Thursday, June 28, 2012

ज्ञान

ज्ञान वही जो मुक्ति दे
व्यभिचार और अहंकार से
 पूर्वाग्रह और दुराग्रह से
भगवान और भूत के अज्ञात, अमूर्त भय से

बहस के लिए बहस

tHIS IS A COMMENT ON A POST on FB Araun Jihind Anton Chekhov का एक बहुचर्चित उद्धरण है, "Art for art sake is crime", मेरे लिए बहस के लिए बहस एक अपराध है, बहस विमर्श के लिए होनी चाहिए. मैं शिक्षक और लेखक हूँ. किसी ऐसे विद्यार्थी के ऊपर समय नष्ट करना जो बिना पढ़े-लिखे पहले से ही विद्वान हो, अन्य विद्यार्थियों के साथ अन्याय होगा और समय की की बर्बादी. इसलिए आप जैसे ज्ञानियों के सवालों का जवाब देना मेरे जैसे साधारण शिक्षक के लिए संभव नहीं है. आप लगता है विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं क्योंकि इतनी अ(ति)वैयानिक सोच अक्सर विज्ञान के हेई विद्यार्थियों की होती है(मैं भी था, लेकिन मेरे ऊपर क्लारूम के बाहर विमर्शों का ज्यादा अजार पड गया) जो त्रासद और दुर्भाग्यपूर्ण है. एक शिक्षक के नाते जिन विषयों पर आप फैसलाकुन फतवे दे रहे हैं: न्क्सलवाद क्या है? नक्सल्बाडी की विरासत के कितने दावेदार हैं? कितने संसदीय राजनीति कर रहे हैं? कहाँ-कहाँ कितनी वसूली करते हैं, आपका एक कल्पित या वास्तविक आदिच्वासी, आदिवासियों का प्रतिनिधि है क्या? कौन से संविधान की रक्षा के लिए आदिवासी गाँव जलाए जा रहे हैं, बा�लात्कर और हत्याएं हो रही हैं? इस पर मैंने एक लिंखा था(see RADICAL ishmishra.blogspot.com) कम-से-कम अखबारी ख़बरें तो रखें. आपने चुन चुन कर विशेषण इस्तेमाल किये हैं क्या आपने अपने अंदर कभी झांका है कि पढाई करके किसी भी तरह(मैं जनता नहीं आप क्या करते हैं, लेकिन नौकरियों के लिए जोड़-तोड़ आम बात है) नौकरी हासिल करके खाने-जीने और बिना-पढ़े-लिखे वर्चल वर्ल्ड में लफ्फाजी के अलावा आपने जिस देश, समाज के प्रति वफादारी की कसमें खा रहे हैं, उनके लिए क्या किया है? चंद्र शेखर सीपीआई(माले)[लिबेरेसन]) का कार्यकर्ता था और ३ बार जवाहरलाल विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष रह चुका था. बहुत ही मेधावी छात्र था. अमेरिका में पी.एच.डी की छात्रवृत्ति को ठुख्राकर सिवान में लोगों को गुंडागर्दी के खिलाफ लामबंद करते हुए गुंडे सहाबुद्दीन के हाथों मारा गया. आज़ाद ने १९७४ में म.टेक. किया था किसी कार्प्रेसन में लाखों की पॅकेज के साथ अधिकारी होते. फुर्सत हो तो मेरे ब्लॉग में एक लंबी कविता पढ़ लें: Civility introduces Duality. इस पोस्ट पर यह मेरा अंतिम कमेन्ट है. मैं सीपीआई(माओवादी) का समर्थक नहीं हूँ लेकिन आग्रह है कि जो व्यक्ति सुख-सुविधा का कैरियर छोड़कर सर पर कफ़न बाँध कर लिकलते हैं, उनकी समझ से मतभेद हो सकता है लेकिन उनकी नीयत पर संदेह नहीं.

