Thursday, December 31, 2020

मार्क्सवाद 232 (किसान आंदोलन)

 यह किसान आंदोलन एक ऐतिहासिक आंदोलन है, लंबा चलेगा, फैलेगा, बिहार और महाराष्ट्र तक पहुंच गया है। अब यह राष्ट्रव्यापी बनेगा। सरकार के साथ किसान नेताओं की वार्ता सफल नहीं हो सकती क्योंकि मोदी खेती के कॉरपोरेटीकरण के विश्वबैंक के मसौदे पर अंगूठा लगा चुके हैं, साम्रज्यवाद की वफादारी तोड़ने की उनकी सामर्थ्य नहीं है। अर्थशास्त्रियों का विश्व बैंक का एक पालतू गिरोह है -- नया राजनैतिक अर्थशास्त्र समूह -- जिनका काम तीसरी दुनिया में स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम (एसएपी) लागू करवाना है। उनका मानना है इसके लिए जनप्रतिरोध का निर्मम दमन जरूरी है, इससे सरकार की विश्वसनीयता घटेगी। उसे हटाकर दूसरी बैठा दो। मनमोहन को हटाकर मोदी, मोदी को हटाकर दूसरा मोहरा। उनका मानना है कि तीसरी दुनिया के राजनीतिज्ञ कुर्सी से चिपके रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, इसलिए उन्हें खरीद लो। 'अच्छे लोगों' की पीठ से 'बुरी सरकार का लात' हटाने के लिए उसे खरीद लो।

Wednesday, December 30, 2020

Marxism 41 (Alienation)

 For Marx, alienation exists mainly because of the tyranny of money. He refers to Aristotle’s praxis and production, by saying that the exchange of human activity involved in the exchange of human product, is the actual generic activity of man. Man’s actual conscious and authentic existence, he states, is social activity and social satisfaction.

Moreover he sees human nature in true common life, and if that is not existent as such, men create their common human nature by creating their common life. Furthermore he argues similarly to Aristotle that authentic common life does not originate from thought but from the material base, needs and egoism. However in Marx’s view, life has to be humanly organized to allow a real form of common life, since under alienation human interaction is subordinated to a relationship between things. Hence consciousness alone is by far not enough.
Relating alienation to property, Marx concludes that alienation converts relationships between men, to relationships between property owners.
To satisfy needs, property has to be exchanged, making it an equivalent in terms of trade and capital. This is called the labour theory of value. Property becomes very impersonal. It is an exchange value, raising it to become real value.
The cause of alienation is to be found in capitalism based on private property of means of production and money. Capitalist organized labour exploits the working class. It is actually thrown back at animal level while at the same time the capitalist class gains wealth.

Tuesday, December 29, 2020

मार्क्सवाद 231 (किसान आंदोलन)

 केरल की खेती का पैटर्न अलग है। धान के अलावा अन्य ज्यादातर अनाजों के लिए वह अन्य राज्यों से खरीद पर निर्भर है। चमचे और गुलाम सत्ता के होते हैं, फिरकापरस्ती की नफरत फैलाकर देशके टुकड़े करने वाला अंधभक्तों का गैंग अपनी खीझ मिटाने के लिए अपनी छवि दूसरों पर थोपने की कोशिस करता है।केरल केरल चिल्लाने वाले अंधभक्तों के जानना चाहिए कि वहां मुख्यतः फल और मसालों की खेती खेती होती है। वैसे सीपीएम और अन्य पार्टियों में बहुत गुणात्मक फर्क नहीं है, लेकिन मात्रात्मक फर्क ही उल्लेखनीय असर डालता है। केरल में फल-सब्जियों के भी न्यूनतम मूल्य निर्धारित हैं तथा केरल के किसान खुशहाल किसान हैं। केरल शिक्षा में सभी प्रदेशों से बहुत आगे है। चिलचिलाती ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी के निर्देश पर खेती के कॉरपोरेटीकरण के विरुद्ध डटे किसानों का क्रांतिकारी दृढ़संकल्प ऐतिहासिक है। अंधभक्तों का गैंग और मृदंग मीडिया उनके बारे में कितना भी दुष्प्रचार क्यों न कर ले यह आंदोलन थमने वाला नहीं है। देश-दुनिया के तमाम कामगर उनके साथ हैं। इन बेचारों पर तरस खाना चाहिए। अब बिहार के किसानों ने बिहार की सड़कों को लाल कर दिया है जिससे मृदंग मीडिया और अंधभक्तों में बौखलाहट मच गयी है। बता दें कि किसान आंदोलन की चिन्गारी बिहार से ही उठती रही है चाहे वह चंपारण स् शुरू किसान विद्रोह हो या सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हो, 1960 के दशक का मुसहरी किसान विद्रोह हो या 1980 के दशक का केंद्रीय बिहार (भोजपुर) का किसान आंदोलन। अंधभक्तों के गिरोह और मृदंग मीडिया को यह भी जान लेना चाहिए कि बिहार के इन ऐतिहासिक क्रांतिकारी किसान आंदोलनों का झंडा लाल ही रहा है। क्रांतिकारी किसानों को जयभीम-लाल सलाम। इंकिलाब जिंदाबाद।

Friday, December 25, 2020

मोदी विमर्श 109 (सक्रियता के मोर्चे)

मोदी के पहली बार सत्ता में आने के बाद से ही संघी गिरोह तीन मोर्चों पर कामयाबी के साथ लगा हुआ है -- पहला मोर्चा है वैचारिक, मीडिया को मृदंग बनाना तथा शिक्षा का अनकूलन तथा व्यापारीकरण। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद का ही राजनैतिक संस्करण है। नागपुर गिरोह भलीभांति जानता है कि ब्राह्मणवाद का वर्स्व हजारों साल सास्कृतिक संसाधनों तथा संप्रषण माध्यमों (मीडिया -- कथा वाचन, धार्मिक प्रवचन, कथा वाचन, कर्मकांड आदि) पर नियंत्रण तथा शिक्षा पर एकाधिकार से ही विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद का वर्चस्व हजारों साल बरकरार रहा। उसने कॉरपोरेटी तथा सत्ता के औजारों के बलबूते मीडिया को मृदंग बना दिया। शिक्षा का भगवाकरण, व्यापारीकरण जारी है। राज्य पोषित होने के चलते गरीब-गुरबा, दलित-पिछड़े, आदिवासी आदि वंचित समुदायों केनभीलड़के लड़कियां पढ़-लिख ले रहे हैं/थे। शिक्षा पर हमला कई मोर्चों से हो रहा है, जिसके विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है। 1915-16 में मैंने इस पर कुछ काम किया था उसे अपडेट करके शेयर करूंगा।[ सितंबर 2016 में समकालीन तीसरीदुनिया में, 'ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व' तथा 20015 में वायस ऑफ रेजिस्टेंस में 'न्यू एजूकेसन पॉलिसी, न्यू ईसूज एंड न्यू चैलेंजेज']

दूसरा मोर्चा -- अर्थ व्यवस्था धनपशुओं के हवाले करना जिसमें उन्हें टैक्स में छूट, बैंकों की लूट, तथा सार्वजनिक उपक्रमों की औने-पौने दाम में बिक्री शामिल है।

