Saturday, January 30, 2021

बेतरतीब 98 (मिथ्या चेतना)

 पिछले कमेंट से आगे:

ऊपर मैं बता रहा था कि किस तरह विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर विकसित होता है। और यह कि मनुष्य की चेतना से उसकी भौतिक परिस्थियों का निर्धारण नहीं होता बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है, बदली हुई चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के सोचे-समझे, चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। कहने का मतलब कि मनुष्य सायास अपनी परिस्थितियां बदलता है और बदली परिस्थितियां उसकी चेतना बदलती हैं तथा यह द्वंद्वात्मक क्रिया निरंतर प्रक्रिया है। 1972 में ब्राह्मणीय संस्कारों तथा आरएसएसीय परिवेश के सामाजिककरण की परिस्थियों के परिणाम स्वरूप परिवर्तित चेतना (जिसे अब मिथ्याचेतना कहता हूं) के चलते छात्रसंघ के तत्कालीन महासचिव और भावी अध्यक्ष के प्रभाव में मैं विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया। शाखा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन चेतना में संघ की विचारधारा के अवशेष बचे थे जिससे मोहभंग के लिए नई परिस्थितियों का इंतजार था। विद्यार्थी परिषद में प्रवेश के संस्मरण पर दो शब्द जरूरी है। जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि मैं तब तक लगभग नास्तिक बन चुका था ।

पिछले कमेंट से आगे:
ऊपर मैं बता रहा था कि किस तरह विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर विकसित होता है। और यह कि मनुष्य की चेतना से उसकी भौतिक परिस्थियों का निर्धारण नहीं होता बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है, बदली हुई चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के सोचे-समझे, चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। कहने का मतलब कि मनुष्य सायास अपनी परिस्थितियां बदलता है और बदली परिस्थितियां उसकी चेतना बदलती हैं तथा यह द्वंद्वात्मक क्रिया निरंतर प्रक्रिया है। 1972 में ब्राह्मणीय संस्कारों तथा आरएसएसीय परिवेश के सामाजिककरण की परिस्थियों के परिणाम स्वरूप परिवर्तित चेतना (जिसे अब मिथ्याचेतना कहता हूं) के चलते छात्रसंघ के तत्कालीन महासचिव और भावी अध्यक्ष के प्रभाव में मैं विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया। शाखा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन चेतना में संघ की विचारधारा के अवशेष बचे थे जिससे मोहभंग के लिए नई परिस्थितियों का इंतजार था। विद्यार्थी परिषद में प्रवेश के संस्मरण पर दो शब्द जरूरी है। जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि मैं तब तक लगभग नास्तिक बन चुका था यानि धार्मिकता से मेरा मोह भंग हो चुका था लेकिन सांप्रदायिकता से नहीं। और यह कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है। समाजिककरण से बनी चेतना को हम अंतिम सत्य की तरह आत्मसात कर लेते हैं तथा उनपर तार्किक प्रश्न करने से कतराते हैं। समाजीकरण से निर्मित मेरी चेतना ने आरएसएस टाइप अपरिभाषित राष्ट्रवाद ्ंतिम सत्य के रूप में आत्मसात किया हुआ था, जिसे मैं उसी तरह नहीं परिभाषित कर सकता था जैसा इस ग्रुप में राष्ट्रभक्ति और गद्दारी की सनद बांटने वाले कुछ लोग। बाकी, सुबह, अभी साढ़े 9 ही बजे हैं लेकिन लगता है, बुढ़ापा आ ही गया है, दिमाग थका लग रहा है।

जारी


Friday, January 29, 2021

बेतरतीब 97 (मिथ्या चेतना)

 शुभकामनाएं। सामाज के भौतिक विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर और स्वरूप होता है जो व्यक्तिगत चेतना का निर्धारण करता है। इन सामाजिक मूल्यों को हम वांछनीय अंतिम सत्य और स्वाभाविक मानकर आत्मसात कर लेते हैं। इन विरासती मूल्यों को हम संस्कार कहते हैं, जिन्हें हम बिना किसी चैतन्य इच्छा के जस-का तस ग्रहण कर लेते है (the values which we acquire without any conscious will)। सामाजिक चेतना के रूप में अनायास (बिना प्रयास) ग्रहण किए गए मूल्यों से मिथ्या चेतना का निर्माण होता है, जिन पर हम सवाल नहीं करते और आजीवन उसका शिकार बने रहते हैं।

