Friday, November 30, 2012

फिर्कापरस्ती

फिरकापर्स्ती
ईश मिश्र 
हुक्मरानों की नायाब चाल
इंसान बांटने का एक बड़ा जाल
जला दो जल्दी इस जाल को
नाकाम कर दो नापाक चाल को
क्यों करता है मजहब खून-खराबा
श्मशान  है क्यों इसका काशी-काबा?
क्या है इसका हिडेन एजेंडा?
 गरीब-गरीब से लड़ता रहे
अमीरी से निर्णायक जंग टलता रहे?

भय

भय 


नहीं है भय कोई नैसर्गिक प्रवृत्ति
है यह एक अमूर्त कल्पना की पुनरावृति
भयभीत नहीं होता कोई जन्मना 
समाज भरता है मन में यह कल्पना
डरता नहीं जो  भूत औ भगवान से
जीता है निर्भय नैतिक आत्म-सम्मान से 

हार-जीत

हार-जीत

ईश मिश्र 

हार-जीत मायानगरी की कुटिल माया है
हकीकी हकीकत की अमूर्त छाया है
झूठ बोलने वाले यानि कि बेईमान
मारते अंतरात्मा बेचते जब भी ईमान
घूमते हैं इतराते बन खोखले इंसान
थाती है इनकी बस वहम-ओ-गुमान

बोलता है सच जो होता ईमानदार
होता है निर्भय और हस्ती खुद्दार
हार जीत की उसको नहीं कोई दरकार
उसूलों की ज़िंदगी ही उसका सरोकार
शाए से भी डरते हैं वे वहम-ओ-गुमां वाले
न डरते भूत से न भगवान से हम अज्म-ए जूनूं वाले

Thursday, November 29, 2012

ये मस्त लहरें



ये मस्त लहरें, उमडता हुआ समंदर
 नायाब मोती छिपे हैं इसके अंदर
हर लहर के साथ इसमें आता बदलाव
परिवर्तन ही है इसका एकमात्र स्थायी भाव
हर नई सुबह के साथ लाता नयी धुप-छाँव
नया होता है समंदर रखते जब दुबारा पाँव


Tuesday, November 27, 2012

वंश परम्परा

वंश परम्परा
ईश मिश्र 
वंश परंपरा है ऐसा सद्गुण
खोजता नारी में सारे दुर्गुण
लग जाए गर प्रेम की व्याधि
कुलटा की उसे मिले उपाधि
छोड़ेगी यदि कुल-गोत्र के विचार
सम्मान-ह्त्या की होगी किरदार
कुलदीपक का जो दे न सुख
टल नहीं सकता कुलक्षिणी का दुःख
मिल गयी जो पढ़ने की छूट
करने लगी ज्ञान की लूट
नित्य-प्रति जूते खाती है
फिर भी पूजी जाती है
भोग्या की ही नहीं
ठुकराती है पूज्या का पद भी
तोडती है गौरवशाली परम्परा
नारीत्व से महरूम बसुंधरा
करती है नारी-मुक्ति की बकवास
सावित्री-सीता की रीति का सत्यानाश!

जान लिया है नारी ने अब वंश-परंपरा का कुतर्क
सिखाता है जो करना इसानों में इराधार फर्क
ठान लिया है अब तोड़ेगी वो पुश्तैनी वर्जनाएं
गढ़ेगी नएरिश्ते और समानुभूतिक नयी उपमाएं.



Wednesday, November 21, 2012

यह कैसा मातम है


यह कैसा मातम है कौन मरा
क्यों कोहराम मचा है मातम पर?

Tuesday, November 20, 2012

ओबामा का गुलाम


यदि मैं भी ओबामा का गुलाम होता
दुनिया में मेरा कितना नाम होता
सैकड़ों हरम-ओ-हमाम का इमाम होता
हर शहर में फ़ार्म हाउस हर सूबे में मकान होता
राजमाता का आशीर्वाद युवराज का साथ होता
रहमत-ए-विश्वबैंक सर पर वालमार्ट का हाथ होता
जलवे ऐसे होते तो वजीर-ए-आज़म हिन्दुस्तान होता

क्यों उदास हैं आँखें


क्यों उदास हैं चकित हिरनी सी आँखें आज
क्यों छाया है चंचल चेहरे पर व्यथा का राज
तोड़ा है  किसी ने क्या खुशनुमा जज्बात?
या साल रहा है आक्रामक शरर्माए का आगाज?

न तोड़ा है किसी ने दिल न खेला है जज्बात से
बेचैन हैं आँखे दिनोमानी बारला के कारावास से
फौजी बूटों से मुक्ति के वास्ते शर्मीला के उपवास से
शिक्षिका सोनी सोरी को मिल रहे घृणित संत्रास से

 है इन आँखों में तकलीफ का एक उमडता समंदर
छिपा है इस दुनिया को बदलने का जज्बा इसके अंदर
नहीं बर्दाश्त इसे ऐसा कोई भी सिकंदरी पोरबन्दर
राज करें जिस पर अंधे-बहरे-गूंगे बन्दर

