Tuesday, July 31, 2018

मोदी विमर्श 91 ( आसाम में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण)

आसाम की संपदा -- तेल; चाय; जल; जंगल -- के लुटेरे कौन हैं? देशी-विदेशी कॉरपोरेट; भारत सरकार, जिसे आसामियों पर अविश्वास है और उनके तेल को लंबी पाइप लाइन से तेल उगाह कर बरौनी में परिष्कृत करती है; और लकड़ी तथा जंगली जानवरों की खाल और हड्डियों के तस्कर जिसमें बांग्ला-भाषी मुसलमान नहीं हैं। जातीय हिंसा के शिकार कौन हैं? जो आसाम के जनजीवन की गाड़ी को इंधन-पानी देते हैं -- बांगलाभाषी और झारखंडी मजदूर। मैं गौहाटी और शिलांग की की यात्राओं में जितने बांग्ला-भाषी मुसलमानों से मिला उनमें से ज्यादातर रिक्शा चलाते हैं, प्लंबर और मेकैनिक आदि दिहाड़ी कारीगरी करते हैं या चाय-पान की छोटी-मोटी दुकानदारी तथा उनके घरों की महिलाएं मध्यवर्गीय घरों में चूल्हा बर्तन। लोगों का गुस्सा आसाम की संपदा के असली लुटेरों से हटाने के लिए कॉरपोरेटी दलाल रह रह कर बांग्लादेशी मुद्दा उठाते रहते हैं और लोगों की धार्मिक-जातीय भावनाओं के शोषण से नफरत के माध्यम से ध्रुवीकरण के चूल्हे पर सियासी रोटी सेंकते हैं। फिलहाल नफरत की फौरी संघी साजिश का मकसद राफेल महा घोटाले; अपने आका धनपशुओं, भगोड़े माल्याओं, ललित-नीरव मोदियों, चोकसियों की लूट; विकास के गुब्बारे के फुस्स होने; देश की आर्थिक बदहाली; बेरोजगारी; सरकार की बेशर्म कॉरपोरेटी दलाली; गोरक्षकों और बजरंगी लंपटों के देशद्रोही अपराधों से लोगों का ध्यान हटाकर मुस्लिमों को खलनायक साबित करके सांप्रदायिक फासीवादी ध्रुवीकरण है। यदि मुल्क बचाना है तो इन संघी देशद्रोही आतंकवादियों की साजिश को नाकाम करना है। 4 सालों में देश की संपदा अपने आका धनपशुओं को समर्पित कर देश की अर्थव्यवस्था को दशकों पीछे ढकेल चुके हैं। हर देशभक्त का कर्तव्य है इनके नापाक मंसूबों कावपर्दाफास करना। ये अगर अपनी देशद्रोही मंसूबे में कामयाब हुए तो आनेवाली पीढ़ियां हमें कभी नहीं माफ करेंगी। बाकी आप की मर्जी।

फुटनोट 196 (एनआरसी)

पृथ्वी किसी की संपत्ति नहीं है, सारे मनुष्यों की साझी विरासत है। हमारे पूर्वज, 3 भाई 200-250 पहले बस्ती के बट्-टूपुर गांव से आए और आजमगढ़ जिले में एक गांव में डेरा जमा लिए। वहां 'उनकी जमीन' रही होगी, उसपर अब कौन बसा है, नहीं मालुम। हम उन्हें वहां से भगा सकते हैं क्या? हमारे ऋगवैदिक आर्य पूर्वज सप्तसैंधव (सिंध, पंजाब की 5 नदियां और सरस्वती) के क्षेत्र में रहते थे, जिसका प्रमाण ऋगवेद है, सरस्वती सूखने के बाद वे पूरब बढ़े, वहां के मूलनिवासियों (आज के आदिवासी और दलित) को विस्थापित करते हुए, क्या हमें मूलनिवासियों के वंशज भगा सकते हैं? एनआरसी और कुछ नहीं, देशद्रोही संघियों का चुनावी ध्रुवीकरण का शगूफा है। आसू आंदोलन इसी मुद्दे पर हुआ, आसू के नेता ध्रुवीकरण से आसाम में सत्ता में आए, वे उन्हें भगा पाए क्या? हर युग में बेहतर आजीविका की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते रहे हैं। यूरोपीय मूल के लोगों ने अमरीका पर कब्जा करना तो 500 साल पहले शुरू किया, वहां के मूलनिवासी दयनीय अल्पसंख्यक बन गए हैं, वे अगर अमरीका के गोरों और भूरों को भगाना शुरू कर सकते हैं क्या?

Monday, July 30, 2018

जनता भक्तिभाव की शिकार है

जनता भक्तिभाव की शिकार है
हिंदुस्तान का यह स्थाई विकार है
(ईमि: 30.07.2018)

पूंजी का देश

पूंजी का कोई देश नहीं,
देश लूटकर भागता है नीरव मोदी
जरखरीद चाकर है जिसका नरेंद्र मोदी
पहले भाग चुका था लूटकर देश
वसुंधरा का दोस्त ललित मोदी
वकील है जिसकी सुषमा स्वराज की बेटी
देश लूटकर विजय माल्या
करता लंदन में ऐयाशी
भाजपा की मदद से बना जो राज्यसभा का यमपी

देश नहीं होता कोई मजदूर का भी
भागता जो देश-विदेश तलाशता रोजी-रोटी
राष्टवाद पनाह है सभी हरामखोरों का
मानवता के दुश्मन जंगखोरों का।
(ईमि: 30.07.2018)

Friday, July 27, 2018

फुटनोट 193 (शाखामृग)