शिक्षा संस्थान ज्ञान नहीं देते, ज्ञान जो पढ़ाया जाता है उससे नहीं प्राप्त होता बल्कि, उस पर सवाल करने से प्राप्त होता है।(knowledge does not emanate from what is taught but from questioning, what is taught) जिसे हमारे अभिभावक और शिक्षक प्रोत्साहित करने की बजाय हतोत्साहित करते हैं। आप सबको पूरे छात्र जीवन में एकाध ऐसे शिक्षक जरूर मिले होंगे जिन्होंने ज्यादा सवाल पूछने वाले छात्र को बोला होगा कि अपना दिमाग ज्यादा मत लगाओ। जबकि उसे कहना चाहिए लगातार हर बात पर निरंतर दिमाग लगाओ। क्योंकि ज्यादातर शिक्षक शिक्षक होने का महत्व नहीं समझते जब कोई नौकरी नहीं मिलती तो जुगाड़ से शिक्षक बन जाते हैं। इलाहाबाद विवि में मॉडर्न अल्जेब्रा के एक लोकप्रिय शिक्षक अक्सर कहा करते थे कि अभी ईश मिश्र ग्रुप (फील्ड या रिंग) का कोई अजूबा मॉडल पेश कर देंगे। उनकी लोकप्रियता का कारण परीक्षोपयोगी शिक्षण था। राजनीति में शोध के दौरान कुछ दिन गणित पढ़ाने में भी मैं प्रायः सामाजिक संबंधों से गणितीय संबंध तथा फंक्सन पढ़ाता था, जो बच्चे आसानी से समझ जाते थे (विस्तार में जाने की न गुंजाइश है न जरूरत या सार्थकता)। वैसे वे बहुत अच्छे इंसान थे जिनसे मेरे अच्छे नजी संबंध थे। अच्छा इंसान होना अच्छे शिक्षक की आवश्यक शर्त है किंतु पर्याप्त नहीं। केमिस्ट्री के एक शिक्षक सवालों से इतना घबराते थे कि उन्होंने अपना सेक्सन ही बदलवा लिया था। खैर कमेंट इतना लंबा होता जा रहा है कि लगता है एक कमेंट बॉक्स में अंटेगा नहीं।
मैं 1968 में दसवीं कक्षा में, 13 साल की उम्र में, जौनपुर में गोमती किनारे एक प्राइवेट हॉस्टल (कामता लाज) में रहते हुए एक सुपर सीनियर (बीए के छात्र) के प्रभाव में कबड्डी तथा खो खेलने नदी तट पर एक बगीचे में जाने लगा। शहर के बच्चों पर तरस भी आया कि उनका खेलों का भंडार इतना सीमित था! उनके अजीबो गरीब आचार (पहुंचते ही एक दूसरे से दुआ सलाम की बजाय झंडे के सामने छाती पर हाथ रखने का कर्मकांड आदि), न समझ में आने वाले संस्कृत में ड्रिल के कमांड तथा प्रर्थना असंबद्ध होने के बावजूद ब्राह्मणीय संस्कारों के अनुरूप। इसलिए अच्छे लगे। ड्रिल और वर्दी मुझे पसंद नहीं थे इसलिए मैंने निक्कर नहीं लिया र शाखा में जाना कम कर दिया लेकिन वैचारिक रूप से शाखामृग बना रहा। गोल्वल्कर को सुनने बनारस गया उनका पुरोहिती प्रवचन की तरह समझ नहीं आया फिर भी अच्छा लगा। बाद में (1986) सांप्रदायिकता पर एक शोध के लिए जब उनके छपे विचार पढ़े तब लगा कि 99% स्वयंसेवक उनके प्रति भक्तिभाव की आस्था के बावजूद उन्हें पढ़ते नहीं। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि कि इस ग्रुप के 99% शाखामृग न तो गोलवल्कर के छपे विचार पढ़े हैं न बुद्ध को मातृधर्म का गद्दार मानने वाले दीनदयाल उपाध्याय के। चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है और बदली चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन न्यूटन के नियम के अनुसार, अपने आप कुछ नहीं बदलता, भौतिक परिस्थितियां चैतन्य मानव प्रयास से बदलती हैं। अतः वास्तविक यथार्थ की संपूर्णता भौतिक परिस्थितियों और चेतना के द्वंद्वात्मक मिलन से बनता है। 1972 में इवि में आने पर शाखा तो कभी कभी ही जाता था लेकिन ब्राह्मणीय संस्कारों (मिथ्या चेतना) के प्रभाव में वैचारिक रूप से शाखामृग बना रहा। जब शाखा जाना शुरू किया तब तक जनेऊ से मुक्ति पा चुका था। ज्ञान की तलाश में सवाल करने की प्रवत्ति के चलते तंत्र-मंत्र, कर्मकांड, धार्मिक रीति-रिवाज आदि पर सवाल करते रहने के कारणनास्तिकता की यात्रा इवि में साल बीतते बीतते पूरी हो चुकी थी। इवि में 1972 में परिस्थितिजन्य कारणों से, छात्रसंघ के तत्कालीन महामंत्री (बाद के अध्यक्ष तथा 1991 में कल्याण मंत्रिपरिषद में मंत्री) ब्रजेश कुमार के प्रयास से विद्यार्थी परिषद का सदस्य ही नहीं पदाधिकारी बन गया। मैं धार्मिक नहीं था, लेकिन सांप्रदायिक था। तब यह भी नहीं जानता था कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिर विचारारा है। जारी।

Thursday, January 28, 2021

मार्क्सवाद 241 (किसान आंदोलन)

एक पत्रकार मित्र ने कहा कि वे गरीब किसानों के हिमायती हैं लेकिन यह आंदोलन सरकारी नीतियों का फायदा उठाकर रासायनिक खादों से देश को विषाक्त अनाज परोसने वाले कारों में घूमने वाले अमीर किसानों का आंदोलन है, इस लिए वे किसानों की आमदनी दुगुनी करने वाले नए कानूनों के समर्थक तथा अमीर किसानों के आंदोलन के विरोधी हैं। उस पर

आपने पहले ही कह दिया कि न तो आपको अर्थशास्त्र का ज्ञान है न ही कृषि का लेकिन सरकार की नीतियों के समर्थन में पिछले 2 महीने से किसानों के विरुद्ध दुष्प्रचार कर रहे हैं। नीमहकीमी मरीज की जान के लिए कतरनाक होती है। यूपी, बिहार के किसानों को बिजली न मिलने या उनकी गरीबी का कारण पंजाब के किसान हैं क्या? गलत नीतियों के लिए सरकार जिम्मेदारल हैं या किसान? सरकारी भोंपू की तरह चिल्ला रहे हैं कि सरकार किसानों की आय दुगुना करना चाह रही है और किसान इतने आत्मघाती हैं कि अपनी आय घटाना चाह रहे हैं? सरकार तो पिछले 7 सालों से गरीबी त्म करना चाह रही है, प्रानमंत्री ने सत्ता में आने के 100 दिन के भीतर हर नागरिक के खाते में 15 लाख का वायदा किया था, हर साल करोड़ों रोजगार का वायदा किया था, गरीबी खत्म करने का वायदा किया था, गरीब ही कत्म होते जा रहे हैं। रोजगार की बजाय बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। हजारों पत्रकारों की छटनी हुई है। आप जैसे भाग्यशाली लोग हैं जिनकी नौकरी बची हुई है। आप विशेज्ञ विचार देने के पहले एक बार कृषि विशेषज्ञों की राय पढ़ लेते, कृषि कानूनों और विश्व बैंक का एजेंडा पढ़ लेते या जिन देशों में किसानों को उजाड़ कर खेती का कॉरपोरेटीकरण हुआ है वहां के कृषि मजदूरों के हालात का अध्ययन कर लिए होते तो जानते कि जिन छोटे किसानों तथा खेत मजदूरों के हिमायती बन, सरकारी मृदंग मीडिया सा काम कर रहे हैं, इन कानूनों से सबसे अिक तबाही उन्हीं की होगी। इन कानूनों से किसानों की ही नहीं, अन्न खाने वाले उपभोक्ता की भी तबाही होगी क्योंकि इनसे धनपशुओं को अनाज की जमाखोरी तथा मनमानी दाम वसूलने की आजादी मिल जाएगी तथा आम लोगों की बदहाली की कीमत पर अंबानी-अडानी जैसे क्रोनी धनपशुओं की तिजोरियों में बाढ़ आएगी जिसका बड़ा हिस्सा मृत पूंजी के रूप में सरकुलेसन से बाहर रहेगा या विदेशी बैंकों में साम्राज्यवादी पूंजी की शान बनेगा। सादर। कृपया एक बार इन कानूनों की अंतर्निहित विध्वंसक बारीकियों को पढ़ लीजिए या इस कानून के पूर्वज 1791 के पनिवेशिक भूमि कानून को पढ़ लीजिए जिसके बाद भारत में किसानों की तबाही और महामारियों के दौर शुरू हुए। आपकी नीयत पर संदेह नहीं है आपकी मंशा निश्चित ही गरीब किसानों की हिमायत की होगी लोकिन जाने-अनजाने आप देशी-विदेशी धनपशुों के हित में उनकी तबाही करने वाली सरकारी नीतियों के प्रवक्ता बन रहे हैं। आइए समय रहते मिथ्या चेतना से मुक्त होकर अपनी मंशा को अंजाम देने की पहल करें। देर हुई तो ईस्टइंडिया कंपनी के समर्थकों के वंशजों की तरह कई पीढ़ियों तक हमारे वंशज हाथ मलते रह जाएंगे।