तीसरा मोर्चा -- आर्थिक मुद्दों, गरीबी, बेरोजगारी, गैरबराबरी, मंहगाई आदि से ध्यान भटकाने के लिए चुनावी ध्रुवीकरण -- जिसमें मुजफ्फरनगर के बाद लो इंटेंसिटी सांप्रदायिक कार्यक्रम तथा राष्टोंमाद शामिल है, जेएनयू, तीन तलाक, दादरी से शुरू गोरक्षक लिंचिंग, कश्मीर -- बुरहान वानीन की हत्या, पुलवामा, बालकोट आदि शामिल है। नागरिकता संशोधन अधिनियम उसी का हिस्सा है। गिरोह ने सोचा था कि मुसलमान पिछले मुद्दों पर आंदोलित नहीं हुआ इस पर होगा, लेकिन उनके आकलन के विपरीत इस पर आमजन और खासकर देश भर का छात्र आंदोलित हो गया है, यह उनके लिए चिंता का विषय है हमें सोचना है कि उनकी चिंता कैसे बढ़ाया जाए। सिकागो में एक प्रोटेस्ट में मेरी बेटी ने 'हिंदू मुसिलिम राजी तो क्या करेगा नाजी' पोस्टर के साथ प्रोटेस्ट में शिरकत की। पूरी मशीनरी, मीडिया और ट्रोल गिरोह प्रोटेस्ट को बजदनाम करने और शातिरानाढंग से हिंदू-मुस्लिम बाइनरी के नरेटिव को बनाए रखने पर पूरे जोर-शोर से जुट गया है। हम सफल होते हैं तो उनकी उल्टी गिनती शुऱू, वे सफल होते हैं तो देश की। वे 2024 के चुनाव में सांप्रदायिक एजेंडे पर काम कर रहे हैं।
26.12.2020

Wednesday, December 23, 2020

बेतरतीब 95 (बेटियों का बचपन)

 Kanupriyaहा हा. मेरी बेटियां तो बहुत बड़ी बड़ी होगयी हैं. छोटी जब छोटी(4-5) थी तो मुझसे तथा अपनी बड़ी बहन पर बहादुरी दिखाती थी, सोसाइटी में अपनी ही उम्र के किसी लड़के से पिट कर आई तो अपनी मम्मी को बताया कि वह लड़का अपनी मां-बाप का नालायक पैदा हुआ है. मैंने थोड़ा मजाक किया तो मुझे पीट दी. बच्चे बहुत सूक्ष्म पर्यवेक्षक तथा नकलची होते हैं. नैसर्गिक प्रवृत्ति महज आत्मसंरक्षण होती है, हम अपना बचपन याद करें या अपने बच्चों का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायंगे बच्चे डांट से बचने के लिेए सच लगने वाले बहाने बनाते हैं. बच्चे अच्छे-बुरे नहीं होते अच्छाई बुराई वे परिवार, परिवेश तथा समाज से सीखते हैं. बच्चे रूसो के प्राकृतिक मनुष्य की तरह निरीह, मासूम जीव होते है। व्यक्तित्व का विकास समाजीकरण से होता है। इसी लिए मां-बाप तथा शिक्षक को मिशाल से पढ़ाना होता है प्रवचन से नहीं.(A teacher has to teach by example and parents have to bring up children by example) 2-3 साल की उम्र से बच्चों की समझदारी बढ़ती है, साथ ही बढ़ती है आज़दी की चाह तथा बढ़ता है मां बाप का आज़ादी पर अलोकतांत्रिक नियंत्रण. इस नियंत्रण में विवेकशीलता की जरूरत है. ज्यादातर मां-बाप अपने मां-बाप के सम्मान में अपने बच्चों से वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा उनके मां-बाप ने उनके साथ किया था, अपनी असुरक्षा तथा दुर्गुण बच्चों में प्रतिस्थापित कर देते हैं, अपनी अपूर्ण इच्छाएं भी. एक कॉलेज के एक शिक्षक अपने बाप की घूसखोरी के लिए जेल यात्रा की कहानी ऐसे बताते हैं जैसे कि वे स्वतंत्रता सेनानी हों. 1991-92 की बात होगी मैं एक साल की कॉलेज की नौकरी के बाद फिर से फ्री-लांसर (बेराजगार) था. यचआईजी फ्लैट में रहता था(यलआईजी फ्लैट ढूंढ़ते ढूंढते थककर य़चआईजी ले लिया, वैसे1100 से सीधे 2000 का जंप बहुत था) छोटी प्रेप में थी बड़ी 4 में. हमारे पास फ्रिज नहीं था. बेटियों को आइसक्रीम खिलाने ले गया था. वापसी में मैंने ऐसे ही तफरीह में पूछा मेहनत मजदूरी की कमाई से ऐसे रहना ठीक है कि चोरी-बेईमानी से ऐशो आराम से. दोनों ने कहा नहीं वे ऐसे ही खुश हैं. छोटी को लगा कि रोज आइसक्रीम खाना शो-आराम है. बहन से बोली, दीदी हम घड़े में आइसक्रीम जमा लेंगे. खैर उसी हफ्ते एक डॉक्यूमेंटरी की स्क्रिप्ट का 10000 का पेमेंट आ गया तथा इमा का ऐशोआराम.एक बार कुछ कर रहा था किसी का फोन आया मन में आया बेटी से कह दूं कि बोल दे घर पर नहीं हूं लेकिन तुरंत सोचा कि कल झूठ बोलने से रोकूंगा तो सोचेगी कि अपने काम से झूठ बोलवाते हो और अपने आप झूठ बोलूं तो आफत. तुम भाग्यशाली हो जो इतनी छोटी बेटियों के साथ बढ़ रही हो, इतने छोटे बच्चों के साथ बहुत मजा आता है बस उनको उनके बारे में अपनी चिंताओं, ओवरकेयरिंग, ओवरप्रोटेक्सन, ओवरयक्सपेक्टेसन से प्रताड़ित मत करना. हा हा. इतनी सलाह मुफ्त में और के लिए फीस इज निगोसिएबल. मेरा प्यार देना.

26.01.2016

Saturday, December 12, 2020

मार्क्सवाद 230(किसान)

 भारत में ज्यादातर पूंजीपति दलाल यानि सरकार-समर्थित (क्रोनी) पूंजीपति हैं। मौजूदा समय में सरकारी संसाधनों की लूट से फूलने-फलने वाले धनपशुओं (पूंजी पतियों) में अंबानी-अडानी के नाम अग्रणी हैं। नए किसान कानूनों के परिणामस्वरूप खेती के संविदादाकरण (contract farming) तथा कॉरपोटीकरण से किसानों की बर्बादी से सबसे अधिक फायदा इन्हीं को होने वाला है। किसानों ने इनके उत्पादों के बहिष्कार का फैसला किया है। राष्ट्रीय आंदोलन के हथियार के रूप में बहिष्कार का पहला प्रयोग बंगाल के बांटने की अंग्रेजी चाल के विरुद्ध 1905 में हुआ। जैसा सब जानते हैं, उसके बाद अखिल भारतीय स्तर पर व्यापक प्रयोग गांधी के नेतृत्व में दनांदोलन के रूप में असहयोग आंदोलन में हुआ जिसने एक तरफ अभूतपूर्व राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया दूसरी तरफ औपनिवेशिक शासन को भयानक झटका दिया।


किसान क्या अंबानी-अडानी से लड़ पाएंंगे..? मार्क्स ने कहा है, अर्थ ही मूल है। धनपशुओं की ताकत उनके आर्थिक साम्राज्य की ताकत में निहित है। क्या किसान अंबानी-अडानी के साम्राज्य को डिगा पाएंगे? अंबानी-अदानी जैसे दलाल धनपशुओं ने अपने राजनैतिक एजेंट्स की बदौलत भारतीय राजसत्ता को अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया है, आंदोलित उनके उत्पादों के बहिष्कार का ऐलान कर एक परिपक्व राजनैतिक समझ का परिचय दिया है। किसान संगठनों ने फूट डालकर आंदोलन को तोड़ने की सरकार की कोशिसों को नाकाम कर मुल्क को गुलाम बनाने वाले साम्राज्यवादी कानून के विरुद्ध कमर कस कर डंटे हुए हैं। आइए हम सब अपने अन्नदाता के समर्थन में जिओ सिम का बहिष्कार करें। किसानों के आंदोलन की सफलता के लिए गैर किसानों का समर्थन आवश्यक है।

