Friday, May 31, 2019

ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-91)


ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-91)
ईश मिश्र
यह लेख शुरू किया था 2019 के लोक सभा चुनाव के अंतिम चरण के पहले जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी रोड शो में ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति टूटी और समापन चुनाव परिणाम के बाद जब लगभग 100 साल के श्रमसाध्य प्रयास के बाद हिंदू राष्ट्र की परियोजना लघभग पूरी सी हो चुकी। पिछले चुनाव के विपरीत इस चुनाव में मुद्दा विकास, बेरोजगारी या भ्रष्टाचार का न होकर पुलवामा में आतंकवादी हमला तथा पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय हवाई हमले के संदर्भ में  राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रवाद के बाहरी तथा भीतरी खतरों का था। बाहरी खतरे का प्रतिनिधि पाकिस्तान तथा भीतरी का मुसलमान, दलित, आदिवासी तथा हिंदू-राष्ट्रवाद के विरोधी – नक्सली तथा अर्बन नक्सली जो देश की संपदा कॉरपोरेटों को सौंपने के विरोधी हैं। सनातनी कुरीतियों तथाब्राह्मणवादी पाखंड के प्रखर विरोधी ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विचार हिंदू राष्ट्र की आरयसयस की अवधारणा से मेल नहीं खाते। इस लेख का मकसद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान कलकत्ता में 19वीं शदी के नवजागरण की महा-विभूति ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ने की घटना के बहाने उनकी संक्षिप्त जीवनी पर चर्चा  है। हर तानाशाह विरोधी विचारों से डरता है और उसके प्रतीकों को खंडित करता है। प्राचीन एथेंस में तो सुकरात के तर्कों के डर से उन्हें मार ही डाला गया था। 
14 मई, 2019 को भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह के रोडशो में आए हिंदी राष्ट्रवादियों ने कलकत्ता में विद्यासागर कॉलेज में घुसकर हुड़दंग मचाया और विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी। वैसे तो बाहु-बल तथा भीड़-बल के प्रयोग में ममता की तृणमूल कांग्रेस भी भाजपा से पीछे नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में इसका दोष तृणमूल कांग्रेस के गुंडों पर ही मढ़ा। लेकिन सोसल मीडिया पर वायरल वीडियो में मूर्ति पर हमला करने वाले भगवा कमीज में दिख रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप के विवाद से परे तथ्य है कि आधुनिक भारत में नवजागरण के एक महानायक द्वारा 1872 में स्थापित, कलकत्ता विश्वविद्यलय के पहले भारतीय कॉलेज के कैंपस में उनकी स्मृति में बनी उनकी मूर्ति को जमींदोज कर दिया गया। ऐतिहासिक स्मृतियों को नष्ट करना फासीवादी प्रवृत्ति है। हर युग की प्रतिक्रियावादी या कट्टरपंथी ताकतें विचारों से भयभीत विचारक की स्मृतियां मिटाने लगती हैं। लेकिन विचार तो मिटते नहीं, फैलते हैं तथा इतिहास रचते हैं। 2001 में अफगानिस्तान के  बामियान में, तालिबानी कट्टरपंथियों द्वारा बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्ति तोड़ दिया। मूर्तिपूजा के विरोधियों की मूर्तिभंजक दरिंदगी के कुछ कुतर्क गढ़े जा सकते हैं। लेकिन मूर्तिपूजा की सियासत करने वाला मूर्ति भंजक क्यों हो जाता है? क्या ये मूर्तियां इनकी मूर्तियों के लिए चुनौती हैं? सुविदित है कि भाजपा समेत आरयसयस के अनुषांगिक संगठनों के नेतृत्व में, शिलापूजन से केंद्र में शासन तक का सांप्रदायिक आक्रामकता के मौजूदा दौर के केंद्र में एक मूर्ति ही रही है, रामलला की। उनका मानना है कि राम उसी जगह पैदा हुए थे, अयोध्या में जहां बाबरी मस्जिद थी। मूर्ति (मंदिर) के इस आक्रामक अभियान ने 1992 में बाबरी मस्जिद तो ध्वस्त कर दिया लेकिन मंदिर नहीं बना, हर चुनाव में बनाने का वायदा होता है। इनकी सरकार भूखी-प्यासी जनता की खून-पसीने की कमाई के हजारों करोड़ के खर्च पर ‘एकता मूर्ति बनाती है और इनका भीड़-बल भेजभाव तथा एकता के हिमायती ऐतिहासिक महापुरुषों की मूर्तियों पर चुन-चुन कर हमले करती है। 2014 में केंद्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार बनने के बाद इनके भीड़बल द्वारा तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति को क्षत-विक्षत किया, पेरियार धार्मिक कुरीतियों तथा ब्राह्मणवादी पाखंड के कटु आलोचक थे। उत्तर प्रदेश में अंबेडकर की मूर्ति की तोड़फोड की अंबेडकर हिंदू जातिव्यवस्था के विनाश के पैरोकार थे। त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ा, लेनिन समाजवादी क्रांति के पैरोकार थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जीवन प्रचलित धार्मिक, सामाजिक कुरीतियों तथा छुआछूत के उंमूलन के अभियान को समर्पित था।    
