Sunday, December 25, 2011

अदम गोंडवी: एक जैविक जनकवि

अदम गोंडवी: एक जैविक जनकवि
ईश मिश्र

"मेरी खुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह
वो कोइ मज़लूम हो या साहिबे किरदार हो."
साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यिकों की उपेक्षा और अवमानना को धता बताते हुए, सिर्फ मजलूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, गंवईं किसान, जनपक्षीय चिंतक-कवि, अदम गोंडवी, अपनी अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता और साहस के साथ, मजलूमों और मुफलिसों की पीड़ा और आक्रोश को शब्दों में पिरोकर जन-द्रोहिओं को बेनकाब करके जन-विद्रोह के आह्वान की कवितायें लिखते हुए खुद्दारी से जिए.अंतिम समय में मित्र-प्रशंसकों का उनके इलाज़ के लिए चंदे की अपील जारी करना उन्हें नागवार लगा और खुद्दारी के साथ उन्होंने किसी के प्रति बिना किसी कृतज्ञता-भाव और बिना किसी के शिकायत के जिन्दगी से विदा ले ली. ज़िन्दगी भर मीडिया और साहित्यिकों की नज़रों से ओझल रहे अदम, मरने के बाद सोसल नेटवर्किंग और मीडिया में विवाद के विषय बन गए. कुछ लोग, उनकी अराजक जीवन शैली और मयनवोशी के बहाने उन पर आत्मघात का आरोप लगा रहे हैं. लुछ अन्य लोग उनके साथ हुई उपेक्षाओं और अन्याय का ज़िक्र करके, दया भाव से उन्हें संतों की कोटि में बिठाना चाहते हैं. काश अदम जी होते तो दो टूक जवाब देते खांटी गोंडवी अंदाज में.
“फटे कपड़ों में तन ढाँके गुजरता हो जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती है.”

“घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है”
और इन विद्वानों से कहते :
“मैंने अदब से हाथ उठाया सलाम को
समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को.”अदम गोंडवी: एक जैविक जनकवि
ईश मिश्र

"मेरी खुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह
वो कोइ मज़लूम हो या साहिबे किरदार हो."
साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यिकों की उपेक्षा और अवमानना को धता बताते हुए, सिर्फ मजलूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, गंवईं किसान, जनपक्षीय चिंतक-कवि, अदम गोंडवी, अपनी अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता और साहस के साथ, मजलूमों और मुफलिसों की पीड़ा और आक्रोश को शब्दों में पिरोकर जन-द्रोहिओं को बेनकाब करके जन-विद्रोह के आह्वान की कवितायें लिखते हुए खुद्दारी से जिए.अंतिम समय में मित्र-प्रशंसकों का उनके इलाज़ के लिए चंदे की अपील जारी करना उन्हें नागवार लगा और खुद्दारी के साथ उन्होंने किसी के प्रति बिना किसी कृतज्ञता-भाव और बिना किसी के शिकायत के जिन्दगी से विदा ले ली. ज़िन्दगी भर मीडिया और साहित्यिकों की नज़रों से ओझल रहे अदम, मरने के बाद सोसल नेटवर्किंग और मीडिया में विवाद के विषय बन गए. कुछ लोग, उनकी अराजक जीवन शैली और मयनवोशी के बहाने उन पर आत्मघात का आरोप लगा रहे हैं. लुछ अन्य लोग उनके साथ हुई उपेक्षाओं और अन्याय का ज़िक्र करके, दया भाव से उन्हें संतों की कोटि में बिठाना चाहते हैं. काश अदम जी होते तो दो टूक जवाब देते खांटी गोंडवी अंदाज में. 
“फटे कपड़ों में तन ढाँके गुजरता हो जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती है.”

“घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है”
और इन विद्वानों से कहते :
“मैंने अदब से हाथ उठाया सलाम को
समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को.”

"ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुँटता है इन अदबी इदारों में ."

लेकिन वरिष्ठ लेखक-कवि मोहन श्रोत्रिय जैसे लोगों ने अदम की कविताओं की धार और प्रहार के पैनेपन के ही प्रसंग से एक तथ्यपरक मूयांकन के साथ श्रधांजलि दी है: "वह अकेले बहुतेरे कवियों से अधिक सार्थक और प्रेरक काम कर रहे थे. ...... यह अनुल्लेखनीय नहीं है की उनकी रचनाएँ प्रतिष्ठानी समर्थन-अनुमोदन-प्रोत्साहन के बगैर लोकप्रिय हुईं." बोधिसत्व ने अदम को "नक्कालों की दुनिया में" "एक खुले मन का कवि" बताया. "उनमें ऐसी कई बातें थीं जो आज इन्स्सानियत के अजूबघर में, कवि समाज के म्युजियम में भी नहीं मिलतीं."
ऐसी असन्दिग्ध प्रतिबद्धता, इतनी संवेदनशीलता और सम्प्रेषण की ऐसी पैनीधर वाले चिन्तक/कवी/लेखखक/कलाकार -- "संस्कृतिकर्मी" -- "अराजक जीवन और असीम मदिरापान" के "व्यसन" में क्यों डूबते हैं? इन उप्देश्क्कों ने कभी सोचा कि क्यों कोइ रूसो या गोरख पाण्डेय विक्षिप्त हो जाता है है या आत्महत्या कर लेता है? शोषण-दमन के विरुद्ध "बगावत" की गुहार लगाने और "जनता को हक है कि हथियार उठा ले " जैसा बेख़ौफ़-बेबाक वक्तव्य देने वाला अदम गोंडवी क्यों मदिरामय हो जाता है? शासक वर्ग विचारों के “खतनाक” असर को खत्म करने के मकसद से विचारक को ही ख़त्म कर देता है, लेकिन वह नहीं जनता कि इससे वे विचार और भी “खतरनाक” हो जाते हैं. उसी तरह कविता की धार के पैनेपन से जूझने में असमर्थ शासक वर्गों के भोंपू मरणोपरांत कवि के निजी आचरण पर कीचड उछालना शुरू कर देते हैं, यह जाने बिना कि इससे कविता की धार और तेज हो जायेगी. किसी ने सही कहा है: ‘क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो/इससे तो और निखर जायेगी आवाज़’. अदम की कवितायें, उन्ही क्र शब्दों में, “बयान” हैं.
“एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल,
मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल.
दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम,
शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल.”
“मदिरामय” “अराजकजी जीवन-शैली” के अंतिम कुछ वर्षों में भी अदम काका कलम मौन नहीं रहा. पोस्ट-माडर्निजम पर प्रासंगिक टिप्पणी वाली कविता हाल की है. 
“तुलसी इनके लिए विधर्मी, 
देरीदा को खास लिखेंगे.
इनके कुत्सित संबंधों से
पाठक का क्या लेना-देना
लेकिन ये तो जिद पे अड़े हैं 
अपना भोग-विलास लिकेंगे.

अदम की कविताओं का उनके उचित सन्दर्भ में मूल्यांकन, साबित करेगा कि उनकी गणना पिछली और इस सदी के महान जनकवियों में होनी चाहिए. राजनैतिक ग़जलों की जो परम्परा दुष्यंत ने शुरू किया, अदम उसे एक नए मुकाम तक ले गए. आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे वर्तमान में अदम की कवितायें और भी प्रासंगिक हैं. लेकिन साथ होने पर लगता ही नहीं था कि पुरस्कारों और प्रतिष्ठानों से अछूते, मटमैले कुरता-धोती-गमछा में गंवई किसान दिखने वाले, कुछ अपनी और ज्यादा अपने समानधर्मी कवियों की कवितायें और संस्मरण, सखा-भाव और बाल-सुलभ उत्सुकता से सुनाने वाले, अदम गोंडवी इतने बड़े आदमी थे. "अदीबों की नयी पीढी से" धूमिल की विरासत को करीने से" "संजो कर" रखने की गुजारिश" करने वाले अदम जी, नागार्जुन पर लिखी अपनी कविता बहुत चाव से सुनाते थे. बिना प्रतिस्पर्धा के अपने समानधर्मी पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों के प्रति अतिशय सम्मान और उनकी विरासत को आगे बढाने की अदम की धुन उल्लेखानीय है. पिछले कई सालों से बातची वे अक्सर अपने को “सड़कछाप” कहा करते थे. अदम जी सड़कछाप नहीं थे. वे आमजन के कवि थे और उन्ही के साथ सड़क के आदमी थे, साहित्य के वातानुकूलित संग्रहालयों के नहीं. अदम सच मायने में एक जैविक जनकवि थे. 

ग्राम्सी ने लिखा है कि किसानों के पास अपना जैविक बुद्धिजीवी नहीं होता. वह अन्य वर्गों को जैविक बिद्धिजीवी प्रदान करता है लेकिन खुद के लिए नहीं. अदम गोंडवी इसके अपवाद हैं. अदम अन्य दलित-दबले-कुचले वर्गों के साथ कृषक वर्ग के भी बुद्धिजीवी हैं. साम्रदायिकता और जातिवाद के मुद्दों को भी वे वर्ग हित से जोड़कर देखते हैं और वर्ग-शत्रु की इन विचारधाराओं पार प्रखर प्रहार करते हैं:

ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी
फिर कहाँ से बीच में मस्जिद व मंदिर आ गए.
जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फसील
रामनामी ओढ़ कर संसद के अंदर आ गए.”


“हिंदू या मुस्लिम के एहसास को मत छेडिए
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिए.
छेडिए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिए.”

"भूख के एहसास को शेरो सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो."


अदम जी २८ मार्च २०११ को हिंदी भवन में काव्य पाठ करने आये थे. मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि अगले दिन अदम जी, हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित अपना संकलन, समय से मुठभेड़ देने, मेरे घर आयेंगे. यहां अनुल्लेखनीय नहीं होगा कि पत्र-पत्रिकाओं, गोष्ठियों के माध्यम से अदम गोंडवी का जनपक्षीय कविकर्म लगभग ४ दशकों से आम जन के मानस पटल पर दस्तक दे रहा था. कई क्रान्तिकारी सांस्कृतिक समूह उनकी कविताओं गानों को न जाने कब से स्वर देते रहे हैं. याद नहीं है, “सौ में सत्तर आदमी जब आज भी नाशाद है/दिल पे रख कर हाथ कहिए, देश क्या आज़ाद है” और अन्य गज़लें हम कब से उद्धृत करते आ रहे हैं, लेकिन यह किसी प्रतिष्ठित प्रकाशन से छपा उनका पहला संकलन है और कुल दूसरा. पहला संकलन, धरती की सतह पर १९८७-८८ में उनके मित्र, वरिष्ठ कवि-लेखक, सुरेश सलिल के अथक प्रयास से छपा था. २९ मार्च २०११ की उस शाम नहीं लगा था कि अदम जी के साथ ‘आचमन’ और आत्मीय विचार-विमर्श में बीते ४-५ घंटे जीवन के अविश्मरणीय क्षण होंगे और दुबारा दुर्लभ. उसके बाद १४-१६ अप्रैल को अदम जी का फिर दिल्ली आना हुआ और ३ दिन उनके साथ सत्संग का अवसर दुबारा मिला. उसका ज़िक्र आगे करूंगा. इन अंतिम दो मुलाकातों में उनके अन्दर एक अजीब सी बेचैनी दिखी जिसके बारे में वे कोइ उपयुक्त शेर सुनाकर उसी तरह टाल जाते थे जैसे 'संजीवनी' पर निर्भरता के सवाल. उनकी शराब के लिए संजीवनी शब्द का प्रयोग उनके बेटे आलोक करते थे जो की इस यात्रा में उनके साथ थे क्योंकि अदम जी स्वास्थ्य कारणों से अकेले यात्रा नहीं कर सकते थे. आद्यांत मदिरापान के बावजूद अदम की जबान भले ही लड़खड़ा जाए विचार और विश्लेषण की प्रखरता नहीं. 

