Saturday, July 31, 2021

शिक्षा और ज्ञान 326 ( विवाह)

 एक मित्र ने पति-पत्नी द्वारा एक दूसरे के प्रति प्यार और समर्पण की निरंतर सार्वजनिक उद्घोषणा का निहितार्थ पूछा, उस पर:


इसका एक निहतार्थ तो वही है जो स्कूलों में नित्य-प्रति की प्रार्थना का है, एक ही बात रोज रोज दुहराते रहिए तो उसका मन पर कुछ-न-कुछ असर पड़ना स्वाभाविक है। बच्चा अपने चिंतनशील जीवन के प्रथम सोपान (स्कूल जीवन) में हर दिन की शुरुआत, दीन-हीन बन कर किसी ईश्वर से सद्बुद्धि आदि मांगने से करे तो धीरे धीरे उसके मन में बैठता जाता है कि सारी भौतिक-बौद्धिक संपदाओं के श्रोत के रूप में ईश्वर नाम की कोई अलौकिक शक्ति है जिसके सामने नतमस्तक होना चाहिए। यूरोपीय नवजागरण कालीन राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली कहता है कि धर्मपरायणता से आस्थावान के दिल में धीरे-धीरे ईश्वर का भय, राजा के भय का रूप ले लेता है। यानि खुदा के समक्ष नतमस्तकता नाखुदाओं के समक्ष नतमस्तकता में बदल जाती है तथा नतमस्तकता समाज की प्रमुख प्रवृत्ति बन जाती है। और नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने के शौक की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। मेरे जैसे लोग भारी कीमत चुकाकर इसी तरह के मंहगे शौक पालते रहे हैं।

इसका दूसरा निहितार्थ एक दूसरे को पारस्परिक भरोसे के प्रति आश्वस्त करते रहना है।

वैसे समर्पण की भावना स्वतंत्रता की भावना के विपरीत है वह चाहे पारस्परिक समर्पण ही क्यों न हो। एक दूसरे के दो गुलामों में स्वतंत्र प्रेम की संभावना क्षीण होती है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से एक संस्था के रूप में विवाह की उत्पत्ति स्त्री-पुरुषों की सेक्सुअल्टी को नियंत्रित एवं संस्थागत रूप प्रदान करने की सामाजिक संविदा से होती है, सामाजिक-आर्थिक-भावनात्मक जरूरतों की पारस्परिक आपूर्ति इसके तार्किक उपपरिणाम हैं।

Monday, July 26, 2021

बेतरतीब 109 (दिल की मर्ज)

 दिल के मरीज को समय समय पर डॉक्टर से मिलना पड़ता है।इस महीने की नियत समय पर मुलाकात में कुछ टेस्ट के बाद डॉ. ने एनजिओग्राफी कराने को कहा। जिसमें पाया गया (डॉक्टरों ने बताया) कि 2018 में लगे 1 और 2019 में लगे दो स्टेंट में कुछ गडबड़ी आ गयी थी तथा एक और कुल 4 स्टेंट डालने पड़े। 2019 में 2 स्टेंट तो इसी (कैलाश नोएडा) अस्पताल में लगे थे। यह नहीं बताया कि स्टेंट में क्यों और क्या गड़बड़ी आ गयी? दिल्ली विवि स्वास्थ्य व्यवस्था सीजीएचएस नियमावली के अनुसार एक बार में 2 स्टेंट की इजाजत देती है, इसलिए 2 स्टेंट का 66,000 रु. अपने पास से देना पड़ा। सत्ता की ताकत के नशे में नौकरी के दौरान सत्ता की जीहुजूरी न करने के लिए 'सीख देने के लिए' सत्तासीन लोग रिटायरमेंट के लगभग ढाई साल बाद भी पेसन रोके हुए हैं। बड़े पदों पर बैठेे कई लोग बहुत छोटे होते हैं।

Tuesday, July 20, 2021

Marxism 44 (alienation)

 पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली उपभोक्ता की विशिष्टता है, (commodity production) उपभोक्ता सामग्री के दो मूल्य होते हैं- उपभोग मूल्य और विनिमय मूल्य। (Use value and exchange value of simply value) In capitalism, labour power (not the labour, as a creative human activity) too is a commodity that the worker alienates from himself/herself, subsequently he is alienated from fellow workers and eventually from himself. Teaching is one job, in which one can minimize the alienation.

Monday, July 19, 2021

मार्क्सवाद 253 (सर्वहारा की तानाशाही)

राज्य शासक वर्ग के हितों के संरक्षण का उपकरण है जिसे वह कानून के जरिए कार्यरूप देता है। रूसो का कहना है कि जिस पहले व्यक्ति ने जमीन के एक टुकड़े को घेर कर अपना घोषित किया वह सभ्यता (संपत्ति आधारित) का जनक है और इस तरह लोगों के साथ पहला धोखा था। फिर सबकी शक्ति से कुछ लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य की स्थापना हुई और चोरी कानूनी अधिकार बन गया जो लोगों के विरुद्ध दूसरा धोखा है। इसीलिए उसने सार्वजनिक विमर्श से सार्वभौमिक कानून (जनरल विल) की अवधारणा दिया। जनरल विल के निर्माण में हर व्यक्ति अपने निजी अधिकार सामूहिकता को समर्पित करके उसका अभिन्न हिस्सा बन जाता है, निजी अधिकार को सामूहिक अधिकार में तब्दील कर देता है। इस प्रक्रिया में वह कुछ खोता नहीं, निजी रूप से जो देता है उसे सामूहिकता के अभिन्न हिस्से के रूप में प्राप्त करता है। "किसी को भी जनरल विल (जनादेश) को उल्लंघन की अनुमति नहीं होगी, दूसरे शब्दों किसी को भी पराधीनता (अनफ्रीडम) का अधिकार नहीं होगा। इसका पहला प्रयोग अल्पजीवी पेरिस कम्यून में किया गया, जिसे एंगेल्स ने सर्वहारा की तानाशाही कहा था और जिसे लेनिन ने रूसी क्रांति के बाद परिभाषित किया। ऐतिहासिक परिस्थितियों के दुर्भाग्य से लेनिन की असमय मृत्यु के बाद सर्वहारा की तानाशाही पार्टी नेतृत्व की तानाशाही में बदल गयी। उम्मीद है कि अगली क्रांति के बाद सर्वहारा की तानाशाही अपने सही रूप में स्थापित हो सकेगी।

