Tuesday, August 29, 2017

मोदी विमर्श 63

हंसी की बात पर किसे नहीं हंसी आएगी? मन की बात में भड़ैती करता है, हत्याओं के आयोजन करने के बाद बोलेगा किसी को हिंसा नहीं करने दी जाएगी। इतना बड़ा मूर्ख है कि दुनिया को मूर्ख समझता है. मन की बात के नाम पर आम जन के खून-पसीने की कमाई बर्बाद कर नौटंकी करता है। एक बात बताओ जिसका कोई मतलब हो? बाबा राम रहीम की तरह इस प्रजाति के लोग सत्ता-संपत्ति के नशे में इतने चूर हो जाते हैं कि भूल जाते हैं कि आदमखोर भेड़िया कभी न कभी मारा ही जाता है।

शिक्षा और ज्ञान 117 (प्रइमरी शिक्षा)

सहमत। मैं हमेशा मानता हूं प्राइमरी के शिक्षकों का विशिष्ट प्रशिक्षण और विशिष्ट सामाजिक प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, जिससे बुनियाद इतनी मदबूत हो कि उस पर कितनी भी मंजिलें टिक सकें। लेकिन बुनियाद मजबूत न हों और दुकानें चलती रहें, इसीलिए शिक्षा को पिरामिडाकार बनाया गया है, जिसमें विवि से लेकर मिडिल स्कूल तक सबको कोई-न-कोई अपने से नीचे देखने को मिल जाता है, प्राइमरी स्कूल को छोड़कर, जिन्हें जब चाहा चुनाव में लगा दिया जब चाहा जनगणना में।फिर भी मैं सभी शिक्षक मित्रों से यही आग्रह करता हूं कि समाज और सरकार की बदसलूकी के बावजूद वे बुनियाद मजबूत करने के काम की संतुष्टि से खुद को न वंचित करें। प्रोफेसर और प्रािमरी शिक्षक को लगभग बराबर वेतन तो समाजवाद में ही संभव है।

Monday, August 28, 2017

समाजवाद 7

रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: (भाग 7 )

रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: भाग 7 
समाजवादी अंतर्राष्ट्रीयता का दूसरा दौर
ईश मिश्र
     पेरिस कम्यून के बर्बर दमन तथा फलस्वरूप कामगरों के अंतर्राष्ट्रीय संघ (पहला इंटरनेसनल) के बिखराव के बाद क्रांति की ज्वाला थोड़ी ठंडी पड़ गयी लेकिन बुझी नहीं। इंटरनेसनल को पुनर्जीवित करने के प्रयास जारी रहे, जिसकी परिणति, जैसा कि हम आगे देखेंगे, 1889 में दूसरे इंटरनेसनल – सोसलिस्ट इंटरनेसनल की स्थापना में हुई। जैसा कि इस लेखमाला की शुरुआत में देख चुके हैं कि आधुनिक राजनैतिक चिंतकों में रूसो पहले चिंतक थे जिन्होंने साबित किया था कि क्रांति वांछनीय ही नहीं, संभव भी है। फ्रांस में पूंजीवाद का वह शैशव काल था। फ्रांस की 1789 और 1848 की क्रांतियों में दो उल्लेखनीय समानताएं हैं। दोनों ही क्रांति-प्रतिक्रांतियों की तार्किक परिणति पूंजादी रातंत्र में हुई तथा जिन वर्गों ने जितनी ज्यादा निष्ठा और जुझारूपन से क्रांति भागीदारी की उन्हें उसकी उपलब्धियों से उतना ही वंचित किया गया। 1789 में में यह वर्ग कारीगरों का था और 1848 में सर्वहारा, जो कि जैस हम जानते हैं, न सिर्फ क्रांति की उपलब्धियों से वंचित रहा बल्कि अभूतपूर्व जनसंहार का भी शिकार हुआ। कम्यून नेतृत्व में समाज की वैज्ञानिक समझ के अभाव और सामरिक नीति की अनभिज्ञता तथा यूरोप के सारी प्रतिक्रियादियों के संयुक्त हमले के चलते कम्यून का 2 महीने में ही पतन हो गया, लेकिन  भविष्य की क्रांतियों, खासकर 1905 और 1917 की रूसी क्रांतियों के लिए, पेरिस कम्यून  एक संदर्भ-विंदु; ऐतिहासिक मिशाल तथा प्रेरणा-श्रोत तो था ही, यह समाज के इतिहास में कई और अर्थों में मील का पत्थर साबित हुआ।
मार्क्स-एंगेल्स ने मेनिफेस्टो में जोर देकर स्पष्ट किया है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य पूंजीवाद के सामान्य मामलों की प्रबंध समिति है। एटींथ ब्रूमेयर में ‘राष्ट्रीय गौरव’ और युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद को प्रतिक्रांति का प्रमुख कारण बताया है। फ्रांस-जर्मनी युद्ध के समय इंटरनेसनल द्वारा युद्ध पर सितंबर 1870 में जारी घोषणा-पत्र में मार्क्स ने मिथ्या राष्ट्रवाद के जाल में फंसने से बचने के लिए आगाह किया था। लेकिन फ्रांस में पूंजीवाद अभी भी विकासशील अवस्था में था और तत्कालीन सामाजिक चेतना के प्रभाव में सर्वहारा और उसका नेतृत्व इस शोषक प्रणाली के अंतर्विरोध को समझ नहीं सके और समाजवाद तथा राष्ट्रवाद की परस्पर निरोधी विचारधाराओं के संयोजन में मात खा गए। जिस राष्ट्रीय ‘दुश्मन’ जर्मनी  से पेरिस की रक्षा के लिए मजदूरों को हथियारबंद किया गया था, जब हथियारबंद सर्वहारा ने मुक्ति का ऐलान कर कम्यून कायम किया, मजदूरों की अपनी सरकार की मिशाल को उन्ही जर्मनों की मदद से कम्यून को कुचला गया। पेरिस कम्यून के अनुभव ने साबित किया कि: सर्वहारा क्रांति वांछनीय ही नहीं, संभव भी है; राष्ट्रवाद एक मिथ्या चेतना है जिसे शासकवर्ग (पूंजीवाद) समाज के प्रमुख, आर्थिक अंतर्विरोध की धार को कुंद करने और वर्ग वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए करता है; जैसा कि कम्यून के अनुभव से मार्क्स ने फ्रांस में गृहयुद्ध में रेखांकित किया है कि  सर्वहारा पूंजीवादी राज्य मशीनरी को अपने हित में नहीं उपयोग कर सकता। गुलामी की मशीनरी कभी मुक्ति की मशीनरी नहीं बन सकती; सामूहिक स्वामित्व में एक पारदर्शी; जनतांत्रिक; समतामूलक समाजवाद महज सैद्धांतिक सपना नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक विकल्प है; सर्वहारा की तानाशाही ही सचमुच का सहभागी जनतंत्र है।
पेरिस कम्यून के पतन और पहले इंटरनेलनल में फूट और चौतरफा दमन के बाद पहला इंटरनेसनल 1876 में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाकर इतिहास में विलीन हो गया, लेकिन भविष्य की सर्वहारा क्रांतियों के लिए न सिर्फ मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय की मिशाल छोड़ गया बल्कि यह भी साबित किया की दुनिया के मजदूरों की संगठित एकता वांछनीय और संभव तो है ही अपरिहार्य भी। पहले इंटरनेसनल के बिखराव के बाद से ही इसके पुनर्गठन के प्रयास शुरू हो गए, जिसकी परिणति पहली क्रांति के शताब्दी वर्ष, 1889 में दूसरे, सोसलिस्ट इंटरनेसनल की स्थापना में हुई।   
सोसलिस्ट (दूसरा) इंटरनेसनल (1889-1916)
1864 से 1889 के दौरान, खासकर 1883 में मार्क्स के निधन के बाद, मार्क्सवाद एक सुगठित क्रांतिकारी विचारधारा के रूप में विकसित हो रहा था। कई देशों में समाजवादी पार्टियां गटित हो गयीं। इस दौरान जर्मनी का यूरोप में शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और मार्क्स और एंगेल्स के सिद्धांतो से अपनी पहचान बनाने वाला जर्मन समाजवाद आंदोलनों संदर्भविंदु के रूप में। इसी दौरान दक्षिणी तथा दक्षिण-पूर्वी यूरोप में अराजकतावादी भी फल-फूल रहे थे, वैसे हॉलैंड और बेल्जियम में भी बकूनिन के काफी अनुयायी थे। पहले इंटरनेसनल से निकले इंग्लैंड के संसदवीदी समाजवादियों के उत्तराधिकारियों ने फेबियन समाजवाद नाम से बौद्धिक आंदोलन शुरू किया जिसकी राजनैतिक परिणति लेबर पार्टी के गठन में हुई। इस तरह हम देखते हैं, 1889  में यूरोप में, फर्स्ट इंटरनेसनल से फूटी समाजवाद की 3 प्रमुख धाराएं थीं: सामाजिक जनतांत्रिक समाजवाद (मार्क्सवादी); अराजक-सामूहिकतावादी समाजवाद और इंग्लैंड में फेबियन समाजवाद।

