Tuesday, April 26, 2022

शिक्षा और ज्ञान 354 (अनलर्निंग)

 सरकार की आलोचना पर सकारात्मकता का उपदेश देने वाले एक सज्जन के जवाब में संस्कारों की दुहाई देते उनके जवाब का जवाब।


तीक्ष्ण भाषा का स्वागत है, तीक्ष्णता अमर्यादा नहीं होती। कई बार मैं जानबूझकर तीक्ष्ण भाषा का प्रयोग करता हूं, जैसे पितृसत्तामकता या पुरुषवाद की जगह मर्दवाद लिखता हूं। इस शब्द का प्रयोग मैंने अपने लेखों में 1980 के दशक से शुरू किया, शुरू में संपादक इसे संपादित कर पुरुषवाद कर देते थे, लेकिन अब यह शब्द स्वीकार्य हो गया है। कई स्त्रीवादी लेखक पितृसत्तात्मकता की जगह मर्दवाद ही लिखते/लिखती हैं। जहां तक संस्कारों की बात है तो मैंने 10 साल पहले एक कविता में लिखा था, "मुझे अच्छे लगते हैं, ऐसे बच्चे, जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं, उन्हें तोड़ते हुए आगे बढ़ते हैंं"। संस्कारों (जन्म के परिवेश से विरासत में मिली मान्यताएं) पर सवाल करना विवेकसम्मत इंसान के रूप में बौद्धिक विकास की पूर्व शर्त है। ज्ञानार्जन प्रक्रिया में सीखने (learning) जितनी ही महत्वपूर्ण भूमिका छोड़ने (unlearning) की होती है। संस्कारगत नैतिकता (acquired morality) उन सामाजिक मूल्यों का समुच्चय है, जिन्हें हम अपने सामाजिककरण के दौरान अनजाने में ही अवचेतन में आत्मसात कर लेते हैं (the social values that we acquire independent of our conscious will)। बौद्धिक विकास के लिए जरूरी है कि हम संस्कारगत नैतिकता पर सवाल करें और अवांछनीय पाने पर उन्हें तिलांजलि देकर (unlearn करके) उनकी जगह तार्किक नैतिकता अपनाएं। मैंने किसी को दलाल नहीं कहा, मैंने एक सामान्य तथ्यात्मक वक्तव्य दिया कि जब भी कोई सरकार की जनविरोधी या कॉरपोरेटी नीतियों या कृत्यों की आलोचना करता है, कुछ लोग बिना कोई तर्क दिए नकारात्मकता से बचने और सकारात्मक होने का प्रवचन देने लगते हैं, एसे लोगों को सत्ता का एजेंट कहना अनुचित तो नहीं। जहां तक बाभन-ठाकुर या इंसान होने की बात है, तो पैदा तो सभी इंसान ही होते हैं लेकिन पैदा होते ही उनपर बाभन-ठाकुर; अहिर-कुर्मी; .......; हिंदू-मुसलमान का विरासती ढप्पा लगा दिया जाता है। बाभन से इंसान बनने का मुहावरा विरासती ठप्पे से मुक्ति पाकर वापस इंसान बनने के अर्थ में प्रयोग करता हूं। कहने का मतलब इस मुहावरे का मतलब है जन्म के संयोग से मिली अस्मिता की विरासती प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर विवेकसम्मत समतामूलक अस्मिता और संबद्ध प्रवृत्तियां अर्जित करना है। 18वी शताब्दी के दार्शनिक रूसो की कालजयी कृति "सामाजिक अनुबंध" इस वाक्य से शुरू होती है, "मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है, लेकिन हर तरफ से बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है"। उनके सामाजिक अनुबंध का मकसद एक ऐसे समाज का गठन है जिसमें मनुष्य बेड़ियों को तोड़कर अपनी मौलिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सके। बाभन से इंसान बनने का भी यही मतलब है -- जाति-पांत-सांप्रदायिकता की कृतिम बेड़ियों को तोड़कर वापस समान-स्वतंत्र इंसान बनना। सादर। जहां तक वर्गसंघर्ष की बात है तो वह तो अनवरत प्रक्रिया है। शोषण-दमन के विरुद्ध हर संघर्ष वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा है।

