Sunday, November 29, 2020

लल्ला पुराण 367 (साम्यवाद)

 व्यंग्यविधा को विकृत करने वाले, लूट का माल औरों में बांटकर सोने की चेन खुद लेकर पहनने वाले बहुत ही ओछी सोच के हैं आपलोग। पहली बात तो पतला आदमी थोड़ी सी जगह में सिमटकर बैठ लेगा या अपना बोझ ढोने में थके बेचारे मोटे को फैलकर बैठने देगा और खुद खड़े होकर यात्रा का आनंद उठाएगा। दूसरी मोटा पतले को पीट ही नहीं सकता क्योकि ताकत वजन से नहीं साहस से आती है। तीसरी बात डफली बजाकर क्रांतिकारी गीतों के साथ प्रदर्शन करने वाले नव जवान पढ़े-लिखे विवेकशील इंसान होते हैं वे व्यवस्था के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, बजरंगी धर्मोंमादियों की गोहत्या तरह अफवाह पर मॉबलिंचिंग नहीं करते। वे समानता दूसरों के इस्तेमाल की चीजें छीनकर नहीं, उत्पादन के साधनों पर निजी की बजाय सामाजिक स्वामित्व की स्थापना से लाना चाहते हैं। व्यंग्य लेखन बहुत उपयोगी और मुश्किल विधा है। हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल तथा इबने इंसां को विनम्र नमन। चैनलों का चित्रण समुचित किया गया है। बाकी जपनाम।

Thursday, November 26, 2020

फुटनोट 254 (आत्मालोचना)

 व्यक्तिगत और सामूहिक-समुदायिक आत्मावलोकन और आत्मालोचना बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। इसीलिए मैं लगातार आत्मावलोकन, मंथन और आत्मालोचना करता रहता हूं, जो बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक होने के साथ वस्तुनिष्ठ निर्णय पर पहुंचने में सहायक होता है। इसीलिए परमार्थभाव को स्वार्थभाव पर तरजीह देता हूं, तथा उसी भाव से चिंतन-मनन के बाद ही विचार व्यक्त करता हूं। और चूंकि वे मानवता की सेवा में समुचित लगते हैं इसीलिए उनके प्रसार का प्रयास करता हूं। जब गलत लगेंगे तो बदल देंगे। और विचार अमूर्त होते हैं जिनका इस्तेमाल इंसान करता है, विचार किसी का इस्तेमाल नहीं करते। जो विचार मानवता की सेवा में सार्थक लगते हैं हम उन्हें सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के उद्देश्य से ज्यादा-से-ज्यादा व्यापक बनाना चाहते हैं।

Monday, November 23, 2020

लल्ला पुराण 366 (हामिद अंसारी)

 मैंने हामिद अंसारी का पूरा भाषण पढ़ा और उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है, उन्होंने राष्ट्रवाद की नहीं, धर्मोंमादी विकृत राष्ट्रवाद की आलोचना की है जिसके परिणाम स्वरूप देश का विभाजन हुआ और जिसके घाव नासूर बन सांप्रदायिक नफरत के रूप में अब तक रिस रहे हैं। फासीवाद और नाजीवाद के रूप में जिस राष्ट्रोंमाद ने मानवता के इतिहास को सदा के लिए कलंकित कर दिया है। रवींद्रनाथ टैगोर अंग्रेजों के चाटुकार नहीं थे, अंग्रेजों के चाटुकार उपनिवेश-विरोधी नागरिक राष्ट्रवाद को धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर उपनिवेश विरोधी आंदोलन को कमजोर करने वाली दोनों समुदायों की सांप्रदायित ताकतें थीं। हामिद अंसारी ने यही कहा है कि पिछले 4 सालों में नागरिक राष्ट्रवाद विकृत होकर कट्टरपंथी राष्ट्रोंमाद बन गया है। इसी राष्ट्रोंमाद की आड़ में, जैसा कि मुसोलिनी की इटली और हिटलर की जर्मनी में हुआ था राज्य को कॉरपोरेटी सेवा का टूल बनाया जा रहा है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर-डिप्टी गवर्नर समेत अर्थशास्त्रियों की राय को दरकिनार कर बैंकिंग सेक्टर में कॉरपोरेटों को लाइसेंस देने की नीति बनाई जा रही है। रेल-हवाई अड्डों समेत सारे सार्वजनिक उपक्रम धनपशुओं के हवाले किए जा रहे हैं, संसद में बहुमत के जरिए स्वास्थ्य, शिक्षा और खेती का पूर्ण कॉरपोरेटीकरण किया जा रहा है जिसके विरुद्ध देशभर के किसान और छात्र आंदोलित हैं। महामारी का फायदा उठाकर देश पर जनविरोधी आर्थिक नीतियां लागू की जा रही हैं। राष्ट्रविरोधी हामिद अंसारी नहीं, धर्मोंमादी राष्टोंमाद की भावनाएं उछालकर मुल्क के आमजन को तबाह करने वाली नीतियों के समर्थक हैं। रवींद्रनाथ टैगोर, टॉलस्टॉय या आइंस्टाइन राष्ट्रवाद को नहीं इस तरह के राष्टोंमाद को बुराई मानते थे जिसे लगभग 300 पहले एंडर्सन ने हरामखोरों की शरणस्थली बताया था। एंडर्सन, टैगोर, टॉलस्टॉय, आइंस्टाइन के विचार ऑनलाइन उपलब्ध हैं। नफरत पर आधारित धर्मोंमादी राष्ट्रवाद संविधान आधारित वास्तविक, नागरिक राष्ट्रवाद का विकृत रूप है।

Saturday, November 21, 2020

ईश्वर विमर्श 97 ( अरब मे बहुदेव वाद)

 इस्लाम के पहले अनेक प्राचीन समुदायों की तरह अरब में भी बहुदेववादी धर्म का प्रचलन था। अपने ही खुदा को परमात्मा मानने वाले इस्लामवादियों से हम पूछते हैं कि 7वीं सदी में इस्लाम से पहले खुदा नहीं था क्या? 2011 में फेसबुक पर धर्मों की उत्पत्ति के इतिहास पर एक कमेंट लिखा गया था जिसे एक लेख के रूप में विकसित कर एक पत्रिका में छापया था, खोजकर शेयर करूंगा। सभी प्राचीन धर्म विस्मयकारी प्राकृतिक शक्तियों के विस्मय की नासमझी के चलते भयाक्रांत श्रद्धा से उत्पन्न हुए जो कालांतर में देश-काल के अनुसार बदले देवी-देवताओं (खुदा-गॉडों) के भय में बदल गए। जिस तरह हमारे देवलोक में हर बात के देवी-देवता होते है उसी तरह प्राचीन मिस्र, अरबी, यूनानी पौराणिक देवलोक में भी हर बात के अलग अलग-देवी देवता होते थे जिन्हें एकेश्वरवादी ईशाई और इस्लाम धर्मों ने प्रतिस्थापित कर दिया। सभी में देवी-देवताओं की प्रार्थना बलि से होती थी। सही कह रहे हैं सूर्य की पूजा (छठ पूजा) प्रचीन काल में सप्तसैंधव वैदिक आर्यों की ही तरह इरान में भी होती थी जो इस्लाम के प्रसार के बावजूद आज भी जारी है। सभी समुदाय अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के अनुसार अपने इहलोक की ही आदर्शीकृत छवि में अपने उहलोक का निर्माण करते हैं। मध्ययुग में रोमन कैथोलिक चर्च का देवलोक तत्कालीन यूरोपीय सामंती समाज का ही परिष्कृत अमूर्तन था। हमारा देवलोक वर्णाश्रम समाज का ही परिष्कृत रूप है।

