Wednesday, April 29, 2015

लोग क्या से क्या बन गये

थे जो अपने राज़दां  
दुश्मन के मुखबिर बन गये
खायी थी कसम जिसने जंग-ए-आज़ादी की
मिलते ही मौका शह के मुशाहिद बन गये
निकले थे करने जो इंक़िलाब 
वित्तपोषित (यनजीओ) सुधारक बन गये
दम भरते थे जो जनचेतना के जनवादीकरण का
सेल्फहेल्प ग्रुप में मशगूल हो गये
थे जो विस्थापन-विरोधी नेता
विश्वबैंकी विकास के मुर्शीद बन गये
जिनका काम था घरों की मरम्मत 
बस्तियां उजाड़ने की मशीन बन गये
मुदर्रिस का काम था जगाना ज़मीर
वे ईयमआई के आतंक से ख़ुद बेज़मीर हो गये
की जिन्होंने विज्ञान की पढ़ाई
वे अंधविश्वास के शिकार हो गये
क्या वक़्त आ गया है दोस्तों
कि दानिशमंद लक्ष्मी के पुजारी बन गये
वसुधैव कुटुम्बकम् का आया जो जमाना
लोग क्या से क्या बन गये. 
(ईमिः29.04.2015)

संस्कार (संपादित)

पल रहे थे मेरे अंदर मंदिर की शह पर 
सदियों पुराने जो संस्कार
बोझ  से सर पर पूर्वजों की लाशों के
बोझ तो फिर बोझ ही होता है
उतार देना चाहिये जल्दी-से जल्दी
मैंने तो जला दिया था विरासत में मिले संस्कारों को
तीन धागों के जनेऊ के साथ
सनद थी जो मेरी जीववैज्ञानिक संयोग के पहचान की
जाति छोड़ कुजात हुआ
जाति बिना वैदिक धर्म कहां
तलाश-ए-इल्म में पकड़ी जब सुकराती राह
करता रहा सवाल-दर-सवाल और तलाश-ए-जवाब
मिला नहीं जब जवाब खुदा की खुदाई का
हो गया मुक्त भय से भूत और भगवान के
महसूस किया सुख नास्तिकता के साहस का
संस्कारों के बोझ तले जिंदगी खींचते अभागे 
सहानुभूति के पात्र हैं, कोप के नहीं
(ईमिः 29.04.2015)

Tuesday, April 28, 2015

संस्कार

पल रहे थे मेरे अंदर मंदिर की शह पर
सदियों पुराने जो संस्कार
बोझ  से सर पर पूर्वजों की लाशों के
बोझ तो फिर बोझ ही होता है
उतार देना चाहिये जल्दी-से जल्दी
मैंने तो जला दिया था विरासत में मिले संस्कारों को
तीन धागों के जनेऊ के साथ
सनद थी जो मेरी जीववैज्ञानिक संयोग की पहचान की
संस्कारों के बोझ तले जिंदगी खींचते अभागे
सहानुभूति के पात्र हैं, कोप के नहीं
(ईमिः 29.04.2015)

यूटोपिया (संपादित)

वक़्त से पीछे चलता पोंगापंथी
साज़िश रचता है भविष्य कि विरुद्ध
करके स्थापित महानताएंं किसी कल्पित अतीत में
करता नीलाम मुल्क पहनकर राष्ट्प्रेम का मुकुट
क़ाफिर करार देता है उस हर उस दानिशमंद को 
करता जो सवाल इतिहास के इस घृणित बलात्कार पर
जारी कर देता है फतवा बन इस या उस खुदा का दलाल
मगर इतिहास गवाह है
जब भी सत्य के तर्क पर भारी पड़ा है पोंगापंथी बहुमत का कुतर्क 
हो जाता है उस समाज का निश्चित बेड़ा गर्क
हुआ था ऐसा ही कुछ प्राचीन यूनान में
दब गया था सुकराती तर्क कुतर्क के बहुमत के शोर में
सुकरात ने पिया सत्य के लिये गरल 
और बना दिया आने वाली पीढ़ियों के लिये सत्य का संकल्प सरल 
सुकरात को तो मार डाला उंमादी एथेंस ने
पर बच न सका सिकंदरी युद्धोंमाद से
गैलेलियो भी वक्त से आगे थे सिकंदर की तरह
धर्मोंमाद ने मार दिया उन्हें भी
नहीं जान पाता पोंगापंथ इतिहास की हक़ीक़त
बढ़ जाती है शहादत से विचारक की ताकत

 नासमझों का हुजूम, भेड़ सा चलता है वक़्त के साथ
न आगे न पीछे
मान कर नियति मौजूदा हालात को 
बिताता है ज़िंदगी निजांम की जर्जर मशीन के पुर्जों की तरह
बन जाता है अनजान प्रतिधरोक प्रगति का
ओढ़कर विकल्पहीनता की चादर
ये न व्यवस्था के साथ होते हैं न खिलाफ
ढोते हैं अपना ही बेवज़ूदी का अपना वजूद
दौड़ते हैं रथ के पीछे
सोचते हैं रथ इन्ही के सहारे चल रहा है
इन्हें कभी कभी कहीं कहीं मध्यवर्ग कहा जाता है 
सेवक हैं सत्ता के पालते हैं शासक होने का मुगालता
ये गोरख के "समझदारों का गीत" के नायक होते हैं
जो चाय के प्याले में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
चुप्पी का मतलब समझते हैं
और आज़ादी के खतरों से बाल-बाल बचत जाते हैं
इतराते हैं ग़ालिब के शह के मुसाहिदों की तरह
खुद को समझते हैं लीडर अजीमुस्सान
हबीब जालिब के फिरंगी के दरबान की तरह
जैसे ही चलती है बात लहूलुहान नज़ारों की
दूर जाकर बैठते हैं दुष्यंत के शरीफ लोगों की तरह
इन्हें वे लोग लंपट बुर्ज़ुआ कहते हैं  
जो खुद को वक़्त से आगे मानते हैं

वक्त से आगे रहता है युगद्रष्टा 
देखता है सपने एक नई दुनियां के
जहां मेहनत की लूट न हो हरामखोरी की छूट न हो
जानता है यह वैज्ञानिक सत्य 
कि जिंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होती
विकल्हीनता मुर्दा कौमों की निशानी है
बनाता है नक्शा एक सुंदर विकल्प का
होता है जिसमें शोषण मुक्त दनिया का वैकल्पित निजाम
वे लोग चिल्लाते हैं यूटोपिया यूटोपिया 
जानते नहीं जो नियम इतिहास के गतिविज्ञान का

मिलता नहीं अंजाम जब तक किसी बात को 
लोग उसे हवाई महल या यूटोपिया कहते हैं
1917 के अक्टूबर तक सोच नहीं सकता था कोई
बात उन 10 दिनों की हिल गई थी दुनिया जिससे
यूटोपिया थी मजदूर क्रांति की बात तब तक
यूटोपिया थी यह बात 1950 के दशक में
कि कोई अश्वेत बन सकता है अमेरिकी राष्ट्रपति
उतार दिया गया था जब बस से रोज़ा पार्क को 
गोरे को सीट न देने के लिये
नायिका बनी जो नागरिक अधिकार अांदोलन की
यूटोपिया होता यह ख्याल उस समय
कि दफनाई जायेगी वह जॉर्ज वाशिंगटन की कब्र की बगल में
यूटोपिया होता कहना हमारे बचपन में
हुक्मरान होना एक दलित महिला का 
और उसके चरणचुंबन करते उन लोगों की बात
जो पैदा हुये थे ब्रह्मा के शरीर के श्रेष्ठ अंगों से ने  
यूटोपिया लगती है सच की तूती की बात 
क्योंकि हम इतिहास के उस अंधे मोड़ पर हैं
जब झूठ का कुतर्क सच के तर्क पर पर 20 पड़ता दिख रहा है
मगर जानता है वह इतिहास का यह वैज्ञानिक सत्य  भी
 कुछ भी स्थाई नहीं होता परिवर्तन के सिवा
और है जो भी अस्तित्ववान निश्चित है अंत उसका
अपवाद नहीं है झूठ का निज़ाम भी 
आयेगा ही वह वक़्त 
जब ज़ुल्म के माते लब खोलेंगे
मान मशविरा फैज़ का जब उट्ठ बैठेगा खाकनशीं
तब तख्त गिराये जायेंगे और जलेगी ताजों की होली
जब जागेगा मज़दूर किसान
लायेगा ही नया विहान 
तब सच की तूती बलेगी अौ झूठ लताड़ा जायेगा
औ साम्राज्यवाद का मर्शिया पढ़ा जायेगा
सपना हक़ीकत बन जायेगा
यूटोपिया सच हो जायेगा
है जो वक़्त से आगे
वही युग पुरुष कहलायेगा
(ईमिः27.04.2015)

यूटोपिया

वक़्त से पीछे चलता पोंगापंथी
साज़िश रचता है भविष्य कि विरुद्ध
करके स्थापित महानताएंं किसी कल्पित अतीत में
करता नीलाम मुल्क पहनकर राष्ट्प्रेम का मुकुट

भेड़ सा वक़्त के साथ चलता है नासमझों का हुजूम 
मान कर नियति मौजूदा हालात को 
बिताता है ज़िंदगी निजांम की जर्जर मशीन के पुर्जों की तरह
बन जाता है अनजान प्रतिधरोक प्रगति का ओढ़कर विकल्पहीनता की चादर