पहल
     पहले इंटरनेसनल को पुनर्जीवित करने के लिए बहुत से देशों की समाजवादी; सामाजिक जनतंत्रवादी पार्टियां तथा मजदूर संगठनों में संवाद होता रहा। 1881 में जर्मन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी ने बेल्जियम के समाजवादी साथियों के अंतरर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन बुलाने के प्रस्ताव का अनुमोदन किया। इसकी तैयारी समिति में जर्मन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी; बेल्जियम; फ्रांस; स्विटजरलैंड के समाजवादियों ने भाग लिया। पहले इंटरनेसनल में सदस्यता व्यक्तिगत थी लेकिन दूसरे इंटरनेसनल के घटक राजनैतिक पार्टियां थीं जिनका अपना निर्वाचित नेतृत्व और अपन-अपने देशों के लिए कार्यक्रम और जनाधार थे। 1881 का सम्मेलन समावादी पार्टियों को एकजुट करने में असफल रहा लेकिन 1886 में होने वाले अगले सम्मेलन में पेश करने के लिए संयुक्त समाजवादी घोषणा तैयार करने के लिए सब पार्टियों को आमंत्रित किया। 1886 (पेरिस) सम्मेलन में नए इंटरनेसनल के गठन की नई उम्मीद जगी। इसमें ग्रेट ब्रिटेन; फ्रांस; हॉलैंड; बेल्जियम; स्पेन; हॉलैंड; इटली; स्कैंडेवियन देशों और अमेरिका की समाजवादी पार्टियों ने शिरकत की। 1848 की क्रांति के सहभागी गवाह तथा पेरिस कम्यून के समर्थक गवाह रह चुके बुजुर्ग जर्मन क्रांतिकारी और संसद सदस्य विल्हेम लीबक्नेख्ट की पहल पर 28 फरवरी 1889 में द हेग (हॉलैंड में) में फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, स्विटजरलैंड और बेल्जियम के समाजवादी और मजदूर संगठनों की, सितंबर 1889, फ्रांसीसी क्रांति के शताब्दी वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय के पुनर्स्थापना के सम्मेलन की तैयारी के लिए एक बैटक आयोजित की गयी। ट्रेड यूनियन आंदोलन में संकेद्रित, दक्षिणपंथी प्रवृत्ति वाले फ्रेंच फेडरेसन ऑफ सोसलिस्ट सोसलिस्ट वर्कर्स (संभावनावादी) ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया। उसने अपने वर्चस्व में 14 जुलाई 1889 को अपने अलग सम्मेलन की घोषणा कर दी। लीबक्नेख्ट प्रेरित समूह ने भी कार्यक्रम में तब्दीली कर स्थापना सम्मेलन की तिथि पीछे कर उसी दिन कर दिया।
प्रयाण 
    “संगठित समाजवादियों के सम्मेलन (कांग्रेस ऑफ यूनाइटेड सेसलिस्ट्स)” के सभागार के मंच को विशालकाय सुर्ख परचम सुशोभित कर रहा था जिस पर ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ नारा अंकित था। इस सम्मेलन में 24 देशों के 300 सामाजवादी और मजदूर संगठनों के 384 प्रतिनिधियों ने शिरकत की। इनमें अधिकाश मार्क्सवादी या पॉल लफार्ग  के नेतृत्व में ब्लांकी के अनुयाया थे। इंग्लैंड के पआतिनिधियों में मार्क्स की बेटी, एलीनर मार्क्स-एवलिंग भी शामिल थीं। ग्योर्गी प्लेखानेव समेत रूसी क्रांतिकारी आंदोलन के 6 प्रतिनिधि थे तथा एक सोसलिस्ट लेबर पार्टी ऑफ अमेरिका का एक। मार्क्स के दामाद पॉल लफार्ग ने अपने स्वागत भाषण में सम्मेलन में राष्ट्रवाद की विलुप्ति पर खुशी का इजहार करते हुए कहा, “ आज हम यहां तिरंगे या किसी और राष्ट्रीय झंडे के नीचे नहीं, अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा के सुर्ख परचम तले इकट्ठा हुए हैं। इस सभागार में आप पूंजीवादी फ्रांस या पूंजीपतियों के पेरिस में नहीं पेरिस में नहीं  बल्कि अंतर्राष्ट्राय सर्वहारा की; अंतर्राष्ट्रीय सनमाजवाद की राजधानी में हैं। संस्थापना सम्मेलन में 8 घंटे के कार्यदिवस की पहले इंटरनेसनल की मांग के प्रस्ताव को फिर से रेखांकित किया गया तथा इस मांग के लिए 1886 में सिकागों टेक्सटाइल मजदूरों के आंदोलन के शहीदों को श्रद्धांजलि के रूप में हर साल 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया।  पहला इंटरनेसनल, व्यक्तिगत आधार पर सदस्यता वाला एक केंदीकृत संगठन था, जबकि दूसरा, सोसलिस्ट इंटरनेसनल निर्वाचित नेतृत्व और राष्ट्रीय कार्यक्रम तथा जनाधार वाली पार्टियों तथा मजदूर संगठनों का एक लचीला महासंघ था। स्थापना के पहले 10 साल तक इसकी कोई स्थाई कार्यकारिणी नहीं थी। 1893 में एंगेल्स को इसका मानद अध्यक्ष बनाया गया लेकिन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु हो गयी। राष्ट्रीय इकाइयां सर्वहारा में घुल-मिलकर ट्रेडयूनियन आंदोलनों के आयोजन करती थीं, चुनाव भी लड़ती थीं। बाद के सम्मेलनों 1891 (ब्रुसेल्स); 1891 (ज्यूरिख) और 1896 (लंदन) सम्मेलनों में दुनिया के मजदूर आंदोलनों के लेखा जोखा के साथ सब देशों के प्रतिनिधि अपने अनुभव साझा करने के साथ अलग-अलग संघर्षों की रणनीतियों पर गहन विचार-विमर्श हुआ।
धीरे धीरे दूसरे इंटरनेसनल की साख और शक्ति बढती गयी और इसके जीवनकाल (1889-1914) के वार्षिक सम्मेलनों में लगभग सभी यूरोपीय देशों और अमेरिका, तुर्की, अर्जेंटीना तथा चिली के भी समाजवादी पार्टियों के प्रतिनिधि शिरकत करते थे तथा साझे प्रयोजनों में हिस्सेदारी। अंततः 1900 के पेरिस सम्मेलन में पहली बार दूसरे इंटरनेसनल ने अपना संविधान बनाया। राष्ट्रीय इकाइयों के प्रतिनिधियों का एक अंतर्राष्ट्रीय सोसलिस्ट ब्यूरो तथा एक वैतनिक सचिव के साथ कार्यकारिणी समिति का गठन किया गया जिसका मुख्यालय में ब्रुसेल्स स्थापित हुआ। ब्यूरो सालाना बैठक के अलावा आपातकालीन बैठकें भी बुला सकता था। इस संविधान में इंटरनेसनल की सदस्यता की शर्तें स्पष्ट रूप से निर्धारित की गयीं। इंटरनेसनल की संबद्धता उन सभी संगठनों के लिए खुली थी जिनकी समाजवाद के मूलभूत सिद्धांतों – उत्पादन और वितरण के साझनों का समाजीकरण; कामगरों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन और सम्मिलित कार्वाई; सार्जनिक सत्ता पर मजदूर वर्ग की पार्टी का अधिकार और इसके तहत वर्गसंघर्ष के सिद्धांत पर आधारित सभी संगठनों – के प्रति निष्ठा हो और जो संसदीय तथा सीधी कार्रवाई की जरूरत को मानते हों। 1889 से 1900 तक का दौर इंटरनेसनल वैचारिक फहचान के विभ्रम और अनिश्चितता का दौर रहा। 1896 (लंदन) सम्मेलन में गैर सामाजिक जनतंत्रवादियों, खासकर अराजकतावादियों को बार का रास्ता दिखाकर संगठन वैचारिक एकरूपता प्रदान करने की कोशिस की गयी। इंग्लैंड के संसदवादी ट्रेडयूनियनें स्वेच्छा से अलग हो गयीं और 1900 तक संगठन पूरी तरह मार्क्सवादी बन और आगे की गुटबाजी या आंतरिक असहमतियां मार्क्सवाद की व्याख्याओं को लेकर थीं। 
दूसरे इंटरनेसनल के नेता एक नई सुंदर दुनिया के सपने देखते थे और यूटोपियन समाजवादियों की तरह उनके सपने हवाई नहीं थे, उन्हे यथार्थ में तब्दील करने के उनके पास साधन-संसाधन थे। वे अपने अपने देशों में अपने सपना को साकार करने के प्रयास में अडिग निष्ठा और प्रतिबद्धता से लगे हुए थे। मार्क्सवाद के रूप में इतिहास के हर पहलू को एक नए परिप्रेक्ष्य से समझने का उपादान मिल गया। इस नए परिप्रक्ष्य से इतिहास को समझकर बदलने की रणनीति पर काम करने वालों में लफार्ग, कार्ल कौत्स्की, प्लेखानोव प्रमुख हैं। एंगेल्स की भूमिका मार्गदर्शक की थी। उनके पत्राचार यूरोप के तथा अन्य देशों के समाजवादी पार्टियों के लिए उपयोगी सैद्धांतिक और व्यवहारिक मंत्रणाओं से परिपूर्ण होते थे। लेनिन 1905 में इंटरनेसनल से जुड़े।  
मजदूरों के आंदोलन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियों और संदर्भों की विभिन्नता के अनुसार विभिन्न स्वरूपों में विकसित हो रहे थे और इंटरनेसनल विभिन्नता में एकता की धुरी था। बेलजियम, ऑस्ट्रिया और जर्मनी में समाजवादी संगठन बड़े तथा प्रभावकारी थे जब कि रूस और पोलैंड के संगठनों को भूमिगत होना पड़ा था। ब्रिटेन और अमेरिकी की पार्टियां क्रांतिकारी संगठनों और मार्क्सवाद से दूरी बरकरार रखते हुए इंटरनेसनल में दक्षिणपंथी खेमे का नेतृत्व कर रही थीं।
     यद्यपि इंटरनेसनल के विभिन्न राष्ट्रीय घटक दलों का बुनियादी जनाधार औद्योगिक सर्वहारा ही था लेकिन उनमें खेत मजदूरों, सीमांत और छोटे किसानों तथा विस्थापित कारीगरों की भी उल्लेखनीय भागीदारी थी, खासकर फ्रांस के संगठनों में। इंटरनेसनल में शामिल लगभग सभी पार्टियां विभिन्न मजदूर संगठनों और समाजवादी तथा अराकतावादी समूहों के एकीकरण का परिणाम थीं। सभी मार्क्स के सिद्धांतो को अपनी प्रेरणा श्रोत मानती थीं। सभी पार्टियों की अपनी अपनी विशिष्ट चुनौतियां थीं। सबसे बड़ी चुनौती थी राष्ट्रवाद और समाजवाद का अंतर्विरोध जो अंततः इंटरनेसनल की अकाल मौत का करण बना। जर्मनी में राज्य पर अब भी कुलीन जमींदारों का वर्चस्व था, फिर भी जर्मनी की सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी इंटरनेसनल का सबसे बड़ा घटक थी। इंटरनेसनल में जर्मनी के सरोकारों. संघर्षों और विमर्श का प्रतिध्नित सुनाई देना स्वाभाविक था। यद्यपि जर्मनी की सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी पर संक्षिप्त अप्रांगिक तो न होती, लेकिन गुंजाइश नहीं है, लेकिन इतना जान लें कि यह जर्मन साम्राज्य की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी के रूप में उभर चुकी थी। 1890 के दशक में जर्मन समाजवादी एक एक कर कई मोर्चों पर अपनी छाप छोड़ते हुए वर्ग-संघर्ष के हर पहलू को प्रभावित कर रहे थे। पार्टी समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए अपने व्यापक मीडिया नेटवर्क पर ही नहीं निर्भर थी, बल्कि अपनी सांस्कृतिक और शैक्षणिक इकाइयों के माध्यम से नियमित रूप से जन-उत्सवों के आयोजन, पार्टी-पाशालाओं, पार्टी की स्थानीय इकाइयों की बैठको, जनसभाओं आदि माध्यमों का भरपूर उपयोग करती थी। पार्टी ने मजदूरों के दुनिया और इतिहास के हर पहलू को और समग्रता में समझने के संसाधनों को सुलभ कराने की भरसक कोशिस की।

