इस ग्रुप में एक सज्जन ने एक पोस्ट डाला कि एक हिंदू प्रोफेसर जेएनयू से पीएचडी करके कम्युनिस्ट बन गए और मुसलमान वहां जाकर जमाती-तबलीगी बन जाते हैं, उस पर कमेंट:
जेएनयू में संघी भी हैं, वदां के तर्क और विवेक के माहौल में कई अंधभक्त भी विवेकशील हो जाते हैं। मेरे जैसे लोग इलाहाबाद से ही नास्तिक, मार्क्सवादी और हिंदू(बाभन) से इंसान बन कर जेएनयू जाते हैं। कुछ लोगों के दिमाग में हिंदू-मुसलमान का जहर इस कदर भरा होता है कि खबरें देवलोक से आयात करते हैं। मेरे जानने वाले जेएनयू में जितने मुसलमान हैं ,सब जमाती-तबलीगी टाइपों के कट्टर दुश्मन और ज्यादातर कम्युनिस्ट हैं। इलाहाबाद के जितने हैं सब पार्टी मेंबर। प्रो. अली जावेद सीपीआई के पार्टी होल्डर और प्रगतिशील लेखक संघ का सेक्रेटरी है, इवि में और जेएनयू में भी मेरा सीनियर था। फरहत रिजवी सीपीआई में है। जितने इलाहाबादी गैर मुस्लिम है नए लड़के लड़कियों में एकाध लआइसा वगैरह में हैं, मैं पार्टीविहीन हूं, राज्यसभा सासंद डीपी त्रिपाठी (दिवंगत) एनसीपी में थे। चुंगी के सक्रिय सदस्यों में ज्यादातर फिरकापरस्त सवर्ण मर्द जरूर हैं, कुछ के पास तो लगता है हिंदू-मुसलमान का जहर फैलाकर सामाजिक प्रदूषण के प्रसार के अलावा कोई काम ही नहीं है। इस पोस्ट और इस पर कमेंट्स में सांप्रदायिक दुराग्रह, विद्वेष, चरित्रहनन की भावना और कुंठा झलकती है। सादर।
पुनश्च: लखनऊ का एक लड़का था नवाब अली वारसी, सीपीआई में इलाहाबादी ज्यादातर शिया थे, तो मजाक करता था. 'जब से मालुम हुआ खुदा सुन्नी था, सारे शिया कम्युनिस्ट हुए जाते हैं।'
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