मार्क्सवाद 240 (किसान आंदोलन)

 कल 63 दिनों के शांतिपूर्ण आंदोलन को अशांत करने वाले तलवार भांजने वाले भी, इस पोस्ट के लेखक की तरह जाने-अनजाने बल-छल से आंदोलन को तोड़ने की सरकारी साजिश के मुहरे बन, खेती के कॉरपोरेटी कानूनों का समर्थन कर, धनपशुओं की दलाली कर रहे हैं। दीप सिंह संधू जैसे भाजपाई अपने हजारों समर्थकों के साथ दिल्ली पुलिस की रेख-देख में लालकिले में कैसे पहुंचे? अभी तक उसकी गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई? पुलिस पहले ही कह रही थी कि कुछ अराजक-असामाजिक तत्व किसानों में घुसकर उपद्रव मचा सकते हैं तो उसका द्यान क्यों नहीं रखा? कानून व्यवस्था की असफलता के लिए गृहमंत्री इस्तीफा क्यों नहीं देता? 175 शहादतों के बावजूद 63 दिनों से शांतिपूर्ण चल रहे लाखों किसानों के आंदेलन के 1% कैसे उपद्रवी हो गया? तय रूट को तोड़ने वाले आंदोलन के दुश्मनों को पुलिस क्यों न रोक सकी? बहुत सवाल पूछे जाएंगे, जनता धीरे-धीरे साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के कारिंदों की चालें समझ रही है। यह आंदोलन अब देश व्यापी जनांदोलन बन चुका है, इसमें दरारें डाल कर क्रांतिकारी किसानों को जेल में डालकर, उनकी हत्या करके झूमकर उट्ठे इस दरिया को अपने छल-बल के तिनकों से नहीं रोक सकेगी। जय किसान-जय जवान।


लाल किले पर झंडा फहराते अपना वीडियो वायरल करता दीप सिंह संधू कौन है? सोसल मीडिया पर मोदी के साथ उसकी तस्वीरें दिख रही हैं। कहा जा रहा है कि वह भाजपा उम्मीदवार सनी देवल के लोक सभा चुनाव का प्रमुख प्रचारक था। द्रोण द्वारा सुरक्षा निगरानी के बीच भारतीय सेना के अधिकार वाले लाल किले के अंदर प्रदर्शनकारी कैसे घुसे? कहीं यह दिल्ली पुलिस की मिलीभगत से किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन को बदनाम करने की साजिश तो नहीं?


जिस किसी भी ग्रुप ने समझौते का उल्लंघन कर दिल्ली में प्रवेश किया वे आंदोलन के दुश्मन हैं। आंदोलन जब तक शांतिपूर्ण था, सफल था। पुलिस ने भी आंदोलन तोड़ने के लिए अंधाधुंध लाठीचार्ज किया।


मुंबई के आजाद पार्क में नासिक से मार्च करके लगभग एक लाख किसान आजाद पार्क में कृषि कानूनों को चुनौती देने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। देश के किसानों का अपमान करते हुए महाराष्ट्रके राज्यपाल उनसे मिलने से बचने के लिए अपने कार्यालय से पलायन कर गए। 26 जनवरी को किसान गणतंत्र के उपलक्ष्य में दिल्ली में ट्रैक्टर परेड से एकजुटता दिखाने के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में ट्रैक्टर परेड आयोजित करेंगे। राष्ट्रव्यापी जनांदोलन बन चुके किसान आंदोलन के 2 महीने होने वाले हैं, 140 आंदोलनकारी शहादत दे चुके हैं। सरकार कानून वापस न लेने पर अड़ी है क्योंकि वह विश्वबैंक से खेती के कॉरपोरेटीकरण से किसानों को बर्बाद करने का वायदा कर चुकी है। 1995 में विश्वबैंक ने खेती और शिक्षा को कॉरपोरेटों के हवाले करने के मकसद से क्रमशः व्यापारिक सेवा और सामग्री के रूप में गैट्स में शामिल किया। मनमोहन सरकार इस पर अंगूठा लगाने में हिल्ला-हवाला करते करते रहे, मोदी सरकार ने 2015 में इस पर अंगूठा लगा दिया। शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण का वायदा पूरा करने के लिए नई शिक्षा नीति लाई गयी और खेती के कॉरपोरेटीकरण के लिए कृषि कानून। यह सरकार इन कानूनों को वापस नहीं ले सकती कितने भी आंदोलनकारी क्यों न शहीद हो जाएं क्योंकि साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी की पालतू इस सरकार की विश्वबैंक सो वायदाखिलाफी की औकात नहीं है। किसान भी आर-पार की लड़ाई के मूड में दिखते हैं। आंदोलन का परिणाम जो भी हो, यह एक ऐतिहासिक आंदोलन है और यह गणतंत्र दिवस भी। क्रांतिकारी किसानों को क्रांतिकारी सलाम। इंकिलाब जिंदाबाद।

Sunday, January 24, 2021

मार्क्सवाद 239 (किसान आंदोलन)