मार्क्सवाद 252 (सोवियत संघ)

 सही कह रहे हैं, कोई भी पूंजीवादी देश अपने हर नागरिक को काम का अधिकार नहीं दे सकता जो सोवियत संघ में सबको उपलब्ध थी। बेरोजगारी (कार्यबल की आरक्षित फौज) पूंजीवाद की अंतर्निहित प्रवृत्ति है। यह भी सही है कि स्टालिन काल में में केंद्रीय नियोजन तथा राज्य नियंत्रण में औद्योगिक विकास तेजी से हुआ, जो स्टालिन के बाद 1980 तक जारी रहा, जिसने सोवियत म़डल को वैधता प्रदान की। दूसरी सकारात्मक बात सोवियत संघ द्वारा दुनिया के पाठकों को लगभग लमुफ्त में पुस्तकें प्रदान करना रहा, केवल वैचारिक पुस्तकें ही नहीं। इलाहाबाद विवि में पढ़ते हुए मैंने फीजिक्स और गणित की सोवियत प्रकाशन की कुछ पुस्तकें लगभग मुफ्त में खरीदी थी। लेकिन इसी दौरान उपभोक्ता सामग्रियों के निजी इस्तोमाल के बढ़ावे से समाज में असमानता तथा अराजनैतिककरण में भी उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई, इसमें सुविधासंपन्न वर्गों के लिए कार उत्पादन की अहम भूमिका थी। निजी वाहनों वाले लोगों को गैरेज आदि जैसी सुविधाएं भी चाहिए थीं। निजी वाहनों से चलने वाले लोगों ने अलग जीवनशैली विकसित करना शुरू किया तथा नई जरूरतें।दीर्घकालीन निजी उपभोग की वस्तुओं और पूरक सुविधाओं के उत्पादन में पर्याप्त मानव और भौतिक संसाधन खर्च हुआ जिसका अर्थव्यवस्था तथा समाज के अन्य क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। यदि कोई समाज निजी उपभोग को तरजीह देता है तो आम जनजीवन के जीवन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव लाजमी है। संक्षेप में कहें तो सोवियत संघ सुविधा संपन्न राजनैतिक वर्ग के विशिष्ट निजी उपभोग के उत्पादन के जिस रास्ते पर चला उससे समाज में असमानता में बढ़ोत्तरी स्वाभाविक थी। 1980 के बाद बढ़ती असमानता, और बढ़ते अराजनैचतिककरण और उत्पादन में संतृप्ति (सेचुरेसन) के चलते जन-असंतोष बढ़ना शुरू हुआ जिसे शांत करने के लिए, 1980 का दशक खत्म होते होते गोर्बाचेव ने ग्लासनोस्त-प्रेस्त्रोइका (पूंजीवादी पुनर्स्थापना) की राह पकड़ा और 1990 का दशक शुरू होते ही सोवियत संघ का विघटन तथा बीसवीं शताब्दी के समाजवादी प्रयोग के अंत की शुरुआत हुई। क्रांति और प्रतिक्रांति के दौर साम्यवाद की स्थापना तक चलते रहेंगे।

मार्क्सवाद 251 (सोवियत संघ)

 इतिहास हम जैसे बना वही पढ़ते और उसी से सीखते हैं। कोई भी परिघटना की बहुत से क्रमचय-संचय (permutation-combination) में घटने की संभावनाएं हो सकती थीं। गोर्बाचेव के समय तक सोवियत संकट का हल सोवियत ढांचे में संभव नहीं था तथा वह प्रतिक्रांति का मोहरा बना। मेरा मानना है (इस पर लिखना बहुत दिनों से टल रहा है) कि यदि पार्टी में आंतरिक जनतंत्र बना रहता, एक सुविधासंपन्न राजनैतिक तपका (पार्टी नौकरशाही) विशिष्ट शासक समूह के रूप में न उभरता और समाज का अराजनैतिककरण न होता तथा सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए सांस्कृतिक क्रांति हुई होती, तो सोवियत संघ एवं सोवियत ब्लॉक अभी बरकरार होते। औद्योगिक विकास और दीर्घकालीन स्थायित्व को उपभोक्ता उत्पादन से जीवन स्तर में सुधार तो आया किंतु समान रूप से नहीं, संपन्नता बढ़ी साथ-साथ असमानता तथा अलगाव (एलीनेसन) भी।सोवियत संघ में समाजवादी चेतना के लिए राजनैतिक शिक्षा को तरजीह दी गयी होती तो वह भविष्य की क्रांति उपरांत समाजों का मिशाल बनता। लेकिन इतिहास या अतीत नहीं सुधारा जा सकता वर्तमान में उससे भविष्य के लिए सीख ली जा सकती है।

Sunday, July 18, 2021

मार्क्सवाद 250 (राज्य)