Sunday, December 6, 2020

किसान आंदोलन

 दुनिया में किसान बहुत कम देशों में बचे हैं, पश्चिमी यूरोप में पूंजीवाद का विकास ही किसानों और कारीगरों की क्रमशः खेती और शिल्प उद्योग से बेदखली तथा उनके सर्वहाराकरण से शुरू हुआ। अमेरिका और आस्ट्रेलिया में मूलनिवासियों के जनसंहार और उनकी जमानों पर कृषिउद्योग की स्थापना के साथ यूरोपीय सभ्यता स्थापित हुई। इन देशों में कृषि किसानी तथा व्यापार और उद्योग है। भूमंडलीकरण का एक प्रमुख एजेंडा किसानी का विनाश है। तीसरी दुनिया के देशों में खेती पर सब्सिडी समाप्त कर उनकी बाजार विकसित देशों की सब्सिडाइज्ड कृषि उद्योग के लिए खोलना है। 1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा और खेती के कॉरपोरेटीकरण के मकसद से उन्हें व्यपारिक सेवा एवं सामग्री के रूप में गैट्स समझौते में शामिल किया। कांग्रेस सरकारें उनपर अंगूठा लगाने में हिल्ला-हवाला करती रहीं। पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार ने 2015 में नैरोबी सम्मेलन में उस पर अंगूठा लगा दिया। नई शिक्षा नीति के तहत शिक्षाम के कॉरपोरेटीकरण तथा कृषि कानूनों के तहत खेती का कॉरपोरेटीकरण विश्वबैंक के साम्राज्यवादी मंसूबों की दिशा में उसकी वफादार सरकार द्वारा उठाए गए कदम हैं। न छात्र आंदोलनों को कुचलना इतना आसान है न किसान आंदोलनों को। इनकी सफलता नया इतिहास रचेगी तथा असफलता दीर्घकालिक ऐतिहासिक असंतोष। इन नीतियों का कुप्रभाव भक्तिभाव की मिथ्या चेतना से ग्रस्त सरकारी अंधभक्तों पर भी पड़ेगा क्यंकि उनके बच्चों को भी शिक्षा चाहिए और उन्हें भी रोटी। न तो भजन से ज्ञान की भूख शांत होगी न पंजीरी के प्रसाद से पेट की। मैं तो किसान नहीं हूं लेकिन किसान का बेटा हूं और अब भी खेती से जुड़ा हूं तथा किसान की पीड़ा समझता हूं। जिस तरह ईस्ट इंडिया की दलाली करके मुल्क को उदारवादी पूंजी की औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की गुलामी में जकड़ने में सहायक हिंदुस्तानियों की अगली पीढ़ियां उनपर शर्म महसूस करती है, उसी तरह किसान आंदोलन (तथा छात्र आंदोलन) के प्रत्यक्ष-परोक्ष विरोध कर नवउदारवादी पूंजी के भूमंडलीय साम्राज्यवाद की गुलामी में सहायक सरकारी अंधभक्तों की पीढ़ियां भी उन पर शर्म महसूस करेंगी। औपनिवेशिक और भूमंडलीय साम्राज्यवाद में मुख्य फर्क यह है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीरजाफर बन गए हैं। जय किसान, इंकिलाब जिंदाबाद।

राजा के एक बाउंसर ने कहा सड़कों को घेरने वाले किसान खालिस्तानी हैं

 राजा के एक बाउंसर ने कहा सड़कों को घेरने वाले किसान खालिस्तानी हैं

रानी के खिदमदकारों ने बाउंसर की बात आगे बढ़ाया
मंत्री-संत्री सब बोलने लगे देश के सारे किसान खालिस्तानी हैं
अंधभक्तों ने पंजीरी खाकर भजन गाना शुरू कर दिया
सब किसान खालिस्तानी हैं
और सबूत के रूप में पेश किया कइयों के सिर पर पगड़ी
किसानों ने सुनी नहीं उनकी बात
तोड़ते हुए सिंघु सीमा के बैरीकेड
पहुंच गए राष्टपतिभवन
और घेर लिया संसद भवन
और कहा
सारे मंत्री-संत्री साम्राज्यवाद के कारिंदे हो गए थे
इसीलिए दिया उनको कुर्सी से उतार
और फहरा दिया संसद के द्वार पर पताका
लिखा है जिस पर इंकलाब जिंदाबाद

6 दिसंबर

Sunday, November 29, 2020

लल्ला पुराण 367 (साम्यवाद)

 व्यंग्यविधा को विकृत करने वाले, लूट का माल औरों में बांटकर सोने की चेन खुद लेकर पहनने वाले बहुत ही ओछी सोच के हैं आपलोग। पहली बात तो पतला आदमी थोड़ी सी जगह में सिमटकर बैठ लेगा या अपना बोझ ढोने में थके बेचारे मोटे को फैलकर बैठने देगा और खुद खड़े होकर यात्रा का आनंद उठाएगा। दूसरी मोटा पतले को पीट ही नहीं सकता क्योकि ताकत वजन से नहीं साहस से आती है। तीसरी बात डफली बजाकर क्रांतिकारी गीतों के साथ प्रदर्शन करने वाले नव जवान पढ़े-लिखे विवेकशील इंसान होते हैं वे व्यवस्था के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, बजरंगी धर्मोंमादियों की गोहत्या तरह अफवाह पर मॉबलिंचिंग नहीं करते। वे समानता दूसरों के इस्तेमाल की चीजें छीनकर नहीं, उत्पादन के साधनों पर निजी की बजाय सामाजिक स्वामित्व की स्थापना से लाना चाहते हैं। व्यंग्य लेखन बहुत उपयोगी और मुश्किल विधा है। हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल तथा इबने इंसां को विनम्र नमन। चैनलों का चित्रण समुचित किया गया है। बाकी जपनाम।

Thursday, November 26, 2020

फुटनोट 254 (आत्मालोचना)

 व्यक्तिगत और सामूहिक-समुदायिक आत्मावलोकन और आत्मालोचना बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। इसीलिए मैं लगातार आत्मावलोकन, मंथन और आत्मालोचना करता रहता हूं, जो बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक होने के साथ वस्तुनिष्ठ निर्णय पर पहुंचने में सहायक होता है। इसीलिए परमार्थभाव को स्वार्थभाव पर तरजीह देता हूं, तथा उसी भाव से चिंतन-मनन के बाद ही विचार व्यक्त करता हूं। और चूंकि वे मानवता की सेवा में समुचित लगते हैं इसीलिए उनके प्रसार का प्रयास करता हूं। जब गलत लगेंगे तो बदल देंगे। और विचार अमूर्त होते हैं जिनका इस्तेमाल इंसान करता है, विचार किसी का इस्तेमाल नहीं करते। जो विचार मानवता की सेवा में सार्थक लगते हैं हम उन्हें सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के उद्देश्य से ज्यादा-से-ज्यादा व्यापक बनाना चाहते हैं।

Monday, November 23, 2020

लल्ला पुराण 366 (हामिद अंसारी)

