Saturday, October 30, 2021

 Arvind Rai किताबें "मारने " के बावजूद, वह पढ़ने-लिखने वाला प्रिय मित्र था, पिछली साल 65 से कम उम्र में उसकी अकाल मृत्यु हो गयी। रूसो की आत्मकथा 'द कन्फेन्स' खरीदने के तीसरे दिन एक सज्जन बहुत जिद करके 3 दिन के लिए मांग कर ले गए। उनका नाम उस किताब के साथ याद है। वह मैंने दुबारा नहीं खरीदा और लाइब्रेरी में पढ़ा। 10 साल बाद (1991-92 में कभी) मुलाकात हुई तो पूछे मैं उन्हें पहचाना क्या क्या? मैंने कहा था, धोखे से अपनी किताब चुराने वाले किसी को मैं नहीं भूलता। एक विरले संयोग में 1980 में खोई एक पुस्तक (द रेचेड ऑफ द अर्थ) दरियागंज संडे मार्केट में 1990 में मिल गयी। जीवन में असंभव से दिखने वाले विरले संयोग के कुछ और अनुभव कभी शेयर करूंगा।

शिक्षा और ज्ञान 335 (अंधभक्ति)

 किसी भी सरकार के अंधसमर्थक सरकार के आलोचकों को पिछली सरकार का समर्थक मानकर मौजूदा सरकार के कुकृत्यों का औचित्य पिछली सरकारों के कुकृत्यों के जिक्र से करने कीकोशिस करते हैं। एक सज्जन के ऐसे ही ककुतर्क का जवाब ---

अंधभक्त वह होता है जो दिमाग की आंखें बंद कर अपने आराध्य की पूजा करे और उसका अनुशरण करे, आराध्य के कुकृत्यों से भले ही उसे अपार कष्ट क्यों न हो। अपने कष्टों को वह अपने इष्ट, आराध्य द्वारा अपनी भक्ति की परीक्षा लिया जाना मानता है। जैसे इस सरकार के अंधभक्त मंहगाई के समर्थन में तरह तरह के कुतर्क गढ़ रहे हैं। अमेरिका के एक बुद्धिजीवी (नॉम चॉम्स्की) ने कहा था कि कांग्रेस (अमेरिकी संसद) वालस्ट्रीट को नहीं संचालित करती बल्कि वालस्ट्रीट कांग्रेस को संचालित करती है। दरअसल आधुनिक सरकारें शासक वर्ग नहीं शासक वर्ग की चाकर हैं। पूंजीवाद भूमंडलीकरण चरण में नवउदारवादी हैं और वास्तविक शासक वर्ग भूमंडलीय धनपशु (साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी और उसके देशी कारिंदे) हैं। इमरान खान और मोदी साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के कारिंदे हैं। मोदी सरकार चाहकर भी शिक्षा और खेती के कॉरपोरेटीकरण की नीतियां (नई शिक्षा नीति और कृषि कानून) वापस नहीं ले सकती क्योंकि वे विश्व बैंक के निर्देश पर बनी हैं, कारिंदा आका के निर्देश का उल्लंघन नहीं कर सकता। एक सरकार के अंधभक्त के पास जब अपने आराध्य के कुकर्मों के औचित्य का तर्क नहीं होता तो दूरी सरकारों के कुकृत्यों के जिक्र का कुतर्क करते हैं। जहां तक पिछली सरकार का मामला है तो भाजपा और कांग्रेस (अमेरिका के संदर्भ में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट या इंग्लैंड में लेवर और टोरी) भूमंडलीय पूंजी की वफादार प्रतिस्पर्धी पार्टियां हैं। शासक वर्ग अपने (कारिंदों के जरिए) आंतरिक तथा प्रायः बनावटी अंतर्विरोधों को इतना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिस करता है कि वास्तविक अंतर्विरोध की धार कुंद कर सके। उम्मीद है मेरी बातों से अंधभक्त से इंसान बनने में आपको मदद मिलेगी। शीघ्र ही पूंजीवाद के उदय और तिजारती चरण से चलकर उदारवादी (औद्योगिक) चरण तथा वित्तीय एकाधिकार चरण होते हुए भूमंडलीय, नवउदारवादी चरण तक पूंजीवाद के विकास की यात्रा के इतिहास पर 25 साल पुराने अपने एक लेख की शॉफ्ट कॉपी बनवाकर शेयर करूंगा। उदारवादी पूंजी के साम्राज्यवाद का चरित्र उपनिवेशवादी था जिसमें उपनिवेशों की लूट के लिए किसी क्लाइव ल्वॉयड की जरूरत पड़ती थी नवउदारवादी पूंजी के साम्राज्यवाद का चरित्र वित्तीय है जिसमें किसी क्लाइव ल्वायड की जरूरत नहीं है, सारे सिराज्जुद्दौला मीर जाफर बन गए हैं। विवेकशील इंसान बनने की शुभकामनाएं।

शिक्षा और ज्ञान 334 (ज्ञान-विज्ञान)

 हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है तभी हम पाषाणयुग से सइबर युग की यात्रा कर सके। ज्ञान-विज्ञान निरंतर प्रक्रिया है हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों के ज्ञान को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है। यह कहना कि चरवाही-पशुपालन युग के हमारे पूर्वज हमसे अधिक बुद्धिमान थे, निरा मूर्खता और पोंगापंथ है। न्यूटन के नियम के अनुसार वस्तु की गति का विरोध उसकी जड़ता का प्रतिरोध करता है। यूरोप में प्रबोधन काल के ज्यादातर चिंतक नास्तिक नहीं, deist थे जो ब्रह्मांड के रचइता के रूप में ईश्वर की सत्ता को तो मानते थे लेकिन दुनियादारी (पार्थिव गतिविधियों) में उसकी भूमिका नहीं। धर्मांधों द्वारा ब्रूनो को रोम के चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था। थॉमस पेन जैसों के घर जलाए गए और उनकी रचनाएं छापने वाले प्रकाशकों के प्रेस। सभी महानताएं अतीत में ढूंढ़ने वाले वतर्मान के विकास को बाधित करते हैं और भविष्य के खिलाफ साजिश।

लल्ला पुराण 313(पेंसन)

 कस्बे के पत्रकार आमतौर पर मालिक के जनसंपर्क का काम करते हैं तथा स्थानीय अधिकारियों और नेताओं की जी हुजूरी। प्रायः ये लोग प्रांतीय और केंद्रीय लौकरियों की प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की असफलता की कुंठा में रहते हैं और रिटायर्ड कर्मचारियों की पेसन पर मुफ्तखोरी का तंज करते रहते हैं। मंहगाई पर मेरी एक पोस्ट पर ऐसे ही एक सरकारी मृदंग ( "पत्रकार") ने कहा की सरकार की खैरात पर मुफ्तखोरी करके भी सरकार की आलोचना करता हूं। उस पर --


पढ़े-लिखे जाहिलों का अनुपात अपढ़ जाहिलों से अधिक है।किसी कस्बे में पत्रकारिता के नाम पर मालिक के लिए जनसंपर्क का काम करने वाले ये जाहिल इतना तक नहीं जानते किसी कर्मचारी की पेंसन उसकी जीवन भर की संचित कमाई है किसी की खैरात नहीं और वह इतना भी नहीं जानता कि पूंजीवाद में हम सभी आजीविका के लिए कुछ समय की श्रम बेचने के लिए अभिशप्त हैं लेकिन श्रमशक्ति बेचते हैं अंतरात्मा नहीं और न ही मालिक के अत्याचार की आलोचना करने का अधिकार। लेकिन इन्हें जनतंत्र की परिभाषा ही नहीं मालुम होती तो जनतांत्रिक अधिकार कहां से समझेंगे।पत्रकारिता के नाम पर मालिक के जनसंपर्क अधिकारी का काम करिए और अधिकारियों की दलाली मजदूर के पेसन के अधिकार को मुफ्तखोरी कहने की जहालत से बचिए। वैसे आपने भी तो सरकारी नौकरी के सारे प्रयासों का इस्तेमाल किया होगा और हर जगह से मिली असफलता की कुंठा रिटायर्ड सरकारी कर्मचारियों को मुफ्तखोर कह कर निकालते हैं। आग्रह है कि थोड़ा पढ़ लें कि कर्मचारियों का पेसन फंड कैसे जुटता है और उनकी संचित कमाई से बने पेंसन फंड की मासिक किश्तों को खैरात या मुफ्तखोरी कहने की मूर्खता से परहेज करें।

Friday, October 29, 2021

मार्क्सवाद 257 (पेंसन)

 पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम पर एक पोस्ट पर एक भक्त पत्रकार ने पूछा मेरी पेंसन कितनी है, उसका मैंने यह जवाब दिया --


मेरी पेंसन का पेट्रोल के दाम से क्या ताल्लुक? नतमस्तक समाज में सर उठाकर चलने के जुर्म में अभी मेरी पूरी पेंसन जारी नहीं हुई है, रिटायर होने के ढाई साल बाद जिस ग्रेड में रिटायर हुआ उसके शुरुआती स्केल के आधार पर प्रोविजनल पेंसन बनी है, जो पूरी पेंसन से काफी कम है, लेकिन वह भी आयकर कटकर भी फिलहाल काफी है, शायद आम पत्रकारों के वेतन से अधिक। लेकिन रिटायर जीवन में आवाजाही कम होने के चलते पेट्रोल कम ही खरीदना पड़ता है। लेकिन पेट्रोल/डीजल मैं ही नहीं खरीदता वे भी खरीदते हैं जिनकी आमदनी हमारी पेंसन जितनी नहीं है। डीजल किसान के खेत जोतने में भी खर्च होता है, वस्तुओं के ट्रांसपोर्ट में लगता है जिससे उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं जिसका असर जनजीवन पर पड़ता है। सरकार के अंधभक्त उसकी हर नीति के औचित्य का कुतर्क गढ़ लेते हैं और आमजन धीरे धीरे कष्ट सहने की आदत डाल लेता है और विरोध की बात या साहस उसके मानस पटल से गायब हो जाता है लेकिन संचित कष्टों का असंतोष जब फूटता है तो क्रांति की ज्वाला बन जाता है। अधीनता स्वीकार करने की आमजन की आदत उस हाथी की तरह होती है जो बचपन में महावत के बंधन को तुड़ा नहीं पाता फिर अधीनता की आज़दत पड़ जाती है और उसे अच्छी लगने लगती है।

उस पर उन्होंने कहा कि मुझे सरकार बिना काम के इतना या ज्यादा पैसादेती है जितना एक पत्रकार दिन-रात मेहनत करके पाता है, तो मुझे सरकार से अपनी पेंसन बंद करने के लिए कहना चाहिए। उस पर --