जब हमलोग स्कूल में पढ़ते थे तो ईश्वरचंद विद्यासागर के बारे में कठिन परिस्थितियों में पढ़ाई के रूपक के तौर पर किंवदंतियां सुनते थे। जिनके अनुसार, वे बहुत परिश्रमी तथा अप्रतिम लगन वाले, गरीब विद्यार्थी थे, जो दिए के तेल की कमी में सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे पढ़ाई करते थे। बाद में  बंगाल में नवजागरण के अध्ययन के दौरान ब्रह्मसमाज आंदोलन के नायकों में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का व्यक्तित्व वैसा ही आकर्षक लगा, जैसा उन्ही के समकालीन, महाराष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति के पर्याय बन ज्योतिबा फुले का। उनकी ख्याति अपने समय के एक महान दार्शनिक, लेखक, भाषाविद, समाज सुधारक के रूप है। वे आधुनिक बांगला भाषा की वर्णमाला के जनक माने जाते हैं।
उनका जन्म 1820 में बंगाल के मेदिनीपुर जिले के एक गांव में एक गरीब परिवार में हुआ। गांव में शुरुआती पढ़ाई के बाद आजीविका की तलाश में निकले अपने माता-पिता के साथ वे कलकत्ता आ गए। प्रतिभाशाली विद्यार्थी होने के नाते कुछ संस्थानों से मिली छात्रवृत्तियों के सहारे आगे की पढ़ाई की। कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज में, 1829-41 की अवधि में वेदांत; व्याकरण; साहित्य; नीतिशास्त्र; स्मृति एवं दर्शन की पढ़ाई की। 1839 में एक शास्त्रार्थ में इन्हें पुरस्कार स्वरूप विद्यासागर की उपाधि मिली तथा वे ईश्वरचंद्र बंद्योपाध्याय से ईश्वरचंद्र विद्यासागर हो गए। इसी वर्ष उन्होंने कानून की भी परीक्षा पास की। पढ़ाई के दौरान परिवार की आर्थिक मदद के लिए उन्होंने एक स्कूल में शिक्षक का भी काम किया।  1841 में 21 साल की कम उम्र में वे फोर्ट विलियम कॉलेज में संस्कृत के शिक्षक नियुक्त हुए। 1849 में जब वे संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल बने तो परंपरावादी विरोध के बावजूद कॉलेज के दरवाजे सभी जातियों तथा लड़कियों के लिए खोल दिए। प्रचलित ब्राह्मणीय शिक्षा व्यवस्था में छोटी समझी जाने वाली जातियों तथा स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था। संस्कृत के अलावा अंग्रेजी और बंगाली भाषाओं को भी शिक्षा के माध्यम के रूप में शामिल किया। वैदिक ग्रंथों के साथ यूरोपीय इतिहास, दर्शनशास्त्र और विज्ञान के पाठ्यक्रम शुरू किए। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ बंगला को सरल बनाकर आधुनिक बांगला की वर्णमाला विकसित किया।  
वे  दुनिया की व्याख्या ही नहीं करना चाहते थे, उसे बदलना भी चाहते थे। शीघ्र ही वे 19वीं सदी की शुरुआत में नव जागरण के प्रणेता राममोहन रॉय द्वारा शुरू किए गए समाज सुधार के ब्रह्मसमाज आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ बन गए। संपूर्ण निष्ठा ते साथ छुआछूत, बालविवाह जैसी दकियानूसी सामाजिक रूढ़ियों तथा कुरीतियों; स्त्रियों, खासकर विधवाओं की बदहाली के उन्मूलन के पैरोकार बन गए। इसतरह वे तथाकथित गौरवशाली, सनातन परंपराओं के विरोधी थे, जिन्हें संघ दैविक मानता है। संघ के विचारक माधवराव सदाशिव गोलवल्कर समानता को अप्राकृतिक मानते हैं। 1990 में जैसे ही तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय की दिशा में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की तो लाल कृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में, भाजपा उनकी सरकार गिराकर, सोमनाथ-अयोध्या की रथयात्रा पर निकल पड़ी।
उम्रदराज, धनी बंगाली कम उम्र की लड़कियों से शादी कर लेते थे परिणाम स्वरूप बहुत सी महिलाएं कम उम्र में विधवा हो जाती थीं और नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त होती थीं। विद्यासागर ने बाल विवाह के विरुद्ध तथा विधवा पुनर्विवाह के लिए सघन आंदोलन चलाया तथा 1856 में विधवापुनर्विवाह कानून पारित करवाने में सफल रहे। उन्होंने अपने बेटे की शादी एक विधवा से कराया।