Monday, April 25, 2022

शिक्षा और ज्ञान 353 (एजेंडा)

 पढ़े-लिखे और अपढ़ लोगों में फर्क के एक विमर्श में सज्जन ने लिखा, "एसे पढ़े-लिखों का क्या फायदा जो सिर्फ नकारात्मकता फैलाता हो और एक खास एजेंडे के लिए अपना पर दिमाग लगाता हो", उस पर:


सकारात्मकता क्या होती है? राजा का जयगान? एजेंडा तो सबका होता है किसी का एजेंडा भोले-भाले इंसान को बाभन बनाने का होता है किसी का जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाले बाभन को कर्म-विचारों के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाला विवेकसम्मत इंसान बनाना; किसीी का एजेंडा जाति और धर्म के आधार पर नफरत की संस्कृति फैलाकर समाज को विषाक्त करना होता है, किसी का मानवता की सेवा में मानवीय संवेदनाओं के आधार सामासिक संस्कृति का सौहार्द फैलाना; किसी का एजेंडा सत्ता की अंधभक्ति में पेट पर लात भी प्रसाद समझकर खाना होता है तो किसी का जनपक्षीय बदलाव के लिए सत्ता का कोप सहकर गर्दन दांव पर लगा देना। वर्ग समाज में न्याय-अन्याय की विभाजन रेखा खिंची होती है, सवाल पक्ष चुनने का होता है। सत्ता की अंधभक्ति करने वाले कुछ लोगों में अपना पक्ष स्वीकारने का नैतिक साहस नहीं होता और वे निष्पक्षता का ढोंग करते हैं। कुछ चरणामृत पीते हुए राजा का जयगान लिखते हैं और कुछ लुआठा हाथ में लिए बाजार में खड़े होकर अपना घर फुंकवाने का खतरा उठाकर यथास्थिति के विरुद्ध बिगुल बजाते हैं। तो एजेंडा तो सभी का होता है, कुछ में अपने एजेंडे की वाछनीयता में संदेह के चलते उसे स्वीकारने का साहस नहीं होता। आपका एजेंडा क्या है?

Thursday, April 21, 2022

बेतरतीब 126 (नाम का अर्थ)

 35-36 साल पुरानी बात हो गयी, किसी ने किसी से परिचय कराया, "यह ईश है", फिर थोड़ा ठहर कर बोला, "असली वाला नहीं"। मैंने पलटकर जवाब दिया, "वह होगा नकती, मैं तो असली वाला हूं, छूकर देख लो"। मेरे लिए तो नाम पहचान का एक कर्णप्रिय शब्द होना चाहिए, उसका क्या अर्थ है या नहीं है, इसका कोई मतलब नहीं।मैंने अपनी बेटियों के नाम ऐसे ही रखा, उनके अर्थ के बारे में सोचा ही नहीं, बाद में लोगों ने अन्य भाषाओं से उनके अर्थ बताया। नाम को अर्थ उसे धारण करने वाला देता है। फ्री-लांसिंग (बेरोजगारी) के दिनों में कभी किसी पत्रिका में अगर दो लेख छपते तो एक ही अंक में दो बाईलाइन अटपटा लगता और अपने लिखे का मोह भी नहीं जाता तो छोटे लेख के नीचे नाम के पहले और अंतिम शब्द के पहले अक्षर मिलाकर 'ईमि' लिख देता था। जब मेरी दूसरी बेटी पैदा हुई तोउसका नाम रखने में बहुत सोचा ही नहीं, ई का इ कर दिया और मि का मा तथा उसका नाम इमा रख दिया। जब मेरी नतिनी अपनी मां (मेरी बड़ी बेटी, मेहा) के पेट में थी तो इमा ने कहा, 'दीदी के बेबी के लिए हम लोगों सा कोई अच्छा सा नाम सोचो', मैंने कहा तुम लोगों का नाम तो बिना सोचे रख दिया था, वैसे ही इसका नाम "माटी" रख देते हैं'। उसने हंसकर कहा, 'बेटा हुआ तो ढेला', मैंने कहा कि तब सोचेंगे। लेकिन सोचना नहीं पड़ा, माटी ही आ गयी।

