Monday, April 13, 2020

गोरख पांडेय

सामाजिक बदलाव के कवि गोरख पांडेय
ईश मिश्र

“पूरब लाल हो उठा है उठो मेरे देश आवाज देता हूँ मैं तुम्हैं करोड़ों कंठों से अरबों पैरों में बाँधकर तूफान”
‘जागते रहो सोनेवालो’ की गुहार लगाने वाले, हिंदी के जन-कवि, गोरख पांडेय, पिछले दिनों, एक सर्द सुबह चुपचाप सो गये – हत्या के विरूध्द एक कविता लिख कर। लेकिन उनकी कविताएँ आम जन को अंनत काल तक जगाती रहेंगी और जब भी शोषित-पीड़ित पर अत्याचार बढ़ेगा, विद्रोह को स्वर देती रहेंगी।
यह विडंबना ही है कि आम जन के दुख-दर्द की पीड़ा को अपनी कविताओं और गीतों में पिरोकर, जीवन का स्वर देनेवाले कवि ने खुद अपने लिए आत्महत्या का विकल्प चुना। 29 जनवरी की सुबह गोरख पांडेय की आत्महत्या की खबर से देश के साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी बेचैन हो उठे ।
हिंदी साहित्य के मशहूर आलोचक नामवर सिंह ने कहाः “हिंदी के वह पहले कवि हैं, जिन्होंने आत्माहत्या की। इस बात को कोई नहीं जान सका या जान सकता कि उन्होंने आत्महत्या क्यों की .... वह बेहद बहादूर आदमी थे...लेकिन उन्होंने अपने प्राण लिये, यह असाधारण बात है”।
वैसे भी राजनीतिक कविता लिखना मुश्किल काम है, क्रातिकारी कविता लिखना और भी मुश्किल काम है, लैकिन राजनीतिक-क्रांतिकारी कविता लिखना असंभव सा काम है, जो गोरख जी ने कर दिखाया। हिंदी के मशहूर कवि केदारनाथ सिंह ने गोरख को “जनचेतना से संपन्न कवि तथा समाज और संस्कृति के विभिन्न मोर्चों पर संघर्षरत योध्दा” कहा। अति साधारण व्यक्तित्व वाले जनकवि की महानता का अहसास, मौत के बाद घना हो गया। उनके प्रति हमारा सरोकार बढ़ता गया।
मानसिक विक्षिप्तता का लंबा दौर नितांत एकाकीपन में गुजारने वाले गोरख के असहज व्यवहार के कारण उनके मित्र और हितैषी उनसे कटने लगे थे। कभी-कभी उन्हें लगता, हर कोई उनके खिलाफ किसी साजिश में शरीक है। उन्होंने इसी दौर में कई महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी। ‘खूनी पंजा’, ‘मारो इन्हैं, और ‘समझदारों का गीत’ जैसी चर्चित कविताएँ इसी दौर की हैं।
1988 का अंत आते – आते हालत यह हो गयी कि उन्हैं हर तरफ रक्तपात दिखायी देने लगा। उन्हैं हर व्यक्ति किसी ‘अंतराष्ट्रीय बलात्कारी गिरोह’ का सदस्य दिखने लगा था। इस पूर्वाग्रह से कि भोजन में खून मिला हुआ है, उन्होंने खाना-पीना बंद कर दिया था। ऐसी हालत में उनके मित्रों और संगठन के लोगों ने उन्हैं अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान में भरती करा दिया, जहाँ उन्हैं ‘इलेक्ट्रिक शाक’ दिया गया।
जब लोगों को लगा कि वह अब पूर्णतः स्वस्थ हो गये हैं, तभी वह यह संक्षिप्त नोट छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गये कि “में बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर रहा हुँ इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है”।
डायरी से मिली, संभवतः अंतिम कविता ‘हत्या-दर-हत्या’ में गोरख इक्कीसवीं सदी के भविष्य को लेकर चिंतित दिखते हैः
“बीसवीं सदी हत्या से होकर गुजर रहा है
अपने अंत की ओर इक्कीसवीं सदी की सुबह
क्या होगा अखबार पर खून के धब्बे या कबूतर?”

