Friday, May 29, 2020

लल्ला पुराण 338 (प्रसन्नता)

भारतीय और पाश्चात्य का अंतर कर तथाकथित भारतीय श्रेष्ठता पर खुश होना भी उसी तरह क्षणभंगुर आनंद है जैसे जलेबी खाने का। सर्वे संतु सुखिनः कहकर किसी समुदाय विशेष को उस सर्वे से अलग करना दोहरापन और मिथ्या आनंद है। यह दोहरापन और मिथ्या चेतना सभी सभ्यताओं का अंतर्निहित गुण है, क्योंकि सभ्यता दोहरेपन का संचार करती है, व्यक्ति दिखना वह चाहता है, जो होता नहीं। वास्तविक प्रसन्नता जीवन के हर आयाम में आत्मानुभूति है। 'खाओ-पिओ-मस्त रहो' उपयोगितावादी खुशी (सुख) है। नैतिक जीवन यानि मनुष्य के नाते जीवन की हर भूमिका में आत्मानुभूति वास्तविक सुख है। जैसे एक पत्रकार के रूप में ईमानदारी से वस्तुनिष्ठ समाचार का प्रसारण जीवन के उस आयाम में आत्मानुभूति है। एक शिक्षक के नाते ज्ञान प्राप्त करने के लिए, उन्हें हर बात पर सवाल करने की सीख देकर ईमानदारी से छात्रों में विवेकशीलता तथा नैतिक मूल्यों का संचार करना जीवन के उस आयाम में आत्मानुभूति है। कुल मिलाकर अपनी क्षमताओं को कार्यरूप देना ही सुख है। एक फिरकापरस्त दंगाई की आत्मानुभूति समाज में फिरकापरस्त नफरत का जहर फैलाकर सफलता पूर्वक दंगा कराने में होती है, वही उसका सुख है। एक क्रांतिकारी को समाज में सामासिकता और प्रेम फैलाने में आत्मानुभूति होती है, वही उसका वास्तविक सुख है। The real happiness lies in realizing one's nature.

लल्ला पुराण 337 (चीनी माल)

एक सज्जन ने फोन से चीनी ऐप्स डिलीट करने की पोस्ट पर मेरी प्रतिक्रिया मांगा, उस पर 2 कमेंट:

मेरा सैमसंग फोन है जो किस देश की बहुराष्ट्रीय कंपनी का है, इसका पता करने की कभी जरूरत नहीं हुई बाकी फोन का इस्तेमाल मैं सिर्फ फोन करने में करता हूं। बाकी सीम्राज्यवादी पूंजी से एक देश की कंपनियों के बहिष्कार से नहीं लड़ा जा सकता, उत्पादन में आत्मनिर्भरता से ही लड़ा जा सकता है। लेकिन हम तो अपने अतिप्राचीन पूर्वजों की उत्पादक महानता का गुण गाते हुए केवल हिंदू-मुसलमान नरेटिव से नफरत और धर्मांधता का उत्पादन करते हैं, कैंची और नेलकटर भी आयात करते हैं। साम्रज्यवादी कंपनिया उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण मंहगे श्रम और कच्चे माल वाले साम्राज्यवादी देशों में नहीं सरकारों की मदद से सस्ते कच्चे माल और श्रम वाले तीसरी दुनिया के देशों में करते हैं। शोषणकारी पूंजी का चरित्र भूमंडलीय है क्योकि यह न तो श्रोत के मामले में भूगोल-केंद्रित है न निवेश के मामले में। दमन भूमंडलीय है प्रतिरोध भी भूमंडलीय होना चाहिए। बाकी मोदी जी चीनी नेताओं से बात कर ही रहे हैं, वे उन्हें मुंहतोड़ जवाब देंगे ही।

दिमाग में फिरकापरस्ती का दुराग्रह तार्किक होने नहीं देता। चीन की भक्ति किस वाक्य में दिख रही है? मेरे कहने से आपने चीनी ऐप्स वाला फोन लिया था? फिरकापरस्ती को मानवता का दुर्दांत दुश्मन मानना यदि आपके लिए भारतीयट सभ्यता को कोशना है तो आपको अपनी दुर्दांत सोच पर सोचने की जरूरत है। मैंने यही कहा कि हमें फिरकापरस्ती की नफरत का उत्पादन और धर्मांधता कानप्रसार छोड़ कर वह ऊर्जा वैज्ञानि कसोच और उपभोक्ता सामग्री के उत्पादन में लगानाम चाहिए जिससे हम अपनी जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर हो सकें, कैंची और सेटेप्लर तक का निर्यात न करना पड़े। कभी कभी दुराग्रह त्यागकर तार्किक बातें भी कर लेना चाहिए। सादर।

विवाह

हो गयी अब तो यह 48 साल पुरानी बात
पहुंची थी जब उनके घर हमारी बारात
उन दिनों की शादी-व्याह की कहानियां
लगती हैं परी कथाओं की बानगियां
पुरोहित कर रहे थे कुछ अबूझ मंत्रोच्चार
आ रहे थे वस्त्रों में ढकी आकृति के विचार
हुई तीन साल बाद जब पहली मुलाकात
दोनों अपरिचितों को बीच हुई जिस्मानी बात
होनी चाहिए जो दिलो दिमाग के विमर्श का निष्कर्ष
शुरू हुआ वहां से हमारे संबंधों का विमर्श।

Sunday, May 24, 2020

फुटनोट 333 (निष्पक्षता)

मैं निष्पक्ष नहीं हूं, निष्पक्षता दोषपूर्ण पक्ष का एक फरेब है। मैं अन्याय के विरुद्ध न्याय का पक्षधर हूं। मैं मजदूर हूं और मजदूरों के वर्गहित का पक्षधर। अंतिम पैरा में एजेंडा नहीं सेट करता, बल्कि पूरा लेख ही एजेंडा के तहत होता है।। निरुद्देश्य कुछ नहीं होता, लेखन तो कतई नहीं।कुरान, रामायण, महाभारत सब खास एजेंडे के तहत लिखे गए हैं।

मार्क्सवाद 222 (धर्म)