Sunday, November 18, 2012

मुक्ति का सपना


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  • Arvind Kumar Ishji Nafarat ek Zahar hai aur zahar toh zahar hota hai.
  • Ish Mishra Arvind Kumar बिकुल सही फरमा रहे हैं. इसी लिये तो हम एक ऐसी दुनिया का सपना देखते हैं जिसमें नफरत और जंग की गुंजाइशें खत्म हो जाए; इंसान द्वारा इंसान के शोषण-दमन का सिलसिला नामुमकिन हो जाए; सभी स्वतंत्र हों किसी पर किसी किस्म का वर्चस्व न हो; कोई भी आवाम फौजी बूटों तले कुचला न जाए. ........ मुक्ति के सपने देखने वाले हमारे वैचारिक पूर्वजों और हमारे संघर्षों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि गुलामी के निजाम का. प्राचीन काल में यह नया निजाम शुरू हुआ विशुद्ध बाहुबल के आधार पर, अरस्तू ने वुद्धिविहीनता का कुतर्क गढा. उन वुद्धिविहीन लोगों ने लगबघ बिना औज़ार के प्रिज्म/मीनार/नाहर जैसे कर्श्में किये. स्पार्टकस के नेतृत्व की लड़ाई मुक्ति का जंग था और सीजर का जंग गुलामी का. यदि बाहुबल से गुलामी थोपी जाती है तो बाहुबल से बेड़ियाँ तोडना जायज है और टूटना ही चाहिए. बाहुबल के संसाधनों पर एकाधिकार के चलते उस आदिविद्रोह को तो कुचल दिया गया और शहीद मुक्ति-सेनानियों के कटे सर सड़कों के किनारे पेड़ों पर लटका दिए गए थे. लेकिन स्पार्टकस के आदिविद्रोही ने गुलामी के निजाम की चूलें हिला दी और बाहुबल से ककड़ी बेड़ियाँ टूटकर बिखर गयीं और तारीख में नया दौर शुरू हुआ बिना जंजीरों की गुलामी-सामंती गुलामी का दौर. इसमें धरती पर अधिकार को आधार बनाया गया. हर दौर का खात्मा अवश्यम्भावी है. सामंतवाद भी अपने ही बोझ तले दब गया. हिन्दुस्तान में वर्णाश्रमी सामंतवाद आख़िरी साँसें गिन रहा है. नए दौर में उत्पादन के सारे साधनों-संसाधनों पर चंद शर्मायेदारों का कब्जा हो गया और श्रमिक श्रम के साधनों से "मुक्त" होकर मुक्त श्रमिक बन गये. वे दो अर्थों में आज़ाद हैं, श्रम बेचने और भूख से मारने के.सारे जंगखोर शर्माए की रखैलें हैं. फिलीस्तीनी आवाम का संघर्ष जीने के अधिकार के लिये हैं और इजरायली जंगखोरी ने जीने देने के अधिकार के लिये. इजरायल के साथ अमेरिका है औए इसीलिये भय से फिलिस्तीन का साथी कोई नहीं. आइये हम सब मिलकर ऐसी दुनिया के सपने देखें जहाँ नफ़रत, जंग, और जनसंहार के नाम-ओ-निशाँ न हों.

Saturday, November 17, 2012

खोजने को आदमी गढना होगा नया किस्सा


जिसने भी ये बीज बोया होगा
अच्छी फसल के सपने संजोया होगा
उम्मीद किया होगा उगेंगे सचेत इंसान
खाद-पानी की किस्म से बना रहा अनजान
भेंड़चाल ने बना दिया भीड़ का बेजान  हिस्सा
खोजने को आदमी गढना होगा नया किस्सा.

लल्ला पुराण ५६

 चंचल जी ने एक पोस्ट डाला था जार्ज और ठाकरे की निजी घनिष्ठता और राजनैतिक भिन्नता पर, उस पर मेरे कमेंट्स:

जार्ज के अंदर साम्प्रदायिक अवसरवादिता पुरानी है जो अटल के मंत्रिमंडल में मलाईदार मंत्रालय के लिये आरएसएस की गोद में बैठकर मुखरित हुई. ठाकरे जैसे जन्-द्रोही और युद्धोन्मादी साम्प्रदायिक आतातायी की मौत का मातम उसके वैचारिक मानसपुत्र ही मनाये, जैसे रणवीर सेना के मुखिया के मातम में उस अपराधी के मानस पुत्रों ने कोहराम मचा दिया था.

चंचल भाई मैं आपका बहुत सम्मान करता  हूँ क्योंकि आप मेरे बहुत वरिष्ठ हैं. इसीलिये आपकी राजनैतिक यात्रा वाला कमेन्ट डिलीट कर दिया. लेकिन पते में कौन ठकुरई. आप के कुतर्क भाजपा-कांग्रेस के आपसी दोषारोपण की तरह हैं. अपने भ्रष्ट होने की सफाई देने की बजाय दूसरे के भ्रष्टाचार की तरफ इंगित करना. बहुत खुशी हुई जानकार कि परजीवी राजनेता पुरुशार्थी हैं. १९६२ बौर १९६७ पर बहुत लिखा जा चुका. वैसे भी प्रकाश करात और बुद्धादेब उसी तरह के कम्युनिस्ट हैं, मुलायम और जार्ज  जिस तरह के सोसलिस्ट. लेकिन अगर पूंजी के दलाल अपने को सोसलिस्स्त और कम्युनिस्ट काहें तो यह सोसलिज्म और कम्युनिज्म की सैद्धांतिक विजय है. देश बेचने का उपक्रम हम नहीं साम्प्राज्वाद की दलाल पार्टियां भाजपा-कांग्रेस कर रही हैं. देश बेचने का उपक्रम रक्षा और ताबूत के सौदों में दलाली खाने वाले जार्ज जैसे नेता कर रह रहे हैं. देश बेचने के साजिश विश्वबैंक के सेवक मनमोहन जैसे नौकरशाह कर रहे हैं. हल्के फुल्के अंदाज में कहूँ ओ चंचल भाई १८ साल के उम्र में पिताजी से राजनैतिक के चलते आर्थिक सम्बन्ध विच्छेद के बाद कभी किसी से कोई दान-अनुदान/आर्डर-मनीआर्डर नहीं लिया.२१ साल में खाली हाथ दिल्ली भूमिगत रहने आया था और कभी भी किसी की चवन्नी की चाय का एहसान नहीं लिया. झुकाकर सर जो सर बन जाता मैं नौकरी १५ साल पाहले मिल जाती लेकिन तब मैं मैं न होता. प्रणाम.