राज्य शासक वर्ग के हितों के संरक्षण का उपकरण है जिसे वह कानून के जरिए कार्यरूप देता है। रूसो का कहना है कि जिस पहले व्यक्ति ने जमीन के एक टुकड़े को घेर कर अपना घोषित किया वह सभ्यता (संपत्ति आधारित) का जनक है और इस तरह लोगों के साथ पहला धोखा था। फिर सबकी शक्ति से कुछ लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य की स्थापना हुई और चोरी कानूनी अधिकार बन गया जो लोगों के विरुद्ध दूसरा धोखा है। इसीलिए उसने सार्वजनिक विमर्श से सार्वभौमिक कानून (जनरल विल) की अवधारणा दिया। जनरल विल के निर्माण में हर व्यक्ति अपने निजी अधिकार सामूहिकता को समर्पित करके उसका अभिन्न हिस्सा बन जाता है, निजी अधिकार को सामूहिक अधिकार में तब्दील कर देता है। इस प्रक्रिया में वह कुछ खोता नहीं, निजी रूप से जो देता है उसे सामूहिकता के अभिन्न हिस्से के रूप में प्राप्त करता है। "किसी को भी जनरल विल (जनादेश) को उल्लंघन की अनुमति नहीं होगी, दूसरे शब्दों किसी को भी पराधीनता (अनफ्रीडम) का अधिकार नहीं होगा। इसका पहला प्रयोग अल्पजीवी पेरिस कम्यून में किया गया, जिसे एंगेल्स ने सर्वहारा की तानाशाही कहा था और जिसे लेनिन ने रूसी क्रांति के बाद परिभाषित किया। ऐतिहासिक परिस्थितियों के दुर्भाग्य से लेनिन की असमय मृत्यु के बाद सर्वहारा की तानाशाही पार्टी नेतृत्व की तानाशाही में बदल गयी। उम्मीद है कि अगली क्रांति के बाद सर्वहारा की तानाशाही अपने सही रूप में स्थापित हो सकेगा।

फुटनोट 259 (तालिबान)

 2002 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के समय युद्धविरोधी प्रदर्शन में हम लोगों ने कुछ नए नारे लगाए थे, उनमें कुछ थे -- तालिबान अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है; बिन लादेन अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है; जंग चाहता जंगखोर, ताकि राज करे हरामखोर।


दानिश सिद्दीकी की हत्या तालिबानी बर्बरता की ताजी कड़ी है। दरअसल तालिाबान विश्व इतिहास के बर्बरतम संगठनों में है जिसकी स्थापना और पोषण शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका ने किया। अमेरिका ने सोवियत संघ के विरुद्ध इन्हे ढांचागत सुविधाएं दी, प्रशिक्षित किया, हथियार दिए। अलकायदा समेत कई अन्य कट्टरपंथी संगठनों की तरह तालिबान को भी अमरीका (अमरीकी शासक वर्ग) ने एक भयंकर भस्मासुर की तरह तैयार किया तथा उसको खत्म करने के नाम पर अमरीकी आवाम में युद्धोंमाद भर कर अफगानिस्तान को तबाह करने में उनके अरबों डॉलर फूंक दिए। पूरे मुल्क को पूरी तरह तहस-नहस कर उसे उसी तालिबाल के हवाले कर अब अफगानिस्तान से वापसी की नौटंकी कर रहा है। अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देशों से दोस्ती का नतीजा देखना हो तो एक नजर अफगानिस्तान पर डालना काफी है। वह दिन दूर नहीं जब अमरीका इज्रायल का दानवीकरण कर उसे भी तबाही के रास्ते पर डालकर वापसी की नौटंकी करेगा।

Saturday, July 17, 2021

शिक्षा और ज्ञान 325 (जय भीम-लाल सलाम)

 यूरोप में नवजागरण तथा प्रबोधन क्रांतियों नें जन्म (जाति)आधारित सामाजिक भेदभाव खत्म कर दिया था, इसीलिए मार्क्स ने लिखा कि पूंजीवाद ने सामाजिक विभाजन का सरलीकरण कर समाज को पूंजीपति तथा सर्वहारा के दो विपरीत खेमों में बांट दिया। भारत में उस तरह का नवजागरण नहीं हुआ तथा जन्म आधारित भेदभाव का मुद्दा अंबेडकर ने उठाया। अब सामाजिक और आर्थिक न्याय के अलग अलग संघर्षों का समय नहीं है, दोनों संघर्षों में एका स्थापित करना होगा। जय भीम लाल सलाम नारा उस एकता का प्रतीक है।

फुटनोट 258(सांप्रदायिक हिंसा)

 समाज हिंसक नहीं होता, समाज के असमाजिक तत्व हिंसक होते हैं। दंगा हमेशा प्रायोजित होता है और अगर कोई भी सरकार चाहे तो किसी भी दंगे को आधे घंटे में रोक सकती है। कोई भी दंगा सरकार की मिलीभगत से ही महीनों चल सकता है। हर काम का मकसद होता है, दंगों द्वारा चुनावी ध्रुवीकरण के लिए गोधरा प्रायोजित किया गया था। तलवार-त्रिशूल से लैस हजारों कारसेवकों की मौजूदगी में रेल के डिब्बे में बाहर से इतनी भयंकर आग नहीं लगाई जा सकती।

फुटनोट 257 (हिंदू-मुसलमान)

 पहली बात तो दानिश एक फोटो पत्रकार थे। एक पत्रकार की हत्या की निंदा होनी चाहिए वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। हिंदू-मुस्लिम कोई बाद में होता है, पहले हर कोई इंसान होता है। संघ परिवार सांप्रदायिकता विरोध को छद्मधर्मनिरपेक्षता कह कर इसलिए बदनाम करता है कि गैरसांप्रदायिक हिंदू भी ध्रुवीकरण से प्रभावित हों। मुस्लिम लीग और हिंदू सभा को धर्मनिरपेक्षता से नहीं औपनिवेशिक समर्थन से बढ़ावा मिलता था क्योंकि दोनों ही औपनिवेशिक दलाल थे। देश का बंटवारा औपनिवेशिक परियोजना थी जिसे पहले हिंदू महासभा ने प्रस्तावित किया फिर मुस्लिम लीग ने। सारे औऍपनिवेशिक दलालों आरएसएस-हिंदगू महासभा तथा जमाते इस्लामी-मुस्लिम लीग ने देश में सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का ऐसा माहौल बनाया कि कांग्रेस को बंटवारे का औपनिवेशिक प्रस्ताव मानना पड़ा। मेरा मानना है कि कांग्रेस को बंटवारे का प्रस्ताव नहीं मानना चाहिए था, भले ही थोड़ा और रक्तपात होता, भले ही आजादी थोड़ा और देर से मिलती। देशका बंटवारा एक ऐसा जख्म है जो नासूर बन मुल्क का वर्तमान को सूल रहा है और भविष्य पर काले बादल की तरह छाए रहने का खतरा बना हुआ है।

फुटनोट 256 (शाहबानो प्रकरण)