अदम जी न संत थे, न शराबी. गोंडा जिले के परसपुर-आटा गाँव में एक संपन्न ठाकुर परिवार में पैदा हुए, विरल काव्य-प्रतिभा से संपन्न, अद्भुत स्वाध्याय और व्यवस्था की समझ एवं अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत, चिन्तक-कवि, अदम गोंडवी एक असाधारण रूप से साधारण इंसान थे. उनकी साधारणता उनका बड़प्पन था. रूसो और अदम में काफी समानताएं हैं.दोनों ही कबीर की तरह ‘जो घर फूके अपनों चले हमारे साथ’ के दर्शन में विश्वास करते थे और दोनों ही ५-७वी तक पढ़े थे. रूसो के विचार में, सभ्यता मनुष्यों के अन्दर दोगलेपन का संचार करती है. सम्मान पाने के चक्कर में वह वैसा दिखना चाहता है जैसा होता नहीं. आपातकाल के बाद जैसा सुखद आश्चर्य जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में गंगा ढाबे पर बाबा(नागार्जुन) के साथ पहली बार चाय पीते हुए, उनसे अभिनय-भाव में "बीबी इंदिरा हो......." सुनने में हुआ था, वैसा ही मंडी हाउस में ढाबे पर चाय के साथ अदम गोंडवी से, "सौ में सत्तर आदमी जब आज बी नाशाद है/दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है/.........." सुनकर. सलभ श्रीराम सिंह से "नफस- नफस कदम-कदम..........." सुनकर भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी. इन तीनों जनकवियों में और कई समानताओं के अलावा एक समानता यह थे कि तीनो ही सभ्यता के उपरोक्त गुण से वंचित थे.

सुनते हैं अदम कई बार बहुत ताम-झाम वाले आयोजनों के निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे. लेकिन हिन्दू कालेज के रतनलाल ने जब १४ अप्रैल २०११ को बाबा साहब आंबेडकर के जन्मदिवस के छोटे से आयोजन में आमंत्रित किया तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वह अदम जी के सार्वजनिक कविता पाठ के चंद अंतिम कार्यक्रमों में से एक था. उनके बेटे आलोक भी साथ थे. इतिहासकार डी.एन. झा की सदारत में भव्य कार्यक्रम हुआ. कुछ कवितायें उन्होंने पढ़ा और कुछ मेरे समेत उनके प्रशंसकों -- काली प्रसाद मौर्या, रविकांत और कृपाल—ने. चमारों की गली पढ़ना तो अदम जी ने शुरू किया और खत्म किया किया कली प्रसाद मौर्या ने. अंतिम पंक्तियों तक पहुंचते-पहुंचते वाचक और श्रोता सभी के गले रुद्ध हो गए और आँखे अश्रुपूरित. जरा सोचिये, वर्णाश्रमी-सामंतवादी सांस्कृतिक परिवेश और सन्दर्भ में पांचवीं-सातवीं तक पढ़े, पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक पिछड़े इलाके के एक जन्मना ठाकुर युवक की, चमारों की गली में जाकर ज़िंदगी के ताप को महसूसने और महासूसाने की; “अन्त्यज, कोरी, पाशी” की पीड़ा को आत्मसात कर “धर्म के ठेकेदारों” को उनकी र्दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए, चुनौती देने; और “समझदारों की दुनिया है विरोधाभाष की” की भौतिकवादी समझ की काव्याभ्यक्ति तक की यात्रा कितने कठिन और दुरूह आत्म-मंथन, स्वाध्याय, स्वनिर्माण और संस्कारों से विद्रोह के आत्म-संघर्षों की यात्रा होगी? यह भी सोचिये कि जिसने आमजन के जैविक बुद्धिजीवी की भूमिका ईमानदारी से निभाने के प्रयासों की इतनी लंबी यात्रा बिना किसी प्रोत्साहन के, अभाव-उपेक्षा और अन्य प्रतिकूलताओं के बावजूद बिना उफ़ किये इतने साहस से तय किया वह जीवन के अंतिम वर्षों में जीने के लिए मदिरा पर क्यों निर्भर हो जाता है?

अदम गोंडवी बनने से पहले उनका नाम रामनाथ सिंह था. और जब मौजूदा यथार्थ की क्रूर विसंगतियों को आत्मसात कर 'दुस्साहसी' "अभिव्यक्ति के खतरे" उठाकर अदम गोंडवी बने और "चमारों की गली में" "ज़िंदगी के ताप" को महसूसने-महासूसाने लगे, ठाकुरों की बस्ती में युयुत्सु बन गए. लेकिन अदम के क्रांतिकारी, जनपक्षीय सरोकार और एक न्यायपूर्ण समाज के सपने को साकार करने की ललक और प्रतिबद्धता अदम्य है. वे ललकार कर कहते हैं:

"ताला लगा के आप हमारी जबान को
कैदी न रख सकेंगे जेहन के उड़ान को."
और बिना लाग-लपेट के घोषणा करते हैं जो आज भी उतनी प्रासंगिक है जितनी तब तक रहेगी जब तक तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था भूमंडलीय पूंजी की सेवा में जनता पर ज़ुल्म ढाती रहेगी.

"पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में.
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ होशो हवाश में"

होशो हवाश में बगावत का रास्ता दिखाने वाले अदम क्रान्ति की निरंतरता में यकीन करते थे और नई पीढ़ियों की समझ और उनमें बदलाव की ललक और क्रांतिकारी उमंगो के प्रति काफी आशावादी थे.

"ये नई पीढी पे निर्भर है वही जजमेंट दे
फलसफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है."

और समतामूलक समाज के सपने को साकार करने का जिम्मा उसे ही सौंपते हैं:

"एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हे
झोपडी से राजपथ का रास्ता हमवार हो."

अदम ठेठ गंवई अंदाज़ और तेवर के कवि थे और किसानों-दलितों के दुःख-दर्द के कारणों की पहचान और और उनसे निज़ात पाने के रास्ते के अन्वेषण को समर्पित है अदम का कवि कर्म. उनकी कवितायें अपनी धार और शैली के पैनेपन के चलते शहरी मध्य वर्ग में भी लोकप्रिय हुईं,जैसा का मोहन श्रोत्रिय ने सही कहा है यह उनकी अतिरिक्त उपलब्धि है. अदम के लिए जीवन का कोई "जीवनेतर उद्देश्य" नहीं था. वे मानते थे एक "सार्थक" जीवन जीना अपने आप में बहुत बड़ा उद्देश्य है. और एक जनपक्षीय कवि के रूप में आख़िरी सांस तक अपने विचारों और कविकर्म से, तमाम तरह की प्रतिकूल परिस्थियों और वंचना/उपेक्षा के बावजूद अपने पक्ष और प्रतिबद्धता पर अडिग रहते हुए, जीवन की सार्थकता साबित करते रहे. 

इस लेख का उद्देश्य अदम गोंडवी की कविताओं का मूल्यांकन नहीं है जो की एक अलग बहस का मुद्दा है और यह बहस होनी ही चाहिए. न ही इसका उद्देश्य अदम के निजी जीवन को लेकर हो रही आलोचनाओं का जवाब देना है, उनकी रचनाएँ और पुरस्कारों/प्रतिष्ठानों से पारस्परिक वैमनष्यता का उनका सहज-सरल जीवन खुद जवाब हैं उनके. इसका उद्देश्य अदम के रचना-कर्म को उनकी हाल के दिनों की "अराजक जीवन शैली" और "शराब की लत" के निजी जीवन से पृथक कर के देखना भी नहीं है. ऐसा करना कर्मणा मार्क्सवादी, अदम के साथ अन्याय होगा. इसका उद्देश्य एक बड़े जनकवि को विनम्र श्रद्धांजलि देना है जिसने मजाज़, फैज़, दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, गोरख पाण्डेय जैसे जनकवियों की राजनैतिक कविताओं की परंपरा में एक नया आयाम जोड़ा. मई इस कामना के साथ जनकवि अदम गोंडवी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ के उनकी कवितायें उनके न रहने पर “खुदसरी की राह परपर” चलने वाले रहनुमाओं की नींदे और हराम करें.
नीचे अदम की कुछ कविताओं के कुछ अंशों के साथ मैं दुबारा इस आमजन के खास कवि को जो स्वयं आमजन था, हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.

अगर खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमा
कुर्सी के लिए गिरते सम्हलते हों रहनुमा
गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमा
टुकड़ों पे जमाखोर के पलते हो रहनुमा
जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले.
गर खुद को कोई मुल्क तकदीर समझ ले
हर शै को ओने ख्वाब की तावीर समझ लेदम
अपणा बयान वेद की तहरीर समझले
जनगण को खानदान की जागीर समझ ले
जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले.


काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
...................................

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर मगर
बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे वो
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
....................................

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
......

भटकती है हमारे गांव में गूंगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहबत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
....................................

सब्र की इक हद भी होती है तवजो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
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अदब का आइना उन तंग गलियों से गुजऱता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-कय़ामत का सफऱ ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रखें 'धूमिल' की विरासत को कऱीने से.
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जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
....................................

जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
....................................

गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
तो इससे किसी कौम की तकदीर बदल दोगे
जो अक्स उभरता है रसखान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे
जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आया
मोड़ोगे उसकी धरा या नीर बाल दोगे
तारीख बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविडों से छीनी जागीर बदल दोगे.

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जितने जमाखोर थे कुर्बो-जवार में
परधान बनके आ गए अह्गली कतार में.
दीवार फांदने में यूं जिनका रिकार्ड था
चौदहरी बने हैं उम्र के उतार में
जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दें
समझो कोइ गरीब फंसा है शिकार में.

.......................

किसी का रंग धानी है किसी का रंग पीला है
जमातों में बंटा है अपने अदीबों का कबीला है.

........................

नीलोफर सबनम नहीं अंगार की बातें करो
वक़्त के बदले हुए मेआर की बातें करो
भाप बन सकती पानी अहगर हो नीम गर्म
क्रान्ति लेन के लिए हथियार की बातें करो
आसमानी बाप से जब प्यार कर सकते नहीं
इस जमीं के ही किसी किरदार की बातें करो
तर्क कर तनकीद के जज्बे को मर जाती है कौम
जुर्म है ठहराव अब रफ़्तार की बातें करो

...................

जिसकी गर्मी से महकते है बगावत के गुलाब
आप के सीने में महफूज़ वह चिंगारी रहे

...................................

वेद मे जिनका जिक्र हाशिए पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां संबुक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें.

..................

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

ईश मिश्र
१७ बी, विश्वविद्यालय मार्ग
हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
ईमेल: mishraish@gmail.com

"ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुँटता है इन अदबी इदारों में ."

