Thursday, December 31, 2015

बेतरतीब 6

30.12.2015
बेतरतीब 6
जेयनयू के संस्मरण
खंड 1
1976-80

भाग 1
2 हफ्ते पहले शुरू किए एक लेख लिखने की सोच कर उठा 4 बजे सरसरी निगाह डालने के लिए फेसबुक खोला तो सीपीयम के प्लेनम में मुद्दों के संदर्भ जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर अरुण माहेश्वरी का कम्युनिस्ट पार्टियों की कार्यशैली पर सवाल समालोचनात्मक लेख दिख गया. यसयफआई के दिनों की याद आ गयी. कई मित्रों की नाराजगी का खतरा मोल लेकर अनुभव-जन्य टिप्पणी का मन हुआ. बहुत सी यादें हैं. किश्त में लिखता रहूंगा. 

जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर विमर्श के लिए यही सवाल पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव के विरुद्ध हम कुछ लोगों ने 1980 में जेयनयू यसयफ आई की मीटिंग में उठाया था. इस पर मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में स्वस्थ बहस की बजाय पार्टी विरोधी माना गया तथा जिन्हें कुछ दिनों तक कर्मठ कार्यकर्ता कहा जाता था कानाफूसी से उनका चरित्रहनन शुरू किया गया. सवालियों को भय से खामोश करने के लिए उनमें सबसे मुखर सवालिये दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) को निशाने पर लिया गया. विचारों की असहमति की असहिष्णुता पर दक्षिणपंथियों का ही एकाधिकार नहीं है, कम्युनिस्ट पार्टियां भी पीछे नहीं हैं. अंतःपार्टी जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद,शासक वर्गों की पार्टियों की हाईकमान का कम्युनिस्ट पर्याय बन चुका है. शासक पार्टियों की ही तरह कम्यनिस्ट पार्टियों तथा उनके जनसंगठनों में भी संगटन साधन की बजाय साध्य बन गया है और संख्याबल जनबल का पर्याय क्योंकि सबने मार्क्सवाद पढ़ना बंद कर दिया है. 70-80 के दशक की घंटों दिमाग खंगालने वाली स्टडी सर्कल्स की परंपरा पुरातन हो खारिज कर दी गयी है. निर्वात नहीं रहता, राजनैतिक प्रशिक्षण की जगह राजनैतिक जोड़-तोड़ ने ले ली. आत्मालोचना की मार्क्सवादी अवधारणा बुकसेल्फ में धूल चाटने को अभिशप्त बन गयी है.

 अद्भुत मेधा तथा हास्यभाव से ओतप्रोत, कैंपस में अतिलोकप्रिय, दिलीप असंभव किस्म का प्राणी था. आजकल लगता है अतीतजीवी हो गया हूं या शायद  (पता नहीं) परिघटना को समझने की ऐतिहासिक विधि का असर है. जब भी अतीत से निकलने की कोशिस करता हूं वापसी का कोई समुचित बहाना मिल जाता है. सरसरी निगाह डालने के लिए फेसबुक खोला तो आपका यह लेख दिख गया. टिप्पणी से मन नहीं रोक पाया. दिलीप ने 1975 में जेयनयू में यमए में प्रवेश लिया. मैं डीआईआर से छूटने के बाद मीसा में वारेंटेड, 1976 में भूमिगत अस्तित्व की संभावनाओं की तलाश में इलाहाबाद से दिल्ली आ गया. किन परिस्थितियों में तथा कारणों से एकाएक इलाहाबाद छोड़ने का फैसला लिया और तूफान मेल की वाया भोगांव की जर्नीब्रेक यात्रा का अनुभव भी रोचक है, लेकिन फिर कभी. वियोगीजी (डीपी त्रिपाठी) को खोजते जेयनयू पहुंचा तो दिलीप की हाजिरजवाबी, विट तथा हास्यबोध से बहुत प्रभावित हुआ. वियोगी जी तो उस समय जेल में थे लेकिन उनके मित्र घनश्याम मिश्र (दिवंगत) ने इलाहाबाद के मेरे एक सीनियर, रमाशंकर सिंह से मिलवाया जिन्होंने जिन्होंने मुझे अपने कमरे में स्थाई अतिथि के रूप में शरण देकर आवास की समस्या का बिना संघर्ष निदान कर दिया. गंगा हॉस्टल में उनका कमरा(323) सीता(सीताराम येचूरी) के कमरे (325) के बगल में था जहां आपात काल के बाद चुनावी रणनीतियों की मीटिंग वहीं होती थी. अतब तक मैं इन लोगों के साथ काम तो करता था लेकिन आधिकारिक रूप से सफाया लाइन से अलग नहीं हुआ था. आपातकाल के बाद की अन् 1977 से कई साल तक दिलीप मजाक में खुद को यसय़फआई का नियमित नेक्स्ट प्रेसीडेंसियल कैंडीडेट कहता था. अगला नेक्स्ट होने के पहले यक्स हो गया. त्रिपाठीजी (डीपीटी) तो इलाबाद में भी बहुत सीनियर थे और जेयनयू में तो हिंदी अंग्रेजी के धाराप्रवाह स्टार स्पीकर, छात्रसंघ के आपातकाल आपातकालीन अध्यक्ष, यसयफआई के गॉडफादर तथा मेरे छात्र होने की संभावना भी 3-4 महीने दूर थी. डीपीटी ने दिलीप पर सीता को तरजीह देने के जो कारण बताये थे, हास्यास्पद थे. इस पर फिर कभी. वैसे ही फुटनोटिंग से काफी विषयांतर कर चुका हूं. यसयफआई की औपचारिक सदस्यता के पहले ही कॉम. सुनीत चोपड़ा के नेतृत्व में बंसीलाल के विरुद्ध प्रचार की भिवानी ट्रिप का बहुत यादगार अनुभव है, उस पर पूरी किश्त लिखूंगा कभी.    