 मैंने हामिद अंसारी का पूरा भाषण पढ़ा और उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है, उन्होंने राष्ट्रवाद की नहीं, धर्मोंमादी विकृत राष्ट्रवाद की आलोचना की है जिसके परिणाम स्वरूप देश का विभाजन हुआ और जिसके घाव नासूर बन सांप्रदायिक नफरत के रूप में अब तक रिस रहे हैं। फासीवाद और नाजीवाद के रूप में जिस राष्ट्रोंमाद ने मानवता के इतिहास को सदा के लिए कलंकित कर दिया है। रवींद्रनाथ टैगोर अंग्रेजों के चाटुकार नहीं थे, अंग्रेजों के चाटुकार उपनिवेश-विरोधी नागरिक राष्ट्रवाद को धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर उपनिवेश विरोधी आंदोलन को कमजोर करने वाली दोनों समुदायों की सांप्रदायित ताकतें थीं। हामिद अंसारी ने यही कहा है कि पिछले 4 सालों में नागरिक राष्ट्रवाद विकृत होकर कट्टरपंथी राष्ट्रोंमाद बन गया है। इसी राष्ट्रोंमाद की आड़ में, जैसा कि मुसोलिनी की इटली और हिटलर की जर्मनी में हुआ था राज्य को कॉरपोरेटी सेवा का टूल बनाया जा रहा है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर-डिप्टी गवर्नर समेत अर्थशास्त्रियों की राय को दरकिनार कर बैंकिंग सेक्टर में कॉरपोरेटों को लाइसेंस देने की नीति बनाई जा रही है। रेल-हवाई अड्डों समेत सारे सार्वजनिक उपक्रम धनपशुओं के हवाले किए जा रहे हैं, संसद में बहुमत के जरिए स्वास्थ्य, शिक्षा और खेती का पूर्ण कॉरपोरेटीकरण किया जा रहा है जिसके विरुद्ध देशभर के किसान और छात्र आंदोलित हैं। महामारी का फायदा उठाकर देश पर जनविरोधी आर्थिक नीतियां लागू की जा रही हैं। राष्ट्रविरोधी हामिद अंसारी नहीं, धर्मोंमादी राष्टोंमाद की भावनाएं उछालकर मुल्क के आमजन को तबाह करने वाली नीतियों के समर्थक हैं। रवींद्रनाथ टैगोर, टॉलस्टॉय या आइंस्टाइन राष्ट्रवाद को नहीं इस तरह के राष्टोंमाद को बुराई मानते थे जिसे लगभग 300 पहले एंडर्सन ने हरामखोरों की शरणस्थली बताया था। एंडर्सन, टैगोर, टॉलस्टॉय, आइंस्टाइन के विचार ऑनलाइन उपलब्ध हैं। नफरत पर आधारित धर्मोंमादी राष्ट्रवाद संविधान आधारित वास्तविक, नागरिक राष्ट्रवाद का विकृत रूप है।

Saturday, November 21, 2020

ईश्वर विमर्श 97 ( अरब मे बहुदेव वाद)

 इस्लाम के पहले अनेक प्राचीन समुदायों की तरह अरब में भी बहुदेववादी धर्म का प्रचलन था। अपने ही खुदा को परमात्मा मानने वाले इस्लामवादियों से हम पूछते हैं कि 7वीं सदी में इस्लाम से पहले खुदा नहीं था क्या? 2011 में फेसबुक पर धर्मों की उत्पत्ति के इतिहास पर एक कमेंट लिखा गया था जिसे एक लेख के रूप में विकसित कर एक पत्रिका में छापया था, खोजकर शेयर करूंगा। सभी प्राचीन धर्म विस्मयकारी प्राकृतिक शक्तियों के विस्मय की नासमझी के चलते भयाक्रांत श्रद्धा से उत्पन्न हुए जो कालांतर में देश-काल के अनुसार बदले देवी-देवताओं (खुदा-गॉडों) के भय में बदल गए। जिस तरह हमारे देवलोक में हर बात के देवी-देवता होते है उसी तरह प्राचीन मिस्र, अरबी, यूनानी पौराणिक देवलोक में भी हर बात के अलग अलग-देवी देवता होते थे जिन्हें एकेश्वरवादी ईशाई और इस्लाम धर्मों ने प्रतिस्थापित कर दिया। सभी में देवी-देवताओं की प्रार्थना बलि से होती थी। सही कह रहे हैं सूर्य की पूजा (छठ पूजा) प्रचीन काल में सप्तसैंधव वैदिक आर्यों की ही तरह इरान में भी होती थी जो इस्लाम के प्रसार के बावजूद आज भी जारी है। सभी समुदाय अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के अनुसार अपने इहलोक की ही आदर्शीकृत छवि में अपने उहलोक का निर्माण करते हैं। मध्ययुग में रोमन कैथोलिक चर्च का देवलोक तत्कालीन यूरोपीय सामंती समाज का ही परिष्कृत अमूर्तन था। हमारा देवलोक वर्णाश्रम समाज का ही परिष्कृत रूप है।

ईश्वर विमर्श 96 (ईश्वर की त्पत्ति)

 आइंस्टाइन ने कहा है ईश्वर की उत्पत्ति भय से हुई है। यहां के ही नहीं सब जगहों के संदर्भों में, ईश्वर की उत्पत्ति में प्रश्नाकुलता तथा विस्मय की भूमिका तो रही ही है, उनमें भय और अनभिज्ञता भी शामिल रही हैं। आज भी आस्था के पीछे उहलौकिक कृपा और भय की भावना ही प्रबल है। वैदिक देवता वे प्राकृतिक शक्तियां थीं जिनका जीवन में विस्मयकारी महत्व था और जिनकी प्रवृत्तियों हमारे वैदिक पूर्वजों की जानकारी से परे थीं। यूनानी प्राचीन समुदायों की भी यही स्थिति थी। उपनिषद काल वैदिक काल के बहुत बाद आता है। यहां ही नहीं हर जगह धार्मिक तथा दार्शनिक परंपराएं साथ साथ चलीं। हमारे तथा यूनानी प्रचीन दर्शनों में आध्यात्मिक तथा नास्तिकता समेत भौतिकवादी परंपराएं भी रही हैं। सारा बौद्ध साहित्य प्रश्नोत्तर स्वरूप में है तथा मूलतः भौतिकवादी है।

Thursday, November 19, 2020

फुटनोट 253 (कामाख्या)

 हम पहली बार (1981 में) जब खूबसूरत पहाड़ी पर स्थित कामाख्या गए तो ब्राह्मणों के शाकाहारी होने का दृढ़ पूर्वाग्रही विश्वास था। हमारा नया नया चयनित आईपीएस मित्र अपने लाव लस्कर के साथ हमारा मेजबान था और हमें बिना लाइन में लगे प्रवेश मिल गया। प्रवेश द्वार के बाहर बलि की बेदी थी। पता चला अगर एक छटके में सिर न कटा तो मन्नत में कुछ खोट माना जाता है। पहुंचते ही एक बलि देखने को मिली पंडे के वार के एक झटके में मुंडी अलग और इतनी फुर्ती से चमड़ा हटाया कि कोई चिक भी इतनी फुर्ती क्या दिखाएगा? मुंडी पंडे की और धड़ भक्त का। कहीं कहीं पुजारी अब्राह्मण होते हैं, जैसे कड़ा मानिकपुर में पंडे माली होते हैं। मैंने उत्सुकताबश एक पंडा से पूछ लिया कि बलि का प्रसाद पंडा खाते हैं क्या? उन्होने गुस्से में जवाब दिया और क्या? फिर डर डर कर पूछा पंडाजी ब्राह्मण होते हैं? इस पर तो ज्या गुस्से में बोले और क्या? मेरा मित्र गुस्से में वहां से खींचकर दूर ले गया और समझाया कि यहां पंडा लोग से पंगा नहीं लेना है। वैसे मुझे ब्रह्मपुत्र के बीचो-बीच उमानाथ मंदिर का लोकतेसन ज्यादा रमणीय लगता है। उसके बाद तो उत्तर-पूर्व की कई यात्राएं की। इस मई में केंद्रीय विवि तेजपुर और अप्रैल में नेहू (शिलांग) के आमंत्रण रद्द हो गए।

Wednesday, November 18, 2020

फुटनोट 252 (आर्य-अनार्य)

 बंटे हुए को कौन बांट सकता है? हिंदू कौन है? बाभन कि दलित? चितपावन कि मराठा? आर्य और आर्येतर प्रजातियां ऐतिहासिक तथ्य हैं तथा अनार्य आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन की लूट अभी तक जारी है। पौराणिक सुर-असुर संग्राम आर्य-अनार्य संघर्ष का ही मिथकीकरण है। इतिहास की चर्चा करने का मतलब उसे पलटना नहीं है। आज इंका-अजटेक सभ्यताओं के विनाश की यूरोपीय बर्बरता पर टनों साहित्य लिखा जा चुका है। अनादिकाल से लोग एक जगह से दूसरी जगह तमाम कारणों से आते-जाते-बसते रहे हैं। अतीत के पुनर्निर्माण का शगूफा भविष्य के विरुद्ध साजिश है। अतीत नहीं सुधारा जा सकता उसके इतिहास से सबक सेकर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है।

