कोरोना की आफत नें पूंजीवाद को संकट में राहत दे दी है पूंजी का मौजूदा संकट 1930 के दशक की महामंदी से ज्यादा प्रबल होने जा रहा है। यदि यूरोप की दूसरे इंटरनेसनल की ताकतें साम्राज्यवादी युद्ध में राष्ट्रवादी मिथ्याचेतना का शिकार हो अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा की क्रांतिकारी संभावनाओं से गद्दारी न करतीं तो पूंजीवाद के उस संकट को क्रांतिकारी मोड़ दे सकतीी थीं तथा यूरोप में फासीवाद और युद्ध की बजाय क्रांति हो सकती थी। क्रांति का ऑब्जेक्टिव फैक्टर पूंजीवाद का संकट परिपक्व था पर सब्जेक्टिव फैक्टर, राज्य सत्ता पर काबिज होने को तैयार संगठित क्रांतिकारी बल की गैर मौजूदगी के चलते पूंजीवाद ने संकट का फौरी निदान फासीीवाद और साम्राज्यवादी युद्ध में ढूंढ़ा। युद्ध स्थाई हल नहीं हो सकता था। एडमस्मिथ के फेल हो रहे अर्थशास्त्र की जगह केंस के अर्थशास्त्र ने पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाया और मजदूरों के असंतोष को भी शांत किया जिन्हे उत्पादन साधनों पर सरकार का नियंत्रण अपेक्षाकृत अपने माकूल लगा। लेेेजफेयर की जगह कल्याणकारी राज्य की स्थापना मूलतः विध्वंस के कगार पर खड़े पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने के लिए किया गया। भारत जैसे पूर्व औपनिवेशिक देशों में पूंजीवाद (औद्योगीकरण) नदारत था, औपनिवेशिक दखलंदाजी से पूंजीवाद के स्वतंत्र विकासकी संभावनाएं खत्म हो गयी थीं। अंग्रेजी राज के शुरुआती चरण में, औद्योगिक क्रांति के पहले, यूरोप की तुलना में भारत का तिजारती पूंजीवाद ज्यादा विकसित था। अंतरराष्ट्रीय व्यापार का मतलब था भारत और पूर्व एशिया, खासकर चीन केमाल में व्यापार। अंरराष्ट्रीय व्यापार में भारत प्रमुख था। अंग्रेजी राज के खात्मे के समय औद्योगिक विकास के अर्थ में भारत अविसित था। अर्थवेयवस्था में उद्योग का योगदान 6-7 फीसदी था।
जहां विकसित पूंजीवादी देशों में कल्याणकारी राज्य की स्थापना पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने के लिए हुई वहीं भारत में पूंजीवाद की स्थापना के लिए हुई। यद्यपि मुख्यतः अफीम युद्ध में अफीम व्यापार (तस्करी) से देशी पूंजीपति अस्तित्व में आ गए थे लेकिन विशाल उद्योगों और इन्फ्रस्ट्रक्चर में निवेश की न तो औकात थी न ही इच्छाशक्ति। सरकारी (जनता के पैसे) से भेल, सेल...... रेल उद्योगों के सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किए गए। थैचरिज्म और रीगनिज्म से सार्वजनिक क्षेत्रों और कल्याणकारी संस्थानों के विघटन की प्रक्रिया साम्राज्यवादी दबाव में भूमंडलीकरण के नाम पर पूरी दुनिया को चपेट में ले लिया। जिस मर्ज के लिए कल्याणकारी राज्य को औसधि के रूप में अपनाया गया उसे रोग घोषित कर मर्ज को निदान के रूप में स्वीकार किया गया। कहा गया निजीकरण और उदारीकरण अर्थव्यवस्था में रामबाण का काम करेगा। रोग इलाज नहीं हो सकता था, मौजूदा संकट अवश्यंभावी था। दोनों रास्ते हैं -- क्रांति और तानाशाही। सीएए विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलनों से नई क्रांतिकारी ताकतों के उदय की उम्मीद बनी थी। मौजूदा महामारी ने आंदोलनों की वह श्रडंखला तोड़ दी।
दुनिया भर में तानाशाही ताकतें संकटमोचन बनने की नौटंकी कर रही हैं। फिलहाल तो आसार उनके ही नजर आ रहे हैं, लेकिन हमें भविष्य की तैयारी करते रहना है, अंततः भविष्य हमारा ही है।
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