 दिल्ली में 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड से किसान गणतंत्र मनाने की इजाजत पुलिस से मिल गयी है। हरयाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश से हजारों ट्रैक्टर सीमाओं -- गाजीपुर, सिंघू और टिकरी -- पर पहुंच रहे हैं। ट्रैक्टर ट्रालियों पर किसानी की रंगारंग झांकियां भी निकलेंगी। महाराष्ट्र में 2018 के नासिक से मुंबई के किसान मार्च की याद दिलाते हुए, महाराष्ट्र के कोने-कोने से लाखों किसान अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में, मुंबई के आजाद पार्क के लिए मार्च कर रहे हैं। भोपाल में किसानों के जुलूस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया और आंसूगैस छोड़ा। बिहार, झारखंड एवं अन्य प्रांतों के किसान जिला मुख्यालयों पर किसानगणतंत्र के कार्यक्रम आयोजित करेंगे। हम इस राष्ट्रव्यापी ऐतिहासिक किसान आंदोलन के साक्षी हैं और इस ऐतिहासिक गणतंत्र दिवस के भी जब दिल्ली में किसान ट्रैक्टर परेड निकाल कर किसान गणतंत्र मनाएंगे और देश भर में अन्य जगहों के किसान अपने जिला मुख्यालयों पर। जहां राजपथ पर जवान परेड करेंगे वहीं रिंगरोड पर किसान ट्रैक्टर परेड। इंकलाब जिंदाबाद, जय किसान जय जवान।

Thursday, January 21, 2021

शिक्षा और ज्ञान 300 (राणा प्रताप)

 गैंग कौन हैं और गलत इतिहास लिखने वाले उनके पुरखे कौन थे? बाकी इतने जाहिल थे कि सही इतिहास नहीं लिख सके? भ्रमित बिना कॉरपोरेटी गुलामी के येन-केन-प्रकारेण जनता के पक्ष में समानांतर समाचार प्रसारण करने वाले पोर्टल कर रहे हैं या धनपशुओं की गुलामी और सरकार की अंधभक्ति करने वाली मृदंग मीडिया। राणा प्रताप निश्चित ही स्वाभिमानी शासक थे जिन्होंने अपनी और अपने राज्य (मेवाड़) की आजादी के लिए, राजपुताने के बाकी सब रजवाड़ों की तरह हिंदुस्तान (पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल अकबर के समय हुआ) के बादशाह की मातहती अस्वीकार कर उसे चुनौती दिया। उनके इस जज्बे को कोटिशः नमन। बीर, रणबांकुरे राणा प्रताप को छोड़कर अकबर की मातहती करने वाले बाकी रजवाड़ों के वंशज गैंग में (वे) हैं कि उसके बाहर (आप)? कृपया इतिहास इतिहास की तरह पढ़ें पुराण या युदेधोंमादी मिथक की तरह नहीं


महाराणा प्रताप निश्चित रूप से एक स्वाभिमानी, बहादुर योद्धा थे, कोटिक नमन। साप्रदायिक ताकतें उनका इस्तेमाल समाज के टुकड़े करने की अपनी घृणित साजिश में करते हैं। यदि आप सांप्रदायिक दृष्टिकोण से नहीं लिखेंगे तो कोई आपको सांप्रदायिक क्यों कहेगा? राणा प्रताप न खोमैनी थे न ही अकबर शंकराचार्य। दोनों राजा थे एक राज्य विस्तार के लिए लड़ रहा था दूसरा अपने राज्य की स्वाधीनता के लिए।


आप में कौन हैं? आप अकेले क्या सकारात्मक कर रहे हैं और वे कौन हैं और क्या नकारात्मक कर रहे हैं? राणा प्रताप निश्चित ही एक बहादुर स्वाभिमानी राजा थे जो अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ते रहे राजपुताने के बाकी रजवाड़ों की तरह अपने साम्राज्य को हिंदुस्तान कहने वाले अकबर के दरबारी नहीं बने। राणा प्रताप के आजादी के जज्बे को क्रांतिकारी सलाम। राणा प्रताप को छोड़कर राजपुताने के बाकी राजाओं के वंशज आप में हैं या उनमें? सही कह रहे हैं, यह धार्मिक नहीं दो राजाओं के बीच राजनैतिक लड़ाई थी। एक राज्य के विस्तार के लिए लड़ रहा था और दूसरा अपने राज्य की स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए। यदि हम सिकंदर, अशोक और समुद्रगुप्त के राज्य विस्तार की आकांक्षा की प्रशंसा करते हैं तो हम राणा प्रताप के स्वाधीनता के जज्बे को सलाम करने के बावजूद अकबर की वैसी ही आकांक्षा को पैशाचिक नहीं बता सकते। न अकबर धर्म विस्तार के लिए लड़ रहा था न ही राणा प्रताप। राणा प्रताप कोई खोमैनी नहीं थे न ही अकबर शंकराचार्य था। राणा प्रताप का तोेपची अफगान था और हल्दी घाटी में अकबर के सेनापति मान सिंह थे। सिकंदर की सेना में विजित राज्यों के सैनिक भर्ती होते गए थे, अंग्रेजों की सेना में बहुत ही कम अंग्रेज थे, सारे हिंदुस्तानी ही थे। इतिहास को इतिहास की तरह पढ़िए, सांप्रदायिक शास्त्र की तरह नहीं। सादर। 🙏

Tuesday, January 19, 2021

मार्क्सवाद 238 (स्त्री विमर्श)

 सनी लिओनी को मैं जानता नहीं, उसे आप महिला सशक्तीकरण की मिशाल बता रहे हैं तो जानते होंगे कि सनी लियोनी कौन है? और महिला सशक्तीकरण के लिए आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है वे खुद मर्दवादी रूढ़ियों, असमानताओं और लैंगिक भेदभाव को तोड़कर सशक्तीकरण हासिल कर रही हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मर्दवादी पूर्वाग्रह-दुराग्रहों को सशक्त चुनौती दे रही हैं। हमारे छात्र-काल से अब तक स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ पर्याप्त दूरी तय कर चुका है जिसका वेग मर्दवादी विघ्नबाधाओं को तिनकों की तरह उड़ा देगा। सीता और सावित्री किस्म की पतिव्रतत्व के चरित्र पुरुषवादी मानसिकता की पुष्टि के लिए गढ़े-प्रचारित किए जाते हैं, जिसमें गर्भवती कर पत्नी को घर से निकालना प्रशंसनीय बताया जाता है। संस्कारगत मर्दवादी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर इस तरह के आदर्शोँ के मर्दवादी निहितार्थ समझ सकेंगे। मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जिसे नित्य-प्रति के व्यवहार, विमर्श, रीति-रिवाजोंं, सांस्कृतिक मूल्यों और कर्मकांडों द्वारा निर्मित-पुनर्निर्मित एवं पुष्ट की जाती है।

