Wednesday, September 28, 2022

बेतरतीब 137 (कैंपस का घर)

 कैंपस में अंतिम मॉर्निंग वॉक से लौटा हूं, कल हरे-भरे परिवेश के कैंपस के इस घर में अंतिम दिन था, रात गेस्ट हाउस में सोया क्योंकि सामान कल ही पैक हो गया था। सोचा था कियह घर छोड़ने के पहले यहां रहने के अनुभवों पर एक लंबा लेख लिखूंगा, लेकिन सोची हर बात हो ही जाए तो क्या बात! दर-असल यथास्थिति को स्थाईभाव से जीना मनुष्य की प्रवृत्ति है, और अच्छी प्रवृत्ति है, आज आनंद से जिओ, कल की कल देखी जाएगी।


लोग दूर-दूर से कारों से विवि कैंपस की हरियाली और बगल के रिज में सुबह सुबह घूमने आते हैं लेकिन मैं पिछले लगभग 14 साल से यहां रहते हुए जीवन-चर्या के दौरान जो घूमना हो जाता था बस वही, या शाम को कभी एक पड़ोसी सहकर्मी से गप्पे करते हुए। दिसंबर, 2018 में दिल के दौरे के बाद अस्पताल से लौटकर मेडिकल परामर्श के चलते रोज सुबह डेढ़-दो किमी घूमने लगा और लगा यह पहले से ही करना था। अब कल से कैंपस की हरियाली की बजाय नोएडा के कांक्रीट जंगलों में सुबह की सैर होगी।

वैसे तो 2020 जून में 65 का होऊंगा लेकिन प्राइमरी जल्दी पास कर लेने से हाई स्कूल परीक्षा की न्यूनतम उम्रसीमा के लिए सर्टीफिकेट में दर्ज उम्र से फरवरी में ही 65 होकर रिटायर हो गया। अब तक की आधी उम्र कैंपसों में बीती 5 साल जौनपुर में स्कूल (इंटर कॉलेज) के तथा प्राइवेट हॉस्टल मिलाकर जौनपुर में; 4 साल इलाहाबाद विवि में वैध-अवैध 10 साल जेएनयू में छात्र के रूप में और लगभग 14 साल दिवि कैंपस में। कैंपस में रहने का सुख अनुभव तो किया जा सकता है उन अनुभवों को सटीक ढंग से शब्दों में नहीं उतारा जा सकता। 1989 में दिवि की एक साल की अस्थाई नौकरी के लिए इग्नू की नौकरी छोड़ने की मूर्खता न करता तो कैंपस में रहने का अनुभव लगभग 15 साल बढ़ जाता। वह सुविचारित फैसला था इसलिए अफशोस नहीं है, लेकिन फैसला गलत था, जिस गलती का खामियाजा 5 साल की अतिरिक्त बेरोजगारी से चुकाया। मैं जानता नहीं था कि क्रांतिकारी प्रोफेसर भी अपने 'बड़े आदमियों के प्रतिभाशाली बेटे' चेलों की गॉडफादरी की कमीनगी में प्रतिक्रियावादी गॉडफादरों को भी मात दे देगा।

कैंपस के इस घर के अनुभवों के बारे में अब यह घर आज ही छोड़ने के बाद ही लिख पाऊंगा। प्रशासनिक दक्षता के आत्मविश्वास की कल्पित कमी न होती तो 7-8 साल और कैंपस में रहता। 1999 में और फिर 2003 में हॉस्टल का वार्डन बनने के अवसरों को इसलिए टाल गया। 2006 में जब वार्डन बना तो मैंने अपने अंदर एक अद्भुत प्रशासक का अन्वेषण किया। वार्डन के रूप में एक अलग ही तरीके से पढ़ाने का अनुभव हुआ। दर-असल शैक्षणिक संस्थाएं, जेएनयू की तरह पूर्णतः आवासीय होनी चाहिए।ज्ञानार्जन की दृष्टि से कैंपस की दिन की जिंदगी जितनी ही महत्वपूर्ण रात की भी जिंदगी होती है। जेएनयू की जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति में रात्रि-भोजन के उपरांत की जिंदगी का उल्लेखनीय योगदान है। जेएनयू छोड़ने के बाद बहुत दिनों तक भोजनोपरांत कार्यक्रमों के लिए मयूरविहार से बाइक से जाता रहा।

