Thursday, July 21, 2022

फुटनोट 366 (सांस पर टैक्स)

 कल सुबह की सैर में पार्क में एक मध्य वर्गीय दिखने वाले युवा दंपति की बातचीत सुनने को मिली।

पत्नी: गैस का दाम तो बढ़ा ही था, सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं, रोटी-दाल-छाछ पर भी सरकार ने टैक्स लगाकर गरीबों का जीना दूभर कर दिया है।

पति: तुम क्यों गरीबों की रहनुमा बन रही हो? महीने में खाने-पीने के खर्च में हजार-दो हजार बढ़ जाने से हमें क्या फर्क पड़ता है। सरकार को देश पर खर्चने के लिए भी तो पैसे चाहिए। कितना तो विश्बैंक और आईएमएफ से कर्ज ले चुकी है। रूपए की औकात घटने के साथ देनदारी भी तो बढ़ गयी है।

पत्नी: कर्ज का भार भी तो गरीबों पर ही पड़ेगा।

पति: ज्यादा मत बोलो नहीं तो देश द्रोह में बंद हो जाओगी, तुम्हारे साथ मुझ पर भी मुसीबत आएगी। देखती नहीं हो, फिल्म निर्माता अविनाश दास को गुजरात पुलिस मुंबई से पकड़कर ले गयी, उसने शाह जी के साथ झारखंड की घूसखोर अधिकारी की तस्वीर सोसल मीडिया पर शेयर किया था। शाह जी तब फोटो तब की है जब वह घऊसखोरी में पकड़ी नहीं गयी थी।

पत्नी: इस बात का दाल-रोटी-छाछ पर टैक्स से क्या मतलब?

पति: किसी भी बात का किसी भी बात से मतलब हो सकता है. कुल मिलाकर टैक्स की बात भी तो सरकार की बुराई ही है।

पत्नी: सही कह रहे हो। चलो खुली हवा में सांस लेने पर तो अभी टैक्स नहीं लगा।

पति: जोर से मत बोलो नहीं तो बड़े-बड़े पार्कों की तरह इसमें भी घुसने का टिकट लग जाएगा।

पत्नी: बड़े-बड़े पार्कों में घूमने का टैक्स लगता है?

पति: हां और बेच पर बैठने का अलग से। एकपार्क के बेंचों पर कीलें निकली रहती हैं, उनमें डिब्बे होते हैं जिनमें सिक्के डालने से कुछ समय के लिए कीलें अंदर चली जाती हैं और समय खत्म होते ही ऊपर निकल आती हैं।

पति-पत्नी की बातचीत में दखलअंदाजी करना वाजिब नहीं समझा नहीं तो उस पार्क का पता पूछता।

Wednesday, July 20, 2022

मार्क्सवाद 272 (आर्थिक संकट)

  1930 के दशक के आर्थिक संकट का कारण था over production and under consumption, जिसका कारण था लोगों की क्रयशक्ति का अभाव, जिसका कारण था अधिकतम निजी मुनाफे के एडम स्मिथ सिद्धांत पर आधारित उत्पादन साधनों पर निजी स्वामित्व कि बुनियाद पर टिकी पूंजीवादी प्रणाली। इस आर्थिक संकट से पूंजीवाद ध्वस्त होने के कगारपर पहुंच गया तथा तबाही से पीड़ित उत्पादक (मजदूर) तबाही से राहत के लिए हाहाकार मचाने लगा। पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने और मजदूरों के हाहाकार को शांत करने के लिए एडम स्मिथ के अहस्तक्षेपीय के राज्य सिद्धांत की जगह केंस के अर्थ व्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण पर आधारित हस्तक्षपीय, कल्याणकारी (वेल्फेयर) राज्य के सिद्धांत को लागू किया गया जिसके तहत विशाल सार्वजनिक आर्थिक उपक्रम तथा कल्याणकारी संल्थान स्थापित किए गए। भारत में पूंजी वाद था ही नहीं तो ध्वस्त होने से बचाने का सवाल ही नहीं था, तो यहां कल्याणकारी राज्य की स्थापना पूंजीवाद की स्थापना के लिए हुई, क्योंकि 1847 में औपनिवेशिक शासक अर्थव्यवस्था को तबाही की जिस हालत में छोड़ गए उसमें औद्योगिक योगदान 6.3% था, जब कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रमुख खिलाड़ियों में था। देशी पूंजीपतियों का उदय तो हो चुका था, जिनमें ज्यादातर के आदिम संचय अफीम युद्ध के दौरान अफीम 'के व्यापार पर आधारित था, लेकिन विशाल औद्योगिक अधिरचना में निवेश की न तो उनकी क्षमता था न ही इच्छाशक्ति। इसलिए जनता के पैसे के राजकीय निवेश की बुनियाद पर पूंजीवाद की स्थापना हुई। सार्वजनिक क्षेत्र की भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से तबाही से उत्पन्न का इलाज निजीकरण खोजा गया। रोग कभी इलाज बन नहीं सकता और संकट के दौर आते रहेंगे जब तक कि इसमें आमूल-चूल परिवर्तन से नयी प्रणाली की स्थापना नहीं होती।