Yogesh Abhay Singh: चार्वाक मुनि के बढ़िया संस्करण कौन हैं? वैसे आपकी कुतर्कपूर्ण आधारहीन गलियों का स्वागत है. वह जंग ही क्या वह अमन ही क्या दुश्मन जिसमे ताराज न हो? यदि हुन्दुत्त्ववादी धर्मान्ध; साम्प्रदायिकतावादी युद्धोन्मादी; फासीवादी,नस्लवादी/जातिवादी/क्षेत्रवादी दुर्बुद्धि; एवं  हिटलर के विविध किस्म के मानसपुत्र मुझी गालियाँ न दे तो मुझे अपनी निष्ठा पर संदेह होने लगता है. इस पोस्ट पर बाल से जार्ज का ही ज़िक्र है. और रणवीर सेना से शिवसेना के तुलना इसलिए प्रासंगिक है कि दोनों जातीय/न्रिशंसीय आधार पर बनी फासीवादी किस्म की सामाजिक-अपराधी निजी सेनाएं हैं और दोनों के मुखिया ठाकरे और ब्रह्मेश्वर नृशंस किस्म के सामाजिक अपराधी थे और जिनके समर्थकों ने उनके मातम में कोहराम मचाया. प्रासंगिकता यह भी है कि किस किस्म की हम शिक्षा देते हैं कि इतने  पढ़े-लिखे लोग इतने खतरनाक इन सामाजिक अपराधियों के प्रति भक्ति-भाव रखते हैं. 

इंसानियत मरती नहीं


इंसानियत मरती नहीं, बिकती भी नहीं
न मिलती है दहेज मे , दलाली में भी नहीं
इज्ज़त की ही तरह  कमाई जाती है
ईमानदारी की तरह बचाई जाती है.

Thursday, November 15, 2012

लल्ला पुराण ५५

इलाहाबाद के एक मित्र के इवि के फेस बुकी ग्रुप्स पर विमर्श के स्तर को लेकर व्यक्त सरोकारों  पर मेरे ३ कमेंट्स:

धीरेन्द्र भाई, मैंने कुटुंब पर वाक्कई छोड़ने के पहले जब छोड़ने जा रहा था तो एक लंबी पोस्ट लगाई थी, जिसमें महज २ ग्रुप्स के सन्दर्भ और विमर्श की वगुणवत्ता पर वही सवाल उठाये थे जिस पर आपकी इस पोस्ट पर चिंता व्यक्त की गई है.मेरे ब्लॉग में वह पोस्ट है. इस पर लंबे कमेन्ट की जरूरत है, फुर्सत में लिखूंगा. मेरे पास तो तुलना के लिये जे.एन.यू. के भी ग्रुप्स और अनुभव हैं. इन ग्रुप्स में मेरे ३ पूर्व परिचित हैं. नृपेन्द्र, वीपी सिंह और विनोद शंकर सिंह.


जसा आपने कहा कि तेज तर्रार सक्रिय हैं तथा समझ्दाए शरीफ चुप. तो धीरेन्द्र भाई, मैं समझदार और शरीफ बहुमत की खामोशी को आपराधिक उदासीनता मानता हूँ, सद्गुण नहीं. बहुमान हमेशा सज्जनों का होता है लेकिन इनकी कायरतापूर्ण खामोशी मुट्ठी भर वाचाल दुर्जनों का वर्चस्व स्थापित होने में साधन का काम करता है.मैंने लिखा था कुटुंब पर कि ज्यादातर लोग यहाँ ऐसे हैं जो जिस सामाजिक सोच समझ से आये थे उसे अक्षुण और  अमिट बनाए रहते  हुए डिग्रियां लेकर कोचिंग के नोट रत कर पीसीयस या ब्लाक्प्रमुख टाइप के बन गए. इन्होने शिक्षा को नौकरी पाने का हुनर भर माना.