ईश्वर विमर्श 96 (ईश्वर की त्पत्ति)

 आइंस्टाइन ने कहा है ईश्वर की उत्पत्ति भय से हुई है। यहां के ही नहीं सब जगहों के संदर्भों में, ईश्वर की उत्पत्ति में प्रश्नाकुलता तथा विस्मय की भूमिका तो रही ही है, उनमें भय और अनभिज्ञता भी शामिल रही हैं। आज भी आस्था के पीछे उहलौकिक कृपा और भय की भावना ही प्रबल है। वैदिक देवता वे प्राकृतिक शक्तियां थीं जिनका जीवन में विस्मयकारी महत्व था और जिनकी प्रवृत्तियों हमारे वैदिक पूर्वजों की जानकारी से परे थीं। यूनानी प्राचीन समुदायों की भी यही स्थिति थी। उपनिषद काल वैदिक काल के बहुत बाद आता है। यहां ही नहीं हर जगह धार्मिक तथा दार्शनिक परंपराएं साथ साथ चलीं। हमारे तथा यूनानी प्रचीन दर्शनों में आध्यात्मिक तथा नास्तिकता समेत भौतिकवादी परंपराएं भी रही हैं। सारा बौद्ध साहित्य प्रश्नोत्तर स्वरूप में है तथा मूलतः भौतिकवादी है।

Thursday, November 19, 2020

फुटनोट 253 (कामाख्या)

 हम पहली बार (1981 में) जब खूबसूरत पहाड़ी पर स्थित कामाख्या गए तो ब्राह्मणों के शाकाहारी होने का दृढ़ पूर्वाग्रही विश्वास था। हमारा नया नया चयनित आईपीएस मित्र अपने लाव लस्कर के साथ हमारा मेजबान था और हमें बिना लाइन में लगे प्रवेश मिल गया। प्रवेश द्वार के बाहर बलि की बेदी थी। पता चला अगर एक छटके में सिर न कटा तो मन्नत में कुछ खोट माना जाता है। पहुंचते ही एक बलि देखने को मिली पंडे के वार के एक झटके में मुंडी अलग और इतनी फुर्ती से चमड़ा हटाया कि कोई चिक भी इतनी फुर्ती क्या दिखाएगा? मुंडी पंडे की और धड़ भक्त का। कहीं कहीं पुजारी अब्राह्मण होते हैं, जैसे कड़ा मानिकपुर में पंडे माली होते हैं। मैंने उत्सुकताबश एक पंडा से पूछ लिया कि बलि का प्रसाद पंडा खाते हैं क्या? उन्होने गुस्से में जवाब दिया और क्या? फिर डर डर कर पूछा पंडाजी ब्राह्मण होते हैं? इस पर तो ज्या गुस्से में बोले और क्या? मेरा मित्र गुस्से में वहां से खींचकर दूर ले गया और समझाया कि यहां पंडा लोग से पंगा नहीं लेना है। वैसे मुझे ब्रह्मपुत्र के बीचो-बीच उमानाथ मंदिर का लोकतेसन ज्यादा रमणीय लगता है। उसके बाद तो उत्तर-पूर्व की कई यात्राएं की। इस मई में केंद्रीय विवि तेजपुर और अप्रैल में नेहू (शिलांग) के आमंत्रण रद्द हो गए।

Wednesday, November 18, 2020

फुटनोट 252 (आर्य-अनार्य)

 बंटे हुए को कौन बांट सकता है? हिंदू कौन है? बाभन कि दलित? चितपावन कि मराठा? आर्य और आर्येतर प्रजातियां ऐतिहासिक तथ्य हैं तथा अनार्य आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन की लूट अभी तक जारी है। पौराणिक सुर-असुर संग्राम आर्य-अनार्य संघर्ष का ही मिथकीकरण है। इतिहास की चर्चा करने का मतलब उसे पलटना नहीं है। आज इंका-अजटेक सभ्यताओं के विनाश की यूरोपीय बर्बरता पर टनों साहित्य लिखा जा चुका है। अनादिकाल से लोग एक जगह से दूसरी जगह तमाम कारणों से आते-जाते-बसते रहे हैं। अतीत के पुनर्निर्माण का शगूफा भविष्य के विरुद्ध साजिश है। अतीत नहीं सुधारा जा सकता उसके इतिहास से सबक सेकर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है।

नजर खोने से भव तिमिरमय दिखता है

 नजर खोने से भव तिमिरमय दिखता है

नजरिया खोने से भ्रांति सत्य दिखता है

अहम एक आत्मघाती अनुभूति है
ब्रह्म दिल बहलाने की मिथ्या प्रतीति

किसी को अपना बनाना इंसान को मिल्कियत बनाने का बहाना है
जनतांत्रिक पारस्परिकता प्यार के अधिकार और सुख का फसाना है

सभी में होते हैं स्वार्थ और परमार्थ के द्वंद्वात्मक तत्व
सुखी होता है वह देता जो स्वार्थ पर परमार्थ को महत्व

गम-ए-जहां में मिला देते हैं जब गम-ए-दिल
दिखती है दुनिया तब एक खूबसूरत महफिल

चलते रहें अकेले किसी मृगतृष्णा की चाह में
मिलकर चलते हैं जब मिलती हैं मंजिलें राह में

जीने का कोई जीवनेतर मकसद नहीं होता
अपने आप में मकसद सूलों की जिंदगी जीना

करते हैं यदि हम निजी हितों का तुलनात्मक आकलन
परमार्थी जीवन के खाने में पाते हैं ऋण से अधिक धन

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों चुनो तार्किकता का रास्ता
इंसानियत की भलाई में ही है निजी भलाई का वास्ता

हो यदि एक तरफ सच्चाई और दूजी तरफ लोकप्रियता
चुनो सच्चाई, अल्पकालिक होता है वजूद लोकप्रियता का