गोरख से मेरी पहली मुलाकात आपातकाल के अंतिम चरण में जवाहरलात नेहरू विश्वविधालय में हुई। नक्सलवादी आंदोलन से जुडे होने के कारण गिरफ्तारी के अंदेशे से वह बनारस से दिल्ली आ गये थे और भूमिगत थे हरी घास के एक कोने में बैठे वह अपनी लंबी कविता ‘मेहनत का बारहमासा’ सुना रहे थे, बिहार आंदोलन के दौरान यह गीत काफी लोकप्रिय हो चुका था।
आपतकाल के पहले लिखे गये उनके इस गीत में मेहनतकशों के शोषण और अत्याचार का सजीव वर्णन और शोषण पर टिकी व्यवस्था को बदलने की गुहार जिस संपूर्णता में चित्रित है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
दूसरे दिन मेरी मुलाकाल सुबह छः बजे चाय के ढाबे पर हो गयी। देखते ही पूछा ‘इतने सबरे कैसे?’ मेरे जवाब का इंतजार किये बिना ही बोलते गये, “मुझे तो लगा कि किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया और में जग गया। लेकिन वह मेरा भ्रम था। थोड़ा रुक कर वह कविता-पाठ की शैली में बोलेः
“कौन आयेगा यहाँ कोई न आया होगा, दरवाजा हवाओं ने खटखटाया होगा”।

1945 के आसपास पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए गोरख पांडेय साठ के दशक के अंतिम चरण में मार्क्सवादी दर्शन और किसान आंदोलन के संपर्क में आये। ‘संस्कृताचार्य’ के बाद बनारस हिंदू विश्वविधालय में, दर्शन शास्त्र में एम. ए. करने के लिए उन्होंने दाखिला लिया।
1969 में वह सी. पी. आइ. (मार्क्सवादी –लेनिनवादी) के नेतृत्व में चल रहे किसान आंदोलन से जुड़े और भोजपुरी में गीत लिखने की जरूरत महसूस की। 1970 के दशक की शुरूआत में 15 गीतों का संग्रह छपा और गोरख के गीत देश-भर के जनवादी संस्कृतिकर्मियों के बीच तेजी से लोकप्रिय होने लगे।
1976 में गोरख बनारस हिंदू विश्वविधालय में आर्थिक अभावों से बोझिल जिंदगी से ऊबकर अपने साथी विभास दास के साथ दिल्ली आ गये। 1977 में दर्शन-शास्त्र में शोध करने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय में प्रवेश लिया।
एक सजग राजनीतिककर्मी के अनुभव और वैचारिक प्रतिबध्दता के कारण गोरख के सामने कभी कोई ‘अभिव्यक्ति का संकट’ नहीं रहा। वह लगभग दो दशक तक सबसे अलग दिखते हुए लिखते रहे। ब्रेख्त की तरह गोरख ने भी अपनी कविताओं में काव्य-तत्व को नष्ट नहीं होने दिया।
लोक साहित्य-संगीत की गहरी समझ के कारण वह अपने कई समकालीन जनपक्षीय कवियों से अलग दिखते हैं। लोक कथाओं और लोक चरित्रों की, आधुनिक संदर्भ में, व्याख्या करने के साथ ही, भोजपुरी लोक धुनों पर आधारित अपने गीतों में वह लोक संवेदना को वर्ग-चेतना से लैस करते हैं।
वह एक तरफ अपने प्रचलित गीत ‘समाजवाद’ में – समाजवाद की सरकारी और संशोधनवादी अवधारणाओं पर चोट करते है, तो दूसरी तरफ ‘अब नाही’ में जुल्म और गुलामी के खिलाफ संगठित विद्रोह का एलान करते हैं।
1978 में, तेलंगाना के किसान क्रांतिकारियों को फांसी दिये जाने के फैसले की प्रतिक्रिया में उन्होंने लिखाः
“वह कहता है उसको रोटी-कपड़ा चाहिये
बस इतना ही नहीं उसे न्याय भी चाहिये
इस पर से उसको सचमुच की आजादी चाहिये
उसको फाँसी दे दो”।
अपने इर्द-गिर्द होनेवाली घटनाओं पर प्रतिक्रिया जाहिर करना गोरख की आदत थी। 1984 के अमानवीय नरसंहार पर गोरख ‘मारो इन्हें’ और नफरत का जहर फैलानेवाली ताकतों के खिलाफ “खुनी पंजा में” एकजुट हो मुँहतोड जवाब देने की गुहार करते हैं।
‘सार्त्र के अस्तित्ववाद में अलगाव के तत्व’ पर अपनी पीएच. डी. थीसिस जमा करने के बाद गोरख काफी दिनों तक बहुत तंगहाली में रहे। फैलोशिप बंद हो गयी और होस्टल का कमरा छूट गया। जे. एन. यू. के पास ही बेरसराय गाँव में एक कोठरी किराये पर लेकर, अनुवाद और लेखन से किसी प्रकार जीवन निर्वाह हो रहा था। आर्थिक तंगी इस स्थिति तक पहुँच गयी कि वह कोठरी भी छोड़नी पड़ी और काफी दिनों तक खाना-बदोशी की जिंदगी बितानी पड़ी।