मैंने अपने शाखामृग जीवन पर एक पोस्ट लिखा, उस पर कमेंट्स पर कुछ कमेंट:

Rakesh Tiwari बच्चा था, फंस गया था लेकिन जल्दी ही फांस तोड़कर निकल गया। मैं 1972 में 17 साल की उम्र में एबीवीपी का बड़ा नेता था। अटलबिहारी के साथ मंच शेयर कर चुका था। बाकी एबीवीपी नेताओं की तरह अटल शैली में बकवास करता था, सोचता था ज्ञान बघार रहा हूं।

Santosh Kumar Pathak मैंने तो 1970 में आरयसयस और 1973 में एबीवीपी छोड़ा, न छोड़ता को उसी गंदी खंदक में आज भी पड़ा होता। ये बच्चों को ही पकड़ते हैं, उनका ब्रेनवाश आसान होता है, फौजी ड्रिल नीम पर तितलौकिया का काम करता है। इन मूर्खों की बेहूदी बातें परम सत्य लगती थीं। एक बार एक प्रचारक, वीरेश्वर जी (वीरेश्वर द्विवेदी, विहिप का मौजूदा नेसनल सेक्रेटरी) बौद्धिक ले रहा था, बताया कि औरंगजेब ने एक कत्ले-आम के बाद 40 मन जनेऊ जलाया था यानि लगभग 2 क्विंटल और अगर एक जनेऊ का वजन 5 ग्राम मानें तो 4 लाख जनेऊधारी कत्ल किए गए और अगर आबादी का 20 फीसदी भी जनेऊ पहनता हो तो उसने एक ही बार 20 लाख कत्ल किया। वीरेश्वर जी झल्ला गए कि बौद्धिक में सवाल नहीं किया जाता। तब से शाखा जाना बंद कर दिया। वैसे औरंगजेब कट्टर धार्मिक था वह ब्राह्मणों और मठों को जमीन और धन अनुदान देता था। विज्ञान का विद्यार्थी था, विज्ञान वाले समाजिक समझ के मामले में (प्रायः) गधे होते हैं, जानता नहीं था एबीवीपी आरयसयस का अंग है, तो उसका नेता बन गया। 18 की उम्र तक समझ में आया, तब राष्ट्रीय अधिवेशन में पर्चा बांटकर इस्तीफा दिया।

Rakesh Shukla मार्क्सवाद नहीं सिमटा है, वह कालजयी विचार है। मार्क्स विकास के चरण पर जोर देते हैं और विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना होती है। मार्क्सवाद सिमटा होता तो सारे प्रतिक्रियावादियों के सिर पर मार्क्सवाद का बात-बेबात भूत न सवार होता। मानव मुक्ति तक मार्क्सवाद प्रासंगिक रहेगा और क्रांति-प्रतिक्रांतियों के अंतिम चरण, मानव मुक्ति तक दुनिया के सारे प्रतिक्रियावादियों का सिरदर्द बना रहेगा। मेरे इंसान बनने में जनेऊ यों बाधक था कि वह जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की प्रवृत्तियों का प्रतीक था। जबरदस्ती 3 ग्राम धागे का बोझ क्यों ढोता रहूं?



Wednesday, July 25, 2018

मोदी विमर्श 90 (गोकसी)

रवांडा गोरक्षक भेजने की बात ही छोड़ो, किरन रिजूजी ने तो डंके केी चोट पर कहा कि वह गोभक्षी है उसे कोई नहीं रोक सकता उसकी तो लिंचिंग कर नहीं पा रहे हैं। पार्रिकर ने गोवावासियों को रियायती दर पर गोमांस आपूर्ति का वादा किए, सुना है किसी जानलेवा बीमारी का इलाज कराने अमरीका गए हैं। मणिपुर मे एक भाजपा विधायक ने तो चुनाव प्रचार में गाय काटते हुए अपना पोस्टर छपवाया था। जब ये गोरक्षक इनकी लिंचिंग नही कर पाए तो रवांडा जाने की औकात कहां? सरकारी शह पर ये झुंड में किसी अकेले-दुकेले मुसलमान की ही लिंचिंग कर सकते हैं। बजरंगी (और गैरबजरंगी भी) गुंडे कुत्तों की तरह कायर होते हैं, झुंड में शेर हो जाते हैं, अकेले में पत्थर उटाने का नाटक करते ही दुम दबाकर भाग जाते हैं।

Sunday, July 22, 2018

मोदी विमर्श 89 (ईमानदारी का भ्रष्टाचार)

कांग्रेस सरकार में भ्रष्टाचार बहुत था, 2008 में उसने फ्रांस की एक कंपनी से लड़ाकू विमान का सौदा किया था जिसमें भ्रष्टाचार की सुगबुगाट हुई और सौदा रद्द कर दिया गया। मोदी की ईमानदार सरकार ने वही सौदा 3 गुने दाम पर किया। भ्रष्ट कांग्रेस की सौदेबाजी में तकनीकी जानकारियों का हस्तांतरण भी शामिल था, ईमानदार सरकार दरियादिल भी होती है, माल जनता का हो तो कहना ही क्या? 4 साल से अधिक हो गया सरकार ने अभी तक किसी भ्रष्टाचारी को हाथ नहीं लगाया, बल्कि कांग्रेस सरकार ने जिन्हें बंद किया था वे छूट गए। मार्क्स ने लिखा है कि राज्य पूंजीपतियों के सामान्य हितों के प्रबंधन की इक्जीक्यटिव कमेटी है। यहां उनकी बात बिल्कुल सही नहीं साबित होती। इक्जीक्यूटिव कमेटी थोड़ा सम्मानजनक शब्द माना जाता है। यह ईमानदार सरकार तो पूंजीपतियों के बंधुआ मजदूर का आचरण कर रही है। खैर अपवाद नियम की पुष्टि ही करते हैं। इस ईमानदार सरकार ने रख-रखाव की जिम्मेदारी प्रतिष्ठित सरकारी कंपनी 'हाल' को देने की बजाय अंबानी की शुरू होने वाली कंपनी को 45,000 करोड़ के ठेके पर देगी, उसी तरह जैसे अंबानी के खुलने वाले विश्वविद्यालय को उत्कृष्टता का तमगा। हमारा नमक-हलालों का समाज है ।