इस घर में यानि कैंपस में रहने के अनुभवों के बारे में अब यहां से शिफ्ट होने के बाद विस्तार से लिखूंगा, जिसमें सबसे खूबसूरत दिन थे 3 साल हॉस्टल के वार्डन के रूप में, बच्चेभी उन दिनों को बहुत प्यार से याद करते हैं।

29.09.2019

शिक्षा और ज्ञान 382 (ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति)

 किसी ने कहा कि बुद्ध के अहिंसा के उपदेश ने हिंदुओं को कायर बना दिया जिससे मुगल से लेकर अंग्रेज आक्रामक आकर यहां राज कर सके। उस पर:


भारत में बौद्ध विरोधी हिंसक अभियान दूसरी शताब्दी ईशा पूर्व (पिष्यमित्र शुंग) से शुरू होकर 8 वीं शताब्दी (शंकराचार्य) तक अपनी तार्किक परिणति तक पहुंच गया। मुगल 16वीं शताब्दी में आए और अंग्रेज 18वीं में। इतने लंबे समय तक हिंसक समुदाय बुद्ध के अहिंसक प्रभाव से नहीं उबर पाया और कायर बना रहा कि नादिरशाह जैसा चरवाहा 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंदकर लूट-मार कर वापस चला जाता था? 2-4 हजार सैनिकों के साथ इंगलैंड के बनियों की एक कंपनी आई और इस विशाल मुल्क को 200 साल गुलाम बनाकर लूटती रही। 1857 में किसानों और सैनिकों के विद्रोह को हिंसक तरीके से कुचलने के प्रयास को भारत के अधिकांश रजवाड़ों ने हिंसक सहयोग दिया। आज देश का शासक वर्ग साम्राज्यवादी भूंडलीय पूंजी के सामने नतमस्तक है। जापान लगभग संपूर्ण रूप से बौद्ध देश है उसे कोई औपनिवेशिक ताकत गुलाम नहीं बना पायी न चीन को। जो समुदाय आत्मचिंतन और आत्मावलोकन नहीं करता अपनी पराजय का ठीकरा दूसरों पर फोड़ता रहता है, वह गुलाम बनने को अभिशप्त है, जिसकी सूक्ष्म मिशाल फेसबुक पर देखने के मिलती है। कई सवर्णवादी सामाजिक सरोकार के विषयों पर तार्किक विमर्श करने की बजाय वाम और लव जेहाद जैसे रटे भजन गाने में मगन रहते हैं। वैसे भी जिस संस्कृति में शस्त्र और शास्त्र का अधिकार चंद हाथों में सीमित हो तथा आबादी के बड़े हिस्से के पास कोई अधिकार ही न हों, उसे पराजित करना अपेक्षाकृत आसान था।

29.09.2020

शिक्षा और ज्ञान 381 (शिक्षा)