 18 साल की उम्र में मार्क्सवाद के प्रभाव में आने से एक साल पहले मैंने इलाहाबाद विवि की छात्र राजनीति में विद्यार्थी परिषद के प्रकाशनमंत्री के रूप में प्रवेश किया था. ब्लेसिंग इन डिस्गाइज. आपातकाल में सफाया लाइन से मोहभंग के बाद लगा कि सीपीयम ही गोल्डेनमीन या बुद्ध का मध्य मार्ग है. तब तक पाश नहीं पढ़ा था कि बीच का रास्ता नहीं होता. विद्यार्थी परिषद तथा यसयफआई की सांघनिक संरचना तथा कार्यपद्धति में अद्भुत समानता देख दंग रह गया. इस पर फिर किसी और किश्त में. विद्यार्थी परिषद का अनुभव सीखप्रद होने के साथ मेरे अंधराष्ट्रवाद से मार्क्सवाद से मार्क्सवाद के संक्रमणकाल के कम कर दिया. इस पर भी फिर कभी. अभी जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की बात करते हैं. उस बार की स्कूल तथा ह़ॉस्टल दोनों ही मीडिंगों में मैंने लाइन पर कुछ सवाल उठाया. संख्याबल सदा नेतृत्व के साथ. पता चला कि गंगा हॉसटल के तत्कालीन संयोजक पी सांईनाथ(मित्र तथा बड़े पत्रकार) ने सेंट्रल कमेटी में हर बात पर सवाल करने की मेरी शिकायत की थी, जबकि मार्क्सवाद हर बात को सवाल-दर-सवाल के घेरों में लेने की हिदायत देता है. दिलीप, सारी आवारागर्दी-अड्डेबाजी के बावजूद, काफी पढ़ता था. देवीप्रसाद त्रिपाठी (तब जेयनयू यसयफआई के गॉड फादर अब यनसीपी के सांसद) सी वाक्पटुता के अभाव के बावजूद अपने हास्यभाव तथा व्यंग्यबोध के चलते बहुत प्रभावशाली और लोकप्रिय वक्ता था. वह अतिसक्रिय जेयनयू डिस्कसन फोरम का संयोजक था. पोस्टर-पैंफलेच लिखना, साइक्लास्टाइल करवाना, सभी हॉस्टलों के मेस में रखकर 6 बजे की चाय के बाद सोने जाना. वह डेस्कॉलर था इस लिये सभी हॉस्टलों के कई-कई कमरे उसके अपने थे जिसमें गंगा ह़ॉस्टल का 119 न. का मेरा कमरा भी था. एक रात हम लोग काशीराम के ढाबे पर 12 बजे तक कमरे पर आये. सुबह नाशते से पहले सब मेस में लीफ्लेट पहुंचना था. दिलीप ने 3 बजे लिखना पूरा किया. हम दोनों मुनिरका साइक्लोस्टाइल कराने गये. वापस छहों हॉस्टल में पर्चे रखकर 6 बजे की चाय के लिए काशीराम के ढाबे पहुंचे. दिलीप 3-4 घंटे के लिए सोगया, मेरा 9 बजे क्लास थी, नहीं सोया. दिन भर नींद नहीं आई. काम की सार्थकता का एहसास थकने नहीं देता. विस्तार से इसलिय़े बता रहा हूं कि प्रतिभाशाली तथा प्रतिबद्ध सदस्यों के प्रति इन संगठनों के नेतृत्व के बर्ताव की यह मिशाल है.  दिलीप के निलंबन के बाद तत्कालीन यूनिट सचिव अनिल चौधरी (पीस के निदेशक) ने कहा था, यह संगठन के लिए इतना हाड़तोड़ मेहनत करता था तो मुखालफत में कितना नुकसान करेगा, लेकिन ऐसे लोग रचनाशीलता के उत्सर्जन की बाधाओं से कुंठित हो अपना नुक्सान तो कर सकते हैं, किसी और का नहीं.

कानाफूसी प्रचार का सार यह था कि दिलीप अराजक है तथा शराब के नशे में अशिष्टता करता है, कभी पता नहीं चला कि किसके साथ उसने अशिष्टता की हैं. खैर कारण बताओ नोटिस, जवाब, निलंबन, गुटबाजी की औपचारिकताओं के बाद निलंबन की पुष्टि के लिए डाउन कैंपस, यस-2 में यसयफआई की जीबीयम का विश्वसनीय अनुभव अविस्मरणीय है. दिलीप के निलंबन ने लंबे समय के असंतोष को फूटने का मौका दिया. अंदर की गुटबाजी की गोपनीयता टूट गयी. यसयफआई की आंतरिक विरोधाभास को हमलोग 680 तथा 511 का टकराव कहते थे. 680 केंद्रीय सचिवालय से मदनगीर जाती थी तथा 511 ग्रीन पार्क से चाणक्यपुरी. इन नंबरो की व्याख्या, समीक्षा फिर कभी. जीबीयम में पक्ष विपक्ष स्पष्ट था. आरोप पढ़े गये तथा संगठनविरोधी गतिविधियों के लिए निष्कासन आदेश पढ़ दिया गया. हमारी मांग कि आरोपी को सफाई का मौका दिया जाना चाहिये यह कहकर खारिज कर दी गयी कि प्रस्ताव पर मतदान के बाद मौका दिया जायेगा. हम संख्याबल में बहुत कम थे. हममें से तो कइयों को बाहुबल से चुप कराया गया. बहुमत से प्रस्ताव पारित होने के बाद यह कह कर नहीं बोलने दिया गया कि अब तो वह सदस्य ही नहीं था इसलिए संगठन के फोरम से नहीं बोल सकता. विचारों से सिर्फ कट्टरपंथी नहीं डरते पार्टी लाइन के भक्तिभाव वाले वामपंथी भी. उसे बोलने का मौका दे देते तो कौन आफत आ जाती? खैर संगठन अनौपचारिक रूप से दो-फाड़ हो चुका था. कई लोग जो हमसे सैद्धांतिक रूप से  सहमत थे किंतु खुलकर सामने नहीं आना चाहते थे.
    