लेकिन वरिष्ठ लेखक-कवि मोहन श्रोत्रिय जैसे लोगों ने अदम की कविताओं की धार और प्रहार के पैनेपन के ही प्रसंग से एक तथ्यपरक मूयांकन के साथ श्रधांजलि दी है: "वह अकेले बहुतेरे कवियों से अधिक सार्थक और प्रेरक काम कर रहे थे. ...... यह अनुल्लेखनीय नहीं है की उनकी रचनाएँ प्रतिष्ठानी समर्थन-अनुमोदन-प्रोत्साहन के बगैर लोकप्रिय हुईं." बोधिसत्व ने अदम को "नक्कालों की दुनिया में" "एक खुले मन का कवि" बताया. "उनमें ऐसी कई बातें थीं जो आज इन्स्सानियत के अजूबघर में, कवि समाज के म्युजियम में भी नहीं मिलतीं."
ऐसी असन्दिग्ध प्रतिबद्धता, इतनी संवेदनशीलता और सम्प्रेषण की ऐसी पैनीधर वाले चिन्तक/कवी/लेखखक/कलाकार -- "संस्कृतिकर्मी" -- "अराजक जीवन और असीम मदिरापान" के "व्यसन" में क्यों डूबते हैं? इन उप्देश्क्कों ने कभी सोचा कि क्यों कोइ रूसो या गोरख पाण्डेय विक्षिप्त हो जाता है है या आत्महत्या कर लेता है? शोषण-दमन के विरुद्ध "बगावत" की गुहार लगाने और "जनता को हक है कि हथियार उठा ले " जैसा बेख़ौफ़-बेबाक वक्तव्य देने वाला अदम गोंडवी क्यों मदिरामय हो जाता है? शासक वर्ग विचारों के “खतनाक” असर को खत्म करने के मकसद से विचारक को ही ख़त्म कर देता है, लेकिन वह नहीं जनता कि इससे वे विचार और भी “खतरनाक” हो जाते हैं. उसी तरह कविता की धार के पैनेपन से जूझने में असमर्थ शासक वर्गों के भोंपू मरणोपरांत कवि के निजी आचरण पर कीचड उछालना शुरू कर देते हैं, यह जाने बिना कि इससे कविता की धार और तेज हो जायेगी. किसी ने सही कहा है: ‘क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो/इससे तो और निखर जायेगी आवाज़’. अदम की कवितायें, उन्ही क्र शब्दों में, “बयान” हैं.
“एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल,
मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल.
दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम,
शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल.”
“मदिरामय” “अराजकजी जीवन-शैली” के अंतिम कुछ वर्षों में भी अदम काका कलम मौन नहीं रहा. पोस्ट-माडर्निजम पर प्रासंगिक टिप्पणी वाली कविता हाल की है.
“तुलसी इनके लिए विधर्मी,
देरीदा को खास लिखेंगे.
इनके कुत्सित संबंधों से
पाठक का क्या लेना-देना
लेकिन ये तो जिद पे अड़े हैं
अपना भोग-विलास लिकेंगे.

अदम की कविताओं का उनके उचित सन्दर्भ में मूल्यांकन, साबित करेगा कि उनकी गणना पिछली और इस सदी के महान जनकवियों में होनी चाहिए. राजनैतिक ग़जलों की जो परम्परा दुष्यंत ने शुरू किया, अदम उसे एक नए मुकाम तक ले गए. आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे वर्तमान में अदम की कवितायें और भी प्रासंगिक हैं. लेकिन साथ होने पर लगता ही नहीं था कि पुरस्कारों और प्रतिष्ठानों से अछूते, मटमैले कुरता-धोती-गमछा में गंवई किसान दिखने वाले, कुछ अपनी और ज्यादा अपने समानधर्मी कवियों की कवितायें और संस्मरण, सखा-भाव और बाल-सुलभ उत्सुकता से सुनाने वाले, अदम गोंडवी इतने बड़े आदमी थे. "अदीबों की नयी पीढी से" धूमिल की विरासत को करीने से" "संजो कर" रखने की गुजारिश" करने वाले अदम जी, नागार्जुन पर लिखी अपनी कविता बहुत चाव से सुनाते थे. बिना प्रतिस्पर्धा के अपने समानधर्मी पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों के प्रति अतिशय सम्मान और उनकी विरासत को आगे बढाने की अदम की धुन उल्लेखानीय है. पिछले कई सालों से बातची वे अक्सर अपने को “सड़कछाप” कहा करते थे. अदम जी सड़कछाप नहीं थे. वे आमजन के कवि थे और उन्ही के साथ सड़क के आदमी थे, साहित्य के वातानुकूलित संग्रहालयों के नहीं. अदम सच मायने में एक जैविक जनकवि थे.

ग्राम्सी ने लिखा है कि किसानों के पास अपना जैविक बुद्धिजीवी नहीं होता. वह अन्य वर्गों को जैविक बिद्धिजीवी प्रदान करता है लेकिन खुद के लिए नहीं. अदम गोंडवी इसके अपवाद हैं. अदम अन्य दलित-दबले-कुचले वर्गों के साथ कृषक वर्ग के भी बुद्धिजीवी हैं. साम्रदायिकता और जातिवाद के मुद्दों को भी वे वर्ग हित से जोड़कर देखते हैं और वर्ग-शत्रु की इन विचारधाराओं पार प्रखर प्रहार करते हैं:

ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी
फिर कहाँ से बीच में मस्जिद व मंदिर आ गए.
जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फसील
रामनामी ओढ़ कर संसद के अंदर आ गए.”


“हिंदू या मुस्लिम के एहसास को मत छेडिए
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिए.
छेडिए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिए.”

"भूख के एहसास को शेरो सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो."


अदम जी २८ मार्च २०११ को हिंदी भवन में काव्य पाठ करने आये थे. मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि अगले दिन अदम जी, हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित अपना संकलन, समय से मुठभेड़ देने, मेरे घर आयेंगे. यहां अनुल्लेखनीय नहीं होगा कि पत्र-पत्रिकाओं, गोष्ठियों के माध्यम से अदम गोंडवी का जनपक्षीय कविकर्म लगभग ४ दशकों से आम जन के मानस पटल पर दस्तक दे रहा था. कई क्रान्तिकारी सांस्कृतिक समूह उनकी कविताओं गानों को न जाने कब से स्वर देते रहे हैं. याद नहीं है, “सौ में सत्तर आदमी जब आज भी नाशाद है/दिल पे रख कर हाथ कहिए, देश क्या आज़ाद है” और अन्य गज़लें हम कब से उद्धृत करते आ रहे हैं, लेकिन यह किसी प्रतिष्ठित प्रकाशन से छपा उनका पहला संकलन है और कुल दूसरा. पहला संकलन, धरती की सतह पर १९८७-८८ में उनके मित्र, वरिष्ठ कवि-लेखक, सुरेश सलिल के अथक प्रयास से छपा था. २९ मार्च २०११ की उस शाम नहीं लगा था कि अदम जी के साथ ‘आचमन’ और आत्मीय विचार-विमर्श में बीते ४-५ घंटे जीवन के अविश्मरणीय क्षण होंगे और दुबारा दुर्लभ. उसके बाद १४-१६ अप्रैल को अदम जी का फिर दिल्ली आना हुआ और ३ दिन उनके साथ सत्संग का अवसर दुबारा मिला. उसका ज़िक्र आगे करूंगा. इन अंतिम दो मुलाकातों में उनके अन्दर एक अजीब सी बेचैनी दिखी जिसके बारे में वे कोइ उपयुक्त शेर सुनाकर उसी तरह टाल जाते थे जैसे 'संजीवनी' पर निर्भरता के सवाल. उनकी शराब के लिए संजीवनी शब्द का प्रयोग उनके बेटे आलोक करते थे जो की इस यात्रा में उनके साथ थे क्योंकि अदम जी स्वास्थ्य कारणों से अकेले यात्रा नहीं कर सकते थे. आद्यांत मदिरापान के बावजूद अदम की जबान भले ही लड़खड़ा जाए विचार और विश्लेषण की प्रखरता नहीं.

अदम जी न संत थे, न शराबी. गोंडा जिले के परसपुर-आटा गाँव में एक संपन्न ठाकुर परिवार में पैदा हुए, विरल काव्य-प्रतिभा से संपन्न, अद्भुत स्वाध्याय और व्यवस्था की समझ एवं अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत, चिन्तक-कवि, अदम गोंडवी एक असाधारण रूप से साधारण इंसान थे. उनकी साधारणता उनका बड़प्पन था. रूसो और अदम में काफी समानताएं हैं.दोनों ही कबीर की तरह ‘जो घर फूके अपनों चले हमारे साथ’ के दर्शन में विश्वास करते थे और दोनों ही ५-७वी तक पढ़े थे. रूसो के विचार में, सभ्यता मनुष्यों के अन्दर दोगलेपन का संचार करती है. सम्मान पाने के चक्कर में वह वैसा दिखना चाहता है जैसा होता नहीं. आपातकाल के बाद जैसा सुखद आश्चर्य जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में गंगा ढाबे पर बाबा(नागार्जुन) के साथ पहली बार चाय पीते हुए, उनसे अभिनय-भाव में "बीबी इंदिरा हो......." सुनने में हुआ था, वैसा ही मंडी हाउस में ढाबे पर चाय के साथ अदम गोंडवी से, "सौ में सत्तर आदमी जब आज बी नाशाद है/दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है/.........." सुनकर. सलभ श्रीराम सिंह से "नफस- नफस कदम-कदम..........." सुनकर भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी. इन तीनों जनकवियों में और कई समानताओं के अलावा एक समानता यह थे कि तीनो ही सभ्यता के उपरोक्त गुण से वंचित थे.

सुनते हैं अदम कई बार बहुत ताम-झाम वाले आयोजनों के निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे. लेकिन हिन्दू कालेज के रतनलाल ने जब १४ अप्रैल २०११ को बाबा साहब आंबेडकर के जन्मदिवस के छोटे से आयोजन में आमंत्रित किया तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वह अदम जी के सार्वजनिक कविता पाठ के चंद अंतिम कार्यक्रमों में से एक था. उनके बेटे आलोक भी साथ थे. इतिहासकार डी.एन. झा की सदारत में भव्य कार्यक्रम हुआ. कुछ कवितायें उन्होंने पढ़ा और कुछ मेरे समेत उनके प्रशंसकों -- काली प्रसाद मौर्या, रविकांत और कृपाल—ने. चमारों की गली पढ़ना तो अदम जी ने शुरू किया और खत्म किया किया कली प्रसाद मौर्या ने. अंतिम पंक्तियों तक पहुंचते-पहुंचते वाचक और श्रोता सभी के गले रुद्ध हो गए और आँखे अश्रुपूरित. जरा सोचिये, वर्णाश्रमी-सामंतवादी सांस्कृतिक परिवेश और सन्दर्भ में पांचवीं-सातवीं तक पढ़े, पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक पिछड़े इलाके के एक जन्मना ठाकुर युवक की, चमारों की गली में जाकर ज़िंदगी के ताप को महसूसने और महासूसाने की; “अन्त्यज, कोरी, पाशी” की पीड़ा को आत्मसात कर “धर्म के ठेकेदारों” को उनकी र्दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए, चुनौती देने; और “समझदारों की दुनिया है विरोधाभाष की” की भौतिकवादी समझ की काव्याभ्यक्ति तक की यात्रा कितने कठिन और दुरूह आत्म-मंथन, स्वाध्याय, स्वनिर्माण और संस्कारों से विद्रोह के आत्म-संघर्षों की यात्रा होगी? यह भी सोचिये कि जिसने आमजन के जैविक बुद्धिजीवी की भूमिका ईमानदारी से निभाने के प्रयासों की इतनी लंबी यात्रा बिना किसी प्रोत्साहन के, अभाव-उपेक्षा और अन्य प्रतिकूलताओं के बावजूद बिना उफ़ किये इतने साहस से तय किया वह जीवन के अंतिम वर्षों में जीने के लिए मदिरा पर क्यों निर्भर हो जाता है?

अदम गोंडवी बनने से पहले उनका नाम रामनाथ सिंह था. और जब मौजूदा यथार्थ की क्रूर विसंगतियों को आत्मसात कर 'दुस्साहसी' "अभिव्यक्ति के खतरे" उठाकर अदम गोंडवी बने और "चमारों की गली में" "ज़िंदगी के ताप" को महसूसने-महासूसाने लगे, ठाकुरों की बस्ती में युयुत्सु बन गए. लेकिन अदम के क्रांतिकारी, जनपक्षीय सरोकार और एक न्यायपूर्ण समाज के सपने को साकार करने की ललक और प्रतिबद्धता अदम्य है. वे ललकार कर कहते हैं:

"ताला लगा के आप हमारी जबान को
कैदी न रख सकेंगे जेहन के उड़ान को."
और बिना लाग-लपेट के घोषणा करते हैं जो आज भी उतनी प्रासंगिक है जितनी तब तक रहेगी जब तक तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था भूमंडलीय पूंजी की सेवा में जनता पर ज़ुल्म ढाती रहेगी.

"पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में.
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ होशो हवाश में"

होशो हवाश में बगावत का रास्ता दिखाने वाले अदम क्रान्ति की निरंतरता में यकीन करते थे और नई पीढ़ियों की समझ और उनमें बदलाव की ललक और क्रांतिकारी उमंगो के प्रति काफी आशावादी थे.

"ये नई पीढी पे निर्भर है वही जजमेंट दे
फलसफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है."

और समतामूलक समाज के सपने को साकार करने का जिम्मा उसे ही सौंपते हैं:

"एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हे
झोपडी से राजपथ का रास्ता हमवार हो."

अदम ठेठ गंवई अंदाज़ और तेवर के कवि थे और किसानों-दलितों के दुःख-दर्द के कारणों की पहचान और और उनसे निज़ात पाने के रास्ते के अन्वेषण को समर्पित है अदम का कवि कर्म. उनकी कवितायें अपनी धार और शैली के पैनेपन के चलते शहरी मध्य वर्ग में भी लोकप्रिय हुईं,जैसा का मोहन श्रोत्रिय ने सही कहा है यह उनकी अतिरिक्त उपलब्धि है. अदम के लिए जीवन का कोई "जीवनेतर उद्देश्य" नहीं था. वे मानते थे एक "सार्थक" जीवन जीना अपने आप में बहुत बड़ा उद्देश्य है. और एक जनपक्षीय कवि के रूप में आख़िरी सांस तक अपने विचारों और कविकर्म से, तमाम तरह की प्रतिकूल परिस्थियों और वंचना/उपेक्षा के बावजूद अपने पक्ष और प्रतिबद्धता पर अडिग रहते हुए, जीवन की सार्थकता साबित करते रहे.

इस लेख का उद्देश्य अदम गोंडवी की कविताओं का मूल्यांकन नहीं है जो की एक अलग बहस का मुद्दा है और यह बहस होनी ही चाहिए. न ही इसका उद्देश्य अदम के निजी जीवन को लेकर हो रही आलोचनाओं का जवाब देना है, उनकी रचनाएँ और पुरस्कारों/प्रतिष्ठानों से पारस्परिक वैमनष्यता का उनका सहज-सरल जीवन खुद जवाब हैं उनके. इसका उद्देश्य अदम के रचना-कर्म को उनकी हाल के दिनों की "अराजक जीवन शैली" और "शराब की लत" के निजी जीवन से पृथक कर के देखना भी नहीं है. ऐसा करना कर्मणा मार्क्सवादी, अदम के साथ अन्याय होगा. इसका उद्देश्य एक बड़े जनकवि को विनम्र श्रद्धांजलि देना है जिसने मजाज़, फैज़, दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, गोरख पाण्डेय जैसे जनकवियों की राजनैतिक कविताओं की परंपरा में एक नया आयाम जोड़ा. मई इस कामना के साथ जनकवि अदम गोंडवी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ के उनकी कवितायें उनके न रहने पर “खुदसरी की राह परपर” चलने वाले रहनुमाओं की नींदे और हराम करें.
नीचे अदम की कुछ कविताओं के कुछ अंशों के साथ मैं दुबारा इस आमजन के खास कवि को जो स्वयं आमजन था, हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.

अगर खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमा
कुर्सी के लिए गिरते सम्हलते हों रहनुमा
गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमा
टुकड़ों पे जमाखोर के पलते हो रहनुमा
जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले.
गर खुद को कोई मुल्क तकदीर समझ ले
हर शै को ओने ख्वाब की तावीर समझ लेदम
अपणा बयान वेद की तहरीर समझले
जनगण को खानदान की जागीर समझ ले
जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले.


काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
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जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर मगर
बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे वो
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
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हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
......

भटकती है हमारे गांव में गूंगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहबत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
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सब्र की इक हद भी होती है तवजो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
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अदब का आइना उन तंग गलियों से गुजऱता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-कय़ामत का सफऱ ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रखें 'धूमिल' की विरासत को कऱीने से.
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जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
....................................

जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
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गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
तो इससे किसी कौम की तकदीर बदल दोगे
जो अक्स उभरता है रसखान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे
जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आया
मोड़ोगे उसकी धरा या नीर बाल दोगे
तारीख बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविडों से छीनी जागीर बदल दोगे.

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जितने जमाखोर थे कुर्बो-जवार में
परधान बनके आ गए अह्गली कतार में.
दीवार फांदने में यूं जिनका रिकार्ड था
चौदहरी बने हैं उम्र के उतार में
जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दें
समझो कोइ गरीब फंसा है शिकार में.

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किसी का रंग धानी है किसी का रंग पीला है
जमातों में बंटा है अपने अदीबों का कबीला है.

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नीलोफर सबनम नहीं अंगार की बातें करो
वक़्त के बदले हुए मेआर की बातें करो
भाप बन सकती पानी अहगर हो नीम गर्म
क्रान्ति लेन के लिए हथियार की बातें करो
आसमानी बाप से जब प्यार कर सकते नहीं
इस जमीं के ही किसी किरदार की बातें करो
तर्क कर तनकीद के जज्बे को मर जाती है कौम
जुर्म है ठहराव अब रफ़्तार की बातें करो

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जिसकी गर्मी से महकते है बगावत के गुलाब
आप के सीने में महफूज़ वह चिंगारी रहे

...................................

वेद मे जिनका जिक्र हाशिए पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां संबुक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें.

..................

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

ईश मिश्र
१७ बी, विश्वविद्यालय मार्ग
हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
ईमेल: mishraish@gmail.com

Tuesday, December 20, 2011

adam ko lal salam

आप मजरूह का शेर सुनया करते थे, " सुतून-ए-दार पर रखते चलो सरों के चिराग़ ,के जहां तक यह सितम की सियाह रात चले." और एक सच्चे मार्क्सवादी की तरह करनी और कथनी में एका स्थापित करते हुए सितम की सियाह रात तक सरौं के चराग रखते चलते रहे. दूर तक जायेगी लौ इन चरागो की. विदा होने के बाद आप और खतरनाक हो गये हैं "कमीसन लेकर 'हिंदुस्तान को नीलाम' करने वाले लोगों के लिये. लाल सलाम मान्यवर. मुझे फक्र है कि आप मुझे मित्र और अनुज मानते थे. आप कभी नही मरेंगे मान्यवर! थोड़े दिन और रुक्ते तो कितना कुछ और दे जाते! आपके साथ बीता कुछ समय और कुछ शामें मेरी जीवनी के अहम हिस्से होंगे. आपकी सुंदर लिखावट में दस्त्खत के सथ अपने इस "प्रिय अनुज" को भेंट की गयी "समय' से मुठभेड़" मैं अपने grandchildren के लिये सुरक्षित रखूँगा. लाल सलाम मान्यवर.

Monday, December 19, 2011

अदम

अदम जी से पिछले एक साल से लगातार संपर्क में था. अंतिम बार बीमार पड़ने और PGI में भारती होने के एक सप्ताह पहले फोन पर बात हुई थी और उन्होंने बताया था की कुछ दिन अस्पताल में रह कर वे स्वस्थ महसूस कर रहे थे और "प्रभाती" भी छोड़ दिए थे. एक महीने के अन्दर दिल्ली एम्स में इलाज़ करने आने वाले थे और Gastrontology के प्रोफेस्सर और अदम के प्रशंसक डॉ अनूप सराय से बात भी हो गयी थी लेकिन......
अदम २८ मार्च को दिल्ली हिंदी भवन में कविता पढ़ने आये थे और २९ मार्च को "समय से मुठभेड़" की प्रति देने मेरे घर आये उसी रात उन्हें वापस जाना था. १४ अप्रैल को हिन्दू कॉलेज में आंबेडकर दिवस पर उनका काव्यपाठ का कार्यक्रम था. आयोजन हिन्दू कालेज के ही रतनलाल ने किया था. उनके बेटे आलोक भी साथ थे. इतिहासकार डी.एन. झा की सदारत में भव्य कार्यक्रम हुआ. कुछ कवितायें उन्होंने पढ़ा और कुछ मेरे समेत उनके प्रशंसकों -- काली प्रसाद मौर्या, रविकांत और कृपाल--ने. जो भी मानदेय मिला उसका इस्तेमाल उन्होंने ने गेंहू की मड़ाई पर खर्च किया. शराब पीते थे अदम लेकिन शराबी (अल्कोहलिक) नहीं थे. १६ दिसंबर को अन्य मित्रों के साथ मैंने भी फेसबुक पर योगदान के लिए पोस्ट लिया था और १७ की रात उनके फोन पर उनके भतीजे दिलीप से बात हुई तो पता चला होश में आ गए हैं लोगों को पहचान रहे हैं लेकिन बात नहीं कर पा रहे हैं. १८ की सुबह बात करने की आशा में के फोन करने पर दिलीप से ही दुखद खबर मिली. इतना बड़ा आदमी और इतनी सहजता-- कोटिक नमन मान्यवर. अदम मित्रों और प्रशंसकों को आदरणीय कहते थे.
मित्रों! कैसी विडम्बना है,अदम जैसा क्रांतिकारी कवि जीवन के अंतिम साल पैसों के अभाव में बिताए ज़िंदगी से किसी समझौते के बगैर ......... नेहरु जी ने निराला को वजीफा देने का आग्रह हिंदी साहियासभा तत्कालीन अध्यक्ष को ख़त लिखा था लेकिन आज के हुक्मरानों में घोटालों की चिंता रहती है कवियों की नहीं वह भी ऐसा कवि जो संसद को नखास कहे और बगावत की वकालत करे!
अदम की क्रांतिकारी विरासत को आगे बढाने की जरूरत है. लाल सलाम

तकलीफ का इक समंदर

इन आँखों से छलकने को है तकलीफ का इक समंदर
लेकिन जज्बा-ए- इन्किलाब भी है उसके अन्दर
चहरे के भाव में संकल्प छिपे हैं ऐसे
दुनिया बदलने निकल पडी है कोई ज्वाला जैसे
इश्क़ करने को कहता है दिल कर पार उम्र की दहलीज
मिल जाए गर ज़िंदगी में कोई ऐसा अज़ीज़

Saturday, December 17, 2011

adam gondavi

मित्रों, हिंदी के जाने-माने जनकवि अदम गोंडवी काफी गंभीर स्थिति में लखनऊ PGI में भारती हैं. "सौ में सत्तर आदमी जब आज भी नासाज़ है/दिल पर रख कर हात कहिये देश क्या आज़ाद है". सौ में सत्तर नासाज़ लोगों की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाले और भ्रष्ट और और जनविरोधी व्यवस्था के खिलाफ "जनता के पास एक ही हथियार है बगावत" और उसके "हथियार उठाने" के हक की हिमायत करने वाले और खुद को "सड़कछाप" कहने वाले अदम जी अस्पताल में मौत को चुनौती दे रहे हैं. जनता का फ़र्ज़ है की मौत से लड़ रहे अदम के साथ खडी हो. हम लोग जितना भी हो सके दुवाओं के अलावा आर्थिक सहयोग भी करें क्योंकि अदम जीरो-बैलंस ज़िन्दगी के सुख के आदी हैं. SBI गोंडा जिले की परसपुर शाखा में अदम गोंडवी का खाता संख्या है:310562283 . उनका फोन नंबर है: 09454798202 . वे होश में तो हैं लेकिन बात-चीत करने की हालत में नहीं, उनके बेटे से बात हो सकती है. सभी मित्रों से आग्रह है की जितना भी हो सके 1000 -500 उनके खाते में जमा करके उनके इलाज़ में मदद करें. दिल्ली में उनके भतीजे, दिलीप का नम्बर है:9958253708