एक मित्र ने पूछा धर्म क्या है?
ईश्वर की उत्पत्ति भय और अज्ञान से हुई तथा खास ऐतिहासिक संदर्भ में ईश्वर को सांस्थानिक/संस्थागत रूप देने के लिए मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया जिसका चरित्र देश-काल के हिसाब से परिवर्तित होता रहता है। मतलब, धर्म ऐतिहासिक रूप से विकसित सामूहिक चेतना है और व्यक्ति की स्वचेतना उसी सामूहिक चेतना का हिस्सा है।
अक्सर मार्क्स के धार्मिक अवधारणा के बारे में ज़िक्र कर मार्क्सवाद के विरोधी उसे धर्म अफ़ीम है तक सीमित कर देते हैं । संदर्भ से काटकर इस उद्धरण के ज़रिये धर्मपरायण जनता के समक्ष मार्क्स को कलंकित करने के उद्देश्य से वे ऐसा करते हैं । मार्क्स ने इस संदर्भ में जो कुछ कहा था वह बिल्कुल दूसरे ही रूप में है । अगर उसे समस्त संदर्भ में परखा जाय तो मार्क्स द्वारा धर्म की आलोचना के सत्य को सही सही समझा जा सकता है ।:
"धार्मिक पीड़ा की अभिव्यक्ति वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और उसके प्रति विद्रोह भी है । यह पीड़ित प्राणियों की आह , हृदयविहीन विश्व का हृदय और आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है । यह लोगों के लिए अफ़ीम है !
" मनुष्य के आभासित सुख के रूप में धर्म का उन्मूलन ही उसके वास्तविक सुख की प्राप्ति का तक़ाज़ा है । उनसे अपनी आभसित स्थितियों को छोड़ देने का आह्वान उन हालात को छोड़ने की आह्वान है जिसके लिए भ्रम की दरकार होती है । धर्म की आलोचना इस तरह मूल में आँसुओं की उस घाटी की आलोचना है धर्म जिसका प्रभामण्डल है ।
".......धर्म की आलोचना (वस्तुतः) मनुष्य को भ्रम से इस तरह मुक्ति दिलाएगा कि वह उस मनुष्य की तरह सोचेगा , आचरण और व्यवहार करेगा जिसने भ्रमों से मुक्ति पा ली है और अपने ज्ञान को इस तरह पुनः अर्जित कर लिया है कि वह स्वयं को वास्तविक सूर्य मानकर अपनी ही परिक्रमा शुरू कर देगा । धर्म एक आभासित सूरज है जो मनुष्य के इर्दगिर्द तब तक रहता है, जब तक वह स्वयं की परिक्रमा नहीं करता ।
"इसलिए इतिहास के दायित्व के तहत एक बार अगर इस संसार ( इहलोक) में सत्य को स्थापित करने के लिए सत्य की दूसरी दुनिया (परलोक) को नष्ट किया जा चुका है तो इतिहास की सेवा में रत दर्शन का यह फ़ौरी काम हो जाता है कि मानवीय स्व-अलगाव के पावन स्वरूपो पर से एक बार पर्दा हट चुकने के बाद स्व-अलगाव के अपावन स्वरूपों पर से भी पर्दा खींच लिया जाय ।
इस प्रकार स्वर्ग की आलोचना धरती की आलोचना में ,धर्म की आलोचना क़ानून की आलोचना में और धर्मशास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है ।
"धर्म की आलोचना का आधार निम्न है : मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया है, धर्म मनुष्य का निर्माण नहीं करता है।
"धर्म वास्तव में उस मनुष्य की स्व-चेतना और स्व-विचार है, जिन्होंने स्वयं पर विजय नहीं पाई है , और स्वयं को पहले ही कहीं विसर्जित कर दिया है।"
आत्मबल की अनुभूति हो जाने पर इंसान में दुखों को उनकी हकीकत में झेलने और उनसे निपटने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है, उसे तब धर्म की बैशाखी की जरूरत नहीं होती।
बाकी फिर...

लल्ला पुराण 336 (फेसबुक पर ब्लॉकिंग)

मैं अशिष्ट भाषा में बजतमीजी से निराधार निजी आक्षेप करने वालों को दो चेतावनी के बाद ब्लॉक कर देता हूं, आज दो लोगों को सनातन धर्म की पोस्ट पर ब्लॉक किया। कई लोग से उम्र का ऐसा तंज करते हैं जैसे वे आजीवन जवान ही रहेंगे। उम्र का तंज करने वाले तो वैसे ही सठिआए होते हैं जो भी उम्र हो। मेरी ब्लॉक लिस्ट में इस ग्रुप के एकाध श्रीवास्तव टाइप को छोड़कर सारे मिश्रा, पांडे, चौबे, दूबे टाइप ही हैं। समझ नहीं आता कि भाषा कि बजतमीजी करने वाले ज्यादातर ब्राह्मण ही क्यों होते हैं? ऊपर से तुर्रा ये कि आरक्षण से उनकी प्रतिभा का हनन हो रहा है। प्रतिभा की इनकी परिभाषा में लगता है भाषा की तमीज नहीं आती?

मार्क्सवाद 221 (श्रम और पूंजी)

आर्थिक परिस्थितियों नें हमें आजीविका के लिए श्रमशक्ति बेचने को मजबूर कर दिया है, इस अर्थ में विशाल कामकाजी समूह 'अपने आप में' एक वर्ग है लेकिन वह तबतक भीड़ का एक टुकड़ा ही बना रहता है जब तक सामूहिक हित के आधार पर सामूहिक हित की चेतना (वर्ग चेतना) से लैस होकर 'अपने लिए' वर्ग में संगठित नहीं होता। इस तरह श्रमशक्ति बेचकर जीने वाला हर व्यक्ति मजदूर है। ज्यादा मजदूरी पाने वाले मजदूरों (ऊपरी तपका) के समूह के कुछ लोग मालिक (शासकवर्ग) होने का मुगालता ही नहीं पालते बल्कि साम्राज्यवादी पूंजी के दलाल की भूमिका निभाते हैं जिन्हें ऐंड्रे गुंडर फ्रैंक (चिली के मार्क्सवादी विद्वान [1929-2005]) ने लंपट पूंजीपति (lumpen bourgeois) की संज्ञा दी है। नौकरशाही, पुलिस, सेना (राज्य मशीनरी के सदस्य) किसी वर्ग में नहीं आते ये मशीन के पुर्जे की तरह हैं। मैंने 1987-88 में 'वर्ग और वर्ग चेतना' (Class and Class Consciousness) शीर्षक से एक शोधपत्र लिखा था, खोजकर शॉफ्ट कॉपी बनवाना है तथा हिंदी में अनुवाद करना/करवाना है। बौद्धिक श्रमिकों (शासकर शिक्षकों तथा लेखकों) का वर्ग निर्धारण उनकी वैचारिक निष्ठा के आधार पर किया जाता है। लेखक भी मजदूर है, इसलिए नहीं कि वह विचारों का उत्पादन करता है, बल्कि इसलिए कि वह प्रकाशक के लिए अतिरिक्त मूल्य (surplus value) पैदा करता है।
नोट: श्रम करके कोई पूंजी नहीं कमाता, श्रम करके आजीविका कमाई जाती है। पूंजी श्रमिक की अतिरिक्त श्रमशक्ति से निर्मित अतिरिक्त मूल्य पर कब्जाकर बनाया जाता है। पूंजी का संचय केवल पूंजीपति ही कर सकता है मजदूर (कितना भी ऊंचा वेतन वाला इस्जीक्यूटिव) या अधिकारी (कितना भी भ्रष्ट) संचय की भ्रांति में रहता है।