संशोधनवादी विमर्श
            पहले इंटरनेसनल के बाद प्रमुखतः पूंजीवाद और इसके जैविक तथा पेशेवर बुद्दिजावियों और कुछ क्रांतिकारियों का मार्क्सवादी विचारों पर छिट-पुट हमला दूसरे इंटरनेसनल के बाद तेज हो गया। बकूनिन ने कहा कि वे अर्तशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से वे मार्क्सवादी लेकिन राजनैतिक दृष्टि से नहीं। कुछ की असहमति मार्क्स के दर्शन से ही थी और कुछ वर्गसंघर्ष के कार्यक्रम से तो सहमत थे, लेकिन मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों से नहीं। एंगेल्स के सहयोगी रह चुके जर्मन दक्षिणपंथी एडुअर्ड वर्न्स्टाइन ने, एंगेल्स की मृत्यु के बाद, मार्क्सवाद को सिरे से ही खारिज करना शुरू कर दिया।अपनी पुस्तक क्रमिक समाजवाद में वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को इतिहास की बात घोषित करते हुए कहा कि समाजवाद वर्ग संघर्ष या क्रांतिकारी आंदोलनों से नहीं बल्कि पूंजीवाद में क्रमिक सुधार से आएगा। मार्क्सवाद में संशोधन के जर्मन आंदोलन को संशोधनवाद नाम दिया गया। शीघ्र ही यह समाजवाद की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति बन गयी। इंगलैंड में इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि फेबियन समाजवादी थे, जिनकी परिणति संसदीय लेबर पार्टी में हुई। वे द्वद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों को खारिज करते हुए वर्न्स्टाइन ने मार्क्स की अपरिहार्यता या अवश्यंभाव्यता को नकार दिया। 1896 में लंदन सम्मेलन में बर्न्स्टाइन का जवाब जर्मन समाजवादी कार्ल कौत्सकी ने दिया था लेकिन 1910 के सम्मेलन तक कौत्सकी और बर्न्स्टाइन क्रांतिकारी मार्क्सवाद के विरुद्ध संसदीय समाजवाद के पक्ष में एकजुट हो गए। संशोधनवाद वर्गसंघर्ष के जरिए राज्य सत्ता पर अधिकार के विरुद्ध अभियान है, अतः वर्ग और वर्ग संघर्ष की संक्षिप्त चर्चा वांछनीय है, किंतु उसके पहले दूसरे टरनेसनल की चर्चा को अंजाम तक पहुंचा दिया जाए।
1900 में अपनाए गए संविधान के तहत ब्रुसेल्स में इंटरनेसनल सोसलिस्ट ब्यूरो की स्थापना में इसके तत्वाधान में अगले सम्मेलन 1904 (ऐम्स्टर्डैम); 1907 ((स्टट्टगार्ड) और 1910 (कोपेनपागेन) के बाद बाल्कान युद्ध में महाशक्तियों की भागीदारी के खतरे को देखते हुए 1912 में बासेल में एक विशेष सम्मेलन बुलाया गया। अगला नियमित सम्मेलन अगस्त 1914 में वियना में होना था, लेकिन युद्ध के चलते टल गया और दूसरा इंटरनेसनल की ऐतिहासिक यात्रा बिना घोषणा के ही समाप्त नियमित सम्मेलन (1910) में 23 राष्ट्रीयताओं के 896 पर्रतिनिधियों ने शिरकत की थी। युद्ध शुरू होने के पहले ब्यूरो से संबद्ध 28 राष्ट्रीयताओं के सदस्य थे और 120 लाख सदस्य। युद्ध के पहले इंटरनेसनल  में दो मुद्दे काफी विवादित रहे। पहला था बूंजीवादी सरकारों में समाजवादियों की भागीदारी और दूसरा युद्ध की स्थिति में टरनेसनल की भूमिका। यद्यपि दोनों ही मुद्दों पर क्रांतिकारी शब्दावली में विस्तृत प्रस्ताव पारित हुए लेकिन उनसे कोई स्पष्ट उत्तर नीं निकला। 1904 के सम्मेलन में इंटरनेसनल ने समाजिक जनतंत्रवादी पार्टियों की पूंजीवादी समाज में शिरकत की इजाजत तो दे दी, लेकिन एक पुछल्ले के साथ कि कोई समाजवादी “अपरिहार्य परिस्थितियों की मजबूरी के दबाव में, एक अस्थायी तौर पर” मंत्रिमंडल में शरीक हो सकता है। यह विडंबना समाजवादी आंदोलन का आज भी संकट है। तमाम क्रांतिकारी पार्टियां, संसद के रास्ते क्रांति लाने के नाम पर जनांदोलन का रास्ता भूल संसदीय राजनीति में मिल-बिला गए। युद्ध का मामला और भी जटिल था। राष्ट्रवाद की मिथ्या चेतना क्रांतिकारी प्रतिबद्धता के आड़े आती है।
 