Wednesday, June 27, 2012

भारत का नव-मैकार्थीवाद



असाधारण क़ानून और जनतंत्र : भारत का नव-मैकार्थीवाद
ईश मिश्र
नक्सलवाद-विरोधी अभियान के तहत बीज-महोत्सव में शिरकत करने एकत्रित, आदिवासियों की सभा पर अंधाधुंध गोलीबारी करके १२ से १६ साल के ४ बच्चों समेत १९ आदिवासियों की छत्तीसगढ़ पुलिस और सी.आर.पी.एफ. द्वारा नियोजित ह्त्या, जलियाँवाला बाग की एक और पुनरावृत्ति है. हिंदू में छपी एक खबर के अनुसार ४ किशोरियों का ह्त्या के पहले यौन-उत्पीडन भी हुआ था. यह तमाम भूमण्डलीय कारपोरेटों के साथ केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अनुबंधों(MOU) का सम्मान करने के लिए आदिवासियों को बेदखल करने की दीर्घकालीन कार्यनीति की एक और कड़ी है. “मुठभेड़” के बाद तुरंत बाद गृह मंत्री, चिदंबरम ने  मारे गये आदिवासियों को, सी.आर.पी.एफ. के निदेशक के सुर-में-सुर मिलाते हुए, अविलम्ब उन्हें उसी तरह  माओवादी घोषित कर दिया. जैसे आनातंक-वाद विरोधी तथाकथित मुठभेड़ों में आडवानी जी  मृतकों के नाम-पता के साथ उनके पाकिस्तानी होने की घोषणा कर देते थे. अब जब छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी भी इसे फर्जी मुठभेड़ बताने लगे, तब भी चिदंबरम साहब निश्चितता से कहते हैं कि जो मारे गए सब माओवादी थे अगर कोई निर्दोष मारा गया तो उसका उन्हें खेद है. अमेरिकी स्वचालित ड्रोन विमानों से पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमान्त इलाकों में आतंकवादियों की ह्त्या की जाती है और मारे गए निर्दोषों के लिए ओबामा साहब खेद व्यक्त कर देते हैं. गौरतलब है कि इन गाँव को २००५ में पुलिस और सलवाजुडूम ने तहस-नहस कर दिया था, गावों के लोग आतंक से अगल-बगल के इलाकों में भाग गए थे. २००९ में लोग फिर वापस आये और तिनका-तिनका जोड कर फिर से गाँव बसाया. लेकिन अब लोग भी लड़ने को तैयार हैं, अब भागेंगे नहीं. गौरतलब है कि तमाम जनतांत्रिक संगठनों द्वारा इन अनुबंधों को सार्वजनिक करने की मांग को सरकारें अनसुनी करती रही हैं. बहुत से गाँवों के तमाम गाँव वाले पड़ोसी राज्यों, उड़ीसा और आँध्रप्रदेश में शरण लिए हुए हैं. यह माओवाद-विरोधी अभयान के नाम पर, नरसंहारों और तरह तरह के जोर-ज़ुल्म से आदिवासियों को आतंकित करके, भूमण्डलीय कार्पोरेटी पूंजी द्वारा उनकी प्राकृतिक संपदाओं के दोहन और शोषण के लिए के जनता के विरुद्ध अघोषित युद्ध है. इसके लिए विशिष्ट परिस्थियों के नाम पर, सरकारें गैरकानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून(यू.ए.पी.ए.) जैसे असाधारण काले क़ानून बनाती हैं.  

मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं पत्रकार सीमा आज़ाद एवं विश्व विजय को, इलाहाबाद की एक अदालत ने गैरकानूनी गतिविधि रोक थाम अधिनियम(यू.ए.पी.ए.) की विभिन्न धाराओं के तहत  माओवादी होने और लोगों को नक्सल बनने को प्रेरित करने  के आरोप में आजीवन कारावास दे दिया. ये दोनों, पति-पत्नी, एक मानाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज का(पी.यू.सी.एल.) के सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं और तमाम किस्म के माफिआओं और उनके राजनतिक आकाओं की सांठ-गाँठ का भंडाफोड़ करते थे. सीमा पी.यू.सी.एल की उत्तर प्रदेश इकाई की संगठन-मंत्री हैं और दस्तक पत्रिका की संपादक. सीमा दस्तक में अपने  लेखों के जरिये इलाहाबाद और कोशाम्बी जिलों के सैंड-माफिया और लैंड-माफिया के साथ राजनेताओं के घनिष्ट संबंधों को तथ्यों और तर्कों से उजागर करती थी. कारपोरेट घरानों के   लिए जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों के आन्दोलनों के बारे में लिखती थी. फरवरी २०१० में दिल्ली पुस्तक मेले से किताबें खरीद कर वापस इलाहाबाद आ रहीं थी कि स्टेसन पर ही पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. कहा गया कि उनके पास से आपत्तिजनक साहित्य पाया गया है जिससे इनका माओवादी होना साबित होता है. डा. विनायक सेन का मामला तो सर्वविदित है जिन्हें माओवादी समर्थक होने के आरोप में २ साल बंद रखा गया और व्यापक अभियान के बाद उच्चतम न्यायालय से उन्हें जेल से बाहर निकल सके. व्यवस्था और उसकी लूट का विरोध करने वाले कितने ही राजनैतिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी देश की विभिन्न जेलों में अमानवीय यातना सहते हुए जी रहे हैं. टाटा के लिए भूमि-अधिकरण के विरुद्ध विस्थापन बिरोधी जनमंच के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के सभी कार्यकर्ताओं और नेताओं पर दर्जनों फर्जी मुकदमें हैं और जैसे ही कोई गाँव से बाहर निकलता है, गिरफ्तार कर लिया जाता है. १६ आंदोलनकारी मारे जा चुके हैं. विस्थापन बिरोधी जनमंच की महिला प्रकोष्ठ की पूर्व अध्यक्ष सिनी सेनोय को माओवादी कहकर गिरफ़्तार कर लिया. यही हाल सारे विस्थापन-विरोधी, खनन-विरोधी, भूमि आन्दोलनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भी लागू होती है. पास्को-प्रतिरोध संघर्ष समिति के अध्यक्ष, अभय साहू जैसे ही प्रतोरोध क्षेत्र छोड़ कर किसी सम्मेलन में भाग लेने बाहर गए किसी पुराने फर्जी मामले में गिरफ्तार कर लिए गए. नारायणपटना के शान्ति-पूर्ण भूमि आंदोलन के कार्यकर्ताओं का  माओवादी बताकर दमन किया जा रहा है. नारायण पात्रा को स्कूल शिक्षिका सोनी सोरी के साथ माओवादी होने के आरोप में अमानवीय अत्याचार लगातार ख़बरों में रहा है और उसके जनानागों में कंकड-पत्थर डालने जैसे घृणित दुष्कर्म को अंजाम देने वाले पुलिस अधिकारी को ममता बनर्जी से जादवपुर विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने एक सभा में उनके एक साल के बहुप्रचारित सुशासन पर कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ दिया तो वे गुस्से में उसे और तमाम छात्रों-शिक्षकों पर माओवादी होने का शक जाहिर करते हुए गुस्से में सभा से निकल गयीं. सुनते हैं गुप्तचर विभाग को इनकी निगरानी का निर्देश दिया है. गणतंत्र दिवस पर सम्मानित किया जाता है. ममता बनर्जी से जादवपुर विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने एक सभा में उनके एक साल के बहुप्रचारित सुशासन पर कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ दिया तो वे गुस्से में उसे और तमाम छात्रों-शिक्षकों पर माओवादी होने का शक जाहिर करते हुए गुस्से में सभा से निकल गयीं. सुनते हैं गुप्तचर विभाग को इनकी निगरानी का निर्देश दिया है.  यह तो अति-संवेदंशीएल(एक्स्पेस्नल) परिस्थितियों के लिए बनाए गए असाधारण (एक्स्ट्रा-आर्डिनरी) कानूनों के तहत राजनैतिक विरोधियों और लोकतांत्रिक तकातों के दमन के अनंत समुच्चय के चंद उप-समुच्चय हैं. विरोध को कुचलने की सरकारों की इस तरह की प्रवृत्ति को नव-मैकार्थीवाद कहा जा सकता है.