वक्त से आगे रहता है युगद्रष्टा 
देखता है सपने एक नई दुनियां के
जहां मेहनत की लूट न हो हरामखोरी की छूट न हो
जिंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होती
विकल्हीनता को मानता मुर्दा कौमों की निशानी
बनाता है नक्शा एक सुंदर विकल्प का
होता है जिसमें शोषण मुक्त दनिया का वैकल्पित निजाम
लोग चिल्लते हैं यूटोपिया यूटोपिया 

मिलता नहीं अंजाम जब तक किसी बात को 
लोग उसे हवाई महल या यूटोपिया कहते हैं
1917 के अक्टूबर तक सोच नहीं सकता था कोई
बात उन 10 दिनों की हिल गई थी दुनिया जिससे
यूटोपिया थी मजदूर क्रांति की बात तब तक
यूटोपिया थी यह बात 1950 के दशक में
कि कोई अश्वेत बन सकता है अमेरिकी राष्ट्रपति
उतार दिया गया था जब बस से रोज़ा पार्क को 
गोरे को सीट न देने के लिये
नायिका बनी जो नागरिक अधिकार अांदोलन की
यूटोपिया होता यह ख्याल कि दफनाई जायेगी वह
जॉर्ज वाशिंगटन की कब्र की बगल में
यूटोपिया होता कहना हमारे बचपन में
हुक्मरान होना एक दलित महिला का 
और ब्राह्मणों द्वारा उसका चरणचुंबन
इसीलिये लगता है सच की तूती की बात यूटोपिया
कि अब तक झूठ न लताड़े गये हैं
जब जागेगा मज़दूर किसान
लायेगा ही नया विहान 
तब सच की तूतू बलेगी अौ झूठ लताड़ा जायेगा
(ईमिः27.04.2015)

Saturday, April 25, 2015

बे-इज़ाज़त है बोलने का मिज़ाज

क्या सोचकर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो, इस तरह तो कुछ और निखर जायेगी आवाज़़
बोलते हैं तो बोलते रहें लोग बा-इज़ाजत, अपना तो बे-इज़ाज़त है बोलने का मिज़ाज
बोलेगा न ग़र शिक्षक नाइंसाफ़ी के खिलाफ़, पैदा होगा मुल्क में एक भयभीत समाज
कल को करेगा कलंकित शिक्षक लगने देगा आज़ादी-ए-ज़ुबान पर ताले ग़र आज
शिक्षक का काम है एक भयमुक्त समाज बनाना
छात्रों को नाइंसाफी से लड़ना सिखाना
इतिहास समझने का साहस उनमें भरना
विवेकशील होने की उनकी हिम्मत जगाना
उनको निर्भीक जीवन का सुख समझाना
समानता की नई संस्कृति निर्माण करना
पढ़ाना नहीं है श्रीश्री के प्रवचन का कमाल
पढ़ाता है शिक्षक पेश कर प्रत्यक्ष मिशाल
नहीं है उसके पास कोई और विकल्प
लेना ही है उसको जंग-ए-आज़ादी का संकल्प
मिलता नहीं किसी को कुछ भी कभी खैरात में
लड़ना पड़ता है हक़ के एक-एक इंच के लिए
रहती है महफ़ूज़ सुरक्षा संघर्षों की एकता में
न कि ईयमआई के ख़ौफ या सत्ता-लोलुपता में
जरूरी है शिक्षक का उठाना अभिव्यक्ति का जोखिम
वरना करार देंगीं अगली पीढ़ियां हमें इतिहास का मुल्जिम
समझेगा जिस दिन शिक्षक शिक्षक होने की महत्ता
खत्म कर देगा धरती से ज़ुल्म-ओ-ज़ालिम की सत्ता
(ऐसे ही. ईमिः 26.04.2015)

Friday, April 24, 2015

RADICAL: पेड़ से लटकता किसान

RADICAL: पेड़ से लटकता किसान: उसने कहा अच्छे दिन अा रहे हैं वे मुल्क में विदेशी पूंजी ला रहे हैं करेंगा कॉरपोरेट बेदखल जब किसान है जो अब तक खेती की झंझटों से परेश...

प्यार मुहब्बत

जब भी होता है रिश्तों में मिल्कियत का भाव

आ ही जाता है उनमें थोड़ा बहुत दुराव

आज़ाद-खयाली है मानव का कुदरती स्वभाव

मौत से पहले होता नहीं ज़िंदगी का आखिरी पड़ाव

रिश्ते हों अगर स्वामित्वबोध से आज़ाद

फलती-फूलती आशिकी होती आबाद

प्यार-मुहब्बत ज़िंदाबाद.

(ईमिः25.04.2015

पेड़ से लटकता किसान

उसने कहा अच्छे दिन अा रहे हैं
वे मुल्क में विदेशी पूंजी ला रहे हैं
करेंगा कॉरपोरेट बेदखल जब किसान
है जो अब तक खेती की झंझटों से परेशान
बनाकर मजदूर बढ़ायेगा उनकी शान
हो खुशी से पागल पेड़ से लटकेगा किसान 
तब जाकर बनेगा राष्ट्र महान

राष्ट्र पर विश्वबैंक का एहसान
कर्ज़ से जिसके बन रहा देश महान
चाहता नहीं वह चमक-दमक पर दिहाती के धब्बों का निशान 
कर दिया उसने चालिस फीसदी गांवों के शहरी करण का फरमान 
अच्छे दिन के लिये महमहामहिम ने लिया उसको मान 
कानूनन होगा अब बेदखल किसान
मिलेगा उसको खानाबदोशी का सम्मान 
हो खुशी से पागल पेड़ से लटकेगा किसान 
तब जाकर बनेगा राष्ट्र महान
(ईमिः23-25.04.2015)

Wednesday, April 22, 2015

Janhastakshep DU (PRESS RELEASE)



Janhastakshep: A campaign against Fascist Designs, Delhi
Delhi University Unit

PRESS RELEASE

“Communal polarization is not the sole prerogative of the openly communal organizations, but is practiced by all mainstream political parties in India”, reads the invitation to the Panel discussion by the delhi university unit of Janhastakshep on Communalism and State: The Hashmipura Genocide, 1987. Chairing the discussion, Professor Saroj Giri, from Delhi University’s Political science Department, set the tone for the discussion, in his inaugural address by talking about how almost every political party in the country has played the communal card for electoral gains, though the modalities of inflicting violence on the minorities have evolved over the years. He put forth that even the self-proclaimed ‘secular’ parties have chosen not to talk about such communal incidents for fear of losing out on the majority vote bank. To this, Sagnik dutta, journalist with the Frontline added that it is important to look into the long-term economic consequences of the tragedies like the Hashimpura genocide. Most of the victims were the sole breadwinners of the family. Female members of the victim’s joint families, who have dared to take up income generating activities face additional problems of the family patriarchs.  Dr. Aparna of Indian Federation of Trade Unions (IFTU) provided useful insights on how the political class of every hue uses communal mobilization, overtly or covertly. This was evident in the case of the Hashimpura genocide, which was carried out by the Provisional Armed Constabulary of UP. According to her, the legislations themselves are anti-people and have been framed in a way to designate the minorities as second class citizens. The final panelist, Ish Mishra, Professor of Political science at Hindu college traced the history of communal polarization by various governments in the Indian polity. He argued that the communalism was on the defensive until 1980s. The massive victory of the Congress under Rajiv Gandhi in the aftermath of the 1984 anti-Sikh pogroms led to the  tactic of communal mobilization as the most convenient instrument of electoral engineering. Ever since, all mainstream parties including the so-called secular and socialist parties have used it as a tactic to win elections, the most systematic use being made by the BJP-RSS first in Gujarat in 2002 and repeatedly thereafter. All the panelists agreed upon the fact that there is one common thread that runs across all such incidents – that these should not be termed as riots, and rather state-sponsored violence against the minorities. They reiterated that there was an urgent need to modify the education system to produce individuals who possess a scientific temperament and for the non-state actors including the media to act responsibly.  

Sd /
Rahul Adwani

Coordinator, DU JANHASTAKSHEP. 

Janhastakshep -du

Janhastakshep: A campaign against Fascist Designs

DELLHI UNIVERSITY

Invites you

For a panel Discussion
On
STATE AND COMMUNALISM – Hashipura genocide 1987

Venue-- Department of Political Science
Faculty of Social Sciences
University of Delhi
Delhi 110007

Date – 22 April 2016, Wednesday
Time – 2PM

Chair:
 Dr. Saroj Giri, Department of Political Science, University of Delhi

Panelists:
1. Anand Swarup Veerma, Editor, SAMKALEEN TEESARI DUNIYA
2. Pnkaj Singh, Eminent Hindi poet and former Correspondent, BBC, London
3. Dr. Aparna, Indian Federation of Trade Union
4. Ish Mishra, Hindu College, University of Delhi
5. Sagmik Dutta, Senior Journalist
Friends,
Playing communal card and communal killings for electoral gains are not the monopoly of communal organizations only but even so-called secular parties also play communal cards leading to the increasing trend of communalization of the state apparatuses including judiciary. Most glaring example of connivance of state and its judicial apparatus is the judgment in the Hashimpura massacre in 1987 in which 42 men were cold-bloodedly killed by the UP PAC and 5 managed to survive by pretending to be dead to narrate the ordeal. After 28 years of the proceedings, the court acquitted all the accused of one of the most gruesome state organized massacres. No one killed them. In 1987 the then Rajiv Gandhi government, having come to power with unprecedented parliamentary majority after the anti-Sikh pogrom of Delhi in 1984, opened the lock of the now no-more Babari Masjid at Ayodhya,  to counter the ongoing Mandir campaign of BJP under the leadership of L K Adwani. The decision to open the lock was protested at many places by different sections of the society. Muslims, being the community directly aggrieved, came out in large numbers to protest this communal  move by the Congress governments at Centre as well as in UP. As has been the experience over the years, whenever the Muslims come out in large numbers to protest it  is termed as riot. The then state Home Minister, P Chidambaram has been reported to have instructed the state government to ‘crush the Muslims.’ Following the tip the 41 battalion of the communally trained PAC (Provincial Armed Constabulary of UP), in the night of 22-23 May 1987, raided the Hashimpura village in the name of a search operation. Many Muslim men were arbitrarily picked up quefrom outside the mosque and huddled in a truck. They were taken to a lonely spot on the bank of Ganga canal and many of them shot dead with the service rifles by the uniformed policemen and their bodies thrown into the canal. Rest was taken to the banks of the Hinden River, shot and their bodies were left there.

