Monday, October 31, 2016

दस्तूर-ए-निजाम-ए-मजहब

ऐसा ही रहा है दस्तूर निजाम-ए-मजहब का
खुदा पापी कह कर फेंकता है जिसे अपने निजाम से
करता है वह इंसान इबादत उसी खुदा का
इसीलिए नकारता हूं खुदाओं की हस्ती
क्योंकि ढाते हैं वे इंसानियत पर
भक्तिभाव का जुल्म
(ईमिः 01.11.2016)

Saturday, October 29, 2016

फुटनोट 82

मैंने तो 13 साल की उम्र में जनेऊ तोड़ दिया था, अब लगता है, तभी से, शायद अनजाने में, विरासत में मिले ब्राह्मणवादी संस्कारों से मुक्ति का मुहिम शुरू हुआ जो 17 साल की उम्र तक नास्तिकता की मंज़िल तक पहुंच गया. ब्राह्मणवाद (जातिवाद) के विनाश के बिना क्रांति असंभव है और क्रांति के बिना जातिवाद का विनाश. इसलिए ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अस्मिता आधारित दलित चेतना को अग्रगामी वर्ग चेतना में बलना पड़ेगा. जयभीम-लालसलाम नारे के प्रतीक को सैद्धांतिक और अमली जामे की जरूरत है.

बेतरतीब 14

बिच्छू के मंत्र के अनुभव की अपनी एक पोस्ट पर निम्न कमेंट लिखा गया सोचा शेयर कर दूं.

मैं उस समय 6-7 साल का था. मैंने एक-दो बार पिता जी को मंत्र प्रयोग करते ध्यान से देखा और जमीन पर राख पर लाइन खींचकर लिखे दो शब्दों को पढ़ सका. हथेली पर भी, सोचा, वही लिखा होगा. मन-ही-मन कुछ मंत्र भी पढ़ते थे. मंत्र बुबुदाने की अवधि में निरंतरता बनाए रखने के लिए मैं गायत्री मंत्र बुबुदाता था. पहली कामयाबी के बाद अपने आप सिद्ध हो गया. मेरा तो मेडिकल ज्ञान शून्य है लेकिन मुझे लगता है जैसा ऊपर मैंने लिखा है, मंत्र शायद आस्थावान को कुछ मनोवैज्ञानिक राहत देता होगा, जिससे दर्द का एहसास कमता होगा, उसी तरह जैसे मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा है कि यह पीड़ित का सुकूं है जो उम्मीद की खुशफहमी देता है. चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में, लोग मंत्र-तंत्र में इलाज खोजते हैं उसी तरह जैसे सचमुच की खुशहाली के अभाव में लोग उसे धर्म में खोजते हैं. यदि लोगों को समुचित चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो तो मंत्र-तंत्र स्वतः अनावश्यक हो जाएगा और परिणाम स्वरूप निरर्थक, उसी तरह जिसतरह यदि लोगों को सचमुच की खुशहाली मिलेगी तो धर्म अनावश्यक हो जाएगा और अपने-आप खत्म हो जाएगा. इस लिए हमारा संघर्ष धर्म के विरुद्ध नहीं उन ताकतों के विरुद्ध होना चाहिए जो लोगों की बदहाली के श्रोत हैं. आज, नवउदारवादी युग में,बदहाली की सभी नदियों का श्रोत है साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी. राष्ट्रवाद इन नदियों के प्रवाह की निरंतरता का उपकरण है और राष्ट्रोंमाद लोगों की बदहाली से ध्यान हटाने की रणनीति. हमारे मुल्क में तो कॉरपोरेटी पूंजी और ब्राह्मणवाद (धर्म) का लंगोटिया यारों सा गठबंधन है. हमला संयुक्त है, संघर्ष भी संयुक्त होना चाहिए. छात्रों ने जयभीम-लालसलाम नारों की प्रतीकात्मक एकता से संघर्ष की एकता का पथ प्रशस्त किया है, प्रतीक को जीवंत बनाने की जरूरत है.

Marxism 23

I had written long comment some time back on an Anirban's post. Originally among the communist leaders Brahmins were in majority because to be a communist is to be able to critically comprehend the history that (leaving exceptions like Kabir) needs access to intellectual resources. But it was intellectual inability of the dealership to appropriately comprehend the contradictions, despite best intentions. They thought the agenda of "birth" qualification, that was banished by bourgeois democratic revolution in Europe inclusive in quest for economic equality, a deterministic Marxism and hence didn't separately address this question. Another reason is inability of parties to impart political education to its cadre to expedite their journey from "class-in-itself" to "class-for-itself" the domination of 'upper caste' born people in the leadership would have automatically withered away. Anyway, the fascist attack is intense and on all. Unity of resistance is the compulsion that should be used as blessing in disguise, an opportunity to transform the symbolic unity of Jay Bhim-Lal Salam into theoretical and practical unity with will. Our destination is same - a society free from any kind of discrimination and exploitation, also free from superstitions, ignorance and jingoism.

बेतरतीब 13

Shikha Shikha की पटाखों की सोंधी गंध पर एक पोस्ट पर यह कमेंट लिखा गया. सोचा तांत्रिक होने का अनुभव सबसे शेयर करूं.