हो यदि एक तरफ सच्चाई और कठिनाई दूजी तरफ
चुनो सच्चाई आसान हो जाएगा कठिनाई का हरफ

(ईमिः 19.11.2020)

Sunday, November 15, 2020

शिक्षा और ज्ञान 298 (निजीकरण)

 इन्फोसिस ने कहा कि भारतीय विश्वविद्यालयोंसे निकले विद्यार्थी बेकार होते हैं, इसलिए वह अपना विश्वविद्यालय खोलेगा। क्या बात है सारे पूंजीपति, ज्ञान की दुकानें खोलकर लोगों को ज्ञानी बनाना चाहते हैं जिससे वे गरीबी असमानता तथा पिछड़ेपन के मूल की समझ हासिल कर मुल्क को बेहतर बना सकें? दर-असल स्वास्थ्य और शिक्षा अतिरिक्त पूंजी निवेश के सुरक्षित और अतिशय लाभप्रद क्षेत्र हैं। 5 हजार का इंजेक्सन निजी अस्पताल 40 हजार में लगाते हैं। 125 रुपया सालाना फीस की पढ़ाई 1250,000 में होगी। 1995 में विश्वबैंक द्वारा शिक्षा और खेती को व्यापारिक सेवा तथा सामग्री संविदा (गैट्स) में शामिल करने के बाद उसकी वाफादार सरकारें शिक्षा के निजीकरण और व्यापारीकरण की मुहिम में जी-जान से लगकर लोगों को 'आत्मनिर्भर' बनाने में जुटी हैं। इन्फोसिस की मुहिम साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी द्वारा विश्वविद्यालय को ज्ञान के केंद्र से कारीगर-प्रशिक्षण की दुकानें बनाने की साजिश का हिस्सा है। इनफोसिस वालों से पूछिए फीस कितनी लेंगे? हरखू की बिटिया कहां पढ़ेगी? हमारे विश्वविद्यालयों से पढ़कर विदेशों में जाकर ही हरगोविंद खुराना और अभिजीत बनर्जी क्यों बनते हैं? यहां लोगों को परजीवी अरबपति नहीं दिखते मास्टरों का आराम से खाने-पीने भर का वेतन खलने लगता है? घर चलाने भर का वेतन मिलेगा तभी वह शोध कर-करवा सकेगा, छात्रों को पढ़ाने के लिए पढ़ सकेगा। जिस देश का शिक्षक दरिद्र और दयनीय रहेगा वह दरिद्रता और कूपमंडूकता को अभिशप्त रहेगा। 6ठें वेतन आयोग ने बाकी सरकारी कर्मियों की हीनतरह शिक्षकों का वेतन सम्मानजनक बना दिया वरना उन्हें घर चलाने के लिए पूरक आय का काम करना पड़ता था, जिसके लिए जाहिर है समय वह शैक्षणिक उत्तरदायित्व के समय में से ही चुराएगा। 6ठें वेतन आयोग के पहले अधिकतम 4-5% शिक्षकों के पास कारें होती थीं। अब भी उनके पास मारुति और एमआईजी फ्लैट ही हैं, बीएमडब्लू और कोठी नहीं। विश्वविद्यालय की गुणवत्ता और व्यवस्था में परिवर्तन की जरूरत तो है लेकिन जैसा कि अंग्रजी की सटीक कहावत है, टब के गंदे पानी के साथ बच्चे को नहीं फेंक देना चाहिए बल्कि टब का पानी बदल देना चाहिए। सुधार के तरीकों में सबसे जरूरी है, नियुक्तियों में मठाधीशी खत्म कर पारदर्शिता लाने की, जो सरकारें आसानी से कर सकते हैं, यदि राजनैतिक इच्छा हो तो, वरना सभी प्रतिस्पर्धी नौकरियों से खारिज होने के बाद लोग जुगाड़ (गॉडफादरी कृपा) से शिक्षक बन जाते हैं।

ब्राह्मणवाद

  हम ब्राह्णण का विरोध नहीं करते बल्कि जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाली विचारधारा, ब्राह्मणवाद का। ऐसा करने वाले जन्मना अब्राह्मण भी उसी कोटि में आते हैं, जिन्हें नामकरण की सुविधा के लिए नवब्राह्मणवादी कहा जा सकता है। मुझसे लोग पूछते थे कि सोसलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण क्यो होते हैं? कबीर जैसे अपवादों को छोड़कर, प्रमुखतः समाज और इतिहास की समग्रता में वैज्ञानिक समझ वही विकसित कर सकते हैं जिन्हें बौद्धिक संसाधनों की सुलभता हो। पारंपरिक रूप से ब्राह्मणों को बौद्धिक संसाधनों की सुलभता रही है तथा आधुनिक शिक्षा में भी वही अग्रणी रहे। हमारे समय में इवि में लगभग 99 फीसदी शिक्षक ब्राह्मण और कायस्थ थे। प्रोफेसरों की लॉबींग भी इन्ही जातियों की थी-ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी। वामपंथी समझे जाने वाले ज्यादातर इतिहासकार और बुद्धजीवी ब्राह्मण ही थे चाहे राहुल सांकृत्यायन हों या डीडी कोशांबी, नागार्जुन हों या धूमिल, हजारी प्रसाद द्विवेदी हों या मुक्तिबोध, देबी प्रसाद चट्टोपाध्याय हों या गोरख पांडे......, नृपेन चक्रवर्ती हों या सरयू पांडे, इंद्रजीत गुप्त हों या विनोद मिश्र। शिक्षा की सार्वभौमिक उपलब्धता से समीकरण बदल रहे हैं। बदलते समीकरणों के चलते ही ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बचाने-बढ़ाने के लिए उसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति के रूप में हिंदुत्व की विचारधारा गढ़ी गयी जिसे मृदंग मीडिया एवं भक्त समुदाय राष्ट्रवाद के रूप में प्रक्षेपित कर रहा है। बदलते समीकरम के चलते ब्राह्मणवादी वैचारिक वर्स्व को मिलने वाली चुनौती के ही चलते संघ के प्रतिनिधित्व में ब्राह्मणवादी खेमे की बौखलाहट दिख रही है।

Saturday, November 14, 2020

तलाश-ए-माश

 एक ग्रुप में एक मित्र ने फीस बढ़ोत्तरी के विरुद्ध जेएनयू आंदोलन का मजाक बनाने के लिए तथा मेरे वेतन पर तंज करने के लिए (शायद) जेएनयू के प्रोफेसरों का वेतन पूछा, वैसे प्रोफेसरों की आय का छात्रों की फीस से कोई संबंध नहीं है, उसका जवाब आप सबके विचारार्थ पोस्ट कर रहा हूं।