The entire incident would have simply been buried without any consequences to the perpetrators but for a timely report filed by Vibhuti  Narayan Rai, the then SP of Gaziabad and later supported by the testimonies of 5 survivors of the massacre.

After 28 years of legal proceedings in the case, the court set aside the testimonies of the survivors to acquit the culprit policemen giving them the benefit of doubt. Apparently, no one killed the victims.

This judgment conforms to the emerging pattern in which the courts in different parts of the country have acquitted the perpetrators of heinous crimes may they be against the dalits or the minorities. The acquittal of Ranvir Sena killers in the Laxampur Bathe and Bathani Tola massacres in Bihar for similar reasons are other cases in point.

However, there is a pattern in the madness. Such crimes cannot but be committed with active connivance or direct participation of the state machinery. In any such instance the government and the police ensure that every shred of evidence is destroyed to save the culprits. It ought to be ensured in the interest of justice that the suspected government agencies are kept out of investigation in such cases.

What is particularly noteworthy is that the ruling class parties have done little more than pay lip service to the cause of the victims in such instances of gross miscarriage of justice. Mere statements of protest and symbolism have come to replace the need for a sustained campaign towards the ends of justice.

DU Janhastakshep seeks a broader discussion on the issue of communalization of .the state agencies and institutions and how the culprits of genocides can be brought to book.

DU Janhastakshep
09958491630
09811146846
8800713477

Monday, April 20, 2015

लल्ला पुराण 167

Ramadheen Singh स्टालिन ने क्या किया यह इतिहास में दर्ज है. अापको 2 ही नाम याद हैंं, उनमें से 1 गलत हो गया. बुखारिन बोलशेविक पार्टी के महत्वपूर्ण सिद्धांतकार थे, उन्हें भी मार दिया था. पढ़िये ऊपर लिखा है कि स्टालिन के ये कृत्य निंदनीय हैं जिससे दुनिया के क्रांतिकारी अांदोलन को अपूरणीय क्षति पहुंची. अाप तो संघ अायोजित हत्या-बलात्कार की वीभत्स्ता की निंदा करने की बजाय स्टालिन के संदर्भ से न्यायोचित ठहरा रहे हैं. तर्काभाव में विषयांतर तथा मार्क्सवाद के भूत का हव्वा खड़ा करके विमर्श भटकाना सोची-समझी संघी चाल लगती है. प्रणाम.

Sunday, April 19, 2015

लल्ला पुराण 166 (सियासत 12)

Umashankar Singh & lalit mishra. जी ऋगवेद पूरा पढ़ा है, हवा में नहीं बात करता. अाप ने नहीं पढ़ा है.  अाग जिलाने की विधि का अन्वेष्ण क्रांतिकारी अन्वेषण था इसी लिये अंगिरा ऋषि देवतुल्य माने जाते हैं. अाप भी पढ़ लें. इन्टरनेट पर उपलब्ध है. सब पर तथ्यों के साथ बात करो संघी अफवाहों पर नहीं. संघी जहालत का अनुभवजन्य ज्ञान है, रामाधीन जी से पूछ लो 17 साल में विद्यार्थी परिषद का बड़ा नेता था. नक्सली नरसंहार के बारे में क्या जानते हो संघी अफवाहों के  अलावा? 1984 अौर 2002 के जनसंहारों में यह फर्क है कि 1984 में सामूहिक बतात्कार नहीं हुये, दोनों ही राज्य प्रायोजित जनसंहार थे. संघ तो जहालत ही सिखाता है इसके बावजूद बकवास करने के लिये कुछ पढ़ लीजिये तो बेहतर होगा. सही कह रहे हैं पूर्वांचल विवि के अलावा भी जाहिल होते हैं सब अाप की ही तरह. जरा सोचिये बिलकिस बानो अापकी बहन होती तो कैसा लगता जिसे सामूहिक बलात्कार के बाद मरा समझ छोड़ दिया पर वह जिंदा बच गयी हो? वह अौरत जिसका गर्भ चीरकर अाग में डाल दिया गया हो वह अापकी मां होती तो कैसा लगता? माओ के बारे में अापकी जानकारी संघी अफवाहों पर अाधारित है, उसे तथ्यों से दुरुस्त करें. संघी जहालत इतनी खतरनाक होती है कि मुद्दा कुछ भी हो उनके सिर पर मार्क्सवाद का भूत सवार हो जाता है अौर तोतागीरी में प्रशिक्षित ये किसी ओझा के पास जाने की बजाय अभुअा अभुअा  कर वातावरण प्रदूषित करते हैं. जहालत से मुक्ति पाओ संघी तोतों.

यानि चूंकि अौर भी नरसंहार हुये हैं इस लिये अापलोग मोदी अायोजित गोधरा अौर उसके बाद के अमानवीय नरसंहार-बलात्कार को वाजिब मानते हैं. धिक्कार है अापके मनुष्य होने पर.

लल्लापुराण 165 (रोजा लक्ज़ंरबर्ग)

Ramadheen Singh अग्रज प्रणाम,  सारे जनसंहार निंदनीय हैं, लेकिन और जनसंहारों के हवाले किसी भी जनसंहार का बचाव अमानवीय है. 1984 व 2002 समान रूप निंदनीय हैं. स्टालिन द्वारा पार्टी में अांतरिक जनतंत्र का हनन इनसे भी अधिक निंदनीय है. पढ़ने की अादत होती तो पता चलता कि इस पर सर्वाधिक सार गर्भित अौर पैना अाक्रमण मार्क्सवादियों ने ही किया है. क्षमा याचना के साथ अाग्रह करना चाहता हूं कि अपने अफवाह-जन्य इतिहोस बोध को सार्वजनिक करके अपनी भद न पिटवायें. स्टालिन द्वारा, "रोज़ा लक्जमवर्ग की यातना और तड़पा तड़पा कर मारने का जिक्र भी करना पड़ेगा". अापकी जानकारी के लिये -- 1. कॉ. रोजा लक्ज़मबर्ग रूसी नहीं जर्मन थीं. 2. 1919 में जर्मनी स्पार्टकसवादी (Spartacist) विद्रोह हुअा, रोज़ा इसमें शामिल थी. 3. विद्रोह को Frierick Ebert की सामाजिक लोकतांत्रिक सरकार की सेना तथा Freicorps -- प्रथम विश्वयुद्द के वेटेरनों का दक्षिणपंथी पारा-सैनिक संगठन -- ने मिलकर कुचल दिया था. रोजा लक्ज़ंबर्ग Freicorps के हथियारबंद दस्ते  के हाथ लग गयीं, जिन्होने उन्हें गोली मारकर नहर में फेंक दिया था. ऐतिहासिक वक्तव्य देते समय तथ्य परख लें. सादर.

लल्लापुराण 164 (शिक्षा अौर ज्ञान 55 )

Pran Vijay Singh कोई पूर्वाग्रह नहीं है, बल्कि अपनी तो लड़ाई ही पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों के विरुद्ध है.  सिद्धांत अाधारित जीवन ही नैतिक जीवन है, सिद्धांतविहीन व्यक्ति स्वार्थसिद्धि में ही लीन रहता है जैसा कि अापने मौजूदा नेताओं के बारे में कहा. अजीब-ओ-गरीब नहीं सुपरिभाषित सिद्धांतों की विकासशील प्राचीर है. कोई अलग अच्छी राय दे कर देखिये, सम्मान से मान लूंगा. अभी तक तो किसी ने दी नहीं.  सोच में बदलाव के सिद्धांत में यकीन न करता तो एक कर्मकांडी ब्राह्मण बालक से प्रामाणिक नास्तिकता तक; बाभन से इंसान तक; शाखा की कूपमंडूकता से विवेकशीलता तक की मुश्किल यात्रा कैसे तय हो पाती. गांधी जी से सहमत हूं कि साधन की सुचिता साध्य की सुचिता जितनी ही महत्वपूर्ण है. लोग मुद्दों पर न बात कर सीधे माओ-लेनिन का जवाब मांगने लगते हैं बिना कुछ जाने अौर फैसलाकुन वक्तव्य देने लगते हैं. ऋगवेद का पन्ना नहीं पलटेंगे अौर रटी-रटाई भाषा में उसमें सारा ज्ञान-विज्ञान खोज देंगे. इसे ही तोतागीरी कहते हैं. बच्चों की गलती नहीं है यह शिक्षा प्रणाली तोते ही पैदा करती है. चिंतनशील इंसान व्यवस्था के लिये खतरनाक होते  हैं, इसके बवजूद चिंतन का दरिया अबाध है.