वार्षिक सम्मेलन में आर-पार की लडाई की तैयारी शुरू हो गयी. राजनैतिक नैतिकता को ताक पर रखकर दोनों ही पक्ष समयसीमा से बाद में बैक डेट में सदस्यता अभियान जारी रखा. अपने पक्ष में मेरा विरोध दर्ज कर लिया गया. मैं अक्सर ही अल्पमत में रहा हूं.

एक शाम वेंकट रमन भास्कर (पूर्व प्रोफेसर दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स, फिलहाल शायद लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में प्रोफेसर) से झेलम लांस में एक चिक चिक स्मरणीय है. मैंने कहा कि जैसे सरकार आंदोलनकारियों पर सरकार की खास नीति के प्रतिरोध का राजनैतिक आरोप न लगाकर तोड़फोड़ जैसे आपराधिक आरोप लगाती है, (आपातकाल में हाथ-पैर से अपंग, हिंदी के जाने माने लेखक, इलाबाद विवि के प्रो. रघुवंश पर बिजली का तार काटकर शहर की बिजली सप्लाई बाधित करने का आरोप लगा था) वैसे सीपीयम में भी राजनैतिक के बजाय चारित्रिक आरोप लगाये जाते हैं तथा ताली ब्रिगेड आंख बंद कर हाथ उठा देता है. मैंने प्रवीर पुरकायस्थ का उदाहरण दिया. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के वक्त प्रवीर पुरकायस्थ को इलाहाबाद में पार्टी ऑफिस से साइकिल चुराने के आरोप में निकाल दिया गया था. असली मुद्दा पार्टी के किसी बड़े नेता से मुखर मतभेद का था. भास्कर मेरे ऊपर चिल्लाने लगा. प्रवीर पार्टी के यसय़फआई में अघोषित हाई कमान थे. उस वक्त भास्कर जो मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज मे पढ़ते हुए तमिलनाडु में आपातकाल के विरुद्ध जुझारू संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे जहां डीयमके की करुणानिधि सरकार भी आपात काल की विरोधी थी जिसे आपातकाल खत्म होने के थोड़ा ही पहले कुख्यात आर्टिकल 356 के तहत बर्खास्त कर दिया गया. गौर तलब है कि यह सब भास्कर को अगला अध्यक्षीय उमीद घोषित करने के लिए किया जा रहा था. तभी संयोग से प्रवीर पुरकायस्थ वहां पहुंच गये. भास्कर ने तुरंत पूछा, “Com Purkayasth, he s saying that you were  expelled on the charge of stealing a cycle from party office?” प्रवीर भास्कर का जवाब देने की बजाय मेरी तरफ बढ़े, “It was between me and the party, its over, how it concerns you?  If I beat up my wife in my house, how it concerns you? (यह मेरे तथा पार्टी के बीच का मामला था. खत्म हो गया. तुम्हे इससे क्या मतलब?)”.  प्रवीर यह कहकर फंस गये. मैंने कहा, “dare bat up your wife  and see what shall  I do? प्रवीर रक्षात्मक मोड में आ गये. मेरा यह नहीं वह मतलब था. मैं भी जानता था कि प्रवीर के मुंह से ऐसे ही निकल गया होगा. उनकी पत्नी कॉ. अशोकलता जैन (दिवंगत) बहुत बहादुर थीं, उन पर आंख उठाने की किसी की जुर्रत नहीं थी. मेरे मन में उनके प्रति अत्यंत सम्मान था. प्रवीर का भी बहुत सम्मान करता था. लेकिन जंग और प्यार में सब जायज़ वाली बेहूदी कहावत के प्रभाव में इस तकनीकी बिंदु का पूरा इस्तेमाल किया. जिसका अफ़शोस बहुत दिन बाद हुआ तथा अव्यक्त रह गया.

खैर. नेतृत्व तथा विद्रोही गुट एक दूसरे को नीचा दिखाने की गुप्त रणनीतियां बनने लगीं. पूंजीवाद की बजाय लगता था हमीं एक-दूसरे वर्ग शत्रु बन गये थे. बाद में पता चला कि कइयों के विद्रोह निजी कारणों से थे, कई निजी कारणों से विद्रोह से अलग रहे तथा कुछ विभीषण थे. दोनों ही पक्षों में बहुमत मार्क्स के लेखन से अपरिचित मार्क्सवादियों का था. संख्याबल जनबल का पर्याय बन गया था. नेतृत्व पक्ष के मित्रों से निजी मित्रता मतभेदों पर बहस के साथ बनी रही. कुछ विद्रोहियों (निजी कारणों वाले) ने विद्रोह की मेरी प्रतिबद्धता पर परोक्ष कटाक्ष किया.  मैंने कहा, हमारा कोई खेत-मेड़ की लड़ाई तो है नहीं, न ही कोई अंतिम सत्य होता है जिसका मैं वाहक हूं. वैसे खेत मेड़ की लड़ाई भी दुश्मनी पालने की बजाय सुलह से निपटा लेनी चाहिये. राजनैतिक विरोधियों के प्रति मेरा आज भी यही दृष्टिकोण है. सम्मेलन के 2 दिन पहले मेरे कमरे में आधी रात को रणनीति को अंतिम रूप देने तथा फ्लोटिंग सदस्यों को रिझाने की योजना को अंतिम रूप देने के लिए विद्रोह के शीर्ष नेतृत्व – दिलीप उपाध्याय, संजीव चोपड़ा (वरिष्ठ आईएयस), उदय सिन्हा (वरिष्ठ पत्रकार), सीताराम सिंह (रूसी सांस्कृतिक केंद्र से सेवा निवृत्त), शाहिद परवेज(निदेशक, उर्दू ओपेन यूनिवर्सिटी, दिल्ली केद्र) श्यामबाबू मिश्र (उ.प्र. सरकार में राजपत्रित अधिकारी) तथा मैं – की बहुत लंबी बैठक के बाद हम जोरआज़माइस में 19 न पड़ने के प्रति आश्वस्त थे. पिछले सम्मेलन में हम लोग आधिकारिक प्रस्ताव के समानांतर प्रस्ताव पारित करा सके थे. तब और बात थी. हम और वे का विभाजन भूमिगत था. वैसे भी हमें प्रकरण के नायक के बिना ही मोर्चा संभालना था. मार्क्स, एंजेल्स, लेनिन, माओ, ग्राम्सी, पुलांजाज, सात्र, राहुल सांकृत्यायन, चे, क्रिस्टोफर कॉडवेल के उद्धरणों को अस्त्र–शस्त्र के रूप में इकट्ठा किया गया. इसमें मुख्य यागदान दिलीप का था संजीव तथा मैं सहायक की भूमिका में थे.