भ्रष्टाचार पूंजीवाद की (सभी वर्ग समाजों की) अंतर्निहित प्रवृत्ति है, नीतिगत दोष नहीं। इसका समूल उन्मूलन, पूंजीवाद के अंत के साथ ही होगा। लेकिन इतनी ढिठाई और बेशर्मी से भ्रष्टाचार की यह अभूतपूर्व मिशाल हैं। भारत माता की जय।

Marxism 38 (God is dead)

"God is dead and shall remain dead", was a representative declaration of the end of divine sanction to social-pol. institutions, a representative declaration the Enlightenment. Demanding giving up religion is demanding giving up the conditions that necessitates illusion, which is provided by the region. That is why the Marxism does not seek to abolish religion but the conditions that necessitate illusion. If people get real happiness, they would not need its illusion, religion shall become unnecessary and wither away.

Friday, July 20, 2018

नवब्राह्मणवाद 34

Pushpendra Chaudhari Rewa Chaudhari कौन इसका समर्थन कर रहा है? आप मेरे लेख नहीं पढ़ते। मैं तो खुद इस देश की दुर्गति के लिए मूलतः ब्राह्मणवाद को जिम्मेदार मानता हूं। ब्राह्मणवाद का मूल मंत्र है जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन का मूल्यांकन। जन्मना अब्राह्मण जो ऐसा करके हैं वे ब्राह्मणवाद के संपूरक नवब्राह्मणवादी हैं। ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद दोनों ही सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में बहुत बड़े स्पीड ब्रेकर्स हैं।

Thursday, July 19, 2018

मोदी विमर्श 88 (अग्निवेश पर हमला)

एक बजरंगी लंपटअग्निवेश की पिटाई का समर्थन कश्मीरी पत्थरबाजों के नाम पर कर रहा था। उस पर:

यानि आप भी बजरंगी अपराधियों के समर्थक है । कश्मीरी युवा भटके हुए नौजवान नहीं, फौजी दमन के विरुद्ध आजादी के आंदोलनकारी हैं। वैसे बजरंगी लंपटों के पास तर्क नहीं होता तो एक जघन्य अपराध का समर्थन दूसरे तथा कथित अपराधों से करते हैं। जो एक अपराध के समर्थन में दूसरे अपराध का जिक्र करे वह मनसा अपराधी और घृणित प्राणी होता है। संवेदनाओं का अपराधीकरण तथा बर्बरीकरण परवरिश का फल है या शाखा की ड्रिल का?पर हमला)

मोदी विमर्श 87 (अग्निवेश पर प्रायोजित हमला)

एक सज्जन ने अग्निवेश पर हमले के पक्ष में कहा आस्था की खिल्ली उड़ाना भी हिंसा है, वही क्रिया-प्रतिक्रिया का अटलीय कुतर्क। कहा जिसका तर्क न हो वह गलत नहीं होता।

Pavanjay Tripathi इसमें किस धर्म की खिल्ली उड़ाई गयी हैंं? तो तर्क के परे है वह अज्ञान और कुज्ञान होता है। इस पोस्ट में कुछ बजरंगी अपराधियों द्वारा एक 80 वर्षीय सन्यासी की पिटाई और गाली-गलौच की बात की गयी है। एक अपराध का समर्थक मनसा अपराधी है। संयोग से (?) ऐसे अपराधियों में तथा कथित ब्रह्मज्ञानियों की तादात काफी है। बाभन से इंसान बनना मुश्किल जरूर है लेकिन सुखद। वरना पंजीरी खाकर आजीवन रटा-रटाया भजन गाते रहिए।