मार्क्सवाद 237 (स्त्री विमर्श)

 बिल्कुल सही कह रहे हैं, कोई भी ग्रंथ निरुद्देश्य नहीं रचा जाता। बौद्ध क्रांति के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए ही पौराणिक ग्रंथों की रचना हुई। रामायण की रचना पितृसत्तामक वर्णाश्रमी आदर्श की पुनरस्थापना के लिए हुई और इसीलिए उसके पात्र उन्ही मूल्यों के आदर्श के वाहक हैं। बिना दिमाग के इस्तेमाल किए, अच्छे-बुरे का विचार किए बिना पिता की कुतार्किक-जनविरोधी आज्ञा का पालन करने वाले ऐसे आज्ञाकारी पुत्र का आदर्श गढ़ा गया जो पिता के बुरे-से-बुरे आदेश का रोबो की तरह पालन करे। ऐसी ही आज्ञाकारिता में परसुराम ने जन्मदेने वाली अपनी माता की निर्म हत्या कर दी थी। राम का वन गमन स्त्री का पुरुष पर अत्याचार नहीं बल्कि भाइयों के बीच सत्ता संघर्ष का परिणाम है। कई पत्नियों के पति एक ऐयाश राजा द्वारा ने अपनी युवा पत्नी को अनडेटेड ब्लैंक चेक सा वरदान दे रखा था जिसका उसने अपने बेटे को उत्तराधिकारी बनाने के निमित्त चकुराई से इस्तेमाल किया। यदि सीता राम के साथ वन न जाकर मिथिला चली जातीं तो पति का अंध अनुशरण करने वाली पतिव्रता का आदर्श कैसे बनतीं? लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को लेखक ने पतिव्रतत्व के आदर्श के अनूठेपन के लिए बन नहीं भेजा। युद्धोपरांत धोखे से रावण की हत्या करने के बाद वाल्मीकि के राम सीता से विभीषण, हनुमान किसी के साथ भी जाने को कहते हैं क्योंकि युद्ध उन्होंने उन्होंने एक स्त्री के लिए नहीं रघुकुल की आन के लिए लड़ा। 14 साल राम जंगल में क्या करते रहे इस पर कोई सवाल नहीं, आग पर चलकर सीता को ही अपनी पवित्रतता साबित करना पड़ी। आज भी समाज बलात्कारी को नहीं बलत्कृत को शर्मसार करता है। अग्नि परीक्षा के बाद भी अपने अपहरण का सीता का अपराध कम नहीं हुआ किसी धोबी को लोकमत का प्रतिनिधि मान गर्भवती करके उनको राज्य से बहिष्कृत कर दिया। वह धोबी उसी तरह लोकमत का प्रतिनिधि बन गया जैसे तमाम ऐरे-ृगैरे राष्ट्र का प्रतिनिधि बन सरकार के आलोचकों को पाकिस्तान भेजने लगते हैं। सांस्कृतिक चित्रों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन विरासत में मिले सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्त होकर ही किया जा सकता है। हम विरासती सांस्कृतिक मूल्यों को अंतिम सत्य मानकर व्यक्तित्व के अभिन्न अंग के सूप में आत्मसात कर लेते हैं, जिनसे मुक्ति के लिए स्वविवेक में अडिग विश्वास तथा अदम्य साहस के साथ निरंतर आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। सादर। आज की सीता ने पकिव्रता का आभूषण त्याग कर प्रज्ञा का शस्त्र उठा लिया है। सादर।

मार्क्सवाद 236 (स्त्री विमर्श)

 अर्थ ही मूल है। आदिम युग में पहले (लैंगिक श्रम) विभाजन के बाद के लंबे समय तक (कम-से-कम पशुपालन चरण तक) लगभग सभी समाज मातृसत्तात्मक थे क्योंकि स्त्रियों का आर्थिक योगदान अधिक होता था। विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है आदिम साम्यवाद से दसता में संक्रमण पर एक नोट कभी लिखा था, मिलने पर शेयर करूंगा, लेकिन बाद के कई श्रमविभाजनों तथा कृषि के मुख्य आर्थिक श्रोत बनने के बाद ऐतिहासिक कारणों से पुरुषों के कार्य का आर्थिक महत्व ज्यादा आंका जाने लगा और ज्यादातर समाज पितृसत्तात्मक बन गए। इसमें लाखों साल लगे। इस संरचना को बरकरार ऱकने के लिए पुरुषवाद (मर्दवाद) की विचारधारा रची गयी, उसी तरह जैसे आधुनिक अमेरिका में दास प्रथा की पुष्टि के लिए नस्लवाद की विचारधारा रची गयी। इस विचारधारा के दुर्ग में स्त्रियों को घर की चारदीवारों में कैद कर, प्रतीकात्मक रूप से कहें तो, पाजेबों की बेड़ियों और कंगनों की हथकड़ियों में जकड़ दिया गया। ऐतिहासिक कारणों से स्वतंत्रता आंदोलन से शुरू हुआ स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ मंदगति से चलते हुए गति पकड़ता गया और पिछली शताब्दी समाप्त होते होते काफी दूरी तय कर लिया। अवसर मिलते ही लड़कियों ने जीवन के हर क्षेत्र में चुनौतियां स्वीकार करना और नई चुनौतियां देना शुरू कर दिया। 1982 में मुझे अपनी बहन की 8वीं के बाद की पढ़ाई के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। मैं नालायक छवि की जेएनयू में शोधछात्र था। कोई यह पूछ ही नहीं रहा था कि बाहर पढ़ने का खर्च कहां से आएगा। मेरी अडिग जिद के चलते अंततः वह राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ से 9वीं से लेकर एमए बीएड कर सकी। आज किसी बाप की कात नहीं है कि सार्वजनिक रूप से कहे कि बेटा-बेटी में फर्क करता है। विचारधारा न केवल उत्पीड़क को प्रभावित करती है, बल्कि पीड़ित को भी। पिताजी को ही नहीं लगता था कि मां को आदेश देना उनका अधिकार है, मां को भी लगता था कि उनकी आज्ञा का पालन उसका कर्तव्य है। आर्थिक संरचना में परिवर्तन के साथ राजनैतिक-कानूनी अधिरचनाओं में तुरंत परिवर्तन होता है, लेकिन सांस्कृतिक अधिरचना के मूल्य तुरंत नहीं बदलते क्योंकि हम उन्हें अंतिम सत्य की तरह व्यक्तित्व के अभिन्न अंग की तरह आत्मसात कर लेते हैं। गांवों में महिलाओं के आरक्षित प्रधान पदों पर प्रधानपति काम करते हैं, धीरे धीरे प्रधान पति का स्थान प्रधान ले रही हैं। मेरी पीढ़ी की ज्यादातर प्रोफेसनल स्त्रियां डबल रोल करती हैं -- फुलटाइम प्रोफेसनल तथा फुलटाइम हाउस वाइफ र शादी के बाद पति का सरनेम धारण कर ली हैं। स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है। कुछ स्त्रियां अब शादी के पहले का नाम छोड़े वगैर पति का नाम भी जोड़ लेती हैं, कुछ केवल अपना ही सरनेम लिखती हैं। स्त्रीविरोधी होने के लिए पुरुष हो उसी तरह जरूरी नहीं है जिस तरह स्त्री अधिकारों का समर्थन करने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है। कमेंट लंबा हो गया। कुछ और काम करना है। बाकी फिर कभी इस विषय पर पूरे लेख में।