बेतरतीब 44 (विवाह पुराण 3)


4 साल पुरानी पोस्ट और उस पर कुछ कमेंट: (43 साल पहले की बात अब 47 साल पहले की हो गयी।)


विवाह पुराण


आज से पूरे 43 साल पहले (उम्र 17 साल में 27 दिन कम) आज की तारीख में मेरी शादी की पूर्वसंध्या पर भत्तवान का भोज था. मैं इंटर की परी देकर घर लौटा तो शादी का कार्ड छपा मिला. मैं अवाक. कम उम्र में शादी के मेरे विरोध को कुछ शातिर बुजुर्गों ने गप्पबाजी मे प्रचारित किया कि मैं अपनी मर्जी से शादी करना चाहता हूं. दादी कार्ड छपने के बाद शादी न होने से किसी की लड़की की इज्जत का हवाला देकर रोने लगीं. मुझसे देखा न गया. राजी हो गया. तब भी लोग मेरे ऊपर नज़र रख रहे थे कि कहीं भाग न जाऊं. लेकिन मैं तो दादी को वचन दे चुका था. उन दिनों 1 महीने पहले लगन लग जाती थी तथा बहुत से कर्मठ होते थे, मैंने उन कर्मठों में नहीं शरीक हुआ, किसी ने जिद्द भी नहीं किया. फुटनोट में टेक्स्ट को पीेछे छोड़ने की कुआदत लगता है बुढ़ापे में बढ़ जाती है. एक गांव(नाम याद नहीं आ रहा) से जाजिम ले आना था. बीहड़ के उस गांव (छोटी नदियों के बीहड़ विकट होते हैं) में बैल गाड़ी नहीं जाती थी. ऊंट से ले अाना था. मैं ऊंट की सवारी के चक्कर में ऊंटवान के साथ चला गया. लौटने में देर होने से हंगामा मच गया था. हर किसी को दादा जी की डांट पड़ी थी कि पगला (मुझे वे इसी नाम से बुलाते थे) को जाने देने के लिये, मुझे छोड़ कर. लिख चुकने के बाद लग रहा है कि बेजरूरत लिखा गया. लेकिन अब तो लिखा गया.


जेयनयू में एक दोस्त से पूछा था कि अगर मेरी टीनेज में शादी न हुई होती तो क्या वह मुझसे शादी कर लेती. उसका 2 टके का जवाब था मुझसे दुनिया की कोई लड़की शादी न करती. हा हा


43 साल पहले, 28 मई 1972 की भत्तवान (शादी के 1 दिन पहले भात-भोज) के दिन की एक घटना पर एक पोस्ट डाला तो प्रतिक्रियायें देख ऒर चंचल भाई का कहानी पूरी करने का आदेश मान संक्षिप्त विवाह पुराण प्रस्तुत करता हूं. सबसे पहले यह बता दूं कि पांचवीं तक (उन दिनों भले घरों की लड़कियां इतना ही पढ़ती थीं) पढ़ीं सरोज जी बहुत ही समझदार तथा बेहतरीन इंसान हैं. मेरी आवारागर्दी नहीं पसंद हैं लेकिन झेल लेतीं हैं. मेरी एक अज़ीज दोस्त ने इनकी तारीफ में कहा कि she is so natural. लंबी बेरोजगारी की गर्दिश में कभी कोई शिकायत नहीं की, न बेटियों ने.