शिक्षा और ज्ञान 290 (लौकिक-अलौकिक)

अलौकिक जगत की कल्पना लौकिक जगत की विसंगतियों के निवारण की भ्रांति है। रोमन कैथलिक चर्च द्वारा कल्पित देवलोक यूरोपीय सामेतीसमाज का ही परिमार्जित-परिवर्धित संस्करण था। त्रिदेव संचालित हमारा बैकुंठलोक वर्णाश्रमी स्माज का ही संशोधित संस्करण है। इस्लाम का जन्नत 7 वीं शताब्दी के अरब समाज की आकाक्षाओं का ही वर्णन है।

चेतना भौतिक परिस्थितियों (इहलौकिक परिघटनाओं) की उत्पत्ति है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। चूंकि भौतिक परिस्थितियां परिवर्तनशील हैं इसलिए चेतना भी परिवर्तनशील है। साश्वत न इहलौकिक परिघटनाएं (भौतिक परिस्थितियां) हैं न उनसे व्युत्पन्न चेतना। भौतिक परिस्थितियां स्वतः नहीं किंतु चैतन्य मानव प्रयास से बदलती हैं अतः भौतिक परिस्थितियों और चेतना में द्वंद्वात्मक संबंध है तथा सत्य (यथार्थ) दोनों की द्वंद्वात्मक एकता (संयोग) से निर्मित होता है। इसलिए भौतिक परिस्थितियां एवं चेतना तथा उनके संयोग से निर्मित यथार्थ परिवर्तनशील हैं, साश्वत (सनातन) नहीं, परिवर्तन ही साश्वत है।

जब हमारा मन भविष्य के प्रति हताश-निराश होता है तो अतीतजीवी हो जाता है और किसी अज्ञात अतीत में अज्ञात महानताएं तलाशने लगता है। लेकिन इतिहास की गाड़ी के इंजन में रिवर्स गेयर नहीं होता, यदा-कदा कुछ यू टर्न आ जाते हैं। अधोगामी शक्तियों को परास्त करते हुए पाषाणयुग से साइबर युग तक की इतिहास की यात्रा इसकी अग्रगामी प्रवृत्ति का प्रमाण है। चारवाक लोकायत तथा बौद्ध धाराएं भौतिकवाद की प्राचीन भारतीय दार्शनिक धाराएं हैं। हम अपनी धार्मिक मान्यताओं की श्रेष्ठता साबित करने के लिए उन्हें अपरिभाषित सनातन घोषित कर देते हैं। सनातन साश्वत कुछ नहीं होता, अतीत से वर्तमान निकलता है तथा अतीत की यादें एवं कल्पनाएं वर्मान में परिलक्षित होती हैं।

Friday, May 22, 2020

लल्ला पुराण 335 (महामारी)



Raj K Mishra मित्र लोग कर रहे हैं? जामिया के छात्र मथुरा रोड पर लंगर चला रहे हैं। हमारी सोसाइटी सील है। एनएच पर ऐसे बेसहारा लोग क्यों छोड़ दिए गए हैं ? सरकार ने लाकडाउन के पहले ये सब इंतजाम क्यों नहीं किया? क्यों लोगों के काम की ही दगह रुकने का इंतजाम क्यों नहीं किया गया? एनएच पर खाना खिलाने के पुनीत काम के लिए साधुवाद। उन्हें एनएच पर खाना खिलाने की जरूरत क्यों आ पड़ी? इसका सांसथनिक प्रबंध क्यों नहीं? आप करोड़ों में 10-20 को अपने पैसे से खिला सकते हैं बाकी? मुझे अभी पेंसन नहीं मिल रही, प3धानमंत्री राहतकोष में 5000 के अलावा लगभग15 हजार की परिचित जरूरतमंदो की सहायता कर चुका हूं। लेकिन समाधान यह नहीं है, समस्या सरकार की जनविरोधी नीतियों और शासकों की अंतर्दृष्टि की कमी की है। वियतनाम जैसे छोटे देशों से सीख लेनी चाहिए।

Raj K Mishra आप बताइए, मुझे क्या करना चाहिए? मैं लेखक हूं इन पर लिख रहा हूं। छोटी-मोटी जो सहायता हो पा रही है कर रहा हूं। यह ्नजाने में सरकार के समर्थन का सवाल है कि आप क्या कर रहे हैं? ऐसे में व्यक्ति की नहीं रकारऔर प्रतिष्ठानों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह सवाल आपसे पूछा जा सकता है, नौकरी के अलावा क्या कर रहे हैं? ठेला-रेढ़ी वालों को धर्म के नाम पर बांटना महामारी का सहायता काम नहीं है। शब्दों से ही विचारधारा बनती है। प्रवासी शब्द अवमाननाजनक है। आपभी इसलिए इस्तेमाल कर रहे हैं कि चलन में आ गया.

इंकलाब

भविष्य की थाती है इंकिलाब
अनादि काल से देखते आए हैं हम ये खाब
स्वतंत्र समूहों में रहते थे
हमारे आदम पूर्वज निजी संपत्ति न हुआ था ईजाद
न ही बंटा था छोटे-बड़े में हमारा समाज
सब मेहनत से पैदा करते थे भरण-पोषण का सामान
मिल-बांट कर रहते-खाते, थे सब एकसान
विकसित होते गए जैसे-जैसे श्रम के साधन
करने लगा समाज अतिरिक्त उत्पादन
जरूरी हो गया समाज में श्रम विभाजन
परजीवी और श्रमजीवी में बंट गया समाज
हुआ शासन के लिए तब शस्त्र और शास्त्र का आगाज
एकाधिकार से इन पर करने लगा परजीवी समाज पर राज
सस्त्र-शास्त्र के बल पर मजबूत होता गया वर्ग समाज
बढ़ता गया जैसे जैसे शोषण दमन का रिवाज
प्रतिक्रिया में होने लगा इंकलाब के नारों का आगाज
किया इंकिलाबी हुजूम में गुलामी के खिलाफ बुलंद आवाज
टूटीं गुलामी की बेड़ियां मगर सामंती शोषण में फंस गया समाज
पहुंचा जब सामंती शोषण के चरम पर समाज
फिर से बुलंद हुई इंकिलाब की आवाज
धवस्त हुआ सामंती महल हुआ जब इंकलाब
मजदूर बन गया किसान आया पूंजीवाद
हर इंकलाब के बाद एक से निकल दूसरे शोषण में फंसता गया समाज
टूटेगा यह सिलसिला होगा करेगा जब सर्वहारा अगला इंकिलाब
होगी तब मानवता मुक्त बनेगा समतामूलक सामूहिक समाज
हर कोई करेगा योग्यता के हिसाब से काम
हर कोई पाएगा जरूरत का हर सामान
न होगा राज न होगा कोई राज
फलेगा-फूलेगा वर्गविहीन समाज
(यूं ही कलम आवारा हो उठा)
(ईमि: 23.05.2020)


जारी...