Wednesday, July 18, 2018

कायरों की हिंसक भीड़ और राज्य




कायरों की हिंसक भीड़ और राज्य
ईश मिश्र
n  1
बहुत दिनों से राज्य की उत्पत्ति के बौद्ध-सिद्धांत पर एक लेख पूरा करने में लगा हूं। स्वामी अग्निवेश पर संघ के युवा गिरोहों के सुनियोजित, बर्बर हमले की खबर और तस्वीरों से देश की दिशा की चिंता की गहनता और बढ़ गयी। सभी शिक्षाएं समकालिक समस्यायों को संबोधित होती हैं, महान शिक्षाएं सर्वकालिक हो जाती हैं। आम(सर्व)जन की भाषा में, ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति को झेलते हुए बुद्ध की शिक्षाएं कालजयी बनी हुई हैं। वैसे तो बुद्ध की शिक्षा सदाचार पर भिक्षुओं को संबोधित हैं, दीघनिकाय के अगण्णा सूत्त में दुष्टों के लिए एक दंड-संहिता की जरूरत और उसके संचालन की सत्ता पर विमर्श है। दीघनिकाय 5 बौद्ध निकायों (संकलनों) में एक है। इसके अनुसार, परिवार और संपत्ति के आविर्भाव के चलते समाज में कुछ बुराइयां आ गयीं और कुछ दुष्ट लोग लोगों की संपत्ति (चावल) चुराने लगे। इस तरह के दुष्टों को सजा देने के लिए एक वैध शासन की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए लोगों ने अपने में सबसे बुद्धिमान और न्यायी व्यक्ति को अपना महासम्मत चुना। अहिंसक दर्शन में दंड की जरूरत इस लिए पड़ी कि समाज के व्यापक अमन-चैन के लिए कुछ दुष्टों को सजा देना उचित ही नहीं, वांछनीय इसलिए है कि दुष्ट को दंडित होते देख और लोग दुष्कर्म से परहेज करेंगे। राज्य की उत्पत्ति के प्राचीनम सामाजिक अनुबंध के बौद्ध सिद्धांत पर चर्चा से विषयांतर की गुंजाइश नहीं है, मकसद महज इस बात की पुष्टि करना है कि अपराध-प्रवृत्ति निजी संपत्ति के उदय से जुड़ी है। आधुनिक (पूंजीवादी) राष्ट-राज्य के जैविक बुद्धिजीवी, उदारवादी चिंतकों ने भी लोगों के जान-माल की रक्षा की जरूरत के तहत राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत गढ़े गए। लेकिन यदि दोषी भीड़ हो तो किसे सजा मिले? जैसा कि राणा अयूब ने 2000 में गुरात के गृह सचिव चक्रवर्ती के हवाले से बताया गया है कि एक अमूर्त भीड़ के नाम मामला दर्ज कर लिया जाता है। जो पकड़े जाते हैं और सजा भी पाते हैं, ज्यादातर मामलों में वे तो मुहरे होते हैं। पिछले महीने गुजरात हाईकोर्ट के सोलह साल बाद आए गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार फैसले में जिन 24 लोगों को सजा दी है, क्या वाकई वे ही असली दोषी हैं? क्या उनका सोसाइटी के किसी परिवार/परिवारों से कोई जाती दुश्मनी थी? उस अमानवीय बर्बर नरसंहार की भागीदारी से उन्हें कोई फायदा हुआ? उनका क्या मकसद हो सकता इस कत्ल-ए-आम में? कैसे बनता है भीड़ का विवेक कि ठीक-ठाक इंसान भीड़ में विवेकहीन पशु क्यों हो जाता है? इतना ही नहीं अपनी पशुता का औचित्य साबित करने के लिए कुतर्क भी करता है।
विवेक और पारस्परिक समानुभूति सी प्रवृत्तियां ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करती हैं। क्यों मनुष्य पशुकुल मे वापसी के उंमाद में हिंसक बन जाता है? क्या स्वामी अग्निवेश का मां-बहन की गालियों और भारत माता की जय से सम्मान नवाजने के बाद पिटाई करने वाले वीडियों में दिखते एबीवीपी और बजरंग दल वाले ही जिम्मेदार हैं या कीबोर्ड किसी और के पास है? अग्निवेश से इनकी कोई जाती दुश्मनी तो है नहीं? इस हिंसा का राजनैतिक अर्थशास्त्र खंगालने पर मिलता है कि इसके तार राजनैतिक और आपराधिक माफिया से जुड़े हैं।

n  2

बच्चे चुराने या गाय काटने की अफवाह या धर्म-ग्रंथ को नापाक करने से उपजी भीड़ोंमादी हिंसा और संघ के विभिन्न संगठनों विरोधियों के कार्यक्रमों में उत्पात मचाने और मारने धमकाने वाली हिंसा के परिणाम और मकसद एक ही होने के बावजूद उनके चरित्र में थोड़ा फर्क है। पहले किस्म की भीड़ हिंसा में कई साधारण लोग भी अफवाहों से प्रभावित हो भईड़ में शामिल होते हैं, दूसरे में सारे नायक राष्ट्र-भक्तिके प्रशिक्षित योद्धा होते हैं। भीड़ के विवेक पर चर्चा बाद में अभी अग्निवेश के हिंसक सम्मान के राजनैतिक अर्थशास्त्र पर। संतोष कुमार झा ने फेसबुक पुर घटना की जगह के बारे में ये सूचना शेयर किया है:

पाकुड़ झारखण्ड का आखरी छोर है, जो बंगाल और बंग्लादेश से लगा हुआ इलाका है। इसकी प्रसिद्धि यहाँ के पत्थर व्यवसाय यानी #गिट्टी को लेकर है। पिछले 5 दशक से गिट्टी के व्यवसाय से जुड़े होने के कारण यह बाहरी व्यवसायियों और मसल पावर वाले राजनैतिक समर्थन प्राप्त लोगो की कमाने वाली जगह रही है। बाहर से आये मारवाड़ियों, गुजरातियों और बिहार / उत्तरप्रदेश / झारखंड / बंगाल के बाहुबली यहाँ बसे हुये हैं। उत्तरप्रदेश का बाहुबली गैंगेस्टर ब्रजेश सिंह की आखरी गिरफ्तारी भी यहीं हुई थी। पुरानी फाइलों को खंगाले तब पता चलेगा ब्रजेश सिंह का कारोबार 3 हजार करोड़ के आँकड़े पर था। क्या बिना राजनैतिक संरक्षण के इंडियाज मोस्ट वांटेड नाम बदल कर वहाँ सालों रह सकता था?