Tuesday, July 19, 2022

शिक्षा और ज्ञान 374 (वैज्ञानिकता)

 इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता (कभी कभी छोटा-बड़ा यू टर्न जरूर ले सकती है) तथा मस्तिष्क के विकास की दृष्टि से हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुभव सीमा (exposure)का फलक बढ़ता जाता है। पाषाणयुग के हमारे पूर्वज कितने भी उन्नत क्यों न रहे हों, अपने साइबर युग के पिछड़े वंशजों से भी पीछे ही रहेंगे। बौद्धिक तथा आर्थिक-सााजिक उन्नयन समानुपातिक होते हैं, दोनों में करण-कारण का दोतरफा संबंध हैं। वैदिक, यूनानी तथा चीनी सभ्यताएं , ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से उन्नत सभ्यताएं थीं। पश्चिम का उन्नयन 14वीं-15वीं शताब्दी से शुरू होता है और ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के ही अनुपात में वे आर्थिक-सामाजिक तथा सामरिक शक्ति के रूप में भी आगे बढ़े। मैं दुनिया पर यूरोपीय वर्चस्व को उचित नहीं बता रहा हूं बल्कि उसे ज्ञान-विज्ञान से उपजी तकनीकी उपलब्धियों का अमानवीय इस्तेमाल मानता हूं, लेकिन यह तो अब इतिहास बन चुका है। मध्य युग यूरोप-भारत समेत तमाम दुनिया के लिए अंधा युग था। यूरोप नवजागरण और प्रबोधन (enlightenment) क्रांतियों को जरिए इससे उबर कर आगे बढ़ गया। हम ऐसी किन्ही नवजागरण क्रांतियों के अभाव में मध्ययुगीन अंधे युग को और गहन बनाते जा रहे हैं। वैज्ञानिक चेतना विकसित करने की बजाय हम इतिहास के पुनर्मिथकीकरण में लगे हैं। एक सज्जन ने 28 लाख से से भी पहले उन्नत धातुओं की मूर्तियों का अन्वेषण कर लिया जबकि लाखों साल के पाषाणयुग के अंत की शुरुआत 7000 साल पहले मानी जाती है। वैज्ञानिक चेतना आर्थिक-सामाजिक उन्नति की पूर्व शर्त है और उसका मूल मंत्र है, 'सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके'।


