फिरकापरस्ती के विरुद्ध कुछ भी लिखने पर, कोरोना को सांप्रदायिक रूप देने वाले कुछ लोग परामर्श देने लगते हैं कि जमातियों पर क्यों नहीं लिखता। फेसबुक पर लिखे पर कमेंट करने की बजाय अलिखे पर लिखने की बिन मांगे परामर्श देने वालों की कमी नहीं है। एक सज्जन ने बिना नाम लिए परोक्ष रूप से विद्वता की चालाकी का तंज कसते हुआ कहा कि जमातियों पर नहीं लिखूंगा और उनकी आलोचना के जवाब में हिंदू-मुस्लिम एकता का झंडा फहराने लगता हूं। उस पर:
जमाती जहालत के साथ हिंदू-मुस्लिम के नरेटिव से समाज में फिरकापरस्ती के विषवमन का विरोधी तो मैं भी हूं। जमाती मरकज में तब्लीगी जहालत और धर्म की अफीम बांटने पर पर दो तथ्यात्मक आलोचना की पोस्ट मैंने डाली थी, इस ग्रुप में मेरी किसी पोस्ट पर 10 लाइक होते हैं तो बहुत खुश होता हूं, उन दोनों पर लगभग 50-50 लाइक लाइक थे। जमातियों की लानतक तो किसी ने नहीं की उस बहाने फिरकापरस्ती की नफरत जरूर कुछ ने फैलाई, जो जारी है। जिन विद्वान की बात आप कर रहे हैं नहीं जानता, मैं तो शिक्षक (रिटायर्ड) हूं उस नाते कोशिस रहती है कि ज्यााद-से-ज्यादा लोगों को विवेकसम्मत इंसान बनने में जितनी मदद कर सकता हूं. करूं। बाकी नदिमागी और शरीर की कोढ़ की भाषा की तमीज की विद्वता उच्च शिक्षित लोग बिखेर ही रहे हैं। विद्वता झाड़ने की कोशस वे करें जिन्हे इसकी हीन भावना सालती हो, मुझे तो प्रोफेसर तथा लेखक होने के नाते लोग मानते हैं, हूं नहीं, यह अलग बात है। वैसे अब से इस ग्रुप में कम-से-कम समय लगाने की कोशिस करूंगा। यह कमेंट तो मैंने दाढ़ी में तिनका महसूस करके कह दिया होशायद पोस्ट करने वाले महोदय का इशारा किसी और ओर हो। मुझे किसी को कुछ कहना होतो दादा जी ने सुंदर सा नाम रखा है, नाम लेकर कह सकता है।
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