यूँ तो आदिवासी बहुल इलाका है पर सारी सत्ता का नियंत्रण बाहुबली माफिया और बाहरी पूंजी करती है। भाजपा के झारखण्ड में लगातार शासन होने की वजह से यह स्टैब्लिशमेंट और गहरा हुआ है।लगातार उत्पादन हो इसके लिये श्रम की जरूरत पड़ती है। आदिवासियों से सस्ता श्रम कौन उपलब्ध करा सकता है ? अतः मजदूरों के दलाल सुदूर जंगल तक मिल जायेंगे। बंग्लादेश का बॉर्डर बगल में होने के करण बंगलादेशी घुसपैठिये भी इस इलाके में अच्छी मात्रा में हैं। भाजपा के लिये यह मुफीद अवसर की तरह है जिसकी वजह से संघ के पैर यहाँ जम चुके हैं।
अग्निवेश क्यों गये होंगे वहाँ ? बन्धुआ मजदूरी और आदिवासियों के सवालों को लेकर ही ना ? सारे बवाल की जड़ वहाँ के मुद्दों को बाहर पब्लिक डोमिन में आने से रोकना है। हमला अप्रत्याशित नही सुनियोजित है

n  3




Monday, July 16, 2018

आजमगढ़

गर्व है मुझे आजमगढ़िया कहलाने में
जुमलेबाज को हूट किया
मेरे जिले के बहन-भाइयों ने
आजमगढ़ शहर है
सामासिक संस्कृति की मिशाल
हिंदू हैं जितने यहां
उतने ही मुसलमान
लंपट योगी के बावजूद
पूरे नहीं हुए
दंगाइयों के अरमान
आज़मगढ़ को
एक आजमगढ़िया का सलाम
(ईमि: 16.07.2018)

शिक्षा और ज्ञान 165 (पंजीरी खाकर भजन)

कुछ लोग मेरी किसी भी पोस्ट पर जोयनयू-देश-के टुकड़े, नक्सल, वामपंथ करने लगते हैं ऐसे ही एक सज्जन के इसी तरह के कमेंट का जवाब:

मैंने तो नहीं कहा राकेश सिन्हा ने कुल का नाम डुबोया या मैंने आगे बढ़ाया। मैंने तो तथ्य बताया। पंजीरी खाकर रटा-रटाया भजन गाते-गाते दिमाग के इस्तेमाल की आदत छूट जाती है। कितनी बार साबित हो गया कि जेनयू के नारे प्रायोजित थे संघी घुसपैठियों ने लगाए थे, उसी तरह जैसे युवा वाहिनी का दीक्षित दंगा फैलाने के लिए गाय काटते पकड़ा गया। एबीवीपी के सौरभ शर्मा को वीडियो में पाकिस्तान जिंदाबाद लगाते हुए पहचाने जाने के बाद उस पर प्रशासन ने 10000 का जुर्माना लगाया है। इसके कई वीडियो वायरल है। गाय काटते हुए पकड़े गया दीक्षित हिंदू युवा वाहिनी का था उसके किसी दफ्तर पर गोरक्षक हत्यारों ने हमला बोला? जलाया किन्ही ब्राह्मणों या दीक्षितों के गांव? न पकड़ा गया होता वह तो कितने मुसलमान गांव जलते? कितने मासूमों की हत्या होती? नफरत की राजनीति के लिए कितनी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार होता? आप द्वारा कही गई सभी बातें आपके अफवाहजन्य इतिहासबोध और ब्राह्मणीय श्रेष्ठतावादी पूर्वाग्रहों की उपज है। अपने से सवाल कीजिए कि क्या आप किसी बात पर तथ्यों के आधार पर सत्य बोलते हैं? मैं भी गधों को रगड़-रगड़ कर घोडा बनाने के चक्कर में पड़ा रहता हूं। अब यदि कुछ विवेक सम्मत ज्ञान देना हो या लेना हो तभी मेरी वाल या कमेंट पर कुछ कहें। गुजारिश है। मैं जब कहता हूं कि पढ़े-लिखे जाहिलों का अप्रतिशत अपने अपढ़ साथियों से अधिक है तो बहुत लोग नाराज हो जाते हैं। मेरे लिए पढ़े-लिखे जाहिलों की एक कोटि उन लोगों की है जो उच्च शिक्षा के बावजूद इतना नहीं जान पाते कि व्यक्तित्व का निर्माण सामाजीकरण से होता है, जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना के आधार पर नहीं, और कर्म-विचार के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन की बजाय जन्म के आधार पर करते हुए जन्मजात प्रवृत्तियों से ऊपर नहीं उठ पाते। Viren N Tiwari.

Sunday, July 15, 2018

फुटनोट 190 (प्रैक्सिस का सिद्धांत)

हौसला-अफजाई का शुक्रिया। व्यक्तिगत जीवन में भी नास्तिक होने से आपका मतलब हो या नहीं, लेकिन मित्र मैं मार्क्सवादी हूं, नास्किकता उसका उपपरिणाम है। मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों में एक है प्रैक्सिस का सिद्धांत जिसका एक प्रमुख बिंदु है, कथनी-करनी के अंतर्विरोध से मुक्ति का निरंतर प्रयास। अगर मैं स्त्रीवाद का हिमायती हूं तो वह मेरे अपनी पत्नी और बेटियों के साथ व्यवहार में परिलक्षित होना चाहिए। मैंअपनी झोपड़ी (लाइब्रेरी) के बाहर बैठा हूं, अभी मेरी बेटी का मिसकॉल आने वाला है कि उठ गई है चाय बनाऊं। आप सही हैं वह तो ठीक है लेकिन आपका सही होना दिखना भी चाहिए। समता का सुख इतना अद्भुत है कि भौतिक कष्ट मायने ही नहीं रखते। मां-बापों और शिक्षकों की बडी आबादी, इस सुख के अनुभव से वंचित होने के कारण बच्चों और विद्यार्थियों से दोस्ती नहीं करते, खुद भी टेंसन सिंह बने रहते हैं और बच्चों को भी टेंसन देते हैं। धारा के विपरीत तैरना मुश्किल तो होता है, असंभव नहीं। कुछ भी मुफ्त ने नहीं मिलता, नतमस्तक समाज में सिर उठाकर चलने की भी कीमत चुकानी पड़ती है।

