घुमक्कड़पन में मेरे पिताजी भी ऐसे ही थे लेकिन वे कभी नौकरी नहीं किए। कलकत्ता,, दिल्ली बंबई एक-दो बार जरूर गए हैं। दिल्ली में स्टेट्समैं ने गांव के लोग नौकरी करते थे तो वहां आने-जाने के दौरान आजादी के पहले किसी अंग्रेज रिपोर्टर से दोस्ती की कुछ कहानियां कभी बताते थे। ज्यादातर साइकिल से ही आते-जाते थे, 40-50 किमी की दूरियां भी। आपका गांव मेरे यहां से 40-45 किमी होगा लेकिन अक्सर जाते थे, रमापति चाचा भी साइकिल से ही अक्सर आते थे, किसी रिश्ते से उनके भाई लगते थे। आस-पास की सभी बाजारों में कुछ दूर-दराज जैसे कोलिसा, अतरौलिया, कप्तानगंज, शाहगंज, अहरौला आदि बाजारों में उनकी उधारी की दुकानें थीं। हम लोग भी बचपन में देर रात उनके लौटने के लिए देवी देवताओं से मनाते रहते थे। बाबा गरियाते रहते, उनके आते ही शांत हो जाते। इलाके में हम लोग अभी भी उन्हीं के नाम से जाने जाते हैं।
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