 मोदी जी को चोर मत कहिए, उनके अपढ़ होने का फायदा उठाकर अंबानी अडानी उन्हें उल्लू बनाकर देश लूट रहे हैं, मोदी जी राष्ट्र के प्रधानमंत्री हैं, 2002 गुजरात युद्ध के सेनापति रहे हैं जिसमें दुश्मनों की लाशें बिछा दी और उनकी औरतों की इज्जत खाक में मिला दी। मोदी जी तो अपने उपसेनापति जावेडकर के सहारे देश को विश्व गुरु बनाना चाहते हैं, उनके अपढ़ होने का फायदा उठाकर जावेडकर सार्वजनिक विश्वविद्यालयों का सत्यानाश करने पर तुला है। वैसे भी मैकाले से मिलकर नेहरू ने शिक्षा की गौरवशाली गुरुकुल परंपरा को नष्टकर विदेशी शिक्षा पद्धति लागू कर ब्रह्मा और गरिमामय वैदिक परंपरा का अपमान किया, जिसने ब्रह्मा के सीने से नीचे के नीच अंगों से पैदा हुए अपात्रों को भी शिक्षा का अधिकार मिल गया। मोदीजी तो दलित-ओबीसी के हित के हिमायती हैं, लेकिन देश को विश्वगुरू बनाने के लिए सुपात्रों के ही शिक्षित होने की जरूरत है, खेती और हलवाही-चरवाही के पात्र वेद पढ़ेंगे तो अनर्थ हो जाएगा। अब नेहरू की देश के विदेशीकरण की साजिश को सीधे तो खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन विश्वविद्यालयों को अनुदान बंदकर उन्हें धनपशुओं को सौंपकर, शिक्षा को मंहगी बनाकर इसे अपात्रों की पहुंच से बाहर करके क्षति की आंशिक भरपाई कर कुछ सुधार किया जा सकता है। अब दलित-आदिवासी अपने दुर्भाग्य तथा ब्रह्मा के प्रकोप तथा पिछले जन्मों के कर्मों से निधन भी हैं तो मोदी जी क्आया कर सकते हैं? वैसे दलितों का दुर्दिभाग्य विश्वगुरु के मकसद तथा राष्ट्र का सौभाग्य है। अब पैसे वाले सुपात्र ही उच्च शिक्षा ले पाएंगे। कुछ देश द्रोही अर्बन नक्सल इसे ब्राह्मणवादी साजिश बताएंगे, उन्हें महाराष्ट्र पुलिस ठीक कर देगी। हमारे ब्राह्मण ऋषि-मुनियों ने ही तो गौरव का निर्माण किया था जिसे मुसलमान आक्रांताों ने हमारे शूरवीरों की सहिष्णुता का नाजायज फायदा उठाकर नष्ट कर दिया। मोदी जी को चोर मत कहिए चोर तो अबानी है, जिसने हमारे सीधे-सादे प्रधानमंत्री को अपने जाल में फंसा लिया। वैसे भी प्रधानमंत्री को चोर कहना राष्ट्रीय गोपनीयता का उल्लंघन है।

28.09.2018

Monday, September 26, 2022

शिक्षा और ज्ञान 380 ( राज्य का बौद्ध सिद्दांत)

 बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व को नकारने और इंद्रियबोध से सत्य के ज्ञानयह विमर्श दीघ (दीर्घ) निकाय (संकलन) के 27 वें सूत्त अग्गना सूत्त से 5-6 सूत्त पहले किसी सूत्त में है, लाइब्रेरी खुलने के बाद ठीक-ठीक बता सकूंगा। राज्य की उत्पत्ति के बौद्ध (सामाजिक संविदा) सिद्धांत पर एक अध्याय लिखने के लिए अग्गना सूत्त पढ़ते हुए उक्त विमर्श पर निगाह पड़ी थी। अग्गना सूत्त में दो ब्राह्मण (भारद्वाज और वशेट्ठा) घर और कुल छोड़कर संघ के सदस्य बनने आए हैं और तमाम अन्य बातों के बाद विमर्श राज्य की उत्पत्ति पर केंद्रित हो जाती है। बुद्ध उन्हे बताते हैं कि कैसे कुछ बुरे लोगों के चलते प्रकृति (स्टेट ऑफ नेचर) का सामंजस्य टूट जाता है और दोषी को दंडित कर व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक सार्वजनिक शक्ति की आवश्यकता पड़ी। लोगों ने अपने में सबसे योग्य के साथ अनुबंध कर उसे महासम्मत (the great elect) चुना। उसे राजा भी कहा जाता था। राज्य की उत्पत्ति का बौद्ध सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति के प्राचीनतम सिद्धांतों में से है। उससे पहले सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत ऐत्रेय ब्राह्मण में मिलता है लेकिन वह पौराणिकता के लबादे में ढका है। अवश्यंभावी सुर-असुर युद्ध के लिए देवता (सुर) अपने में सबसे बलशाली एवं युद्ध में निपुण इंद्र से युद्ध के नेतृत्व का अनुबंध करते हैं। किताब सेज ने छापा है, कॉपीराइट की झंझट का पता कर शेयर करूंंगा।