धीरेन्द्र भाई, लाइक बटन २ कारणों से दबाया. पहला सज्जन बहुमत की खामोशी के बारे में कायरतापूर्ण उदासीनता की मेरी राय से असहमति की अभिव्यक्ति के लिये. कोई अंतिम सत्य नहीं होता. इसलिए कोई उसका  वाहक नहीं होता. असहमतियों के द्वंद्व से ही सापेक्ष सत्य के ज्ञान का बोध होता है. दूसरा इन ग्रुप्स को सार्थक विमर्श का मंच बनाने का साझा सरोकार.मैंने ऊपर लिखा है कि मैं इस पर एक , वास्तविक और आभासी इलाहाबादी समूहों के बारे में जे.एन.यू. के समूहों के साथ एक तुलनात्मक विश्लेषण लिखूंगा, लेकिन कई खूंटों में पैर फंसाए रहने के चलते समय नहीं मिला. निकालूँगा.
अभी मैं अपनी ऊपर वाले कमेन्ट की ही बात को आगे बढ़ाऊंगा. तटस्थता की निजी हरकतें कायरतापूर्ण नहीं भी हो सकतीं, लेकिन उनका सामूहिक प्रभाव माहौल को विषाक्त बनाने में, अप्रतक्ष्य किन्तु निर्णायक भूमिका निभाता है. मैंने कुटुंब-निर्माण के पहले लल्ला चौराहे पर (अब तो चुंगी भी बन गए है, सुना है और मैं कोई चुंगी देना नहीं चाहता) हास्टल की वार्डन के रूप में अपने अनुभव पर एक पोस्ट डाला था. जब मैंने यह दायित्व सम्भाला तो कालेज और हास्टल में २ "शत्रुतापूर्ण" और एक "तटस्थ"(उत्तर-पूर्व के राज्यों के विद्यार्थी) समूह थे.  हास्टल मार-पीट का अड्डा था. हर दूसरे-तीसरे दिन पुलिस आती रहती थी. भाई ९०-९२% लेकर आने वाले हमर३ए स्टुडेंट्स अपराधी तो नहीं हैं. यह उम्र अस्मिता संकट और निर्माण की निर्णायक उमे होती है. कुछ को लगता है कि 'दादागीरी' से अस्मिता बना सकते हैं. मैंने वार्डन के आफिस में घुसते ही हास्टल के "अनुशासन" के मुताल्लिक ३ निर्णय लिये: १. इनकी अमूर्त, कृतिम शत्रुता की विभाजक रेखा को मिटा दूंगा. २. जिस दिन पुलिस बुलाना होगा उसके पहले मैं त्यागपत्र दे दूंगा. यदि आपको अपने स्टुडेंट्स से पुलिस की मदद से निपटना पड़े तो आपमें शिक्षक की पात्रता नहीं नही. अपने लंबे  छात्र और छोटे शिक्षक जीवन के अनुभवों के आधार पर दावे से कह सकता हूँ कि कोई भी स्टूडेंट टीचर के साथ कभी बद्दमीजी नहीं कर सकता जब तक शिक्षक की कुल जमा बद्दतमीज़ी असह्य न हो जाए. ३. किसी भी विद्यार्थी को निष्कासन या किसी अन्य दंडात्मक सम्मान से विभूषित नहीं करूँगा.डंडे से पढाने वाले शिक्षक मुझी कभी अच्छे नहीं लगे. १ साल में तीनों काम संपन्न. संक्षेप में लोगों को असंभव दिखता काम इसलिए संभव हुआ कि मैंने सज्जनता मौन बहुमत को वाचाल बनने के लिये प्रोत्साहित किया. इन ऊर्जापूर्ण युवाओं में self-regulating mechanism के सुप्त तत्वों को झकझोरा.और "gainfully unemployed हो गया. सज्जनता का बहुमत आत्म्केंद्रीयता और अज्ञात, अदृश्य भय के कारण खामोश रहता है. "अदृश्यता" का मिथ टूटते ही मौन बहुमत वाचाल हो गया. इस छोटी सी बड़ी बात से अलग-थलग पड़ गए "भैया" और "बाबा" किस्म के लड़कों को भी साधारण विद्यार्थी की तरह सामूहिक हित में ही अपना हित भी ढूढना पड़ा. उन्हें भी समता का सुख ज्यादा आनददाई लगा. सभी मेरे प्रिय मित्र हैं और  कृतग्य महसूस करते हैं. इन ऊर्जावान युवाओं को समझ में आ गया कि काम की अस्मिता दादागीरी की स्मिता से बेहतर और टिकाऊ होती है. इसीलिये मैं सज्जनता के मौन बहुमत की खामोशी को कायरतापूर्ण उदासीनता और व्यापक अर्थों में, अप्रतक्ष्य सामाजिक अपराध मानता हूँ.

Wednesday, November 14, 2012

International proletariat 9

McCarthyism seems to be still alive in US.Though there has been evolutionary quantitative changes. In 1950s Rosa P ark, the civil rights movement heroin was pushed out of Bus for not vacating unreserved seats and Obama is President now 2nd time. But the change is only quantitative. But there are all the possibilities of maturing of evolutionary quantitative changes into revolutionary qualitative ones in the near future, as soon as majority of us, workers-- high-low wage earners -- transform ourselves from class in itself into class for itself. Hope it happens sooner than later. To push down the corporate's captive parties from the political power the open flouting of capability to get greater funds for this bloody indirect direct elections, must be changed. For that the constitutional amendments are required. Senatorial solidarity between the 2 parties would not allow that. The only option is to surround the senate from the streets -- Occupy White House, peoples' movements with radical ambitions.

मुठभेड़ तूफानों से




मुठभेड़ तूफानों से

नभ में चमक रही थी चपला फिर भी नहीं तनिक तूं बिचला
ओलों की बूंदाबादी में उदधि थहाने था जब निकला
(एक पुरानी तुकबंदी से)
जब भी हो मुठभेड़ समंदर में भयानक तूफानों से
फाडकर सीना उनका बढते रहो आज़ादी के दीवानों से
झेले हैं तुमने अब तक तूफानी रात के बाहुत पल
सबा-ओ-सुबह की आमद नहीं सकती टल
हैं अगर हिम्मत-ओ-इरादा  बुलंद-ओ-अटल
पतवार पर ढीली न हो लेकिन कभी पकड़

हिरनी सी ये निगाहें



क्या कहती हैं चकित हिरनी सी ये निगाहें
और साथ में  अर्थपूर्ण मंद मुस्कान?
कर रहा होगा मन तैयारी
भरने को गगनचुम्बी एक नई उड़ान
तल्खी दिखती है जज्बात में कड़वाहट नहीं
करती हैं ये बुलंद इरादों का ऐलान


करता नहीं तारीफ़ बेबात, हूँ मुंहफट इंसान
जो होगा सुपात्र करूँगा उसीका गुणगान 
बिना चुम्बकीय आकर्षण डोलता नहीं ईमान
किसे नहीं भायेगी ये संकल्पवती मधुर मुस्कान 