 राजीव सरकार की शाहबानो प्रकरण की नैतिक तथा राजनैतिक मूर्नेखतापूर्ण भयंकर गलती ने भाजपा को सांप्रदायिक उंमाद फैलाने का एक और मुद्दा दे दिया, लेकिन राम मंदिर को मुद्दा बनाने का फैसला संघ परिवार ने 1984 के सिख नरसंहार के बाद कांग्रेस को मिले प्रचंड बहुमत के चलते लिया। जनता पार्टी के कांग्रेस-विरोधी प्रयोग की असफलता के बाद संघ परिवार रक्षात्मक सांप्रदायिक मोड में था तथा जनसंघ को भाजपा के रूप में पुनर्गठित करते समय हिंदुत्व की बजाय अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को अपना वैचारिक सिद्धांत घोषित किया। 1984 के बाद उसे लगा कि दशकों से सांप्रदायिक विषवमन वह कर रहा है और 200 सिख मरवाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का चुनावी फायदा कांग्रेस ने उठा लिया। तब इन्होंने राममंदिर के नाम पर सांप्रदायिक उंमाद फैलाने करा फैसला किया और देशभर की दीनारों पर गर्व से हिंदू के नारे दिखने लगे। शाीहबानो प्रकरण ने आग में घी का काम किया। संघ परिवार के उंमादी अभियान के जवाब में चिदंबरम् जैसे कॉरपोरेटी सलाहकारों के प्रभाव में राजीव गांधी ने मस्जिद का मताला खुलवाकर तथा राम चबूतरे के लिए जमीन का अधिग्रहण कर भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक अभियान की एक और भयानक मूर्खता की। मस्जिद का ताला खोलने के विरोध के दमन में मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा के सांप्रदायिक हिंसा को अंजाम दिया। दुश्मन के मैदान में उसी के हथियार से उससे लड़ने में हार निश्चित होती है। राजीव गाींधी नकी इन राजनैतिक मूर्खताओं ने कांग्रेस को हाशिए पर ढकेलने के साथ देश को सांप्रदायिक सियाीसत की आग के हवाले कर दिय़ा।

Thursday, July 15, 2021

Organic and technical compositions of capital

 ·

Marx foresaw

“The bourgeoisie cannot exist without constantly revolutionising the instruments of production, and thereby the relations of production, and with them the whole relations of society,” wrote Marx and Engels in 1848 in Manifesto. Capital as “self-expanding value” (V = c+v+s, where V = Value, c = constant capital, v = variable capital and s = surplus value) constantly coerces its personified functionaries, the capitalists, to look for maximum profit by raising the rate of surplus value (exploitation) i.e., by raising ‘s/v’ that pushes up the organic composition of capital or ‘c/v’, which reciprocally (tendentiously though) reduces the rate profit ‘s/(c+v)’.

The very process that gave rise to value and exchange value asserts itself via alienation and competition. The law of competition for accumulation leads to a progressively higher organic composition of capital, i.e. ‘c/v’, or a constant increase in its constant constituent ‘c’ at the expense of the variable ‘v’, or reversely, a constant relative decrease in its variable vis-à-vis constant, or to put it in a different way, a progressively higher technical composition of capital, i.e. ‘c/(c + v)’, or a constant increase in its constant constituent ‘c’ at the expense of the total social capital, constantly raising the social productivity of labour. “The immediate result of this is that the rate of surplus value ‘s/v’, at the same, or even a rising, degree of labour exploitation, is represented by a constantly falling general rate of profit ‘s/(c + v)’.” (Marx, Capital, Vol. III, Moscow 1974, pp. 212-13) This again leads the capitalists to go in for countervailing measures to reverse the tendency by unceasing technological advancement.
True, Marx and Engels didn’t live to see the precise future course of scientific and technological developments and their specific forms of manifestations which would emerge from the hectic pursuit of profit. They were dealing mainly with capital’s fledging period. So in capital’s ascending phase when the productive forces were developing within the womb of expanding and protruding capitalist relations of production, they could only observe the forthcoming historical trends. Marx’s materialist conception of history had imbued him with penetrating insight and profound predictive power whereby he brilliantly foresaw the impending state of affairs with far-reaching consequences to occur.

As Marx observed in 1858:
“Invention then becomes a business, and the application of science to direct production itself becomes a prospect which determines and solicits it. But this is not the road along which machinery, by and large, arose, and even less the road on which it progresses in detail. This road is, rather, dissection [Analyse] – through the division of labour, which gradually transforms the workers’ operations into more and more mechanical ones, so that at a certain point a mechanism can step into their places. ... Thus, the specific mode of working here appears directly as becoming transferred from the worker to capital in the form of machine, and its own labour capacity devalued thereby. Hence the workers’ struggle against machinery. What was the living worker’s activity becomes the activity of the machine. ... the progress of technology, or the application of this science to production. ... Labour no longer appears so much to be included within the production process; rather, the human being comes to relate more as watchman and regulator to the production process itself. (What holds for machinery holds likewise for the combination of human activities and the development of human intercourse.) No longer does the worker insert a modified natural thing [Naturgegenstand] as the middle link between the object [Objekt] and himself; rather, he inserts the process of nature, transformed into an industrial process, as a means between himself and inorganic nature, mastering it. He steps to the side of production process instead of being its chief actor. ... his degradation therefore to mere worker, subsumption under labour. The most developed machinery thus forces the worker to work longer than the savage does, or than he himself did with the simplest, crudest tools. ... As the basis on which large industry rests, the appropriation of alien labour time, ceases, with its development, to make up or to create wealth, so does direct labour as such cease to be the basis of production, since, in one respect, it is transformed into a supervisory and regulatory activity; but then also because the product ceases to be the product of isolated direct labour, and the combination of social activity appears, rather, as the producer. ... just as the conquest of the forces of nature by social intellect is the precondition of the productive power of the means of labour as developed into the automatic process, on one side, so, on the other, is the labour of the individual in its direct presence posited as suspended individual, i.e. as social, labour. Thus the other basis of this mode of production falls away.” (Marx, Grundrisse, Penguin Books in association with New Left Review, 1981, pp. 704-709)