Thursday, May 21, 2020

फुटनोट 332 (चीन)

चीनी परंपरा में मान्यता है कि वह स्वर्ग के नीचे है, बाकी सब देश असभ्य बर्बर हैं, भारत के साथ इतनी रियायत है कि उसे स्वर्ग के द्वार पर माना जाता था। यूरोप के विदेशी व्यापार के विस्तार के युग में इंगलैंड के राजा ने चीनी सम्राट से इसकी शिकायत की तो उसने जवाब दिया कि अब तुम (यूरोपीय) भी बर्बर न रहे सभ्य हो गए हो। खैर हमसे क्या बराबरी करेगा जिनके पास 33 करोड़ देवता हैं और एक ही भगवान (विष्णु) के लगभग डेढ़ दर्जन अवतार। भगवान, रजनीश, राम रहीम आदि भगवानों को भी जोड़ लें तो सोचिए, संख्या कितनी हो जाएगी?

1985 में थोड़ा शोध किया था, अक्षम्य स्तर की अव्यवस्थित जीवन शैली के चलते उस समय के नोट खोजना मुश्किल लग रहा है, उस समय बहुत संभालकर रखा था। चीन का पारंपरिक दर्शन और पुराण (मिथकशास्त्र) बहुत रोचक है तथा सापेक्ष रूप से वैज्ञानिक। जैसे कि राजा स्वर्ग के आदेश (मैंडेट ऑफ हेवेन) से राज करता है जैसे ही वह यह आदेश खो देता है लोग उसके विरुद्ध विद्रोह कर नया राजा नियुक्त करते हैं। कैसे पता चलेगा कि राजा ने स्वर्ग का विश्वास खो दिया है? सूखा, अकाल, भुखमरी या मैंडरिनों (राज कर्मियों) का भ्रष्टाचार इसके संकेतक हैं। दूसरी शताब्दी ईशापूर्व किसानों का एक व्यापक विद्रोहल हुआ था तथा विद्रोह का नेता राजा बन गया था।

फुटनोट 331 (1976)

Chandra Bhushan जी पढ़ाई या नौकरी की योजना बनाकर आते हैं या कंप्टीसन की तैयारी करने। कंप्टीसन तो इवि में पहली साल के बाद 1973 में ही एजेंडा से निकल गया था, उसी बात पर पिताजी से पैसा लेना बंदकर दिया था। जेएनयू के बारे में डीपीटी वहां के अध्यक्ष थे, इसके अलावा कुछ जानता नहीं था। एक तरह से आपातकाल blessing in disguise साबित हुआ। डीपीटी को खोजते जेएनयू पहुंचा, वे जेल में थे, इवि के एक अन्य सीनियर मिल गए रमाशंकर सिंह, रहने का जुगाड़ हो गया। वे कुछ दिन के लिए घर (सुल्तानपुर) गए और लौटे 6 महीने बाद तो मेरेपास। इवि के सामंती कैंपस से वहां पहुंच कर सुखद आश्चर्य हुआ तथा आपातकाल के बाद 1977 में राजनीति शास्त्र में प्रवेश ले लिया। खर्च के लिए गणित का ट्यूसन जिंदाबाद।

गोरख पांडेय भी भूमिगत रहने ही बनारस से दिल्ली आए और आपातकाल के बाद जेएनयू दर्शनशास्त्र में पीएचडी के पहले (तबतक एकमात्र) छात्र बने। लेकिन वे जेएनयू बाद मे पहुंचे पहले काफी दिन विभास दा (पेंटर) के साथ रहे। आपात काल के पहले बनारस की पार्टी बहुत लोग, लगभग पूरी जिला कमेटी ही भागकर दिल्ली आ गयी थी -- विभास दास, अनिल करंजई (दिवंगत), करुणा निधान (दिवंगत), (सभी कलाकार) कंचन कुमार ....।

Chandra Bhushan भाग कर आना कह लीजिए, लेकिन गिरफ्तारी से बचने के लिएभाग कर आना, भूमिगत रहने के लिए ही आना हुआ। वारंट जारी कर गिरफ्तार नहीं कर रहे थे, लेकिन गिरफ्तारी का डर तो था ही। बनारस से ये वरिष्ठ लोग भी मूलतः गिरफ्तारी से बचने ही आए और राजनैतिक लोग हैं तो राजनैतिक सक्रियता तो यहां भी रही ही।

Wednesday, May 20, 2020

मार्क्सवाद 220 (महामारी)

दुनिया में पहले भी महामारियां आईं, मनुष्य ने निपट लिया, इससे भी निपट लेगा। श्रमशक्ति बेचकर रोजी कमाने के अर्थ में समाज का बहुत बड़ा हिस्सा मजदूर है, लेकिन पूंजीवाद हिंदू जातिव्यवस्था की तरह मजदूरों का ऐसा पिरामिडाकार ढांचा बनाया है कि सबसे नीचे वाली तह के लोगों को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। यह इसलिए लिखा कि सबसे नीचे वाली सीढ़ियों के मजदूरों का शहरों से गांवों की तरफ विलोम पलायन अभूतपूर्व है। विलोम पलायन इसलिए कि विषम तथा असंतुलित विकास की नीति के चलते गांव से शहर तथा एक प्रांत के गांव से दूसरे प्रांत के शहर में पलायन आम बात है। केंद्र और राज्य सरकारों की असंवेदनशीलता और कमनिगाही के चलते करोड़ों की संख्या में मजदूर बच्चों और सामान के साथ सैकड़ों मील पैदल चलकर गांव जा रहा है। इस पलायन ने 1947 के बंटवारे के पलायन की याद ताजा कर दी है। खबरों के अनुसार, अभी तक 150 से अधिक लोग सड़क दुर्घटना और भूख-प्यास से जान गंवा चुके हैं। पंजाब और राजस्थान से बिहार, झारखंड और बंगाल ले जाते मजदूरों के ट्रकों की उप्र के औरैया में भिड़ंत में कई मजदूरों की मृत्यु हो गयी और मृत तथा घायल एक ही ट्रक में भेजे जा रहे थे। झारखंड के मुख्यमंत्री के ट्वीट के बाद ट्रक को प्रयागराज में 5 घंटे के लिए रोक दिया गया।