अगला दिन विद्रोह के अवसाद का दिन साबित हुआ. तुलना समुचित नहीं थी लेकिन 1925 के कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन से मिनट्स के दस्तावेजों के साथ सत्यभक्त के गायब होने की कहानी याद आ गय़ी थी. कॉ. उदय सिन्हा ने ऐन मौके पर विद्रोह के सारे दस्तावेजों के साथ पक्ष बदल लिया. कुछ लोगों ने उदय को कॉ. जी. सिन्हा कहना शुरू किया. मेरा विरोध बेअसर रहा.  विद्रोह, विद्रोह के पहले ही बेनकाब हो गया. नेतृत्व के पास मुखबिर की जानकारी हमारे विरुद्ध संगठन विरोधी गतिविधियों के पुख्ता सबूत थे. मेड़ पर बैठे लोग (जानबूझ कर फेंससिटर्स का शाब्दिक अनुवाद कर रहा हूं) उतरकर खेत के बीच में चले गये. कम्युनिस्ट पार्टियों तथा उनके संबद्ध जनसंगठनों में इस्तीफा मंजूर करने का रिवाज़ नहीं है. नामंजूर कर निष्कासन का रिवाज़ है. जिस सिद्दत से कुछ दिन पहले तक सदस्यता अभियान चलाया जा रहा था उससे अधिक सिद्दत से हमने इस्तीफा अभियान शुरू किया. 45 लोगों ने सामूहिक त्यागपत्र पर दस्तखत किया. जिसमें से 10-15 फ़र्जी थे जिन्हें बैकडेट में शक्ति प्रदर्शन के लिए सदस्य बनाया गया था. अपेक्षित रूप से त्यापत्र नामंजूर कर सबको संगठन विरोधी गतिविधियों के लिए निकाल दिया गया.

अगले दिन हमने आरयसयफआई (रिबेल यसयफआई) का संस्थापना दिवस मनाया, जिसमें सामूहिक नेतृत्व का हिमायती संविधान पारित किया गया. यसय़फआई के लोग हमें रम यसयफआई कहने लगे. डीपीटी ने उस साल के चुनावी भाषण में हमें रीयल रेनीगेड कहा. निजी चरित्रहनन आम बात थी. हमारी पब्लिक मीटिंग्स में काफी भीड़ होती थी. कम्युनिस्ट विरोधियों को मसाला मिल गया. समादवादी विजयप्रताप दिनमान में मुझे उद्धृत कर, ईश मिश्र बोले...... एक लेख लिखा. वह अंक जेयनयू में रहते ही गायब हो गया था. शाहिद अब तक मिलने पर ईश मिश्र बोले संबोधन से संबोधित करता है. 


अगले चुनाव में हमने लिबरेसन के नवगठित संगठन पीयसओ के साथ हमने गठबंधन बनाकर डोक्रेटिक स्टूडेंट्स फ्रंट बनाया. पीयसओ में ज्यादातर इलाहाबाद के पुराने कॉमरेड थे. उर्मिलेश(पीयसओ) अध्यक्ष तथा सीताराम सिंह सेक्रेटरी के उम्मीदवार थे उपाध्यक्ष के शायद संजीव चोपड़ा तथा संयुक्त सचिव पद पर आरयसयफआई का गुलाम मोहम्मद भट्ट (कश्मीर विवि में फ्रेंच का प्रोफेसर). 1983 आंदोलन में भट्ट ने लिखित माफीनामे के बाद 2 बार जस्टिस पृथ्वीराज कमीसन में निजी रूप से माफी मांगने गया तथा भगा दिया गया. 1983 की बात बाद में. डीपीटी एंड कंपनी की तुलना में हमाऱे स्टार स्पीकर थे दिलीप उपाध्याय, सीताराम सिंह, उर्मिलेश(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक), निशात कैशर तथा संजीव चोपड़ा. मैं प्रायः सभा संचालन की भूमिका में होता था. एक मीटिंग में किसी ने प़लिटिक्स फ्रॉम एबव पर सवाल किया. मैं पार्टी लाइन पर कुछ बोलता कि दिलीप ने जवाब देने की इच्छा व्यक्त किया. उसने फौज के जवानों की क्लास की सिमिली से नेपाली लहजे मे उत्तर दिया. सूबेदार शाब कम्पाश पढ़ा रहे थे. ज्वान ये मेरे हाथ में जो मशीन है इसे कम्पाश कहते हैं, क्या कहते हैं? सब ज्वान एक साथ बोला, शाब कम्पाश. सूबेदार शाब बोले वेरी गुड ज्वान. ज्वान ये कम्पाश नार्थ को प्वाइंट करता है. किधर को प्वाइंट करता है? सब लज्वान एक साथ, नार्थ को प्वाइंट करता है शाब, नार्थ को. शाबाश ज्वान. तभी एक जवान पूछ देता है, शाब ये कम्पाश नार्थ को ही क्यों प्वाइंट करता है, ईश्ट को क्यों नहीं? सूबेदार शाब खुश हो बोले शाबाश ज्वान. वेरी इन्टेलीजेंट कश्चन. चलते जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ और चलते जाओ तो एक पहाड़ मिलेगा. उस पहाड़ में वही मैटल है जो इस कम्पाश में. समझ में आया ज्वान? सब एक साथ, हां शाब. बिल्कुल करक्ट शाब. सूबेदार शाब बोले, शाबाश ज्वान. अटेंसन से सब समझ आ जाता है. तभी एक ज्वाऩ पूछ दिया, शाब, हम इस कम्पाश को लेकर चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें और चलते जायें, चलते चलते पहाड़ के नीचे पहुंच जायें. औऱ फिर चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते जायें और चढ़ते जायें तथा चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते पहाड़ के ऊपर पहुंच जायें, तब कम्पाश किधक को प्वाइंट  करेगा? सूबेदार शाब चक्कर में पड़ गये यह तो किसी मैनुअल में लिखा नहीं था. कड़क आवाज में बोले, शीओ शाब का हुक्म है कोई ज्वान पहाड़ पर नहीं चढ़ेगा. (जारी) 