उत्तर-वैदिक गणतंत्र



उत्तर-वैदिक गणतंत्र
ईश मिश्र
कितना अद्भुत लगता है, विश्वबैंक की वफादारी और नेहरू-गांधी जनतांत्रिक राजघराने के प्रति असीम भक्ति-भाव के आधार पर तख्तासीन प्रधानमंत्री का गणतंत्र-दिवस का सन्देश कितना अद्भुत लगता है? पुलिस छावनी में तब्दील, सत्रहवीं शताब्दी के एक शहन्शाह के महल, लाल किले की बुलेट-प्रूफ प्राचीर से प्रधानमंत्री को गणतंत्रीय विमर्श पढते हुए देख, कौटिल्य का अर्थशास्त्र कितना समकालीन लगने लगता है और उत्तर-वैदिक, जनतांत्रिक, गण-राज्यों की ऐतिहासिकता कितनी विस्मयकारी!. अर्थशास्त्र में युद्ध-अभियानों और सैन्य-शक्ति की वैधता पर आधारित विजीगिशु (विजयकामी राजा) की सुरक्षा सर्वोपरि है, क्योंकि वह सप्तांग राज्य के रथ के पहिये की धुरी है, बाकी तीलियां. इस विजिगीषु, राजर्षि को हर किसी से खतरा हो सकता है, सहयोगियों और यहाँ तक कि पत्नियों से भी. इसलिए अर्थशास्त्र में इसकी अभेद्य, सुरक्षा के व्यापक उपायों का वर्णन है. सर्व्यापी गुप्तचर व्यवस्था का एक विंग सीधे राजा के नियंत्रण में होता है. सिंधु से सरस्वती के बीच रहने वाले सप्त-सैन्धव ऋगवैदिक आर्यों के वंशज सरस्वती सूखने के बाद जब गंगा के मैदानों में पूरब बढ़ते हुए राजतंत्र स्थापित करते गए. सेनापति/पुरोहित राजा बन गए. गंगा के उत्तर बसे लोगों को ऋगवैदिक  समुदायिक जीवन की आज़ादी और समानतापूर्ण सौहार्द की यादें सताने लगीं. उन्होंने ने एक-एक करके सभी राज-तंत्रों उखाड फेंका और सहमति के शासन की व्यवस्था स्थापित किया, जिन्हें उत्तर-वैदिक गणराज्य कहा जाता है. 

बुद्धकाल के पहले भारतीय-दर्शन की विभिन्न धाराओं में  राज्य की उत्पत्ति और विकास की व्याख्या के अर्थ में, में राजनैतिक चिंतन का अभाव रहा है.  तब तक एक शासनव्यवस्था या संस्था के रूप में, राज्य की जड़ें नहीं जम पायीं थी. महाजनपद काल से, खास भौगोलिक क्षेत्र में शासन-तंत्र के रूप में राज्य ने ठोस आकार लेना शुरू किया. गंगा के दक्षिणी, मैदानी इलाकों में मगध, काशी आदि नियमति, पेशेवर सैन्य-तंत्र पर आधारित राजतंत्र थे और गंगा के उत्तर के मैदानी इलाकों में, इतिहासकारों के अनुसार, उत्तर वैदिक गणतंत्र. राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास सिंह सेनापति इन गणों की सामाजिक-व्यवस्था, प्रधान एवं परिषदों के चुनावों एवं युद्ध-अभियानों की रणनीतियों के निर्माण में व्यापक जन-भागीदारी और भूमिका का एक बृहद आइना है. राज्य की उत्पत्ति और विकास का पहला व्यवस्थित वर्णन दीघनिकाय और अनुगत्तरानिकाय नाम से संकलित बौद्ध ग्रंथों में मिलता है. इन ग्रंथों में राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है. प्राकृतिक राज्य में लोग प्राकृतिक कानूनों का पालन करते हुए मौज से रहते थे. लेकिन कुछ दुष्ट लोगों का चावल चुराने लगे, जिससे अराजकता की स्थिति पैदा होगी. इससे निजात पाने के लिए लोगों ने एक महासम्मत का चुनाव किया जो धम्मा (नैतिक जीवन के सिद्धांत) के आधार पर ऐसे लोगों को दण्डित करेगा जिससे अन्य लोग भय से ऐसा न करें. इसके लिए लोग महासम्मत को अपनी उपज का कुछ हिस्सा देंगे. विचार हवा में से नहीं आते. संस्कृत ग्रंथों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र पहला व्यवस्थित, समग्र ग्रथ है, जिसे राजनैतिक दर्शन/चिंतन की कोटि में रखा जाता है.

गंगा पार के राजतंत्र, खासकर मगध, इन छोटे-छोटे गणराज्यों  की खुशहाली देख, नियमित सेना के दंभ पर इन पर हमले करते थे और पराजित होते थे. इस साझी विपदा से निदान पाने के लिए वैशाली गणराज्य के नेतृत्व में लिच्छवी समेत् १२ गणराज्यों ने एक महासंघ बना रखा था. मगध के विभिन्न शासकों को खदेड़ने के बाद इन गणराज्यों के रण-बांकुरे बिना लूट-पाट के वापस चले जाते थे. इनमें विस्तार भाव नहीं था. उनकी अपनी प्राकृतिक संपदाएं और संसाधन आज़ादी की हवा में चैन से जीने के लिए पर्याप्त थे.युद्धों में महिलायें भी शिरकत करतीं थीं. ज्यादातर मेडिकल कोर जैसे विभाग में रहतीं थीं, लेकिन कुछ महिलायें, घोड़े पर सवार, तीर-तलवार के कौशल से भी दुश्मनों के छक्के छुडा देतीं थीं. इन गणराज्यों के पास कोई नियमित, वेतनभोगी सेना नहीं होती थी. सभी नागरिक सैन्य कौशल के किसी-न-किसी पहलू में प्रशिक्षित होते थे. युद्ध की अपरिहार्यता की स्थिति में -- शिक्षक, छात्र, किसान, कारीगर, पशुपालक, पुजारी -- सभी अपने औजार रख कर हथियार उठा लेते थे. निर्वाचित मुखिया की जीवन-शैली और जीवन स्तर, गणराज्य के अन्य नागरिकों के समान ही होता था और उसे किसी विशेष सुरक्षा की आवश्यकता नहीं होती थी.

राजतन्त्र को ही वांछनीय शासन व्यवस्था मानाने वाले, कौटिल्य भी सैद्धांतिक ढाँचे के रूप इन गणतंत्रों का ज़िक्र अर्थशास्त्र  में कई जगहों पर करते हैं. विजीगिशु को, किसी भी संघ के साथ प्रत्यक्ष युद्ध में न उलझने की सलाह देते हैं. उनके साथ मन्त्र-युद्ध एवं शाम-दाम-भेद समेत अन्य कूटनीतिक उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए. क्योंकि संघ सघन बुनावट का एकताबद्ध समग्रता होता है.