फुटनोट 189 (चार्वाक)

असल में चार्वाक पद्धति के बारे में हम जानते कम हैं और इस पर सामग्री भी कम है। चारवाक ब्राह्मणवादी कर्मकांडी पौराणिक ज्ञान के विपरीत वैज्ञानिक भौतिकवादी द4शनधारा के प्रतिनिधि है। वे अतीत की गौरवगाथा या भविष्य की सेवर्णिमता के नहीं वर्तमान यथार्थ के चिंतक थे। ब्राह्णवादी साहित्य में उनका वैसा ही मजाक उड़ाया गया है जैसा आज के 'देशभक्त' मुसलमानों और वामपंथियों का उड़ाते हैं। चार्वाक-लोकायत दर्शन को पौराणिक साहित्य में उनके शैतानीकरण को डिकॉन्स्ट्रक करके चित्रित किया।

जो समाज जितना संकीर्ण और अमानवीय आंतरिक अंतर्विरोधों का शिकार हो वह उतनी ही जल्दी छिन्न-भिन्न होता है, लेकिन पुनर्नििणाण बेहतर ही होता है। (कुल मिलाकर) बेहतरी के संघर्ष के लिए ही जीवन है। मैं अपनी बेटियों और छात्राओं को कहता हूं कि तुमलोग भाग्यशाली हो कि 1-2 पीढ़ी बाद पैदा हुए। मुझे 1982 में अपनी बहन के बाहर जाकर पढ़ने के अधिकार के लिए पूरे खानदान से घमासान करना पड़ा था। आज किसी बाप की औकात नहीं है कि कहे बेटा-बेटी में फर्क करता है। करे भले ही। दुनिया द्वंद्वात्मक है, यही द्वंद्व तो इतिहास का इंजन है। हम सब सारे पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से ऊपर उठकर यह सोच लें कि हम सब मानवता की सेवा में सहयात्री हैं, दुनिया सुंदर होगी। कभी तो होगी, खुशफहमी ही सही जीने का तर्क तो है।

फुटनोट 188 (राकेश सिन्हा)

एक पोस्ट पर किसी ने सत्ता के लिए दल-बदल में राकेश सिन्हा की तुलना राम विलास पासवान की, उस पर।

इस मामले में पासवान से सिन्हा की तुलना नहीं की जा सकती। पासवान कुर्सी सूंघता रहता है। राकेश सिन्हा छात्र जीवन से ही अपनी विचारधारा पर अडिग रहा है उसकी विचारधारा की गुणवत्ता को खारिज किया जा सकता है, यह अलग बात है। और वह चंद संघियों में है जो लिखते-पढ़ते हैं। मेरी उससे मुलाकात तीनमूर्ति लाइब्ररी में भी होती है और आरटीयल में भी। उसके लेखन की गुणवत्ता पर बहस हो सकती है। वह एक बड़े कम्युनिस्ट नेता का पुत्र होकर छात्र जीवन से ही आरयसयस का समर्पित कार्यकर्त्ता रहा है। मैं कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश में पैदा होकर बरास्ता आरयसयस मार्क्सवादी हो गया। हम एक दूसरे के परस्पर स्वघोषित वैचारिक विरोधी हैं, दुआ-सलाम भी होता है क्योंकि हमारा खेत-मेड़ की लड़ाई तो है नहीं, विचारों की है और कोई अंतिम सत्य नहीं होता। यह इसलिए कह रहा हूं राम विलास पासवान की तरह वह हवा का रुख भांप कर नहीं समझौता करता। मुझे ताज्जुब इस बात का है कि उसके पिताजी, कॉमरेड बंगाली सिंह, बेगूसराय से सीपीआई सांसद और कई बार यमयलए रह चुके हैं। आज ही पेसबुक से ही पता चला।कम्युनिस्ट अपने विचार बच्चों पर संस्कार के नहीं थोपता, न ही वंशवाद चलाता है।

मार्क्सवाद 145 (सामाजिक चेतना)

जी, मेरे पिता जी कर्मकांडी ब्राह्मण थे दादा जी उनसे भी बड़े। लेकिन दोनों ही कट्टर नहीं थे। मेरी नास्तिकता को पागलपन समझकर नजरअंदाज कर देते थे। दादाजी मुझे प्यार भी बहुत करते थे। मैंने न्यूटन पर उनसे संवाद पर एक लेख भी लिखा है। गूगल पर 'का रे पगला न्यूटनवा भगवान से भी बड़ा है' कलिक करें मिल जाएगा। घर में ठाकुर का भोग लगे बिना मुख्य रसोई से किसी को कुछ नहीं मिल सकता था। बच्चों के लिए दादी ने एक अलग छोटा चूल्हा बनाया था। 13-14 साल में हॉस्टल में रहते हुए जनेऊ पहने रहने की व्यर्थता समझ तोड़ दिया। हर बार घर आता था दादाजी मंत्र पढ़कर पहना देते। गांव से बाहर निकलकर मैं निकालकर किसी पेड़ पर टांग देता। फिर उन्होंने हाथ से गया समझ बंद कर दिया। मेरी नास्तिकता पसंद तो किसी को नहीं थी लेकिन उसके चलते मुझसे किसी के प्यार में कोई कमी नहीं थी। एक बार (1985-86) तो मेरी दादी और मां मुझे यहकर कि मैं उन्हें विंध्याचल देवी के दर्शन कराऊंगा तो ही करेंगी, वहां ले गयीं। मैंने एक जीप रिजर्वकर अपनी पत्नी और 2 साल की बेटी के साथ उन्हें विंध्याचल ले गया। मेरी नास्तिकता अगर इतनी कमजोर है कि एक मूर्ति के दर्शन से टूट जाए, तो टूटने दो। मेरी पत्नी बहुत धार्मिक हैं। विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप होता है। मनुष्य के चैतन्य प्रयास से विकास का चरण प्रभावित होता है जो सामाजिक चेतना के स्वरूप को बदलता है। मेरा सतत प्रयास सामाजिक चेतना के जनवादीकरण है, जिसके लिए जाति-धर्म की मिथ्या चेतना से मुक्ति आवश्यक शर्त है।