मैं जब जूनियर हाई स्कूल (8वीं) की परीक्षा उत्तीर्ण किया, बल्कि जिले में प्रथम स्थान लेकर उत्तीर्ण किया तो मेरे पिता जी ने कहा कि मैं उनसे ज्यादा पढ़ लिया(उनके समय मिडिल स्कूल 7वीं तक होता था, इसलिये अपने फैसले खुद लूं. Blessing in disguise. पैदल की दूरी पर कोई हाई स्कूल नहीं था ( मिडिल स्कूल 8 किमी दूर था), तथा साइकिल पर मेरा पैर नहीं पहुंचता था. Again blessing in disguise. शहर जाने का मौका मिला तथा मैंने टीडी इंटर कॉलेज जौनपुर में दाखिला ले लिया. यह बात इसलिये बता रहा हूं कि इन 4 सालों में मेरे पिता जी कभी मिलने नहीं आये. जौनपुर प्रवास के अंतिम वर्ष, 12वीं की परीक्षा के समय, कहीं से आते हुये पिताजी हॉस्टल मुझसे मिलने आये. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. न सिर्फ अनुपम में खिलाया-पिलाया बल्कि बिना मांगे 100 रुपया भी दे दिया. (देशी घी 8-10 रुपये किलो बिकती थी). मुझे क्या पता था कि मेरी शादी पक्की कर चुके थे. उसके 1-2 दिन बाद, एक दूर के रिश्तेदार मिलने आये, बेनी की इमरती खिलाने ले गये. बाद में पता चला (परीक्षा के बाद घर जाने पर) वे जनाब मेरी होने वाली पत्नी के अग्रज थे. घर पहुंचा तो अपनी शादी का निमंत्रण पत्र देख मिज़ाज गर्म हो गया.


कोई लड़का अपनी शादी के बारे में बात करे वह भी संपूर्ण नकार के साथ, इसका कोई उदाहरण नहीं था. पूरे इलाके में (आस-पास के 7-8 गांवों तथा निकटवर्ती 2-3 चौराहों पर) लोगों को चर्चा का विषय मिल गया. इस अभूतपूर्वबात पर पर विभिन्न पहलुओं से बहस होने लगी. पढ़ाई जारी रखने की इच्छा तथा कम उम्र के कारण से शादी से इंकार को कहा गया सुलेमापुर के पंडित हरिशरण का पोता अपनी मर्जी से शादी करेगा. उस वक़्त उस इलाके में अपनी मर्जी से शादी की बात अकल्पनीय थी. मैं तर्क में तो सबको पछाड़ रहा था लेकिन था तो गांव का 17 साल से कम उम्र का बालक. पिता जी ने कहा, शादी से पढ़ाई का क्या ताल्लुक वगैरह वगैरह. उन दिनों महीना पहले से लगन लगती थी लड़के को कंगन पहनाया जाता था, रोज उबटन लगती थी. लोगों ने कहा लड़की देख लो. मैंने इन सब से इंकार कर दिया तथा घर से भागने तथा बाद की पढ़ाई की जुगाड़ के तरीके-उपाय सोचने लगा. 12वीं में 10वीं क्लास की एक लड़की को गणित का ट्यूसन पढ़ाया था, इसलिये आश्वस्त था कि कुछ-न-कुछ कर लूंगा. जिस दिन भागने वाला था, अइया(दादी) ने बुलाया. अइया से मेरे विशिष्ट रिश्ता था. छोटा भाई डेढ़-दो साल ही छोटा था इसलिये मां पर उसका ज्यादा अधिकार था और मेरा बचपन दादी के साथ ही बीता. दादी रोने लगीं. बोलीं कि लड़की की इज्जत का मामला है. जैसे अपनी बेटी वैसे और की भी. लोग कहेंगे लड़की में कुछ कमी होगी तभी तय शादी रुक गयी. वगैरह वगैरह. मुझसे दादी का रोना नहीं देखा गया. बोला, “अइया रोवा जिन, चला कय लेब”. लेकिन under protest. मैंने शादी का जोड़ा-जामा नहीं पहना. रोज पहनने वाले कुर्ते में ही शादी किया.