जेएनयू में प्रोफेसरों को उतना ही वेतन मिलता है, जितना इलाहाबाद विवि, बीएचयू, अलीगढ़, दिल्ली विवि या किसी भी केंद्रीय विवि के प्रोफेसर को। वैसे मैं जेएनयू का छात्र रहा हूं, प्रोफेसर दिवि में था। प्रशासन जेएनयू का उतना ही सरकार परस्त रहता है जितना अन्य विश्वविद्यालयों का। नौकरी की तलाश में तमाम विश्वविद्यालयों की खाक छाना, कुछ सैभाग्यशाली संयोगों के मेल से देर से ही सही दिवि में मिल गयी। (प्राथमिकता में ऊपर जेएनयू और इवि थे)। विश्वविद्यालय-कॉलेजों में 99.9% नौकरियां 'एक्स्ट्रा-अकेडेमिक कंसीडरेसन' पर मिलती हैं, 0.1% संयोगों की दुर्घटना से। मैं कम उम्र में नास्तिक हो गया जब गॉड ही नहीं था तो गॉडफादर कहां से होता? इलाहाबाद विवि में 1986 में 1 घंटा 29 मिनट इंटरविव चला (सही सही समय इसलिए पता है कि बाहर इंतजार में बैठे लोग कुतूहलबस क्लॉक कर रहे थे)। 6 पोस्ट थीं, मैं इतना आशान्वित हो गया था कि सोचने लगा गंगा पार नया नया झूसी बन रहा था, वहां घर लूं कि इस पार तेलियरगंज में। हा हा। 1 साल बाद तब के कुलपति एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में द हेग (नीदर लैंड) में मिले और चहककर बताए कि वे तथा एक्सपर्ट मेरे प्रकाशन (तब 2 ही थे) और मेरी प्रस्तुति से इतने गदगद हुए थे कि 'तमाम तर के बावजूद' वे मेरा नाम पैनल में नंबर 7 पर रखने में सफल रहे थे। मैंने कहा था कि जब 6 ही पद थे तब नंबर 7 पर रखते या 70 पर क्या फर्क पड़ता? चुने गए 6 लोगों में इवि के बच्चों ने बताया कि कुछ प्रयागराज प्रोफेसर हैं। (जो दिल्ली में रहते हैं प्रयागराज ट्रेन से कभी कभी आते हैं और क्लास लेकर वापसी की उसी ट्रेन से चले जाते हैं।) हो गया होता तो मेरे लिए कितना अच्छा होता, घर से संपर्क बना रहता तथा शायद छात्रों के लिए भी। खैर क्या होता तो क्या होता, बेकार की बात है। आपने छोटा सा सवाल पूछा मेरे वेतन पर तंज कसने के लिए और मैं नॉस्टेल्जियाकर लंबे जवाब में फंस गया। वैसे मुझसे लोग जब कहते थे कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई, देर से नौकरी मिली? मेरा जवाब होता था कि नाइंसाफी की शिकायत तो तब हो जब यह मानूं कि समाज न्यायपूर्ण है। मैं तो पोस्टर लेकर घूमता हूं कि यह अन्यायपूर्ण समाज है, इसे जल्द-से-जल्द बदल देना चाहिए। अन्यायपूर्ण समाज में निजी अन्याय अंतर्निहित होता है।

जहां तक देर से मिलने का सवाल है तो सवाल उल्टा होना चाहिए, मिल कैसे गयी? भाग्यशाली था कि मिल गयी और 2004 में जाते-जाते अटल बिहारी सरकार द्वारा पेंसन योजना खत्म करने के पहले। अंत में आपके सवाल का जवाब संक्षेप में: जेएनयू ही नहीं छठे वेतन आयोग के बाद हिंदुस्तान के सभी विश्वविद्यालय-कॉलेजों के प्रोफेसरों को समान तथा इतना सम्मानजनक वेतन मिलने लगा था कि सब कार में चल सकें तथा कर्ज पर फ्लैट लेकर ईएमआई दे सकें। भला हो तत्कालीन शिक्षामंत्री अर्जुन सिंह का। लेकिन शिक्षक भी सुविधाजनक जीवन जी सके यह धनपशुओं की चाकर व्यवस्था को बर्दाश्त नहीं तथा इसके लिए वह ज्ञान की दुकानें खोल रही है, मौजूदा विश्नविद्यालयों का बाजारीकरण कर रही है तथा शिक्षकों को ठेका-मजदूरों में तब्दील कर रही है। दिल्ली विवि में हजारों शिक्षक एढॉक तथा गेस्ट (दिहाड़ी मजदूर) हैं, कई कई दशकों से। निजी विवि 20-25 हजार देते हैं। अनिश्चितता के भय में जी रहे शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे निर्भीक नागरिक तैयार करें? यह जवाब उम्मीद है आपके 'कौतूहल' को शांत कर सके, नहीं तो प्रति-प्रश्न के लिए आप स्वतंत्र हैं। बाकी जेएनयू के छात्रों को मजदूरी करके पढ़ाई करने की आपकी सलाह पर मेरे प्रशन का जवाब आपने नहीं दिया कि आपने अपनी पढ़ाई के दौरान कितनी और क्या मजदूरी की थी? वैसे मैंने 18 साल की उम्र में घर से पैसा लेना बंद कर दिया था और खुद की पढ़ाई के साथ भाई-बहन की पढ़ाई की भी आर्थिक जिम्मेदारी का वहन किया।

14.11.2019

Thursday, November 12, 2020

बेतरतीब 93-94 (बचपन 16)