लल्लापुराण 163 (सियासत 11)

Umashankar Singh कोई परेशानी में नहीं पड़ा है, हत्यारे-बलात्कारी अगर सांसद-विधायक हो रहे हैं तो यह राजनैतिक दलों तथा उन्हें चुनने वालों का चरित्र उन्ही डकैतों सी है. रामाधीन जी जिस दल में हैं उसका तो अध्यक्ष ही क्लीनचिटिया अपराधी है अौर उसका विकासपुरुष  ही जनसंहार का अायोजक है. मूंजे अौर गोलवलकर  क्रमशः मुसोलिनी अौर हिटलर के भक्त थे. संघ साहित्य में लिखा है. बजरंगी लंपटों के पास तर्क होते  नहीं तो लेनिन-माओ के भूत के प्रभाव में अभुअाने लगते हैं. इंटरनेट पर इनके लेखन उपलब्ध हैं अपने अफवाहजन्य ज्ञान को थोड़ा प्रामाणिक बना लें. पूर्वांचल गाइड में यह सब नहीं मिलता.

लल्लापुराण 162 (postvedic republics)

KN Singh You are right. The entire Rigvedic period was of tribal republics. State in India and elsewhere began to take firm footing only around Budha's time, 6th century with the emergence of Janpadas and Mhajanpadas. Magadh, kashi etc emrged as monarchies and the region north to Ganga were Sanghas (Kautilya's Arthshatra has vivid description of them), known as post-Vedic republics, who organised theselves in a war confederation under Vaishali against Magadh. Similar things were happening in Greece where from clan-tribal organizations emerged an advanced form of state-polis. First political theory, preceding ARTHSHASTRA and DHARMSHASTRA, is Budhist political theory, a social contract theory in ANUGUTTARANIKAY and DIGHANAIKAY.

मार्क्सवाद 5

अब तक की क्रांतियां अल्पसंख्यक क्रांतियां थीं. क्रांति 1 निरंतर प्रक्रिया है जो सामाजिक चेतना के स्तर पर निर्भर करता है अौर ससामाजिक चेतना विकास के चरण पर. गैरबराबरी अौर अन्याय के विरुद्ध सारे अांदोलन क्रांतिकारी प्रक्रिया के व्यापक हिस्से हैं.सामंतवाद से पूंजीवाद का संक्रमण एक वर्ग समाज से दूसरे वर्गसमाज का संक्रमण था, पूंजावाद से समाजवाद का संक्रमण गणात्मक रूप से अलग है - वर्गसमाज से वर्गहीन समाज का संक्रमण -- इसलिये जटिल अौर लंबी,उतार चढ़ाव से परिपूर्ण.

कयामत इक मजहबी शगूफा है

कयामत इक मजहबी शगूफा है
इंकिलाब इतिहास का अगला पड़ाव
मजहब सिखाता बंददिमाग अास्था
इंकिलाब सिखाता करना सवाल हर बात पर
साधता है चुप्पी मजहब बिगड़े इहलोक पर 
देता उहलोक बनाने के उपदेश
इंकिलाब करता पर्दाफास उहलोक के फरेब का
देता इहलोक के बेहतरी का वास्ता
(ईमिः19.04.2015)

Saturday, April 18, 2015

लल्लापुराण 161 (शिक्षा अौर ज्ञान 54)

Ramadheen Singh यहां कौन चीन-रूस की बात कर रहा है? चीन-रूस तो कब के केशरिया हो चुके, समय से कितने पीछे रहते हैं अग्रज? धंधा तो "नेता" करता है जो सुविधानुसार टोपी बदलता है. देखते नहीं हैं भाजपा के लगभग अाधे विधायक पराने काँग्रेसी हैं अौर कुछ अंबेडकरी राम. यहां लाल-पीले की तो कोई बात ही किसी ने नहीं किया. क्या अग्रज अाप इतने वरिष्ठ राजनीतिज्ञ होते हुये अाम बजरंगियों की तरह मुद्दा कुछ रूस-चीन/लेनिन-माओ के भूतों की गिरफ्त में अा जाते हैं. सार्वभौमिक विचार देश-काल की सीमा से परे होते हैं, जैसे कि सभ्यता का इतिहास अमीरी-गरीबी के द्वंद्व का इतिहास है. वैसे भी देशज के चक्कर में मनुस्मृति का गणगान तो नहीं कर सकता. कौटिल्य के शासन-शिल्प के विचारों पर मगध का कॉपीराइट नहीं है, जिसका प्रभाव लगभग 2,000 साल बाद मैक्यावली के विचारों पर दिखता है. हां संघ-परिवार की कॉरपोरेटी राष्ट्रवाद जरूर अायातित है -- गणवेश तथा विचारधारा समेत. यूरोपियन तर्ज पर सावरकर पितृभूमि की बात करता है, मातृभूमि की नहीं. किसानों की बेदखली संघपरिवार की योजना मौलिक न होकर 17-18वीं शताब्दी यूरोप के इतिहास में बर्बरता की मिशाल समझे जाने वाले ENCLOSURE MOVEMENT का वीभत्स अनुकरण है. धर्मोंमाद की राजनीति, संगठन के अंदर-बाहर अधिनायकवादी नेतृत्व, असहमति की अस्वीकृति तथा बजरंगदल जैसे लंपट गिरोह की अवधारणा सब कुछ तो मुसोलिनी-हिटलर की हिंदू-राष्ट्रवादी नकल ही है. अापकी इस पीड़ा का साझेदार हूं कि अशिक्षित इलाहाबाद नेहरू जैसे विचारक को चुनता था तथा शिक्षित इलाहाबाद अतीक अहमद अौर कपिलमुनि जैसे बाहुबलियों को. इसीलिये बार बार कहता हूं कि शिक्षा अौर ज्ञान में 36 का अांकड़ा है. अौर इसीलिये शिक्षित जाहिलों का प्रतिशत अशिक्षित जाहिलों से अधिक है. पीयचडी-प्रोफरी के बावजूद जो जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर हिंदू-मसलमान/बाभन-भूमिहार.. से इंसान न बन सके, वो जाहिल नहीं तो अौर क्या है? जो टुच्चे निजी/दलीय हितों के लिये सार्वजनिक हितों की कुर्बानी दे उसे अाप क्या कहेंगे? जिसे यह नहीं मालुम कि पूंजीवाद में केवल पूंजीपति ही संचय कर सकता है, बाकी संचय के भ्रम में रिश्वतखोरी अौर दलाली करते हैं. मान्यवर अाइये पहले हिंदू-मुसलमान से इंसान बने, यही किसी भी समाज की खुशहाली का मूलमंत्र है. वाकई राष्ट्रहित अौर देशज विचारों के हिमायती हैं तो जनविरोधी सरकारी मंसूबों को निस्त करने के लिये विस्थापन-विरोधी अांदोलनों का सहयोग करे. सोनभद्र के कनहर परियोजना के विस्थापितों के अांदोलन पर उ.प्र. की सरकार ने बर्बर पुलिसिया हमला किया है, उनकी पीड़ा महसूसिये. प्रणाम.

DU 62(Education & Knowledge 32)

Inder Mohan Kapahy प्रणाम सर. राम बहादुर राय एक सज्जन व्यक्ति अौर पढ़े-लिखे वरिष्ठ, अादर्शवादी संघी हैं, विद्यार्थी परिषद के बड़े नेता रह चुके हैं. सांप्रदायिकता अौर जातिवाद की सहोदरता के चलते,  लगता है, धातुविज्ञान के प्रभाव से पूरी तरह उबर नहीं पाये. मोदी-शाह की देश की नीलामी की अाक्रामक नीति के चलते, राय साहब का अाक्रोष उन तमाम वरिष्ठ संघियों का साझा अाक्रोष है जो अमूर्त राष्ट्रवाद की निष्छल भावना से संघ को जवानी समर्पित किया. इलाबाद विवि छात्रसंघ के एक पूर्व अध्यक्ष अमितशाह(बिजुका वाली बात इलाहाबाद-बनारस के कई संघियों से सुन चुका हूं) जैसे क्लीनचिटिया की मातहती की पीड़ा पार्टी में नहीं शेयर कर पाते तो मेरे जैसे पुराने सहपाठियों से कर लेते हैं. लेकिन भक्तों में भगवान की अालोचना बर्दास्त करने की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव होता है. राय साहब का दिनेशचालिशा धातुविज्ञान के प्रभाव के अलावा इस पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है. यदि उन्होंने मोदी को इंदिरा गांधी से बड़ा तानाशाह बताया, तो मोदी जी के साथ रियायत किया. इंदिरा गांधी की तानाशाही गरीबी हटाओ के नाटक के साथ थी तो मोदी की गरीब हटाओ के ऐलान के साथ है. वैसे जिस अंबानी का हाथ मोदी जी की पीठ पर है उसका बाप अंबानी इंदिरा-संजय गांधी की ही कृपा से थैलीशाह बना था. गरीबी हटाओ के नाटक के अनचाहे उपपरिणाम के रूप में कुछ सकारात्मक पहलू भी थे, लेकिन अगर मोदी-शाह की दुकड़ी गरीब हटाओ ऐलान का लागू करने के लिये पार्टी के अंदर तथा बाहर जनतंत्र तथा विरोध को कुचलते हुये 5 साल तक देश नीलाम करती रही तो इतिहास में हिटलर की जगह मोदी की मिशाल दी जायेगी. जय हो.