Tuesday, December 29, 2015

An Ode to Modi

An ode to Modi ji for complenting the handicapped as Divyang (blessed with divine organs)


You are blessed with divine mind your highness!
In the same way as the handicapped is seen blessed with divine organs in your divine eyes
Who is asserting the claim of right to human dignity
Sailing courageously the surging sea of pain
Enduring patiently the disdainful
Contempt, discrimination, deprivation and social indifference
Accepting helplessly the adjectives of limp, blind, deaf and dump, as proper nouns.
Your deprivation of sense of history turned into blessing in disguise your highness
That made you the darling of the moneybags of the earth
Pierce yours at least one or both the eyes
And get blesssed with with divine organs also
The combination of the two deadly blessings shall be divine your highness!
Your divine eyes would see divinity into hunger and starvation deaths in the contry
That is blessed by Gods in various incarnations
Of Ambanis, Adanis and the Wall marts
You are great your highness blessed with divine mind
As the handicapped is blessed with divine organs in your divine eyes
Your greatness also lies in freeing the country from the vices like peace and harmony
And the sins like reason and rationality with your divine power
(Ish Mishra, 29.12.2015)

the translation seems better than the original

Monday, December 28, 2015

दिव्यदिमाग


दिव्यदिमाग

दिव्यदिमाग हैं आप महमहिम
उसी तरह जैसे दिव्यांग दिखता है
साहस से तकलीफों समंदर पार करता विकलांग
सहते हुए
अवमानना, प्रवंचना तथा तिरस्कार
स्वीकार करते हुए
अंधे, लूजे, लंगड़े, गूंगे, बहरे के विशेषणों को
व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में
इतिहास बोध की वंचना ने बनाया तुम्हें
मानव पालक धनपशुओं का प्रिय पाल्य
फोड़ लो तुम अपनी कम-से-कम एक या दोनों आंखें
बन जाओ काने या सूरदास
अद्भुत होगा दिव्यांग तथा दिब्य दिमाग का मेल
दिव्यचक्षु से दिव्य दिखेगा
भूख-प्यास से तड़पता यह दिव्य देश
करते हैं प्रभु कृपा जिस पर बदल बदल कर भेष
कभी अंबानी तो कभी अडानी बनकर
बाकी बनकर वालमार्ट बचती जो शेष
धन्य हैं दिव्यदिमाग महामहिम आप
खत्म कर देते हैं जो दिव्यशक्ति से
अमन-चैन का अदिव्य अभिशाप
तथा तर्क, विवेक के पाप
धन्य हैं दिव्यदिमाग महामहिम आप
(ढंग की बनी नहीं, फिर भी)

(ईमिः 29.12.2015)

Saturday, December 26, 2015

जनकवि पंकज सिंह को श्रद्धांजलि

लाल सलाम पंकज भाई. अभी परसों ही तो  सांईबाबा की प्रेस कांफरेंस के बाद प्रेस क्लब में इतनी योजनाएं बनाई थी हमने साथ प्रेस क्लब में बैठकर, आज मुझे जनहस्केतक्षेप की मीटिंग की सूचना के लिए फोन करना था, मेरे फोन के पहले अनूप का फोन आ गया अब भी यकीन नहीं आ रहा है। स्वास्थ्य की परवाह किये बिना जिस तरह आप जनहस्तक्षेप के कार्यक्रमों तथा अन्य प्रतिरोधों में निरंतर शिकत कर रहे थे, प्रेरणादायी है. अब कल लिखूंगा, अभी तो यकीन ही नहीं हो रहा है। लाल सलाम पंकज भाई. कवि मरता नहीं आपकी कविताएं आप को मरने न देंगी, न ही आपके मित्र. लाल लाल लाल सलाम.