इंटरनेसनल और युद्ध
     1914 में बरसना शुरू होने के पहले से ही युद्ध के खतरे के बादल यूरोप की क्षितिज में मंड़राने लगे थे। बीसवी सदी में दूसरे इंटरनेसनल के पहले तीनों सम्मेलनों (1904, 1907 और 1910) ने अलग-अगल युद्ध और सैन्यवाद के विरुद्ध पआस्ताव पारित किये।  1907 में लेनिन, जर्मन क्रांतिकारी रोजा लक्जंबर्ग और मोर्तोव द्वारा तायार एक युद्ध विरोधी प्रस्ताव पारित हुआ। 1910 के सम्मेलन ने भी इसकी पुष्टि की। “....... संबद्ध देशों के मजदूर वर्ग और उनके संसदीय  प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य है कि वे वर्ग-संघर्ष की धार के पैनेपन और सामान्य राजनैतिक परिस्थियों के संदर्भ में, संयोजनकारी धुरी के रूप में इंटरनेसनल ब्यूरो की मदद से युद्ध रोकने का हर संभव प्रयास करें। फिर भी युद्ध यदि शुरू ही हो गया उनकी इसे जल्द-से-जल्द रोकने की कोशिस होनी चाहिए। युद्ध से पैदा आर्थिक और राजनैतिक संकट का फायदा उठाते हुए अपनी सारी ऊर्जा का इस्तेमाल कर, जनमानस को उनकी तंद्रा से जगाकर पूंजीवादी वर्चस्व के किले ध्वस्त करने की प्रकिया को त्वरित करें”। 1912 के आपात सम्मेलन में भी सभी प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से तय किया कि समाजवादियों द्वारा युदअध रोकने के हर संङव पआयास करना चाहिए। लेकिन इंटरनेसनल संबद्ध संगठनों की जवाबदेही तय करने में नाकाम रहा और न ही आम हड़ताल या जनलामबंदी का कोई भी प्रस्ताव लागू करवा सका। युद्ध छिड़ते ही, लेकिन की अपील कि हर देश का मजदूर अपनी बंदूक अपने ही शासको पर तान दे, को धता बताते हुए, इंटरनेसनल के ज्यातर सदस्य अपनी अपनी सरकारों के युद्धोंमादी अभियानों के समर्थन मे अंरराष्ट्रीयता के ज्ञान को धता बताते हुए राष्ट्रीय हो गए। क्रांतिकारी लफ्फाजी और क्रांतिकारी आचरण में फर्क होता है। फ्रांस में युद्ध के कट्टर विरोधी, सोसलिस्ट पार्टी के नेता जीन रावर्स की हत्या से पार्टी और यूनियन के नेताओं में इतना भय व्याप्त हो गया कि वे ‘हड़ताल’ का नारा देकर ‘राष्ट्र की सुरक्षा’ अभियान में लग गए। बेल्जियन लेबर पार्टी शांतिपूर्ण प्रदर्शन क् आह्वान वापस लेलिया और युद्ध के पक्ष में मतदान किया। ब्रिटिश लेबर पार्टी ने पलटी मारते हुए युद्ध के प्रति अटल प्रतिबद्धता ही नहीं जाहिर किया बल्कि युद्धकालीन सरकार में भी शरीक हो गयी। ऑस्ट्रियन और हंगेरियन समाजवादी राष्ट्रवादी प्रचारतंत्र के भोपू बन गए। एक के बाद एक दूसरे इंटरनेसनल के युद्ध विरोधी किले ढहते गए। इसकी ज्यादातर घटक पार्टियां अपने अपने शासक वर्गों के पहले विश्वयुद्ध रक्तपात के अभियान में शरीक हो गयीं। सभी अपने युद्धोंमादी राष्ट्रवाद का बचाव यह कह कर किया कि नका देश जनतंत्र की सुरक्षा में रक्षात्मक युद्ध कर रहा था। सबने मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के ऊपर राष्ट्रवाद को तरजीह दिया।
     छोटे-मोटे समूहों और व्यक्तियों को छोड़कर बोलसेविक पार्टी ही इंटरनेसनल का इकलौता घटक था जो खुलकर अपने युद्ध और शासकवर्ग विरोधी संकल्प के प्रति निष्ठावान रही। बाद में मेनसेविक भी साथ हो लिए। उनका यह रुख सर्वहारा वर्ग में आत्म-निर्णय और स्वशासन की जागरूकता पैदा करने के दीर्घकालीन प्रयासों की तार्किक परिणति है। वर्गचेतना से लैस सर्वहारा के संगठन के लिए दूसरे मजदूरों के सात अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता जरूरी है। 1914 में जर्मनी ने युद्ध की तैयारी के पहले राइखटाग (संसद) में युद्ध के खर्च जुटाने पर विचार का प्रस्ताव रखा। “जुझारू प्रतिरोध” की नीति से पलटी मारकर फ्री ट्रेड यूनियन ने बिन मांगे युद्धसके प्रयोसों में सरकार से सहयोग की सहमति दे दी। दो दिन बाद ही सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी ने, लेनिन समेत इंटरनेसनल के वामपंथी खेमे को अविश्वसनीय आश्चर्य में डालते हुए, आमराय से युद्ध के पक्ष में मतदान किया। धुर ‘क्रांतिकारियों’ को अपने वोट का महत्व समझ आने लगा और उन्होंने एंगेल्स की जीवंत उम्मीद और शासकों की आंख की किरकिरी, दूसरे इंटरनेसनल की ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। युद्धोंमादी राष्ट्रवाद मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीयता पर भारी पड़ा। वैसे भी आज ही नहीं ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीय युद्धों में रक्तपात का विरोध, देश द्रोह ही माना जाता रहा है। राष्टोंमाद के खतरों और क्रांतिकारी चेतना में इसके व्यवधान पर मार्क्स ने एटींथ ब्रुमेअर और फ्रांस में गृहयुद्द में चिंता व्यक्त की है। युद्धोंमादी राष्ट्रवाद के फलस्वरूप फ्रांस की पहली दो क्रांतियों (1789 और 1848) की परिणति निरंकुश राजशाहियों (नेपोलियन बोर्नापार्ट और लुई बोर्नापार्ट – नेपोलियन तृतीय) और यही उनके शासन के विनाश का कारण भी बना। तीसरी क्रांति (1871) में राष्ट्रवाद की परिभाषा पलट गयी और फ्रांस के पूंजीवादी शासकों ने ‘दुश्मन राष्ट्र’ की मदद से अपने राष्ट्र के नागरिकों का अभूतपूर्व जनसंहार किया। इस तरह मजदूरो का दूसरा इंटरनेसनल राष्ट्रवाद से हार गया और मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीयता को कुछ सालों की छुट्टी पर चली गयी, जो रूसी क्रांति के बाद तीसरे इंटरनेसनल – कम्युनिस्ट इंटरनेसनल (कॉमिंटर्न) के रूप में दुबारा अवतरित होती है।

          उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों और बीसवीं सदी के पहले दशक में जर्मनी और रूस में क्रांतिकारी, समाजवादी परिघटनाओं तथा विमर्श एवं रूस में क्रांति में व जर्मनी में प्रतिक्रांति में उनकी परिणति की चर्चा अगले लेख में की जाएगी। जैसा कि हमने ऊपर देखा कि दोनों ही इंटरनेसनलों में विवाद का एक प्रमुख मुद्दा वर्ग-संघर्ष से संबंधित भ्रांति रही है। इस लेख का समापन वर्ग संघर्ष की मार्क्सवादी अवधारणा तथा इसमें पार्टी की भूमिका से करना प्रासंगिक होगा।

वर्ग और वर्ग-निर्धारण
     जैसा कि सुविदित है कि वर्ग संघर्ष मार्क्सवाद का केंद्रीय सरोकार है। लेकिन संघर्ष और उसका समधान तो सभी राजनैतिक अवधारणाओं का सरोकार होता है, मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य की विशिष्टता है, इस संघर्ष का चरित्रचित्रण। उदारवादी चिंतक इसे शांति से हल की जा सकने वाली एक समस्या मानते हैं, यानि कि यह कोई गंभीर बात नहीं है। वे लक्षण को ही मूल मान लेते हैं। यहां वर्ग और वर्ग-संघर्ष की उदारवादी अवधारणा पर चर्चा की न तो गुंजाइश है न जरूरत। वर्गसंघर्ष की मार्क्वादी अवधारणा बिल्कुल अलग है। यह शांति से हल की जा सकने वाली कोई समस्या नहीं बल्कि प्रभुत्व और अधीनता; शोषक-शोषित के सामाजिक रिश्ते की अवस्था है जिससे निजात उस समाज के कायाकल्प से ही पाया जा सकता है, जिसकी यह देन है। इस संघर्ष के पात्र व्यक्ति नहीं वर्ग हैं। मार्क्स ने राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा के प्राक्कथन में लिखा है कि सायास इच्छा से स्वतंत्र सामाजिक उत्पादन के दौरान कोई भी व्यक्ति और लोगों के साथ संबंध बनाता है, जिसे सामाजिक संबंध कहते हैं। कोई व्यक्ति के रूप में नहीं मालिक या गुलाम होता बल्कि समाज के खास तपके के हिस्से के रूप में इन्ही सामाजिक संबंधों के तहत वह ऐसा होता है। मार्क्सवाद वर्गीय अंतर्विरोध को प्रमुखता जरूर देता है लेकिन नस्लीय, धार्मिक, राष्ट्रवादीय आदि अंतर्विरोधों को नजर-अंदाज करता है, वह उन्हें गौड़ और वर्गीय-अंतर्विरोध की उपज मानता है या प्रकारांतर से इससे जुड़ा हुआ। यह संघर्ष विभिन्न परिस्थियों में विभिन्न स्वरूप ग्रहण कर सकता है, लेकिन इसका सार यह है कि प्रभुत्वशाली वर्ग अधीन वर्गों के श्रम का अधिक-से-अधिक शोषण के लिए संकल्पशील होता है और अधीन वर्ग अधीनता की शर्तों और हालातों को बदलने और अंततः उन्हें खत्म करने के प्रति। वर्गीय वर्चस्व महज आर्थिक नहीं होता, राजनैतिक और सास्कृतिक भी। इसलिए प्रतिरोध भी जटिल और बहुआयामी होता है। मोटे तौर पर देखें तो हर तरह के अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध सारे संघर्ष वर्ग संघर्ष के ही हिस्से हैं। प्रभुता को बरकरार रखने और ज्यादा शक्तिशाली बनाने में सबसे महत्वपूर्ण है वैचारिक वर्चस्व। एंतोनियो ग्राम्सी ने इसकी विधिवत व्याख्या की है, जिस पर चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है। मार्क्स-एंगेल्स ने जर्मन विचारधारा में लिखा है कि शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं, पूंजीवाद महज उपभोक्ता सामग्री की ही नहीं विचारों का भी उत्पादन करता है, एक युग चेतना का निर्माण करता है जो शोषित वर्गों की चेतना पर भी छा जाता है। इसीलिए मजदूर वर्गों का सबसे अहम मोर्चा है वैचारिक मोर्चा, यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का मोर्चा। युगचेतना और जनचेतना के अंतःसंबंधों पर चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है वह अलग चर्चा का विषय है तथा इस लेखमाला के भाग 4 में इसकी संक्षिप्त चर्चा की गयी है।
     जैसाकि इसलेखमाला के भाग 4 में संक्षेप में अपने आप में वर्ग और वर्गचेतना से लैस अपने लिए संगठित वर्ग की संक्षिप्त चर्चा की गयी है। मजदूर की मार्क्स की परिभाषा औद्योगिक मजदूरों तक सीमित नहीं है। परिभाषा से ऐसे सारे लोग मजदूर हैं, जो शारीरिक या बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर रोजी कमाते हैं।  लेखक भी मजदूर है, मार्क्स ने लिखा हा, “एक लेखक भी मजदूर है, इसलिए नहीं कि वह विचारों का श्रृजन करता है, बल्कि इसलिए कि वह विचारों का श्रृजन करता है बल्कि इसलिए कि वह प्रकाशक की समृद्धि में वृद्धि करता है, या फिर किसी पूंजीपति की वैतनिक नौकरी”। इस तरह एक उत्पादक कामगार की परिभाषा का उसके उत्पाद से कुछ लेना-देना नहीं है, जो भी मजदूरी से ज्यादा यानि अतिरिक्त मूल्य (सरप्लस वैल्यू) का उत्पादन करता है, वह मजदूर है। मजदूर वर्ग की इस व्यापक परिभाषा में उच्च वेतन वाले कॉरपोरेट अधिकारी से दिहाड़ी मजदूर तक सब आते हैं। लेकिन यह परिभाषा भ्रामक है। सही परिभाषा के लिए, उत्पादन प्रक्रिया में किसकी क्या भूमिका है? इस सवाल पर गौर करना पड़ेगा। मार्क्स ने लिखा है, “पूंजीवाद की विशिष्टता .......... विभिन्न तरह के श्रमों को एक दूसरे से अलग करती है, अतः शारीरिक और बौद्धिक श्रम को भी .... और उन्हें विभिन्न लोगों में आबंटित करती है। इससे लेकिन इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि उत्पादित सामग्री इनके साझे श्रम का परिणाम है”। पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली और हिंदू जाति-व्यवस्था की सामाजिक प्रणाली में एक समानता यह है कि दोनों में ही पदक्रम की श्रेणी में सबसे नीचे वाले को छोड़कर हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल ही जाता है। यह व्यापक परिभाषा मजदूर वर्ग की व्याख्या को आसान बनाने की जगह जटिल बना देती है क्योंकि इसके तहत व्हाइट कॉलर नौकरियां करने वाले ही नहीं कॉरपोरेट के ऊंची तनखाह वाले प्रबंधन कर्मचारी भी आ जाते हैं। पूंजीवाद अपने पूर्ववर्ती शासकवर्गों से इस मामले में भी अलग है कि यह शासकवर्ग की सुख-सुविधा के कुछ विशेषाधिकार आर्थिक सीढ़ी में ऊपरी पायदान वालों को भी आबंटित करता है। ऐसे में ‘श्रमिक सामुहिक’ में उन तत्वों की पहचान करनी होगी जो मजदूर वर्ग को औरों से अलग करते हैं।