ऐसा दिन इक दिन अायेगा.

जी हां, ऐसा भी दिन अायेगा
जब सच की तूती बोलेगी अौ झूठ लताड़ा जायेगा
जब भेद खुलेगा मक्कारों का अौ ज़िंदानों को तोड़ा जायेगा
जब भूत भगेगा भगवा का अौ फरेब सामने अायेगा
जब राष्ट्रवाद का नकाब हटेगा अौ प्रपंच नंगा हो जायेगा
जब बेपर्दा होगा हत्यारा अौ गद्दी से गिराया जायेगा
जब जाग उठेगी धरती अौ गुलनार तराने गायेगा
जब होगें पढ़े-लिखे नुमाइंद अौ ज़ाहिल न कनाडा जायेगा
जब खत्म होगी गिनती गद्दी की अौ 3 को 42 न कोई बतलायेगा
जब होगी न ज़रखरीद जमीन अौ दहकानों को पूजा जायेगा
जब होगी खैर न ज़रदारों की अौ मेहनतश जश्न मनायेगा
जब होगी नहीं गुलामी ज़र की अौ अाज़ादी का तराना गया जायेगा
जब धरती झूम के उट्ठेगी अौ अंबर लाल-लाल लहरायेगा
हां ऐसा दिन तब अायेगा अौ इंकिलाब कहलायेगा
तब होगा खाक़नशीं न कोई अौ धन्नासेठ न कोई रह जायेगा
तब धरती पर होगा अमन-चैन अौ जंग न कहर बरपायेगा
जी हां ऐसा दिन इक दिन अायेगा अौ समाजवाद कहलायेगा
तब न भूखा कोई सोयेगा अौ ऐश न कोई मनायेगा
तब ज़ालिम ज़िंदानों में होगा अौ मेहनत की रो़टी खायेगा
तब होगा न कोई हिंदू-मुस्लिम अौ हर कोई इंसां कहलायेगा
वह दिन हमीं से अायेगा तब ताज़ रद्दी बन जायेगा
न जात-पांत का बंधन होगा अौ मर्दवाद मिट जायेगा
 वो दिन अवश्य ही अायेगा अौ मेहनतकश उसको लायेगा
तब सच की तूती बोलेगी अौ झूठ लताड़ा जायेगा.
ऐसा दिन इक दिन अायेगा.
(ईमिः 18.04.2015)

Friday, April 17, 2015

Education & Knowledge 31

Knowledge is continuous process,there is no final knowledge, there is no final peak where we can stand and look down the slope we have climbed. Every next generation is always, in general, over all, smarter in terms of efficiency of the mind. But this smartness does not automatically translate into knowledge but skills to improve the method/techniques of tool making. It needs conscious effort and courage to translate mental efficiency into knowledge by questioning anything and everything beginning with one's own mindset, as key to any knowledge is questioning. The institutional education provides scope for learning but knowledge process also requires unlearning for that one needs to dare to apply reason and unlearn the values that are acquired through socialization without conscious effort and will but occupy s. substantial part of the consciousness, which may be called acquired morality that needs to be replaced by rational one.

Wednesday, April 15, 2015

दलित विमर्श 11

Alok Kumar Pandey अंबेडकर यकायक नागपुर के नायक बन गये. वे हिंदू राष्ट्र की भावना को इतिहास का कलंक मानते थे, अापको इसमें क्या अधूरापन दिखता है? अाप पूरी बात बताइये. अटल जी 1942 में क्रांतिकारियों की मुखविरी करते थे. इसमें अधूरी बात क्या है? संघ स्वतंत्रता अांदोलन का विरोध ( गोलवलकर की उपरोक्त पुसतक बंच ऑफ थॉट पढ़ें) अौर सांप्रदायिकता के जहर से समाज को खंडित कर अंगेजों की दलाली करता था, इसमें अधूरी बात क्या है? अटल जी ने 13 दिन के प्रधानमंत्रित्व में 1 ही काम किया यनरॉन को काउंटर गारंटी दिया. डॉ. अंबेडकर को नायक मानते हो तो WORSHIPING FALSE GOD में कुतर्कों के माध्यम से उन्हें खलनायक साबित करने वाले,अौने-पौने दामों में राष्ट्र की संपत्ति क़ॉरपोरेट के हवाले कर अरबपति बनने वाले पूर्व-मंत्री अरुण सौरी की भर्त्सना करिये. यदि मनुस्मृति का दाह करने वाले अबेडकर को नायक मानते हैं तो मनु को सर्वश्रेष्ठ विधिवेत्ता मानने वाले गोलवलकर अौर दीनदयाल उपाध्याय की भर्त्सना कीजिये. दिवि मंडल विरोधी उन्माद के दौरान संघी-कांग्रेसी भाई-भाई थे.

Tuesday, April 14, 2015

सलाम साथी हबीब जालिब

लाल सलाम साथी हबीब जालिब
पिछली सदी के मीर-ओ-ग़ालिब

पेश की जो बेइजाज़त लिखने की मिशाल
हो गया तारीख के ज़ालिमों का बुरा हाल

डाल लेते हैं जो मुशाहिदी की आदत
भूल ही जाते हैं लिखना हर्फ-ए-सदाकत

नहीं है इन नाइंसानों से अपनी अदावत
फहराते रहेंगे सदा परचम-ए-बगावत

ताकत है हमारी आपके नक्श-ए-कदम
नहीं डरेंगे कभी सत्ता के हथियारो हम

होती है जब भी ज़ुल्म से लड़ने की दरकार
सुनाई देता ज़ुल्मत को ज़िया कहने से इंकार

जब भी सुनाई देता है निजामों का युद्धोंमाद
सच दिखती खतरा-ए-निज़ाम-ए-जर की बात

जंगखोर फैलाता युद्धोंमाद का पैगाम
बरकरार रहे ताकि हरामखोरों का निज़ाम

अमन-ओ-चैन का पैगाम देगा जब आवाम
बंद हो जायेगी जंगखोरों की दुकान

होंगे हिंदुस्तान-ओ-पाकिस्तान तब दोनों हमारे
उखड़ जायेंगे दोनों मुल्कों से जब अमरीकी डेरे सारे

सारी जमीनें होंगी आवाम की
उखड़ जायेंगी जड़े ज़र के निज़ाम की

न होगा कोई हिंदू न मुसलमान
बसेंगे तब यहां निखालिस इंसान

दिखेगा आफताब तब निखालिस आफताब सा
न कि मुल्ले के अमामा या बनिये के किताब सा

लिखते रहेंगे तराने जंग-ए-आज़ादी के लगातार
कर ले ज़ाल्म चाहे ज़ुल्म की सारी हदें पार

जब भी होगी मेरा कलम तोड़ने की बात
और भी बुलंद जायेगी इसकी आवाज़

बा-इज़ाजत करना चाहे वो जो मेरी ज़ुबान
ज़ज़्बात-ए-बगावत भरेंगे और ऊंची उड़ान

आता है जब भी दमन का संकट भारी
बनती है संबल आपकी शायरी हमारी
“होते हैं तो हो लें हाथ कलम, शायर न बनेगा दरबारी“

किया एक तानाशाह ने सुपुर्द-ए-ज़िंदान
रोक न सका वो कलम की ऊंची उड़ान

याद है फ़नकारों के नाम आपका पैगाम
ज़ुल्मत पर न करेंगे कभी फ़न कुर्बान

करूंगे निज़ाम-ए-ज़र पर वार लगातार
पहुंच जायें थाने क्यों न सारे ज़रदार

नहीं लिखूंगा शिना कभी इबलीसनुमा इंसानों की
पढूंगा कसदे महकूमों मज़लूमों खाकनशीनों की

चलता रहूंगा आपके कंटीले नक्श-ए-कदम पर
होलें चाहे हाथ क़लम बिकेगा नहीं ज़मीर मगर
(हबीब जालिब से थोड़ी-बहुत चोरी के साथ)
(ईमिः 14. 04.2014)





दलित विमर्श 10

बौद्ध विचारों से अातंकित ब्राह्मणवाद ने बुद्ध को अवतार बनाकर बौद्ध प्रसार रोकने का प्रयास किया, वही प्रयोग संघी अाज दलित चेतना की धार कुंद करने के लिये अंबेडकर को अपनाने के नाटक से कर रहे हैं. ये मूर्ख यह नहीं जानते कि इतिहास खुद को दुहराता नहीं, लेकिन प्रतिध्वनित होता है. कुछ प्रतिध्वनियां भयावह होती हैं. दलितों में सांप्रदायिकता का प्रसार उनमें से एक है इसलिये इनके मंसूबों अौर रणनीति को समझना होगा तथा उन्हें ध्वस्त करने की कारगर रणनीति बनानी होगी. दलित सांप्रदायीकरण के संघी अभियान में सत्ता लोलुप कुछ अंबेडकरी राम (राम अठावले, उदित(राम)राज, रामविलास) हनुमानों की भूमिका निभा रहे हैं. इनके इन मंसूबों को लूट तथा बेदखली के खिलाफ जनांदोलनों से ही नाकाम किया जा सकता है.