https://www.youtube.com/watch?v=4DwtaGk4w1c&feature=share

मोदी विमर्श 49

Vinod Shankar Singh  प्रणाम सर, अद्भुत इतिहासबोध है आपका, "प्रधान मंत्री द्वारा पाकिस्तान के ऊपर से गुजरते समय लाहौर मे उतरना और नवाज़ शरीफ से मिलना एक ऐसा साहसिक कदम है जिसकी मिसाल हिंदुस्तान के कूटनीतिक इतिहास मे नहीं मिलती".संघी शब्दावली में शायद दोगले को साहस का  लाहौर नहीं.  देखा वो जन्म्या ही नहीपर्याय. हम तो लगातार कह रहे हैं जिनने लाहोर नहीं देखा जन्म्या ही नहीं.मोदीजी तथा बजरंगियों का अस्तित्व ही पाकिस्तान तथा मुसलमानों के विरुद्ध नफरत तथा मुलमानों तथा ईशाइयों पर हमलों के धर्मोंमाद पर टिका है. मोदीजी तथा उनके तमाम जाहिल, अपराधी मंत्रियों के चुनावी भाषणों की सीडी देखिये. जो मोदी गोली टोपी पहनने में अपमान समझता है वह ओबामा के आदेश तथा अडाणी के व्यापारिक हितों की खातिर एक मुसलमान के पांव छूता है. आपकी गलती नहीं है इम्तहान पास करने के लिए गणित के मशीनी ज्ञान के साथ भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत नौकरशाही के पुर्जे के रूप में जीवन खपा देने के बाद पूर्वाग्रह-मुक्त दिमाग लगाले की आदत छूट जाती है। वैसे यह आदत तो बिना समझे नमस्ते सदा वत्सले.. के जाप तथा हिंदू युवकों बढ़ते जाना जैसे बेहूदे गीतोंं की  आरती से ही क्षीण हो जाती है. मनुष्य की 2 विशिष्टताएं उसे पशुकुल से अलग करती हैं -- विवेक(दिमाग का इस्तेमाल तथा अंतरात्मा. भक्त अंतरात्मा.गणवेश  के पास गिरवी रख देता है. यूरोप की तरह तरह दक्षिण एशिया  में वीजा-फ्री आवाजाही हो जाय तो भूख तथा अशिक्षा से जूझते ये मुल्क अरब-खरबों की बजट के सैनिक-तंत्र पर कटौती से जो धन बचायेंगे उससे मुल्कों  की बेहतरी होगी, नफरत की सियासत टूटेगी तथा शस्त्र व्यापार से मालामाल होती साम्राज्यवादी शस्त्र क़रपोरेट कमजोर होगा तथा साम्राज्यवादी शिकंजा ढीला होगा। दुआ करता हूं इस नौटंकी के बाद मोदी पर बात पर पाकिस्तान-पाकिस्तान रटना बंद कर देंगे. अशिष्टता के लिए क्षमा, सर.

Friday, December 25, 2015

मार्क्सवाद 21

लिबरेसन की एक कॉमरेड की जेपी तथा छात्र आंदोलन को खारिज करती एक पोस्ट पर कमेंटः

कॉमरेड, मार्क्स ने कहा है कि जनता के प्रोग्राम अलावा कम्युनिस्ट का कोई अपना प्रोग्राम नहीं होता नहीं होता. संचित तथा पनपते युवा आक्रोश से अनभिज्ञ, खुद को नक्सलबाड़ी का वारिश समझने वाले हम लोग दीवारों पर "सत्तर का दशक मुक्ति का दशक" के हवाई नारे लिखने में मशगूल, चौराहे तक पहुंच चुकी क्रांति का इंतजार कर रहे थे. सीपीआई ब्रजनेव-इंदिरा संबंधों की प्रगाढ़ता के हित में स्वस्फूर्त छात्र आंदोलन को सीआई समर्थित फासिस्ट आंदोलन बता रही थी, सीपीयम तटस्थ थी. हम सबने मिलकर मैदान लोहियावादियों तथा विद्यार्थी परिषदियों के लिए ठोड़ दिया. नेतृत्व के निर्वात को भरने की हमने कोशिस नहीं की तथा राजनैतिक रूप सेअप्रासंगिक हो चुके दिग्भ्रमित जेपी को मौका मिल गया लोकनायक बनने का. जब हमें स्वस्फूर्त आंदोलन में हस्तक्षेप करना था, हम आपसी गुटबाजी तथा माओ का पुतला फूंकने निकले संघी जुलूस पर बम फेंकने की असफल कोशिसें जैसी बचकानी, आत्मघाती हरकतें  कर रहे रहे थे.  फ्रांस की कम्यनिस्ट पार्टी ने यदि 60 के दशक के क्रांतिकारी छात्र आंदोलन को स्वस्फूर्त कर खारिज करने की बजाय हस्तक्षेप किया होता तो वह यूरोप के इतिहास का निर्णायक बिंदु हो सकता था मगर प्रेरणा-श्रोत बन कर रह गया. कॉमरेड मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है आत्मालोचना , जिसे पार्टीलाइन की दैवीय पवित्रता के चक्कर में दुनियां की सभी कम्युनिस्ट पार्टियां लगभग भूल चुकी हैं. पिछले 30-35 सालों में नेपाल के अपवाद को छोड़कर सभी चुनावी पार्टियों की आर्थिक (संख्या बल) तथा राजनैतिक (जनबल) रसूख घटा है. नेपाल मे जनतांत्रिक आंदोलन की सफलता के बाद दिल्ली में भूमिगत सीपीयन (एमाले) के मित्र कॉमरेडों का नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार में प्रमुख मंत्रालयों का प्रभारी बनने के बाद लगा था कि संवैधानिक जनतंत्र के जरिए भी क्रांति की दिशा में बढ़ा जा सकता है. चंपावत (उत्तराखंड) के सरकारी डिग्री कॉलेज में एक सेमिनार में शिरकत करने के बाद अपनी याम्हा आरयक्स 100 बाइक में लौटते हुए, विशाल शारदा के किनारे फारेस्ट गेस् हाउस, टनकपुर में रात बिताने के बाद शारदा पार कर नेपाल की धरती पर पैर रखने का मन हुआ तथा सुबह टंकी फुल कर शारदा पार कर लिया तथा ऩजदीकी कस्बे में चाट पीकर लौटने का मन हुआ. चाय पीते हुए नेपाल के मंत्री मित्रों से मिलने का मन हुआ. बाप रे, कांग्रेसियों से भी ज्यादा ताम-झाम. कॉ. द्रोण प्रसाद आचार्य से दिल्ली में विमर्श से बहुत प्रभावित था, वे गृहमंत्री थे. राजशाही के सवाल पर बोले अभी सही वक़्त नहीं था. नौकर-चाकर, शानोशौकत. महंगी शराब. अच्छा खाना-पीना किसको अच्छा नहीं लगता. मुझे मार्क्स की नहीं रूसो की याद आई जो कहता है कि ऐशो- आराम भ्रष्टाचार का मूल है. मॉफ करना कॉमरेड जेपी को निरस्त  करने की आपकी भाषा मार्क्सवादी न होकर संघी लग रही है. मार्क्स अपने विरोधियों को बौद्धिकता के इतिहास में उनके योगदान का संज्ञान लेते हुए सम्मान से खारिज करते थे. जेपी का राष्ट्रीय आंदोलन में अहम भूमिका रही है. मैं उस पर एक लेख लिखने की सोच रहा हूं (जो सोचता हूं सब कर पाता तो क्या बात थी). गांधी ने हरिजन में लेख छापा जिसमें कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी (अवैध घोषित कम्युनिस्टों को भी सदस्य के रूप में प्लेटफॉर्म मिल गया. नंबूदरीपाद सेक्रेट्रियेट में थे) को इंगित करते लिखा “….. Some young Congressmen and women are indulging into loose talks of class war. ……” जेपी ने जवाब दिया, “war is already on, the question is of taking sides.”  गांधी ने जेपी का जवाब भी हरिजन में छापा. डांगे अगर आजादी के बाद के बाद के दिनों में कांग्रेस के समर्थक हो गये तो इताहास में उनकी क्रांतिकारी भूमिका को नहीं खारिज किया जा सकता. मार्क्सवाद पर स्टडी सर्कल्स पर जोर देने की जरूरत है. दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां भूमंडलीकरण के गतिविज्ञान को समझने में असमर्थ सिद्धांत के संकट से गुजर रही हैं. सोचा था 2-4 वाक्य के कमेंट का, हो गये 623 शब्द.   