मार्क्सवाद 144 (चार्वाक)

चार्वाक एक महान भौतिकवादी दार्शनिक थे जो वेदों के रचिताओं को धूर्त मानते थे। उन्होंने लोकायत परंपरा की शुरुआत की। ब्राह्मणवादी वर्चस्व के दौर में सारा भौतिकवादी साहित्य उसी तरह नष्ट कर दिया गया जैसे बौद्ध साहित्य। राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से बौद्ध निकायों को खच्चरों पर ढो
कर लाए थे। ऋणं कृत्वा घृतमं पीवेत की किंवदंति ब्राह्मणों ने फैलाया उसी तरह जैसे वाल्मीकि के शूद्र होने की या कालिदास के मूर्ख होने की।

मोदी विमर्श 86 (राम मंदिर)

1984 में सिख नरसंहार के बाद राजीव गांधी के अपार बहुमत से भाजपा ने राममंदिर से अभियान शुरू किया बरास्ते बाबरी मस्जिद गोधरा प्रायोजन से भीषण नरसंहार और मुजफ्फरपुर शामली होते हुए 1914 में विकास के नारे से दिल्ली की गद्दी पर काबिज हुई विकास की बत्ती गुल होने के बाद दुबारा राममंदिर पर वापस आ गयी, जो इसके विनाश की परिचायक है।

Friday, July 13, 2018

देशभक्त-गद्दार

यह कैसी देशभक्ति है,
जो देश के टुकड़े-टुकड़े करने पर आमादा हैं
जब देश में चल रही थी जंग-ए-आजादी
सावरकर देकर दो-राष्ट्र सिद्धांत
कर रहा था कौमी एकता की बर्बादी
गोलवल्कर नाम का था एक और अंग्रेजी दलाल
था उसे अंग्रेजों के खिलाफ उठे जनसैलाब का मलाल
उसकी औलादें लगाती हैं नारा पाकिस्तान जिंदाबाद
करने को जेयनयू की ज्ञान की परंपरा बर्बाद
काटता है युवावाहनी का दीक्षित जब गाय
करता नहीं कोई देशभक्त उसकी हाय हाय
गोरक्षक हत्यारों को मिलती जब जमानत
देश भक्त मंत्री करता उनका माला पहनाकर स्वागत
दूसरा देश भक्त मंत्री मिलता दंगाइयों से जेल में जाकर
पहन कर बुर्का करता घिनौनी हरकतें जब एक देशभक्त
उसकी पैरवी में जुट जाती है देशभक्तों की सरकार कमबख्त
पहनकर गोली टोपी बजरंगी फहराता पाकिस्ताव का झंडा
हिफाजत में उननकी उठता है संघी डंडा
जला दो लोगों इन देशभक्तों का भगवा डंडा
वरना यह डंडा कर देगा टुकटे-टुकड़े मुल्क के
हर जिस्म के हर दिल के
(ईमि: 14.07.2018)

मोदी विमर्श 85 (भक्तिभाव)

@Vineet Singh नए विकल्प बनेंगे। आप जैसे युवा लोग जब भक्तिभाव त्यागकर पढ़ाई-लिखाई कर सिद्धांतो से लैस नई शुरुआत करेंगे। फिलहाल तो फासीवाद से मुक्ति मिले। आप भी जानते हैं मोदी-शाह की जोड़ी अंबानी-अदानी की दलाल अपराधियों की जोड़ी है। हर संघी जानता है। अपराधी-घोटालेबाजों की जगह फिलहाल कोई चलेगा। ये कमीने बेरोजगारी, मंहगाई, देश की डूबती अर्थव्यवस्था से ध्यान हटाने के लिए हिंदू-मुसलमान खेलते रहते हैं। ट्रोलों की इतनी बड़ी नफरती फौज खड़ी कर लिया है कि सुषमा स्वराज भी ट्रोल की जाने लगी। दिमाग का इस्तेमाल कीजिए विकल्प दिखेगा। विकल्पहीनता मुर्दा कौमों की निशानी है, जिंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होतीं। पंजीरी खाकर भजन गाना बंद कीजिए दिमाग लगाइए। पहली बात जो कहें उसे तथ्य-तर्कों से पोषित करें। चुनाव के पहले इतने घोटाले थे, इतना कालाधन विदेशों में था, 4 सालों तक पिछले घोटालेबाजों में एक भी नहीं पकड़ा गया न एक भी पैसा काला धन आया, उल्टे भाजपा समर्थित माल्या, मोदी का मित्र नीरव मोदी आदि लाखों करोड़ चुराकर भगवा दिए गए। अडानी झारखंड में विस्थापन का विरोध करने वालों को उसी धरती में गाड़ देने की धमकी देता है। मोदी की हर विदेश यात्रा पर (अब तक 100 करोड़ के लगभग खर्च हो चुका है) अडानी साथ जाता है, उसका खर्च भी टैक्सपेयर की जेब से जाता है। सारी नौकरियां ठेके पर दे दी। एक मूर्ख मंत्री करोड़ों गीता जयंती और धर्मांधता खर्च करता है। मोदी आसाराम और राम रहीम का भक्त है, उनके चरणों में नतमस्तक होते बहुत वीडियो वायरल हो रहा है। जिस दिन आप जैसे नवजवान भक्तिभाव और ट्रोलगीरी की जहालत से निकल कर सोचने-समझने लगेंगे, नया विकल्प तैयार होगा।