शिक्षा और ज्ञान 324 (भाषा)

 किसी मित्र ने कहा कि भाषा के सामर्थ्य की वजह से वे अपने जन्म के समय के अनुभव नहीं याद हैं, न ही मृत्यु के बाद के अनुभवों को शेयर कर सकेंगे। उस पर:


भाषा का अन्वेषण मानव इतिहास के विकासक्रम में एक क्रांतिकारी अन्वेषण था और हर अन्वेषण की ही तरह यह भी निरंतर विकासशील है। इसकी सीमाएं ज्ञान के विस्तार के साथ बढ़ती जाती हैं। इसी लिए किसी एक संदर्भ (भाषा) में विकसित अवधारणा के शब्द का दूसरी भाषा में बिल्कुल ठीक-ठीक समतुल्य मिलना आसान नहीं होता। जन्म के समय बच्चे की अभिव्यक्ति के सामर्थ्य वैसी ही होती है, जैसा भाषा के अन्वेषण के पहले के मनुष्य की थी। जन्म के समय बच्चे की अनुभूति होती है जिसे वह भाषा को अन्वेषण के पहले के मनुष्य की तरह ध्वनि-संकेतों से अभिव्यक्त करता है। मृत्यु के समय तक के अनुभव मनुष्य भाषामें अभिव्यक्त करता है, मरने के बाद कोई सजीव अस्तित्व नहीं बचता अतः कोई अनुभव नहीं होते जिन्हें अभिव्यक्ति की आवश्यकता हो।

Freedom

 This is a comment on a comment on my one poem on individual v/s collective freedom. I thought to share it here.


The existing liberal "freedom", which we also call the bourgeois freedom, is freedom not in association with others but in separation from others. The institution of private property creates inequalities that leads to relative freedom and unfreedom. One is sole owner of of ones' possessions and can dispose of as he/she wills without consideration to others. A is not slave and master as natural individual but in and through a society under certain social relations which he/she has entered in the process of historical development independent of his/her conscious will. One sees not realization of his/her freedom in others' freedom but its limitation.

I'll explain it with an example: A, B and C are 3 individuals. A is, let us say, a university professor like me or Dhirendra bhai. He/she has modestly very good income from public money. He has quite congenial atmosphere around him a 'happy' family; has reasonably good friends and followers, people take him seriously on fb. Though would not mind a palatial accumulation on Pandit Pant Marg and also won't mind owning a helicopter but is happy in his British period modest bunglow in the University and a Hundayi i10. Would not mind having his own holiday home in Mussoorie but is quite happy to find a place to holiday in LBS Academy or Advanced Srtudies (Shimla). He is free to write or not to; to speak or not to on any6thing; on capitalism/Communalism/communism/gender... . as long as it does not become dangerous for the system. If you ask A, is he free? Instant answer is, "of course. Is there any doubt?"

B, is let us say is a CHHOTU or BAHADUR working on a grocery shop or a Dhaba. His morning begins at 5-6 AM and day ends at 9-10 PM. He has a shelter in the shop to spend the night and something to eat. His knowledge is his acquired moralities like sex unpalliated marriage is sin; obedience to master and eldersd is virtue. His only source of entertainment and education is TV in the shop. He has no time to think aboput freedom or unfreedom. His only worry is that the Master might get angree on his some word/act and kick him out and he would be on roads again.

C is an honest, educated, unemployed man/woman with a PhD degree in his/her 30s. He/she is free to do anything. He can write/speak on communism/capital;ism/disasters in Uttarakhand/deteriorating academic level in AU and so on... But we al know he/she does not do any of these things. He feels angry with family who think he is good for nothing. He feels bitter against better off friends. .... And one evening he hangs himself from the ceiling fan for which he is absolutely free.

If you ask A that if he is free then are B&C also free? His answer would be no. Then are unfreedoms of B&C unrelated to the freedom of A? How can they be made free? By raising them to the level of A and that needs nothing less than a revolution which we seek. If B&C are unfree, is the society free? Can an individual be free in an unfree society? My answer is no. To be free, society has to be freed. Freedom in an unfree society is an illusion.

15.07.2015

Sunday, July 11, 2021

मार्क्सवाद 249 (नवजागरण)

 यहां प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) क्रांति ही नहीं नवजागरण भी नहीं हुआ। प्राचीनकाल में बुद्ध का आंदोलन उस समय के संदर्भ नवजागरण ही था। आधुनिक काल में, यूरोपीय नवजागरण के पहले कबीर के साथ सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के उन्ही सिद्धांतों के साथ शुरू हुआ नवजागरण प्रतिक्रांतिकारी अभियानों और परंपरा के प्रतिरोध के चलते तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। लेकिन क्रांतियां बेकार नहीं जातीं। 18वीं शताब्दी में प्रबोधन(एनलाइटेनमेंट) क्रांति की आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद औपनिवेशिक हस्तक्षेप नें बौद्धिक क्रांति की संभावनाओं को कुंद कर दिया। पूंजी के गतिविज्ञान के नियमों के अनुसार, मार्क्स का आकलन था कि औपनिवेशिक शासक पूंजी के विस्तार के लिए 'एसियाटिक मोड' (वर्णाश्रमी सामंतवाद) को नष्ट करेंगे, लेकिन वे पूंजीवाद के आदर्श नहीं, विकृत वाहक थे। उन्होंने वर्णाश्रमी सामंतवाद को तोड़ने की बजाय देश के संसाधन लूटने में उसका इस्तेमाल किया। उपनिवेशविरोधी आंदोलन के दौरान आंदोलन के नेतृत्व के वर्चस्वशाली हिस्से ने राजनैतिक आंदोलन में सामाजिक बदलाव के प्रयासों को रोका। प्रबोधन (बुर्जुआ डेमोक्रेटिक) क्रांति का अधूरा एजेंडा कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनाना था लेकिन उसने मार्क्सवाद को उपादान के रूप में नहीं मिशाल के रूप में लिया। अब सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के आंदोलनों को क्रमशः चलाने का समय नहीं है। जेएनयू आंदोलन से निकला जय भीम - लाल सलाम - का नारा दोनों आंदोलनों के द्ंद्वात्मक संगम का प्रतीक है। विलंबित नवजागरण किश्तों में हो रहा है और होगा। जैसा कि सीएए विरोधी आंदोलनों ने दिखाया भारत के नए नवजागरण का नेतृत्व स्त्रियां करेंगी तथा स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी इसका अभिन्न अंग होगा। बाकी फिर कभी। यूरोपीय नवजागरण का एक जनतांत्रिक आयाम यह था कि इसने जन्मआधारित सामाजिक विभाजन नष्ट कर दिया था। सामाजिक अभिजात्य के आर्थिक मानदंड निर्धारित किया। सामंती प्रणाली को पूंजीवादी प्रणाली से विस्थापित कर दिया।