 विद्याधर की कहानी के समानांतरअपनी कहानी आगे बढ़ाते हुए पृष्ठभूमि के तौर पर जैसा कि विद्याधर के विद्रोह -1, कमेंट में लिखा, हमारे बचपन में हमारा गांव शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़ा था, साक्षरता दर वयस्कों में ही नहीं, बच्चो में भी नगण्य थी। आम तौर पर 6-7 साल में बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे। मेरा छोटा भाई मुझसे एक-डेढ़ साल ही छोटा था तथा घर के कामों से बचा मां-दादी का ध्यान उसी पर रहता था तो मैं 4 साल की उम्र से ही अपने से 4-5 साल बड़े भाई के पीछे-पीछे स्कूल जाने लगा। प्री-प्राइमरी को औपचारिक रूप से अलिफ कहा जाता था और वैसे गदहिया गोल। अब सोचने पर लगता है कि कि ग्रामीण संवेदना कितनी क्रूर होती है कि अनंत संभावनाओं वाले मासूमों को हम गधा कह देते हैं। दो ही विषय पढ़ए जाते थे, भाषा (हिंदी) और गणित (संख्या)। स्कूल में 3 कमरे थे 3 शिक्षक। अलिफ (गदहिया गोल) और कक्षा 1 एक कमरे में एक शिक्षक ,पंडित जी, 2 और 3 को बाबू साहब तथा 4और5 को हेडमास्टर, मुंशीजी पढ़ाते थे। (मुंशी जी के बारे में अपने ब्लॉग में उनसे उनसे लगभग 100 साल की उम्र में मुलाकात का संस्मरण अपने ब्लॉग में लिखा है, वे पतुरिया जाति के थे तथा मेरे, 1963 में कक्षा 4 में पहुंचने तक रिटायर हो गए थे।) दोपर बाद प्रायः धूप में या स्कूल के सामने नीम की छांव में गदहिया गोल के बच्चे गिनती या पहाड़ा रटते। मुझे जल्दी ही 20 तक का पहाड़ा याद हो गया। इकाई की जगह हमलोग काई का उच्चारण करते, जैसे 6 सते 42 - 4 दहाई, एक (इ)काई। 3-4 महीने में पंडित जी को 4 साल के बच्चे में क्या प्रतिभा नजर आई कि उन्होंने गदहिया गोल से मुझे कक्षा 1 में टंका दिया। 1,2,3, 4 में अपने से 2-3 साल बड़े लड़कों के साथ था। 4 में पहुंचने पर मुंशी जी के रिटायर होने पर बाबू साहब हेड मास्टर बने और कक्षा 4 तथा 5 को पढ़ाने लगे। कक्षा के कोने में मिट्टी का एक चबूतरा बना था, बाबू साहब कभी कभी कुर्सी की बजाय चबूतरे पर भी बैठते। चबूतरे के सामने टाट पर कक्षा 5 के 7-8 लड़के बैठते उसके बाद 4 के 8-10। कक्षा 5 में मेरे गांव के एक उपाध्याय जी थे जो मेरे बड़े भाई के लगभग हमउम्र थे 2 लड़के नदी पार के एक गांव गोखवल के जयराम यादव और श्रीराम यादव बहुत बड़े-बड़े बड़े थे। जैसा मैंने विद्याधर के विद्रोह-भाग 1 के कमेंट में लिखा कि कक्षा 4 में पढ़ते 2-3 महीने हुए थे कि डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआयना पर आए थे। डिप्टी साहब का मुआयना स्कूलों की बड़ी परिघटना होती थी। उन्होंने कोई अंकगणित का सवाल कक्षा 5 वालों से पूछा, सब खड़े हो गए। कक्षा 5 वालों की लाइन के बाद 4 की लाइन में मैं आगे बैठता था और तपाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब बहुत खुश हुए। बाबू साहब ने साबाशी में कहा कि मैं 4 में था तो वे बोले इसे 5 में करो और अगले दिन मैं 5 में बैठ गया। कक्षा 5 की बाकी कहानी ब्लॉग के उपरोक्त लिंक में है। एक बात दोहरा दूं। जब मैं 5 वालों के साथ बैठा सब ऐसे देख रहे थे जैसे उनका खेत काट लिया हूं। बाबू साहब ने पहुंचते ही मेरे वहां बैठने पर सवाल उठाया और कहा कि भेंटी भर का हूं लग्गूपुर (7-8 किमी दूर मिडिल स्कूल का गांव) के रास्ते सलारपुर का बाहा में बह जाीओ गे। (धान के खेतों से बरसात के पानी की निकासी की नाली को बाहा कहा जाता था, एक बार बहने भी लगा था), मैंने कहा 'अब चाहे बही, चाहे बुड़ी, डिप्टी साहब कहि दीहेन त हम अब पांचै में पढ़ब। हा हा ।

बचपन 15

 मेरी कहानी विद्याधर से मिलती जुलती है, उनके दादा जी वैद्य थे, मेरे परदादा वैद्य के साथ संस्कृत और फारसी के भी नज्ञाता माने जाते थे। मेरे दादा जी पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे। मुधे प्रीप्राइमरी से कक्षा एक में तो पंडितजी(हमारे शिक्षक) ने प्रोमोट किया था, 4 से 5 में डिप्टी साहब ने। जो कहानी कल फोन पर बताया था, उसे कल लिखूंगा, जब कक्षा 9 में पढ़ने शहर (जौनपुर) गया तो एक लड़का दाढ़ी-मूछ वाला था। उसे मैंने सोचा अपने छोटे भाई को छोड़ने आया होगा और उसने सोचा मैं अपने बड़े भाई के साथ आया होगा। जब क्लास शुरू होने वाली थी तो उसने मुझे कक्षा से बाहर जाने को कहा, मैंने कहा मैं उसी क्लास में था। उसने और स्पष्ट किया कि वह कक्षा 9 का क्लासरूम था। मैंने जब बताया कि मैं भी उसी क्लास में पढ़ता हूं, तो उसने पूछा कैसे? पहली क्लास गणित की थी, शिक्षक बहुत अच्छे थे लेकिन पहले अनुभव के चलते उनकी इज्जत करने में मुझे काफी समय लग गया। उन्होंने पूछा उस क्लास में कैसे बैठा हूं मैंने बताया कि मिडिसल स्कूल पास कर उसी क्लास में एडमिसन लिया हूं। उसने डिवीजन पूछा तो मैं विनम्रता मैं यह नहीं बोला कि आजमगढ़ जिले में पहला स्थान है केवल फर्स्ट डिवीजन बताया। गुरूजी बहुत क्रूर संवेदना का परिचय देते हुे पूछा नकल करके? मैं अपमान से तिलमिला कर चुप रह गया। शिक्षक इतने अच्छे थे कि जल्दी ही यह अपमान भूल गया। मिडिल स्कूल वाली घटना कल लिखूंगा।

Wednesday, November 11, 2020

समृति (देवी प्रसाद त्रिपाठी)

 