     अगर अधीनता की स्थिति में, आर्थिक सामाजिक सीढियों में निचले पायदान से ‘अतिरिक्त मूल्य’ पैदा करने वाले श्रमिकों मजदूर वर्ग मान लेने से भी सवाल का जवाब नहीं मिलता। अन्य वर्गों की ही तरह मजदूर वर्ग भी कई पिरामिड की तहों की तरह कई तहों में बंटा है। आर्थिक आधाक पर मजदूर वर्ग की पहचान में समस्या है कि विभाजन रेखा कहां खींची जाये। ऐसे कामगारों की ताताद जो प्रबंधन, सुपरवाइजरी या बौद्धिक काम करते है। श्रमिक सामूहिक के मध्य वर्ग को मार्क्स द्वारा वर्णित पूंजीवादी वर्ग के विचौलिए तपके – पेटी बुर्जुआ, जैसे छोटा-बड़े दुकानदार, स्वतंत्र कारीगर या छोटे-बिटौलिए किसान आदि, यानि लोगों के वे विभिन्न समूह जिनका सर्वहारा करण नहीं हुआ है – से अलग है और पेटी बुर्जुआ प्रशासन, पुलिस या सैनिक सेवा में कार्यरत विभिन्न स्तरों के राज्यकर्मियों से अलग। राज्यकर्मी वर्गों से परे हैं, जिनकी विचारधारा उन्हें और वर्गों से जोड़ता है। 
पूंजीपति वर्ग की परिभाषा के बिना चर्चा अधूरी रह जाएगी। यह वह वर्ग है जिसका उत्पादन के साधनों और अन्य आर्थिक गतिविधियों पर स्वामित्व तथा नियंत्रण होता है। इसमें कई ऐसे लोग भी शामिल हैं जिनका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व तो नहीं होता लेकिन वे पूंजीपति वर्ग के हितों के समर्पित विशिष्ट कामों का निष्पादन करते हैं। इनसे मिलकर पूंजीपति वर्ग बनता है। तमाम आपसी विभिन्नताओं और अंतर्विरोधों के बावजूद तमाम मुद्दों पर पूंजीपतिवर्ग में समानता और एकता दिखती है और यह एकता राजनैतिक रूप भी ले सकती है।   
वर्गसंघर्ष की रणभूमियां राष्ट्र-राज्य की सीमाओं में ही होती हैं ता मार्क्सवादी राजनीति में राज्य पर कब्जा करना प्रमुख सरोकारों में है। जैसा कि हम जानते हैं कि पूंजीवाद एक भूमंडलीय  प्रणाली है इसलिए ये संघर्ष वाह्य कारकों से अप्रभावित नहीं रह सकते। पूंजी की भूमंडलीयता ने आर्थिक अर्थों में राष्ट्र-राज्य की सीमाएं मिटा दिया है, लेकिन भूमंडलीय पूंजी के संरक्षण के लिए राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद जरूरी है, इसलिए वर्ग-संघर्ष राष्ट्रीय सीमाओं में ही होगा तथा विभिन्न देशों के वर्ग-संघर्ष के समन्वय के लिए एक नए इंटरनेसनल की जरूरत होगी।
वर्ग-संघर्ष और पार्टी
     मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा कि समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है और पूंजीवाद में मजदूर के पास हथियार के रूप में महज जनबल, यानि संगठन है। शासक वर्गों के पास अपना वर्चस्व और विशेषाधिकार बरकरार रखने के राज्य के दमनकारी और प्रोपगंडा उपकरणों समेत बहुत साधन हैं और सर्वहारा साधनविहीन। फिर सवाल उठता है इतने शक्ति-साधन संपन्न शत्रु से साधनविहीन कामगर वर्ग कैसे लड़े और नई सामाजिक व्यवस्था कायम करे? लेकिन मार्क्स के संदेश की प्रमुख बात यही है कि यह हो सकता है लेकिन इसके लिए सजग प्रयास करना होगा। जैसा कि मार्क्स के हवाले से ऊपर कहा गया है कि यह प्रमुखतः पूंजीवादी अंतर्विरोधों की गहनता और रानैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक अधिसंरचनाओं पर इसके बहुआयामी प्रभाव पर निर्भर करता है। लेकिन अंततः यह बदलाव लोगों के हस्तक्षेप तथा कर्म से ही से ही संभव होगा। अपनी भूमिका कारगर रूप से अदा करने के लिए मजदूर वर्ग और इसके सहयोगियों को संगठित होना पड़ेगा। ‘अपने-आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ बनने के लिए मजदूर वर्ग को अपनी पार्टी बनानी पड़ेगी लेकिन लोगों के मुद्दों से अलग पार्टी का अपना कोई एजेंडा नहीं होगा। मार्क्स का जोर मजदूर वर्ग की मुक्ति पर तो था ही, लेकिन यह मुक्ति उनके स्वतः प्रयास से होनी चाहिए। मार्क्स ने 1864 में फर्स्ट इंटरनेसनल के प्राक्कथन में लिखा है, “मजदूर वर्ग की मुक्ति का संघर्ष मजदूर वर्ग को स्वयं करना होगा”। मार्क्स के लेखन में मजदूरों के संगठन की जरूरत के ज़िक्र की बहुतायत के बावजूद उन्होंने संगठन के स्वरूप और संरचना के बारे में कुछ नहीं कहते. उनका मानना था कि अलग-अलग देशों के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन बनाएंगे। एक बात वे जरूर बार बार कहते हैं कि मजदूरों का संगठन मजदूर वर्ग से अलग ‘पेशेवर साजिशकर्ताओं’ के किसी पंथ की तरह नहीं होना चाहिए। संगठन का स्वरूप जो भी हो मार्क्स का सरोकार अपनी मुक्ति के लिए मजदूर वर्ग में वर्गचेतना का विकास है। पार्टी वर्ग की राजनैतिक अभिव्यक्ति और संघर्ष का साधन है।
     मार्क्स और एंगेल्स मजदूरों की आत्म मुक्ति की क्षमता पर आश्वस्त थे। 1879 में उन्होंने एक जर्मन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी को फटकारते हुए एक सर्कुलर भेजा जिसमें उन्होने पार्टी की इस समझ को खारिज किया कि मजदूर वर्ग खुद अपनी मुक्ति का संघर्ष चलाने मे अक्षम है और उसे फिलहाल ‘पढ़े-लिखे’ और ‘संपत्तिवान’ बुर्जुआ वर्ग का नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए जिसके पास मजदूरों की समस्याएं समझने का अवसर होता है। उनके लिए वर्ग पहले था पार्टी बाद में। लेनिन ज़ारकालीन रूस की विशिष्ट परिस्थियों में एक विशिष्ट किस्म की पार्टी बनाना चाहते थे जो मजदूरों से यथासंभव संपर्क में रहे। उन्हें भय था जो उनके बाद सही साबित हुआ कि पार्टी में यदि मजदूर वर्ग लगातार जान न फूंकता रहे तो वह आमजन से कट कर एक नौकरशाही में तब्दील हो जाएगी। बहुत पहले से वे एक केंद्रीकृत अधिनायकवादी शासन के विरुद्ध, ‘पेशेवर क्रांतिकारियों’ का संगठन बनाना चाहते थे जिसकी परिणति बाद में ‘जनतांत्रिक केंद्रीयता’ (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म’) के सिद्धांत में हुई। इस सिद्धांत के तहत नीतिगत प्रस्ताव निचली इकाइयों विमर्श से निकले प्रस्ताव केंद्राय नेतृत्व के विचारार्थ जाना था जो उन्हें समायोजित कर पुन: अंतिम संस्तुति के लिए निचली इकाइयों को वापस भेजता। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और कॉमिंटर्न के तत्वाधान में बनी दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों में यह सिद्धांत विकृत हो कर अधिनायकवादी केंद्रीयता में तब्दील हो गया. कई मार्क्सवादी चिंतक इसे ऊपर से थोपी राजनीति (पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव) कहते हैं।