मार्क्स और एंगेल्स ने १८४८ में कम्युनिस्ट घोषणा पात्र के प्राक्कथन में पोलेमिकल अंदाज़ में लिखा कि कम्युनिज्म का भूत यूरोप का पीछा कर रहा था. उसके १०० साल बाद वह भूत अमेरिका में साक्षात अवतरित हो गया. शीत-युद्ध के इस शुरुआती दौर में कम्युनिज्म और सोविएत संघ के प्रभाव का भय चरम पर था. रिपब्लिकन सेनेटर मैकार्थी ने सरकारी प्रतिष्ठानों, विश्वविद्यालयों,शोध-संसथानों, फिल्म-उद्योग; संस्क्रतिकर्मेमियों; स्कूल शिक्षकों, छात्रों की एक लंबी सूची तैयार किया (हालीवुड ब्लैक-लिस्ट) जिन पर कमुनिस्ट/कम्युनिस्ट समर्थक यानि सोवियत जासूस होने और देश द्रोह एवं गद्दारी के आरोप लगाए. इस  “अतिसंवेदनशील” थिति से निपटने के लिए अमेरिकी प्रशासन ने कई “असाधारण क़ानून” बनाए. कम्युनिस्ट गतिविधियों की जांच के लिए कांग्रेस ने गैर अमेरिकी गतिविधियों की हाउस कमेटी(House Committee on Un-American Activities); सेनेट की आंतरिक सुरक्षा कमेटी(Senate Internal Security Committee ) और जांच पर सेनेट की स्थायी कमेटी( Senate Permanent Sub Committee on Investigations) का गठन किया. १९४९ से ११९५४ के दौरान इन कमेतियों ने १७९ जांच किया. कालान्तर में मैकार्थीवाद बिना किसी साक्ष्य के देश-द्रोह या सोवियत जासूस का आरोप लगाने और असाधारण कानूनों के तहत विरोधियों के उत्पीडन का पर्याय बन गया.आज के हिन्दुस्तान के हालात १९५० के दशक के अमेरिका में मैकार्थीवाद(मैकार्थिजम) की याद दिलाता है. यह दौर अमेरिका के इतिहास में लाल आतंक का दूसरा दौर नाम से जाना  जाता था.

आज हिन्दुस्तान के शासक वर्गों को नक्सलवाद का भूत सता रहा है. दर-असल नक्सलवाद का हौव्वा खडा करके इनका मकसद लूट-भ्रष्टाचार और शोषण के मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाना और साम्राज्यवाद और आम जनकता के मुख्य अंतर्वोरोध की धार को कुंद करना है.  मैकार्थिज्म के तहत किसी को भी कम्युनिस्ट समर्थक होने के संदेह में तरह तरह की यातनाएं दी जाती थीं. आइन्स्टाइन जैसे विज्ञानिकों पर एफ.बी.आई. निगरानी रखती थी. ............... ने सूचना की अधिकार के तहत प्राप्त सामग्रियों को संपादित करके आइन्स्टाइन फ़ाइल शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित किया है. एफ.बी.आई के निदेशक एडगर होवर ने २३ साल तक आइन्स्टाइन की खुफियागीरी किया, उन्हें सोवियत जासूस साबित करने और नागरिकता ख़म करने के प्रयास में उनके फोन टेप करने और चिट्ठियाँ पढ़ने का काम एफ.बी.आई करती रही थी.जिस तरह १९५० के दशक में अमेरिका में, सेनेटर मैकारथी की समाज के विभिन्न तप्कों/व्यवसायों में कम्युनिस्टों की मौजूदगी की मनगढंत सूची के आधार पर  “लाल आतंक” का हौव्वा खड़ा करके, तमाम काले कानून बनाए जिनके तहत किसी भी कलाकार, वुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता का मैकार्थिज्म के तहत “लाल शिकार” किया जा सकता था, उसी तरह की प्रवृत्ति आज किसी भी विरोध को दबाने के लिए, आदिवासी इलाकों में कारपोरेट को खुली लूट की छूट के कंटकों को हटाने के उद्देश्य से विस्थापन विरोधी आन्दोलनों को कुचलने के लिए माओवाद का हौव्वा खड़ा करके भारत की सरकारें संविधानेतर क़ानून बबनाकर लोगों के मानवाधिकारों का हनन करती रही हैं. १९५३ में, अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर आइन्स्टीन और अन्य समकालीन बुद्धिजीवियों और मनावाहिकार कार्यकर्ताओं के अथक प्रयास के बावजूद,  मैनहट्टन परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक पति-पत्नी, जुलिअस और ईथैल रोजेनबर्ग, कम्युनिस्ट समर्थक यानी सोविएत जासूस के आरोप में सिंग-सिंग चेयर पर बैठने से नहीं बच सके. जिस पर भी संदेह हुआ उसे ‘हाउस ऑफ अन-अमेरिकन कमेटी’ के सामने पेश हो कर ‘गुनाह’ कबूल करना पड़ता या फिर ‘विशेष अदालत’ में मुकदमा. सलवा जुडूम की तर्ज पर तमाम निजी जांच एजेंसियां और सुरक्षा इकाइयां सरकारी प्रश्रय पर फूलीं-फलीं.