Monday, April 13, 2015

कश्मीर

कश्मीर में अाज भी कुछ पंडित हैं. सबसे पहले मैं 1980 में कशमीर गया था अौर यह देखकर सुखद अाश्चर्य हुअा था कि बसावट (गांवों की भी) ghettoized नहीं थी तथा गुलाम मोहम्मद भट्ट अौर कृष्णमोहन भट्ट के घर बगल-बगल, खान-पान साथ-साथ. कश्मीरी मित्रों के साथ श्रीनगर की ही तरह झेलम के दोनों तरफ बसे बारामुल्ला अौर पास के पहाड़ी गांवों की शैर की यादें 30 साल बाद जनहस्तक्षेप की जांच टीम के सदस्य के रूप में यात्रा के दौरान टीस रहीं थी. हम श्रीनगर में घाटी में कश्मीरी पंडितों के संगठन के युवा अध्यक्ष से मिले जिनका लालबाग में व्यापार है. उन्होने बताया कि वे बिल्कुल असुरक्षित नहीं महसूस करते अौर यह कि यदि पंडितों का शरणार्थी स्टेटस अौर अारक्षण तथा वजीफा बंद कर दिया जाय तो काफी पंडित वापस अा जायेंगे. 1 गांव में तीन पंडित परिवार रहते हैं बाकी 31 फसल के समय अाते हैं अौर चले जाते हैं. उनके घर के बाहर छोटा सा मंदिर जिसके बाहर मंद गति से टपकता नल पड़ोसी मुसलमान परिवारों के साथ साझा करते हैं. धाराओं का ज्यादातर पानी सेना ले लेती है. यह गांव बारामूला से पुकवामा के रास्ते में है. हॉर्टीकल्चर समृद्ध श्रीनगर से शोपियन के रास्ते में हम 2 गांवों में रुके. 1 गांव में 5 परिवार मिले जिनके बिल्कुल पड़ोस में मुसलमानों की बस्ती है. इनमें 2 परिवार के सदस्यों की सरकारी नौकरी थी. बाकी बड़े-बड़े खाली घर सही सलामत थे, हमारे गांव में तो 2-4 महीने खाली घर के ईंट तक उखाड़ ले जाते हैं. अभी बस इतना.

Saturday, April 11, 2015

an appeal to students


HINDU COLLEGE
STAFF ASSOCIATION

26 March 2015

AN APPEAL TO THE DELHI UNIVERSITY STUDENTS TO JOIN THE TEACHER’S STRUGGLE AGAINST THE NEFARIOUS DESIGN OF THE GOVERNING BODY TO DESTROY THE ACADEMICS IN THE COLLEGE

Dear Students,
The communication gap between teachers and students, though a common feature, is detrimental to the creation of a healthy democratic academic tradition. The Staff Association of Hindu College has been opposing the misdeeds and authoritarian, arbitrary acts of the Governing Body of the college, headed by SNP Punj.

Friends, Staff Council of a college is a statutory body. All the important decisions have to be discussed in the Staff Council. But the present GB consisting of a majority of businessmen and security agents, has been secretly taking decisions without the knowledge of the Council. The misdeeds of the GB include arbitrarily scrapping of ECA and Sport admissions, the legitimate rights of the students.

. Friends, for no reason, the GB of the college hiked the fee of the students by Rs. 4000 without taking Staff Council into confidence and before that it had enhanced the hostel fee by almost 100%. There is a student welfare fund collected from the students. This fund is meant for students’ welfare. It is to be noted that these businessmen occupy the position in the GB of the college as representatives of the Hindu College trust by virtue of statutory obligation of contributing 5% of the college expenses. According to the information availed by RTI, the arrears of trust contribution have gone up to approximately Rs. 1.25 crore in the last fifteen years. The GB has been arbitrarily diverting this fund to make up its deficit.

The UGC gave a fund for girls’ hostel about 10 years ago but it hurriedly planned to construct the hostel when the fund was to about to lapse without completing the formalities of taking environmental and other clearances. 7 teachers, using their constitutional, fundamental right to freedom of thought and expression wrote about these irregularities to the Lt Governor of Delhi who was supposed to lay the foundation stone. The 7 teachers have been punished by deducting two increments and debarred from holding administrative positions that include participation in the various committees of the staff council, the statutory body of the college. Services of two teachers have been terminated on flimsy grounds.

We thought it appropriate to communicate with our students as it is the teachers and students together constitute the academic community. Actions against the teachers directly affect the students as an authoritarian atmosphere is inimical to the growth of knowledge. 7 teachers are punished by the GB to create a sense of terror and fear among the students, karmcharis and teachers. But friends, the teacher needs to inculcate in students fearlessness and orient them to dare to stand up against injustice and the teacher must teach by example.

We appeal to our young friends, to join us in our struggle against injustice.

INQILAB ZINDABAD             STUDENTS-TEACHER-KARMCHARI UNITY ZINDABAD

Ish Mishra
President


फुटनोट 28 (शिक्षा और ज्ञान 52)

आलोक अनिकेत बिल्कुल सहमत हूं, इसीलिये अापकी अनुमानगत जानकारी के विपरीत मैं किसी पार्टी का WHOLE TIMER क्या सदस्य नहीं हूं. कोई ML नहीं है. दर्जन से अधिक हैं, सब holier than thou belief के साथ, सभी समय-समय पर एकता की चाहत की ढोल बजाते रहते हैं. हिंदुस्तान में क्रांतिकारी अांदोलन को सत्ता के हथियारों से अत्याचार से अधिक क्षति यहां की संसदीय सोसलिस्ट- कम्युनिस्ट पार्टियों ने पहुंचाया. पथ विचलन पहले संसदीय चुनाव से ही शुरू हो गया था. मार्क्सवाद की एक मूलभूत अवधारणा है अात्मालोचना जो इनकेलिेये अछूत सी है. क्रांति किसी पार्टी की मुहताज नहीं है. जनता के कार्यक्रम से अलग पार्टी का कार्यक्रम नहीं हो सकता. 1985 में मैंने 1 लेख लिखा था -- CONSTITUTIONALISM IN INDIAN COMMUNIST MOVEMENT -- जो असमंजस में 1987 तक छपने नहीं भेजा. पिछले महीने इलाहाबाद के कुछ लडके-लडकियां मुझे मेरी झोपड़ी में मिले थे उन्हें इसकी एक फोटो-कॉपी दी है. Shakti Insaan से लेकर पढ़ सकते हैं. बहुत दिनों से कम्प्यूटर युग के कुछ लेखों को स्कैन कर के कम्प्यूटर में सेव करने की योजना कामचोरी की प्रवृत्ति की प्रबलता से अब तक पूरी न हो सकी. कई लोगों की अादत है कि किसी व्यक्ति से नाराजगी में, बिना जाने सुने साम्यवाद को गाली देने लगते हैं. बच्चों अापलोग सौभाग्यशाली पीढ़ी के हैं. 1-2 क्लिक में कोई किताब खोल लें, बस दिल से नहीं दिमाग से सोचें. अक्षय की पोस्ट पर लंबा कमेंट लिखा था. गायब हो गया अौर वास्तविक दुनियां की व्यस्तता के चलते दुबारा नहीं लिख सका, पर समय चुराकर लिखूंगा. मैं समय नष्ट नहीं निवेश करता हूं, निवेश सदा अनुमानित फायदा नहीं देता. यदा-कदा घाटा भी हो सकता है, घाटे के डर से शिक्षक निवेश बंद नहीं कर सकता. शिक्षक का काम है विद्यार्थियों को लगातार याद दिलाना कि वे चिंतनशक्ति से संपन्न हैं, उनमेॆ सोचने अौर अावाज उठाने का साहस अौर यह कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है अौर यह भी कि परिवर्तन की धारा अविरल है उसे जनवादी दिशा देने में योगदान का गौरव हासिल करें. शिक्षक को मिसाल से पढ़ाना चाहिये. मार्क्सवाद की अालोचना करने वालों से अाग्रह है कि वे 6 पेज -- "THESES ON GEURBACH" (2PAGES) AND Preface of "A Contribution to the Critique of Political Economy"(4 pages) -- तो अालोचना में थोड़ी प्रामाणिकता अा जायेगी तथा मार्क्सवाद की विषयवस्तु का अंदाज लग जायेगा. अनुज अग्रवाल की बात से भी सहमत हूं कि विचारों के अनुसार अाचरण. मार्क्सवाद की मूलभूत अवधारणाओं में THEORY OF PRAXIS है जो कथनी-करनी की एका के बारे में है. अंतरविरोधों से परिपूर्ण वर्ग समाजों में व्यक्तित्व का अंतरविरोध अपरिहार्य है. शासक वर्ग की विचारधारा शासक विचारधारा होती है जो सत्ता के वैचारिक अौजारों के माध्यम से युगचेतना का निर्माण करती है. मार्क्सवादी इस अंतरविरोध को समझता है अौर अपने अाचरण से शुरू कर इसकी समाप्ति का निरंतर प्रयास करता है. सिद्धांतों की सही परख तभी होती है जब खुद पर लागू हो.अाप सही कह रहे हैं कि मार्क्सवाद दुनिया को समझने का एक गतिमान विज्ञान है अौर उसे बदलने की विचारधारा. जो लोग इस धर्म बनाते हैं वे प्रतिक्रांतिकारी हैं. इन्ही लोगोंका मजाक बनाते हुये मार्क्स ने कहा था कि शुक्र है खुदा का कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूं. जो लोग तथाकथित मार्क्सवाद या तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, वे या तो मार्क्सवाद या धर्मनिरपेक्षता को सही मानते हैं या जानने की झंझट उठाये बिना इसे मानने वालों को तथाकथित करार देते हैं. यदि सही है तो उसे उसके छद्म अनुयायियों से मुक्त कर सही दिशा दें. किसी ने किताबी ज्ञान का तंज कसा था. पढ़ना-समझना परिवर्तनकामिता की पहली शर्त है. फांसी से चंद दिनों पहले विद्यार्थियों के नाम भगत सिंह का खत जरूर पढ़ें. मैंने शेयर किया था. नेट पर उपलब्ध है. मौत के चंद लमहों पहले तक पढ़ते रहे. भावनाओं या स्वहित विद्रोह बागियों का विद्रोह है जिसकी दिशाहीनता उसे नष्ट कर देती है. विचारों पर अाधारित विद्रोह क्रांति है. महिलाओं, दलितों, किसानों अादिवासियों. विद्यार्थियों के जारी अांदोलन क्रांति की निरंतरता के हिस्से हैं. वामपंथी अांदोलनों की जड़ता तथा साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की मुखर अाक्रामकता के इस अंधे युग में क्या करना है. मुख्य काम है युगचेतना के विरुद्ध सामाजिक चेतना का जनवादीकरण. बाकी अगली क्लास में.