24.09.2020

Wednesday, September 21, 2022

शिक्षा और ज्ञान 379 (हिजाब)

 इरान में स्त्रियां हिजाब के विरुद्ध प्रदर्शन कर रही हैं और हिंदुस्तान की कुछ स्त्रियां हिजाब पर पाबंदी के विरुद्ध। हर किसी को खाने-पहनने की रुचि की आजादी का अधिकार होना चाहिए, चाहे वह हिजाब पहने या हॉट पैंट। महान स्त्रीवादी दार्शनिक सिमन द बुआ से एक बार एक पत्रकार ने पूछा कि जब स्त्रियां अपने पारंपरिक जीवन (पितृसत्तात्मक समाज की रीतियों में रहते हुए) से खुश हैं तो वे उनपर अपने विचार क्यों थोपना चाहती हैं? उन्होंने जवाब दिया था कि वे किसी पर कुछ भी थोपना नहीं चाहतीं बल्कि वे उन्हें जीवन के और रास्तों से परिचित करना चाहती हैं, क्योंकि वे पारंपरिक रीति-रिवाजों के जीवन में इसलिए खुश हैं कि वे जीवन के और रीति-रिवाजों के बारे में नहीं जानती। इरान और हिंदुस्तान की लड़कियां/स्त्रियां सभी तरह के पहनावे से वाकिफ हैं, इरान की लड़कियों का हिजाब न पहनने के अधिकार की लड़ाई उतनी ही वाजिब है, जितनी हिंदुस्तान की कुछ लड़कियों का हिजाब पहनने के अधिकार की। दुनिया के हर स्त्री-पुरुष को पहनावे के चुनाव की आजादी होनी चाहिए।

शिक्षा और ज्ञान 378 (सांप्रदायिकता और चुनाव)

असगर भाई ( Asghar Wajahat) ने श्रीलंका की एक अदालत द्वारा पूर्व राष्ट्रपति श्रीसेना को नोटस जारी करने की एक खबर शेयर किया है कि उन्होंने एक आत्मघाती, आतंकी हमले की खुफिया जानकारी होने के बावजूद उसे रोकने या विफल करने का कोई प्रयास नहीं किया। इस आत्मघाती विस्फोट में 270 लोग मारे गए थे जिसकी प्रतिक्रिया में वहां भीषण जनसंहार हुआ था और जिसके बाद के चुनाव में श्रीसेना की विशाल बहुमत से विजय हुई। सांप्रदायिक हिंसा/जनसंहार चुनाव के साधन बन गए हैं। गौरतलब है कि 1984 में दिल्ली में सिख-जनसंहार के बाद चुनाव में कांग्रेस को विशाल बहुमत मिला; 1990 में अडवाणी की रथयात्रा की पृष्ठभूमि हुई सांप्रदायिक हिंसा के उंमाद से भाजपा ने पहली बार उत्तर प्रदेश में बहुमत पाकर सरकार बनाया, जिसने बाबरी मस्जिद ध्वस्त करवाने का उल्लेखनीय काम किया। सर्वविदित है कि गोधरा और उसके बाद के अभूतपूर्व जनसंहार के बाद गुजरात में ऐसा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ कि भाजपा का स्थाई चुनावी जनाधार बन गया और गांधीनगर से चला चुनावी विजयरथ मुजफ्फरनगर की संप्रदायिक हिंसा और विस्थापन जैसी छोटी-मोटी अमानवीयताओं की मदद से 12 सालों में दिल्ली पहुंच गया।