1914 के पहले लेनिन ने कभी नहीं कहा कि वे ऐसी पार्टी बनाना चाहते थे जो उन देशों के लिए उपयुक्त हो जहां पहले से ही ‘राजनैतिक स्वतंत्रता’ हासिल कर ली गई है। क्रांतिकारी प्रक्रिया की प्रगति के लिए संगठन और दिशा निर्देश की परमावश्यकता पर जोर  मार्क्सवाद में लेनिन का विशिष्ट योगदान है। वे मजदूरों की निष्क्रियता को लेकर चिंतित नहीं थे, बल्कि इसके चलते संघर्ष के राजनैतिक प्रभाव में कमी और क्रांतिकारी उद्देश्य में भटकाव को लेकर चिंतित थे। इसीलिए पार्टी की परमावश्वयकता को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जिसके दिशा निर्देश और नेतृत्व के बिना मजदूर वर्ग का संघर्ष विसंगतियों और दिशाहीनता का शिकार हो जाएगा। गौरतलब है रूस पश्चिमी यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों की तरह बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति या मार्क्स के शब्दों में ‘राजनैतिक मुक्ति’ के दौर से नहीं गुजरा था। इसीलिए जारशाही को उखाड़ फेंक समाजवादी फतेह के लिए मजदूरों की एक अनुशासित हिरावल दस्ते के निर्माण पर बल दिया।
इसके बावजूद लेनिन भली भांति जानते थे कि जनता के अनभवों में घुले-खपे-जुड़े बिना  पार्टी अपना क्रांतिकारी उद्देश्य नहीं पूरा कर सकती। जब भी पार्टी में खुली बहस का मौका मिला – 1905; 1917 और उसके बाद – उन्होने पार्टी में नौकरशाही प्रवृत्ति पर करारा प्रहार किया। क्या करना है? (व्हाट इज़ टू बी डन?) और राज्य और क्रांति में अनुशासित संगठन की जरूरत पर जोर देने के बावजूद कामगर आवाम से पार्टी के जैविक संबंधों की बात को उन्होने हमेशा तवज्जो दिया। 1920 में वामपक्षी साम्यवाद: एक बचकानी उहापोह (लेफ्टविंग कम्युनिज्म: ऐन इन्फेंटाइल डिसॉर्डर) में लेनिन लिखते हैं, “इतिहास, खासकर क्रांतियों का इतिहास अपनी अंतर्वस्तु में सर्वाधिक वर्ग चेतना से लैस, सर्वाधिक उन्नत वर्गों के हरावल दस्ते से अधिक विविधतापूर्ण, अधिक बहुआयामी, अधिक जीवंत और अधिक निष्कपट है”। इसके बावजूद उन्होंने क्रांतिकारी प्रक्रिया में पार्टी की अहम भूमिका को उन्होने नहीं नकारा, न ही मजदूर वर्ग के साथ इसके संबंधों को कमतर करके आंका। वे रोज़ा लक्ज़म्बर्ग की ही तरह पार्टी की केंद्रीय समिति को गलतियों से परे न मानने के बावजूद एक सुगठित संगठन के पक्षधर थे। ज़ारकालीन रूस की परिस्थियों में लेनिन एक विशिष्ट तरह की पार्टी के पक्षधर थे लेकिन सर्वहारा की तानाशाही या पार्टी (नेतृत्व) की तानाशाही के जवाब में उन्होंने कहा, “मौजूदा हालात में वर्ग का प्रतिनिधित्व पार्टी ही कर सकती है”।  
रोज़ा लक्ज़म्बर्ग ने 1918 में रूसी क्रंति नाम शीर्षक से लिखी पुस्तिका में रूस की खास परिस्थियों में बॉलसेविक दल की प्रशंसा करते हुए लिखा था, “बॉलसेविकों ने प्रमाणित कर दिया है कि वे ऐतिहासिक संभावनाओं की सीमा में एक सच्ची क्रांतिकारी पार्टी जो भी कर सकती है उसमें वे सक्षम हैं। उनसे किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए साथ ही उन्होंने आगाह किया था कि खास परिस्थियों में अपनाई गई रणनीति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के मॉडल के रूप में नहीं पेश करना चाहिए। लेकिन जैसा कि अब इतिहास बन चुका है, सवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और तदनुसार कॉमिंटर्न ने उनकी सलाह दरकिनार कर रूसी क्रांति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा मॉडल की तरह पेश किया और सर्वहारा की तानीशाही को पार्टी और पार्टी नेतृत्व की तानाशाही में तब्दील हो गयी। कॉमिंटर्न लेनिन की भी  सलाह को दरकिनार कर पार्टी में नौकरशाही को पनपने दिया जिसकी अंतिम परिणति सोवियत संघ के पतन में हुई। चूंकि रूस में पूंजीवादी क्रांति नहीं के अभाव में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की दुहरी जिम्मेदारी थी, औद्योगिक विकास और समाजवाद का निर्माण। पहली जिम्मेदारी इसने बखूबी निभाकर साबित कर दिया कि राज्य नियंत्रित पूंजीवाद निजी मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद से तेज आर्थिक विकास होता है. दूसरे विश्वयुद्ध तक 15-20  सालों में ही सर्वाधिक शक्तिशाली पूंजीवादी देश अमेरिका के समतुल्य आर्थिक और सैनिक शक्ति बन गया। पार्टी में अलोकतांत्रिक एकाधिकारवाद और नेतृत्व से असहमत क्रांति के साथियों के सफाया और कारावास की कहानियों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, न ही दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध के दौर में पूंजीवादी साम्राज्यवाद  से प्रतिस्पर्धात्मक वर्चस्व की लड़ाई में सामाजिक साम्राज्यवाद पर चर्चा की। इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रंधीर सिंह की पुस्तक समाजवाद का संकट में इसका सटीक विश्लेषण किया गया है। स्टालिन की मृत्यु के बाद पार्टी नेतृत्व ने सोवियत संघ को सब लोगों का राज्य घोषित कर दिया।