Saturday, April 4, 2015

क्षणिकाएं 43 (641-50)

641
पहले तो देता हूं उस कलाकार की दाद
बनाया है जिसने ये अद्भुत कोलाज़
पूरी हो उसकी होलियाने की मुराद
रहे वो चाहे मिर्जापुर में चाहे इलाहाबाद
नहीं अाती मगर समझ में ये बात
पुष्पा की अदृष्य मूंछों का क्या राज
कहां गयीं रेणुयें रमेश अौर सोनकर
मस्त होंगी कहीं सुध-बुध खोकर
ईश मिश्र की मूंछों पर काला बरैकट
सफेदी पर कालिख का आसन्न संकट
निकल जाती ये बात अक्सर दिमाग से
40 साल पहले थे 20 साल के
यौनाओं से करते अाशिकी की बात
पड़े चांद पर चाहे जितने लात
लेते हैं ईश्वर से हमेशा पंगा
भक्त कर देंगें उनको भला चंगा
संजय की मूंछें तो उगते ही तन गयीं
राणाप्रताप की तलवार बन  गयीं
दिखता नहीं वो सदाबहार अाशिक
मारता है कुलाचें लौंडों की माफिक
नाम नहा उसका शशांकशेखर
पड़ा होगा कहीं भांग पाकर
अापूर्ति में अाई बाढ़ अनोखी/
पेंद्र की मूंछें हो गयीं काली चोखी
दिख नहीं रही वाचाल अनुराधा
अाशिकी में गयी होगी बाधा
अरुण दिख रहे अाशिक मायूस
गाफिल ने  लगाया है पीछे जासूस
किसकी है टेढ़ी ये भंगिमा
लगती तो हैं त्रिपाठी प्रतिमा
कहां गयी श्रीवास्तव अारती
अाशिकी जिनकी कुलाचें मारती
बंद करता हूं अब .ये फगुअा
ता हूं सभी को हजारों अाशिकी की दुअा.
 बुरा ही मानो होली है.
(ईमिः 04.03.2015)
642
बहुत मजबूत है तुम्हारा पुलिस अौर बाउंसरों से रक्षित दुर्ग 
मगर हमारे विप्लवी जज्बातों से कमतर
जनबल की दस्तक से ही टूट गिरेगा दुर्गद्वार
एक ही धक्के में ढह जायेगा ज़ुल्म का किला 
(ईमिः 12.03.2015)
643
बजट 2015-16
आओ आओ आओ
सभी लोग आगे आ जाओ
बच्चों आओ बूढ़ों आओ
नवजवान तो आओ आओ
आओ बैठो और सुनो
सुनो सुनो सुनो
अच्छे दिन की व्यथा सुनो
विकास बजट की कथा सुनो
बेदखली की व्यथा सुनो
आओ बैठो और सुनो
सुनो सुनो सुनो
सुनो और गुनो
कहा वज़ीर-ए-आजम ने राष्ट्र की तरक्की
किया वज़ीर-ए-खारजा ने इक नूरानी बजट की पेशगी
वाचाल हो गये हैं विकास से बैर रखने वाले
लग जायेंगे जुबां पे उनके मगर ताले   
बताते इसे जो कॉरपोरेटी बजट का सरताज
तो क्या भूखे-नंगे करेंगे राष्ट्र का विकास
दिखता नहीं इन्हें भूमंडलीय पूंजी का संकट
लग जायेगा विश्व-बंधुत्व पर कलंक एक विकट
है ये निवेश के विकास का यह जो बजट
बताते हैं ये इसे मुल्क के साथ छल-कपट
करता नहीं बजट कटौती में भेद-भाव
कम करता है बजट शिक्षा का और घटाता है कारपोरेट
करता कटौती शिक्षा-स्वास्थ्य के मद में
और बढ़ाता दवा का दाम
विकासशील राष्ट्र में भूखो-नंगो का क्या काम
बीमारियां कर देंगीं इन सबका इंतज़ाम
भूखे-नंगों से मुक्त करना है ग़र आवाम
बहुत ऊंचा रखना पड़ता है दवाओं का दाम
शिक्षा का बजट होता नहीं पहले भी बहुत ज्यादा
हो जाते थे तब भी कुछ घुरहू-रमझू पढ़ने पर आमादा
इस बजट ने किया है बढ़िया इंतजाम
स्वास्थ्य-शिक्षा नहीं है सरकार का काम
शिक्षा है मूल्यवान सामग्री
दाम बिना न मिलेगी डिग्री
खुली हैं दुकानें तरह तरह के ज्ञान की
कोचिंग से विश्वविद्यालय तक के संज्ञान की
होती न अगर शिक्षा-स्वास्थ्य के बजट में कटौती
कैसे हो पाती रक्षा बजट में इतनी अधिक बढ़ोत्तरी
सेना है राष्ट्र की महानता का साश्वत मानदंड
बगल में है दुश्मन देश पाकिस्तान महा उद्दंड
बेचता है अमरीका दोनों देशों को हथियार
हो जायगा वरना वहां का सैन्य उद्योग बेकार
खत्म नहीं हुई है अभी बजट की पूरी कहानी
मगन हैं मगर दुनिया के सारे अडानी-अंबानी
644
बजट पुराण
बजट है घोर राष्ट्वादी इस बार
खुश हो गया है कॉरपोरेटी संसार
यह बज़ट है इतना आलीशान
देश बनेगा अवश्य महान

अच्छे दिनों के दिखते हैं निशान   
चकमक चमकेगी कॉरपोरेटी शान
बेबस होंगे जब मजदूर किसान
राष्ट्र बनेगा तभी महान
यह बज़ट है इतना आलीशान
देश बनेगा अवश्य महान

बनना है मुल्क को जो दुनिया में बड़ी ताकत
बजट से होगी विदेशी पूंजी की बहुत लागत
करती नहीं ये बजट बढ़ोतेतरी में भेदभाव
बहुत ही निष्पक्ष है इसका राष्ट्रवादी स्वभाव
बढ़ायेगा नहीं तेजी से अमीर की अमीरी ही
बढ़ायेगा उसी गति से गरीब की गरीबी भी
असमानता ही नहीं बढ़ेगी परकैपिटा इनकम भी
आय के औसत में एक से हैं रमझू-ओ-अंबानी
देश बनेगा उतना ही महान
बौना होगा जितना इंसान
यह बज़ट है इतना आलीशान
देश बनेगा अवश्य महान

कटौती में भी ये बजट करता नहीं पक्षपात
हो जैसे युधिष्ठिर के धर्मराज्य की कोई बात
करता नहीं कटौती सिर्फ कारपोरेट के कर में ही
करता है कटौती शिक्षा-ओ-स्वास्थ्य के मद में भी
राष्ट्र बनेगा उतना ही महान
जितने ऊंच-नीच होंगे इंसान
यह बज़ट है इतना आलीशान
देश बनेगा अवश्य महान

शिक्षा है मूल्यवान सामग्री
दाम बिना न मिलेगी डिग्री
खुली हैं दुकानें तरह तरह के ज्ञान की
कोचिंग से विश्वविद्यालय तक के संज्ञान की
होगी जिसकी जेब गरम जितनी
मिलेगी शिक्षा उसको उतनी
देश बनेगा उतना ही महान
लेफैगा जितना अज्ञान
यह बज़ट है इतना आलीशान
देश बनेगा अवश्य महान
स्वास्थ्य है हर व्यक्ति का निजी मामला
निजता पर यह बजट न करेगा हमला
जरूरी नहीं है सबका रहना सेहतमंद
इलाज होगा उनका जो होंगे कर्मठ दौलतमंद
वैसे भी  मुल्क की है बेइम्तहां आबादी
फिजूल है गरीब के इलाज पर धन की बर्बादी
मरेगा अगर भूख से तो लगेगा सरकार पर इल्जाम
रोग से मरेंगे तो छपेगा स्वाभाविक मौत का नाम
करेगी सरकार ग़र हर गरीब का इलाज
कैसे चलेगा मेडिकल-माफिया का कामकाज़
देश बनेगा तभी महान
बेइलाज मरेगा जब इंसान
यह बज़ट है इतना आलीशान
देश बनेगा अवश्य महान