सवाल हिटलर द्वारा यहूदियों के जनसंहार का तो है ही लेकिन उससे बड़ा सवाल शिक्षा के चरित्र का है कि विशाल शिक्षित जनसमूह यहूदियों के जनसंहार का समर्थक/प्रशंसक था।

Sunday, September 18, 2022

शिक्षा और ज्ञान 377 (राम टका)

 अंधभक्त उच्च शिक्षा के बावजूद जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता (हिंदू-मुसलमान; बाभन-भमिहार....) से ऊपर उठकर इंसान तो बन नहीं पाते, उनसे वस्तुनिष्ठ इतिहासबोध की उम्मीद करना व्यर्थ है। समाज में नफरत फैलाने वाले और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सियासत के भरोसे मुल्क की संपदा अपने धनपशु आकाओं के सुपुर्द करने वाले हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सारे फिरकापरस्त राजनैतिक नेता और उनके जाहिल अंधभक्त हिंदू-मुसलमान नरेटिव से ही धर्म की दुकानदारी करके मानवता को शर्मसार करते हैं। अपने शासनकाल की स्वर्णजयंती (50वे साल) के उपलक्ष्य में, राम-सीता की तस्वीर वाले अकबर द्वारा जारी सोने और चांदी के सिक्के राष्ट्रीय संग्रहालय में आज भी संग्रहित हैं। जहां तक भारत को तोड़कर पाकिस्तान बनाने की बात है तो यह बांटो-राज करो की नीति के तहत औपनिवेशिक परियोजना थी जिसे कार्यरूप देने में औपनिवेशिक शासन के हिंदू-मुस्लिम कारिंदों (हिंदू महासभा-मुस्लिम लीग; आरएसएस-जमाते इस्लामी) ने निर्णायक भूमिका निभाया। दो-राष्ट्र का प्रस्ताव सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने 1937 में पारित किया और मुस्लिम लीग ने 1940 में। उसके बाद 1942 में जब मुल्क 'भारत छोड़ो', राष्ट्रीय आंदोलन में मशगूल था तब दोनो औपनिवेशिक कारिंदे (मुस्लिम लीग-हिंदू महा सभा) अपने औपनिवेशिक आकाओं की शह पर सिंध, उत्तर-पश्चिम प्रांत और बंगाल में साझा सरकारें चला रहे थे। भारतीय जनसंघ के पहले अध्यक्ष, श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की मुस्लिमलीग-हिंदू महासभा की मिली-जुली सरकार में उप मुख्य मंत्री थे। सांप्रदायिक दुराग्रह तथा अफवाहजन्य इतिहासबोध से ऊपर उठकर वस्तुनिष्ठ इतिहासबोध से इतिहास पढ़ेंगे तो हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज को फिरकापरस्ती के जहर से प्रदूषित करना बंद कर मानवता की सेवा करेंगे। सादर।

Thursday, September 8, 2022

शिक्षा और ज्ञान 376 (पहाड़ा)

 एक मित्र ने पूछा कि बड़े अंकों का पहाड़ा कैसे याद किया जा सकता है?