Tuesday, April 19, 2022

मार्क्सवाद 261 (अस्मितावाद)

 अस्मितावाद की विभिन्न अभिव्यक्तिया सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते के सबसे बड़े गतिरोधक हैं। ये हैं -- ब्राह्मणवाद (वर्णाश्रमी जातिवाद, जिसकी राजनैतिक अभव्यक्ति हिंदुत्व है) और नवब्रह्मणवाद (जवाबी वर्णाश्रमी जातिवाद)। जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है और ऐसा करने वाला असवर्ण नवब्राह्मणवादी है। ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक है। अस समय की जरूरत आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय के आंदोलनों की द्वंद्वात्मक एकता है -- जय भीम-- लाल सलाम। सांप्रदायिकता और जातिवाद का एक जवाब -- इंकिलाब जिंदाबाद।

Thursday, April 14, 2022

लल्ला पुराण 322 (मंहगाई और जनविद्रोह)

 जनविद्रोह के चलते श्रीलंका की राजपक्षे सरकार के अवश्यंभावी पतन के संदर्भ में मैंने कर्ज से करकार बनाने-चलाने पर एक टिप्पणी की लेकिन किसी को वह मोदी की आलोचना लगी और प्रकारांतर से वामपंथी दुष्प्रचार का आरोप लगाने लगे। उस परः


आपने या तो पोस्ट ध्यान से पढ़ा नहीं, या समझा नहीं। इसमें न तो मोदी का विरोध है न विजयन का, इसमें श्रीलंका के राजनैतिक घटनाक्रम के संदर्भ में देश के नाम पर कर्ज लेकर लोगों की कमर तोड़ने की राजनीति की समीक्षा है। रिजर्व बैंकि के आंकड़ोॆ के अनुसार जून 2021 में भारत का विदेशी कर्ज बढ़कर 57130 करोड़ डॉलर था जो मार्ट 2021 की तुलना में 160 करोड़ डॉलर अधिक था। यह कर्ज लगातार बढ़ता ही जा रहा है। विदेशी कर्ज का भार शासक या शासक दल पर नहीं, आम जनता पर पड़ता है। बढ़ता विदेशी कर्ज आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध करता है, इससे मंहगाई बढ़ती है और अंतर्राष्यट्रीय बाजार में राष्ट्रीय मुद्रा की औकात घटती है। 1985-86 में मैंने एक अमेरिकी पत्रिका से मिले 100 डॉलर का एक ड्राफ्ट रिजर्व बैंक से लगभग 890 रूपए में भुनाया था। आज एक डॉलर की कीमत 80 रूपए से अधिक है। श्रीलंका में जनविद्रोह का मुख्य कारण विदेशी कर्ज और बड़ती मंहगाई से टूटती कमर है। राजपक्षे की विदाई अवश्यंभावी लग रही है। वे भी लंबे समय तक सांप्रदायिक उंमाद से जनअसंतोष रोकने में कामयाब रहे, लेकिन पेट पर लात की मार असह्य होती है। भारत में जनविद्रोह की संभावनाएं अभी नहीं दिख रही हैं क्योंकि यह भक्तिभाव प्रधान देश है और भक्त पेट पर लात भी प्रसाद समझकर खाता है। कल भिंडी 100/ किलो खरीदा और तोरी 110/किलो।

लल्ला पुराण 321 (रंगभेद)