समृति

डीपीटी (देवी प्रसाद त्रिपाठी)
 एक साहित्यिक व्यक्तित्व

ईश मिश्र

अद्भुत मेधा, स्मरणशक्ति एवं असाधारण मानवीय संवेदना से ओतप्रोत, असाधरण साधरणता के व्यक्तितव वाले मित्रों के मित्र, त्रिपाठीजी ( पूर्व सांसद, देवी प्रसाद त्रिपाठी) के अचानक चल देने से ठगा सा महसूस करने लगा। कैंसर के अंतिम चरण के बावजूद लगता था कि ऐसे जीवट वाले इंसान का मौत भी कुछ नहीं कर सकती, लेकिन मौत ही अंतिम सत्य है, और अनिश्चित। 10-5 दिन पहले जिससे, जिसके जीवन की अगली योजनाओं पर बात हुई हो, कुछ ही दिन पहले कुछ ही दिन बाद जिसके जन्मदिन के उत्सव की तैयारी की बात हो रही हो, उसकी श्रद्धांजलि लिखना कितना हृदय-विदारक होता है? क्रिसमस के चंद दिनों पहले त्रिपाठी जी (डीपीटी) से अगले 5-6 साल की जीवन की योजनाओं पर बात हुई। लेकिन 2020 के दूसरे ही दिन सारी योजनाओं को धता बताते हुए वे सदा के लिए दुनिया छोड़कर चले गए। 6 जनवरी 2020 को त्रिपाठी जी अपनी सत्तरवीं वर्षगांठ पर, पहली बार बड़े पैमाने पर इंडिया इंटरनेसल सेंटर में अपना जन्मदिन मनाने वाले थे। आमंत्रण के लिए जेएनयू के मित्रों की सूची बनाने की जिम्मेदारी मित्र कुमार नरेंद्र सिंह की थी। अब उसी तारीख में कांस्टीट्यूसन क्लब में उनकी समृति सभा होगी। कुछ सालों से कैंसर का इलाज चल रहा था जो कि आखिरी चरण में था। हर महीने कुछ समय अस्पताल में बीतता था डाक्टरों ने पहले ही बता दिया था कि अंत कभी भी आ सकता है लेकिन वे बेपरवाह अपनी तरह की बेफिक्र जिंदगी जी रहे थे जैसे जीवन अभी अनंत है। इसी बेपरवाही से उन्होंने सारी जिंदगी जिया। पिछले 2-3 सालों से, शायद बीमारी की वजह से उनके अंदर एक अजीब सी बेचैनी मुझे लगती थी। दूसरे-तीसरे महीने, कभी कभी बीसवें-पचीसवें दिन एकबैग उनका फोन आता, “कहां हो?”, “घर”, मैं आधे घंटे में आ रहा हूं। और कॉलेज के मेरे घर आ जाते, अक्सर हम घर के बाहर आम के नीचे ही बैठते, जाड़े में आग जलाकर।  अक्सर हम उनके साथ फिरोजशाह रोड (सांसद का उनका आवास) या इंडिया इंटरनेसनल सेंटर चल देते। कोई इलाहाबाद के मित्र या सीनियर/विशिष्ट व्यक्ति आते तो उनका फोन आ जाता, आ जाओ। एक बार आए बोले आधा घंटा सोऊंगा और सो गए। डेढ़-दो घंटे बाद उठे तो नाराज हो गए कि जगाया क्यों नहीं? और तुरंत तैयार हो कर साथ चलने का आदेश देते।   

उऩके अंतिम संस्कार (3 जनवरी 2020)में शामिल लोगों की उपस्थिति से उनके संबंधों के फलक का पता चलता है। किस तरह का संसार रचा था। दिल्ली के सभी दलों क बड़े राजनेताओं से लेकर सभी रंगत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी,पत्रकार, प्रोफेसर,छात्रनेता,रंगकर्मी,संस्कृतिकर्मी ,मजदूरनेता और किसान नेता उपस्थित थे।
 

 

त्रिपाठीजी में एक देवी प्रसाद त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाकात 1972 में इलाहाबाद में हुई, मैं विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय में प्रथम वर्ष का छात्र था और तब अपने साहित्यक तखल्लुस वियोगी नाम से जाने जाने वाले त्रिपाठी जी वरिष्ठ छात्र या यों कहें कि छात्र नेता थे। लोगों ने बताया कि उसके पिछले साल (1971-72 में) छात्रसंघ के प्रकाशनमंत्री का चुनाव ‘ढक्कन गुरू’ से हार चुके थे। वह चुनाव वे विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशी के रूपमें लड़े थे। मैंने जब से जानना शुरू किया तब वे एक प्रगतिशील साहित्यिक समूह ‘परिवेश’ में सक्रिय थे, समूह के अन्य लोगों में कृष्ण प्रताप सिंह (दिवंगत), विकास नारायण राय, शीश खान, रमाशंकर प्रसाद आदि थे। उनकी पहचान एक कवि के रूपमें थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीनियर-जूनियर के अर्थों में बहुत सामंती माहौल था। कोई भी जूनियर हर सीनियर को सर संबोधित करता था। दो लोगों ने सर कहने से रोका, कृष्ण प्रताप जी और वियोगी, मैंने उन्हें वियोगी जी की बजाय त्रिपाठी जी कहने लगा। 

 

त्रिपाठी जी (डीपी त्रिपाठी), शासक वर्ग की राजनीति में होने के बावजूद वे एक बहुत ही संवेदनशील, बेहतर इंसान थे तथा समाजवाद से उनका मोह बरकरार रहा। सीपाएम से कांग्रेस में संक्रमण काल के पहले, दौरान तथा राजीव गांधी से उनकी निकटता के दौर में मैंने बहुत भला-बुरा कहा, किंतु उनका स्नेह बना रहा। पिछले 10 सालों में तो यदा-कदा अचानक फोन करके कैंपस में घर आ जाते और कई बार गाड़ी में 'लाद कर' फिरोज शाह रोड या इंडिया इंटरनेसनल सेंटर चल देते। गरीबी के दिनों में भी उनकी दरियादिली में कमी नहीं होती। मुझसे कई बार गंभीर कहा-सुनी हुई है। मार्क्सवाद में मेरा संक्रमण प्रमुखतः पुस्तकों के माध्यम से हुआ, जिन एकाध व्यक्तियों का योगदान है उनमें त्रिपाठी जी (इलाहाबाद के दिनों में वियोगी जी) का योगदान है। इलाहाबाद में एक प्रगतिशील साहित्यिक ग्रुप था जो गोष्ठियों के अलावा एक अनिश्चितकालीन पत्रिका, 'परिवेश' निकालता था उनमें वियोगी जी भी थे। उन दिनों और जेएनयू के शुरुआती दिनों में भी कुछ बहुत अच्छी कविताएं लिखा। '... क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो, इस तरह तो कुछ और निखर जाएगी आवाज.......' विनम्र श्रद्धांजलि।