गांव हैं मुल्क के पिछडेपन की निशानी
शर्मसार करते मुल्क को किसान-ओ-किरानी
गांव के शहरीकरण की है विश्वबैंक ने ठानी
लिखता है ये बजट स्मार्ट सिटी की कहानी
है इस बजट में मुकम्मल प्रावधान
न बचेगा किरानी न बचेगा किसान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

पहले ही कट चुकी है खाद-पानी की सब्सिडी
खत्म नहीं हुई तब भी किसानों की मौजूदगी
देश बनेगा तभी महान
खेती होगी जब उद्योग समान
कैसे खडा होगा कृषि-उद्योग का वजूद
देहातों में रहेंगे जब तक किसान मौजूद
करता है ये बजट पूरा इंतजाम
करने को किसानी का काम तमाम
राष्ट्र बनेगा तभी महान
उठ जायेगा जब धरती से किसान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

करेगा वालमार्ट अब यहां पर किसानी
देगा वही अब हम सबको दाना पानी
राष्ट्र बनेगा तभी महान
कॉरपोरेट बनेगा जब नया किसान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

मिलेगा नहीं मजदूर को कोई भी अधिकार
फैलेगा वरना उनमें कामचोरी का विकार
करेगे वे वाजिब मजदूरी का विचार
झंझट में पड़ेगी कॉरपोरेटी सरकार
बजट ने किया है ऐसा प्रावधान
बने रहें मजलूम मजदूर-किसान
राष्ट्र बनेगा तभी महान
भूख सहेगा जब आम इंसान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

नहीं है यह बजट नमकहरामी का
व्यर्थ नहीं होगा चुनावी निवश अंबनी-अडानी का
मध्ययुगीन है मुल्क का फुटकर बाजार
करना है उसमें मूलभूत सुधार
नहीं रहेंगे आढ़तिये और किरानी शेष
मिट जांयेगे ये मुल्क के मध्ययुगीन अवशेष
हर कस्बे में खुलेगी जब वालमार्ट की दुकान
भूमंडलीय हो जायेगी फुटकर बाजार की शान
राष्ट्र बनेगा तभी महान
विदेशी पूंजी की जब बढ़ेगी शान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान
बेचेगा वालमर्ट मुल्क में नमक तेल
जेनेटिक फसलों की होगी रेलमपेल
चलाते जितना कारोबार बयालिस करोड़ लोग
वालमार्ट करता उसके दहाई मजदूर प्रयोग
बढ़ेंगे मुल्क में बेइम्तहां बेरोजगार
सस्ते श्रम से चलेगा कॉरपोरेटी कारोबार
देश बनेगा तभी महान
त्रस्त रहेगा जब आम इंसान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

पानी है दुनिया की बहुत ही अहम चीज
प्रबंधन के बिना हो गया है नाचीज
प्रबंधन पर है कारपोरेटी एकाधिकार
पानी के निजीकरण के हैं इसमें विचार
मिलेगा तब पानी को पूरा सम्मान
बीयर से अधिक होगा उसका दाम
राष्ट्र बनेगा तभी महान
पानी को तरसेगा जब आम इंसान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

होती न अगर सोसल सेक्टर के बजट में कटौती
हो न पाती रक्षा बजट में इतनी अधिक बढ़ोत्तरी
फैलेगा न अगर युद्धोंमादी राष्ट्रवाद
रुक जायेगा मुल्क का आर्थिक विकास
इसीलिये इजाफा किया बजट में विध्वंसक हथियारों के
तोप, टैंक और युद्धक विमानों के
जब देखो इतराता है कल का पाकिस्तान
बम गोलों से बना सकें जिससे वहां रेगिस्तान
मांगती है महानता एक महान सेना
हथियारों की दलाली में सुरक्षित है लेना-देना
यह राष्ट्र बनेगा तभी महान
शस्त्र बाजार को जब देगा अनुदान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

सेना की मजबूती इसलिये भी जरूरी
कश्मीर में रहते हैं काफी कशमीरी
जिसके आधे में है पाकिस्तानी सेना काबिज
आधे पर हिंदुस्तानी कब्ज़ा है बिल्कुल वाज़िब
पाकिस्तान ने भी बढ़ाया है रक्षा बजट
मिल दोनों दूर करेंगे उपमहाद्वीप का संकट
करेंगी दोनों सरकारें अावाम का निर्बाध  दमन
गूंजेगा जब तक राष्ट्रवादी नारों से गगन
खिलखिलायेगा थैलीशाहों का चमन
फैलेगा तब इस भूभाग में चैन-अमन
नहीं है सीमित कश्मीर तक बगावत
फैली मध्य भारत होते दक्षिण पूर्व तक
देश बनेगा तभी महान
होगी जब सेना बलवान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान

यह बजट है वाक़ई बहुत महान
छोटों का छोटा बड़ों का बड़ा लगाती हिस्सा समान
यह बजट है इतना आलीशान
राष्ट्र बनेगा अवश्य महान
(ईमिः 17.03.2015)
645
कायर होता है हमलावर अौर निहायत डरपोक
डराना चाहता है हमें हथियरो के बूते
नहीं जानता वह मूर्ख यह बात
डरता नहीं  क्रांतिकारी न भूत से न भगवान से
जानता है वह यह  रहस्य
कि डर डर कर जी नहीं जाती ज़िंदगी
डर डर कर मरता है नामाकूल मंद गति से
जानता नहीं वह निडर ज़िंदगी का लुत्फ
लिख रहा था किशोर भगत सिंह जब क्रांतिकारी अांदोलन का इतिहास
पूछा था इक सवाल खुद से
कि क्यों लड़ता है इंकिलाबी मज़लूमों के लिये
खुद-ब-खुद दिया था जवाब खुद को
कि क्योंकि अौर कोई रास्ता नहीं है उसके पास
डर कर हमलावर हो रहा है कायर डरपोक
क्योंकि हमने डरना बंद कर दिया है.
(ईमिः21.03.2015)
646
जो डरते हैं वे जीते नहीं, खींचते हैं ज़िंदगी पशुवत
करते हैं वफादारी कुत्तों की तरह किसी बड़े टुकड़े की अाश में
(ईमिः 21.03.2015)
647
लोकसभा के चुनाव के समय इस अाशय की एक तुकबंदी  की थी,  मिल नहीं रही है, फिर से कोशिस करता हूं.

 बॉस से नहीं उसके कुत्तों से लगता है डर
भौकते हैं जो बेबात किसी भी पथिक पर
करते हैं पीछे  से वार अपनी ही जमात पर
अाती है बात जब हड़्डी के बड़े टुकड़े पर
पाते ही कुर्सी का अाश्रय पड़ता है इन पर ऐंठने का दौरा
बैठ जाते हैं दुम हिलाकर पाते ही रोटी का छोटा सा कौरा
चलते हुये रथ के नीचे सोचते हैं खुद को इंजन रथ का
अौर पावर हाउस अनुशासन के ज़ीरो पावर बल्ब का
इनकी प्यार-पुचकार में भी होता है 14 इंजेक्सनों का डर
(वह बात नहीं आ पायी)
(ईमिः22.03.2015)
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लोकसभा के चुनाव के समय इस अाशय की एक तुकबंदी  की थी,  मिल नहीं रही है, फिर से कोशिस करता हूं.

 बॉस से नहीं उसके कुत्तों से लगता है डर
भौकते हैं जो बेबात किसी भी पथिक पर
करते हैं पीछे  से वार अपनी ही जमात पर
अाती है बात जब हड़्डी के बड़े टुकड़े पर
पाते ही कुर्सी का अाश्रय पड़ता है इन पर ऐंठने का दौरा
बैठ जाते हैं दुम हिलाकर पाते ही रोटी का छोटा सा कौरा
चलते हुये रथ के नीचे सोचते हैं खुद को इंजन रथ का
अौर पावर हाउस अनुशासन के ज़ीरो पावर बल्ब का
इनकी प्यार-पुचकार में भी होता है 14 इंजेक्सनों का डर
(वह बात नहीं अा पायी)
(ईमिः22.03.2015)
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चिराग जलता रहेगा सहर होने तक
जंग चलता रहेगा अमन अाने तक

डर है कि काले बादलों से न घिर जाये माहताब
दाग़दार न हो जाये इक नई सुर्ख सुबह का ख़ाब

अाम अादमी की भूमिका में थे जब अाप
सोचा था लोगों ने कम होगा कुछ संताप

मगर बनते ही खास आम से
दफ्न किया नैतिकताआराम से

उतार फेंका अाम आदमी का चोंगा
अावाम को दुत्कारा कह पंडित पोंगा

अपनाया सत्ता पाने की मैक्यावली की सलाह
किया न मगर चलाने के मशविरों की परवाह

अवश्यंभावी है उसी तरह आपका सर्वनाश
हो रहा है जिस तरह वंशवाद का सत्यानाश

 क्रांति का बीज जब बोयेगा आवाम
होगा सब  फरेबियों का काम-तमाम.
(ईमिः29.03.2015)
650
अंतिम कविता
जीवन अंत की तरफ अग्रसर है
और लिखना है अभी पहली कविता
और पहली किताब
अंतिम कविता उस दिन लिखूंगा
पूरा होगा जब दुनिया बदलने का ख़्वाब
(ईमिः05.04.2015)