 'नीबू बेचते-बेचते जामुन ने संतरा उड़ा लिया' कैप्सन के साथ गोरी लड़की और कोले लड़के की शादी की तस्वीर डाल कर उसका उपहास-परिहास करना किस मानसिकता का द्योतक है? और उस पर सरकारी का कमाल जैसे कमेंट? यदि लड़का भी गोरा होता तब भी आप लोगों के यही विचार होते? और यदि लड़का गोरा होता और लड़की काली तब? इसी रंगभेदवादी कुत्सित सोच को विचारधारा बनाकर यूरोपीय शासक वर्गों ने अफ्रीकी मूल के लोगों को गुलाम बनाया, भारत जैसे एशियाई देशों को गुलाम बनाकर लूटा। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन और सोच के विरुद्ध नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में लंबा आंदोलन चला। 1970-80 के दशक की अविजेय क्रिकेट टीम के लगभग सभी नायक काले ही थे। अफ्रीकी मूल के विवियन रिचर्ड की पत्नी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की अदाकारा नीना गुप्ता हैं। स्त्री को संतरा या सेब जैसा माल समझने की मर्दवादी वीभत्सता तो सभी समाजों में है। इस तरह की रंभेदी सोच को बढ़ावा देने की बजाय खत्म करने की जरूरत है।

Marxism 47 (Communism)

 Some people go on making declarations of the end of communism like Fukuyama's declaration of the "End of History". Some posted that Communism is a dead ideology. To that --


You still get unceasing fits of the word itself!!! Communism is not an ideology but a future historic mode of production (MoP) like capitalism. As a mode of production capitalism replaced feudalism and shall be replaced by communism, a classless and stateless society, in which any exploitations humans by humans would be unnecessary and shall be made impossible. That shall be a society of human emancipation, in which no one shall be condemned to do alienated labour. Every one shall realize his creative potentialities and contribute to the process of social production according to his/her capacities and receive share from the social produce according to his/her needs. The transition period from feudal Mop to capitalist Mop lasted for couple of centuries in Europe. In India transition from the Indian version of feudalism, the Vanashram feudalism, which Marx defined as Asiatic Mode of Production is still in complete and has joined hands with the existing neo-liberal, imperialist global capital, as its tool. But anything that exists is destined to end and Asiatic MoP with its ideological weapon of colonial construct, communalism, is no exception. Now the need to social revolution against the Asiatic MoP and economic revolution against capitalist MoP has to be dialectically united for the human emancipation, the process has already begun with the slogan of Jay Bhim-Lal Salam. To many in the world a classless-stateless society seems an utopia. Anything, till that happens seems utopia. In my childhood, in my village an untouchable, Dalit's becoming a Professor would have been an utopia, but is a reality now. In the USA, before Barack Obama's election as President, the idea of an Afro American's becoming President would have been an Utopia. For radical changes, radicalization of social condition is needed, for which the precondition is disillusionment from the false consciousness of the identities based on caste (casteism) and religion (communalism).

Inqilab Zindabad.

Saturday, April 9, 2022

बेतरतीब 125

 मैं, 21 साल की उम्र में, 1976 में, आपातकाल में भूमिगत रिहाइश की संभावनाएं तलाशते इलाहाबाद से दिल्ली आया और इलाहाबाद के एक सीनियर और ज्एनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी (अब दिवंगत) को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे, इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी, जिन्हें मैं इलाहाबाद में नहीं जानता था। उनके कमरे में रहने की जुगाड़ हो गयी। इस तरह मैं जेएनयू ज्वाइन करने के पहले ही जेएनयूआइट हो गया। रहने की जुगाड़ के बाद खाने (आजीीविका) की जुगाड़ करनी थी। कैंपस में स्कूल में पढ़ने वाले प्रोफेसरों के कुछ बच्चों से दोस्ती हो गयी, जिन्हें कभी कभी गणित पढ़ा देता था। प्रो. परिमल कुमार दास का बेटा पल्लव मेरा अच्छा दोस्त बन गया। वह उस समय कक्षा 10 में पढ़ता था। उसकी मां बहुत ही अच्छी व उसूलों वाली इंसान थीं। सरदार पटेल विद्यालय में पढ़ाती थीं। उन्हें मैं चाची जी कहता था तथा उनसे मिले स्नेह के लिए सदा आभारी रहूंगा। उनके बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। खैर पल्लव को औपचारिक रूप से ट्यूसन पढ़ाने लगा तथा गणित के ट्यूसन से आजीविका चलाने का फैसला किया।