स्व से ऊपर न देख पाने वाला स्वार्थी जीव किसी के सरोकार को स्वार्थ से ऊपर नहीं देख समझ पाता। छुटभैये पत्रकाकारों की तनखाह से अधिक तो पूरी पेंसन से बहुत कम प्रॉविजनल पेंसन ही है, पूरी तो बहुत अधिक होगी।मेरी चिंता अपने लिए नहीं, मजदूर के रूप में अपने अधिकारों से अनभिज्ञ स्वेच्छा से अपने मालिक धनपशुओं के लिए दयनीय मजदूरी पर खटने वाले आप जैसे छुटभैये पत्रकारों के लिए है। वैसे तो आजकल के ज्यादातर पत्रकार पत्रकारिता कम दलाली ज्यादा करते हैं। मेरी पेंसन से परेशान पेट्रोल और शिक्षा की धंधेबाजी करने वाले एक फेसबुक ग्रुप के एक छुटभैये धनपशु के ऐसे ही जहालती कमेंट पर इस पर मैं एक लंबा लेख पोस्ट कर चुका हूं। ब्लॉग से खोजकर लिंक शेयर करूंगा। सरकारी मजदूरों की पेंसन से जलने वाले मिथ्या चेतना के शिकार आप जैसे बहुत से मजदूर प्रकारांतर से अनजाने में धनपशुओं के एजेंट का काम करते हैं। मार्क्स ने पूंजीपतियों के इन मुफ्त के कारिंदों को लंपट सर्वहारा कहा है। लंपट सर्वहारा वह होता है जो श्रम बेचकर आजीविका कमाने के चलते हकीकत में मजदूर होता है लेकिन खुद को मालिक के साथ जोड़कर देखता है और उसके हितों की रक्षा में मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी करता है। मालिक या सरकार की दलाली करने वाला लंपट सर्वहारा अज्ञान के चलते मजदूर की पेंसन सरकार की खैरात समझता है, राजनैतिक राजनैतिक अर्थशास्त्र का इतिहास पढ़ा होता तो उसे मालुम होता कि पेंसन खैरात नहीं होती बल्कि पेंसन फंड मजदूर की अपनी संचित कमाई होती है, जिससे वह अपने सक्रिय जीवन की कमाई से जीवन की सांध्य बेला बिना किसी के आगे हाथ पैलाए आराम से, बिना आर्थिक दबाव के सार्थक सर्जक काम करते हुए जी सके। मजदूरों ने काम के घंटे और पेंसन के अधिकार लंबे संघर्षों से हासिल किए हैं जिन्हें मौजूदा सरकारें छीनती जा रही हैं और मजदूरों में आप जैसे लंपट सर्वहारा की बहुतायत के कारण उसके प्रभावी विरोध नहीं हो पा रहा है। लेकिन भावी इतिहास हमारा (मजदूरों का) है, जब हमारा संघर्ष जोर पकड़ेगा तो लंपट सर्वहारा भी पाला बदलकर हमारे साथ खड़ा होगा। प्रोफेसर की तनखॉह और रिटायर होने के बाद की पेंसन उसके लंबे संघर्ष और श्रम का परिणाम है, सरकार या किसी धनपशु की खैरात नहीं। वैसे तो आपने भी पेंसन वाली केंद्र या सरकारी नौकरी पाने की पूरी कोशिस की होगी, लेकिन हर जगह से रिजेक्ट होने के बाद जुगाड़ से पत्रकार बन गए होंगे। मैं भी पत्रकार रहा हूं, और उस समय पत्रकारों के संगठनों की प्रतिष्ठा होती थी, पत्रकार मालिक या सरकार की कारिंदगी नहीं करता था। पत्रकारों समेत सभी मजदूरों के सम्मानजनक वेतन और काम की शर्तों की शुभकामनाएं।

Tuesday, October 26, 2021

क्रिकेटोंमाद

 मामला पीढ़ी का नहीं है, मामला आधुनिक राष्ट्र-राज्य से उपजी राष्ट्रवाद की मिथ्या चेतना का है जिसमें हर ऐरा-गैरा राष्ट्र का प्रवक्ता बन जाता है। एक अदना सा अमरीकी अमरीका का प्रवक्ता बन न्यूयॉर्क के किसी रेस्त्रां में घुसकर अश्वेत या भारतीय मूल के नागरिकों को लक्ष्य कर यह कहते हुए गोलीबारी करने लगता है कि मेरे देश से निकल जाओ जैसे देश उसके बाप का हो। यहां कोई भी ऐरा-गैरा अंधभक्त सरकार की आलोचना करने पर किसी को भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान भेजने लगता है, जैसे यह मुल्क उसके बाप का हो और पाकिस्तान-अफगानिस्तान में गेस्टहाउस खोल रखा हो। पेप्सी का विज्ञापन करने वाले 11 लड़के एक मैच हार गए तो लोग कहते हैं, वेस्टइंडीज ने भारत को लौंद डाला।