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Tuesday, December 13, 2011

virtue of parity

If people try to bring you down
They think
You are above them
They are wrong
They don’t understand the pleasure
And the virtue of parity

Monday, November 21, 2011

Stop War against Adivasis of India

inst the poor and Adivasis.
http://www.facebook.com/thomasvanbeersum)
In late 2009, with an array of military forces, hi-tech support and utmost cruelty, the government of India launched Operation Green Hunt. India is economically on the move and its rulers are eager to upgrade their partnership with global imperialism. They cannot tolerate the fact that large swaths of the country are no longer under their control, and are determined to crush anything that stands in their way, especially the Communist Party of India (Maoist) and the masses hungry for radical change. This unprecedented internal military offensive is taking place in the forests and hills that are the homeland of many different Adivasi (Indigenous) tribes in the central and eastern Indian states of Chhattisgarh, Jharkand, Orissa, Andhra Pradesh, Maharashtra and West Bengal. Indian and international corporations are itching to tear up these lands to get their hands on the riches that lies under them, minerals like bauxite, coal and iron ore. The forests are a source of livelihood for the Adivasis, but to be able to use them they have had to struggle against the forest police, local police and vigilante groups like the Salwa Judum who destroy their crops, steal their farm animals, rape the women and kill young and old alike. Since the early 1990s through an economic liberalization fostered by the then finance minister Manmohan Singh (now prime minister), India has been on a fast track to playing a more major role in the global economy. In the process the contrast between the fabulously rich and the desperately poor has widened tremendously. In between, a growing middle class of call centre agents, IT specialists, market research company employees, etc., has grown to 200 million. India has been welcomed into the fraternity of global nuclear powers on signing a joint nuclear treaty with the U.S. in 2008. The economic growth rate has been around 8 percent for a number of years and the country’s elite is bursting with self-confidence in their ability and desire to exploit superprofits from the productive forces, the enormous pool of cheap labour and land and mineral resources. There has been no trickle-down to the bottom rungs of society. Instead the situation for about half of India’s people has become worse since liberalization. One such group of exploiting capitalists are the Tatas. The Tata family owns the sixth largest steel company in the world and some of its companies are located on the edges of the tribal areas. Tata has lined up a number of “greenfield” projects in and outside of India to expand their steel production by millions of tonnes. A greenfield project is one built where nothing has been constructed before, so the land is cheap and there is no need to remodel or demolish any existing structures or pay other large expenses. Tata has already signed agreements with the government to build industrial sites on tribal lands in Orissa, Jharkhand and Chhattisgarh. Operation Green Hunt’s precursor was the Salwa Judum, vigilante militias funded by the governing parties and local state governments. The leaking of a draft government report stating that Salwa Judum was first funded by Tata and Essor Steel created an outburst in the press; that part was subsequently edited out of the final version. Salwa Judum recruited those local people who could be bought to work as bullies and informers, sometimes offering free mobile phones in exchange for information. For those they couldn’t buy, they exercised a reign of terror. The official figure of emptied villages in Chhattisgarh is 644. Thousands of villagers were murdered. Thousands were arbitrarily arrested and left rotting in jail. Over 300,000 people were displaced. In attempting to separate the people from the CPI (Maoist), nearly 50,000 were forced to live in Vietnam-style strategic hamlets. Villagers who did not move into the hamlets were considered Maoists by the authorities. Independent journalists and intellectuals who tried to report on these atrocities were beaten, jailed or otherwise prevented from investigating Salwa Judum’s actions. During this same period Prime Minister Manmohan Singh declared the CPI (Maoist) the “gravest internal security threat” to India. The “land to the tiller” views of CPI (Maoist) are in contradiction to India’s rising capitalist development at its most competitive and cutthroat. As a CPI (Maoist) cadre told the activist and author Arundhati Roy, “They want to crush us, not only because of the minerals, but because we are offering the world an alternative model. “ Some accounts of life under the shadow of Salwa Judum The following are soundbites from a major article by Arundhati Roy called “Walking with the Comrades”. They are accounts from women who are part of Krantikari Adivasi Mahila Sangathan, a mass organization led by CPI (Maoist) that claims a membership of 90,000 women. The KAMS takes up issues like forced marriages, bigamy, domestic violence and the need to break with traditional tribal thinking that oppresses women. When the men are taken away, these women also go en masse to the jails and sometimes succeed in getting them released. “As police repression has grown in Bastar, the women of KAMS have become a formidable force and rally in their hundreds, sometimes thousands, to physically confront the police. The very fact that the KAMS exists has radically changed traditional attitudes and eased many of the traditional forms of discrimination against women. For many young women, joining the party, in particular the People’s Liberation Guerrilla Army, became a way of escaping the suffocation of their own society. Comrade Sushila, a senior officer of KAMS, talks about the Salwa Judum’s rage against KAMS women. She says one of their slogans was Hum Do Bibi layenge! Layenge! (We will have two wives! We will!) A lot of the rape and bestial sexual mutilation was directed at members of the KAMS. Many young women who witnessed the savagery then joined the PLGA and now women make up 45 percent of its cadre. Comrade Narmada sends for some of them and they join us in a while. “Comrade Rinki has very short hair. A bob-cut as they say in Gondi (language). It’s brave of her, because here, ‘bob-cut’ means ‘Maoist’. For the police that’s more than enough evidence to warrant summary execution. Comrade Rinki’s village, Korma, was attacked by the Naga Battalion and the Salwa Judum in 2005. At that time Rinki was part of the village militia. So were her friends Lukki and Sukki, who were also members of the KAMS. After burning the village, the Naga battalion caught Lukki and Sukki and one other girl, gang raped and killed them. ‘They raped them on the grass,’ Rinki says, ‘but after it was over there was no grass left.’ It’s been years now, the Naga Battalion has gone, but the police still come. ‘They come whenever they need women, or chickens.’ “Ajitha has a bob-cut too. The Judum came to Korseel, her village, and killed three people by drowning them in a nallah [stream or canal]. Ajitha was with the [guerrilla] militia, and followed the Judum at a distance to a place close to the village called Paral Nar Todak. She watched them rape six women and shoot a man in his throat. “Sumitra tells the story of two of her friends, Telam Parvati and Kamla, who worked with KAMS. Telam Parvati was from Polekaya village in South Bastar. Like everyone else from there, she too watched the Salwa Judum burn her village. She then joined the PLGA and went to work in the Keshkal ghats [an area in Chhattisgar] . In 2009 she and Kamla had just finished organizing the March 8 Women’s Day celebrations in the area. They were together in a little hut just outside a village called Vadgo. The police surrounded the hut at night and began to fire. Kamla fired back, but she was killed. Parvati escaped, but was found and killed the next day. “Comrade Laxmi, who is a beautiful girl with a long plait, tells me she watched the Judum burn thirty houses in her village Jojor. ‘We had no weapons then,’ she says, ‘we could do nothing, but watch.’ She joined the PLGA soon after. Laxmi was one of the 150 guerrillas who walked through the jungle for three and a half months in 2008, to Nayagarh in Orissa, to raid a police armoury from where they captured 1,200 rifles and 200,000 rounds of ammunition.” The Adivasis, through with the PLGA lead by the CPI (Maoist), succeeded in putting up stiff and effective resistance to the Salwa Judum. Over the last year in Lalgarh, in the state of West Bengal, an important movement arose against police repression and a major corporate development project planned by the state government. Unnerved by their tenacious resistance, the government meted out terrible atrocities to the tribals. Consequently over a 1,000 villages formed People’s Committees against Police Atrocities (PCPA). They demanded that the officials responsible for the atrocities be punished. They threw out the existing administrative structure, and started constructing a new society, building roads, digging wells, distributing land and creating collective agricultural formations. They started schools, built clinics, and invited doctors and nurses from outside. They are trying to build a self-reliant economy and develop a collective agriculture. The Maoists played a leading role in this from the beginning. The struggle in Lalgarh gained support from many progressive forces throughout the country and internationally. It demonstrated that the Salwa Judum was insufficient to drive the tribals off their land. As a repressive force, it was inadequate for the task. Enter Operation Green Hunt With Operation Green Hunt the burning, killing, looting, torturing and raping has increased exponentially. Unlike Salwa Judum this operation is coordinated by the central government, which predicts a long and bloody war until the tribal area is “sanitized” and the Naxalites (as the government calls the Maoists) defeated. More than 10,000 military and paramilitary troops are being sent into the Adivasi areas. The plan is for the occupiers to gradually spread from one “sanitized” area to another. Twenty Warfare Training Schools are being built in India. Mahmohan Singh recently spent $18 billion in the U.S. to buy huge amounts of military supplies and munitions, including the latest state-of-the- art global positioning systems and night-vision- capable automatic rifles. Drones are being provided by Israel. And the Israeli Mossad is training Indian police as snipers. Media reports suggest that their mission is to assassinate leaders of the CPI (Maoist) and the mass movement. According to numerous well-documented reports from sources not necessarily friendly to CPI (Maoist), 30 to 40 tribal people are being killed each week in the Adivasi belt. In Goompad village, Chhattisgarh, witnesses who reported a police massacre were disappeared. (Tehelka.com, 24 February, 2010). On 22 February, the Central Reserve Police Force (CRPF) murdered one such leader, Sri Lalmohan Tudu, the elected president of the People’s Committee against Police Atrocities, and two other people in Lalgarh. Conflicting police versions emerged about how Tudu died. One said he was killed while attacking a police camp, another that he was with a Maoist squad and was apprehended in a CRPF raid. Eyewitness accounts say he was killed near his home and his body was dragged into the paddy fields nearby. Tudu was one of the main representatives of the PCPA in negotiations with officials of the state government. At no time was he accused of being a Maoist. According to Tudu’s wife, the authorities “had been hunting him since last June. He tried to come to the house that day but he was kidnapped that night. We heard gunshots and feared the worst. We never found out what had happened until the next morning when we heard his body was in the morgue.” A member of a democratic rights organization said there is a shoot-on-sight order against the Maoists but “nobody knows what a Maoist is. Police say everybody is a Maoist.” The villagers say, “in the eyes of the police, the cows and chickens are Maoist”. (World News, 8 March 2010) The military has set up camps in the forests and along streams and ponds. They have closed schools and taken school buildings for their own use. They have cordoned off the area around the forests, preventing the Adivasis from getting food and marketable items that allow them to earn a livelihood and access to water. And they are trying to prevent the Maoists from merging with and being nourished by the masses of Adivasis. One third of the world’s poor Although the statistics vary, by most accounts one third of the world’s poor lives in India. The World Bank says 42 percent of India’s 1.2 billion people live on $1.25 per day. A United Nations study says 72 percent live on $2 or less a day. And an Indian government report from the National Commission for Enterprises in the Unorganised Sector says that 70 percent of Indians live on half a dollar a day (Reuters, 10 August 2007). Tribals, lower castes and Muslims are especially numerous among those desperately poor sections of the people, working and living under conditions as bad or worse as any in the world. The global market is moving into the centre of many people’s lives in a new way, with devastating effects even among the somewhat better off parts of rural India. For instance, the government and international organizations have pressured Indian farmers to plant crops to compete on the global market. Unable to pay their debts when prices slumped or bad weather conditions destroyed their crops, thousands of them have found no way out but suicide. Dr Binayak Sen, internationally renowned for the voluntary health clinic for the rural poor in Chhattisgarh he has run since 1981 and a human rights activist, recently lectured a university crowd on “Violence and justice in our times”, describing how Operation Green Hunt is worsening health conditions for an already undernourished population. He said that over 50 percent of tribals have a body mass index of 18.5. According to the standards set by the Health Organisation, this means that the population is in a state of famine. Dr Sen was recently released after two years in a Chhattisgarh prison on charges of “treason and waging war against the state”. He was accused of passing a letter from a Maoist prisoner he had been treating medically in jail to someone on the outside. After an international outcry, he was released on bail. (14 March 2010, Indian Express) During Arundhati Roy’s “Walk with the Comrades”, one of the very few doctors in a camp visited by her expressed a similarly dire view. Many diseases that result from long term anaemia are on the rise, in addition to the “usual” diseases like malaria that are preventable or can be attended to if you have access to medicines. The grim life-and-death character of what Operation Green Hunt means to millions of tribals in India’s heartland is not lost on many thinking individuals, irrespective of their views on Maoism. Until recently such wide-scale military mobilizations were reserved for India’s war with Pakistan over Kashmir or against the secessionist movements in the eastern part of the country. A movement against OGH is gaining momentum in many parts of the India, despite the risk of being tarred with the “terrorist” brush or labelled a Maoist by the Indian government. This opposition and resistance comes from a wide-ranging political spectrum. OGH has created significant polarization in society. Within this, there are contrasting views. Some oppositional voices focus on the fundamental violation of human rights underway to further the interests of India’s corporate elite, Tata, Essor and Vedanta, who have made several billion-dollar deals with the government to plunder the riches in the hills and forests occupied by the Adivasis in the areas “infested” by the Maoists. Some understand why the Maoists, with their different view of how the world can be, represent an attractive force to the Adivasis. Despite its regional and global ambitions the Indian state fails to provide public services like health care and education, minimal employment, safe drinking water, food, seed plant credits or even law and order for the Adivasis and the rest of the “poorest of the poor”. Instead the state has served them daily humiliation, oppression and superexploitation. An article in Frontline magazine, no friend of the Maoists, wrote the following: ” [T]he state has lost legitimacy in tribal India. It is laughable to claim that its project of militarily overpowering the Maoists has popular support. Its police force is inefficient, corrupt, trigger-happy and anti-poor. The State represents little more than predatory, rape-and-run industrial groups, besides super-corrupt Ministers (like Madhu Koda who allegedly amassed wealth equivalent to a fourth of Jharkhand’s tax revenue in three years). It is no accident that the Centre [India's central government] has intervened to assert its full coercive power in an area that contains much of India’s immense mineral and forest wealth, now under transfer to private capital. If the operation continues, the civilian death toll is liable to rise from several hundred to several thousand a year, as had happened in Argentina and Peru, where 50,000 to 100,000 people ‘disappeared’ in decades-long counter-insurgency operations. ” (Frontline, issue 6, 13-26 March 2010) Others contend that the masses are caught between “two fires”, the Maoist army and the state military apparatus. In India this idea is called the “sandwich theory”. It claims to see the armed might of the state and forces for revolution as equally bad. They object to the “war on the people” and say the line between civilian and military targets is being blurred, as though it would be okay to hunt down the revolutionary Maoists. Some uphold the use of Greyhounds, an elite anti-Naxal force who will be marauding in the jungles, specializing in guerrilla tactics to counter those of the Maoists. This view does not correspond to reality, because the violence of the state whose armed forces rain terror on the masses in order to maintain the exploiters’ rule is not the same as the liberatory violence of the oppressed rising up. In a very different sense, the masses of Adivasis are caught between two fires: that of the enemy directed against the revolution and the fire of everyday exploitation and oppression. When they understand the interconnectedness of that, they come to learn that revolution is the only way out.

