पत्नी उप्र ट्रेजरी विभाग में काम करते हुए बेटियों को अच्छी परवरिश देते हुए पति के हत्यारों को दंड दिलाने की दौड़-धूप करती रहीं और कैंसर से भी लड़ती रहीं, 2004 में कैंसर से हार गयीं। मां की लड़ाई बेटियों ने आगे बढ़ाया और अंततः 2013 में खबर पढ़ने को मिली की लखनऊ की विशेष सीबीआई कोर्ट ने 18 पुलिस कर्मियों को दोषी मानते हुए सजा सुनाई। उस समय उनकी बेटी (बड़ी) बहराइच की डीएम थी। उसकी छवि कि निष्ठावान, कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी की है। ग्रुप में चलते कुक्कुर विमर्श के संदर्भ यह पोस्ट लिखना शुरू किया था, 1972-73 की याददाश्त के आधार पर कविवर रवींद्र उपाध्याय की एक भोजपुरी कविता, 'कुक्कुर काव्य' शेयर करने के लिए लेकिन भूमिका में मन भटक गया। लगभग उसी समय की याददाश्त के आधार पर कृष्ण प्रताप की एक कविता शेयर कर रहा हूं। किताबों के अलावा मेरे जनवादी संक्रमण में जिन चंद व्यक्तियों का योगदान है, उनमें केपी भाई भी थे। यह कविता 'परिवेश' के किसी अंक में छपी थी। कुक्कुर काव्य फिर कभी।


सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी
विश्वास था, इसलिए देखभाल का काम तुम्हें सौंपा था
विश्वास चलता रहा क्योंकि तुम्हारे साथ वाला भौंका था
किया होता जो प्रत्यक्ष आघात, टूट जाता शायद विश्वास
पर तुमने तो निराई के बहाने सारी फसल हीनकाट ली
अब दिखा रहे हो उसपर सहानुभूति, बची है जो शेष घास
व्यथा से चीखा भी तो मुंह परल ताले लगाए
सत्ता की डोर इसलिए नहीं सौंपी थी
कि अपने ही गले का फंदा बन जाए
फंदा कमजोर है, मैं भारी हूं, टूटजाएगा
कहते हो नीचे गहरी खाई है
वह तो मेरे पूर्वजों की लाशों से
पहले ही पट चुकी है
अब कहते हो मेरी जिंदगी मिर्च का धुंआ है
इससे तो वही लोग डरा करते हैं
जिनके सिर पर भूत रहा करते हैं
मैं तो खुश हूं
कि मेरी जिंदगी मिर्च का धुआं तो बनी
इससे तो बड़े बड़े भूत भगा करते हैं।

लगभग 48 साल पहले की पढ़ी-सुनी कविता है, यादाश्त की भूलचूक के लिए केपी भाई की आत्मा से क्षमा-याचना के साथ।
कवि कृष्ण प्रताप की स्मृति को विनम्र नमन।

Sunday, January 2, 2022

बेतरतीब 121 (शाखा जीवन की शुरुआत)

 एक मित्र ने शाखा के मेरे अनुभव के एक विमर्श में कहा कि वे भाग्य शाली थे कि उनके पिताजी रामबृक्ष बेनीपुरी और राहुल सांकृत्यायन जैसे मनीषियों के संसर्ग में रहे, जिससे वे इस नफरती वृक्ष की छाया से दूर रहे, उस पर मेरा कमेंट। मौका मिला तो शाखा और बाद में एबीवीपी के अपने अनुभव विस्तार में लिखूंगा।