ये मजदूर गांव पहुंचकर भी क्या खाएंगे? फिलहाल शहर की बदहाली छोड़कर वे पैदल ही गांव की अनिश्चितता की तरफ भाग रहे हैं।

प्रधानमंत्री जी कह रहे है कि लोगों की मदद कीजिये यदि कोई करता है तो करने भी नही दिया जा रहा है। सत्ता पर काबिज गिद्धों का समूह हर चीज में राजनीति के नफा नुकसान की गणित लगा कर काम कर रहा है तुर्रा ये की देश संकट में है कोई राजनीति न करे। दिल्ली-उप्र सीमा पर फंसे मजदूर उप्र और बिहार पैदल ही जा रहे हैं। इन मजदूरों के लिए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उन्हें बसों से घर छोड़ने की पेशकश की। बसें खड़ी हैं।

यह रेल गाड़ी नही है। ये बसें हैं जो मजदूरों को लेकर उत्तरप्रदेश में प्रवेश के इंतजार में हैं। योगी बाबा की सरकार इन्हें प्रदेश में प्रवेश नही करने दे रही है क्योंकि इन बसों का भाड़ा कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी ने दिया है।

लल्ला पुराण 334 (निजी आक्षेप)

एक सज्जन की मुझे संबोधित पोस्ट और मेरा जवाब:

आदरणीय ईश सर को कोई भक्त या चमचा कहे तो वो प्रतिउत्तर में उसे ब्लॉक कर देते हैं।
ठीक है, ब्लॉक करना सबका फेसबुक प्रदत्त अधिकार है, लेकिन दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा खुद के साथ चाहते हैं।
अब आपके ही आचरण को आदर्श मान कर हर व्यक्ति भक्त या चमचा कहने पर आपको ब्लॉक करने लग गया तो आपको पढ़ने वाला लगभग कोई नहीं बचेगा।
सादर 🙏
· Provide translation to English
📷

मैं किसी को भक्त या चमचा नहीं कहता. प्रवृत्ति की बात करता हूं किसी की दाढ़ी में तिनका महसूस हो तो उसकी समस्या है। जो लोग अनायास, अशिष्ट भाषा में निराधार निजी आक्षेप करते हैं, उन्हें ऐसा न करने की दो चेतावनियों के बाद इसलिए ब्लॉक कर देता हूं कि कहीं गुस्से में उन्हीं की भाषा में जवाब देकर अपनी भाषा न भ्रष्ट कर लूं। अफशोस भी होता है कि इवि की नई पीढ़ी के कुछ लोगों में इतनी बदतमीजी कहां से आ जाती है? आज एक सज्जन को बदतमीजी बंद करने के बारंबार आग्रह के बाद ब्लॉक करना पड़ा। जिसे भी मेरी बातें अपमानजनक लगें वह कह सकता है। ऊपर जो आपने स्क्रीन शॉट पोस्ट किया है, उसमे इस सवाल के जवाब में कि चमचे चमचा कहने पर बुरा क्यों मान जाते हैं? मैंने कहा यह तो उन्हीं से पूछिए मेरे ऊपर आक्षेप लगाएं तो तथ्य-तर्कों से पुष्ट करें। वैसे तो शिक्षक को धैर्य नहीं खोना चाहिए और कोई कितनी भी बदतमीजी करे उसे तमीज सिखाने पर अड़े रहना चाहिए, लेकिन अब मेरे पास इतना समय नहीं है। मुझे इस ग्रुप का हर व्यक्ति ब्लॉक कर दे तब भी मुझे पढ़ने वाले मेरी वाल पर, कई ग्रुपों में तथा प्रिंट मीडिया के मेरे पाठकों में बहुत लोग हैं। आपको जब लगे ब्लॉक कर दीजिए, गलती बता कर करेंगे तो आभार मानूंगा जिससे गलती सुधारने की कोशिस कर सकूं। मैं किसी को भी अभद्र भाषा में निराधार आक्षेप करने पर दो बार ऐसा न करने के आग्रह के बाद ब्लॉक करता हूं। आपका आभारी हूं कि आपने प्रत्यक्ष संबोधित करके पोस्ट डाला है। मैं असहज सवाल करने वाले अपने स्टूडेंट्स को ज्यादा प्यार से याद करता हूं। कुछ चीकट हैं जो सीधे न बोलकर परोक्ष रूप से मूर्खतापूर्ण हमला करते हैं, उन्हें जब तक हद नहीं होती नजरअंदाज करता हूं। शिक्षक होने के नाते मूर्खतापीूर्ण आंय-बांय करने वालों को पढ़ने-लिखने की सलाह दे देता हूं, जिसे खुद को सर्वज्ञ मानने वाले शायद अपमान समझ लेते हैं। वे अगर मुझे बता दें तो मैं अपनी सलाह वापस ले लूं। सादर।

Tuesday, May 19, 2020

लल्ला पुराण 333 (करोना)

सूडान के एक भूख से मरती बच्ची और गिद्ध की सुविदित तस्वीर के हवाले से एक सज्जन ने कहा कि दुख-दर्द से बेहाल, भूखे-प्यासे घर लौटते मजदूरों की तस्वीर शेयर करने वालों को गिद्ध और उनके दुखदर्द बांटने वालों को देवता की संज्ञा दी, उस पर:
देवता लोग उन मजदूरों के लिए क्या कर रहे हैं? औरैया से दुर्घटना में मारे गए मजदूरों की लाशें और जीवित घायल एक ही ट्रक में भेजे जा रहे थे। उस ट्रक की तस्वीर के साथ झारखंड के मुख्यमंत्री का स्थिति को अमानवीय और असंवेदनशीलता के वक्तव्य के ट्वीट के बाद इलाहाबाद में ट्रक को 5 घंटे के लिए रोक दिया गया तथा रिपोर्टिंग करने पहुंचे एबीपी के रिपोर्टर के साथ पुलिस ने बदसलूकी की। घायलों को बिना टेस्ट की गयी लाशों के साथ उसी ट्रक में भेजना देवता का काम है क्या? शर्म आनी चाहिए ऐसी असंवेदनशील, विवेकहीन अंधभक्ति पर।



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शिक्षा और ज्ञान 289 (जाति-वर्ग)