Wednesday, November 16, 2011

concerning astrolgy

Obscurantists don't believe in logical arguments on the basis of provable facts but in echoing socially acquired (mostly owing to the biological accident of birth) illogical prejudices and defying the laws of history's dynamics of continuous changes -- evolutionary quantitative maturing into revolutionary qualitative changes. Every next generation is always smarter as it consolidates and builds upon the achievements of the previous generations and the exceptions of stagnate societies, only prove the rule. Only obscurantists would give the regressive judgmental statements that our distant ancestors were wiser than us and the final truth and knowledge lie in what they have already said in mythological and historical worlds. The dynamics of history evolves its own laws, unpredictable by astrological knowledge and ignorance.

Sunday, November 13, 2011

The nation

The nation
I am not looking for definitions that have evolved with the evolution of the nation-state and it's ideology -- nationalism-- and with the emergence and growth of the new species of hero, the hero of the finance, which began it's journey under the patronage of the absolutist monarchies subsequently to replace them and became nation in the form of trading companies. I am not looking for definition but the identity and identification.The "nation" expropriated the "national" peasantry and freed the "national" craftsmen and artisan from their means of labor and plundered those countries, which were not yet nation. Their wealth became "The Wealth of nation" and history became "the inadvertent consequence of' their indivual "profit making activities" coordinated by "the invisible hands of the market" [Adam Smith]. The notion of nation and and it's ideology are cruel jokes against humanity and my confusion remains regarding who constitutes the nation and in whose interest? If Naxalism is to be declared biggest danger for the nation, scam-tainted Chidambaram becomes the nation. When the needle of suspicion in spectram scam points to Ambani, he becomes nation and declares that nation would take care of its crisis. 11 Pepsi selling boys become a nation when they lose a cricket game, spot-fixing/match-fixing notwithstanding, one nation is trounced by another. if it is to kill the unarmed Adivasis protesting agaainst the grab of their agricultural land for facilitating profitmaking for Tata the duo of DM and SP kill them as "encounter" of anti-development activies on behalf of nation. An NCO of army becomes nation in J&K and in Assam and as nation can kill anyone in the name of danger nation. My confusion remains regarding the identity of nation. I have expressed my confusion in a verse: KAUN HAI BHARAT MAHAN? ishmishra.blogspot.com (RADICAL)
Lik

इश्क पूरी दुनिया से

इश्क पूरी दुनिया से
ईश मिश्र
इश्क पूरी दुनिया से होता है नायाब
उसमे ही होता है माशूक का भी सबाब
इसी लिए बदलो ख़ुद को
दुनिया बदलने के लिए
बनेगी अगर दुनिया एक बेहतर
पूंजीवादी मर्दवाद हो जाएगा बेअसर
सब होंगे अपनी सर्जना के मालिक,
मिलेगा सबको प्रतिभा का अवसर
सभी को होगा प्रेम का अधिकार बराबर
हवा में गूजेगें आजादी के तराने
किस्सागो बताएँगे मानव-मुक्ति के फ़साने

Saturday, November 12, 2011

ऐसा अज़ीज़

इन आँखों से छलकने को है तकलीफ का इक समंदर
लेकिन जज्बा-ए- इन्किलाब भी है उसके अन्दर
चहरे के भाव में संकल्प छिपे हैं ऐसे
दुनिया बदलने निकल पडी है कोई ज्वाला जैसे
इश्क़ करने को कहता है दिल कर पार उम्र की दहलीज
मिल जाए गर ज़िंदगी में कोई ऐसा अज़ीज़

Wednesday, November 9, 2011

Ramanujan’s essay

this a response to an accusation of being blasphemous. my comment on that

No one is trying to be bearer or courier of rationality or the final truth, not me at least. There is no final truth or knowledge for that matter, which a continuously evolving process. Each generation consolidates and builds upon the accomplishments of the previous generations. Any statement is rational which can be proved on the basis of verifiable facts in their dialectical unity with its ideas. I do not use abuses and regret calling names to Gods/Goddesses -- the impersonal, abstract concepts. But your drawing analogy with personal comments of calling some one's father's name is misplaced. Ramanujan' essay does not condemn the scriptures/texts but only selectively quotes from them. In my post and response to your comment on that post I have not abused put consulted only and exclusively the Ramacharitmans, (the Classic, that remains one of my favorite texts) to put forth my point. Unfortunatetely the rarely the points raised have been discussed. My question remains, who will decide about which community's religious sentiments are hurt by what, how, how much and why? Is there any homogeneous, uniform community? What is the common basis of uniformity or homogeneity?

Sunday, November 6, 2011

Ramanujan’s essay

This is response to Rakesh Pandey an RSS activist in DUTA

I have read your essay in full. Your main objection is to treat those Rama stories which have been written without "faith and devotion to Rama's character" as Ramayana, particularly by Santhals and Thais and Jains. Let me tell you that educatioThis is response to Rakesh Pandey an RSS activist in DUTA

I have read your essay in full. Your main objection is to treat those Rama stories which have been written without "faith and devotion to Rama's character" as Ramayana, particularly by Santhals and Thais and Jains. Let me tell you that education is not about belief but scientific rationality. (It is different thing that unfortunately majority of science students/teachers study science not as science but skill and hence are bereft of scientific temperament and hence instead of proving anything by facts and logical arguments and proving the truth by questioning anything and everything resort to theological beliefs and superstitions). Your objection is comparison between Valmiki's and Kampan's description of Ahilya's seduction by Indra the so-called king of Gods or Ahilya's attraction towards Indra, both are incidents of promiscuity, which is immoral and both getting punishments. What kinds of Gods we have that they push mortals to such a shame?? according to you, redemption of Ahilya by the dust of Ram's foot should have been emphasized, whereas both are fantasies. It is a time where the institution of family is taking shape in a society where polygamy is permitted (Ram's supposed father had 3 wives, in fact Dashrath's lust for a younger woman is responsible for Ram's banishment. All these stories shouls be read with demystification) but not the polyandry. My knowledge of Ram's charecter is through Ramcharitmanas and I find his character despicably loaded with immoral and inhuman Varnashram values, a representative of Brahmanical values that are not only racist and anti-feminist but also inhuman. How you justify his cowardice plot to kill Bali for no reason and promotion of treachery to divide and rule. How a traitor like Vibhishan can be a hero? How do you justify his vanity to tell Sita that he had not fought the bloody war for her but for the ego of Raghukul? He never tells what all he had been doing aND ASKS sITA TO walk on fire to prove her chastity and even after that as a king when he is bored with her to find one or the other excuse to kick her out in a pregnant state? What crime had Sambuk committed whom he murders in cold blood? I really wonder on the wisdom that considers and ideologically perpetuates such a hegemonic character as a symbol of good. This is outcome of reading of not any "perverted" Ramayan but Tulsi's Ramcharitmanas. Tusi is devout Bhakta of Ram. There is a popular African proverb that untill the lions have their own historians, the history shall go on eulogizing the hunter. Tulsi is the historian of the hunter.n is not about belief but scientific rationality. (It is different thing that unfortunately majority of science students/teachers study science not as science but skill and hence are bereft of scientific temperament and hence instead of proving anything by facts and logical arguments and proving the truth by questioning anything and everything resort to theological beliefs and superstitions). Your objection is comparison between Valmiki's and Kampan's description of Ahilya's seduction by Indra the so-called king of Gods or Ahilya's attraction towards Indra, both are incidents of promiscuity, which is immoral and both getting punishments. What kinds of Gods we have that they push mortals to such a shame?? according to you, redemption of Ahilya by the dust of Ram's foot should have been emphasized, whereas both are fantasies. It is a time where the institution of family is taking shape in a society where polygamy is permitted (Ram's supposed father had 3 wives, in fact Dashrath's lust for a younger woman is responsible for Ram's banishment. All these stories shouls be read with demystification) but not the polyandry. My knowledge of Ram's charecter is through Ramcharitmanas and I find his character despicably loaded with immoral and inhuman Varnashram values, a representative of Brahmanical values that are not only racist and anti-feminist but also inhuman. How you justify his cowardice plot to kill Bali for no reason and promotion of treachery to divide and rule. How a traitor like Vibhishan can be a hero? How do you justify his vanity to tell Sita that he had not fought the bloody war for her but for the ego of Raghukul? He never tells what all he had been doing aND ASKS sITA TO walk on fire to prove her chastity and even after that as a king when he is bored with her to find one or the other excuse to kick her out in a pregnant state? What crime had Sambuk committed whom he murders in cold blood? I really wonder on the wisdom that considers and ideologically perpetuates such a hegemonic character as a symbol of good. This is outcome of reading of not any "perverted" Ramayan but Tulsi's Ramcharitmanas. Tusi is devout Bhakta of Ram. There is a popular African proverb that untill the lions have their own historians, the history shall go on eulogizing the hunter. Tulsi is the historian of the hunter.