Thursday, July 12, 2018

मार्क्सवाद 143 (ट्रॉट्स्कीपंथी)

समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है।रोहित बेमुला की शहादत से निकला जेयनयू आंदोलन का जयभीम-लालसलाम नारा समाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की एकता का प्रतीकात्मक नारा है। इस नारे को सैद्धांतिक और व्यवहारिक रूप देना है। मैं भी इस पर काम कर रहा हूं। बौद्ध राजनैतिक सिद्धांत पर एक अध्याय लिखने में फंसा हूं। यूरोप मे नवजागरण और प्रबोधन आंदोलनों ने जन्मजात विभाजन खत्म कर दिया था, भारत में कबीर द्वारा शुरी नवजागरण अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। अब सामाजिक न्याय (जातिवाद का विनाश) और आर्थिक न्याय के संघर्ष अलग अलग नहीं साथ लड़ने की जरूरत है। पंजाब के दलितों का जमीन आंदोलन मिशाल है। मैंने उपरोक्त लिंक के दो लेखों और तीसरी दुनिया में सितंबर 2016 'समाजवाद की समस्याएं' तथा समयांतर जून 2016 'कम्युनिस्ट और जाति का सवाल' में इस पर बात की है। ब्लॉग से लिंक शेयर कर रहा हूं। Rajesh Tyagi ट्रॉट्स्पंकीथियों के पास कोई कार्यक्रम नहीं है तथा वे मार्क्स की वीभत्स व्याख्या के जरिए आंदोलनों के संदर्भ में विध्वंसक भूमिका निभाते रहे हैं। इनका आंदोलनों में योगदान विध्वंसक ही रहा है। एक आंदोलन बताइए जिसे विश्व आंदोलन का इंतजार करते मार्क्सवादविरोधी ट्रॉट्सीपंथियों ने चलाया हो। आप विश्वक्रांति का इंतजार कीजिए और आंदोलनकारी ताकतों का विरोध। आप ही जैसे विश्वक्रांति का इंतजार करने वालों के लिए मार्क्स ने व्यंग्य किया था कि शुक्र खुदा का मैं मार्क्सवादी नहीं हूं और एंगेल्स ने 1891 में कहा था कि मार्क्सवादी वह नहीं जो मार्क्स या उनके लेखों से उद्धरण पेश करे बल्कि वह जो किसी खास परिस्थिति में वही करे जो मार्क्स करते।

मार्क्सवाद 142 (जयभीम-लालसलाम)

समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है।रोहित बेमुला की शहादत से निकला जेयनयू आंदोलन का जयभीम-लालसलाम नारा समाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की एकता का प्रतीकात्मक नारा है। इस नारे को सैद्धांतिक और व्यवहारिक रूप देना है। मैं भी इस पर काम कर रहा हूं। बौद्ध राजनैतिक सिद्धांत पर एक अध्याय लिखने में फंसा हूं। यूरोप मे नवजागरण और प्रबोधन आंदोलनों ने जन्मजात विभाजन खत्म कर दिया था, भारत में कबीर द्वारा शुरी नवजागरण अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। अब सामाजिक न्याय (जातिवाद का विनाश) और आर्थिक न्याय के संघर्ष अलग अलग नहीं साथ लड़ने की जरूरत है। पंजाब के दलितों का जमीन आंदोलन मिशाल है। मैंने उपरोक्त लिंक के दो लेखों और तीसरी दुनिया में सितंबर 2016 'समाजवाद की समस्याएं' तथा समयांतर जून 2016 'कम्युनिस्ट और जाति का सवाल' में इस पर बात की है। ब्लॉग से लिंक शेयर कर रहा हूं। Rajesh Tyagi ट्रॉट्सीपंथियों के पास कोई कार्यक्रम नहीं है तथा वे मार्क्स की वीभत्स व्याख्या के जरिए आंदोलनों के संदर्भ में विध्वंसक भूमिका निभाते रहे हैं। इनका आंदोलनों में योगदान विध्वंसक ही रहा है। एक आंदोलन बतकाइए जिसे विश्व आंदोलन का इंतजार करते मार्क्सवादविरोधी ट्रॉट्सीपंथियों ने चलाया हो। आप विश्वकआ्रांति का इंतजार कीजिए और आंदोलनकारी ताकतों का विरोध। आप ही जैसे विश्वक्रांति का इंतजार करने वालों के लिए मार्क्स ने व्यंग्य किया था कि शुक्र खुदा का मैं मार्क्सवादी नहीं हूं और एंगेल्स ने 1891 में कहा था कि मार्क्सवादी वह नहीं जो मार्क्स या उनके लेखों से उद्धरण पेश करे बल्कि वह जो किसी खास परिस्थिति में वही करे जो मार्क्स करते।