मैं लगातार लिख रहा हूं कि भारत में पारंपरिक रूप से शासक जातियां ही शासकवर्ग रही हैं। यूरोप के नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) आंदोलनों ने जन्म(जाति) आधारित समाज विभाजन समाप्त कर दिया था। सामाजविभाजन का आधार आर्थिक कर दिया था। इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवाद ने समाज का श्रेणीबद्ध विभाजन सरलीकृत कर समाज को पूंजीपति और सर्वहारा के परस्पर विरोधी खेमों में बांट दिया। भारत में पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति के अधूरे एजेंडे की जिम्मेदारी भी हमारी (कम्युनिस्ट आंदोलन) की थी। हमने सामाजिक न्याय के इस एजेंडे को यानि जाति के सवाल को आर्थिक एजेंडे यानि वर्घ चेतना के सवाल में समाहित समझ लिया। जाति के सवाल को अलग मुद्दा अंबेडकर ने बनाया। अंबेडकर का मकसद एक समतामूलक समाज का निर्माण था, सामाजिक न्याय के जाति का विनाश उस दिशा में एक सीढ़ी थी, दूसरी सीढ़ी मजदूरों की समस्या यानि आर्थिक न्याय थी। हमने देर से चेता और रोहित बेमुला की शहादत से शुरू जेएनयू आंदोलन ने सामाजिक-आर्थिक न्याय की द्वंद्वात्मक एकता स्थापित करते, जय भीम, लाल सलाम का नारा दिया। अंबेडकर जाति का विनाश चाहते थे, जवाबी जातिवाद नहीं। आप ने सही कहा कि जातीय उत्पीड़न के खिलाफ सबसे बहादुरी से वर्गवादी ताकतें ही लड़ीं जिसकी चुनावी फसल काटा जवाबी जातिवादी, तथाकथित सामाजिक न्याय की ताकतों ने। बिहार में दलितों को आवाज लालू ने नहीं, वहां के क्रांतिकारी आंदोलनों ने दी, लालू ने उसका चुनावी फायदा उठाया। जिस तरह ब्राह्मणवादी (सांप्रदायिक) ताकतों के पास हिंदू-मुसलिम नरेटिव से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही राजनैतिक लामबंदी की एकमात्र रणनीति है, उसी तरह जातिवाद ही इन तथाकथित सामाजिक न्यायवादियों की एकमात्र रणनीति। जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है, ऐसा करने वाले अब्राह्मण समूह/ताकतें नव ब्राह्मामणवादी हैं। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के प्रसार) में दोनों ही बड़े अवरोधक हैं। मैंने लिखा है कि हिंदुत्व ब्राह्मणवाद का राजनैतिक संस्करण है। क्रांति के लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, जिसके लिए जरूरी है धार्मिक-जातीय मिथ्याचेतनाओं से मुक्ति। लड़ाई लंबी जटिल और मुश्किल है। आसान काम तो सब कर लेते हैं।

Monday, May 18, 2020

फुटनोट 330(कोरोना पैकेज)

पहली बात बीस लाख करोड़ की रकम गिनने गिनाने वाली बात है। सरकार इतना बड़ा पैकेज दे नहीं सकती है क्योंकि फिस्कल डिफिशियट को लेकर आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक के साथ कमिटमेंट है। मुझे नहीं लगता कि जो रकम बाजार में आएगी वह छ सात लाख करोड़ से अधिक होगी। इतनी बड़ी रकम जुटाने के लिए सरकार नोट छापेगी। उद्योग धंधों को जो पैकेज मिलेगा वह कर रियायतों का होगा और बैंकों से अंधाधुंध कर्ज का होगा। अब जो भी पैसा बाजार में आएगा उससे सबसे पहले लोग खाने पीने की चीजों को खरीदेंगे जिससे उनके दाम बढ़ सकते हैं पर चूंकि सरकार के पास पर्याप्त खाद्य भंडार है इसलिए यहां खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ने की संभावना बहुत नहीं है और रबी की फसल भी अच्छी हुई है। आगे यह पैसा लोग स्वास्थ्य सुविधाओं पर लगायेंगे, यहां पीएम ने लोकल पर जोर दिया है पर आप भी जानते हैं कि विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत सरकार लोकल को अधिक प्रोटेक्ट नहीं कर पाएगी और पैसा बड़े व्यापारियों के पास ही पहुंचेगा, उद्योग धंधों को जो भी रियायतें मिलेंगी उसको वे कैश में कंवर्ट कर लेंगे और उस पर बैठ जाएंगे, हमारा जो एमएसएमई है वह आयात निर्यात पर अधिक केंद्रित है देश के कंजम्पशन के लिए वह बहुत उत्पादन नहीं करता है, मेरा अपना अनुमान है कि साल दो साल में ही यह पैकेज का पैसा बड़े और मजबूत हाथों में पहुंच जाएगा। आप समझ सकते हैं कि पूंजीपति मजबूत होंगे तो कमजोर वर्ग का जीना दुश्वार होगा। सरकार उद्योगों को जितनी रियायत देना चाहती है उसकी जरूरत नहीं है वे लोग पहले ही कर-चोरी, बैंक क्रेडिट के कारण कैश सरप्लस में हैं। अभी सरकार को बड़े पैकेज की जगह कमजोर वर्ग के परिवारों की महिलाओं को बेसिक इनकम देना चाहिए था और उनको फाइनेंशियल लिटरेट करती जिससे वे उस बेसिक इनकम से परिवार पालती और थोड़ा थोड़ा बचाकर छोटा मोटा निवेश कर पातीं जैसे एक बकरी पाल ली, कुछ मुर्गियां पाल लीं ऐसे ही छोटे मोटे काम। भारत के उद्योगपतियों, व्यपारियों की मानसिकता निराली है उसके केंद्र में केवल
Chandra Bhushan Pandiya

फुटनोट 329 (पीएमकेयर फंड)

13 मई को भारत सरकार ने 4 लाख प्रति वेंटीलेटर की दर से 50,000 भारत में बने (मेड इन इंडिया) नेंटिलेटर खरीदने के लिए, पीएम केयर फंड से 2000 करोड़ रुपए के आबंटन की घोषणा की। आईआईटी रुरकी ने दावा किया है कि उसने बिल्कुल ठीकठाक काम करने वाले वेंटीलेटर 25,000 की दर से बनाने की क्षमता विकित कर ली है तथा भारतीय रेल ने 10,000 की दर से भारी मात्रा में उत्पादन का दावा किया और आईसाएमआर (भारतीय मेडिकल रिसर्च परिषद) की अनुमति के लिए आवेदन किया।
25 मार्च को प्रधानमंत्री ने 3 हफ्ते की देशबंदी की घोषणा करते हुए कहा था कि इस समय का इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा दुरुस्त करने में किया जाएगा। य़ूरोप और अमेरिका के अनुभवों से पता चला कि कोरोना संक्रमित मरीजों के लिए आईसीयू विंटीलेटर की भूमिका अहम है। सरकारी आकलम में पाया गया कि हमारे देश के सरकारी और निजी अस्पतालों में मिलाकर कुल 40, 000 विंटीलेटर थे लेकिन सरकारी अस्रतालों के से बहुत से बेकार पड़े थे। बंगलोर की एक कंपनी तो 2500 की दर से बिना बिजली के चलने वाले डिस्पोजेबल विंटीलेटर बनाने का दावा किया।
निजी कंपनी के आखिरी दावे को छोड़ दें तो भी जब सरकार के प्रमुख प्रतिष्ठित संस्थान कम दामों पर वेंटीलेटर का उत्पादन भारी मात्रा में बना सकते हैं तो इतने मंहगी दर से, रुरकी की बोली (25, 000) से 1,600% तथा रेलवे की बोली(10,00) से 4,000% अधिक दामों पर क्यों खरीदे जा रहे हैं? कोई तो बिचौलिया है जिसकी जेब में बीच की इतनी रकम जा रही है। वह कौन है?