जहां तक 2000 सालों से आक्रमणों के चलते हमारे वैज्ञानिक अन्वेषणों की प्रगति के बाधित होने की बात है तो आक्रमण या युद्ध से वैज्ञानिक अन्वेषण या ज्ञान-विज्ञान की प्रगति से सीधा रिश्ता नहीं है। प्राचीन वैदिक कुटुंब और उत्तरवैदिक राज्य आपस में लड़ते रहते थे। प्राचीन यूनानी नगर राज्य आपस में और विदेशियों से लगातार लड़ते रहते थे। आधुनिक (15वीं-16वीं शताब्दी के बाद) यूरोपीय इतिहास युद्धों का इतिहास है। दरअसल ऐतिहासिक रूप से वैज्ञानिक अन्वेषण से निकली तकनीक (टेक्नॉलजी) का उपयोग पहले हथियार बनाने में होता है फिर औजार। लोहे की खोज का इस्तेमाल पहले तलवार-तीर बनाने में हुआ फिर फावड़ा और हथौड़ा बनाने में, बारूद का अनवेषण पहले अग्नेयास्त्र बनाने में हुआ फिर ऊर्जा उत्पादन में। वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए वैज्ञानिक सोच जरूरी है, जिसके लिए जरूरी है अंधविश्वासों की मिथ्या चेतना से मुक्ति।

हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को सहेजती है और आगे बढ़ाती है, अतीत से वर्तमान जुड़ा होता है और वर्तमान से भविष्य. तभी तो मानव पाषाणयुग से साइबर युगतक पहुंचा है। हर पीढ़ी अगली पीढ़ी को कमतर आंकती है। हम अपने बच्चों से वही बातें कहते हैं जो हमारी पिछली पीढ़ी हमसे कहती थी।

Monday, July 18, 2022

Hindu Pakistan

 . British colonialists' project was to divide the country in collaboration of its Indian Hindu and Muslim (communal) agents under the divide and rule policy and a Muslim Pakistan was carved out of India in its eastern and western frontier areas. The religion based concept of nation is so fallacious that the Bangladesh on the principle of linguistic nationalism was carved out of Muslim Pakistan. Linguistic nationalism too is equally fallacious and would not hold for very long. Owing to the scientific vision and sensible world view of the leading personalities of the national movement that the formation of Hindu Pakistan could be then avoided but now it seems to be eventuality. Now there would be two competing (Hindu & Muslim) Pakistans. I hope, eventually, some time India (Hindustan) shall be restored on the ruins of the two Pakistans,

लड़ने से जीत भी मिल सकती है

लड़ने से जीत भी मिल सकती है

लड़ने से जीत भी मिल सकती है

न लड़ने से तो हार सुनिश्चित ही है

लड़ाई सिर्फ हार-जीत की नहीं होती
इतिहास में प्रतिरोध दर्ज करने की भी होती है
खुद के जिंदा होने की आश्वस्ति की भी
इसलिए भी लड़ना है कि देना पड़ेगा
जवाब अपनी नतिनियों के सवालों का
कि क्या कर रहे थे हम
जब रौंदी जा रही थी मानवता
फासीवादी बूटों के तले
इसलिए हम मानेंगें शहीद पाश की सलाह
और लड़ेंगे साथी
कम-से-कम अपना प्रतिरोध दर्ज करने के लिए
फासीवाद के विरुद्ध असहमति जताने के लिए
इतिहास की नीरसता तोड़ने के लिए
भगत सिंह के सपनों को जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी
क्योंकि अंधेयुग में लड़ने की जरूरतें बढ़ती जाती हैं
(
कलम बहुत दिन बाद आवारा हुआ)
(
ईमि/18.07.2022)

 

 


Saturday, July 16, 2022

मार्क्सवाद 271 (द्वंद्वात्मकता)

 बिल्कुल सही कह रहे हैं सभी प्रक्रियाएं द्वंद्वात्मक होती है और मैंने पहले ही कहा है कि मेरी बात को निंदा नहीं आत्मालोचना समझा जाए क्योंकि बहुत दिनों से किसी पार्टी में हुए बिना भी मैं खुद को भी व्यापकता में कम्युनिस्ट आंदोलन का हिस्सा मानता हूं। आपकी इस बात से भी सहमत हूं कि आत्मावलोकन तथा आत्मालोचना का काम धीरज और वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकारने की मांग करता है जिसके बाद ही भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई जा सकती है। आज सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार-प्रसार) के रास्ते के तीन बड़े गतिरोधक हैं -- सांप्रदायिकता; जातिवाद (ब्रह्मणवाद) तथा जवाबी जातिवाद (नवब्रह्मणवाद) तथा इन सब का एक ही जवाब है इंकिलाब जिंदाबाद। जिसके लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, जिसकी पूर्व शर्त है सांप्रदायिक तथा जातिवादी मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति। हिंदुत्व सांप्रदायिकता ब्राह्मणवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है लेकिन एक बात निश्चित है कि भावी आंदोलन सामाडिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की द्वंद्वात्मक एकता की मांग करता है जिसका प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व रोहित बेमुला की शहादत के प्रतिरोध में शुरू हुए जेएनयू आंदोलन से निकला नारा, "जय भीम लाल सलाम" करता है।