उजड्डई की बात इस पीढ़ी या उस पीढ़ी की नहीं है। खेल भावना के विपरीत हर स्तर पर हर खेल में दुर्भाग्य से युद्धोन्मादी टीम भावना होती है। हमारे बचपन में गांव में शुटुर्र, बदी (झाबर) या कबड्डी जैसे कई खेल थे जिनमें छू जाने या न छू जाने के सीमांत मामलों में झगड़ा हो जाता था और कई बार खेल बंद। यदि इस मामले में मेरे छूने या छू जाने की बात होती और खेल बंद होने की नौबत आती तो मैं विपक्षी टीम की बात यह सोचकर मान लेता कि कौन सी खेत-मेड़ की लड़ाई है। मुझे टीम पर भार (liability) माना जाने लगा और दोनों गोल (टीम) बन जान के बाद गींटी या पत्ते की लॉटरी से तय होता था कि मैं किस टीम में रहूंगा। 1978-79 की बात है, भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा था। हम लोग जेएनयू में सतलज हॉस्टल के कॉमनरूम में टीवी पर मैच देख रहे थे। वह बेदी, प्रसन्ना, चंद्रशेखर, वेंकटराघवन की स्पिन चौकड़ी के दबदबे का आखिरी चरण था। जहीर अब्बास और जावेद मियांदाद ताबड़तोड़ छक्के-चौके मार रहे थे। जहीर अब्बास ने बेदी की गेग पर एक खूबसूरत छक्का जड़ा और मेरे मुंह से 'अरे वाह' निकल गया और लोगों ने ऐसे गुस्से में देखा जैसे किसी सांप्रदायिकता विरोधी तार्किक बात पर आज अंधभक्त देखते हैं। शुक्र था कि मेरा नाम ईश मिश्र है, ईश अहमद नहीं। जब क्रिकेट राष्ट्रोंमाद का यह आलम जेएनयू में था तो और जगह की बात ही छोड़िए।


Monday, October 25, 2021

नारी विमर्श 22 (करवा चौथ)

कुछ मर्दवादी करवाचौथ का महिमामंडन यह कह कर करते हैं कि स्त्रियां स्वेच्छा से पुरुषों के लिए भूखी रहती हैं, ये सांस्कृतिक वर्चस्व के अप्रत्यक्ष बलप्रयोग से अनभिज्ञ हैं। मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है तथा विचारधारा उत्पीड़क एवं पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। कुछ लड़कियां भी बेटा की साबाशी को साबाशी ही मानती हैं। अतः मर्दवादी होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है और न स्त्रीवादी होने के लिए स्त्री होना। 


आप समय के आगे नहीं देख सकते इसलिए आपको लगता है कि समय के साथ यह (करवा चौथ जैसी मर्दवादी परंपरा) और प्रगाढ़ हो जाएगी। यह टूटेगी या प्रगाढ़ होगी यह तो समय ही बताएगा। मर्दवाद एक विचारधारा के रूप में सांस्कृतिक वर्चस्व का अभिन्न अंग है। सांस्कृतिक मूल्यों को हम अपने सामाजिककरण के दौरान अंतिम सत्य के रूप में इस कदर आत्मसात कर लेते हैं कि वे हमारे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं और उन्हें unlearn करने में समय लगता है। मर्दवादी सांस्कृतिक वर्चस्व समाप्त होने के साथ साथ उसके रीति-रिवाज भी समाप्त हो जाएंगे। और स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान की गति देखते हुए मर्दवादी वर्चस्व की समाप्ति अवश्यंभावी है। आज लड़कियां किसी भी क्षेत्र में लड़कों से पीछे नहीं हैं, बल्कि हर क्षेत्र में आगे ही हैं। 1982 में आठवीं के बाद बाहर जाकर अपनी बहन की आगे की पढ़ाई के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। जिद करके उसका दाखिला राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ में कराया, जहां से उसने कक्षा 9 से एमए और बीएृड कीपढ़ाई की। हमारे छात्र जीवन से अब तक स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ इतना आगे निकल चुका है कि आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह बेटा-बेटी में भेद करता है, एक बेटा पैदा करने के लिए 4 बेटियां भले ही पैदा कर ले। उसी तरह जैसे बड़ा-से-बड़ा जातिवादी भी जाति के आधार पर भेदभाव की बात नहीं कह सकता। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है जिसका व्यवहार रूप लेना समय की बात है, लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन का टाइमटेबल नहीं तय किया जा सकता।

Friday, October 22, 2021

बेतरतीब 113 (दैवीयता)