Sunday, May 17, 2020

शिक्षा और ज्ञान 288 (अहिर से इंसान)



एक पोस्ट पर हिंदू-मुसलमान करने वाले एक सज्जन ने अक्सर पूछे जाने वाला सवाल कि मिश्र क्यो लिखता हूं, और फिर इंसान और शिक्षक होने पर तंज किया, उस पर 2 कमेंट:

एक ही भजन कब तक गाइएगा? मिश्र क्यों लिखता हूं? हर ब्राह्मणवादी-नवब्राह्मणवादी यही सवाल पूछता है, इस पर पिछले 47-48 सालों में बहुत लिख बोल चुका हूं, मैं कहां पैदा हो गया उसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, उस पर गर्व या शर्म करने की कोई बात नहीं है न छिपाने की जरूरत। इसलिए भी लिखता हूं कि लोगों को पता चले कि समाज को हजारों साल की जड़ता में जकड़ने वालों में मेरे पूर्वज भी शामिल हैं। मैं कैराना और मेवात में बहुत रहा हूं वहां भी इंसान ही रहते हैं। आपकी ही तरह यही कुतर्क फिरकापरस्ती की नफरत का जहर बोने वाला हर बजरंगी देता है। बाकी आप अहीर से इंसान नहीं बनना चाहते तो आपकी मर्जी, देश का दुर्भाग्य है कि इंसान बनने में असमर्थ लोग शिक्षक बन जाते हैं। सादर। आपने हिंदू-मुसलमान की ही बात कही। हिंदू कोई होता नहीं, अहिर होने के नाते ही हिंदू हैं। अहिर से इंसान बन जाइए, हिंदू से अपने आप इंसान बन जाएंगे।


मैंने तो कहा नहीं मैं अकेले इंसान हूं, बहुमत इंसानों का ही है, इंसान बन पाने में अक्षम लोग अल्पमत में हैं। इसमें अहंकार की क्या बात है? अहंकार तो ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों में होता! मैंने ऐसा भी नहीं कहा मैं सबसे काबिल टीचर हूं, हां मेरे छात्र विवेकशील इंसान जरूर बन जाते हैं। लेकिन जो बाभन(या अहिर) से इंसान नहीं बन पाता वह शिक्षक की नौकरी करने के बावजूद शिक्षक ही नहीं हो सकता, अच्छे शिक्षक की बात तो दूर है। शिक्षक बन गए ऐसे फिरकापरस्त लोग दिमाग में भरी नफरत का जहर छात्रों में भी फैलाते हैं ।

Bijendra Yadav मैं मुनव्वर राणा का प्रवक्ता तो हूं नहीं, आपने ने उनका उद्धरण दिया है बिना श्रोत के आप ही बताएंगे वे क्या समझाना चाहेंगे। इंसान बनने की असमर्थता पर बाभनों का एकाधिकार है नहीं, बहुत से धुनिया या पठान भी इंसान बनने में असमर्थ होंगे। जहां तक हिमांशु के सवाल की बात है. वह तो हमने बता दिया कि मेरे लिए हर इंसान इंसान होता है, जब तक वह इंसान बनने में अपनी अससर्थता न जाहिर कर दे। शिक्षक को तो धर्म-जाति की मिथ्या चेतना से ऊपर उठ कर तार्किक अस्मिता का निर्माण करना चाहिए।

Bijendra Yadav जो नहीं बनना चाहें, उनपर वाध्यता नहीं है। मैंने तो 13 साल में जनेऊ तोड़कर बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया था। किसी की धार्मिक या जातीय (जन्म की) अस्मिता जीववैज्ञानिक संयोग का परिणाम है, विवेकशील इंसान बनना अपने प्रयास का। हमारी शिक्षा ऐसी है कि पीएचडी करके भी बहुत लोग बाभन से इंसान नहीं बन पाते। (बाभन से इंसान बनना जन्म की अस्मिता से ऊपर उठ विवेकशील इंसान बनने का मुहावरा है)। दुर्भाग्य से इंसान बनने में असमर्थ बहुत लोग शिक्षक बन जाते हैं।

Saturday, May 16, 2020

कोरोना

13 मई को भारत सरकार ने 4 लाख प्रति वेंटीलेटर की दर से 50,000 भारत में बने (मेड इन इंडिया) नेंटिलेटर खरीदने के लिए, पीएम केयर फंड से 2000 करोड़ रुपए के आबंटन की घोषणा की। आईआईटी रुरकी ने दावा किया है कि उसने बिल्कुल ठीकठाक काम करने वाले वेंटीलेटर 25,000 की दर से बनाने की क्षमता विकित कर ली है तथा भारतीय रेल ने 10,000 की दर से भारी मात्रा में उत्पादन का दावा किया और आईसाएमआर (भारतीय मेडिकल रिसर्च परिषद) की अनुमति के लिए आवेदन किया।
25 मार्च को प्रधानमंत्री ने 3 हफ्ते की देशबंदी की घोषणा करते हुए कहा था कि इस समय का इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा दुरुस्त करने में किया जाएगा। य़ूरोप और अमेरिका के अनुभवों से पता चला कि कोरोना संक्रमित मरीजों के लिए आईसीयू विंटीलेटर की भूमिका अहम है। सरकारी आकलम में पाया गया कि हमारे देश के सरकारी और निजी अस्पतालों में मिलाकर कुल 40, 000 विंटीलेटर थे लेकिन सरकारी अस्रतालों के से बहुत से बेकार पड़े थे। बंगलोर की एक कंपनी तो 2500 की दर से बिना बिजली के चलने वाले डिस्पोजेबल विंटीलेटर बनाने का दावा किया।
निजी कंपनी के आखिरी दावे को छोड़ दें तो भी जब सरकार के प्रमुख प्रतिष्ठित संस्थान कम दामों पर वेंटीलेटर का उत्पादन भारी मात्रा में बना सकते हैं तो इतने मंहगी दर से, रुरकी की बोली (25, 000) से 16000% तथा रेलवे की बोली(10,00) से 4000% अधिक दामों पर क्यों खरीदे जा रहे हैं? कोई तो बिचौलिया है जिसकी जेब में बीच की इतनी रकम जा रही है। वह कौन है?