Friday, July 15, 2022

मार्क्सवाद 270 (कम्युनिस्ट आंदोलन)

 Jogendra Sharma जी, वामपंथ की भूमिका और जिम्मेदारी पर आप के लेख की प्रतीक्षा रहेगी। कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर 1950 के दशक में चुनाव में भागीदारी की शुरुआती बहस में मुख्य तर्क चुनावी मंचों का इस्तेमाल जनवादी चेतना के प्रसार के माध्यम के रूप में करने का था, लेकिन व्यवहार में साधन ही साध्य बन गया। पश्चिम बंगाल सरकार के चरित्र और अन्य सरकारों के चरित्र में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया था। जनवादी चेतना का प्रसार ऐसा हुआ कि सीपीएम/वाम गठबंधन का संख्याबल भाजपा का संख्याबल बन गया। वही हाल हिंदी क्षेत्र के वाम संसदीय समर्थन आधार (संख्या बल) का हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्य काम राजनैतिक शिक्षा के द्वारा सामादिकचेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार) से चुनावी संख्याबल को जनबल में तब्दील करना था जिसमें वह नाकाम रही और संख्याबल को पार्टी लाइन के भक्तिभाव से हांकती रही, जिसे भाजपा अब धर्मोंमाद के भक्तिभाव से हांक रही है। मुझे याद नहीं है कि पिछले 40 सालों में सीपीैआई/सीपीएम ने किसी व्यापक जनांदोलन का नेतृत्व किया हो। (स्थानीय पार्टी नेतृत्व द्वारा पॉस्को के विरुद्ध विस्थापन विरोधी आंदोलन जैसे अपवादों को छोड़कर)। 1962 की सीपीआई की संसदीय शक्ति की तुलना में आज तीनों संसदीय पार्टियों की सम्मिलित संसदीय शक्ति उसका दशमांश भी नहीं है। सूचनाओं के अभाव में मार्क्स-एंगेल्स की एसियाटिक मोड की थियरी गलत हो सकती है लेकिन पार्टी गठन के 100 वर्षों में इस पर कोई समीक्षात्मक बहस हुई क्या? 1991 में राममंदिर के धर्मोंमादी आंदोलन के दौर में भी फैजाबाद से चुनाव जीतने वाले मित्रसेन यादव जैसे लोग जातिवादी संगठनों में क्यों चले गए? यूरोपीय संदर्भों से तुलना न भी की जाए तो सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार) के लिए जाति/धर्म की जन्मजात अस्मिता की प्रवृत्तियों पर आधारित जातिवादी/सांप्रदायिक मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति जरूरी है। मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है जिसे कम्युनिस्ट पार्टियों ने फ्रेम करवाकर फूल-माला चढ़ाने के लिए अपने दफ्तरों में टांग दिया है। भूमंडलीय राजनैतिक क्षितिज के हाशिओं पर सिमट गईं सभी देशों के कम्युनिस्ट नेतृत्व को अपने अपने ऐतिहासिक संदर्भों में मार्क्सवाद के पुनर्पाठ; वृहद् आत्मावलोकन तथा निर्मम आत्मालोचना की जरूरत है। कृपया इसे निंदा नहीं आत्मालोचना समझें।

Thursday, July 14, 2022

मार्क्सवाद 269 (सांप्रदायिकता)