उन दिनों लड़की को शादी में इतना ढक कर रखा जाता था कि सिर्फ हाथ-पांव दिखते थे. कोहबर में भी घूंघट को ही दही गुड़ खिलाया. सरोज जी ने बारात आते समय छत से मुझे देख लिया था. एक बात के बिना यह प्रकरण अधूरा रह जायेगा. शादी के दूसरे दिन को बड़हार कहा जाता था. (एक पर्याय भी था, याद नहीं आ रहा है). दोपहर के भोजन के बाद नाच-गाने की महफिल जमती थी तथा महफिल के बाद खिचड़ी की रश्म होती थी. वर अपने हमउम्र तथा कमउम्र लड़कों के साथ मंडप में बैठता था. इसमें dowry in kind का प्रदर्शन होता था. लड़के के सामने खिचड़ी रखी जाती थी. लड़का छूने में नखड़े करता. मान-मनौव्वल होती. वर पक्ष का कोई जिम्मेदार व्यक्ति प्रदर्शित सामानों का मुआयना करके, मोल-भाव से संतुष्ट होने के बाद लड़के को खिचड़ी छूने को कहता. मुझे न तो किसी चीज की चाहत थी न कोई कहने वाला. सब डरे हुये थे कि कहीं कुछ गड़बड़ न कर दे. जैसे ही खिचड़ी सामने रखी गयी, मैंने छू दिया और दोने रखी मिठाई उठाया तथा अपनी बाल मंडली के साथ मिठाई खाते टहलते जनवासा(बारात जहां ठहरी थी) आ गये. थोड़ी ही देर बाद वर-वधू दोनों पक्षों के लोग किसी गहरी चिंता में कानाफूसी करते दिखे. कोई कह रहा था लड़का मोटरसाइकिल के लिये नाराज गया. कोई कुछ कोई कुछ और. लब्बो-लबाब यह कि लोग सोच रहे थे लड़का किसी चीज के लिये या किसी बात पर नाराज़ हो गया. मेरे हजार कहने पर लोग मान ही नहीं रहे थे. मैंने कहा चलिये फिर से बैठ जाता हूं तथा जब कहियेगा तब उठूंगा. और बालमंडली के साथ दुबारा मंडप में बैट गया. घंटा-आधा घंटा मिष्ठानादि खाते हुये महिलाओं का मधुर गीत सुनने के बाद, एक मामा की स्वीकृति के बाद, मंडप से उठा. इस तरह एक लड़की से बंध गया. जिसे न शादी के पहले देखा, न शादी में न उसके बाद 3 साल तक. इलाहाबाद विवि में पढ़ते हुये भूल गया था कि शादीशुदा हूं.


शादी का निर्णय तो मेरा नहीं था, लेकिन उसे निभाने का निर्णय मेरा था. और प्रेम का अधिकार तो विवाहितो का भी है. अपनी आवारागर्दी, उसूलों की सनक तथा विनम्र-अकड़ की प्रवृत्तियों से बिना समझौता किये, अपनी सीमों में पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाता रहा, without begging, stealing and kneeling.


मॉफ कीजिये, सालगिरह पर लिखना था लेकिन भूमिका इतनी लंबी हो गयी कि विषयवस्तु नेपथ्य में चली गयी. इलाहाबाद विवि में प्रवेश के बाद मैंने अपनी अपरिचित पत्नी को, पढ़ाई की संभावनाओं पर एक चिट्ठी लिख दिया, सालों बाद पता चला कि गवन के पहले पति के पत्र को लेकर पत्नी की काफी बदनामी हुई और वे बहुत रोयी थीं. इलाहाबाद में दीवारों पर सत्तर का दशक मुक्ति का दशक के नारे लिखते हुये 3 साल बीत गये, शादी की बात भूला हुआ था. भ्रष्टाचार विरोधी छात्र आंदोलन के दौरान पता चला कि मेरा गवन पड़ गया है. 28 फरवरी 1975. मैं अपने एक सीनियर तथा मित्र के साथ इलाहाबाद से शाहगंज पहुंचा जहां बारात मेरा इंतजार कर रही थी. अगले दिन गाड़ी(मोटर) (शादी में बैलगाड़ी गयी थी. बैलगाड़ी का फुटनोट टाल जा रहा हूं) में बगल में घूंघट में बैठी सरोज जी से रास्ते भर (लगभग 35 किमी) कोई संवाद नहीं हुआ.