Tuesday, November 10, 2020

नारी विमर्श 14

 स्त्रियों की ही तरह बुजुर्गों का भी सेक्स के बारे में बात करना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन जब से (15-16 साल की उम्र से), एक लड़की दोस्त की पहल पर सेक्स के बारे में अनुभवजन्य जानकारी के चलते, सेक्सुअल्टी की मर्दवादी (जेंडर्ड) समझ की जगह जनतांत्रित समझ की प्रक्रिया की शुरुआत से ही आश्चर्य होने लगा था कि सेक्स जैसी सामान्य (नॉर्मल) और आपसी (मुचुअल) इच्छा तथा जरूरत को रहस्यमयी बनाकर इतना हव्वा क्यों खड़ा किया जाता है? किसी ने किसी के साथ आपसी मर्जी से सेक्स कर लिया तो कौन सी आफत आ गयी? दरअसल समाज की मर्दवादी संरचना के औचित्य के लिए सेक्स जैसी सामान्य बाद को सहस्यमयी बनाकर उसके इर्द-गिर्द वर्जनाओं और प्रतिबंधों का जाल बुना गया जिससे फिमेल सेक्सुअल्टी पर नियंत्रण के जरिए उसके व्यक्तित्व (फिमेल पर्सनल्टी) को नियंत्रित किया जा सके। मर्दवाद (जेंडर)कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही कोई साश्वत विचार है बल्ति एक विचारधारा (मिथ्या चेतना) है, जिसे नित्यप्रति की जीवनचर्या, विमर्श एवं रीति-रिवाजों के द्वारा निर्मित और पोषित किया जाता है। एक विचारधारा के रूप में स्त्रीवाद मर्दवादी मान्यताओं का निषेध है।

Friday, November 6, 2020

लल्ला पुराण 367 (ब्लॉक)

 

मैंने इस विषय पर पहले ही पोस्ट डाला है कि मेरी ब्लॉक लिस्ट में कुछ चुंगी सदस्य भी हैं, वैचारिक मतभेदों का तो मैं हार्दिक स्वागत करता हूं क्योंकि न तो कोई अंतिम ज्ञान होता है, न अंतिम सत्य. मतभेदों के स्वस्थ तरीके से चकराव से ही सापेक्ष सत्य निकलता है। गांधी के सत्याग्रह का आदर्श रूप में यही मतलब है। सेसल मीडिया के मंचों का भी यही मकसद होना चाहिए। मैंअसभ्य, अमर्यादित भाषा में निराधार निजी आक्षेप करने वालों को ही इसलिए ब्लॉक करता हूं कि पैंसठियाने (65 साल पार करने) के बावजूद दिल के आहत होने और आवेश में आने जैसी निजी, मानवीय दुर्बलताओं पर पूर्ण विजय नहीं प्राप्त कर सका हूं और अपमानजनक निजी आक्षेप पर आवेश में आकर कभी कभी भूल जाता हूं कि 45 साल पहले 20 साल का हूं और उन्हीं की भाषा में जवाब देने का मन होता है। ऐसा करने से अपनी भाषा भ्रष्ट होने का खतरा रहता है। ऐसा न करने के लिए इस तरह के लोगों से संवाद व्यर्थ समझ उनसे दूर हो जाता हूं। मानता हूं कि यह एक शिक्षक के रूप में मेरी असफलता है। एक आदर्श शिक्षक को चाहिए कि सावित्री बाई फुले की तरह सारे अपमान-अवमानना सहते हुए लोगों को अपनी सही बात समझाने पर अड़े रहना चाहिए। मैं बदलाव के सिद्धांत में यकीन करता हूं और शीघ्र ही अनब्लॉक कर देता हूं। दूसरी बार अनब्लॉक करने में डरता हूं। 4-5 साल पहले एक इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील को अनब्लॉक किया और वे वायस कॉल कर मां-बहन की गालियों के साथ मिलने पर हाथ पैर तोड़ने की धमकी देने लगे। गुंडे-मवालियों से मैं डरता नहीं, लेकिन जब रास्ता है तो उनके चक्कर में पड़े ही क्यों? तभी पहली बार पता चला फेसबुक पर फोन भी हो सकता है। रही बात मॉडरेटर की तो मेरी प्रशासनिक कामों में कोई रुचि कभी नहीं रही, लेकिन 3 साल के हॉस्टल के अनुभव के बाद लगा कि शिक्षक एक अच्छा प्रशासक हो सकता है। मैं इस ग्रुप के लोगों को एक बार फिर खोज-खोज कर अनब्लॉक करूंगा लेकिन ऊपर शिकायत करने वाले सज्जन की शिकायती भाषा ही आपत्तिजनक है।

Thursday, November 5, 2020

लल्ला पुराण 366 (चरणस्पर्श)

 हर युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं जो युग चेतना का निर्माण करते हैं और खास ढंग की सामाजिक चेतना तथा यथास्थितिवादी सामाजीकरण सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का प्रतिरोध करता है। पितृसत्तात्मक वर्णाश्रमी सामाजिक चेतना श्रेणाबद्ध सामाजिक और लैंगिक भेदभाव का पोषण करता है। मनुष्य का चैतन्य प्रयास से भौतिक परिस्थियां और तदनुरूप सामाजिक चेतना बदलती है तथा न्यूटन के गति दूसरे नियम के अनुसार य़थास्थिति की ताकतें इस बदलाव का प्रतिरोध करती हैं, रीति-रिवाज इस प्रतिरोध के माध्यम हैं। चरण स्पर्श अभिवादन का पुरुषवादी वर्णाश्रमी सामाजिक चेतना का पोषक, अभिवादन का सामंती तरीका है। मेरे छात्र बिना चरणस्पर्श किए मेरा बहुत सम्मान करते हैं। छात्रों की जगह पैर में नहीं दिल में होती है।पत्नी पति का चरणस्पर्श करती है, पति पत्नी का नहीं, अब्राह्मण ब्राह्मण का चरणस्पर्श करता है ब्रह्मण अब्राह्मण का नहीं।

Wednesday, November 4, 2020

नतमस्तक समाज

 नतमस्तक समाज में सिर झुका कर ही सलाम का रिवाज है

किसी का सर उठाकर चलना नाकाबिले बर्दाश्त है
अतिविनम्रता में लोग चरणस्पर्श और शाष्टांग करते हैं
हम तो रवायतों की मुखालफत का मंहगा शौक पालते हैं

समझबूझ कर ही उठाते हैं खतरा रवायतों के मुखालफत का
कलम कुंद करना ही होता है रिवाज नतमस्तक समाज का
करते हैं इंकार हवा को पीठ देने से समझते हैं उसका रुख
उठाते हैं मौजों की विपरीत दिशा में कश्ती चलाने का सुख

पाकिस्तान

 किसी ने लिखा कि मुनव्वर राणा जैसे लोगों ने पाकिस्तान बनवाया। उस पर:


मैंने इस पर 1991-92 में ज्ञान पांडे की पुस्तक "Construction of Communalism in Colonial North India" के छोटे-बड़े समीक्षात्मक लेख हिंदी में क्रमशः जनसत्ता और तीसरी दुनिया तथा अंग्रेजी में क्रमशः Pioneer & Social Science Probing के लिए लिखे थे। कैंपस छोड़ने के पहले टाइप कराया था खोजकर शेयर करूंगा। भारत में सांप्रदायिकता औपनिवेशिक पूंजी की खोख से निकली आधुनिक विचारधारा है तथा भारतीय समाज और देश बांटने की परियोजना औपनिवेशिक शासन की है जिसकी शुरुआत 1857 से हो गयी थी जब विद्रोही सैनिकों की मदद से संगठित, सशस्त्र किसान क्रांति ने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दी थीं और यदि भारत के सामंती शासक वर्गों का बड़ा हिस्सा किसान क्रांति के विरुद्ध अपने सैन्यबल के साथ औपनिवेशिक लुटेरों का साथ न देता तो इतिहास अलग होता। देशद्रोही दलाल देसी सामंती शासकों की मदद से क्रांति कुचलने और क्रांतिकारियों को खुली फांसी से आतंक फैलाने के बाद दोनों ही समुदायों के अपने दलालों की मदद से सांप्रदायिकता का निर्माण कर समाज को बांटो और राज करो की नीति अपनाय जिसकी परिणति औपनिवेशिक शासन के अंत के साथ अभूतपूर्व रक्तपात बीच देश और दिलों के बंटवारे में हुई। बंटवारे के घाव सांप्रदायिक नफरत के रूप में अभी भी नासूर बन रिस रहे हैं और समाज के दिल को छलनी कर रहे हैं। इसके लिए मुनव्वर राणा के ही वैचारिक पूर्वज अकेले जिम्मेदार नहीं हैं, उतने ही जिम्मेदार मोदी-योगी तथा कांग्रेसी हिंदुत्ववादियों के वैचारिक पूर्वज भी हैं।

बेतकतीब 93 (माटी का चौथा जन्मदिन)

 अपनी मां की गोद मै बैठी यह मेरी नतिनी आज 4 साल की हो गयी

आज के दिन दुवा करता हूं की कि जीवन में भरती रहे नई उड़ान
मानवता की सेवा में नापे नई ऊंचाइ सीमा न हो जिसकी आसमान
पढ़ते-लड़ते-बढ़ते हुए तय करे नई मंजिलें बने एक बेहतरीन इंसान
माटी को जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई

जब यह अपनी मां के पेट में थी तो मेरी छोटी बेटी ने कहा कि उसकी दीदी की बेबी के लिए उन्ही लोगों (दोनों बहनों) की एक सुंदर सा नाम सोचूं। मैंने कहा कि तुम लोगों का नाम तो बिना सोचे रख दिया था, इसका नाम माटी रख देते हैं। उसने कहा लड़का हुआ तो ढेला? उसका तब सोचेंगे। इस बात को जानने वाली मैं और मेरी एक प्रिय स्टूडेंट नतिनी होने की खबर पर खूब हंसे कि माटी ही हुई,दूसरा नाम सोचने की जरूरत नहीं पड़ी। मेरी छोटी बेटी जब पैदा हुई तो पत्रकारिता करता था। किसी पत्रिका के एक ही अंक में दो लेख छपे तो दो बाईलाइन अच्छी नहीं लगती लेकिन अपने लिखे का मोह भी नहीं छूटता तो दूसरे लेख के नीचे ईमि लिख देता था। इसका नाम रखना हुआ तो ईमि के ई का इ कर दिया और मि का मा, इमा हो गया।

माटी की तरफ से आप सब का बहुत आभार। उसके मां-बाप ने शिकागो में घर खरीदा है (लोन की किस्तों पर), वीडियो काल पर मैंने माटी से कहा अपना घर भेज दो, बोली यह तो बहुत बड़ा है, इसे उठाकर लेजानेके लिए इतने आदमी कहां मिलेंगे? वह अपना बड़ा वाला डॉल हाउस भेज देगी उसमें हम सब आ जाएंगे। उसका शुरुआती बचपन कैंपस के घर में बीता है लेकिन बच्चों को उस उम्र की यादें कम ही रहती हैं। मुझे 5 साल के पहले की कुछ बातें याद हैं और कुछ ऐसी घटनाएं जिनकी लोग बाद के दिनों में चर्चा करते थे। माटी ने बोलना-चलना कैंपस में ही शुरू किया। बहुत से स्टूडेंट्स उसके साथ खेलते तथा उसकी तस्वीरें खींचते रहते। भाग कर सीढ़ियां चढ़ती। एक बार लड़कों के हॉस्टल की सीढ़ियां चढ़ अंदर जाने लगी, मैंने कहा लड़कियों का अब हॉस्टल में जाना मना है, कहा 'तुम्हारे नानू वार्डन थे तब जा सकती थी'। गेट पर बैठे लड़के उसे अंदर ले गए। मैं वार्डन था तो मुझसे कहा गया कि अन्य हॉस्टलों में लड़कियों का प्रवेश मना है, मैं भी रोक दूं। मैंंने कहा कि मैं फिमेल गेस्ट्स का प्रवेश बंद करूंगा तो मेल गेस्ट्स का भी प्रवेश बंद कर दूंगा, जो खतरा लड़कियों से है वह लड़कों से भी हो सकता है। 18-22 साल के लड़के-लड़कियां इतने समझदार हैं कि विधायक-सांसद चुन सकते हैं आपस में मिलजुल नहीं सकते? मेरे एक स्टूडेंट (अभी बीएसएफ का कमांडेंट) का रूम तो उसके क्लास की लड़कियों का स्टडीरूम सा था। उसे कहता था,'तुम्हें तो इस लिए हॉस्टल से नहीं निकाल रहा कि ये सब कहां जाएंगी'। खैर माटी की तरफ से आभार व्यक्त करने में वार्डन के अनुभव में खो गया, कभी उन तीन खूबसूरत सालों पर लिखूंगा। बेटियों और माटी के कमरे की एक खिड़की के पार मेरी झोपड़ी (लाइब्रेरी और अध्ययन कक्ष) था। 5-6 महीने की थी तो बेटियों से डैडी सुन एक बार डैडी बुलाया फिर खिड़की का पर्दा हटाकर खिड़की पीटते हुए डड् -डड् करने लगी, थोड़ी बड़ी हुई तो नन् नन्। एक बार मैंने गुड नाइट का तो बोली नेइ और हाथ से घर के अंदर आने के रास्ते का नक्शा सा बनाती अंदर आने का इशारा किया। बोलने लगी तो नानू साफ बोलने लगी। उसकी मां और मौसी उसे भूत से डराकर सुलाती थीं। एक बार मेरे कमरे में पानी लेकर आई और बोली 'नानू दावी-मानी (दवाई-पानी) और खिड़की दिखाकर बोली भूत। मैंने कहा तुम लोग इसे भूत से डराती हो तो यह तुम्हारे बाप को। खैर आप सबका माटी की तरफ से फिर से आभार। सब लोग दुआ कीजिए कि वह बहुत ही अच्छी इंसान बने और मानवता की सेवा में नए प्रतिमान गढ़े।