भारत के माननीय प्रधान मंत्री, मनमोहन सिंह, माननीय गृह मंत्री श्री पी. चिदंबरम को हर बात में देश के लिए नक्सलवाद देश की सभी समस्याओं की जद है और देश के लिए खतरा. माननीय गृह मंत्री प. चिदंबरम एवं अन्य नेता चाहे परमाणु खतरे पर बोल रहे हों या भू-माफिया की किसानों की जमीन से बेदखली पर; आकंठ व्याप्त भ्रष्टाचार पर या देश की बाजार को बड़े-विदशी कापोरेट घरानों को गिरवी  रख कर लाखों लोगों को बेरोजगार करके उपभोक्ता को उनके रहमों करम पर छोड़ने का मामला हो उन्हें एकाएक सभी का मूल नक्सलवाद/माओवाद नज़र आता है. इससे निपटने और आदिवासियों तक “विकास”  पहुंचाने” के लिए सुरक्षाबलों की संख्या और सुविधाओं के लिए करोड़ों के बजट का ऐलान करते हैं. नक्सलवाद/माओवाद के भूत का असर इन पर उस समय ज्यादा होता है जब ये अमरीका की तीर्थयात्रा से लौटे होते हैं. नक्सलबाड़ी की विरासत के अन्य दावेदारों की उपस्थिति से अनभिग्य ये नक्सलवाद और माओवाद का एक दूसरे के पर्याय के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इनके ही नहीं, नहीं देश के तमाम मंत्रियो-मुख्यमंत्रियों; सीपीयम समेत तमाम झंडों की पार्टियों के लंबरदारों; नौकरशाहों-सुरक्षा अधिकारियों; “मुख्य-धारा” के पत्रकारों और वुद्धिजीवियों, सभी पर रह-रह कर नक्सलवाद का भूत सवार होता रहता है.

इस लेख का उद्देश्य मैकार्थीवाद का विश्लेषण या उसके तहत अमेरिकी तंत्र की बर्बर क्रूरताओं का वर्णन करना नहीं है, न ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की वैचारिक समझ या राजनैतिक कार्रवाइयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन है. वैसे हाल की आहान की कार्रवाइयों में माओवादियों की मांगो का केन्द्रीय बिंदु निर्दोषों और नारायणपटना जैसे जनतांत्रिक भूमि आंदोलानों के कार्यकर्ताओं की रिहाई है. अभी मध्यस्तों के माध्यम से केन्द्रीय जैराम रमेश ने भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा एवं माओवाद प्रभावित राज्यों की जेलों में सालों-सालों से अमानवीय यातना झेल रहे आदिवासी निर्दोष हैं और उनपर फर्जी मुकदमें थोपे गए हैं. इसका मकसद यह दिखाना है कि कथनी-करनी के साश्वत अंतर्विरोध के दोगले चरित्र का हिमायती संसदीय जनतंत्र तभी तक जनतांत्रिक रहता है, जब तक कोइ ख़तरा न हो, राजनैतिक विरोध को हद पार करने से रोकने के लिए, संविधानेतर, अजनतांत्रिक, असाधारण कानूनों का सहारा लता है.

विनायक सेन को माओवादी समर्थक होने के आरोप में दो साल से अधिक जेल में रहने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर अभियान के चलते जमानत मिल सकी. आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी को माओवादी होने के आरोप में बंद करके हर युग की क्रूरतम बर्बरताओं को धता बताते हुए उसके जननांगों में कंकड पत्थर ठूंसने की हद तक प्रताडित किया गया.और दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र में इस ‘बहादुरी’ को अंजाम देने वाले ‘जांबाज’ पुलिस अधिकारी को गणतंत्र-दिवस पर पदकों से सम्मानित किया गया. पत्रकार लिंगा कोदोपी भी माओवादी होने के आरोप में जेल बंद यातनाएं झेल रहा है. विनायक सेन तो खुली हवा में घूम रहे हैं लेकिन कितने और निर्दोष “गैर कानूनी” कानूनों के तहत जेल के सिकंजों में बंद हैं. यह सब संविधान सम्मत असाधारण कानूनों के तहत किया जाता है.