नजर खोने से भव तिमिरमय दिखता है

 नजर खोने से भव तिमिरमय दिखता है

नजरिया खोने से भ्रांति सत्य दिखता है

अहम एक आत्मघाती अनुभूति है
ब्रह्म दिल बहलाने की मिथ्या प्रतीति

किसी को अपना बनाना इंसान को मिल्कियत बनाने का बहाना है
जनतांत्रिक पारस्परिकता प्यार के अधिकार और सुख का फसाना है

सभी में होते हैं स्वार्थ और परमार्थ के द्वंद्वात्मक तत्व
सुखी होता है वह देता जो स्वार्थ पर परमार्थ को महत्व

गम-ए-जहां में मिला देते हैं जब गम-ए-दिल
दिखती है दुनिया तब एक खूबसूरत महफिल

चलते रहें अकेले किसी मृगतृष्णा की चाह में
मिलकर चलते हैं जब मिलती हैं मंजिलें राह में

जीने का कोई जीवनेतर मकसद नहीं होता
अपने आप में मकसद सूलों की जिंदगी जीना

करते हैं यदि हम निजी हितों का तुलनात्मक आकलन
परमार्थी जीवन के खाने में पाते हैं ऋण से अधिक धन

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों चुनो तार्किकता का रास्ता
इंसानियत की भलाई में ही है निजी भलाई का वास्ता

हो यदि एक तरफ सच्चाई और दूजी तरफ लोकप्रियता
चुनो सच्चाई, अल्पकालिक होता है वजूद लोकप्रियता का

हो यदि एक तरफ सच्चाई और कठिनाई दूजी तरफ
चुनो सच्चाई आसान हो जाएगा कठिनाई का हरफ

(ईमिः 19.11.2020)

Sunday, November 15, 2020

शिक्षा और ज्ञान 298 (निजीकरण)

 इन्फोसिस ने कहा कि भारतीय विश्वविद्यालयोंसे निकले विद्यार्थी बेकार होते हैं, इसलिए वह अपना विश्वविद्यालय खोलेगा। क्या बात है सारे पूंजीपति, ज्ञान की दुकानें खोलकर लोगों को ज्ञानी बनाना चाहते हैं जिससे वे गरीबी असमानता तथा पिछड़ेपन के मूल की समझ हासिल कर मुल्क को बेहतर बना सकें? दर-असल स्वास्थ्य और शिक्षा अतिरिक्त पूंजी निवेश के सुरक्षित और अतिशय लाभप्रद क्षेत्र हैं। 5 हजार का इंजेक्सन निजी अस्पताल 40 हजार में लगाते हैं। 125 रुपया सालाना फीस की पढ़ाई 1250,000 में होगी। 1995 में विश्वबैंक द्वारा शिक्षा और खेती को व्यापारिक सेवा तथा सामग्री संविदा (गैट्स) में शामिल करने के बाद उसकी वाफादार सरकारें शिक्षा के निजीकरण और व्यापारीकरण की मुहिम में जी-जान से लगकर लोगों को 'आत्मनिर्भर' बनाने में जुटी हैं। इन्फोसिस की मुहिम साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी द्वारा विश्वविद्यालय को ज्ञान के केंद्र से कारीगर-प्रशिक्षण की दुकानें बनाने की साजिश का हिस्सा है। इनफोसिस वालों से पूछिए फीस कितनी लेंगे? हरखू की बिटिया कहां पढ़ेगी? हमारे विश्वविद्यालयों से पढ़कर विदेशों में जाकर ही हरगोविंद खुराना और अभिजीत बनर्जी क्यों बनते हैं? यहां लोगों को परजीवी अरबपति नहीं दिखते मास्टरों का आराम से खाने-पीने भर का वेतन खलने लगता है? घर चलाने भर का वेतन मिलेगा तभी वह शोध कर-करवा सकेगा, छात्रों को पढ़ाने के लिए पढ़ सकेगा। जिस देश का शिक्षक दरिद्र और दयनीय रहेगा वह दरिद्रता और कूपमंडूकता को अभिशप्त रहेगा। 6ठें वेतन आयोग ने बाकी सरकारी कर्मियों की हीनतरह शिक्षकों का वेतन सम्मानजनक बना दिया वरना उन्हें घर चलाने के लिए पूरक आय का काम करना पड़ता था, जिसके लिए जाहिर है समय वह शैक्षणिक उत्तरदायित्व के समय में से ही चुराएगा। 6ठें वेतन आयोग के पहले अधिकतम 4-5% शिक्षकों के पास कारें होती थीं। अब भी उनके पास मारुति और एमआईजी फ्लैट ही हैं, बीएमडब्लू और कोठी नहीं। विश्वविद्यालय की गुणवत्ता और व्यवस्था में परिवर्तन की जरूरत तो है लेकिन जैसा कि अंग्रजी की सटीक कहावत है, टब के गंदे पानी के साथ बच्चे को नहीं फेंक देना चाहिए बल्कि टब का पानी बदल देना चाहिए। सुधार के तरीकों में सबसे जरूरी है, नियुक्तियों में मठाधीशी खत्म कर पारदर्शिता लाने की, जो सरकारें आसानी से कर सकते हैं, यदि राजनैतिक इच्छा हो तो, वरना सभी प्रतिस्पर्धी नौकरियों से खारिज होने के बाद लोग जुगाड़ (गॉडफादरी कृपा) से शिक्षक बन जाते हैं।

ब्राह्मणवाद

  हम ब्राह्णण का विरोध नहीं करते बल्कि जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाली विचारधारा, ब्राह्मणवाद का। ऐसा करने वाले जन्मना अब्राह्मण भी उसी कोटि में आते हैं, जिन्हें नामकरण की सुविधा के लिए नवब्राह्मणवादी कहा जा सकता है। मुझसे लोग पूछते थे कि सोसलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण क्यो होते हैं? कबीर जैसे अपवादों को छोड़कर, प्रमुखतः समाज और इतिहास की समग्रता में वैज्ञानिक समझ वही विकसित कर सकते हैं जिन्हें बौद्धिक संसाधनों की सुलभता हो। पारंपरिक रूप से ब्राह्मणों को बौद्धिक संसाधनों की सुलभता रही है तथा आधुनिक शिक्षा में भी वही अग्रणी रहे। हमारे समय में इवि में लगभग 99 फीसदी शिक्षक ब्राह्मण और कायस्थ थे। प्रोफेसरों की लॉबींग भी इन्ही जातियों की थी-ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी। वामपंथी समझे जाने वाले ज्यादातर इतिहासकार और बुद्धजीवी ब्राह्मण ही थे चाहे राहुल सांकृत्यायन हों या डीडी कोशांबी, नागार्जुन हों या धूमिल, हजारी प्रसाद द्विवेदी हों या मुक्तिबोध, देबी प्रसाद चट्टोपाध्याय हों या गोरख पांडे......, नृपेन चक्रवर्ती हों या सरयू पांडे, इंद्रजीत गुप्त हों या विनोद मिश्र। शिक्षा की सार्वभौमिक उपलब्धता से समीकरण बदल रहे हैं। बदलते समीकरणों के चलते ही ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बचाने-बढ़ाने के लिए उसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति के रूप में हिंदुत्व की विचारधारा गढ़ी गयी जिसे मृदंग मीडिया एवं भक्त समुदाय राष्ट्रवाद के रूप में प्रक्षेपित कर रहा है। बदलते समीकरम के चलते ब्राह्मणवादी वैचारिक वर्स्व को मिलने वाली चुनौती के ही चलते संघ के प्रतिनिधित्व में ब्राह्मणवादी खेमे की बौखलाहट दिख रही है।

Saturday, November 14, 2020

तलाश-ए-माश

 एक ग्रुप में एक मित्र ने फीस बढ़ोत्तरी के विरुद्ध जेएनयू आंदोलन का मजाक बनाने के लिए तथा मेरे वेतन पर तंज करने के लिए (शायद) जेएनयू के प्रोफेसरों का वेतन पूछा, वैसे प्रोफेसरों की आय का छात्रों की फीस से कोई संबंध नहीं है, उसका जवाब आप सबके विचारार्थ पोस्ट कर रहा हूं।


