Saturday, April 25, 2020

बेतरतीब 72 (गणित की रोजी)

1973 में पिताजी से पैसा लेना बंद किया। तबसे 1985 तक गणित से रोजी-रोटी चली। 1976 में आपात काल में भूमिगत रहने की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आया तो लगा गणित जानने वाला किसी शहर में भूखो नहीं मर सकता। जिसके पास भी स्कूल जाने वाला बच्चा है और पैसा है, उसे गणित का ट्यूटर चाहिए ही। की 1985 में डीपीएस छोड़ते समय तय किया कि जब तक भूखो मरने की नौबत नहीं आती गणित का इस्तेमाल आमदनी के लिए नहीं करूंगा। कुछ बड़े राीजनैतिक राजघरानों से भी ऑफर आए, लेकिन गणित से रोजी कमाने की मजबूरी नहीं हुई। ज्ञानी जी राष्ट्रपति थे तो उनके पोते को 5-6 दिन राष्ट्रपति भवन में पढ़ाया। बहुत मुश्किल से बच्चे और उसके पिता तथा ज्ञानी जी को राजी किया कि बच्चे के लिए गणित की बजाय फीजिकल एजूकेसन बेहतर होगा। आर्थिक मोंर्चे पर समझौता न करने का यह मेरे पास रिजर्व हथियार था। मित्रों के बच्चों के फंडे मुफ्त में क्लीयर कर देता था। डीपीएस औ के लेबेल के साथ गणित के कोचिंग मार्केट में जब भी झोंक देता तो घर आराम से चलता। लेकिन कलम की मजदूरी से घर चल गया। 1981-82 में बहुत सिफारिश के साथ 200 रु. घंटे लेता था जब लेक्चरर की तनखाह 1500-1600 होती थी। यहां तो माल नहीं ब्रांड बिकता है। डीपीएस के गणित और फीजिक्स, कॉमर्स के टीचर सब तब करोड़पति थे। लेकिन पैसा, जो हम अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते, जीवन का साधन है, साध्य नहीं। साधन साध्य बन जाए तो जीवन नष्ट। 85-90 साल के लोगोंको भी जब संचय में सारी ऊर्जा खर्चते देखता हूं तो दया आती है। एक ही जीवन है, हम जीने के लिए कुछ-न-कुछ कर ले रहे हैं, बच्चे भी कर लेंगे। वैसै भी अवधी में कहावत है (और भाषाओं में भी होगी), 'पूत सपूत त का धन संचय, पूत कपूत त का धन संचय?' कोई कोई लेक्चर के लिए बुलाता रहता है। फरवरी-मार्च में मुजफ्फरपुर, रांची और हैदराबाद गया। किराया-भाड़ा सब दे देता है। अप्रैल में फ्रैंकफर्ट और द हेग जाना था कोरोना ने गड़बड़ कर दिया। लाक डाउन में यूनिवर्सिटी बंद हो गयी नहीं तो मार्च में पेंसन अप्रूव हो गयी होती, हो ही जाएगी देर-सबेर, खर्च के लिए पर्याप्त है। बहुत ही सौभाग्य से देर से ही सही नौकरी मिल गयी थी।राजनैतिक दर्शन और राजनैतिक अर्थशास्त्र पर एक एक टेक्स्टबुक की योजना है, दिमाग ठीक से काम किया तो शायद हो जाए। कुछ-कुछ पहले से लिखा हुआ है। एक बार (2007 में) उड़ीसा केकिसी आंदोलन के चक्कर में किसी बड़े पूंजीपति से बिकने का ऑफर आया लेकिन मैं बिककर करता क्या? यह कहानी फिर कभी। जिन चंद मित्रों को पता चला, उन्होंने मेरी 'मूर्खता' का मजाक उड़ाया।

1973 में कंप्टीसन न देने का तय कर लिया था। रात में पिताजी से इस पर बहस हुई थी। सुबह खेत में धान की रोपाई हो रही थी, पिताजी से पैसा लेने गया। पिताजी पैसा देने के पहले खूब भाव और भाषण देते थे। मैंने कहा इलाहाबाद जा रहा हूं, बोले जाओ। मैंने वहम करके कहा पैसा? बोले 'इहां तो जरई होथ, पैसा कहां'?। एक झटके में सोच लिया कि जो भी हो अब पिता जी से पैसा नहीं लूंगा। पहला काम पार्टटाइम प्रूफरीडिंग का किया था। ब्वायज हाई स्कूल के सामने एक अखबार, देशदूत का दफ्तर था। अब वहां जागरण है। फिर तो गणित जिंदाबाद।

1 comment:

  1. विभा मिश्रा मेरे घर में सभी धर्म परायण थे, मेरे दादा जी पंचांग के के कट्टर अनुयायी। मेरे ऊपर मां और दादी का बहुत असर पड़ा है दोनों ही अत्यंत संवेदनशील और धर्मपरायण। निर्भयता और ईमानदारी इन दोनों से सीखा। नास्तिक होने के बाद भगवान को कुछ कहता तो मेरी मां कहती, इतना घमंड नहीं करना चाहिए। लेकिन 12 साल में पढ़ने शहर निकला तो छुट्टियों में ही घर आता और उसमें भी घूमने-खेलने और चौराहेबाजी में बहुत समय निकल जाता। कर्मकांडों, छुआछूत और तंत्र-मंत्र से मोहभंग पहले हुआ, फिर भूत का भय खत्म हुआ। विज्ञान पढ़ने लगा तो हर चीज पर सवाल करने लगा और सत्य वही जिसका प्रमाण हो। सवाल भगवान तक पहुंचा, प्रमाण मिला नहीं, तो नास्तिक हो गया।

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