यूटोपिया

 15 वीं शताब्दी में कल्पना किया था थॉमस मूर ने

 15 वीं शताब्दी में कल्पना किया था थॉमस मूर ने

जब राग-द्वेष से मुक्त गणतंत्र यूटोपिया का

सोचा न होगा कि बन जाएगा यह पर्याय असंभाव्यता का
मानव-विशिष्ट प्रवृत्ति है कल्पना शक्ति
कल्पना में बनाता है भवन वस्तुकार
उतारता है कल्पना को कागज पर
फिर देता है उसे धरती पर आकार
और होती है उसकी कल्पना साकार
देखकर पक्षियों की उड़ान
बनाया था हमारे पूर्वजों ने कल्पना में पुष्पक विमान
झेला होगा असंभव वाहन बनाने के तंज का अपमान
जब उनके वंशजों ने दिया उनकी कल्पना को कार्यरूप
असंभव ने ले लिया तरह तरह के ठोस स्वरूप
आकाश को पार कर गयी भविष्य की पीढ़ियों की उड़ान
बना लिया गया है अब धरती की परिधि से परे अंतरिक्ष यान
जब तक ठोस रूप लेती नहीं कल्पना
कहलाती है यूटोपिया और लेते नहीं लोग संज्ञान
मगर हर पीढ़ी रचती है भविष्य की यूटोपिया
बनती है वह हकीकत भरती हैं उसमें जब नई पीढ़िया नई उड़ान।

Friday, April 8, 2022

शिक्षा और ज्ञान 352 (मैक्यावली)

 मैक्यावली राज्य की आचारसंहिता को धर्म और नैतिकता की आचार संहिता से अलग करता है और विवाद की स्थिति में राज्य की आचार संहिताको तरजीह देता है क्योंकि वह राज्य की आचारसंहिता को सर्वोपरिमानता है। लेकिन धर्म को राज्य का प्रभावी उपकरण भी मानता है और राजा को सलाह देता है कि धार्मिक रीति-रिवाज तथा कर्मकांड कितने भी अतार्किक क्यों न हों राजा को न केवल उनसे छेड-छाड़ नहीं करना चाहिए बल्कि उनका अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए क्योंकि वे प्रजा को संगठित रूप से वफादार बनाए रखने में प्रभावी औजार हैं तथा भगवान का भय राजा के भय का रूप ले लेता है। राजा कितना भी फरेबी और अधार्मिक क्यों न हो लेकिनउसे हमेशा धर्मात्मा का अभिनय करना चाहिए। लोग भीड़ होते हैं और अभिनय को ही सच मान लेते हैं। कुछ लोग असलियत समझ जाएंगे लेकिन जब आमलोग उसके समर्थक हैं तो कुछ लोगों की कौन सुनेगा तथा उनकी आवाज आसानी से दबाई जा सकती है। हमारा मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य उसका ज्वलंत उदाहरण है।

सरहदें बांटती हैं दिलों को

 सरहदें बांटती हैं दिलों को

मिटाकर सरहदें कितनी भव्य होगी दुनिया

मिट जाएंगी दूरियां दिलों की

पल्लवित होगी

एक खूबसूरत सामासिक संस्कृति

पनपेंगे जिनमें पौध वसुधैव कुटुंबकं के

नफरत के विनाश से गमक उठेगा मुहब्बत का कायनात