विनायकसेन की ही तरह न जाने कितने लोग अवैध गतिविधि रोकथाम अधिनियम(यु.इ.पी.इ.); छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम जैसे संविधानेतर, असाधारण कानूनों के तहत सालों साल से कितने लोग हिन्दुस्तान की कितनी जेलों में बंद हैं?चर्चित फिल्म इन द नेम ऑफ फादर की विषय-वास्तु,  इंग्लैण्ड में गिल्ड फोर और बिर्मिन्गम सिक्स जैसे चर्चित मुकदमों में निषेधात्मक बंदी अधिनियम,(पी.दी.इ.) १९७४ के तहत संदेह के आधार पर बंद लोगों को अदालत ने १७ साल (१९७४-९१) जेल में रखने के बाद निर्दोष पाया गया. अमेरिका में, 9/11 के बाद PATRIOT जैसे असाधारण कानूनों के तहत गिरफ्तारिया और उत्पीडन की कहानियां किम्वदंतिया बन चुकी हैं. “विशिष्ट परिस्थियां” और उनसे निपटने के लिए, संविधान सम्मत “असाधारण“ क़ानून जनतांत्रिक शासन के अभिन्न अंग बन चुके हैं. इस तरह के असाधारण कानोंओं के तहत भारत में असंख्य लोग विभिन्न जेलों में अमानवीय स्थियों में रह रहे हैं. भारत के लोकतंत्रिक शासन के ये अलोकतांत्रिक, असाधारण क़ानून  न र्सिर्फ़ कानूनी प्रावधानों को धता बताते हैं बल्कि लोकतंत्र और न्याय के सिद्धांतों की भी धज्जियां उड़ाते हैं. इन लोकतांत्रिक क़ानूनॉन को संविधान की मान्यता प्राप्त है और इन्हें अपरिहार्य अपवाद माना गया है.

भारत में असाधारण कानूनों का इतिहास सविधान लागू करने के साल से ही शुरू हो जाता है. १९५० में तेलंगाना किसान आंदोलन से निपटने के लिये तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने संसद में निषेधात्मक बंदी अधिनियम (प्रिवेंटिव दितेंसन एक्ट पी.डी.ए.), १९५० पारित कराया.१९५८ में नगा विद्रोह से निपटने के लिए फ़ौज को बिना किसी जवाबदेही के असीमित अधिकार देने वाला सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम(आर्म्ड फोर्सेस स्पेसल पावर ऐक्ट –ए.एफ.एस.पी.ए.),१९५८ आज भी पूर्वोत्तर राज्यों और काश्मीर में लागू है और हजारों लोग मौत के शिकार हो सके हैं और बलात्कार एवं एनी अत्याचारों की कहानियां अनंत हैं. गृह मंत्रालय में काश्मीर में फर्जी मुठभेड़ों और सुरक्षाबलों के एनी जघन्य अपराधों के कितने मामले मुकदमें की अनुमति के लिए लटके पड़े हैं.  इस काले क़ानून के खात्मे की इरोम शर्मीला की भूख हड़ताल गिन्नी’ज बुक में जा चुकी है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितनी गुहार लगाई जा चुकी है, पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं लेकिन शर्मीला का जनतांत्रिक अनसन से इस "जनतान्त्रिक सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगा.

१९७५-७७ के आपातकाल के बाद इस तरह के कानूनों पर लंबी बहस के बाद मीसा जैसा फासीवादी क़ानून हटा तो लेकिन उससे भी खतरनाक कानून बने. टाडा,१९८५  के तहत मासूमों पर तमाम तमाम ज़ुल्म इतिहास का हिस्सा बन गया है. टाडा की जगह उसके सारे अधिनायकवादी प्रावधानों को समाहित करके पोटा २००२ बना जिसका इस्तेमाल राजग सरकारों ने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए किया. पोटा को हटाकर अब यु.ए.पी.ए. बिया सुनवाई गिरफ्तारी का क़ानून बन गया है. इसमें टाडा और पोटा दोनों के ही सारे अधिनायकवादी प्रावधानों को समाहित किया गया है. अमेरिका में जिस तरह असाधारण कानूनों के तहत जनतांत्रिक सोच का दमन हो रहा था कुछ वैसा ही नव्मैकार्थीवाद आज भारत में देखने को मिल रहा है. देश की सभी जनतांत्रिक ताकतों को इन अजनतांत्रिक असाधारण कानूनों के विरुद्ध लामबंद होने की जरूरत है.  

Wednesday, June 20, 2012

नाखुदा की खुदाई

बहुतों को खुशफहमी होती है
खुद को भगवान समझ लेने की
 लाइट हाउस के टिमटिमाती रोशनी को
सूरज बता देने की
एक अदना से पड़ाव को
मंजिल मान लेने की
 ऐसे लोग दुर्वुद्धि के शिकार होते हैं
तरस आती है इन पर
जो आहंकार के बोझ तले दब जाते है. 

