मान्यवर, दलित मुसलमान बने, बनाए नहीं गए। बनाए जाने की बात, सांप्रदायिक ताकतों द्वारा फैलाई गयी भ्रांति है, ऐसा होता तो दिल्ली और आगरा के इर्द-गिर्द मुसलमानों का बहुमत होता। मुगल शासक थे धर्मप्रचारक नहीं। शासक के लिए धर्म की भूमिका एक राजनैतिक उपकरण से अधिक न रही है, न है। किसी भी शासक के लिए ऊंच-नीच जातियों में बंटे समाज पर शासन और उनका शोषण आसान होता है। इसीलिए मुगलों या अंग्रेजों ने वर्णाश्रम व्यवस्था को तोड़ने की कोशिस करने की बजाय इसका उपयोग किया। सर्वाधिक धर्म परिवर्तन दर्जी, बुनकर, बढ़ई, लोहार, कसाई जैसी नीच समझी जाने वाली कारीगर शूद्र जातियों ने किया। 'अर्थ ही मूल है'। सामाजिक रूप से नीच समझी जाने वाली, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर इन जातियों के लोगों को लगा धर्म परिवर्तन से शायद उन्हें सामाजिक समानता का सम्मान मिले। लेकिन जाति है कि जाती ही नहीं, वहां भी वे जाति लेकर गए।
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