Friday, May 15, 2020

इंकिलाब

इंकलाब जब आएगा
भूखा नहीं कोई रह पाएगा
बनता नहीं कोई परिश्रम से सरमाएदार
श्रम के साधनों पर होता श्रम का ठेकेदार
दूसरों की मेहनत लूटकर रही बनता वह जरदार
आएगी जब इंकिलाब की आंधी
उड़ जाएंगे लुटेरे टाटा और अडाणी
मालिक होंगे श्रम के फल के किसान ओऔर मजदूर
होगा न कोई परजीवी न कोई मजलूम
सबको होगा इल्म के हिसाब से काम का अधिकार
काम के माकूल सबको मिलेगी वाजिब पगार
बढ़ता जाएगा जैसे जैसे इंकिलाबी अभियान
आएगा फिजा में साम्यवाद का पैगाम
मिट जाएगा छोटे-बड़े का सब फसाना
वर्गविहीन समाज का लिखा जाएगा अफसाना
सब करेंगें के क्षमता अनुसार काम
पाएंगे सभी जरूरत मुताबिक भुगतान
न कोई होगा शासक न शासित कोई इंसान
गाएंगे सब मिल मानवमुक्ति के गान
(ईमि:15.05.2020)



मार्क्सवादस 219 (श्रम कानून)

मजदूर के पक्ष में कानून तमाम शहादतों के साथ मजदूरों के अनवरत संघर्षों के परिणाम हैं जिन्हें महामारीकी आड़ में कई प्रांतीय सरकारों ने अध्यादेशों के जरिए एकझटके में खत्म कर दिया। काम के 8 घंटे के अधिकार के लिए संघर्ष में शिकागो में 1886 में कई मजदूर नेता शहीद हुए थे। जिनकी शहादत को याद करने के लिए मई दिवस मनाया जाता है, खून से सनी जिनकी कमीजों को परचम बनाकर मार्च किया और लाल रंग को क्रांति का रंग तथा लाल परचम को क्रांति का झंडा बना दिया। श्रम कानूनों को रद्द कर काम घंटे बढ़ाकर सरकार ने मजदूरों के स्वास्थ्य और जीवन अवधि के साथ तो खिलवाड़ किया ही है, 45 सालों में उच्चतम बेरोजगारी में इजाफे का भी इंतजाम कर दिय़ा है। काम के ठेकेदारी करण ने काम के घंटे अनौपचारिक रूप से वैसे ही बढ़ा दिया था, अध्यादेशों ने उसे औपचारिक, कानूनी वैधता प्रदान कर दी है। पत्रकारों का काम बौद्धिक होता है जिसमें पढ़ने-सोचने का भी समय लगता है, इसलिए उनके काम के 6 घंटे का कानून था, रात ड्यूटी में 5.30 घंटे।

ईश्वर विमर्श 95(ईश्वर और कोरोना)

एक भगवान और कोरोना से संबंधित पोस्ट पर मैंने हास्य भाव से कहा कि मेरी पत्नी हर रोज पूजा करते समय दुर्गा जी से कोरोना के विनाश के चमत्कार की प्रार्थना करती हैं लेकिन दुर्गाजी ने अभी तक चमत्कार किया नहीं। उस पर एक सज्जन ने नास्तिकता पर प्रशन खड़ा करते हुए कहा पैगंबर पर कुछ कहने की मजाल नहीं है। उस पर:

हम तो दुर्गा जी का पाठ नहीं करते मेरी पत्नी करती हैं, वे मेरी ही तरह स्वतंत्र इंसान हैं। नास्तिकता का कोई घोषणापत्र नहीं होता, वह विवेक और साहस की बात होती है। मैंने यहां तो नास्तिकता की कोई घोषणा नहीं की? बाकी तमाम धार्मिक यही कहते रहते हैं इस पर कहते हो उस पर कुछ कहने की मजाल नहीं। बिना संदर्भ अंधभक्तों की तरह अभुाना हमें नहीं आता। इतना फालतू समय नहीं है कि भगवानों-खुदाओं पर खर्च करूं। खुदाओं की पोल तो इसी से खुल जाती है कि पैगंबरों वाले भगवानों और अवतारों वालों में इतनी दुश्मनी होती है। उनके अंधभक्तों में अपनी दुश्मनी निपटाने का दम नहीं होता नास्तिकों के माध्यम से निपटाना चाहते हैं। आपकी अलग बात नहीं है हर तरह के धर्मांध ऐसी ही की बातें करते हैं कि इस भगवान या अवतार के बारे में बोलते हो, उसके बारे में क्यों नहीं। वैसे खुदा या भगवान या और जो भी उसके नाम हों, इस महामारी का विनाश क्यों नहीं करता। या तो करना नहीं चाहता जो अनिष्ट है या करने की शक्ति नहीं; या न करना चाहता है, न करने की शक्ति ही है। दोनों ही बातें खुदाई के खिलाफ हैं। सादर।

लल्ला पुराण 332 (सेकुलर)



वैसे तो धार्मिक एवं परंपरागत आस्थाओं से स्वतंत्र विवेकसम्मत सामाजिक-राजनैतिक अवधारणा यूरोप के प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) आंदोलन की प्रमुख विषयवस्तु (थीम) थी लेकिन सेकुलर शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1851 में अंग्रेज लेखक जॉर्ज होल्योक ने धर्म से स्वतंत्र सामाजिक विकास के अपने विचारों की व्याख्या के लिए किया।  गौरतलब है इंगलैंड में उस समय चंद प्रवासी अपवादों को छोड़कर ईशायियत ही वहां का एक मात्र धर्म था। यद्यपि इंगलैंड में प्रोटेस्टटें पंथ की प्रमुखता थी किंतु होल्योक के वर्णन में दोनों ही पंथों यानि पूरे धर्म की स्वतंत्रता की बात की गयी है। होल्योक प्रबोधन क्रांति के वोल्तेयर और थॉमस पेन जैसे कुछ चिंतकों पर धर्म की आलोचना के चलते धार्मिक कठमुल्लों के हमलों  से परिचित थे। वोल्तेयर जेल काट चुके थे, थॉमस पेन के घर में आग लगा दी गयी थी और लंदन में उनकी किताब छापने वाले के प्रेस में तोड़फोड़ हुई थी। उन्होंने स्पष्ट किया कि सेकुलरिज्म ईशाईयत (धर्म) के खिलाफ नहीं बल्कि इससे स्वतंत्र है। सेकुलर ज्ञान इसी जिंदगी के बारे में, इहलोक का, जिंदगी की बेहतरी के लिए, अनुभवों से पुष्ट होने वाला ज्ञान है उललोक का (परलौकिक) नहीं।