Saturday, November 5, 2011

Ramanujan’s essay

Ramanujan’s essay
Ish Mishra
The scholarly essay by Ramanujan would not have died as those other stories of the legendary epical character named Ram have survived till date but not as popular as Tulasidas’s Ramcahritmanas, which incorporated popular imagery of his time and provided an impeccable defence of Brahmanical system, under threat due to emerging various monist and heteronomous movements from within and without. It based itself and improvised upon Valmiki’s Ramayan owing to its being written in common peoples language rebelling against the Sanskritic-elitist tradition, it surpassed Valmiki’s and other Ram Kathas, lost in oblivion and revived the legend. Tulasidas’s Ram departs from Valmiki’s super hero and becomes God-reincarnation as in Kampan’s Ramayan preceding Ramcharitmanas by around 5 centuries. The essay would have been read by few students who would opt for this optional interdisciplinary course had it not been opposed by the self-styled champions of Indian culture of their kind of lumpenism, most probably without reading, as is the glorious traditions of RSS outfits. I was aware of this essay but had not read it before the unnecessary controversy created by Hindutva zealots. Some RSS 'scholars' claim that “India does not have history of banning the books”, are you aware of ban on Salman Rushdi’s Satanic Verses and Taslima Nasareen’s works by Government of India. The entire materialist philosophical literature of Lokayat tradition was destroyed by upholders of Brahmanic spiritual tradition that has been reconstructed through pejorative references to them in Brahmanical texts. The Budhist texts were destroyed first by Shankaracharya and his followers and then by Lodis who destroyed the rich Nalanda library in the pattern of Hitler and Mussolini few centuries later. Many sections of Tulsi’s great epic are already taught in schools and colleges. Instead of calling this essay dishonest and justifying the hooliganism of ABVP lumpens you should have discussed the merits and demerits of the essay.
I grew up reciting Ramcharitmanas with my grandfather, a devout Brahman.

Who is Ram? Is he a historical character? There are references of Visvamitra and Vashishtha in Rigveda but no reference of any character with this name. Dibodas was son of a Rigvedic chief Sudas and Vishvamitra was hs chief priest. Dibodas found Vashishtha to be more knowledgeable and appointed him as chief priest in place of Vishvamitra who got so annoyed that went to mobilise 10 other chiefs to attack Dibodas. This is mentioned in Vedas as Dasragyayudhah (war of 10 kings). Dibodas emerged victorious in the war and Vashishtha and Vishvamitra reached on a compromise and both were accommodated as priests by Dibodas. Brahma-Vishnu-Mahesh didn’t exist as deities till then hence no question of their re-incarnations. In Kautilya’s Arthshastra there is no mention of these deities, he talks about Vedic gods – Arun, Varun, Indra and Agni and local deities. When he advises the Vijigishu (the Conquerer king) to worship Vedic Gods for blessings and demons for avoiding calamities he brackets Kansa and Krishna together as demons. Megasthenese mentions Krishna as a legendary hero of Surasen (Mathura) region. I mean to say that while fictionalising a legendary character the writer places him in his own historical context that explains changing nature of such characters – Valmiki’s super hero thus becomes God-reincarnate in Kampan and Tulsi’s stories. Ram of Balmiki as well as of Tulsi, though, differing in nature to a large extent, is upholder of Varnashram-patriarchal values who kicks out Sita in pregnant state, despite her passing the Agni-Pareeksha and his world gets shaken by the news of a shudra, sambuk doing meditation and instead of sending laxman/Hanuman et al to kill him goes himself to murder him.
This mythical character belongs to a tradition where women are won in competitions of muscle power like other goods and disfigures a woman of another tradition in which women also propose men, instead of telling her to get away, as he was not interested. Her brother another mythical character, who has been pictured as great intellectual by Valmiki and Tulsi, and an able ruler as he rules over SONE KI LANKA, a prosperous kingdom with hail and happy subjects, kidnaps his wife with his mythical knowledge of Maya and flies her away and keeps her in a 5-star guest house with all the honor and facilities only persuades her and never insults or uses force. Ram, in order to mobilise the Vanar tribe kills Bali cowardly hiding behind a tree and kills Ravan with the help of a traitor, Vibhishan. How such an immoral and unethical character can be the symbol of goodness? This has been done by ideological practices blunting any critical analysis.

Thursday, November 3, 2011

religious feelings

दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्वान उपकुलपति ने पता नहीं किस अंकगणित के ज्ञान से जान लिया कि इतिहासेतर विषय के विद्यार्थियों के लिए भारतीय संसकृतियों पर इतिहास के एक अंतर्विषयक (inter - disciplinry ), ऐक्षिक पाठ्यक्रम का एक पाठ बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है ( धार्मिक भाबवानाएं पता नहीं किस धातु की बनी होती हैं कि पता नहीं चलता किस बात से आहत हो जायेंगीं) और इतिहासकारों की राय लेने की बजाय चले गए सर्वोच्च नायालय कि राय लेने. न्यालोय ने कहा यह मामला विशेषज्ञों के समिति तय कर सकती है न्यायालय नहीं. कुलपति महोदय ने एक समिति बना दिया. समिति के ३ सदास्याओं ने इसे उचित ही नहीं वांछनीय बताया. चौथे सदस्य ने वांछनीयता और औचित्य की बात छोड़ कर इसकी जटिलता के आधार पर कि विद्यार्थी समझ नहीं पायेंगे और अध्यापक समझ नहीं पायेंगे, जैसे हास्यास्पद तर्क दिए. उल्लेखनीय है कि नये पाठ्यक्रम की रूप-रेखा विश्वविद्यालय के विभाग और कालेजों के शिक्षकों के बीच व्यापक विचार-विमर्श के बाद एक पाठ्यक्रम समिति आपस में विचार-विमर्श के बाद तैयार करती है. पाठ्यक्रम विषय के अध्यापकों की आमसभा द्वारा पारित होने के बाद ही लागू किया जाता है. इतिहास के अद्यापकों में ९०% से अधिक, जन्मना हिन्दू हैं. उनकी भावनाएं तो नहीं आहत हुई होंगी नहीं तो इसे क्यों स्वीकृति देते? कुलपति महोदय को कसे पता चला कि इस लेख को बी.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाने से हिन्दुओं की भावनाओं को चोट पहुँच रही है. २००७ से कुछ संघी शिक्षकों ने यह मुद्दा उठाना शुरू किया, वैचारिक दिवालियेपन के चलते २००८ में संघ के लम्पट ब्रिगेडों में से एक, अखिल विद्यार्थी परिषद्, के १५-२० लडके टीवी वालों के साथ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में घुस गए और हुडदंग मचाना शुरू कर दिया और तत्कालीन अध्यक्ष प्रोफ़ेसर जाफरी और कुछ अन्य अध्यापकों के के साथ अभद्र भाषा में दुर्व्यहार तथा मारपीट- हाथापाई करने के बाद जाकर कुलपति से मिले. अगले दिन विश्वविद्यालय के इतिहास तथा अन्य विषयों के सैकड़ों अध्यापक और छात्र हिंसा और असभ्य-लम्पटता के विरुद्ध विश्वविद्यालय में रैली निकाला, सभा किया और कुलपति को ज्ञापन दिया जिसके परिणाम-स्वरुप लम्पटों ने स्वीकार किया कि उनका विरोध का तरीका गलत था. मैं भी उस विरोध प्रदर्शन में था और ज्यादातर प्रदर्शनकारी और लगभग सभी वक्ता नाम से कम-से-कम हिन्दू थे. ज़ाहिर है उनकी भावनाएं उस लेख से नहीं बल्कि संघी ब्रिगेड की जहालत और असहिष्णुता तथा लम्पटता से आहत हुई. [क्रमशः]

Sunday, October 30, 2011

History and faith

This was response to RSS defence of scrapping Ramanujan's essay on Ramayan

I absolutely agree with you, profs Anurag Mishra & Inder Mohan Kapahy, that ASBVP has right to protest something they think is wrong. I praise Voltaire for his view, " “I disapprove of what you say, but I will defend to the death your right to say it". But the crux of matter is what happened in History Dept in 2008 was not a protest but an act of hooliganism and vandalism by a gang of 15-20 ABVP lumpens led by Vikas Dahiya who roughed up the professors as is their culture and wont of treating non-RSS teachers. Talking to some of them revealed that none of them had read the essay but they knew for sure that it was demeaning to Hindu deities like Sita and Ahalya. Anyway, RSS forums do not encourage reading and thinking but following and acting. This opinion of mine is not born of hearsay but of my experience and observation of its functioning and practice as an office bearer of its student wing which claims, reflecting dual character of RSS and its eternal dichotomous contradiction of theory and practice, that ABVP is an independent student body while the supreme authority of a unit is Sangathan mantri who is not a student but RSS whole timer - a PRACHARAK. And tell me honestly Pofs Mishra and kapahy have you read the essay? I had not read it till the acts of vanfdalism by ABVP lumpens in 2008. Born and brought up in a staunch ritualistic Brahman family with my grand father an acknowledged scholar of and devout believer in Panchang, I spent most of early mornings reciting verses from Ramcharitmanas and Bhagvatgita, many of them still remain in memory. In teenage after reading a hindi translation of Valmiki Ramayan whose protagonist, Ram was not a divine incarnation but a super human hero, i was quite puzzled but could not dare asking my grand father as he disliked questions on divine issues. After reading Ramanujan's essay which is serious in content and product of tedious scholarly research, the materialist view of history gets further vindicated that all the historic communities creat their own language, idioms, phrases, culture, religion and Gods and Goddesses according bto their own historico-economic needs across the tome-space. encouraged by going Scot-free after their acts of vandalism, within a few days the damaged the van and vandalized a book exhibition organised by a group of students with due permission of authorities. Why do the fascists across the time-space try to destroy the books and libraries? Why are the so scared of ideas?? if you really want to fight it at the level of ideas, please read the essay and let us talk about the merits and demerits of the essay don't cry in abstract that it contains insult to "deities". I n Valmiki ramayan, Indra in disguise seduces Ahilya who knowing the reality could not refrain from the desire of sleeping with him where as in Kampan's Indra does not seduce Ahilya but ahilya knowing well could not refrain from being attracted to the king of Gods and having pleasure of making love with the divine king. Which version would you subscribe to?

Saturday, October 29, 2011

Change

Marx and Engels were aware of the possibilities and potentialities of capitalism to revolutionize the methods of production that it has to for survival. But contrary to his stipulation of corresponding increase IN THE WORK PLACE leading to labor socialization conducive to transformation of the working class from class-in-itself into class for itself and their organization on the basis of the common interest, capitalism chose the other way -- in-formalization of the production process through outsourcing and logistic companies, placement cells and manpower agencies. The revolutionaries have to devise new strategies to organize the proletariat that has become more complex with destruction and dislocation of slums. The problems generated of info-tech revolution was anticipated by Marx that the workers create their own nemesis by continuously increasing the productivity per unit labor power and subsequent swelling of the Reserve Army of the Labor force.