Tuesday, December 22, 2015

इक्कीसवीं सदी

लंबी कविता.

भूमिका
घर के एकांतवास की जड़ता तोड़ने के लिए कल बहुत दिन बाद तीनमूर्ति लाइब्रेरी चला गया, एत लंबित लेख की शुरुआत करके 500-600 शब्द लिख कर इतना खुश हुआ कि लंच के लिए कैंटीन लैपटॉप के साथ चला गया तथा खाने के बाद चाय लेकर उद्यान की कुहासी धूप में बैठने का मन हुआ. सोचा किताब तो कन्सल्ट नहीं करना है तो जब तक लैपटॉप की बैटरी है वहीं काम कर लूं, जो एक गलत फैसला था. कलम का मन बदल गया. मुझे लगा 2015 के अवसान पर 21वीं सदी के इस कालखंड पर एक संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहता है, लेकिन यह तो अराजकता की हद तक मनमाना हो गया है, मैं भी नियंत्रण में ढील देता रहता हूं. जिस तरह यूरोप के प्रबोधन काल(1650s-1810s)  को लंबी 18वीं सदी कहा जाता है वैसे ही कलम के दिमाग में लंबी 20वीं सदी की बात कलम को सूझी लेकिन शीर्षक 21वीं सदी ही रहने दिया. मार्क्स ने कहा है कि अर्थ ही मूल है. जब से कलम पर आर्थिक दबाव हटा है, वेतन से महीना निकल जाता है, तबसे इसका मनमानापन बढ गया है तथा मेरे नियंत्रण की ढील भी. मार्क्स ने यह भी कहा है कि अन्य जीवों की रचनाशीलता पेट भरने के उपक्रम पर खत्म होती है मनुष्य की पेट भरने के बाद शुरू होती है. कलम की इस मनमानी आवारागर्दी ने कल सारा पूर्वान्ह तथा आज की पूरी सुबह लील लिया. तुकबंदी से मुक्त मेरी कविताएं मुझे बेहतर लगती हैं. सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है. मैं बहुत असवाधान व्यक्ति हूं. जब ध्यान जाता है तब तक कलम तुकबंदी शुरू कर चुका होता है. शुरू कर दिया तो पूरा भी करना पड़ता है. लिखने के तुरंत बाद इतनी लंबी कविता पढ़ने धैर्य नहीं बचा है. जो भी मित्र धैर्य दिखाएं, उनकी टिप्पणी के लिए आभारी रहूंगा.
इक्कीसवीं सदी