जेएनयू में प्रोफेसरों को उतना ही वेतन मिलता है, जितना इलाहाबाद विवि, बीएचयू, अलीगढ़, दिल्ली विवि या किसी भी केंद्रीय विवि के प्रोफेसर को। वैसे मैं जेएनयू का छात्र रहा हूं, प्रोफेसर दिवि में था। प्रशासन जेएनयू का उतना ही सरकार परस्त रहता है जितना अन्य विश्वविद्यालयों का। नौकरी की तलाश में तमाम विश्वविद्यालयों की खाक छाना, कुछ सैभाग्यशाली संयोगों के मेल से देर से ही सही दिवि में मिल गयी। (प्राथमिकता में ऊपर जेएनयू और इवि थे)। विश्वविद्यालय-कॉलेजों में 99.9% नौकरियां 'एक्स्ट्रा-अकेडेमिक कंसीडरेसन' पर मिलती हैं, 0.1% संयोगों की दुर्घटना से। मैं कम उम्र में नास्तिक हो गया जब गॉड ही नहीं था तो गॉडफादर कहां से होता? इलाहाबाद विवि में 1986 में 1 घंटा 29 मिनट इंटरविव चला (सही सही समय इसलिए पता है कि बाहर इंतजार में बैठे लोग कुतूहलबस क्लॉक कर रहे थे)। 6 पोस्ट थीं, मैं इतना आशान्वित हो गया था कि सोचने लगा गंगा पार नया नया झूसी बन रहा था, वहां घर लूं कि इस पार तेलियरगंज में। हा हा। 1 साल बाद तब के कुलपति एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में द हेग (नीदर लैंड) में मिले और चहककर बताए कि वे तथा एक्सपर्ट मेरे प्रकाशन (तब 2 ही थे) और मेरी प्रस्तुति से इतने गदगद हुए थे कि 'तमाम तर के बावजूद' वे मेरा नाम पैनल में नंबर 7 पर रखने में सफल रहे थे। मैंने कहा था कि जब 6 ही पद थे तब नंबर 7 पर रखते या 70 पर क्या फर्क पड़ता? चुने गए 6 लोगों में इवि के बच्चों ने बताया कि कुछ प्रयागराज प्रोफेसर हैं। (जो दिल्ली में रहते हैं प्रयागराज ट्रेन से कभी कभी आते हैं और क्लास लेकर वापसी की उसी ट्रेन से चले जाते हैं।) हो गया होता तो मेरे लिए कितना अच्छा होता, घर से संपर्क बना रहता तथा शायद छात्रों के लिए भी। खैर क्या होता तो क्या होता, बेकार की बात है। आपने छोटा सा सवाल पूछा मेरे वेतन पर तंज कसने के लिए और मैं नॉस्टेल्जियाकर लंबे जवाब में फंस गया। वैसे मुझसे लोग जब कहते थे कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई, देर से नौकरी मिली? मेरा जवाब होता था कि नाइंसाफी की शिकायत तो तब हो जब यह मानूं कि समाज न्यायपूर्ण है। मैं तो पोस्टर लेकर घूमता हूं कि यह अन्यायपूर्ण समाज है, इसे जल्द-से-जल्द बदल देना चाहिए। अन्यायपूर्ण समाज में निजी अन्याय अंतर्निहित होता है।

जहां तक देर से मिलने का सवाल है तो सवाल उल्टा होना चाहिए, मिल कैसे गयी? भाग्यशाली था कि मिल गयी और 2004 में जाते-जाते अटल बिहारी सरकार द्वारा पेंसन योजना खत्म करने के पहले। अंत में आपके सवाल का जवाब संक्षेप में: जेएनयू ही नहीं छठे वेतन आयोग के बाद हिंदुस्तान के सभी विश्वविद्यालय-कॉलेजों के प्रोफेसरों को समान तथा इतना सम्मानजनक वेतन मिलने लगा था कि सब कार में चल सकें तथा कर्ज पर फ्लैट लेकर ईएमआई दे सकें। भला हो तत्कालीन शिक्षामंत्री अर्जुन सिंह का। लेकिन शिक्षक भी सुविधाजनक जीवन जी सके यह धनपशुओं की चाकर व्यवस्था को बर्दाश्त नहीं तथा इसके लिए वह ज्ञान की दुकानें खोल रही है, मौजूदा विश्नविद्यालयों का बाजारीकरण कर रही है तथा शिक्षकों को ठेका-मजदूरों में तब्दील कर रही है। दिल्ली विवि में हजारों शिक्षक एढॉक तथा गेस्ट (दिहाड़ी मजदूर) हैं, कई कई दशकों से। निजी विवि 20-25 हजार देते हैं। अनिश्चितता के भय में जी रहे शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे निर्भीक नागरिक तैयार करें? यह जवाब उम्मीद है आपके 'कौतूहल' को शांत कर सके, नहीं तो प्रति-प्रश्न के लिए आप स्वतंत्र हैं। बाकी जेएनयू के छात्रों को मजदूरी करके पढ़ाई करने की आपकी सलाह पर मेरे प्रशन का जवाब आपने नहीं दिया कि आपने अपनी पढ़ाई के दौरान कितनी और क्या मजदूरी की थी? वैसे मैंने 18 साल की उम्र में घर से पैसा लेना बंद कर दिया था और खुद की पढ़ाई के साथ भाई-बहन की पढ़ाई की भी आर्थिक जिम्मेदारी का वहन किया।

14.11.2019

Thursday, November 12, 2020

बेतरतीब 93-94 (बचपन 16)

 विद्याधर की कहानी के समानांतरअपनी कहानी आगे बढ़ाते हुए पृष्ठभूमि के तौर पर जैसा कि विद्याधर के विद्रोह -1, कमेंट में लिखा, हमारे बचपन में हमारा गांव शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़ा था, साक्षरता दर वयस्कों में ही नहीं, बच्चो में भी नगण्य थी। आम तौर पर 6-7 साल में बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे। मेरा छोटा भाई मुझसे एक-डेढ़ साल ही छोटा था तथा घर के कामों से बचा मां-दादी का ध्यान उसी पर रहता था तो मैं 4 साल की उम्र से ही अपने से 4-5 साल बड़े भाई के पीछे-पीछे स्कूल जाने लगा। प्री-प्राइमरी को औपचारिक रूप से अलिफ कहा जाता था और वैसे गदहिया गोल। अब सोचने पर लगता है कि कि ग्रामीण संवेदना कितनी क्रूर होती है कि अनंत संभावनाओं वाले मासूमों को हम गधा कह देते हैं। दो ही विषय पढ़ए जाते थे, भाषा (हिंदी) और गणित (संख्या)। स्कूल में 3 कमरे थे 3 शिक्षक। अलिफ (गदहिया गोल) और कक्षा 1 एक कमरे में एक शिक्षक ,पंडित जी, 2 और 3 को बाबू साहब तथा 4और5 को हेडमास्टर, मुंशीजी पढ़ाते थे। (मुंशी जी के बारे में अपने ब्लॉग में उनसे उनसे लगभग 100 साल की उम्र में मुलाकात का संस्मरण अपने ब्लॉग में लिखा है, वे पतुरिया जाति के थे तथा मेरे, 1963 में कक्षा 4 में पहुंचने तक रिटायर हो गए थे।) दोपर बाद प्रायः धूप में या स्कूल के सामने नीम की छांव में गदहिया गोल के बच्चे गिनती या पहाड़ा रटते। मुझे जल्दी ही 20 तक का पहाड़ा याद हो गया। इकाई की जगह हमलोग काई का उच्चारण करते, जैसे 6 सते 42 - 4 दहाई, एक (इ)काई। 3-4 महीने में पंडित जी को 4 साल के बच्चे में क्या प्रतिभा नजर आई कि उन्होंने गदहिया गोल से मुझे कक्षा 1 में टंका दिया। 1,2,3, 4 में अपने से 2-3 साल बड़े लड़कों के साथ था। 4 में पहुंचने पर मुंशी जी के रिटायर होने पर बाबू साहब हेड मास्टर बने और कक्षा 4 तथा 5 को पढ़ाने लगे। कक्षा के कोने में मिट्टी का एक चबूतरा बना था, बाबू साहब कभी कभी कुर्सी की बजाय चबूतरे पर भी बैठते। चबूतरे के सामने टाट पर कक्षा 5 के 7-8 लड़के बैठते उसके बाद 4 के 8-10। कक्षा 5 में मेरे गांव के एक उपाध्याय जी थे जो मेरे बड़े भाई के लगभग हमउम्र थे 2 लड़के नदी पार के एक गांव गोखवल के जयराम यादव और श्रीराम यादव बहुत बड़े-बड़े बड़े थे। जैसा मैंने विद्याधर के विद्रोह-भाग 1 के कमेंट में लिखा कि कक्षा 4 में पढ़ते 2-3 महीने हुए थे कि डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआयना पर आए थे। डिप्टी साहब का मुआयना स्कूलों की बड़ी परिघटना होती थी। उन्होंने कोई अंकगणित का सवाल कक्षा 5 वालों से पूछा, सब खड़े हो गए। कक्षा 5 वालों की लाइन के बाद 4 की लाइन में मैं आगे बैठता था और तपाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब बहुत खुश हुए। बाबू साहब ने साबाशी में कहा कि मैं 4 में था तो वे बोले इसे 5 में करो और अगले दिन मैं 5 में बैठ गया। कक्षा 5 की बाकी कहानी ब्लॉग के उपरोक्त लिंक में है। एक बात दोहरा दूं। जब मैं 5 वालों के साथ बैठा सब ऐसे देख रहे थे जैसे उनका खेत काट लिया हूं। बाबू साहब ने पहुंचते ही मेरे वहां बैठने पर सवाल उठाया और कहा कि भेंटी भर का हूं लग्गूपुर (7-8 किमी दूर मिडिल स्कूल का गांव) के रास्ते सलारपुर का बाहा में बह जाीओ गे। (धान के खेतों से बरसात के पानी की निकासी की नाली को बाहा कहा जाता था, एक बार बहने भी लगा था), मैंने कहा 'अब चाहे बही, चाहे बुड़ी, डिप्टी साहब कहि दीहेन त हम अब पांचै में पढ़ब। हा हा ।

