Sunday, April 26, 2020

सनातन 1



कुछ मित्र अक्सर ऐसे ही सनातन और उसकी सर्वग्राह्यता, सार्वभौमिकता, सामासिकता, सर्वांगीणता आदि की बात करते हैं तथा उसे नौवीं-दसवीं शताब्दी में अरबों द्वारा सिंधु क्षेत्र की भौगोलिक पहचान के लिए ईजाद किए गए शब्द हिंदू से जोड़ते हैं तथा भौगोलिक अस्मिता को धार्मिक अस्मिता में तब्दील कर देते हैं। सनातन का शाब्दिक अर्थ, मेरी समझ से अनादि काल से चला आ रहा चिरस्थाई तत्व होता है। अनादि काल कब से माना जाए बहुत जटिल सवाल है। हमारे खास संदर्भ में ऋगवैदिक काल को अनादि का शुरुआती विंदु माना जा सकता है। इस काल का शोधपूर्ण प्रामाणिक विवरण राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति, 'ऋग्वैदिक आर्य' में मिलता है। लेकिन चिरस्थाई कुछ नहीं होता। परिवर्तन की निरंतरता प्रकृति (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) का एक नियम है इसलिए चिरस्थाईपन यथार्थ का विलोम है। एकमात्र चिरस्थाई तत्व परिवर्तन है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक, हेराक्लिटस ने सही कहा है कि आप उसी नदी को दुबारा नहीं पार करते। वैदिक काल ईशा पूर्व 11वीं-10 वीं शताब्दी तक माना जाता है, फिर औपनिषदिक काल शुरू होता है। तीसरी सदी ईशा पूर्व तक 3 वेद ही थे चौथा उसके बाद का है।अर्थशास्त्र कौटिल्य की शिक्षा के सेलिबस में त्रयी (तीन वेद) का ही जिक्र है। उत्तर वैदिक (औपनिषदिक) काल तक जन्मजात वर्णाश्रम व्यवस्था (ब्राह्मणवाद) संस्थागत हो चुका था, जीवन पद्धति में कर्मकांडी वर्चस्व स्थापित हो चुका था। बुद्ध का विद्रोह इसी वर्चस्व के विरुद्ध था।

औपनिषदिक स्वरूप के आने से सनातन का मूल स्वतः उन्मूलित हो गया। ज्यों ही स्वरूप प्रधान हो गया वांछनीय कर्तव्य के रूपमें परिभाषित धर्म का सनातनी सारतत्व दबकर अर्वाचीन बन गया । स्वरूप ही लक्ष्य बन जाये तो धर्म (दार्शनिक जीवन पद्धति) रूढ़ि बन जाता है, धर्म नहीं रह जाता। विवेकानंद की हिंदू होने पर ही गर्व की घोषणा में हिंदु का उनका आशय शंकर और रामानुज के अद्वैतों का उनका संश्लेषण था!

"सारतत्व में एकता रहती है इसलिए वह संघर्ष से परे होता। एकता से प्रेम का बोध होता है प्राणिमात्र के साथ प्रेम। अद्वैत का सार भी इसी एकत्व के ज्ञान की बात करता है। ज्यों ही सार को स्वरूप प्रदान करने के लक्ष्य में तब्दील किया जाता है निश्चित ही वह किसी वर्चस्व के खेल का हिस्सा हो जाता है"। बौद्ध दर्शन के साथ भी वही हुआ "जब सार की जगह तर्कपद्धति के स्वरूप ने ले लिया" तो पतनशील और अधोगामी हो गया। कुछ सौ सालों आगे पुष्यमित्र के साथ शुरू बौद्ध संस्कृति के विरुद्ध हिंसक प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए बौद्धिक दुनिया में पौराणिक काल शुरू हुआ जिसका जोर हमेशा वर्चस्ववादी, कर्मकांडी स्वरूप पर ही रहा और कभी भी उन्नतिशील नहीं बन सका और इस्लाम के अनुयायियों के हाथों पराजित हुआ। यूरोप के अंधकार युग का दौर हमारे भी अंधकारयुग का ही दौर था। यूरोप में नवजागण से अंधकार खत्म होना शुरू हुआ और प्रबोधनक्रांति से नया युग शुरू हुआ। हमारे यहां कबीर के साथ शुरू नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका तथा प्रबोधन क्रांति की संभावनाएं औपनिवेशिक हस्तक्षेप से समाप्त हो गयीं।

नोट: समयाभाव में दूसरे पैरा के बाद लंबी छलांग लग गयी, कभी फुर्सत मिली तो बीच की दूरी का वर्णन किया जाएगा।
(भाग-2 फिर कभी पार्थिव व्यस्तताओं से फुर्सत मिलने पर...)

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