मार्क्सवाद 248 (जय भीम लाल सलाम)

 जय भीम - लाल सलाम का मतलब बस नाम रहेगा अल्लाह का नहीं है, इसका मतलब है जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं और क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं। बस नाम रहेगा अल्लाह का फैज की मशहूर नज्म 'हम देखेंगे.....' का हिस्सा है जिस पर जिआउल हक की इस्लामी सरकार ने पाबंदी लगायी थी क्योंकि 'बस नाम रहेगा अल्लाह का जो मैं भी हूं, जो तुम भी हो' को ईशनिंदा माना गया था। ईशनिंदा इस लिए कि अल्लाह को इंसान (मैं भी-तुम भी) बताया गया था। विडंबना देखिए जिस नज्म को ईशनिंदक मान कर इस्लामी सांप्रदायिक सरकार ने पाबंद किया था, उसी नज्म को इस्लामी बताकर हिंदुत्व सांप्रदायिक फैज को इस्लामवादी साबित करना चाहते हैं। जनवादी विचारों से हर तरह के फिरकापरस्तों को दौरा पड़ता है।

मार्क्सवाद 247 (जातिवाद)

 मिथ्याचेतना के चलते तथाकथित अंबेडकरवादी मार्क्सवाद का विरोध करते हैं तथा जय भीम-लाल सलाम नारे से परहेज करते हैं। जातिवाद (ब्राह्मणवाद) और जवाबी जातिवाद (नवब्रह्मणवाद) दोनों ही सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्ग चेतना के प्रसार) के रास्ते के बड़े गतिरोधक हैं। जाति और धर्म की मिथ्या चेतना (जातिवाद और सांप्रदायिकता) से मोहभंग सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की जरूरी शर्त है। जातिवाद के विनाश के बिना क्रांति नहीं और क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं।

Marxism 43 (Specter of communism)

 Those, who try to construe Marxism as religion type metanarrative have studied physics as metaphysics and try to secure examination marks with the blessings of the monkey God. Marx& Engels wrote in 1848 that a specter was haunting the Europe -- the Specter of communism. Now the area have shifted from Europe has become ubiquitous to encompass the entire glob into its ambit. In contemporary India the blind devotees often get fits with the apprehension of the fear of this specter.

Saturday, July 10, 2021

लल्ला पुराण 395 ( स्त्रीवाद)

 Markandey Pandey वैसे तो मैं चुंगी से अनिश्चितकालीन लंबे अवकाश पर हूं तथा मेरी अनुपस्थिति में यहां व्याप्त शांति देख अवकाश से जल्दी वापसी की कोई मंशा नहीं है। आपने टेग कर दिया तो सवाल न टालने की शिक्षकीय सोच से मजबूरन अवकाश से अवकाश लेना पड़ा।

1. पहली बात तो कुज्ञान का परिचय देते हुए, संदिग्ध मंसूबे से गाया जाने वाला धर्म की अफीम का रटा-रटाया भजन, 1842 में हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा के मार्क्स के एक लेख के एक वाक्य के छोटे अंश का विभ्रंश रूप है। लेख न पढ़े तो पूरा वाक्य तो पढ़ लें, जिसे मैं कई बार शेयर कर चुका हूं। नीचे कमेंट बॉक्स में दुबारा अपने एक लेख का लिंक शेयर करता हूं। धर्म लोगों की अफीम होने के पहले पीड़ित की आह तथा निराश की आशा भी है। जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है यारों। भारत ही नहीं दुनिया के लगभग सभी समाज पितृसत्तात्मक ही रहे हैं। 2. पितृसत्तात्मकता (मर्दवाद) धार्मिक नहीं सास्कृतिक विचारधारा जिसकी दैवीय पुष्टि के लिए धर्म का इस्तेमाल किया जाता रहा है। विचारधारा वर्चस्वशील और अधीनस्थ दोनों को प्रभावित करती है। लड़की को हम ही नहीं बेटी कह कर हम ही नहीं साबाशी देते हैं, वह भी उसे साबाशी के ही रूप में लेती है। लड़का बेटी के संबोधन का बुरा मान जाता है। गार्गी, मैत्रेयी, इंदिरा गांधी, फूलनदेवी स्त्रीमुक्ति समाज की नहीं, मर्दवादी समाज में शक्ति की दावेदारी कि अपवादस्वरूप चंद मिशालें हैं। शकुंतला और सीता स्त्रीवाद की नहीं मर्दवादी विचारधारा की पुष्टि के आदर्श हैं। शकुंतला की प्रमुख चिंता पति द्वारा अस्वीकृति की है तो सीता की एक मर्द द्वारा अपहरण से जनित अपवित्रता के कलंक को अग्निपरीक्षा से धोने की, जो तब भी नहीं धुलती और उसी बहाने गर्भवतीकर उनका राजा पति उन्हें देश निकाला दे देता है। पुरुष यदि स्त्री को भोग की वस्तु समझना बंद कर दे तो उसकी सुरक्षा की समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। 3. जहां तक स्त्रियों के स्त्री विरोधी होने की बात है तो मैंने पहले ही कहा कि मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि सांस्कृतिक विचारधारा है जिसके मूल्यों को पुरुष ही नहीं स्त्री भी अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेती है। बेटे या दहेज का चाह पिता की ही नहीं, माता की भी होती है। पितृसत्तात्मक (मर्दवादी) होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है, उसी तरह जैसे स्त्रीवादी होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है। 1987 में मैंने सांप्रदायिक विचारधारा और स्त्री के सवाल पर एक शोध पत्र लिखा। ज्यादातर खत (ईमेल का जमाना नहीं था) Dear Ms Mishra से शुरू होते थे। जवाब में मैं लिखता, coincidently I am a man. 4. चरकला चलाने वाली भी स्त्रियां भी मजबूरन मर्दवादी हैं क्योंकि पुरुष की विकृत यौन-लिप्सा के चलते रोटी का दाम चुकाने के लिए देहव्यापार मर्दवादी बाजार का हिस्सा है। 5.फिर कभी इस पोस्ट की प्रतिक्रिया लंबे लेख में दूंगा, अभी यह कमेंट इस बात से खत्म करूंगा कि मैं अपनी बेटियों और छात्राओं को कहता था कि हमसे 1-2 पीढ़ी बाद पैदा होना उनका सौभाग्य है क्योंकि 1950 के दशक से शुरू स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ अभी तक काफी आगे निकल चुका है और स्त्रियां हर क्षेत्र में उल्लेखनीय भागीदारी दर्ज कर रही हैं। नोट: धर्म की अफीम वाला उद्धरण नीचे के लिंक में देखें।