ईश मिश्र
17 बी विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007


Saturday, August 26, 2017

मोदी विमर्श 62

पंजाब हरयाणा हाई कोर्ट ने खट्टर पर बलात्कारी को प्रोत्साहन और इरादतन उत्पात को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है। खट्टर इस्तीफा नहीं देंगे क्योंकि शर्म संघी नैतिकता से परे एक क्रांतिकारी अनुभूति है। ऐसी ही विवेकपूर्ण अंतर्दृष्टि 2002 में यदि गुजरात हाई कोर्ट के जजों ने दिखाया होता तो देश शायद क्लीन चिटिए नसंहारियों और फर्जी-मुठभेड़ियों के हाथों गुरात का विकराल रूप होने से बच जाता।

Friday, August 25, 2017

मार्क्सवाद 75 (रेल निजीकरण)

कल MTNL के एक लाइनमैन, ठाकुर सिंह ने रेल हादसों की बहुत सटीक समीक्षा के साथ बताया कि यह ये रेल बेचने की तैयारी के हिस्से हैं। "रेल सरकारी है इसलिए रेल-यात्रा खतरनाक हो गयी है, यह नहीं कहेंगे ये हादसे इसलिए हो रहे हैं कि रेल सेवाएं (पटरी मरम्मत समेत) टेंडर-कमीसन के आधार पर ठेके पर दी गयीं हैं, ठेकेदार का काम हादसा बचाना नहीं, कमीसन की वसूली और मुनाफा है। पहले रेल के अपने कर्मचारी होते थे जो अपनी बिना इंजन की गाड़ी से लाल झंडे के साथ पटरी का मुआयना-मरम्मत करते रहते थे और इस तरह हादसे बच जाते थे। उन्होंने रेल में कैटरिंग के निजीकरण और रेल प्लेटफॉर्म से रोजी कमाने वाले करोड़ों वेंडर जो 150 साल देश की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं थे, एकाएक खतरा बन गए और जबरन अदृश्य कर दिए गए। किसी को पता नहीं वे कहां गए, चोरी-राहजनी कर रहे होंगे या भट्ठा-मजदूरी और बहुत से कुंठा में नशा करके मर गए होंगे।" ठाकुर सिंह साल भर में रिटायर होने वाले हैं, पेंसन मिलेगी। लेकिन उनकी चिंता यमटीयनयल की निजी हाथों बेचने की सरकारी मंसूबों को लेकर है। उन्होंने बताया कि 1984 से यमटीयनयल में लाइनमैन की नियुक्ति बंद है। "पिछले साल तक इस जोन में हम 4 थे। पिछले महीने कलम सिंह के रिटायर होने के बाद मैं अकेला बचा हूं, कोशिस करता हूं सभी कंप्लेंट कर लूं लेकिन 4 आदमी काम काम अकेले करने में कुछ छूट ही जाता है। अब सरकार कहेगी कि सरकारी उपक्रम होने के चलते इसकी सेवा खराब है और बेच देगी।"

मार्क्सवाद 74 (लंपट सर्वहारा)

खास संदर्भ में ही मर्क्सवाद लागू होता है। माटी पर न शर्म आना चाहिए न ही गर्व करने की बात है, एक वस्तुनिष्ठ समीक्षा का साहस होना चाहिए। न माटी की न भाषा की कोई समरूप संस्कृति होती है बल्कि संस्कृतियां होती हैं, नहीं तो मार्क्स और हिटलर की एक ही संस्कृति होते! इस पर विस्तार से लिखूंगा। वैसे शर्म एक क्रांतिकारी एहसास है। किसी की सांस्कृतिक चेतना पर माटी के अलावा तमाम कारकों का असर होता है, नहीं तो सहाब्बुद्दीन और चंद्रशेखर दोनों एक ही माटी, एक ही भाषा के थे। चलो इस पर फिर विस्तार से लिखूंगा, एक अति विलंब से लंबित काम कर लूं। मेरा गांव भोजपुरी-अवधी बोलता है और नदी उस पार का पड़ोसी गांव अवधी-भोजपुरी। पूर्वी उ.प्र. की मई-जून की 2 यात्राओं में मैंने पाया कि आजकल क्षेत्र में लंपटता की संस्कृति का वर्चस्व है। कारणों की समीक्षा की जा सकती है। लड़क पर 90% लोग भगवा गमझे में बकैती करते दिखते हैं. भगवा गमछे के साथ मोटर साइकिल की प्लेट पर रजिस्ट्रेसन नंबर की बजाय जय बजरंग बली.... । 10 लंपट किसी शरीफ आदमी को घेर कर तंग करेंगे और मजाक बनाएंगे और 20 बुजुर्ग मजा लेकर तमाशा देखेंगे। इसके कारणों की समीक्षा होनी चाहिए, लेकिन वस्तु स्थिति यही है, कुछ निष्ठा से और कुछ भय से लंपटता करते हैं।

मार्क्सवाद 73 (लंपट सर्वहारा)

मैंने कहा यार इस पर विस्तार से फिर लिखूंगा, पहले भी अपने कई लेखों और फेसबुक पोस्ट्स में लिख चुका हूं। मैं कभी शब्दों के जाल में नहीं उलझाता साफ-साफ कहता हूं और ऊपर मैंने कहा कि आजकल हमारे क्षेत्र-पूर्वी उ.प्र (अवधी-भोजपुरी इलाके) में सड़कों पर दिखती संस्कृति लंपटता और आपराधिक असहिष्णुता की संस्कृति का वर्चस्व है, इसके कारणों की समीक्षा होनी चाहुिए। ब्राह्मणवाद-नवब्राह्मणवाद पर लेख का वक्त अभी नहीं है। मैंने वायदा किया लिखूंगा, अभी कुछ विलंबित डेड लाइन पूरा कर लूं। काम या विचार की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूल मंत्र है, जो जन्मना अब्राह्मण ऐसा करता है वह नवब्राह्मणवादी है. बाकी आप मेरे अंदर दक्षिणपंथी विचलन ढूंढ़ने को स्वतंत्र हैं।

विपक्ष का आपराधिक मौन

पक्ष तो धर्मांधता की बुनियाद पर सत्ता की सीढ़ी चढ़ा ही है
मोदी ने मंच से बाबा बलात्कारी का कसीदा पढ़ा ही है
अटल जी आध्यात्म में नाचते थे बापू आशाराम के साथ
नहीं जानते थे शायद वे उसके बलात्कारी होने की बात
मचा रहे हों जब बलात्कारी के भक्त भीषण उत्पात
विपक्ष को क्यों मार गया है आपराधिक मौन का सन्निपात?
आपराधिक आध्यात्मिकता में रहा है उसका भी हाथ
अभी जनता में भी नहीं है वह नैतिक जज्बात
कि उमड़े नस्लवाद के खिलाफ बोस्टन सा जनसैलाब
(ईमि: 26.08.2017)

युवा उमंगें

युवा उमंगों की लहरों पर दुनिया की आजादी फलती है
उस ओर जमाना झुकता है जिस ओर जवानी झुकती है
तुम्हे मालुम नहीं मगर बना रहे हो तुम एक नया इतिहास
जहां हवा को पीठ देने का ही रहा हो रिवाज
प्रतिरोध की संस्कृति की शुरुआत है बड़ी बात
पढ़ते भी रहो लड़ते भी रहो आगे ही सदा बढ़ते ही रहो
(हिंदू कॉलेज के प्रदर्शनकारी छात्रों के नाम)
(ईमि: 26.08.2017)