 Pushpa Tiwari जी, कुछ और विलंबित-निलंबित काम पर बैठने वाला था कि आपने टैग करके फंसा दिया. हा हा. धर्म-वर्म पर बोलने से बचता हूं क्योंकि सभी धर्म असहिष्णु तथा इस अर्थ अधोगामी होते हैं कि वे अपुष्ट आस्था को विवेक पर तरजीह देते हैं तथा सबसे सहिष्णुता की मूर्ति होने तथा अपने धर्म की वैज्ञानिकता के दावे करते हैं. धार्मिक भावनाएं मोम सी नाज़ुक होती हैं, किस तर्क की आंच से पिघल जायें पता नहीं चलता. नास्तिक जब ईश्वर के ही अस्तित्व को चुनौती देता है त वह किसी पैगंबर या अवतार की अवधारणा कैसे स्वीकार कर सकता है. आपने सही कहा, मैं क्या कोई नास्तिक गाली-गलौच नहीं करता. वह इसीलिये नास्तिक होता है कि वह आस्था पर विवेक को तरजीह देता है.गाली-गलौच विवेकहीनता का परिचायक है. हम तो कहते हैं ईश्वर महज कल्पना है तथा पूर्व-पुनर्जन्म की बातें लोगों को ठगने के पाखंड हैं. वैसे कल्पना का तो पुनर्जन्म होता ही रहता है, खास कर दैवीय कल्पनाओं का. हम सब धार्मिक संस्कारों में पलते-बढ़ते हैं तथा इतिहास बोध को मजाक उड़ते हुए, विरासत में मिले देवी-देवताओं की अर्चना-याचना करते हुए लीक पर चलता रहता है. इस वैज्ञानिक तथ्य को धता बता कर कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, पुरातन से चिपककर नवीनता के रास्ते की बाधा बनते हैं. मैं तो बहुत ही रूढ़िवादी कर्मकांडी सनातनी परिवार में पला-बढ़ा. 10 साल की उम्र में हर ब्राह्म-मुहूर्त दादा जी के साथ,भक्तिभाव से मानसपाठ में बिताते हुए, रामचरित मानस की सैकड़ों दोहे-चौपाइयां कंठस्थ थी. अब भी गद्य में पूरी कहानी सिसिलेवार सुना सकता हूं. मंत्र-तंत्र से मोहभंग के चलते 13 साल की उम्र में जनेऊ तोड़ने के बाद, विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते हर सामाजिक मूल्य तथा संस्कार की परिभाषा तथा प्रमाण खोजने लगा. अप्रमाणित को सत्य मानने से इंकार कर दिया.ईश्वर का अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला है इसलिये हर अप्रमाणित बात की तरह वह भी असत्य है. जिस दिन प्रमाण मिल जायेगा, उसे मेरे लिये गीता-कुरान-बाइबिल सब ऐतिहासिक कारणों से, ऐतिहासिक मंसूबों मनुष्य के लिखे ग्रंथ मानता हूं तथा उनमें वर्णित चरित्रों की समाजवैत्रानिक समीक्षा करता हूं. राम-रावण विवाद वर्णाश्रम व्यवस्था के आंतरिक अंतःकलह की कथा है. खलनायक-नायक -- रावण-राम दोनों वर्णाश्रमी, पितृसत्तातमकता के दो खेमों की लडाई है. नैतिक रूप से राम का चरित्र ज्यादा पतनशील मूल्यों का प्रतिधिनित्व करता है. शासकवर्ग हमेशा अपने आंतरिक अंतरविरोधों को इतना अतिरंजित करता है कि समाज के प्रमुख अंतरविरोधों की धार कुंद हो जाये.

23.10.215

Tuesday, October 19, 2021

लल्ला पुराण 312 (अंधभक्ति और मर्दवाद)

 जब भी किसी सामाजिक कुरीति पर बात होती है तो तुरंत कुछ लोग इस्लामी या अन्य धर्मों की कुरीतियों पर लिखने की हिम्मत की बात करने लगते हैं और साथ में उन्हें वामपंथ का दौरा पड़ना आम बात है। वामपंथ होता क्या है, पूछने पर गाली-गलौच करने लगते हैं। ऐसे ही वामपंथ को दौरे से पीड़ित एक सज्जन ने कहा वामपंथ जेहादियों की रखैल है और पैगंबर मुहम्मद द्वारा 9 साल की लड़की से शादी करने की बात जोड़ा। उस पर --


अंधभक्त का दिमाग इतना कुंद होता है कि वह रटा भजन गाने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकता, दिमाग में भरे मर्दवादी सड़ांध के चलते रखैल और रंडी की ही भाषा बोल पाता है। वामपंथ क्या होता है? का जवाब नहीं मालुम लेकिन हर बात-बेबात वामपंथ का दौरा पड़ता रहता है। गलती अंधभक्त की नहीं उसके भक्तिभाव के संस्कारों की होती है। वामपंथ के बारे में तब तक सवाल करता रहूंगा जब तक आपको मिर्गी की तरह उसका दौरा पड़ता रहेगा। सद्बुद्धि और भाषा की तमीज की शुभकामनाएं। मोहम्मद साहब का 9 साल की आयशा से शादी करना बहुपत्नी प्रथा और बालविवाह जैसी मर्दवादी सभ्यता की विकृतियों का परिचायक है। हमारे यहां भी बालविवाद की कुरीति अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। विधवा आश्रम और किशोर वय की विधवाओं की मौजूदगी मर्दवादी समाज की इसी विकृति का परिणाम है जिसके तहत उम्रदराज मर्दों की शादी बच्चियों से होती थी। लेकिन बजरंगी सांप्रदायिक मानसिकता का इंसान उसी तरह इस्लामोफोबिया का मरीज होता है जैसे तालिबानी सांप्रदायिक मानसिकता का इंसान बुतपरस्तीफोबिया का।

फुटनोट 262 (कांग्रेस)

 कांग्रेस नेतृत्व के एक हिस्से की कमनिगाही के चलते कांग्रेस ने भाजपा के साथ सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धा की राजनीति शुरू की। दुश्मन के मैदान में उसी के हथियार से लड़ाई में हार निश्चित थी। इस प्रकार भाजपा के आक्रामक सांप्रदायिक अभियान और परिणाम स्वरूप मुल्क की बर्बादी का श्रेय प्रकारांतरसे कांग्रेस को ही जाता है।

Monday, October 18, 2021

लल्ला पुराण 311 (निहंगों क बर्बरता)

 सिंघु बॉर्डर पर निहंगों द्वारा एक दलित मजदूर की नृशंस हत्या पर मेरे द्वारा पोस्ट न शेयर करने पर एक पोस्ट डाला। वैसे तो मैं बहुत दिनों से किसी पोस्ट पर कमेंट के अलावा कोई पोस्ट नहीं शेयर कर पाया। उस पोस्ट पर कई लोगों ने (ज्यादातर मेरी ब्लॉक लिस्ट के) मेरे बारे अपमानजनक निजी कमेंट किए और उन बेहूदगियों को लाइक करने वालों का आचरण भी उनके मौन समर्थक का है। उस पर:


मेरे लिए लिखना आसान काम नहीं है, चाहता हूं इर्द-गिर्द की हर घटना-परिघटना पर लिखूं लेकिन हमेशा लिखना संभव नहीं होता। बहुत दिनों से किसी पोस्ट पर कमेंट ही पोस्ट के रूप में पोस्ट कर रहा हूं। कई बार कुछ संपादक मित्रों के आग्रह पर कुछ घनिष्ठ मित्रों का श्रद्धांजलियां नहीं लिख पाया। बुद्धिजीवी अपनी कामचोरी के लिए भी दार्शनिक तर्क गढ़ लेता है, 'राइटर्स ब्लॉक'। जो लोग मुझ पर निहंगों द्वारा एक मजदूर की नृशंस हत्या पर मेरे न लिखने पर(2-4 लाइन की भूमिका के साथ एक लिंक शेयर किया हूं) ताने मार रहे हैं वे खुद कितना लिखे हैं? दूसरों के अलिखे पर खुद न लिखकर अपने व्यक्तित्व की क्षुद्रता जाहिर करते हुए निराधार निजी आक्षेप करने वाले विश्वविद्यालय से पढ़े लोग लगते हैं या किसी सड़क छाप लंपटता की पाठशाला में प्रशिक्षित? एक को टूबेल ऑपरेटर की याद आ रही है, ट्यूबबेल की सही स्पेलिंग सीखने की बजाय श्रम के अपमान की जुर्रत करते हैं। बेहूदे, निराधार आक्षेप करने वाले ज्यादातर मेरी ब्लॉक लिस्ट में हैं, अब लगता है ऐसे अवांछित लोगों से छुटकारा पाकर सही ही किया है। कुछ की भाषा तो दो कौड़ी के सकड़क छाप लंपटों को भी शर्मसार करती है, एक की प्रोफाइल में तो हाईकोर्ट का वकील लिखा हुआ है, पता नहीं पेटिसन भी ऐसी ही भाषा में लिखते हैं

Sunday, October 17, 2021

लल्ला पुराण 310 (वामपंथ)

 जब भी किसी सामाजिक कुरीति पर बात होती है तो तुरंत कुछ लोग इस्लामी या अन्य धर्मों की कुरीतियों पर लिखने की हिम्मत की बात करने लगते हैं और साथ में उन्हें वामपंथ का दौरा पड़ना आम बात है। वामपंथ होता क्या है, पूछने पर गाली-गलौच करने लगते हैं। ऐसे ही वामपंथ को दौरे से पीड़ित एक सज्जन ने कहा वामपंथ जेहादियों की रखैल है और पैगंबर मुहम्मद द्वारा 9 साल की लड़की से शादी करने की बात जोड़ा। उस पर --


अंधभक्त का दिमाग इतना कुंद होता है कि वह रटा भजन गाने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकता, दिमाग में भरे मर्दवादी सड़ांध के चलते रखैल और रंडी की ही भाषा बोल पाता है। वामपंथ क्या होता है? का जवाब नहीं मालुम लेकिन हर बात-बेबात वामपंथ का दौरा पड़ता रहता है। गलती अंधभक्त की नहीं उसके भक्तिभाव के संस्कारों की होती है। वामपंथ के बारे में तब तक सवाल करता रहूंगा जब तक आपको मिर्गी की तरह उसका दौरा पड़ता रहेगा। सद्बुद्धि और भाषा की तमीज की शुभकामनाएं। मोहम्मद साहब का 9 साल की आयशा से शादी करना बहुपत्नी प्रथा और बालविवाह जैसी मर्दवादी सभ्यता की विकृतियों का परिचायक है। हमारे यहां भी बालविवाद की कुरीति अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। विधवा आश्रम और किशोर वय की विधवाओं की मौजूदगी मर्दवादी समाज की इसी विकृति का परिणाम है जिसके तहत उम्रदराज मर्दों की शादी बच्चियों से होती थी। लेकिन बजरंगी सांप्रदायिक मानसिकता का इंसान उसी तरह इस्लामोफोबिया का मरीज होता है जैसे तालिबानी सांप्रदायिक मानसिकता का इंसान बुतपरस्तीफोबिया का।

Friday, October 15, 2021

लल्ला पुराण 309 (वामपंथ)

 वास्तविकता तो यही है कि पुराणकाल में स्त्री पुरस्कार की वस्तु होती थी और यदि एक मर्द द्वारा बदले की भावना से एक स्त्री का अपहरण करता है तो दूसरा मर्द उसे अपवित्र मानकर उसकी अग्निपरीक्षा लेता है, इसके बावजूद गर्भवती कर कोई बहाना बनाकर उसे घर से निकाल देता है। ऐसा तो एक आदर्श समाज में ही होता है, है न? वह मर्द बदले की भावना से जिस स्त्री का अपहरण करता है उसका दोष यह था कि वह उस मर्द की प्रतियोगिता में जीती पत्नी थी जिसने उसकी बहन का अंग-भंग कर दिया था क्योंकि उसने उससे प्रेमनिवेदन का प्रस्ताव करने की जुर्रत की थी। बाकी जब तक स्त्रियां अपना इतिहास खुद नहीं लिखतीं तब तक इतिहास स्त्री उत्पीड़न का महिमामंडन ही होगा। ऊपर के कमेंट की भाषा देखिए, लगता है कि किसी सड़क छाप लंपट की भाषा है, क्या इवि का स्तर इतना गिर गया है?