इन उत्तर-वैदिक गणराज्यों का इतिहास, एथेंस सरीखे  यूनानी नगर-राज्यों की जनतंत्रात्मक व्यवस्थाओं और प्लेटो के ग्रन्थ गणराज्य (रिपब्लिक) के इतिहास से पुराना है. प्लेटो का गणराज्य वस्तुतः गण-विहीन है. वर्णाश्रम की तर्ज पर प्रतिपादित उसके आदर्श राज्य के हाशिए पर भी जनगण नहीं हैं. जनतांत्रिक एथेंस और गणतांत्रिक रोम अपने-अपने समय के, क्रमशः सबसे बड़े उपनिवेशवादी और विस्तारवादी थे.

क्यों नहीं पढ़ाया जाता हमें इन गणराज्यों का इतिहास? इतना ही नहीं, एक महत्वपूर्ण गणराज्य, लिच्छवी के नगारिक गौतम बुद्ध को जन्मना राजकुमार बताया जाता है और तर्कों के दिवालिएपन में  ब्राह्मणवाद उन्हें विष्णु का अवतार घोषित कर देता है. श्यामनारायण पाण्डेय की हल्दी घाटी जैसी युद्धोन्मादी कवितायें तो होश सम्हालते ही रटा दी जाती हैं, हमारी जनतांत्रिक विरासतें क्यों नहीं पढाई जाती हैं जबकि रक्तपात की काबिलियत से महान बने सम्राटों की कहानियां तो प्रशस्ति-भाव  से पढ़ाई जाती हैं?

ईश मिश्र
१७ बी, विश्वविद्यालय मार्ग
हिंदू कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
mishraish@gmail.com

14.11.2012

Sunday, November 11, 2012

निगाहों की तश्नगी

निगाहों की तश्नगी 
ईश मिश्र 

ढूंढेगी जिसे भी इतने खलूस से निगाहों की तश्नगी
इनमें डूबना हैं अहल-ए-जूनून से इश्क की बंदगी
ये आँखे हैं सघन जज्बातों के उमड़ते हुए समंदर
मिलेगा मोती-ए-ज़िंदगी पैठ गहरे इनके अंदर
(वाह वाह यह तो शायरी हो गयी)


नयनों के अंदाज़ हों गर उमड़ती लहरों के  समंदर से
जी करता है करने को खुदी इसके ज्वार-भाटा के हवाले


होंगे नयना जो सावन-भादों
मन रहेगा उदास
करेगा किसी कृपा की आस
और नहीं बुझेगी प्यास

हो नज़रों में इतने तेज का एहसास
कुंएं को भी हो जाए प्यास का आभास
चल कर खुद-ब-खुद आ जाए पास
बुझाने एक दूजे की नैसर्गिक प्यास

International Proletariat 8

In a post the debtor had asked about what does exactly the mother fucker means? In Hindi (One of the north Indian languages) except wife fucker, sister fuckers, daughter fucker are also abuses. all these abuses strengthen the  ideology of gender orchestrated by patriarchy. Firstly it defines the most intimate moments of absolute mutuality -- the intense love making -- in derogatory, hierarchical term of fucking. They do not fuck with each other but the man fucks the woman and woman is fucked establishing the stereotyped superiority of the penis over vagina. Calling someone brother-law(SALA _wife's brother) is abuse as the husband fucks his sister or Mama(mother's brother) is also an abuse as the abuser's father fucks his sister......... Calling some one Chutia(one born out of Chut(vagina) is also an abuse. fucking is  achievement and getting fucked is getting abused. I tell my female friends and students to invent new gender-free non-sexist abuses and do not be inadvertent part of the ongoing process of anti-feminist abuses. Gender is not an attribute of the biology but is an ideology created and perpetuated by our day-to-day social practices. All the sexual taboos and inhibitions are aimed at undermining and controling female sexuality. After having sex with someone some people feel that they have fucked the woman and ruined her, as if the essence of life lies between the legs. In India, though only those do not have premarital sex who have not found social-physical space.and in secluded societies affair between cousins is  not very uncommon but remains under the carpet. But a girl becomes "impure" if her relationship comes to light, even if she is raped. Let us consciously  stop anti-feminist abuses and also stop sex as some kind of stigma. Any consensual relations between 'any' individual are absolutely justified if there is:1. democratic parity; 2. no use of force (physical or economic or of position); 3. no breach of trust. And no one fucks any one the two make together intense love or "fuck with each other.   As incest is the big taboo and with mother the biggest. therefore motherfucker is biggest abuse. If I have to abuse Tiffany, I will call her Margret Thatcher or so. Mother is dearest hance no disrespect. Amen. 

international proletariat 7

Fu Lin-lin: I fully agree with you on the point of the link of consciousness in the transformation of the workers from the class-in-itself to class for itself . And helping workers acquire revolutionary class consciousness and  organization is the role of revolutionary intellectuals by their each act and word. the professional intellectuals have their vested interest with the system and highly paid executives become spokesperson of capitalism.  They need to be told that they too are wage earners despite a crumb from the plunder which they give back to capitalists by investing into shares and bonds.capitalism has learnt from Hindu caste order. Everyone can find some one to look down at. It has stratified the workers into so many echelons and ranks that consciousness of common interest is eluding. nevertheless it would happen one way or the other. Latin american experience needs to be studied and influenced. Objective conditions of maturing the contradiction have been appearing time and again but subjective factor of conscious working class organization have been missing. Each recovery is accompanied by more concentration and centralization of capital and more exploitation of workers with carrot to a small section of the middle classes -- the lumpen bourgeoisie.   

Friday, November 9, 2012

बेरुखी

बेरुखी 
ईश मिश्र 

बेरुखी कभी भी बेबात नहीं होती
अश्को की दरिया में किश्ती नहीं चलती.


बेबात बेरुखी बुरी होती है
वहम-ओ-गुमां से जुड़ी होती है
यह आदत है धनवानों की
तर्कहीन विद्वानों की.

