बुद्ध के दर्शन को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखा जाए तो अपने ऐतिहासिक संदर्भ में वह द्वंद्वात्मक भौतिकवादी ही है। इस संदर्भ में अंबेडकर का लेख 'बुद्ध ऑर मार्क्स' पठनीय है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अमूर्त (अदृश्य) विचार जगत को नकारता नहीं, बल्कि उसे मूर्त (दृश्य) जगत की उत्पत्ति मानता है तथा भौतिक जगत के साथ द्वंद्वात्मक ऐक्य में सत्य का अभिन्न, पूरक अंग मानता है। यह अमूर्त, सैद्धांतिक चिंतन (थिंकिंग थियरेटिकली) को भी भौतिक कर्म मानता है।
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