स्त्रीद्वेषी मर्दवादी कुंठा ऐसी ही अभिव्यक्ति पाती है। वामपंथ इसमे कहां से आ गया बजरंगी फिरकापरस्तों को जब तर्क नहीं मिलता तो उनपर वामपंथ का बेबात दौरा पड़ जाता है। गुंडे-मवालियों की शैली भभाना, पपराना जैसी सड़क छाप भाषा भी उसी मर्दवादी कुंठा का द्योतक है। एक अफ्रीकी कहावत है कि जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, इतिहास शिकारियों का ही महिमामंडन करेगा। जब तक स्त्रियां इतिहास लिखना नहीं शुरू करेंगी इतिहास मर्दवाद का महिमामंडन ही बना रहेगा। स्व के स्वार्थबोध से मुक्त होकर स्व के परमार्थबोध को तरजीह दें तो मर्द होकर भी स्त्री की पीड़ा समझ सकेंगे।


बात व्यक्तिगत की नहीं है, आपने एक फतवानुमा वक्तव्य दिया है कि वामपंथी मानसिक बीमार होता है तो आपको बताना चाहिए कि वामपंथ क्या होता है और उसे क्या मानसिक बीमारी है? या यह भजन गाने की ड्यूटी लगी है। शिक्षक होने के नाते हमने तो अंधभक्तों को विवेकशील इंसान बनाने की अपनी ड्यूटी लगा रखी है। सरनेम और जन्म से मैं ब्राह्मण हूं, सनातनी के बारे में कुछ नहीं कह सकता क्योंकि जानता नहीं कि सनातन क्या होता है? आपको मालुम हो को प्रकाश डालिए। लंबे आत्मसंघर्ष से बाभन से इंसान बन चुका हूं। सद्बुद्धि की शुभकामनाएं।  

Thursday, October 14, 2021

लल्लापुराण 308 (अंग्रेजी)

Some one said that those who have huge libraries and read many books remain ignorant and confused. And when he was told pejoratively about wisdom and clarity of those who have apathy with books!!, his answer was those who don't read books create them. On that --

Have you also created a book without reading books ? Every generation consolidates the contributions and achievements of the previous generations by comprehending about them through books and builds upon them . Though the ratio of the "educated" differs might exceed their uneducated counterparts. The knowledge doesn't come from just learning what is taught but by questioning that and by unlearning many irrationalities acquired without one's conscious will in the process of socialization. Questioning and unlearning are integral part of the knowledge system. Those who don't question but just conform and don't undergo the unlearning process remain duffers despite acquiring high degrees. To question and to rebel is to create and to conform is to stagnate.


इस पर उन्होंने आरोप लगाया कि जवाब नहीं है तो अंग्रेजी में आंए-बांए कर रहा हूं (बाद में लगता है, उन्होंने वह मिटा दिया), उस पर --


आंए-बांए तो अपढ़ अंधभक्त करते हैं हम तो कुंददिमाग अंधभक्तों को इंसान बनाने का अभियान चलाते हैं। कभी-कभी जब घर पर नहीं होता तो फोन पर फेसबुक खोल लेता हूं और मेरे फोन में हिंदी फोंट नहीं है। मुझे लगा इवि से पढ़े लोगों को इतनी अंग्रेजी आती ही होगी! आइंदा से ध्यान रखूंगा कि किताबों से परहेज करने वालों से अंग्रजी न बोलूं।

शिक्षा और ज्ञान 333 (शिक्षक की नौकरी)

 मैंने इलाहाबाद विवि समेत विभिन्न शिक्षण संस्थानों में 14 साल इंटरविव दिया। मेरी समस्या नास्तिकता की थी, जब गॉडै नहीं है तो गॉडफादर कहां से होता? नौकरी की मेरी दूसरी कोई प्रथमिकता थी नहीं स्टॉपगैप व्यवस्था के रूप में कुछ दिन पत्रकारिता और बाकी कलम की मजदूरी से काम चलाता रहा लेकिन सौभाग्य से संयोगों की टकराहट से देर से ही सही नौकरी मिल ही गयी। पढ़ाने का सुख जितना भी मिला, सौभाग्य मानता हूं।


किसी ने कहा कि इंटरविव से शिक्षक बने लोगों का लिखित परीक्षा से शिक्षक बने लोगों पर उंगली उठाने का अधिकार नहीं है। उस पर --