International Proletariat 6

Education and health care must be uniform for all must be state responsibility. Private educational and medical institutions must be immediately nationalized and the rich/corporate heavily taxed to redistribute the un-earned and moribund wealth of the rich. But do not expect it from Obama. Both the major parties of the USA have concurrence of interest on all the major issues of national/global concerns. Both compete in imperialist warmongering squandering  enormous social wealth  and destroying/ruining/distorting invaluable human lives. Just think of the picture posted on fb showing 2 Belgian peacekeepers happily  roasting a Somali boy. Why do the most soldiers coming back from brutal imperialist war campaigns turn out to be psychic cases? Both compete in facilitating the profit making by the monopoly-corporate giants and their imperialist plunder. Therefore as long as people do not become conscious of their rights and organized powers and establish popular sovereignty in the spirit (not in the content) Rousseau's General Will deleting the dividing line between the ruler and the ruled, there cant be any qualitative change in the conditions of common people by shunting between Bushes and Obamas.   

कारवानेजुनून

कारवानेजुनून 
ईश मिश्र 

राजपथों पर गुजरते हैं इक्का-दुक्का ही काफिले
चिकने धरातल  ऐसे हादसों के गवाह ही नहीं  छोड़ते
चलते हैं इनपर वहम-ओ-गुमाँ वाले
डरते है जो अपने ही पैरों के निशान से
छोड़ना चाहते हैं अपनी छाप
अज्म-ए--जुनूं वाले कारवानेजुनून
और चलते है  कच्ची पगडंडियों पर
बनाते हुए रास्ता  आने वाले राहगीरों के लिए
पहुँचता है कारवाँ जब एक मंजिल पर
दस्तक देती है तेज है हवाएं
दिलाती हैं एहसास अगली मंजिल का
आगे दिखती हैं और भी मंजिलें
दिखते हैं पीछे कारवानेजुनून के कई काफिले.

होने का एहसास

होने का एहसास 
ईश मिश्र 

मेरे शब्द प्रतिबिम्ब हैं मेरे एहसास के
जो खुद हैं परिणाम इन्द्रिय-ग्रहित ज्ञान के
नहीं है सिद्धांत कोई अमूर्त आध्यात्मिक मर्म
यह तो है चिंतन-जनित वुयाव्हारिक, भौतिक कर्म
क्योंकि होने से होता है होने का एहसास
न कि होना होता है एहसास  के  होने से

Sunday, November 4, 2012

International proletariat 5

There was a post saying with Republican Party's blocking every bill Obama coulkd not have done much. my comment on that:

Obama could have done a lot if there was will, butt he has to raise funds from the corporate including MIC(the overground mafia), warmongering jingoists and drug and arms cartels (the underground mafia). He could have stopped Guantanamo and other torture camps; he could have stopped cowardice butchering of people all over the world and parasitically sending unmanned Drones and creating warmongering atmosphere at home, squandering trillions of peoples money in wars  while people starve at home. He could have stopped muscle flexing to developing countries for allowing sick corporate like Wall Mart to plunder people with the help of his loyal anti-people governments. The election in bourgeois democracies is between 2 evils. Any way Obama is lesser monster than Romney, though only in degree not in quality. Just do not vote. Let the 2 monsters fight out their wars. REVOLUTION IS THE ONLY SOLUTION. 

Friday, November 2, 2012

गज़ल

गज़ल
ईश मिश्र 

थे जब तक गज़लगो सबाब-ओ-शराब के पूजारी
माशूक के जल्वों में उलझ गयी थी गज़ल बेचारी
पैदा हुआ एक शायर जिसका नाम था मजाज
बदल दिया उसने गज़लगोई का मिजाज
मुक्त हुई माशूक की उलझी जुल्फ से जब से गज़ल
बन गयी खाक़नशीनों के जंग-ए-आज़ादी का शगल
छोड़ दिया उसने हुस्न के जल्वों के जाली जज्बात
लिखने लगी मुफलिस की जवानी ओ बेवा का सबाब
छोड़ दिया उसने महफ़िल शाहों और प्यादों की
तोड़ने लगी तेग हिटलरों और चंगेजों की
छोड़ सबनम, नीलोफर की करने लगी अंगार की बातें
चूल्हे की उदासी और चक्की के रोने की बातें
खोलने लगी लब जुल्म के मातों की
बन गयी ऐलान इन्किलाबी जज्बातों की
करेगा गर कोई कैद इसे जींद और प्याल्र में
खा जायेगी उसे ज़िंदा एक ही निवाले में
गाती है अब यह जंग-ए-आज़ादी के गीत
होगी एक-न-एक दिन मेहनतकश की जीत
(11.02.2012)

लल्ला पुराण ५४

गज़ल को राजनैतिक हथियार बनाने के विरुद्ध एक पोस्ट पसर कुछ कमेन्ट:

 गाफिल भईए आदाब! जिन्होंने भूख के बारे में सिर्फ पढ़ा है वे भूख के संताप का एहसास कैसे करेंगे? और भूख के एहसास के बिना भूख मिटाने का उपक्रम कैसे होगा? वैसे तो आपने यह सवाल गज़लगो और साहित्यिक समाज से पूंछा है, मैं दोनों में से किसी कोटि में नहीं आता. मैं तो फेसबुक पर कुछ कमेन्ट तुकबंदी में कर देता हूँ. इसलिए  मेरा कमेन्ट एक साधारण पाठक की राय समझें. मैं आप से शत-प्रतिशत सहमत हूँ की गज़ल की शुरुआत दरबारेए मनोरंजन के साधान के रूप में 'कोमल भावनाओं", वर्जनाओं और कुंठाओं  की अभिव्यक्ति के रूप में ह्बुई, और वामपन्थिओं ने उसे राजनैतिक/सामाजिक चेतना का औजार और हथियार बना कर उसके साथ "बलात्कार" किया और करते आ रहे हैं. लेकिन आपकी फेहरिश्त में बहुत से नाम छूट गए हैं. गज़ल के साथ यह "दुष्कर्म" बहुतों ने किया है. "वह तोड़ती पत्थर......" और "चाँद का मुंह टेढा..." लिखने वाले निराला और मुक्तिबोध शायद इस आरोप से बारी माने जाएँ क्योंकि उनकी कवितायें गज़ल नहीं हैं. इस संदेह का लाभ, "बहुत दिनीं तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास..." लखने वाले नागार्जुन और "गुलामिया अब हम नाहीं बजैबे/आज़ादिया हमारा के भावेले..." लिखने वाले गोरख पाण्डेय  को भी शायद मिल जाए. अदम गोंडवी और दुष्यंत कुमार के अलावा बहुत से शायरों ने यह काम किया है. "....... एक महल की आड से निकला है कोई माहताब/जैसे मुल्ले  का अमामा जैसी बनिए का किताब...." लिखने वाले मजाज़, मेहनतकश के लिये "एक गाँव नहीं एक देश नहीं, पूरी दुनिया" माँगने वाले फैज़, दह्कां को रोटी न दे सकने वाले खेत को जलाने की हिमायत करने वाले शाहिर, हक़ के लिये न लड़ने वाले मध्यवर्ग को "हक़ अच्छा पर हक़ के लिये कोई और लड़े तो और अच्छा ..."  का कटाक्ष करने वाले इब्न-ए-इंशां, "...........//की हमने इन्ही की गमखारी/लोगों पर हमने जान वारी/होते हैं तो हो लें हाथ कलम शायर न बनेगा दरबारी...." लिखने वाले हबीब जालिब,  .......... के नाम छूट गए?


1- भूख के एहसास को शे'रो-सुखन तक ले चलो,
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो।

2- जो ग़ज़ल माशूक़ के जल्वों से वाक़िफ़ हो चुकी,
अब उसे बेबा के माथे की शिक़न तक ले चलो।

दोनों ही शेर अदम की एक ही गज़ल के हैं. चलिए पहले पर. यानि अदब को मुफलिस की मंजिल तक ले जाने पर आपको आपत्ति नहीं है. वैसे यह भी माशूक की जुल्फों में उलझी कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति न होकर  अदब को जनपक्षीय बनाने की बेबाक अपील है. दरबारी रवायत की निरंतरता बरकरार रखते हुए,सामाजिक सरोकारों से विरक्त, माशूक के विरह और मिलन के जल्वों से वाकफियत के वर्णन से तो ग़ज़लों की दुनिया भरी पडी है. शब्द और शिल्प के धनी, एक हमारे गुरू जी हैं, देश के वरिष्ठ नागरिक हैं. उनकी गज़लोएँ अभी तक माशूक की जुल्फों में उलझी हैं., किसी गज़ल को बेवा के माथे की शिकन तक ले जाने से अपशकुन हो जाएगा क्या? वैसे मर्दवादी रीतियों की सबसे अधिक शिकार विधवाएं ही हैं. घर-बार से बेदखल विधुर नहीं होते, विधवाएं होती हैं. इतने विधवा आश्रम हैं, विधुर आश्रम एक भी  नहीं? और इन आश्रमों में विधवाओं को प्रताणना मिलती है और किस घृणित ढंग से उनका याकुन शोषण होता है, उसकी एक जह्लक दीपा मेहता की "वाटर' में मिलती है. तो मित्र, किसी शायर का सरोकार विधवा के माथे की शिकन तक पहुंचता है तो उसे स्वागत योग्य मानना चाहिए, गज़ल के साथ बलात्कार नहीं. किसी की रचना में उसके सरोकार ही झलकते हैं. अदम, एक सामंती, राजपूत  पृष्ठभूमि में पलने-बढ़ने के बावजूद जिस तरह "चमारों की गली" मे "ज़िंदगी के ताप" को महसूस कर पाते हैं उसी तरह, अपशकुन माने जाने वाली विधवा की पीड़ा भी महसूस कर पाते हैं और दिल की बात कलम की जुबां बन जाती है. सादर.

गाफिल भाई, मैं तो गज़लगो हूँ नहीं तो गज़ल को बख्शने का सवाल ही नहीं उठाता. फैज़, शाहिर, जालिब. साहिर, दुष्यंत, इब्ने इंसान इन लोगों ने तो बख्सा नहीं. ये तो गज़ल को० माशूक के जलवो से मुक्त कर खाक्नाशीनों के जज्बात तक पहुंचा दिए और बेवा के माथे की शिकन तक ले जा चुके; सुहाग के सेज की लीज-लिजी भावुकता से उठाकर मेहनतकश की जंग-ए-आज़ादी तक पहुंचा दिए और ये ग़ज़लें देश-विदेश तक लोकप्रिय हो गयीं.इतिहास की गति को पलता नहीं जा सकता. आनेवाली पीढ़ियों आग्रह कीजिये कि वे इसे माशूक की ज़ुल्फ़ से बाहर न आने दें.

Thursday, November 1, 2012

चाँद

चाँद
ईश मिश्र 

अघाए लोगों को दिखाई देता हैं चाँद एक सुन्दर मुखड़ा
नंगे-भूखों को दिखता है वो सूखी रोटी का एक टुकड़ा

भूख का शगल

भूख का शगल 
ईश मिश्र 

भूख के एहसास पर लिखता हूँ इसलिए गजल
पढ़ा ही नहीं देखा-भोगा है भूख का हमने शगल
जो भूखे हैं वो भी हमारी ही तरह इंसान हैं
लूट के निजाम में अन्न पाने को परेशान हैं
इबादत जिनकी होती है वो बनते भगवान हैं
हकीकत में लेकिन इंसानियत भक्षी हैवान हैं

नारा-ए-नज़्म

नारा-ए-नज़्म 
ईश मिश्र 

लोग कहते हैं मेरी गजलें  नारा क्यों होती हैं
मैं कहता हूँ हर गज़ल नारा क्यों नहीं होती
और हर नारा क्यों नहीं होता कोई नज्म?