बचपन 15

 मेरी कहानी विद्याधर से मिलती जुलती है, उनके दादा जी वैद्य थे, मेरे परदादा वैद्य के साथ संस्कृत और फारसी के भी नज्ञाता माने जाते थे। मेरे दादा जी पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे। मुधे प्रीप्राइमरी से कक्षा एक में तो पंडितजी(हमारे शिक्षक) ने प्रोमोट किया था, 4 से 5 में डिप्टी साहब ने। जो कहानी कल फोन पर बताया था, उसे कल लिखूंगा, जब कक्षा 9 में पढ़ने शहर (जौनपुर) गया तो एक लड़का दाढ़ी-मूछ वाला था। उसे मैंने सोचा अपने छोटे भाई को छोड़ने आया होगा और उसने सोचा मैं अपने बड़े भाई के साथ आया होगा। जब क्लास शुरू होने वाली थी तो उसने मुझे कक्षा से बाहर जाने को कहा, मैंने कहा मैं उसी क्लास में था। उसने और स्पष्ट किया कि वह कक्षा 9 का क्लासरूम था। मैंने जब बताया कि मैं भी उसी क्लास में पढ़ता हूं, तो उसने पूछा कैसे? पहली क्लास गणित की थी, शिक्षक बहुत अच्छे थे लेकिन पहले अनुभव के चलते उनकी इज्जत करने में मुझे काफी समय लग गया। उन्होंने पूछा उस क्लास में कैसे बैठा हूं मैंने बताया कि मिडिसल स्कूल पास कर उसी क्लास में एडमिसन लिया हूं। उसने डिवीजन पूछा तो मैं विनम्रता मैं यह नहीं बोला कि आजमगढ़ जिले में पहला स्थान है केवल फर्स्ट डिवीजन बताया। गुरूजी बहुत क्रूर संवेदना का परिचय देते हुे पूछा नकल करके? मैं अपमान से तिलमिला कर चुप रह गया। शिक्षक इतने अच्छे थे कि जल्दी ही यह अपमान भूल गया। मिडिल स्कूल वाली घटना कल लिखूंगा।

Wednesday, November 11, 2020

समृति (देवी प्रसाद त्रिपाठी)

 

समृति

डीपीटी (देवी प्रसाद त्रिपाठी)
 एक साहित्यिक व्यक्तित्व

ईश मिश्र

अद्भुत मेधा, स्मरणशक्ति एवं असाधारण मानवीय संवेदना से ओतप्रोत, असाधरण साधरणता के व्यक्तितव वाले मित्रों के मित्र, त्रिपाठीजी ( पूर्व सांसद, देवी प्रसाद त्रिपाठी) के अचानक चल देने से ठगा सा महसूस करने लगा। कैंसर के अंतिम चरण के बावजूद लगता था कि ऐसे जीवट वाले इंसान का मौत भी कुछ नहीं कर सकती, लेकिन मौत ही अंतिम सत्य है, और अनिश्चित। 10-5 दिन पहले जिससे, जिसके जीवन की अगली योजनाओं पर बात हुई हो, कुछ ही दिन पहले कुछ ही दिन बाद जिसके जन्मदिन के उत्सव की तैयारी की बात हो रही हो, उसकी श्रद्धांजलि लिखना कितना हृदय-विदारक होता है? क्रिसमस के चंद दिनों पहले त्रिपाठी जी (डीपीटी) से अगले 5-6 साल की जीवन की योजनाओं पर बात हुई। लेकिन 2020 के दूसरे ही दिन सारी योजनाओं को धता बताते हुए वे सदा के लिए दुनिया छोड़कर चले गए। 6 जनवरी 2020 को त्रिपाठी जी अपनी सत्तरवीं वर्षगांठ पर, पहली बार बड़े पैमाने पर इंडिया इंटरनेसल सेंटर में अपना जन्मदिन मनाने वाले थे। आमंत्रण के लिए जेएनयू के मित्रों की सूची बनाने की जिम्मेदारी मित्र कुमार नरेंद्र सिंह की थी। अब उसी तारीख में कांस्टीट्यूसन क्लब में उनकी समृति सभा होगी। कुछ सालों से कैंसर का इलाज चल रहा था जो कि आखिरी चरण में था। हर महीने कुछ समय अस्पताल में बीतता था डाक्टरों ने पहले ही बता दिया था कि अंत कभी भी आ सकता है लेकिन वे बेपरवाह अपनी तरह की बेफिक्र जिंदगी जी रहे थे जैसे जीवन अभी अनंत है। इसी बेपरवाही से उन्होंने सारी जिंदगी जिया। पिछले 2-3 सालों से, शायद बीमारी की वजह से उनके अंदर एक अजीब सी बेचैनी मुझे लगती थी। दूसरे-तीसरे महीने, कभी कभी बीसवें-पचीसवें दिन एकबैग उनका फोन आता, “कहां हो?”, “घर”, मैं आधे घंटे में आ रहा हूं। और कॉलेज के मेरे घर आ जाते, अक्सर हम घर के बाहर आम के नीचे ही बैठते, जाड़े में आग जलाकर।  अक्सर हम उनके साथ फिरोजशाह रोड (सांसद का उनका आवास) या इंडिया इंटरनेसनल सेंटर चल देते। कोई इलाहाबाद के मित्र या सीनियर/विशिष्ट व्यक्ति आते तो उनका फोन आ जाता, आ जाओ। एक बार आए बोले आधा घंटा सोऊंगा और सो गए। डेढ़-दो घंटे बाद उठे तो नाराज हो गए कि जगाया क्यों नहीं? और तुरंत तैयार हो कर साथ चलने का आदेश देते।   