 सांप्रदायिक चेतना की व्यापकता और विपक्ष की दृष्टिहीनता देखते हुए फिलहाल तो फासीवादी शासन साश्वत लगता है। वैसे देश की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी प्रमुखतः हमारे ( वामपंथ के) अकर्मों की है। यूरोप में नवजागण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) क्रांतियों ने जन्मगत सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवाद नें अंतर्विरोध को सरल करके समाज को पूंजीपति (बुर्जुआ) और सर्वहारा के विपरीत खेमों में बांट दिया। हमारे यहां नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों के समतुल्य क्रांतियों के अभाव में सामाजिक संरचना जटिल बनी रही जिसके लिए मार्क्स-एंगेल्स ने विशिष्ट उत्पादन पद्धति-एसियाटिक उत्पादन पद्धति की अवधारणा प्रतिपादित किया। इस सामाजिक क्रांति की जिम्मेदारी भी हमारी ही थी, लेकिन हमने सोचा कि जाति का विनाश क्रांति का स्वस्फूर्त उपपरिणाम होगा और जातिवाद (ब्राह्मणवाद) के प्रतिवाद में जवाबी जातिवाद (नवब्राह्मणवाद) पैदा हुआ और दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में सांप्रदायिक फासीवाद के ईंधन-पानी हैं तथा सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के प्रसार) के रास्ते के बड़े गतिरोधक। आप से सहमत हूं कि सांप्रदायिक राजनीति के आज के हालात की जड़ें राजीव गांधी के शासनकाल से फैलना शुरू हुईं तथा कांग्रेस भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक खेल में उलझ गयी। दुश्मन के हथिार से उसीके मैदान में लड़ाई में हार निश्चित है। साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी की वफादारी में भी दोनों एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी है, जिस पर बाद में।

Tuesday, July 12, 2022

ईश्वर विमर्श 106 (ईशनिंदा)

 हर देश में ईशनिंदा (ब्लास्फेमी) कानून रद्द हो जाना चाहिए। धर्मांधता का नशा बहुत तगड़ा और बहुत खतरनाक होता है। प्राचीन यूनान के एथेंस की न्यायिक सभा में सुकरात पर नास्तिकता पैलाने या प्रकारांतर से ईशनिंदा के आरोप में मुकदमा चलाकर मौत की सजा दी गयी। मुकदमे के दौरान न्यायिक सभा के बाहर भीड़ (धर्मोंमादी जनता) सुकरात को मृत्युदंड की मांग के नारे लगारही थी। अपने खगोलीय अन्वेषण के लिए गैलीलियो को चर्च से माफी मांगने के बावजूद आजीवन नजरबंदी की यातना झेलनी पड़ी थी। दार्शनिक-वैज्ञानिक ब्रूनो पर रोमन चर्च ने 7 साल मुकदमा चलाकर उन्हें जिंदा जलाकर मौत की सजा दी और जब उन्हें रोम के चौराहे पर जलाया जा रहा था तो भीड़ (धर्मोंमादी जनता) उल्लास से तमाशा देख रही थी। पंसारे, डाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश, कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे की हत्याएं धर्मांधता के नशे की ताजा बर्बर परिणतियां हैं।

JNU phobia

 I personally do not know any of the participants on this thread except the initiator. My acquaintance in this group is through words. If someone's language becomes intolerable I block him/her. The question of someone's identity in a discourse is not important and emphasis on identity of birth is an attempt of diversion from the thread and not in "academic taste". There is proverb in Bhojpuri, " पते की बात में कौन ठकुरई". My "good boy" image had suffered first major setback when as a XI class student I picked up an argument (for over an hour) with a clan elder of my grandfather's generation, a reputed Pandit and Purohit in the presence of many boys from my age group, subsequently joined by others. It lasted for over an hour demolishing his all the arguments based on acquired knowledge from beliefs; conventions; prejudices and superstitions were washed away. From the school days itself, I firmly hold that in a healthy discussion, age or seniority should not matter as long as the views are substantiated by verifiable facts and convincing, logical arguments. that is why I refuge any concession in argument on the basis of age or seniority, though much junior to many younger people. In a healthy debate the guest teachers and adhocs should be allowed equal space. We are not Palestinians but support their right to life and land; we are not Kashmiris, Manipuris, Naga, Garo, Khasi or Mizo but support their protest against the draconian laws like AFSPA or UAPA. Activism is not constrained by time-space it transcends them. In the late seventies, the JNU students held a protracted protest against DTC fare hike brsving the lathicharge and detention, while enjoying Rs.12.50 all route pass, that is to say were not affected by price hike. Many students (boys & girls suffered fractures in hands and legs. Our struggle had forced the rollback of the hike.