Thursday, July 8, 2021

Marxism 42 (consciousness)

 Someone said, Marxist predictions have failed. On hat:

 

Marxism is not astrology and hence does not believe in predictions. It is a dynamic science. Feudalism lasted for over 2000 years and capitalism is still less than 400 years old. Such predictions about Marxism are being trumpeted since Marx's early intellectual days. It gives fits to the agents of capitalism, mainly under false consciousness of not being proletariat but part of ruling classes, though surviving by doing alienated labor. Marx terms term as lumpen proletariat. In the Latin American context Andre Günter Frank terms the imperialist agents as lumpen bourgeois. Transition from feudalism to capitalism was transition from one class society to another class society. Transition from capitalism to communism is a would be transition from a class society to a classless society -- a qualitatively different kind of transition and the process shall be complex and longer. Capitalism being most advanced class society has most powerful and most sophisticated instruments of resistance and repression. The main role in this transition shall be that of consciousness at two levels -- 1. disillusionment from the false consciousness (of class/caste/religion) and 2. acquisition of class consciousness. Marx wrote in his classic --'The Poverty of Philosophy' (1847)-- that workers by economic circumstances are "class-in-itself" but they remain a lump of mass until they organize themselves into "class-for-itself" on the basis of common class interest. That they can do only by equipping themselves with class consciousness. Therefore the link between the "class-in-itself" and the "class-for-itself" is the "class-consciousness"

 

Proudhon, a Marx's contemporary anarchist philosopher wrote 'Philosophy of Poverty' to ridicule Marx's discovery of proletariat as the new protagonist of history, in response to that Marx wrote 'Poverty of Philosophy', a classic.

 

To every stage of social development corresponds a certain for and level of social consciousness. I used to tell my daughters and female students that they are lucky to be born couple of generations later. To verify which they can compare their level of social consciousness with that of their mothers and grand mothers. In 1982 I had to wage a fierce struggle with the entire clan for my sister's right to higher studies. Today no parents would publicly say that they differentiate between a son and a daughter. It is a different matter that they could have 5 daughters to have a son. There still be many "Pradhanpatis" but this species shall soon disappear.

 


Tuesday, July 6, 2021

लल्ला पुराण 394 (वर्ग चेतना)

 आप मेरी बात सीरियसली न लेकर अपना ही नुक्सान करते हैं। एक विवेकशील इंसान की अपनी संभावनाओं को कुंद कर अंधभक्ति की तरफ अग्रसर होंगे। एक शिक्षक होने के नाते चेतानामेरा फर्ज है कि इंसान बनना सुखद अनुभव है। मार्क्सवादी आत्मालोचना के सिद्धांत में यकीन करता है इसलिए उसके अंधभक्त बनने की कोई संभावना नहीं बचती। वर्ग ( वर्ण या जाति) विभाजित समाज में कभी संस्कृति नहीं संस्कृतियां होती हैं, मसलन ब्राह्मण संस्कृति और बहुजन संस्कृति। आप मुझे सीरियसली नहीं लेते तो मैं भी आप पर समय नष्ट करना नहीं पसंद करूंगा। क्योंकि समय निवेश सोद्देश्य होता है, निरुद्देश्य समय खर्च करना, समय की बर्बादी है। नमस्कार।


और हां साम्यवाद कभी किसी की दास नहीं होता, मजदूरों को वर्गचेतना से लैस कर क्रांति के लिए संगठित करने की विचारधारा है। इतिहास का भावी नायक सर्वहारा वर्गचेतना के आधार पर जब संगठित होगा तब मिथ्या चेतना के वशीभूत धनपशुओं (शासक वर्ग) की कारिंदगी कर रहा लंपट सर्वहारा भी अपना वर्ग हित समझ सकेगा और पाला बदल लेगा। सरकारी मशीनरी के पुर्जों को छोड़कर श्रम बेचकर रोजी कमाने वाला हर व्यक्ति मजदूर होता है। सरकारी तंत्र के पु्र्जों का (अ)वर्ग चरित्र आपको एक बार बताया था।

Monday, July 5, 2021

बेतरतीब 108 (मिडिल स्कूल परीक्षा)