उऩके अंतिम संस्कार (3 जनवरी 2020)में शामिल लोगों की उपस्थिति से उनके संबंधों के फलक का पता चलता है। किस तरह का संसार रचा था। दिल्ली के सभी दलों क बड़े राजनेताओं से लेकर सभी रंगत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी,पत्रकार, प्रोफेसर,छात्रनेता,रंगकर्मी,संस्कृतिकर्मी ,मजदूरनेता और किसान नेता उपस्थित थे।
 

 

त्रिपाठीजी में एक देवी प्रसाद त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाकात 1972 में इलाहाबाद में हुई, मैं विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय में प्रथम वर्ष का छात्र था और तब अपने साहित्यक तखल्लुस वियोगी नाम से जाने जाने वाले त्रिपाठी जी वरिष्ठ छात्र या यों कहें कि छात्र नेता थे। लोगों ने बताया कि उसके पिछले साल (1971-72 में) छात्रसंघ के प्रकाशनमंत्री का चुनाव ‘ढक्कन गुरू’ से हार चुके थे। वह चुनाव वे विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशी के रूपमें लड़े थे। मैंने जब से जानना शुरू किया तब वे एक प्रगतिशील साहित्यिक समूह ‘परिवेश’ में सक्रिय थे, समूह के अन्य लोगों में कृष्ण प्रताप सिंह (दिवंगत), विकास नारायण राय, शीश खान, रमाशंकर प्रसाद आदि थे। उनकी पहचान एक कवि के रूपमें थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीनियर-जूनियर के अर्थों में बहुत सामंती माहौल था। कोई भी जूनियर हर सीनियर को सर संबोधित करता था। दो लोगों ने सर कहने से रोका, कृष्ण प्रताप जी और वियोगी, मैंने उन्हें वियोगी जी की बजाय त्रिपाठी जी कहने लगा। 

 

त्रिपाठी जी (डीपी त्रिपाठी), शासक वर्ग की राजनीति में होने के बावजूद वे एक बहुत ही संवेदनशील, बेहतर इंसान थे तथा समाजवाद से उनका मोह बरकरार रहा। सीपाएम से कांग्रेस में संक्रमण काल के पहले, दौरान तथा राजीव गांधी से उनकी निकटता के दौर में मैंने बहुत भला-बुरा कहा, किंतु उनका स्नेह बना रहा। पिछले 10 सालों में तो यदा-कदा अचानक फोन करके कैंपस में घर आ जाते और कई बार गाड़ी में 'लाद कर' फिरोज शाह रोड या इंडिया इंटरनेसनल सेंटर चल देते। गरीबी के दिनों में भी उनकी दरियादिली में कमी नहीं होती। मुझसे कई बार गंभीर कहा-सुनी हुई है। मार्क्सवाद में मेरा संक्रमण प्रमुखतः पुस्तकों के माध्यम से हुआ, जिन एकाध व्यक्तियों का योगदान है उनमें त्रिपाठी जी (इलाहाबाद के दिनों में वियोगी जी) का योगदान है। इलाहाबाद में एक प्रगतिशील साहित्यिक ग्रुप था जो गोष्ठियों के अलावा एक अनिश्चितकालीन पत्रिका, 'परिवेश' निकालता था उनमें वियोगी जी भी थे। उन दिनों और जेएनयू के शुरुआती दिनों में भी कुछ बहुत अच्छी कविताएं लिखा। '... क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो, इस तरह तो कुछ और निखर जाएगी आवाज.......' विनम्र श्रद्धांजलि।

Tuesday, November 10, 2020

नारी विमर्श 14

 स्त्रियों की ही तरह बुजुर्गों का भी सेक्स के बारे में बात करना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन जब से (15-16 साल की उम्र से), एक लड़की दोस्त की पहल पर सेक्स के बारे में अनुभवजन्य जानकारी के चलते, सेक्सुअल्टी की मर्दवादी (जेंडर्ड) समझ की जगह जनतांत्रित समझ की प्रक्रिया की शुरुआत से ही आश्चर्य होने लगा था कि सेक्स जैसी सामान्य (नॉर्मल) और आपसी (मुचुअल) इच्छा तथा जरूरत को रहस्यमयी बनाकर इतना हव्वा क्यों खड़ा किया जाता है? किसी ने किसी के साथ आपसी मर्जी से सेक्स कर लिया तो कौन सी आफत आ गयी? दरअसल समाज की मर्दवादी संरचना के औचित्य के लिए सेक्स जैसी सामान्य बाद को सहस्यमयी बनाकर उसके इर्द-गिर्द वर्जनाओं और प्रतिबंधों का जाल बुना गया जिससे फिमेल सेक्सुअल्टी पर नियंत्रण के जरिए उसके व्यक्तित्व (फिमेल पर्सनल्टी) को नियंत्रित किया जा सके। मर्दवाद (जेंडर)कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही कोई साश्वत विचार है बल्ति एक विचारधारा (मिथ्या चेतना) है, जिसे नित्यप्रति की जीवनचर्या, विमर्श एवं रीति-रिवाजों के द्वारा निर्मित और पोषित किया जाता है। एक विचारधारा के रूप में स्त्रीवाद मर्दवादी मान्यताओं का निषेध है।

Friday, November 6, 2020

लल्ला पुराण 367 (ब्लॉक)

 

मैंने इस विषय पर पहले ही पोस्ट डाला है कि मेरी ब्लॉक लिस्ट में कुछ चुंगी सदस्य भी हैं, वैचारिक मतभेदों का तो मैं हार्दिक स्वागत करता हूं क्योंकि न तो कोई अंतिम ज्ञान होता है, न अंतिम सत्य. मतभेदों के स्वस्थ तरीके से चकराव से ही सापेक्ष सत्य निकलता है। गांधी के सत्याग्रह का आदर्श रूप में यही मतलब है। सेसल मीडिया के मंचों का भी यही मकसद होना चाहिए। मैंअसभ्य, अमर्यादित भाषा में निराधार निजी आक्षेप करने वालों को ही इसलिए ब्लॉक करता हूं कि पैंसठियाने (65 साल पार करने) के बावजूद दिल के आहत होने और आवेश में आने जैसी निजी, मानवीय दुर्बलताओं पर पूर्ण विजय नहीं प्राप्त कर सका हूं और अपमानजनक निजी आक्षेप पर आवेश में आकर कभी कभी भूल जाता हूं कि 45 साल पहले 20 साल का हूं और उन्हीं की भाषा में जवाब देने का मन होता है। ऐसा करने से अपनी भाषा भ्रष्ट होने का खतरा रहता है। ऐसा न करने के लिए इस तरह के लोगों से संवाद व्यर्थ समझ उनसे दूर हो जाता हूं। मानता हूं कि यह एक शिक्षक के रूप में मेरी असफलता है। एक आदर्श शिक्षक को चाहिए कि सावित्री बाई फुले की तरह सारे अपमान-अवमानना सहते हुए लोगों को अपनी सही बात समझाने पर अड़े रहना चाहिए। मैं बदलाव के सिद्धांत में यकीन करता हूं और शीघ्र ही अनब्लॉक कर देता हूं। दूसरी बार अनब्लॉक करने में डरता हूं। 4-5 साल पहले एक इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील को अनब्लॉक किया और वे वायस कॉल कर मां-बहन की गालियों के साथ मिलने पर हाथ पैर तोड़ने की धमकी देने लगे। गुंडे-मवालियों से मैं डरता नहीं, लेकिन जब रास्ता है तो उनके चक्कर में पड़े ही क्यों? तभी पहली बार पता चला फेसबुक पर फोन भी हो सकता है। रही बात मॉडरेटर की तो मेरी प्रशासनिक कामों में कोई रुचि कभी नहीं रही, लेकिन 3 साल के हॉस्टल के अनुभव के बाद लगा कि शिक्षक एक अच्छा प्रशासक हो सकता है। मैं इस ग्रुप के लोगों को एक बार फिर खोज-खोज कर अनब्लॉक करूंगा लेकिन ऊपर शिकायत करने वाले सज्जन की शिकायती भाषा ही आपत्तिजनक है।