दाढ़ी

१९८५-८६ की बात होगी. मैं अपनी वनस्थली में स्कूल में पढ़ती अपनी बहन के साथ घर जा रहा था, हमारे आस-पास एक हिन्दू परिवार था और कुछ बुरके वाली महिलायें थीं. तभी शिला-पूजन वगैरह के उन्मादी अभियान चलाये जा रहे थे. जैसा कि अक्सर होता है, 'वन-वर्सेज आल' बहस में उलझ गया. हिन्दू परिवार हमसे दूरी बना लिया और गोल टोपी वालों के चेहरों पर परेशानी झलक रही थी. मैं बाथरूम गया तो हिन्दू परिवार के पुरुष ने बहन से नाम पूंछा और उसने बता दिया फिर यह कि यह कि मैं उसका कौन हूँ? जब उसने भाई बताया तो उन लोगों ने पूंछा फिर दाढ़ी क्यों रखते हैं? (दाढ़ी तब काली थी और सर पर बाल भी, हा हा)मेरी बहन ने यह बात उनके उतरने पर बताई और एक क्लास की मेरी ऊर्जा बच गयी. घर जाकर एक कहाने लिख मारी, विभास दा की दाढ़ी, जो कालान्तर में कहीं खो गयी. विभास दा एक पेंटर हैं पेंटिंग के साथ वे एक्सपेरिमेंट करते रहते थे और दाढ़ी के साथ भी.एक बार अरबी शैली की दाढ़ी में ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. तभी कहीं कोई "राष्ट्र-भक्ति" की कोई उत्पात करके कुछ देश भक्त आ रहे थे और उनकी निगाह विभास दा पर पड गयी, मुल्ला होने के चक्कर में काफी लात-जूते खा चुकने के बाद उन पर एक सीनियर देश-भक्त की नज़र पद हाई जो उन्हें जानते थे और चिल्ला पड़े, 'अरे क्या कर रहे हो ये तो विभाष जी है बड़े कलाकार. देश भक्तों ने विभास दा के बटुक प्रदेश पर एक लात दिया और गाली देते हुए "साला कतुओं की तरह दाढ़ी क्यों रखता है?" और विभास दा ने उसी दिन स्टेसन से घर के रास्ते में शेविब्ग कित खरीदा और दाढ़ी को अलविदा कह दिया.

Academic fiefdom.

One friend on a Facebook forum asked a question , what should academically oriented scholars, not having a God father should do? Should he turn into a Naxcalite? This was my answer to that. unfortunately most of them do not turn into revolutionary, otherwise also, one becomes revolutionary out of choice not out of compulsion. Many look for a God father others look for other options including earning livelihood from intellectual labor market, as in capitalism, all of us, except the professional revolutionaries and capitalists,are condemned to do some alienated labor. In my last days in Allahabad I zeroed in on one priority. And did not posses any extra-academic qualification and had long been an authentic atheist and therefore no God and hence no Godfather.I will write anthology of my interviews lasting for more than 13-14 years. I openly say that 99.9% of teaching jobs are given on extra-academic considerations, if you are academically competent also, that is added qualification..1% accidentally, as I could get one at a relatively very late stage. If some one says that its been unjust that I got the job so late. I tell them, its other way round, question is, how could I get it at all. The solution is to make Professors conscientiousness and ethical and students as young radical brigands, ever-vigilantist.

Sunday, June 17, 2012

जनतांत्रिक भाषा

क्या हम उसी भाषा में बच्चों-बड़ों के साथ बात कर सकते हैं कि नहीं. फिलहाल छात्र-जीवन में मित्रों के साथ हम जिस भाषा में बात करते हैं, उसमें बड़े-बच्चों के साथ क्या, किसी शिष्ट मंच पर बात नहीं कर सकते. लेकिन हम ऐसी बातें ही क्यों करें जिसे बच्चों से छिपाना पडे? हम सब अपना बचपन याद करें तो बड़ों की जिन बातों से हमें दूर रखा जाता था, वे बातें हम उनसे ज्यादा जानते थे. मेरे जो मित्र मेरी तरह माँ-बाप [मैं दो बेटियों का फ़क्रमंद (फ़िक्रमंद नहीं) बाप हूँ,] हैं उनसे पूंछता हूँ कि क्या उनके माँ-बाप पूरी कोशिस के बाद उनकी फ्रीडम कंट्रोल कर पाए थे? जवाब हम सब जानते हैं, ‘हमारी फ्रीडम कौन कंट्रोल कर पाता?’ मैं उन्हें कहता हूँ नियंत्रण की वांछनीयता विवादित है, बिना बहस में गए, उन्हें सेट डाइलाग मारता हूँ, Every next generation is always smarter. जब प्रयास विफल होना अपरिहार्य है तो इसमें समय, ऊर्जा औरौर मन की शान्ति क्यों नष्ट करें. 

 हम जब बच्चे होते हैं तो सोचते हैं माँ-बाप को ऐसे नहीं ऐसे करना चाहिए और सबसे कष्ट होता था जब हमें सोचने के अधिकार से वंचित किया जाता था. हमारे बदले माँ-बाप/टीचर ही सोचते थे. जब हम माँ-बाप बन जाते हैं बचपन का कष्ट भूल कर बच्चों के साथ वही (क्योंकि हम तो बच्चों का भला ही चाहेंगे) अन्याय करते हैं. हम जब विश्विद्यालय में नए आते हैं अपमानजनक रैगिंग से इतने पीड़ित होते हैं कि कई आत्महत्या कर लेते हैं. एक साल बाद हम अपनी पीड़ा परसंतापी अंदाज़ में दूसरों को हस्तांतरित कर देते हैं. यही बात छात्र-शिक्षक/होस्टेलेर-वार्डन पर भी लागू होती है. हमें जीवन में juxtapose (दूसरे की जगह खुद को रखना) करना सिखाया ही नहीं जाता है. हर समाज अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से भाषा, कहावतें, मुहावरे, लोकोक्तियों, धर्म और देवी-देवता, आदर्श और स्मृतियाँ गढ़ते हैं इसी लिए देश-काल के अनुसार उनमें परिवर्तन होता रहता है. पूर्व-आधुनिक काल में इश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था, अब सामाजिक डार्विनवाद, Survival of the fittest  के प्रभाव में जो सक्षम है उसकी मदद करता है. 