याद किया तो भूल सकता है, समझा हुआ नहीं।

1से 10 तक के अंकों का जोड़ सीख लें अभ्यास के बाद मन में बैठ जाता है, जैसे 9+6=15 और जोड़ के माध्यम से 1 से 10 तक गुणा (पहाड़ा) सीखें। अब यदि 33 का पहाड़ा पढ़ना है तो 3 के पहाड़े में शून्य बढ़ाकर 10 गुना करते जाएं तथा उसमें 3 के अगले गुणकजोड़ते जाएं । 33X7 = 30x7+3x7 = 210+21 =231 या 76 के पहाड़े के लिए 7 के पहाड़े में शून्य बढ़ाकर (10 का गुणा करके) 6 के गुणक जाड़ते जाएं। 76x9 = 7x9x10+6x9 =63x10+54 = 630+54=684. थोड़ा अभ्यास के बाद पूरी प्रक्रिया मन में ही तेजी से होती रहती है। इसी प्रक्रिया से 20 से ऊपर का पहाड़ा सुनाने से प्रोमोट होकर गदहिया गोल (प्री प्राइमरी) से कक्षा 1 में पहुंच गया था। डिप्टी साहब (एसडीआई) के मुआयने के दौरान अंक गणित के ही किसी मौखिक सवाल के फौरी जवाब से कक्षा 4 से 5 में और इस तरह 9 साल में ही प्राइमरी पास कर लिया। उस समय हाई स्कूल की परीक्षा के लिए न्यूनतम आयु 15 वर्ष थी जिसके लिए टीसी बनाते समय हमारे प्रधानाचाय ने उम्र 1 साल 4 महीने अधिक लिख दिया।

Sunday, September 4, 2022

बेतरतीब 136 (बचपन में छुआछूत से मोहभंग)

 

बेतरतीब 136

 बचपन में छुआछूत से मोहभंग

ईश मिश्र

मेरा बचपन पूर्व-आधुनिक, ग्रामीण, वर्णाश्रमी, सामंती परिवेश में बीता, हल्की-फुल्की दरारों के बावजूद वर्णाश्रम प्रणाली व्यवहार में थी। सभी पारंपरिक, खासकर ग्रामीण, समाजों में पारस्परिक सहयोग की सामूहिकता की संस्थाएं होती थीं। हमारे गांव में भी पारस्परिक सहयोग और सहकारिता की कई संस्थाएं/रीतियां थीं। वैसे तो हर युग में सभी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा बौद्धिक संरचनाओं का मूल अर्थ ही रहा है। उपभोक्तावाद और व्यापारिकता गांवों गहरी पैठ नहीं बना पाई थी। आज की तरह टेंट हाउस या बारात घर का प्रचलन नहीं था। शादी व्याह तथा अन्य काम-काजों में दूह, दही का प्रबंध पारस्परिक सहयोग से होता था। हर घर में एकाध खाट, दरी, चदरा और तकिया पर घर के किसी (प्रायः मुखिया) का नाम लिखा था जिससे शादी व्याह में इकट्ठा करने और लौटाने में सहूलियत रहे। जाजिम और भोजन पकाने के हंडा, कडाह जैसे बड़े बर्तन कुछ ही लोगों के पास होते थे लेकिन काम सबके आते थे। सभी को सुलभ बैल से चलने वाली आंटा की चक्की गांव में एकाध लोगों के पास होती थी। उपभोक्ता संस्कृति और व्यापारीकरण ने पारस्परिक सहयोग की सामूहिकता को नष्ट कर दिया। गांव में लगभग सभी के पास छप्पर (छान्ह) के मड़ई-मड़हा होते थे। छान्ह की छवाई तो खुद तथा मजदूर-मिस्त्री से करवा (छवा) लिया जाता था लेकिन उसे मुड़ेर पर रखने (उठाने) के ले कई लोगों की जरूरत पड़ती थी। लोग मिलकर एक दूसरे की छान्ह उठाते थे। खैर भूमिका लंबी न खींच कर मुख्य  मुद्दे पर आते हैं। यहां मैं गन्ने से गुड़ बनाने की प्रक्रिया में पारस्परिक सहयोग के सामूहिकता की बात करना चाहता हूं और यह कि यह छुआ-छूत और पवित्रता-अपवित्रता से मेरे मोह भंग  कैसे निमित्त बना।

 