Friday, January 15, 2021

बेतरतीब 96 (ज्ञान)

 एक मित्र ने एक विशिष्ट संदर्भ में कमेट किया कि मैं ब्राह्मणों को गाली देकर ज्ञानी बनने की कोशिस करता हूं। उस पर --


ब्राह्मण का नहीं, काम-विचारों की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाली विचारधारा, ब्राह्मणवाद (जातिवाद) की आलोचना करता हूं। ज्ञानी तो हूं नहीं, दिमागी क्षमता की सीमाओं के अंतर्गत सवाल-जवाब की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से नित ज्ञानार्जन के प्रयास में रहता हूं और शिक्षक के नाते उसे छात्रों समेत मित्रों के साथ शेयर करता हूं। क्योंकि जैसे कोई अंतिम सत्य नहीं होता, वैसे ही कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता। ज्ञान एक निरंतर ऐतिहासिक प्रक्रिया है तथा ऐतिहासिक रूप से हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है जो पिछली पीढ़ी की उपलब्धियोें को समीक्षात्मक रूप से (critically) समेकित (consolidate) करती है और उसमें नया जोड़कर आगे बढ़ाती है। तभी तो हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंचे हैं।शिक्षक को लगातार शिक्षित होते रहना चाहिए। हम सजग रहें तो हमे परिवेश नित शिक्षित करता है, हमारे बच्चे और छात्र भी। मैं अपनी बेटियों के साथ बढ़ने के कुछ अनुभव, राजनैतिक दर्शन पढ़ाते हुए, उदाहरण के रूप में अपने छात्रों के साथ शेयर करता था, मेरी बेटी रॉयल्टी मांगती है। मेरी छोटी बेटी जब 4 साल की थी तो एक बार दोनों बहनें लड़ रही थीं। उससे मैंने कहा कि उसे सोचना चाहिए कि वह उससे 5 साल बड़ी है। उसने अकड़कर जवाब दिया था 'उन्हें भी तो सोचना चाहिए कि मैं उनसे 5 साल छोटी हूं'। मुझे लगा बात तो बिल्कुल सही कह रही है। इज्जत कमाई जाती है और पारस्परिक होती है। सीनियर्स को यदि जूनियर्स से इज्जत चाहिए तो उन्हें भी उनकी इज्जत करना सीखना चाहिए। इसीलिए मैं कहता हूं कि अभिभावकी करते हुए हमें बच्चों के सोचने के अधिकार और बालबुद्धिमत्ता का सम्मान करना चाहिए। कमेंट लंबा हो गया, बाकी बातें फिर कभी। एक बात और मुझसे जब कोई कहता है कि मेरे छात्र मेरा बहुत सम्मान करते हैं तो मैं कहता हूं कि कौन सा एहसान करते हैं, मैं भी तो उनका सम्मान करता हूं। पुराने छात्र मिलते हैं तो इस बात का आभार जताते हैं कि मैं उनसे मित्रवत व्यवहार करता था। मैं कहता हूं कि पहली बात कि उन्होंने मेरा खेत नहीं काटा था कि शत्रुवत व्यवहार करूं और दूसरी बात कि ऐसा स्वार्थवश करता था क्यों कि किसी रिश्ते का वास्तविक सुख तभी मिलता है जब वह जनतांत्रिक, समतामूलक और पारदर्शी हो, पारस्परिक सम्मान उसका उपप्रमेय होता है। समता एक गुणात्मक अवधारणा है, मात्रात्मक इकाई नहीं। शक्तिजन्य, श्रेणीबद्धता के संबंधों में सुख नहीं, सुख का भ्रम मिलता है। बहुत लंबा कमेंट हो गया, क्षमा कीजिएगा। अंतिमबात, ब्राह्मणवाद-नवब्राह्मणवाद (जातिवाद-जवाबी जातिवाद) की आलोचना प्रकारांतर से आत्मालोचना है जो कि बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। सादर।

मार्क्सवाद 235 (ब्राह्मणवाद)

 मैं अक्सर किसी पोस्ट पर कमेंट को पोस्ट के रूप में पोस्ट कर देता हूं। यह पोस्ट किसी अन्य पोस्ट पर ब्राह्मणों को गाली देकर ज्ञानी बनने के आरोप के एक कमेंट का जवाब था। मनु संभव है क्षत्रिय रहे हों, वैसे मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ब्राह्मण भी राजा होने लगे थे। कोई भी व्यवस्था और उसकी विचारधारा उसके बुद्धिजीवियों के नाम से जानी जाती है। इसीलिए वर्णाश्रमवाद या मनुवाद को ब्राह्मणवाद भी कहा जाता है। इसलिए अब प्रायः वर्णाश्रमवाद या मनुवाद शब्द का इस्तेमाल करता हूं। ब्राह्मणवाद या वर्णाश्रमवाद के पाखंडों का खंडन करने वाले भी प्रायः ब्राह्मण ही थे चाहे प्राचीन काल में महर्षि चारवाक हों या आधुनिक काल में राहुल सांकृत्यायन। बुद्ध के शुरुआती साथी भी ब्राह्मण ही थे। पहले जब कोई पूछता था कि इतने कम्युनिस्ट नेता ब्राह्मण क्यों हैं? तो कहता था कि इतिहास की समग्रता में वैज्ञानिक समझ वही हासिल कर सकते हैं जिन्हें बौद्धिक संसाधनों की सुलभता हो। फेसबुक पर भी सांप्रदायिक कठमुल्लेपन का विरोध करने वालों में मिश्रा-तिवारियों की संख्या कम नहीं है।