JNU phobia among those who have been deprived of the experience being in the best campus in this country as far as the democratic academic culture is concerned and whose understanding of the campus is based on hearsay/misinformation/rumors. In fact I wanted to comment on this but got involved into prolonged foot note. Delhi University, one of the most reactionary campuses, unfortunately, having no history of any radical student movement despite the potentialities of being hub of radical student activities, at least since the late seventies, can be rated among the lowest as far as the student consciousness is concerned. In no other university the magnificent Students Union Office could be demolished in broad day light without even a passive protest. The only function of College Unions and DUSU seems to be organizing annual festivals and corner commission. JNU has democratic ethos and radical legacies, the alien concepts for DU students. It is neither intended to get into DU-JNU debate nor to offend anybody but an honest and painful self-criticism. Let us put in our bit to democratize the campus strengthening the democratic teachers and students unity for long term and immediate goals. The immediate goal is to do the needful to ensure the summer salary of the adhoc colleagues through their appointments on 21 July (Or whichever is the first day of the session) without going into merit-demerit of any particular case.

13,07.2014

Saturday, July 2, 2022

मार्क्सवाद 268 (साम्यवाद)

किसी ने कहा कि साम्यवाद का अंत हो गया है, फिर कहा कि साम्यवाद यूटोपिया हौ तथा किसी और ने कहा कि विज्ञान समझा जाने वाला मार्क्सवाद भी साम्यवाद का सपना वैसे ही दिखाता है, जैसे धर्म के ठेकेदार स्वर्ग का, उस पर:

साम्यवाद पूंजीवाद के बाद का ऐतिहासिक चरण है, जैसे पूंजीवाद सामंतवाद के बाद का। जो अस्तित्व में ही नहीं आया उसका अंत कैसे होगा? हां, पूंजीवाद का अंत अवश्यंभावी है, क्योंकि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है।

मानव मुक्ति का वर्गविहीन समाज भविष्य का समाज है, सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण का इतिहास 500 साल से पुराना है और अभी पूर्णता से दूर है, पूंजीवाद से साम्यवाद में संक्रमण का विचार ही 150 साल पुराना है। साम्यवाद पूंजीवाद की भविष्य की वैकल्पिक व्यवस्था है। सामंतवाद से पूंजीवाद का संक्रमण एक वर्ग समाज से दूरे वर्ग समाज में संक्रमण है, पूंजीवाद से साम्यवाद में संक्रमण गुणात्मक रूप से भिन्न एक वर्ग समाज से वर्गविहीन समाज में संक्रमण है। लेकिन होगा ही। जिसकै भी अस्तित्व है उकै अंत निश्चित है, पूंजीवाद अपवाद नहीीं है।

18वीं शताब्दी में जब रूसो ने राजा की जगह जनता के शासन की बात की तो लोगों ने ऐसा ही मजाक उड़ाया था, जैसा आप साम्यवाद का उड़ा रहे हैं। धर्म के ठेकेदार दैवीय चमत्कार के अंधविश्वास के आधार पर स्वर्ग का सपना दिखाता है, विज्ञान तथ्य-तर्कों और अन्वेषण तथा निर्माण के मानवीय क्षमताओं की संभावनाओं के आधार पर। हमारे छात्र जीवन में साइबर स्पेस की बात वैसी ही काल्पनिक लगती जैसा आपको वैज्ञानिक समाजवाद की धारणा लग रही है। हमारे बचपन में हमारे गांव में लड़कियों की उच्च शिक्षा के बारे में भी ऐसी ही बातें होती थीं। 1982 में अपनी बहन की शिक्षा के लिए मुझे पूरे खानदान से महाभारत करनी पड़ी थी।