हमारे बचपन में गांव में गुड़ बनाने के लिए गन्ना पेरने का कोल्हू सबके पास नहीं होता था, वैसे भी अकेल-अकेले, अपना-अपना गन्ना काटना-पेरना और गुड़ पकाना अव्यवहारिक था। या तो किसी अपेक्षाकृत संपन्न व्यक्ति के पास कोल्हू होता था और पास-पड़ोस के कई लोग उसमें साझा होते या साझीदार चंदा करके कोल्हू खरीदते थे। सब साझीदार आपसी सहमति से तय कर लेते थे कि किस दिन किसका गन्ना कटेगा। सभी मिलकर गन्ना काटते गन्ने का ऊपरी हिस्सा (गेंड़ा) पशुओं के चारे के रूप में सब अपने घर ले जाते और निचला हिस्से (ऊख्खुड, ऊख या गन्ने) का बोझ कोल्हू पर। जिसका गन्ना होता वह या उसके घर का कोई कोल्हू में गन्ना लगाता और जिसका बोझ होता वह अपने बैल से पेरता। कोल्हूके पास ही छप्पर में गुड़ बनाने की भट्ठी गुलउर (मिट्टी के 2 बड़े-छोटे विशालकाय चूल्हों में अंदर के बड़े चूल्हे पर लोहे का बड़ा कड़ाह और बाहर के अपेक्षाकृत छोटे चूल्हे पर छोटा कड़ाह। बड़े चूल्हे के नीचे ईंधन  झोकने का गौंखा (छेद) होता और छोटे से धुंआ बाहर निकलने का। ईंधन पेड़ों को सूखे पत्तो और गन्ने के सूखे पत्तियों पाती तता खोइया (पेरने [रस निकालने] के बाद कोल्हू से निकले गन्ने के अवशेष को धूपमें सुखाकर खोइया बनाया जाता था) का होता। ये बातें इसलिए विस्तार से लिख रहा हूं कि ये अब इतिहास बन चुकी हैं।

    जिसका गन्ना होता वह या उसका मजदूर हौदी से बाल्टी में रस निकालकर कड़ाह में डालता। और कड़ाह भर जाने पर गुलउर में ईंधन झोंकता। तीन तरह के गुड बनते थे। चकरा (चकला) में बहुत अधिक औंटाकर डाला जाता जिसका लड्डू (भेली) बनता जिसे आम तौर पर हम गुड़ कहते हैं। दूसरे तरह के गुड़ को राब (शक्कर) कहते थे जो थोड़ा-थोड़ी गीला और दानेदार होता था, जिसका इस्तेमाल शरबत तथा खीर वगैरह बनाने और रोटी के साथ खाने में होता था और तीसरा चोटा होता था जिसके लिए रस को इतना पकाया जाता था कि वह गाढ़ा द्रव बन जाए। चोडा का प्रमुख इस्तेमाल रस और शरबत, ठेकुआ (मीठी पूड़ी) तथा चोटही जलेबी आदि बनाने में होता था। मजदूरों को नाश्ते (खरमिटाव) में कुछ चबैना/घुघुनी आदि के साथ गुड़(चोटे) का रस दिया जाता था। छोटी सी कहानी की भूमिका बहुत लंबी हो गयी कि अब कहानी बता ही देनी चाहिए।

   मैं 8-10 साल का रहा हूंगा जब इस बात पर मेरा ध्यान गया कि गुड़ बनाने और भंडारण के लिए उसे रखने में जब तक श्रम की जरूरत होती थी तब तक पवित्रता/अपवित्रता और छुआ-छूत का विचार नहीं होता था। मजदूर प्रायः दलित जाति के होते थे। हमारे घर दो हलवाहे थे, लिलई चाचा और खेलावन चाचा। हम बच्चे उन्हें इज्जत से बुलाते थे और वे लोग भी हमें बहुत प्यार करते थे। लेकिन तब की सामान्य बात (नॉर्मल) यह थी कि वे हमारे बर्तन नहीं छू सकते थे। उनके अपने बर्तन थे जिनमें खाने के बाद धोकर वे पशुओं के चारा बालने/रखने के मड़हे रखते। हलवाहे केवल हल ही नहीं जोतते बल्कि खेती और पशुओं (गाय-भैंस-बैल) की देखभाल के और भी सब काम करते। जिस बाल्टी/गगरे से वे पशुओं के नाद में पानी डालते, उनसे हम नहा नहीं सकते थे। खेत में उनके लिए हम नाश्ता (कमिटाव) लेकर जाते तो रस/शरबत/मट्ठा ऊपर से उनके बर्तन में डालते।