हमारा समाज पारंपरिक रूप से वर्णाश्रमी-सामंतवादी, मर्दवादी समाज रहा है. कोई शब्द भी तटस्थ नहीं होता. जब हम लड़की को बेटा कहकर संबोधत करते हैं तो हम अनजाने में ही मर्दवादी मूल्यों का पोषण करते हैं. मुख्य वर्जित क्षेत्र क्या हैं, जो हम छोटे-बड़ों से छिपाते हैं और बड़े छोटों से? सभ्यता हमारे अंदर दुहरेपन का भाव भरती है, हम जो होते नहीं, वह दिखना चाहते हैं और इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण परिवार है. मुख्य वर्जित क्षेत्र हैं सेक्सुअलिटी और उससे जुडी गालियाँ. कुछ लड़कियां, जो थोड़ा ‘हीरो’(हीरोइन नहीं) बनतीहैं, अनजाने में, विचारधारा के गहरे प्रभाव में वही नारी-विरोधी, मर्दवादी, सेक्सिस्ट गालियाँ देने लगती हैं. मैं उन्हें समझाता हूँ, नई गालिया आविष्कार करो तब तक कमीने/चीकट जैसी सेकुलर गालियों से काम चलाओ. ये गालियाँ तटस्थ नहीं हैं, ये सेक्सुअलिटी, खासकर फेमेल सेक्सुअल्टी की मर्द्वादी अवधारणाओं से पैदा हुई हैं उर उन्हें पोषित करती हैं. ज़रा सोचिये, दो लोगों के अन्तरंगतम, पारस्परिक, सम्भागीदारी की स्वाभाविक क्रिया-कलाप को गाली के रूप में क्यों इस्तेमाल किया जाता है? दो सहभागियों में एक की भागीदारी पौरुष हो जाता है दूसरे का कलंक?

 २० साल पुरानी बात है, मेरे गाँव की एक आठवी क्लास की लड़की ने अपने किसी लम्पट सहपाठी से कभी बात-चीत कर ली थी और उसने गाँव के कुछ लड़कों के साथ मिलकर फैला दिया कि उसका उस लड़की से चक्कर है. लड़का तो चौराहे पर वीरगाथा बता रहा था और लड़की सभी के (घरवालों समेत) घृणा की पात्र थी. (वह लड़की अभी यूरोप के एक नामी संस्थान में अच्छे पद पर है.) सेक्स के इर्द-गिर्द सारे रहस्य, वर्जनाएं और सुचिताएं फिमेल सेक्सुअलिटी और फलस्वरूप पर्सनालिटी को मर्दवादी मानकों से नियंत्रित करने के उद्देश्य से निर्मित हैं. हम ऐसी लोकतांत्रिक भाषा का विकास क्यों नहीं कर सकते जो बच्चों को सोचने का अधिकार दे, औरतें, हर क्षेत्र में आगे रहने के बाद भी सेक्सुअलिटी सहित तमाम विमर्शों में क्यों नहीं शिरकत कर सकतीं? 

इसके लिए हमें संवाद की जनतांत्रिक भाषा गढनी पड़ेगी लेकिन यह तभी संभव होगा जब वे मूल्य जिनकी यह अभिव्यक्ति है.इस दिशा में पहले कदम के रूप में जेंडर-फ्री गालियों का आविष्कार करें, तब तक गालिया देना बंद करें. क्या जिस भाषा में हम मित्रों से बात कर सकते हैं क्या उसी भाषा में मा-बाप भाई बहन से? भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है वह जनतांत्रिक तभी होगी जब विचार/चेतना जनतांत्रिक होंगे और सही के अर्थों जब पारिवरिक संम्बंध जनतांत्रिक होंगे और परिणामस्वरुप सामाजिक मूल्य.

Saturday, June 16, 2012

शिक्षा

अरस्तू के हवाले से शिक्षक बता रहा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है हम छितरे बैठे सुन रहे थे पारस्परिक अविश्वास के साथ औरों को छोटा दिखारकर खुद बड़े बनाने के प्रयास के साथ. बाहर निकलकर बिछुड़ते हैं फिर मिलने के वायदे के साथ बढ़ती हूँ आगे नई मंजिलों के इरादे के साथ याद आता है आर्केमेडीज पर दिखती है मरीचिका ज्वार के साथ भाटे से पीछे खिसकने की विभीषिका बंद राजद्वार, "यह आम रास्ता नहीं है" पता नहीं इन राजपथों के चिकने धरातल आने-जाने वाले इक्के-दुक्के यात्रियों के गवाह भी छोड़ेंगे?. इससे बेहतर हैं ऊबड़ खाबड पगडंडियाँ जिनकी गीली मिट्टी कुम्हार बन कविता लिख देती है. वहीं होती हूँ वहीं से गुजर कर हिचकी आती किन-किन ख्यालों के साथ शायद किसी ने कहीं याद किया हो दर्ज किया हो तारीख के किसी पन्ने पर. धुल जम गयी है लेकिन अब मेरी तू-लेट की तख्ती पर दुनिया की जनसंख्या अब सिर्फ एक है शेष, अर्जुन के लक्ष्य के व्यर्थ भागों की तरह दृश्य-सीमा से बाहर. लेक्चर बोझिल लगता है दर्जे में नीद आती है रूसो को शास्त्र से मतलब नहीं था मैं अरस्तू नहीं समझ सकती.(शिक्षा)