घर पहुंचकर वे मुंहदेखाई में व्यस्त हो गयीं तथा मैं नदी किनारे इमली के बगीचे में अपने एकांत के आनंद में. मैं जब भी घर जाता तो उस चबूतरे पर एकांत में काफी समय बिताता. एकांत की जगहें और भी थीं, लेकिन यह प्रमुख थी. उस उम्र में क्या कुछ सोचता रहा होऊंगा कुछ याद नहीं, इतना याद है कि दिमाग कभी विराम में नहीं रहता था, विराम को भी गति देता था. सोचता हूं फुटनोट के चक्कर में न पड़ूं लेकिन पड़ ही जाता हूं. मुख्य कहानी पर वापस आता हूं. रात को भोज के दौरान ही मैं खाकर बैठक में ही सो गया. मैं कम सोता हूं लेकिन गहरी नींद. भाभी ने फुसफुसाहट में जगाने की कोशिस नाकाम होने पर झकझोर कर जगाया. तब मुझे याद आया कि वह रात सुहागरात की रात थी. एक अनजान लड़की के साथ सोने की बात अजीब लग रही थी पर वर्जनाओं से ओत-प्रोत समाज में संभोग की अनंत, वैध संभावनाओं की किशोर उत्सुकता के साथ कमरे में गया. लालटेन की मद्धम रोशनी में अपनी मखमली रजाई में मस्त सो रहीं थी. थोड़ी देर मैं इस 17-18 साल की सोती हुई लड़की की शकल निहारता रहा लड़कियों की नियति पर सोचते हुये कि जिस खूंटे से बांध दो बंध जाती थीं. लेकिन अब यह इतिहास की बात रह गयी है, नारीवादी चेतना का रथ काफी दूरी तय कर चुका है. मैंने बुलाया सरोज जी. वे जगीं नहीं. तब रजाई में घुस कर पुकारा तो बोलीं, हां. इस तरह हमारा संवाद शुरू हुआ. लेकिन दो अपरिचित लोग क्या तथा कितनी बातें करेगे, दो किशोर, उस सांस्कृतिक माहौल में जिसमें भलेघरों की लड़कियां घर से बाहर कम निकलती हों, ज्यादा बात न करती हों, अपरिचित से तो कतई नहीं. इस तरह हमारे संबंधों की शुरुआत जिस्मानी परिचय से हुई. अगली सुबह कमरे से चाय पीने के बाद निकला और अगली रात खाने के बाद सीधे कमरे में चला गया. संय़ुक्त परिवार की महिलाओं को गप-शप का विषय मिल गया. कितना दोगला समाज था/है. सेक्स की नियंत्रित व्यवस्था के रूप में विवाह संस्थान की स्थापना हुई और बीबी के पास चुपके से आओ, चुपके से निकल जाओ. गांव के एक वरिष्ठ उस समय की गांव की पारंपरिक शादियों के बारे में कहते थे कि खूंट(धोती का) खोलते हुये घर में घुसो, बांधते हुये निकलो. धीरे-धीरे हमारी थोड़ा बातचीत होने लगी. विषय सीमित थे. सबके सामने पत्नी से खुलेआम बात करना अच्छा नहीं माना जाता था. छुट्टी लंबी करता रहा. लेकिन जाना तो था ही. पिताजी ने मुझे सुनाकर मां से एक दिन बोले कि कहां तो शादी में नखड़े कर रहे थे, अब छुट्टी ही नहीं खत्म हो रही है, होली में मुलाकात हुई फिर आपातकाल में बेपरवाही के चलते बंद हो गया डीआईआर से छूटा मीसा में वारंट जारी हो गया. भूमिगत अस्तित्व तथा रोजी-रोटी की संभावनायें तलाशता दिल्ली आ गया और सरोज जी से अगली मुलाकात 2 साल बाद हुई, आपातकाल खत्म होने पर. यह पुराण यहीं खत्म करता हूं.


सालगिरह की पूर्व संध्या पर्याप्त शुभकामनायें मिल चुकी हैं लेकिन असली तो आज है, आज भी कुछ दे दीजिये. मैं तो सरोज जी का शुक्रगुजार हूं कि उन्होने मुझ जैसे जन्मजात आवारा को झेला आगे भी झेल लेंगी.


जीते हैं चुपचाप जो मुर्दा जिंदगी

जीते हैं चुपचाप जो मुर्दा जिंदगी
कोई हर्ज या हलचल नहीं देखते
समाज जिंदा रहे या श्मसान बने
हाकिम बासुरी बजाए या धनपशु बने
(ईमिः 31.05.2019)

बेतरतीब 43 (लखनऊ यात्रा)

कल (30 मई 2019) लखनऊ कॉफी हाउस में साथी भगवान स्वरूप कटियार की पुस्तक ‘जनता का अर्थशास्त्र’ के लोकार्पण के अवसर पर साथियों के साथ देश के हालात पर सरोकार साझा किया। राजनैतिक संवाद की अड्डेबाजी के रूप में कॉफी-हाउस संस्कृति के ह्रास पर भी चिंता साझा की गयीं। बैठक में कटियार जी के अलावा साहित्यकार, बंधु कुशावर्ती; प्रो. रमेश दीक्षित; पीयूसीयल की वंदना मिश्रा; युवा साथी आशीष अवस्थी; ज्ञान प्रकाश; ओपी सिन्हा; जन संस्कृतिमंच के सदस्य जाने-माने कवि कौशलकिशोर; शिवाजी राय; सी.यम. शुक्ल; संजय खान; के.के.शुक्ल; राम किशोर तथा दिनेश प्रताप सिंह शामिल थे। लखनऊ की शाम खुशगवार बनाने के लिए साथियों का शुक्रगुजार हूं। कॉफी हाउस के कार्यक्रम के बाद स्टेसन के रास्ते में सामाजिक कार्यकर्ता ताहिरा हसन जी तथा “चौरी-चौरा” एवं “अवध किसान आंदोलन” के लेखक सुभाष कुश्वाहा जी के साथ अच्छी चर्चाओं में थोड़ा समय बीता। दोनों का आभार।