कैलेंडर करता जिसका इक्कीसवीं सदी कह प्रचार
हकीक़त में है लंबी बीसवीं सदी का विस्तार
यो जो देख रहे हैं लहलहाती सियासी फसल
बीसवीं सदी के शुरू में हो गया था
उसकी जमीन का अधिग्रहण
दंगों की धरती की अदृश्य़ तख्ती के साथ
फिरंगियों की शह पर बंटा था जब
संघर्षरत भारत का राष्ट्रवाद
जाते जाते हुए फिरंगी
अपने मकसद में कामयाब
फिरकापरस्त सियासत के शस्त्र से
बांट दिया भूगोल मुल्क का
बांट दिया इतिहास
बन गयीं उर्वर जमानें खून की दरिया के आर-पार
उगने लगी दोनों तरफ नफरत की फसल जोरदार
बढ़ने लगे दोनों तरफ नफरत खलिहान
शुरू किया जब हुक्मरानों ने बीजों का आदान-प्रदान
इस पार के बंटे मुल्क में
बहुत दिनों तक मुल्क पर भारत राष्ट्र का खुमार था
पेशोपश में दंगो की धरती का ज़मींदार था
उसने फिर चतुराई से बदला चोला
हिंदु राष्ट्रवाद की जगह गांधीवाद को बनाया मौला
हिली जब धरती बड़े पेड़ के गिरने से
सींचा उसने भाई की जमीन पूरे मन से
कुछ सरदार मार देने से मिला जनादेश बंपर
खलिहान तो लगा मगर उसके खेत से थोड़ा हटकर
उतार फेंका चोला गांधी वाद का चोला
फिर से घोषित कर दिया हिंदु-राष्ट्र को मौला
बिसरे राम की फिर से याद आई
मंदिर बनाने की तब कसम खाई
गोमांस की अफवाह का भी था इनपर उर्वरक
मंदिर का मामला था मगर ज्यादा उर्वरक
गया नहीं मंदिर की श्रद्धा का उपक्रम व्यर्थ
राम ने बना दिया इन्हें बाबरी मस्जिद तोडने में समर्थ
बनी जब उत्तरप्रदेश में राष्ट्रवादी सरकार
हुई नफरत के उन्नतिशील बीज की दरकार
जमींदार ने दिया काजी-ए-मुल्क ने हलफनामा
मस्जिद के बाहर है उसे भजन-कीर्तन करना
हो गया उसके मस्जिद-प्रेम से प्रभावित क़ाजी
दिल्ली की गद्दी पर बैठा था उसका मौसेरा भाई
तोड़ दी जब मस्जिद कार सेवा के हथियार से
रक्षा में जिसकी पुलिस-सैनिक तैनात थे
हो गया रक्तरंजित सारा देश
तैर गया हवा में नफरत का संदेश
फिर भी कई खेतों में फीकी थी नफरत की फसल
जमींदार ने सोचा करने को एडॉल्फ हिटलर की नकल
उसी तरह जैसे छिप कर लगाई थी
नाज़ी तूफानी दस्तों ने जर्मन संसद में आग
और क्रिया-प्रतिक्रिया में लगा दी यहूदी बस्तियों में आग
लगाई बजरंगियों ने छिपकर एक रेल डब्बे का आग
क्रिया-प्रतिक्रिया में लगा दी मुल्क की सामासिक संस्कृति में दाग
रक्त रंजित कर दिया धरती इंसानों के खून से
कसूर सिर्फ इतना कि वे जन्म से मुलमान थे
नफरत की सियासी फसल के लिए कत्लेआम नाकाफी था
सामूहिक बलात्कारों से बढ़ती है दंगे की धरती की उर्वरता
बिन बोये उगती रही नफरत की  फसल बार बार
सोचा उसने बढ़ाने का रकबा इस बार
खाप पंचायत को अपना हथियार बनाया
तमाम बाबा माइयों को नोटों से नहलाया
गोमाता के वंश पर पाकिस्तानी खतरा बताया
बहू बेटियों की इज्जत को मुद्दा बनाया
बचाते जो खाप का सम्मान अपनी ही बहू-बेटी मारकर
लव-जेहाद का बदला लिया सामूहिक बलात्कार कर
खत्म कर दिया सदियों से चला आ रहा भाईचारा
करते हुए बलात्कार लगाया बंदेमातरम् का नारा
हर कत्ल के साथ चिल्लाता जयश्रीराम
आगजनी करते लेता महादेव का नाम
मुजफ्फरनगर से उठा धुआं नफरत का
मुल्क बन गया मंच फिरकापरस्त सियासत का
क्या कहूं इस मुल्क के पढ़े-लिखे जनमानस को
आराध्य माना जिसने एक नरभक्षी अमानुष को
खत्म हो गये हैं इसकी क्रिया-प्रतिक्रिया के सारे तीर
बना रहा है मंदिर को फिर से फ़िरकापरस्ती का समसीर
किया था जिस अय़ोध्या से नफरत की खेती की शुरुआत
चुना है उसी जगह को उसने करने को आत्मघात
भक्तों में भी आती दिख रही है अब तो कुछ अकल
बेनकाब हो रही है जैसे-जैसे हत्यारे की शकल
उतरेगा अब लोगों की भक्तिभाव का खुमार
जनवादीकरण होगा सामाजिक चेतना के स्वभाव का
होगा तब लंबी क्रूर बीसवी सदी का खात्मा
शुरू होगी तब एक नई इक्कीसवीं सदी की शुरुआत
अमन-ओ-चैन की आग भस्म कर देगी नफरत की खुराफात
ऐसा नहीं है कि क्रूरता से ही भरी है लंबी बीसवीं सदी
देखा है इसने इंक़िलाबी उत्थान-पतनों की भी त्रासदी
दुनिया में दिखी इक उम्मीद समाजवाद की
हो गया मगर उस पर राष्ट्रवाद का भूत हावी
राष्ट्रवाद है विचारधारा पुरातन पूंजीवाद की
करना था दुनिया के मजदूरों की एकता का प्रसार
अंतरराट्रीय जनवादी सामाजिक चेतना का प्रचार
समझ सके मजदूर जिससे पूंजी के अंतरविरोधों का सार
कर खुद को वर्ग चेतना से लैस हो सके क्रांति के लिए तैयार
मजदूर जो वर्ग है अपने आप में परिभाषा से
बन सके जो अपने लिए वर्ग वैज्ञानिक जिज्ञासा से
पार्टी लाइन के नाम पर लगाया मतभेदों पर रोक
करे सवाल जो पार्टी लाइन पर उसको दिया ठोंक
सर्वहारा तानशाही को बनाया अधिनायकवाद लालफीताशाही की
बुनियाद डाला इससे मार्क्सवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत की तबाही की
साम्राज्यवादी गुटबाजी के विरुद्ध बन गया यह भी गुटबाज
वर्चस्व की लड़ाई में बन गया सामाजिक साम्राज्यवाद
इस बार उठेगी जब जनवाद की लहर
खत्म कर देगी हर वर्चस्व का जहर
सोचा था लिखने को कुछ पंक्तियां
इक्कीसवीं सदी की अमानवीय शुरुआत पर
भावी इंक़िलाब के आगाज पर
पर लगा खत्म नहीं हुआ अभी पिछली सदी का सिलसिला
जुट रहा है धीरे धीरे मानवता का एक नई सदी काफिला
लिखूंगा तब मर्शिया लंबी बीसवीं सदी का
और लंबा अफ्साना सुंदर इक्कीसवीं सदी का
(ईमिः 23.12.2015)