Friday, June 8, 2012

समानता

2002 में गुजरात नसंहार के बाद गोधरा के एक कान्वेंट स्कूल में, अलग-अलग फ्लैंक्स में बैठे लड़की-लडको की एक क्लास के स्टुडेंट्स से लंबा संवाद कर रहा था. हिंदू लड़कों से पूंछा क्या वे अपने मुस्लिम सहपाठियों से वैसी ही मित्रर्ता की बातें करते हैं जैसे हिंदू सहपाठियों के साथ? जवाब था, 'हम क्यों करें'? यही सवाल मुस्लिम स्टुडेंट्स से पूंछा, उनका भी वही जवाब था, "वे नहीं करते तो हम क्यों करें"? यही सवाल मैंने फिर लड़के,लड़कियों से पूंछा. हम क्यों करें? अरे भाई एक दूसरे से बात नहीं करोगे और दिमाग में फितूर लिए घूमोगे कि हिंदू ऐसे होते हैं, मुसलमान ऐसे होते हैं; लड़के ऐसे होते हैं लड़कियां ऐसी होती हैं. खुल कर बात करोगे तभी तो पता चलेगा कि शरीर के जीववैज्ञानिक फर्क और प्रजजन में भिन्न भूमिकाओं या जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना के संयोग से भिन्न आस्थाओं से बावजूद सभी एक ही तरह के चिंतनशील इंसान हैं. असमानता के सारे पैरोकार, भिन्नताओं को श्रेष्टता-हीनता की असमानता के रूप में पारिभाषित करते हैं और गोल-मटोल तर्क (circular logic) से उसी परिभाषा से असमानताओं को सिद्ध करते हैं. इन सबका प्र-प्र-प्र... पितामह, अरस्तू कहता है जो विवेकहीन है वह दास है, विवेकहीनता का निर्धारण कैसे होगा? वे दास हैं इस सच्चाई से. यही बात वह महिलाओं के बारे में भी कहता है. हमें समझना पेडेगा कि भिन्नता असमानता नहीं है. समानता एक गुणात्मक अवधारणा है, मात्रात्मक नहीं.

Tuesday, June 5, 2012

साथ उसूलों का

साथ उसूलों का कभी छूटता नहीं
दिल साफ हो अगर, यकीं टूटता नहीं

Sunday, June 3, 2012

सेंट स्टीफन कालेज के प्रिंसिपल ने लड़कों के लए सीट आरक्षण का प्रस्ताव रखा था जो तमाम विरोध के चलते निरस्त हो गया. पिछले कुछ सालों से लड़किया ६०% अधिक एडमिसन पा रही हैं. पिछले 10-15 सालों से मेरे स्टुडेंट्स में, सामान्यतः, लड़कियां लड़कों से बेहतर कर रही हैं, परीक्षाओं में ही नहीं अन्यथा भी. कारण: वंचना की यादें ताजी हाँ, मुआ मिलते ही उनने चुनौती स्व्वेकार की और साबित करने की जल्दी में हैं.

बचपन 1

मेरा बचपन सांस्कृतिक रूप से पूर्व-आधुनिक वर्णाश्रमी सामंती परिवेश में बीता है. मेरे नाम से स्पष्ट है कि मैं रेखा के किस तरफ रहा होऊंगा. जब से होश सम्भाला दादा की उम्र के लोगों की पैलगी की आदत लग गयी थी. जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग से नहीं, परिवेश और समाजिककरण से "नैसर्गिक श्रेष्ठता" की भावना अपने आप दिल में बैठ जाती है, मैं भी अपवाद नहीं था. १०-११ साल की उम्र में किसी साधारण सी किंतु निर्णयकारी घटना ने मुझे इस श्रेष्ठता का आधार खोजने को विवश किया (जो मिला नहीं) तब मुझे विस्मय होने लगा दलितों के सहर्ष शोषण और अत्याचार् सहने पर. कामगार हमेशा संख्या में ज्यादा होते हैं. भौतिक श्रम करने से ताकत भी ज्यादा होती है तो क्यों अत्याचार बे-प्रतिकार सहते हैं? ११-१२ साल के बच्चे को विचारधारा के प्रभाव के बारे में मालुम न था. वर्चस्वशाली वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं. आज दलित चेतना का जो दरिया झूम के उट्ठा है तिनकों से न ताया जाएगा. मान्यवरों, वही बात नारी-चेतना के बारे में भी है. मैं अपने छात्र-जीवन से अध्यापक जीवन के दौरान दोनों ही क्षेत्रों में जो बदलाव देखता हूँ तो दलित और फिमेल स्टुडेंट्स को कहता हूँ तुम लोग भाग्यशाली हो कि १-२ पीढ़ी बाद पैदा हुए.तुम जिन अधिकारों और अवसरों एवं आज़ादी का आनंद ले रहे हो वे लंबे संघर्षों के परिणाम हैं.

Saturday, June 2, 2012

सोच

रणवीर सेना के संस्थापक-मुखिया की हत्या की प्रतिक्रिया में वर्णाश्रमी-सामंती उन्माद के दौरान जितनी तोड़-फोड़, आगजनी हुई उसका दशमांश भी यदि किसी छात्र/मजदूर आंदोलन के दौरान हुआ होता तो लाठी गोली चल चुकी होती और दर्जनों आंदोलनकारी जेल में होते. इसका जवाब क़ानून व्यवस्था नहीं वर्ग संघर्ष है. दलित चेतना का जो की दरिया झूम के उट्ठा है तिनकों से न टाला जाएगा. रणवीर सेना और बथानी टोला जैसी पागलपन और बौखलाहटकी परिघटनाएं बुझती आग की लपटों सी हैं. किसने ब्रह्मेश्वर की ह्त्या की, यह महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि हत्यारे की ह्त्या समस्या का समाधान नहीं है. समस्या सोच-जन्य है इस लिए जरूरत सोच बदलने की है.