Thursday, May 30, 2019

कलम का डर

कलम का डर
कलम अब और नहीं चुप
रात को रात कहो धूप को धूप
बोलोगे गर सेठ जयप्रकाश के खिलाफ
चिदाम्बरम की वर्दियां नहीं करेंगी माफ
करोगे गर मनमोहन के गौहाटी के महल की बात
समझा जाएगा इसे कलम का खुराफात
विश्व बैंक का कारिन्दा
हो सकता है किसी भी राज्य का बासिन्दा
लेकिन कलम रहेगा मौन
बोलेगा फिर कौन?
कलम जब होगा मुखर
सुनाई देगा हर जगह विद्रोह का स्वर
नहीं होगा तब लोगोब में वर्दियों का खौफ
कलम हो जाएगा जब बेख़ौफ़
काँपेगा वर्दियों का मालिक थर-थर
करदेगा कलम जब आवाम को निडर.
31.05.2012

शिक्षा और ज्ञान 187 (ईमानदारी)

किसी और पोस्ट पर किसी ने कहा ईमानदार रहना बहुत मुश्किल काम है. उस पर अपनी टिप्पणी यहाँ चेंप रहाहूँ.

ईमानदार बनना बेईमानी से बहुत ज्यादा आसान और आनंददायी. लोग मूर्ख और अभागे हैं जो ईमानदारी के सुख और नैतिक बल से अपने को वंचित रखते हैं. और जिनकी बेईमानी से देश पर भयानक दुष्परिणाम होता है, देश के क्रीम समझे जाने वाले (प्रोफ़ेसर/आईएएस/आईपीएस आदि) ये दुर्वुद्धि के मूर्ती मुफ्त में बिकते हैं और जितनी बार बिकते/गिरते हैं अपनी आत्मा को अंशतः मारते हैं और अंत में खोखले कृपा-पात्र बनकर पैसे और ताकत के गुमान में दयनीय ज़िंदगी जीते हैं. इतना वेतन-भत्ता-पेंसन मिलती है कि इस जीवन के लिए उन्हें हराम की आमदनी की आवश्यता नहीं होती. अब नाल्को का निदेशक, श्रीवास्तव जो बीबी के साथ जेल की सोभा बढ़ा रहा है, नहीं भी पकड़ा जाता तो भी वह कमीना सोने के बिस्कुट तो बैंक के लाकर में ही रख कर मरता. या म.प्र. कैडर के जो पति-पत्नी करोड़ों रूपये बिस्तर के नीचे रखकर तनाव में रात बिताते थे, वे टुच्चे न्क्हीं भी पकडे जाते तो देश भर में फ़ैली अपनी जमीनें तो यहीं छोड़ जाते. पूंजीवाद भ्रम पैदा कर्ता है कि कोई भी पूंजी-संचय कर सकता है जब कि सत्य यह है कि केवल पूंजी पति ही संचौय कर सकता है. अफसर और वुद्धिजीवी खुद को बेंचकर कीमत वापस पूंजीपति को दे देते हैं जो निवेश कर्ता है और और नेता-अफसर-वुद्धिजीवी खरीदता है जो फिर वापस उसे ही देते हैं और अपार संपत्ति स्वामित्व के भ्रम जीते रहते हैं. हराम और लूट का पैसा ये अभागे शेयर/बांड/फिक्स्ड डिपाजिट/बीमा/जमीन/हवाला आदि में निवेश कर पूंजीपति को वापस कर देते हैं. बाजीराम जैसे कोचिंग इम्तहान में नंबर पाना सिखाते हैं, नैतिक प्राणी बनना नहीं. यदि नैतिक और भ्रष्ट ज़िंदगी के + और - का आत्म-हित के ही विवेकपूर्ण हिसाब लगाएं तो पायेंगे कि नैतिकता की तरफ ज्यादा + हैं.