Friday, October 28, 2011

Change

The history of human development has also been the history of modification of the tools of social production; comprehension; and change. Ruling classes and their covert allies, advertently/inadvertently overplay the minor, technical and mostly artificial contradictions to blunt the edge of the major contradictions. In the post Upendra is referring to does not talk of contradiction between conflict and struggle but their intimate linkage to be used interchangeably. Marxism is not based on any sacred text but is a dynamic science to comprehend the existing reality in the historical perspective on the one hand and a revolutionary ideology to change it on the other. Those who seek to look for all the developments after Marx are as fundamentalist as those who claim to have located all the modern scientific and philosophical developments in Vedas or Quran or Hadith for that matter. Had Lenin or Mao followed Marx's views on non-revolutionary character of peasantry great historic Russian or Chinese revolutions would not have occurred in a backward capitalist and a semi-feudal /semi colonial country as the peasantry was the main source of respective peoples' armies. There is no final truth and final knowledge. Truth has to be proved in practice and not by attribution to God or reference to Vedas, Hegel or Marx, as key to knowledge is questioning anything and everything including one's own mindset.

Thursday, October 27, 2011

history and society.

True, the reality changes according to the needs and norms of historical societies and history in course of time evolves the dialectical laws of its dynamics but nothing moves on its own. despite the unprecedented progress in quantum physics, at macro level, Newton's laws are still applicable. history does not move on its own but in dialectical unity with the external force, the conscious human effort to change the reality based on provable facts and not on philosophically abstracted assumptions or ecclesiastical dogmas. The conscious human effort is related to historical progress in a cause-effect dialectical relationship. You must not forgotten couple of lines from The Theses on Feurbach: "consciousnesses is product of material conditions and chnged conciousness is product of changed material conditions." But who changes the material conditions? Concious human effort based on scietific comprehension of history and society.

Wednesday, October 26, 2011

GOLDEN PERIOD

Look at the course of history as it had been. Golden period is a myth created by the ruling classes. hitherto history has been the history of class-conflicts. The cliched concept of all the ruling classes has been"The past has been glorious and future is bright", just bear with the miseries of the present, he he hee. The societies looking for the golden period in the past are stagnant societies. The Hindutva forces under the tutelage of RSS want to take us to the highest glory of the past, without telling us, when was that golden past. History evolves the laws of its own dynamics and its engine does not have back gear. Knowledge is continuously evolving process, each generation consolidates and builds upon the achievements of previous generations, and hence every next genertion, in general is smarter. In Hindu mythological world the progress is so regressive that it begins with the "climax" -- Satyuga and rolls down to the lowest stage -- the Kaliyuga in which even the Shudra will assert rights and scholarship. That is followed by Treta symbolised by an "ideal", Lord Rama, without going into comprehensive details of this period, when a Shudra, Sambuk was meditating in the forest , it seemed the clamity had fallen on the system he represented, and instead of sending his trusted leftinents --Hanum , laxman, ..... -- went himself to kill him. In the next best phase, an ideal teacher destroys the talent by cutting the thumb of a tribal boy trying to learn archery, but tribals learnt the art of shooting arrows without the use of thumb. And historical golden period is Gupta period during which the Varnashram system got consolidated and Manusmriti, one of the most reactionary scriptures perpetuated its inhuman commandments. In Islam, Mohammad, an intelligent poor Arab with potentialities of great mass mobilization declared hiself to be the last prophet in the sequence of many preceding and found misery-stricken people simple enough to be3lieve him and hence the golden period. He combined the religious and political authorities in a single person Imam/emir whose most barbaric culmination was the fascist Khomeini. It was such a golden period that followers and kinsmen waged a bloody battle for the seat of power. therefore let us care for the struggles of today for justice and basic human rights against corporate-led plunder of the earth in connivance with their political agents across the countries. Religion by definition is retrogressive as it looks to past for inspiration an does not allow question and radical doubt.

Monday, October 24, 2011

INQILAB ZINDABAD

Capitalism creates illusions leading to mindless cynicism. escapism is a cowardice, Let us confront the world as it is and free the society including the corporate scoundrels and their political agents also from the shit of the society they have made the world. Their days are over, each system has the seeds of its own destruction. Imperialism, like Absolutism, survives on the jingoistic nationalism. The character of capital has changed from international to global in the sense that it is no more GEOCENTRIC either in terms of its source or its investment causing disillusionment with the national jingoism paving the way to a new kind of internationalism on the global scale. INQILAB ZINDABAD

failure of socialism

Reactionaries of the world are talking about failure of socialism.Not only in Asia, Africa and Latin America, what about success of capitalism, in terms of its promised goals, even in Europe and it's ex-colony and now self-claimed world leader US? The ruin of craftsmen/artisans and barbaric expropriation of peasantry leading to their proliterinization was dumped under the euphoria of the "Wealth of nation" marked its beginning. Disillusionment of the large working population kept under illusion/delusion of jingoistic nationalism has badly cornered and exposed the invisible hands of the market and occupation of the wall street and its satellites. This must mark the beginning of capitalism. I hope, these waves of spontaneous popular upsurges world over, more particularly in the head-quarters of the neo-liberal imperialism would lead to the formations of new kind of internationals at global level as the oppression is global, so must be the resistance. But as self-criticism is one of the key concepts of Marxism hence we must critically, honestly, seriously retrospect/introspect about the socialist experiments; why they went the way they did??

Sunday, October 9, 2011

Martyrdom Day of the Great International revolutionary Che

Criminal Institution of America(CIA) cowardly assassinated Com Che on 9 October 1967 in the illusion of restraining the red march in the twin continents of Americas. The criminal states can kill the revolutionaries but not their revolutionary ideas and examples that of this international revolutionary continue and will continue to inspire the revolutionary upsurges globally till the last knell in the coffin of the capitalism.A roving philosopher, a visionary and a revolutionary strategist who redefined Mao's theory of guerrilla war in the contemporary Latin American context, Che stated after the success of Cuban revolution that one can be a complete human only if one does not have to sell one's labor power like commodities and gave priority to literacy and socialist education as a minster and policy maker. His emphasis on accelerated industrialization reminds one the "great leap forward" in China. After contributing his bit to consolidate the gains of the revolution and in putting the Cuba on the path of socialist reconstruction, he moved to the next potential venues on the way of the march to the world revolution. The Criminal Institute of America, with the help of traitors caught hold of him while sleeping in his hide out and with criminal cowardice got him executed by the puppet Bolivian regime. They physically eliminated him making him politically more powerful and today Bolivian people are emphatically challenging the US neocolonial hegemony under the leadership of a "Red Indian" .
Long live International Socialist revoltion. Long live Com Che, red salutes.

साथी चे को लाल सलाम

साथी चे को लाल सलाम
ईश मिश्र
पढ़ रहा था शहादतें नेपाली क्रांतिकारियों की
सहसा याद आ गयी शहादत चे ग्वेएरा की
भगत सिंह जब मौत को ललकार रहे थे
तीन बरस के तब थे चे
भगत की शहादत बनी चे की थाती
है हर अगली पीढ़ी आगे ही जाती
पैदा हुए धरती पर अर्जेंटीना की
साथ सपने के एक सुन्दर दुनिया की
किया कालेज में मेडिकल की पढ़ाई
ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी मगर, राश न आयी
निकल पड़े फटफटी पर लेने महाद्वीप का जायजा
चहुँ ओर देखा लूट, दमन, गरीबी की दुर्दशा
खोजने निकले जब कारण इस बीमारी के
खुल गए राज़ पूंजी की नव-उपनिवेशवादी महामारी के
गैर-बराबरी,गरीबी का कारण है पूँजीवाद
एकमात्र विकल्प जिसका है समाजवाद
बनाया मार्क्सवाद को औजार और हथियार
सोचने लगे जब इस रोग का उपचार
गुआटेमाला mein आर्बेंज ने जब शुरू किया सुधार
चे पहुँच गए वहां सुन बदलाव की पुकार
हो गयी यह बात अमरीका के बर्दाश्त के बाहर
सी.आई.ए. ने ढा दिया तख्ता-पलट का कहर
चे पहुँच गए मेक्सिको, मिले कास्त्रो बंधुओं से
ऐलान-ए-जंग किया था जिनने २६ जुलाई आन्दोलन से
थी क्यूबा में अमरीकी मुहरे बतिस्ता की तानाशाही
चलन में थे साम्राज्यवादी वर्चश्व और उगाही
फिदेल कास्त्रो ने छेड़ा जब निर्णायक अभियान
बन गए चे जन-सेना के उप-कप्तान
थे हालात लैटिन अमेरिका के चीन से
वे छापामार रणनीति को अंजाम देने में लग गये
दूर-दराज इलाकों से जब जनयुद्ध की शुरुआत हुई
चे ने हिरावल दस्तों को छापामारी की शिक्षा दी
देख मुक्ति सैनिकों का यह इन्किलाबी जोश
नव-उपनिवेशवादी भोंपू हो गए बेहोश
मुक्त करते गाँव चले शहरों की ओर
बौखला गए वाल-स्ट्रीट सारे हरामखोर
हिरावल दस्ते के पास था मुक्ति का ज़ज्बा और अज्म-ए-यक़ीं
दुश्मन थे भाड़े के,न थी वहम-ओ-गुमाँ की कमी
जंग-ए-आज़ादी के गीत गाते जब हवाना पहुंचा दस्ता
भाग खडा हुआ अमेरिकी गुलाम बतिस्ता
समाजवादी राज्य के निर्माण की जब शुरुआत हुई
चे पर कई जिम्मेदारियां आन पड़ी
कहा उनने होता है कोइ भी तभी मुकम्मल इंसान
बेचना पड़े न श्रम जब जैसे बिकते हैं सामान
मानव-मुक्ति के लिए जरूरी है समाजवादी चेतना
करना पडेगा आत्मसात श्रम के अपमान की वेदना
था आलम तब क्यूबा में निरक्षरता और अज्ञान का
चे ने सूत्रपात किया साक्षरता अभियान का
देखते-देखते सारा क्यूबा साक्षर हो गया
शिक्षा के क्षेत्र में काफी आगे निकल गया
वित्तमंत्री का जिम्मा जब चे को मिला
शुरू हो गया अर्थव्यवस्था की कायापलट का सिलसिला
किया त्वरित औद्योगीकरण की शुरुआत
याद रखा माओ की लम्बे कदम की बात
रोकना है यदि शोषण-दमन की पुनरावृत्ति
पैदा करना होगा आवाम में इन्किलाबी प्रवृत्ति
पड़ गयी क्यूबा में जब जनवाद की पुख्ता बुनियाद
निकल पड़े चे कराने बाकी दुनिया आज़ाद
पहुँच गए साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी कांगो में
सोचा था इसे क्रान्ति की पहली कड़ी अफ्रीकी देशों में
उनका आंकलन इस बार गलत निकला
बढ़ा नहीं आगे छापामारी प्रशिक्षण का मामला
हार-जीत है कई संयोगों की बात
महत्वपूर्ण है संघर्षों की गुणवत्ता की विसात
पकड़ी चे ne फिर बोलीविया की डगर
थी उनपर लगातार अमरीका की नज़र
बौखलाया था चे के इन्किलाबी विचारों से
घात लगाए बैठा था कायर कुत्तों जैसे
कर रहे थे वे जब हिरावल दस्तों का निर्माण
मुखबिर से मिल गया सी.आई.ए. को उनके ठिकाने का प्रमाण
हमला किया सोते में सरकारी कुत्तों के साथ
मरवा दिया चे को कठपुतली सरकार के हाथ
क़ानून बन जाये जब नाइंसाफी का सहारा
इन्साफ का फ़र्ज़ है विद्रोह का नारा
क्रांतिकारियों की शहादतें बेकार नहीं जातीं हैं
अगली पीढ़ियों के लिए समृद्ध विरासत छोड़ जाती हैं
चे की शहादत धीरे-धीरे रंग ला रही है
विद्रोह की चपेट में सारी दुनियाँ आ रही है
जलाई थी लैटिन अमेरिका में जो छोटी सी चिंगारी
आ रही है उसकी चपेट में अब दुनियाँ सारी
फ़ैल रहा है दुनियाँ में चे का मानव-मुक्ति का पैगाम
कामरेड चे को लाल सलाम; लाल-लाल सलाम.
०९.१०.२०११, २३.२०