‘भोजपुरी के नौ गीत’ शीर्षक से 1978 में एक संग्रह प्रकाशीत हो चुका था। 1983 में ‘जागते रहो सोने वालों’ कविता संग्रह राधाकृष्ण प्रकाशान ने प्रकाशित किया, जिस पर उन्हैं पाँच हजार रुपये के ‘ओम प्रकाश पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से पोस्ट-डाक्टरेट शोध के लिए छात्रवृत्ति मिल जाने से उनका आर्थिक संकट काफी हद तक हल हो गया था। ‘स्वर्ग से बिदाई’ शीर्षक से उनकी कविताओं को एक संग्रह ‘जन संस्कृति मंच’ ने मरणोपरांत प्रकाशित किया।
अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान में उपचार के बाद, उन्होंने छात्रवृत्ति के नवीनकरण के लिए अपने शोध का ब्योरा जमा कर दिया था और एक-दो सप्ताह की औपचारिकताओं के बाद उनको छात्रवृत्ति की राशि मिल जाती। इसी बीच उन्होंने आत्महत्या का भयावह फैसला कर डाला। अस्पताल से वापस आने के बाद गोरख बीमारी के दिनों के अपराध-बोध से पीडित रहने लगे थे। उनका एकाकीपन कम नहीं हुआ था।

उन्हें व्यक्तिगत तौर से सभी जाननेवालों को मालूम है कि उनके जीवन के अंतिम कुछ साल नितांत एकाकीपन और उपेक्षा के थे। इस अमानवीय व्यवस्था ने एक संवेदनशील कवि को आत्महत्या के कगार पर पहुँचा दिया। शोषण और अत्याचार के खिलाफ जनांदोलन को गोरख की कविताएँ और गीत हमेशा प्रेरणा देते रहेंगो।
गोरख ने 1978 में लिखा थाः

“ये आँखें हैं तुम्हारी तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर इस दुनिया को जितने जल्दी हो बदल देना चाहिये”।



[फरवरी 1989 में ब्लिट्ज में प्रकाशित]

1 comment:

  1. गोरख भावुक तो थे ही लेकिन विक्षिप्तता का भावुकता से अलग कुछ क्लिनिकल पहलू भी होता होगा, नहीं तो समाज और उसकी द्वंद्वात्मक संरचना की इतनी पैनी समझ, बदलने का जुनून और तकलीफों की सहनशक्ति के बावजूद, हत्या के खिलाफ कविता लिखकर आत्महत्या करना समझ के परे है। यह तो एक साप्ताहिक के लिए फौरी श्रद्धांजलि लिखा गयी थी, उसके अंग्रजी संस्करण वाला लेख ढूंढ़ना पड़ेगा। एम्स में बिजली का शॉक भी दिया गया था। कई बार गोरख बिल्कुल बच्चों सा व्यवहार करते, कई बार उन्हें हैल्यूसिनेसन होता। एक बार बस में चलते हुए इलाहाबाद से आए एक साथी (रामजी राय) को तेजी से धक्का दिए 'ऊपर क्यों चढ़े आ रहे हैं'। ऐसी कई घटनाएं हैं। सार्त्र के अलगाववाद पर उनकी थेसिस पर परीक्षक का एक पंक्ति की टिप्पणी थी, 'यह एक मौलिक काम है'। मेनस्ट्रीम में अपनी गाइड के एक लेख की बखिया बखेरते हुए बहुत सुंदर लेख लिखा था। सीपीआई की थीं, गोरख को जोएनयू में नौकरी मिल जाती तो हो सकता पढ़ाने में भटकाव से मन को भटकाव मिलता। खैर जो नहीं हुआ उसकी क्या बात? काफी समय के लिए एम्स में भर्ती थे, वहां से आने के बाद बहुत सामान्य लग रहे थे, पोस्टडॉक्टरल पंजीकरण हो गया था, डाउन कैंपस में मैरिड ह़ॉस्टल में कमरा मिल गया था (पोस्ट डॉक्टरल फेलो को मैरिड हॉस्टल में अटैच्ड बाथरूम का कमरा मिलता था), फेलोशिप अप्रूव हो गयी थी 5-6 महीने की इकट्ठे मिलने वाली थी। मैं उन दिनों परिवार के साथ मयूरविहार में रहता था, जेएनयू जाना थोड़ा कम हो गया था। उनकी मृत्यु के 3-4 दिन पहले सुबह सुबह उनसे मिलने का मन हुआ। दाढ़ी ट्रिम कराने जेएनयू ही जाता था, दाढ़ी भी बढ़ गयी थी। शनिवार या रविवार था क्योंकि छुट्टी थी, उन दिनों इग्नू में नौकरी करता था, जिसे दिवि की अस्थाई नौकरी के लिए छोड़ना कमनिगाही का आत्मघाती कदम था। (यह कहानी फिर कभी) कमरे का दरवाजा खोलते ही गद गद हो गए। अकेलेपन की अनभूति मिलने के हाव-भाव स्पष्ट थी।डाउन कैंपस में कुछ ही विभाग और मैरिड हॉस्टल ही बचे थे। लाइब्रेरी लगभग शिफ्ट हो गयी थी लेकिन फिर भी काफी बची थी, कैंटीन और माता जी का ढाबा भी चालू थे। ओल्ड सोसल साइंस (मैरिड हॉस्टल) के बगल फ्रांसिस का ढाबा भी बचा था। मैं इग्नू के लिए आधुनिक भारतीय राजनैतिक चिंतन की भूमिका लिख रहा था। राजाराम मोहन रॉय और ब्रह्म समाज आंदोलन पर चर्चा में कई बातें उन्होंने बताया जो मुझे नहीं मालुम थीं। गोरख जनसंस्कृति मंच के संस्थापक सेक्रेटरी थे, बल्कि अगर यह कहना कि यह उन्हीं के दिमाग की उपज था अतिशयोक्ति न होगी। लाइब्रेरी की कैंटीन में चाय पीने चलने का अनुरोध उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि 'साथी मैं एन्ज्वॉय नहीं कर पाऊंगा'। फ्रांसिस के ढाबे से चाय-इडली बोलकर आया। समझदारों का गीत सुनाने का आग्रह टालकर उन्होंने 'य़े सदी बीसवीं सदी सुनाया...'। बुआ को चिट्ठी समेत 1970 के पहले के लिखे कई भोजपुरी गीत सुनाया। 2-3 घंटे उनके कमरे पर साथ बिताने के बाद मैं दाढ़ी बनवाने न्यू कैंपस जाने के लिए उठा तो बोले वे भी चलेंगे, लेकिन मोटर साइकिल से नहीं, बस से। बस से हम गंगा उतर कर कमल कांप्लेक्स गए, मैं दाढ़ी बनवाने लगा वे गीता बुक सेंटर में किताबें और पत्रिकाएं देखने लगे। दाढ़ी बनवाने के बाद हमलोग कावेरी के पीछे पहाड़ी रास्ते से नई लाइब्रेरी गए। कैंटीन के बाहर बैठकी जम गयी, बहुत लोग आ गए और दार्शनिक गप्पों के साथ उन्होंने अपनी और स्पेनी क्रांतिकारी कवि लोर्का की कुछ कविताएं सुनाया, जिनका हिंदी अनुवाद उन्होंने किया था। काफी समय वहां बिताने के बाद हम लोग पैदल पहाड़ियों में चलकर ओल्ड कैंपस उनके कमरे पर आए। क्या पता था वह आखिरी मुलाकात होगी। 3-4 दिन बाद, सुबह स्टेट्समैन के प्रंट पेज पर कोने में खबर थी, 'हिंदी पोएट कमिट्स सुसाइड'। 44 साल के भी नहीं थे। उनकी डायरी में एक कविता मिली, 'हत्या के विरुद्ध', शायद अंतिम कविता। 'स्वर्ग से बिदाई' मरने के बाद उनका संकलन छपा। लाल सलाम।



    गोरख और राहुल सांकृत्यायन (केदार पांडेय) में एक समानता यह थी कि दोनों बनारस संस्कृत विवि में कर्मकांड पढ़ने आए और दर्शन एवं साहित्य की तरफ भटक गए और दोनों मार्क्सवादी बन गए।

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