31.05.2012

Monday, May 27, 2019

लल्ला पुराण 224 (मोदी विजय)

Avnish Pandey मैं कतई विचलित नहीं हूं, न कभी चुनाव लड़ा न शिकस्त खाई, न ही चुनाव से क्रांति होगी। संसदीय जनतंत्र पूंजीवादी जनतंत्र है जिसमें हर 5 साल में हम चुनते हैं कि शासक वर्ग का कौन एजेंट अगले 5 साल हमारा दमन करेगा। इसके पहले आपके सवाल के जवाब में लिख चुका हूं कि पूंजीवाद से समाजवाद का संक्रमण गुणात्मक रूपसे भिन्न संक्रमण है जो इतना आसान नहीं है। भारत में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में अन्य जगहों की समान्य बाधाओं के अलावा जातिवादी मिथ्या चेतना (ब्राह्मणवाद) बड़ी बाधा है, लेकिन हर अस्तित्ववान का अंत निश्चित है, जातिवाद या पूंजीवाद अपवाद नहीं है। इतनी तवज्जो देने का आभार। हर रहर महादेव दंगाई नारा है, इंकलाब जिंदाबाद का नारा इस दंगाई अधोगामी, ब्राह्मणवादी नारे का विनाश करेगा। नमस्कार।

लल्ला पुराण 223 (मोदी विजय)

पाण्डेय अजेय: दुनिया में फिलहाल कहीं समाजवाद नहीं है, समाजवादी क्रांति एकवर्गीय ही होगी, मजदूर वर्ग का सुविधासंपन्न तपका (मध्यवर्ग) खुद को शासकवर्ग का हिस्सा होने का मुगालता पाले है, जो जल्दी ही टूटेगा। पूंजीवाद का संकट दो रूपों में अभिव्यक्ति पाएगा -- 1. बेतहाशा बेरोजगारी और लोगों की क्रयशक्ति में कमी, 2. पूंजी के मुनाफे में कमी जिससे राष्ट्रवाद का नगाड़ा पीटने वालों का गुब्बारा फूटेगा। मजदूरों के ऊपरी तपके का मोहभंग होगा और वह खुद को मजदूर चेतना से लैस करेगा।

Saturday, May 25, 2019

लल्ला पुराण 222 (मोदी विजय)

Avnish Pandey पहली बात तो मैं आय-बाय-साय कभी लिखता नहीं, आपको लगता होगा। जब भी आपको ऐसा लगे सवाल करें। मेरी विचारधारा में कोई कमी नहीं रह गयी, उस विचारधारा का संगठन नहीं है। जिनका खूंटा उखड़ा वे विचारधारा के नाम पर संसदीय तमाशा कर रहे थे। इतिहास का भविष्य का नायक सर्वहारा ही है वह जब अपने को संगठित करेगा तब क्रांति होगी। सर्वहारा अपनीमुक्ति की लड़ाई खुद लड़ेगा लेकिन वह तभी संभव है जब वह वर्गचेतना से लैस हो अपने को संगठित करेगा। कम्युनिस्ट पार्टियां राजनैतिक शिक्षा से अपने चुनावी संख्याबल की सामाजिकचेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के प्रसार) में असफल रहीं और उन्हें पार्टी लाइन (भक्तिभाव) से हांकती रहीं और उखड़ गयीं। दुनिया भर में सर्वहारा की नई ताकतें भविष्य के गर्भ से निकलेंगी और 1917 की तरह एक बार फिर दुनिया हिल पड़ेगी। सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण एक वर्ग समाज से दूसरे वर्ग समाज में संक्रमण था, पूंजीवाद से समाजवाद का संक्रंमण एक वर्ग समाज से वर्गविहीन समाज का संक्रमण है जो निश्चित ही ज्यादा श्रमसाध्य है और ज्यादा समय लेगा। भारत में जातिवाद से वह अधिक जटिल हो गया है।

लल्लापुराण 221 (मोदी विजय)

पाण्डेय अजेय दुनिया में फिलहाल कहीं समाजवाद नहीं है, समाजवादी क्रांति एकवर्गीय ही होगी, मजदूर वर्ग का सुविधासंपन्न तपका (मध्यवर्ग) खुद को शासकवर्ग का हिस्सा होने का मुगालता पाले है, जो जल्दी ही टूटेगा। पूंजीवाद का संकट दो रूपों में अभिव्यक्ति पाएगा -- 1. बेतहाशा बेरोजगारी और लोगों की क्रयशक्ति में कमी, 2. पूंजी के मुनाफेनमें कमी जिससे राष्ट्रवाद का नगाड़ा पीटने वालों का गुब्बारा फूटेगा। मजदूरों के ऊपरी तपके का मोहभंग होगा और वह खुद को मजदूर चेतना से लैस करेगा।