मार्क्स केे पहले गौतम बुद्ध ही आमजन के इतने महान शिक्षक हुए हैं। प्रकृति के समतावादी दो महान यूनानी दार्शनिक धाराओं- डेमोक्रिटियन और इपीक्युरियन -- पर 20-21 की उम्र में पीएचडी करने के बाद अपने ऐकिटिविस्ट रंग-ढंग देखते हुए उन्हें भी लग गया था कि विश्वविद्यालय परिसरों के दरवाजे उनके लिए बंद ही रहंगे और पत्रकारिता करने लगे। डेमोक्रिटस सुकरात के पूर्ववर्ती दार्शनिक है जिन्होंने गुलामी को प्राकृतिक बताने वालों के खंडन में कहा था कि स्वतंत्रता सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है। फॉयरबाक पर मार्क्स की की एक संकल्पना है -- सत्य को व्यवहार में साबित करना होता है, व्यवहार में सत्य साबित करने में उनकी नौकरी तो छोड़िए, अखबार ही बंद हो गया। 24 साल का लड़का प्रुसियन राजतंत्र को इतना खतरनाक लगने लगा कि देश छोड़ भागना पड़ा। पेरिस में फ्रांसीसी समाजवादियों से मिल एक जर्नल निकालने लगे तथा 1842 में हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा से दार्शनिक जीवन शुरू किया, तमाम लोग धर्म के अफीम वाला वाक्यांश का भजन जो गाते हैं, वह वाक्य उसी में है। एक लेख का लिंक शेयर करता हूं जिसमें उनकी संक्षिप्त जीवनी है, ग्रुप में एकाधिक बार शेयर कर चुका हूं। बगल के देश में भी उनका रहना खतरनाक लगा तो एक राजा ने दूसरे राजा पर दबाव डाला और मार्क्स को पेरिस छोड़कर ब्रुसेल्स जाना पड़ा, वहीं एंगेल्स के साथ मिलकर 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा। उसके पहले आर्थिक-दार्शनिक दस्तावेज, जर्मन विचारधारा, दर्शन की गरीबी जैसी कालजयी रचनाएं कर चुके थे। ब्रुसेल्स में भी उन्हें खतरनाक माना गया और लंदन में बाकी जीवन गरीबी में रहते हुए गरीबी के खिलाफ लिखते-लड़ते बिताया।
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