ईश्वर विमर्श 98 (रक्तपात)

 किसी ने कहा कि भगवान इंसानों की धड़कनें नियंत्रित करता है, निर्जीव में जान डालकर उसे सजीव बना सकता है, उस पर :

किसी निर्जीव को सजीव बनाने की बात छोड़िए किसी बीमार को स्वस्थ कर दे तो भी मैं उसे मान लूंगा। यदि इतना ही शक्तिमान है तो कोरोना का ही विनाश कर दे। सम्मान भय से ही पैदा होता है। मेरा भूतका भय 13 साल की उम्र में खत्म हो गया भगवान का 17-18 की। भगवान ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिकजरूरतों के अनुसार भगवान की अवधारणा का निर्माण किया। इसीलिए देश-काल के अनुसार उसका स्वरूप और चरित्र बदलता रहता है। पहले भगवान निर्बल और असहाय की सहायता करता था अब सक्षम और सबल की। उसके विभिन्न स्वरूपों के भक्त अपने अपने स्वरूप की श्रेष्ठता को लेकर लड़ते खून-खराबा करते रहते हैं। यूरोप में 17वीं-18वीं सदी में एक ही धर्म के भगवान और उसके ग्रंथ (बाइबिल) की अलग अलग व्याख्या के अनुयायियों के बीच भयानक रक्तपात हुआ। शैवों और वैष्णवों के संघर्ष की भी कई कहानियां हैं। इस्लाम में पैगंबर की विरासत के लिए कर्बला का भयानक रक्तपात सुविदित है। यदि खुदा ने ही बंदों को बनाया होता तो उसके दो तरह के बंदे (शिया-सुन्नी) आपस में इतना भयानक रक्तपात क्यों करते?

मार्क्सवाद 234 (वामपंथ)

 मित्र, बिल्कुल सही कह रहे हैं, यथास्थिति के विपरीत परिवर्तन की विचारधारा के रूप में तो वामपंथ का अस्तित्व अनादिकाल से रहा है लेकिन ऐतिहासिक अवधारणा के रूप में यह परिभाषित हुआ 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के वक्त, मार्क्स के जन्म से लगभग 2 दशक पहले। समतामूलक, सामूहिकतावादी विचारों के बावजूद यह सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीवादी संक्रमण की क्रांति थी, समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे का नारा नवोदित पूंजीवादी (तब मध्य) वर्ग के लिए था। सर्वहारा की अवधारणा, पूंजीवाद की ही तरह भ्रूणावस्था में थी जिसे पहली व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिली फ्रांस की अगली, 1848 की क्रांति में। क्रांति निरंतर प्रतिक्रिया है, प्रतिक्रांति भी। अभी तक की क्रांतियां अल्पसंख्यक वर्ग की क्रांतियां रही हैं, सर्वहारा क्रांति ही बहुसंख्यक वर्ग की, मानव मुक्ति की क्रांति होगी। 1789 की क्रांति के बाद क्रांतिकारियों के पास गणतात्रिक, राजनैतिक पुनर्निर्माण का कोई मॉडल नही था। प्राचीन उत्तरवैदिक गणतंत्र और एथेंस का प्रत्यक्ष जनतंत्र छोटे-ठोटे समुदायों के लिए थे। रॉब्स पियरे के नेतृत्व में नया शासन नया काम करना चाहता था, पारंपरिक सोच बदले बिना परंपराओं को तोड़ते हुए जो उचित समझता था उसे बलपूर्वक लागू करना शुरू किया तथा सामूहिक नेतृत्व की जगह डायरेक्टरेट व्यवस्था ने ले ली। रूसो की अमूर्त, नैतिक शासनिक इकाई, सामान्य इच्छा (जनरल विल) के अलावा कोई सैद्धांतिक मॉडल भी नहीं था। 1797 में नेपोलियन ने हेराफेरी से डायरेक्टरेट से सत्ता अपने हाथों में हथिया लिया तथा विश्वविजय की युद्धोंमादी राष्ट्रवाद की भावना पैदाकर खुद को सम्राट घोषित कर दिया। क्रांति की बिखरी चिंगारियां फिर अंगार बनने लगीं जिसकी परिणति 1848 की क्रांति में हुई जिसमें 1849 में बहुमत की हेरा फेरी से सत्ता लुई बोनापार्ट ने हथियाकर 1851 में संसद को भंग कर खुद को राजा घोषित कर दिया, जिसका अंत 1871 में पेरिस कम्यून के उत्थान-पतन के साथ हुआ। (जारी) विस्तृत वर्णन मैंने 'समयांतर' में 'समाज का इतिहास' शीर्षक की 9 लेखों की लेखमाला (मार्च -नवंबर 2017) के पहले दो भागों में किया है।

16.01.2020

Sunday, January 3, 2021

मार्क्सवाद 233 (किसान आंदोलन)