 मेरे दादा जी पंचांग के विद्वान माने जाते थे. खुद को भी मानते थे. उनको अथाह विश्वास था कि पंचांग में शुभ-अशुभ, तिथि-मुहूर्त की सभी बातें अक्षरशः सत्य हैं. उनकी आस्था की पराकाष्ठा का अनुभव उस समय कैसा लगा था, सही सही नहीं बता सकता, लेकिन आज सोच कर बहुत अच्छा लगता है. मेरा जूनियर हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा का केंद्र हमारे गांव से लगभग 20-25 किमी दूर, दुर्वासा (आज़मगढ़) के पास खुरांसों नामक गांव के स्कूल में पड़ा था. उम्र 12 होने को थी. अगली सुबह 7 बजे से परीक्षा थी, रात 12 बजे प्रस्थान का शुभ मुहूर्त था. यात्रा पोस्टपोंड करने की गुंजाइश तो है. गांव के बाहर अगले गांव में किसी के यहां कोई कपड़ा या सामान प्रस्थान के रूप में रख दीजिए. प्रीपोन की गुंजाइश नहीं होती. दिन का मामला होता तो मेरे पिता जी साइकिल से पहुंचा देते. अंधेरी रात, चांद आधी रात के बाद निकला था. चल पड़े आजा-पोता -- पोता दुबला-पतला कृषकाय और दादा 6 फुटे बलिष्ठ -- नदी के बीहड़ों के ऊबड़-खाबड़ रास्ते की रोमांचक रात्रि-यात्रा पर. कुछ दूर पैदल और कुछ दूर दादा जी के कंधे पर.दादाजी साथ में लोटा-डोरी लेकर चलते थे, 3 कोस (6 मील) दूर माहुल बाजार के पास कुएं से पानी पीने के बाद फिर उतर पड़े बीहड़ों के रास्ते मंजिल तक, सुबह 6 बजे के आस-पास पहुंचे. इतना समय था कि नहा कर चाय पी सकूं. परीक्षाएं अच्छी हुईं. संयोग अंधविश्वासों को बल प्रदान करते हैं. उस समय फर्स्ट आना बड़ी बात मानी जाती थी. खैर, मॉफी चाहता हूं, फूटनोट कुछ लंबा हो गया, तो मूलकथा पर वापस आता हूं. हर समुदाय अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के अनुसार, अपनी शब्दावली, मुहावरे, पर्व, धर्म और देवी-देवताओं की अवधारणाएं गढ़ता है. इसीलिए देश-काल के अनुरूप ये अवधारणाएं बदलती रही है. रिग्वैदिक देवी-देवताओं में ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तिकड़ी के बैकुंठ के किसी देवी-देवता का जिक्र नहीं है. पहले भगवान गरीब और असहाय की मदद करता था अब जो खुद अपनी मदद करे उसकी. (जारी... )

06.07.2021

Saturday, July 3, 2021

शिक्षा और ज्ञान 323 (ज्ञान की भाषा)

 बौद्ध शिक्षा प्रणाली के अतिरिक्त लगभग सभी ऐतिहासिक शिक्षा प्रणालियों में शिक्षा द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान की भाषा हमेशा अभिजन (शासक वर्ग) की भाषा रही है। हमारे यहां पहले संस्कृत ज्ञान की भाषा थी, फिर फारसी हो गयी और फिर अंग्रेजी। शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता तथा जनांदोलनों के परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे आमजन की भाषा (हिंदी) भी ज्ञान की भाषा के रूप में स्वीकृति हासिल कर रही है। 19वीं सदी तक अंग्रेजी उपनिवेशों में शासक वर्गों की भाषा थी और इंगलैंड में आमजन की। लंबे जनांदोलनों के फलस्वरूप अंग्रेजी को ज्ञान की भाषा का दर्जा मिला। ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी को एक विषय एवं शिक्षा के माध्यम के रूप में क्रमशः 1892 और 1894 में स्वीकृति मिली। उसके पहले लैटिन में पढ़ाई होती थी। मैं अपने हिंदी माध्यम के छात्रों को अंग्रेजी किताबें पढ़ने को प्रोत्साहित करता था क्योंकि अच्छी किताबें अंग्रेजी में ही हैं, हिंदी में अच्छी किताबों के बुरे अनुवाद। हिंदी माध्यम के छात्रों की बढ़ती संख्या के चलते अब हिंदी में भी अच्छी किताबें लिखी जा रही हैं। आशा है शीघ्र ही बंगाल में बांगला की तरह हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी शिक्षा के ज्ञान की प्रमुख भाषा बन सकेगी।

Thursday, July 1, 2021

History in New India

 

Concept note

 

History in New India

DN Jha Memorial Meet

Ish Mishra

India is passing through a dark tunnel of history, particularly since the ascendance to power of regressive political forces with ideological patronage of RSS seeking to pervert the history by inventing greatness in some imagined past. Fascist forces seek to chauvinistic political mobilization by depriving people of their authentic history and instead indoctrinating them with distorted history. Ever since the BJP came to power, one of its central concerns has been to rewrite history with concocted past events. Prof. DN Jha had been one of the historians to take a clear stand against and challenge the misrepresentation and distortion of history with communal motives, as is evidenced in his rebuttal of misrepresentation of historical events by the Indian Prime Minister, Narendra Modi in his election speeches or joining forces with other historians to come out with historical facts against the communal mobilization for the demolition of the Babri Masjid. Prof. Jha has been the important pillar of the genre of modern historians, consisting of DD Kosambi, KP Jaiswal, Rahul Sankrityayan, RS Sharma, Romila Thapar and DN Jha, a new school of modern historiography of ancient Indian history. He has been the integral part of the progressive historians, who provided a scientific perspective to the writing of ancient Indian history. He shall be badly missed in a situation, when the BJP government is moving ahead with the full-fledged plan to distort the Indian history. Within a year of coming to power it constituted a committee for rewriting the history with the purpose of glorifying the Indian past. Prof. Jha had been prompt in the rebuttal of false and motivated utterances about ancient Indian History by Indian Prime Minister, Mr. Modi about Texila being in Bihar or Alaxander’s adventures in Bihar. The textbook Ancient India by Prof. Jha is a masterpiece, reading of which can equip even a lay person with a broad understanding of our ancient past.

 

Peoples’ Mission takes pride in being part of organizing a meet in his memory to discuss writing of history in New India, inaugurated with the BJP’s coming to power in India, by his fellow prominent historians – Prof. Irfan Habib; Prof. Sireen Moosvi, Prof. Harbans Mukhia & Prof. Vishwa Mohan Jha.

 

Ish N. Mishra

For and on behalf of

Peoples’ Mission