लेकिन गन्ना बनने की प्रक्रिया में गन्ना काटकर, छिलकर, बोझ बांधकर ढोकर कोल्हू तक वे ले आते तथा बैलों को हांकर कोल्हू में गन्ना पेरते और नाद (हौदी) से बाल्टी में रस निकालकर कड़ाह में उड़ेलते, गुलउर झोंकर गुड़ पकाते और कड़ाह से निकाल कर भेली के लिए चकले में डालते तथा जब राब या चोटा बनता तो बाल्टी से कूंडा (बड़ा घड़ा) में डालते। तब तक पवित्रता-अपवित्रता का सवाल नहीं विचारित होता था। यानि उत्पादन प्रक्रिया में जब तक श्रम करने की जरूरत होती थी तब तक छुआ-छूत की कोई बात नहीं थी लेकिन एक बार तैयार माल का भंडारण हो जाने के बाद वे उसे नहीं छू सकते थे।

      यह देखकर ब्राह्मणीय पवित्रतावादी मान्यता और बर्तन के छुआछूत के प्रचलन से मेरा मोहभंग हो गया। खेत में हलवाहों को खमिटाव (नाश्ता) लेकर जाता तो निकालकर खाने-पीने के लिए उनके मना करने पर भी वर्तन उन्हें देकर एक और वर्जना तोड़ता हल चलाने लगता। ब्राह्मण बालक को हल चलाना वर्जित था। हलवाहे मजाक में बाबा से बताने की धमकी देते थे।   

05.09.2022                       

   

 

 

 

Saturday, September 3, 2022

बेतरतीब 135 (पारस्परिक सहयोग के प्रचलन)

 शादी-व्याह या अन्य समारोहों में आजकल उत्तर भारतीयों में ताम-झाम और खर्चीले दिखावे का प्रचलन दक्षिण भारतीयों की सादगी का विलोम लगता है। लेकिन उत्तर भारत के गांवों और कस्बों में अहंकार और प्रदर्शन की यह प्रवृत्ति पारंपरिक नहीं बल्कि नई है, खासकर भूमंडलीकरण के बाद के दौर की जब नवउदारवादी, व्यापारिक, उपभोक्ता संस्कृति और राजनीति वर्णाश्रमी सामंतवाद के विरुद्ध नही, उसके सहयोग से अपनी जड़ों के विस्तार को व्यापकता प्रदान कर रही है। सभी पारंपरिक समाजों की ही तरह हिंदी क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग और सामूहिकता की संस्कृति प्रचलित थी। टेंट हाउस और कैटरिंग की संस्कृति अपरिचित थी। शादी-व्याह में चारपाई-विस्तर वगैरह का प्रबंध एक दूसरे के सहयोग से होता था। मुझे याद है सभी घरों में एकाध खाट और दरी-चादर-तकिया पर घर के किसी सदस्य का नाम लिखा होता था जिससे वापस पहुंचाने में सुविधा रहे। यहां तक कि भोजन पकाने के बड़े बर्तन भी किसी-किसी के पास (या पंचायती) होते थे जिनका उपयोग काम-काज भी सभी को सुलभ था। दूध-दही भी खरीदी नहीं जाती थी बल्कि जिनके पास भी गाय-भैंस होती वे सब काम-काज के घरों में पहुंचा जाते थे। हर गांव या इलाके में 2-4 लोग भोजन पकाने के विशेषज्ञ होते थे। बहुत से पुरुष आंटा गूंथते थे और स्त्रियां रोटी/पूड़ी बेलतीं। दक्षिण भारत में केले के पत्ते की पत्तल में भोज होता है, हमारे यहां ढाक के पत्तल-दोने और मिट्टी के कटोरे-कुल्हण में पांत में होता था।