 इस शताब्दी का यह (किसान आंदोलन) दूसरा व्यापक प्रभाव वाला परिवर्तनकारी आंदोलन है, पहला एंटी सीएए (शाहीनबाग) आंदोलन था जिसे बहुत शातिराना ढंग से, दंगे के प्रायोजन तथा महामारी के बहाने दबा दिया। किसानों के लिए भी सरकार ने बहुत चतुराई से बातचीत का जाल बिछाया है बिजली के बिल की बढ़ोत्तरी और पुआल जलाने पर दंड की माफी कर दिया कहेंगे कि आधी मांगे मान लिया। संघी बहुत शातिर हैं। इस आंदोलन के बारे में बहुत सही सवाल पूछा है तुमने हम सबको इन पर विचार करना चाहिए मुझे तो इस आंदोलन में क्रांतिकारी संभावनाएं दिख रही हैं, देखें यह कहां जाता है। सरकार इसे लंबा खिंचने दे कर थकाना चाहती है। लेकिन लगता नहीं किसान थककर हारेंगे वे लंबी लड़ाई के लिए दृढ़संकल्प दिखते हैं। लड़ाई छोटे किसानों और खेत मजदूरों तक पहुंच गयी है। कानूनों की तपिस देश के हर हिस्से के किसान महसूस कर रहे है इसलिए अब किसान नेताओं और संगठनों के पास आर-पार की लड़ाई के अलावा कोई रास्ता नहीं है। सरकार के पास भी कानूनों को वापस लेने का विकल्प नहीं बचा है क्योंकि वह 2015 में विश्वबैंक के 1995 के गैट्स मसौदे पर अंगूठा लगा चुकी है। जब वायदा किया है तो निभाना पड़ेगा। मोदी सरकार की औकात नहीं है कि साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के साथ वायदाखिलाफी कर सकें। भूमंडलीकरण के युग में पूंजी भूमंडलीय हो गयी है यह न तो श्रोत को मामले में न ही निवेश के मामले में भू-केंद्रित (राष्ट्रीय) रह गयी है। (It is no more geo-centric either in terms of source or investment)। विश्व बैंक ने 1995 में गैट्स (General Agreement on trades and services) में कृषि और शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण शामिल किया है। मनमोहन सरकार भी इस पर अंगूठा लगाना चाहती थी लेकिन लोक-लिहाज में टालमटोल करती रही और चली गयी। गौरतलब है कि साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के सरगना बराक ओबामा ने 2013-14 में मनमोहन पर मुस्तैदी से आर्थिक सुधार न लागू करने की तोहमत लगाया था। 'नया राजनैतिक अर्थशास्त्र' नाम विश्वबैंक का एक पालतू समूह है जिनका काम है तीसरी दुनिया के देशों में ढांचागत समायोजन कार्यक्रम ( Structural Adjustment Program) लागू करवाना है तथा जिनका मानना है कि यह काम लोगों के लिए बहुत कष्टकारी होगा और लोग विरोध करेंगे तो ऐसी सरकार चाहिए जो विरोध का निर्मम दमन कर सके। दमनकारी सरकार की विश्वसनीयता घटेगी तो सरकार में अपने दूसरे कारिंदे बैठा दो जो सारी गड़बड़ियों की जिम्मेदारी पिछली सरकार पर डालकर कार्यक्रम जारी रखे। मनमोहन को हटाकर मोदी फिर मोदी को हटाकर दूसरा कारिंदा। इस क्रम को क्रांतिकारी आंदोलनों से ही रोका जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह किसान आंदोलन नई क्रांति की शुरुआत साबित हो। समाज के प्रमुख (आर्थिक) अंतरविरोध की धार कुंद करने के लिए शासक वर्ग अपने आंतरिक, बनावटी अंतरविरोध को अतिरंजित कर उछालते हैं। भारत में दुर्भाग्य से भूमंडलीय पूंजी के दो प्रतिस्पर्धी वफादार पार्टियों (भाजपा और कांग्रेस) का अंतरविरोध मुख्य राजनैतिक अंकरविरोध बन गया है। जरूरत सामाजिक चेतना के जनवादीकरण तथा क्रातिकारी ताकतों को मजबूती देने और लामबंद करने की है। किसान आंदोलन को जयभीम लाल सलाम।

शिक्षा और ज्ञान 299 ( शाखा जीवन)

प्लेटो अपने शिक्षा सिद्धांत में कहता है कि शिक्षक का काम बच्चे के दिमाग में कुछ ऊपर से डालना नहीं बल्कि दिमागलकी आंखों के समक्ष वस्तुओं को दृष्टिगोचर बनाना यानि एक्सपोजरलप्रदान करना है। लेकिन तुरंत ब्रेनवाशिंग का सख्त टाइमटेबुल और पाठ्यक्रम प्रस्तुत कर देता है। कहता है कि बच्चे की शिक्षा पैदा होते ही शुरू होनी चाहिए क्योंकि बच्चा मोम कीनतरह होता है, उसे जैसा चाहो रूपवदे सकते हो। तीन चरणों में विभाजित लंबी प्रथमिक शिक्षा में केवल व्यायम-खेलकूद और संगीत (गाना-बजाना) है। बच्चे के चिंतन की दिशा और दशा नियंत्रित करने के बाद उनमें वर्णाश्रम के पैटर्न पर, शिक्षा द्वारा निर्धारित वर्ग विभाजन संचारित करना है। बुद्धिजीवी (दार्शनिक) -- शासक; साहस का धनी -- सैनिक तथा बाकी आर्थिक उत्पादक। वर्णाश्रम में ब्रह्मा के नाम से मिथक रचा गया तो प्लेटो धातुओं के मिथक (राजसी झूठ) की कहानी गढ़ता है कि निम्न वर्गों को वर्गविभाजन के औचित्य पर राजी करने के लिए दार्शनिक राजा को इस झूठ का प्रचार करना चाहिए कि ईश्वर ने लोगों को विभिन्न धातुओं के गुणोंके साथ बनाया है जिसके अनुसार उनकी सामाजिक-राजनैतिक भूमिका का निर्धारण होता है। दार्शनिक (राजा) में सोने के गुण होता है, साहसी (सैनिक) में चांदी का तथा आर्थिक उत्पादकों में तांबे-जस्ते जैसे निम्न कोटि के धातुओं का। ब्रह्मा की रचना की तरह ईश्वर का यह विधान अपरिवर्तनीय है। आरएसएस की शिशुमंदिर तथा शाखा व्यवस्था प्लेटो की शिक्षा पद्धति का अनुकरण है -- शिशु स्वयं सेवक, बाल स्वयंसेवक, किशोर स्वयंसेवक और फिर स्वयंसेवक। 18 साल तक की प्राथमिक शिक्षा (शिशु से किशोर तक) में व्यक्ति व्यायाम, ड्रिल, गीत और बौद्धिकों के माध्यम से इतिहास तथा नैतिकता और राष्ट्रवाद की अफवाहजन्य विकृत मान्यताओं (मिथ्या चेतना) को अंतिम सत्य की भांति इस हद तक आत्मसात कर लेता है कि मोहभंग लगभग असंभव हो जाता है। मैं 12-13 साल में खो ऐऔर कबड्डी खेलने के चक्कर में किसी सीनियर के फुसलावे में (अनियमित ही सही) शाखा जाना शुरू किया और नास्तिक होने के बावजूद भी 17-18 साल की उम्र तक कट्टर 'राष्ट्रवादी' बना रहा। इवि में बीएस्सी करते हुए एबीवीपी की इलाहाबाद की जिला इकाई में प्रकाशन मंत्री था। किताबों (और कुछ संवादों) के माध्यम से मार्क्सवाद से प्रभावित होने पर ही राष्ट्रवाद की संघी (मिथ्या) चेतना से मुक्त हो सका। मीणा जी को इससे मुक्त होने लगभग सारा जीवन लग गया। कोई भूछता है तो कहता हूं कि उस समय मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, औपनिवेशिक पूंजी की कोखसे निकली आधुनिक राजनैतिक विचारधारा है।