सही कह रहे हैं, इंटरविव से नियुक्ति में मठाधीशी की बहुत भूमिका होती है तथा ज्यादातर नौकरियां सेटिंग से मिलती हैं, अपवाद स्वरूप कुछ संयोगों के संयोगात टकराहट से। मुझसे कोई कहता था कि तुम्हें देर नौकरी मिली तो मैं कहता कि सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी? लेकिन केवल इंटरविव से या लिखित परीक्षा से शिक्षक बने शिक्षकों पर उंगली उठाने का हक हर किसीनको है यदि वे शिक्षकीय दायित्व और मर्यादा के साथ विश्वासघात करें। आपकेतर्क से तो आईएस-पीसीएस अधिकारियों पर उंगली उठाने का किसी को कोई हक नहीं है चाहे वे कितने भी बड़े भ्रष्ट और चोर हों। हमारे परिचित सैकड़ों आईएएस-आईपीएस-पीसीएस अधिकारियों में अपवाद स्वरूप ईमानदार अधिकारियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। सवाल यह है कि कतनों की प्रथमिकता शिक्षक बनने की होती है? अन्य प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में खारिज लोगों को शिक्षक की परीक्षा में कोचिंग के नोट रटने का कुछ फायदा हो ही जाता है क्योंकि टिक मार्का परीक्षाओं से किसी के शिक्षकीय मिजाज या प्रतिभा का पता नहीं चलता। शिक्षक होना सौभाग्य की बात है लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादातर शिक्षक अभागे होते हैं शिक्षक होने का महत्व नहीं समझते महज नौकरी करते हैं और 3-5 करके समाज का भविष्य तबाह करते हैं। यदि आधे शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो क्रांति का पथ वैसे ही प्रशस्त हो जाए। इसलिए सभी शिक्षकों से आग्रह है कि वे हर तरह के पूर्वाग्रह-दुराग्रह से मुक्त होकर अच्छे शिक्षक बनें। अच्छा इंसान बनना अच्छे शिक्षक की अनिवार्य शर्त है लेकिन पर्याप्त नहीं, विषय का ज्ञान अर्जित करने का श्रम करना भी आवश्यक है।

प्राथमिकता की बात हमने केवल इसलिए किया कि जो प्राथमिकता का व्यवसाय न मिलने पर मजबूरन किसी व्यवसाय में आता है उसकी कर्तव्यनिष्ठा पर सवाल उठता ही है। मैं भी अपने मित्रों से यही कहता था कि जिस भी किसी तरह वे शिक्षक बन गए, उन्हें शिक्षक होने का महत्व समझ, कर्तव्यनिष्ठा के साथ शिक्षकीय मर्यादा का पालन करना चाहिए। जो भी लोग किसी खास व्यक्ति की कर्तव्यविमुखता के कारण पूरे व्यवसाय पर उंगली उठाते हैं, वे गलत करते हैं तथा उनका कृत्य निंदनीय है। पूंजीवाद में श्रमशक्ति वाले श्रम के साधनों से मुक्त होते हैं इसीलिए वे आजीविका के लिए श्रमशक्ति बेचने (alienated labour करने) को अभिशप्त होते हैं। मुझे लगा शिक्षक की नौकरी में एलीनेसन को खत्म तो नहीं किया जा सकता लेकिन कम किया जा सकता है, इसीलिए अपने लिए इसे ही उपयुक्त और वाछनीय समझा। आपने पूछा यदि न मिलती तो क्या करता? जब नौकरी नहीं थी तो कलम की मजदूरी से आजीविका कमाते हुए, लेखन से शिक्षक का काम कर रहा था, आगे भी वही करता। फेस बुक पर भी शिक्षक की ही भूमिका निभाने के लिए समय निवेश करता हूं। भाग्यशाली हैं कि शिक्षक की नौकरी कर रहे हैं, शिक्षक होने का महत्व समझिए और अच्छे शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों के दिल-ओ-दिमाग में स्थाई सुखज स्मृति के रूप में दर्ज रहेंगे।

Monday, October 11, 2021

फुटनोट 261 (1857)

 क्रांति के नियोजित समय के पहले ही कार्टिज की भावुक घटना ने क्रांति की योजना में थोड़ी गड़बड़ी कर दी। महीनों से गांव-गांव रोटी और कमल के प्रतीक के संप्रेषण से क्रांति के संदेश भेते जा रहे थे। 1857 की क्रांति जनअसंतोष के अभिव्यक्ति की किसान क्रांति थी जो सफलता की दहलीज पर पहुंच कर भारतीय रजवाड़ों की गद्दारी से रुक गयी तथा क्रांतिकारियों के दमन में सभ्यता के बोझ से दबे औपनिवेशिक शासकों ने बर्बरता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। मालीपुर से फैजाबाद तक पकड़े गए क्रांतिकारियों को सड़क के किनारे पेड़ों पर फांसी पर लटकाया गया।


रोटी मिलजुल कर खाने और सामूहिकता के संदेश का प्रतीक थी और कमल देश को खिला हुआ देखने का। सिंधियाओं और निजामों ने गद्दारी न की होती तो देश 1857 में आजाद होता और 100 साल की लूट से बचकर अलग इतिहास रचा गया होता। 1857-58 के मार्क्स के न्यूयॉर्क ट्रब्यून के लेखों का संग्रहभारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्रम (India's First war of Independence) शीर्षक से छपा। 

Saturday, October 2, 2021

लल्ला पुराण 307 (गांधी)

 किसी पर कुछ थोपा नहीं जा रहा है सिर्फ यही कहा जा रहा है कि किसी ऐरे-गैरे फिरकापरस्त द्वारा गांधी जैसे ऐतिहासिक महामानव का निराधार चरित्र हनन सूरज पर थूकने जैसा है जो नवापस थूकने वालेके मुंह पर ही गिरता है। आपसेयही पूछा गया है कि गांधी नेकिस भाषण-लेखन मेंहिंदू नरसंहार का समर्थन किया है? शाखा के बैद्धिक का विषवमन अफवादजन्य है। थोड़ा तथ्यपरक इतिहास पढ़तेतो पता होता कि वैसे गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि नरवींद्रनाथ टैगोर ने दीथी और अपनेसमय के महानतम व्यक्तित्व की उपाधि आइंस्टॉाइन ने। यह भी पता होता खिलाफत तुर्की का आंदोलन था हिंदुओं पर हमला नहींऔर खिलाफत का समर्थन कांग्रेस ने नेता केरूप में गांधी केउदय के पहले किया था।