आप भाग्यशाली रहे कि प्रगतिशील परिवेश मिला। मैं तो कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश में पला-बढ़ा, पिताजी खेतिहर थे, मेरे बचपन में मेरा गांव शैक्षणिक-सांस्कृतिक रूप से बहुत पिछड़ा था। स्वतंत्रता संग्राम मेरे परदादा के बारे में लोग बताते थे कि संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। हमारे बचपन में उनकी बहुत सी पांडुलिपियां संरक्षित थी, लेकिन लुप्त हो रही थीं। जब तक उनका महत्व समझ आता, लुप्त हो चुकी थीं। मेरे दादा जी पंचांग तथा कर्मकांड के जानकार माने जाते थे। दादाजी (बाबा) और पिताजी (बाबू) ने पढ़ाई क्या और कितनी की थी, मालुम नहीं, लेकिन दोनों की लिखावट बहुत खूबसूरत थी। बाबा की लिखावट के नमूने के लिए मैंने अपनी जन्मकुंडली संरक्षित रखा है। अभी शिफ्ट करने के बाद कहां रखी है, खोजना पड़ेगा। मेरे बचपन में छोटी-मोटी दरारें पड़ रही थीं किंतु वर्णाश्रमी सामंतवाद लगभग बरकरार था। अपने गांव से 7-8 कमी दूर के मिडिल स्कूल से 12 साल की उम्र जूनियर हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद पैदल की दूरी पर कोई हाई स्कूल नहीं था और साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था तो हाई स्कूल की शिक्षा के लिए नजदीकी शहर जौनपुर चला गया। 10 वीं में गोमती के लगभग किनारे एक प्राइवेट हॉस्टल , कामता लॉज में रहता था। गोमती बिल्कुल किनारे, शेरशाह सूरी के बनवाए शाही पुल के नजदीक, पुल पर बने शेर और हाथी की मूर्तियों के सान्निध्य में बने भवन में स्थित पब्लिक लाइब्रेरी के उल्टी तरफ आम की एकबाग थी, अभी भी होगी। उस बाग में आरएसएस की शाखा लगती थी। लॉज में बीए के भी छात्र रहते थे। उन्हीं में बिलवाई स्टेसन के पास के गांव, प्रतापपुर के शोभनाथ सिंह भी थे, जिन्हें मैं शोभनाथ भैया कहता था। हमलोग लगभग हर शनिवार एमएल पैसेंजर से घर जाते और रविवार शाम की पैसेंजर से वापस जौनपुर आते। बिलवाई स्टेसन हमारे गांव से 7 मील दूर है। जाड़े में एकाध बार रात में उनके घर रुक जाता और अगले दिन भोर में घर जाता। शोभनाथ सिंह शाखा जाते थे। एक दिन वे मुझे खो खेलने के लिए साथ ले गए। वहां कुछ लड़के तो सामान्य कपड़ों में थे लेकिन कुछ चौड़ी बेल्ट से कसे खाकी चौड़े हाफपैंट पहने कांख में लाठी दबाए हुए थे। बाद में पता चला यह उनका गणवेश था और लाठी को दंड कहा जाता था। बालू में गड़े एक लट्ठ में मंदिरों पर फहराने वाले पताके सा पताका फहरा रहा था जिसे वे ध्वज कह रहे थे। शोभनाथ भइया ने ध्वज के सामने खड़े होकर सीने पर हाथ रखकर सिर झुकाया और 8-10 ड्रिल करते लड़कों में शामिल हो गए। जौनपुर की मशहूर, बेनाराम-देवी प्रसाद की इमरती वाली मिठाई की दुकान के मालिक बेनी साह्व के बेटा. मेरी कक्षा का सहपाठी, सुभाष गुप्ता 'आरम, विश्रम' सा ड्रिल का निर्देश दे रहा था। बाद में पता चला कि वह मुख्य शिक्षक था। मुझे भी ड्रिल में शामिल होने को कहा। पीटी की क्लास में भी ड्रिल मुझे पसंद नहीं था, यहां भी बेमन से शामिल हो गया। खो खेलने के बाद सब कतार बनाकर ध्वज के सामने सावधान की मुद्रा में संस्कृत में प्रर्थना गाने लगे, जो समझ में नहीं आया। और अंत में झंडे के सामने सुभाष के( ध्वज प्रणाम 1, 2,3) निर्देश पर, सब सीने पर हाथ रखकर व्यायम सा करने के बाद सहज होकर एक दूसरे को जी संबोधन से नमस्ते करने लगे। मुझसे सब बड़े थे लेकिन परिचय के मुझसे भी सब ईश जी कहकर नमस्ते करने लगे। यह मुझे अजीब लगा कि मिलने पर कोई दुआ सलाम नहीं वापस जाते हुए नमस्ते।

बाकी बाद में .........