पटाखे की सुगंध मुझे बुरी नहीं लगती, लेकिन मेरी बेटी ने तीसरी कक्षा में सपथ ली थी तबसे घर में पटाखे नहीं आते. मेरे बचपन में छुरछुरी-पटाखे, उस अंचल के गांव तक पहुंचे नहीं थे. दीपावली में महज दीप होते थे. हम सब बड़े उत्साह से, दूर के खेतों समेत, सभी बागों, खेतों, कुओं पर दिए रखते और सुबह, तड़के ही दियली 'लूटने' निकल पड़ते थे. 'लूटी' हुई दियलियों से तराजू और रेल समेत तरह-तरह के खिलौने बनाते थे. साल भर का मामला होता था इसलिए लालटेन जला जलाकर किताब भी खोल लेते थे. हमउम्र बच्चे मुझसे बिच्छू का मंत्र बताने का आग्रह करते और मैं 'बताने से मंत्र बेअसर हो जाता है' कह कर टाल देता. वे सब मेरी जासूसी करके कि मैं कहीं-न-कहीं जाकर मंत्र 'जगाऊंगा'. अब मंत्र हो, तब तो जगाऊं! पहली दो पंक्तियों का ही कमेंट लिखना चाहता है लेकिन बुढ़ापे में कलम की आवारगी, ठीक तो नहीं होता, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? अपने बिच्छू के दंश का अतिवांछित तांत्रिक होने की बात पता नहीं कैसे सूझ गई. लगता है सठियाने के बाद बचपन ज्यादा याद आता गई. इसके विस्तार में तो लंबा लेख हो जाएगा, इसलिए संक्षेप में. मेरे पिताजी बिच्छू समेत कई चीजों के मंत्र "जानते" थे. अब आप कह सकते हैं कि वामपंथी बाप-दादा की बुराई करते हैं, लेकिन मैं इसे विवेकसम्मत, तार्किक आत्मावलोकन मानता हूं. मैं ठीक से तो नहीं बता सकता, लेकिन 5 साल से बड़ा था और 10 से कम. इतना छोटा था कि अगल-बगल के गांव के लोग रात को सोते हुए गोद में "उठा" ले जाते थे. 5वें साल में मेरी मुंडन हुई और 10वें साल में छठी कलास में, इस स्टेटस और फरेब से ऊबकर छोड़ दिया था. बच्चों की निगाहें गजब की पैनी होती हैं, वे गजब के नकलची भी होते हैं. मैं मंत्र की प्रक्रिया को गौर से देखता था. प्रक्रिया का वर्णन लंबा हो जाएगा, इस लिए फिर कभी. एक दिन गांव के किसी अन्य टोले का कोई पिता जी को खोजते आ गया. उनकी बेटी (12-13 साल या ऐसे ही) को बिच्छू ने डंक मार दिया था. पिताजी घर पर थे नहीं. अंधे के हाथ बटेर लग गई. मैंने बहुत आत्मविश्वास के कहा कि चलिए मैं झाड़ देता हूं. वह लड़की तकलीफ से लोट-पोट हो रही थी. मैंने एक गंभीर तांत्रिक की मुद्रा में, पिताजी की तरह राख फैलाकर, उंगली से 1 लाइन खीचकर उस पर उसकी डंक वाली हथेली रखवा कर लाइन के दूसरे सिरे पर ओम (एक अच्छर वाला) बीज लिखा, बांई हथेली पर भी वही लिखा, मन-ही-मन कुछ मंत्र पढ़ा(गायत्री मंत्र ही याद था) और तान बार ताली बजाया. यह प्रक्रिया 5-6 बार दोहराया और उसका दर्द कंधे से उतर कर डंक की जगह के आस-पास सिमट गया. रातो-रात मैं अपने और अगल-बगल के गांवों में मशहूर हो गया. सब ठीक हो जाते थे. मुझे "सेलिब्रिटी" स्टेटस में मजा आने लगा. मुझे समझ में नहीं आता था कि बिना जगाए मंत्र से सबकी सचमुच की पीड़ा कसे कम-खतम हो जाती थी कम हो जाती थी? सोचा शायद इन “पवित्र” शब्दों में कुछ करामाती महिमा हो. लेकिन एक बात कभी-कभी खटकती थी कि पिताजी ने मुझसे उनका एकाधिकारिक मंत्र मैने किससे सीखा? 6-7 साल के लड़के के लिए सुकून की बात थी. मुझे लगता है भौतिक पीड़ा की गहनता मनोवैज्ञानिक मनोस्थिति से जुड़ा होता है.
बाप रे! फुट नोट इतना लंबा हो गया कि टेक्स्ट ही गायब हो गया. 1967 में जब पढ़ने शहर आया तो दीवाली में पटाखे और छुरछुरियां ले गया. तबसे संयुक्त परिवार के सारे भाई-बहन और पड़ोस के हमउम्र हर साल हमारी छत पर घंटों पटाखे-छोड़ते. गांव में आखिरी दीवाली के कितने साल हो ठीक से तो नहीं याद, लेकिन 3 दशक तो हो ही गए होंगे.

Wednesday, October 26, 2016

Marxism 22

This a 2011 fb post and few comments


A religious minded, fb friend asked me about when was the golden period of socialism?
Let us look at the course of history as it had been dont look for any golden period. Golden period is a myth created by the ruling classes. hitherto history has been the history of class-conflicts. The cliched concept of all the ruling classes has been"The past has been glorious and future is bright", just bear with the miseries of the present, he he hee. The societies looking for the golden period in the past are stagnant societies. The Hindutva forces under the tutelage of RSS want to take us to the highest glory of the past, without telling us, when was that golden past. History evolves the laws of its own dynamics and its engine does not have back gear. Knowledge is continuously evolving process, each generation consolidates and builds upon the achievements of previous generations, and hence every next genertion, in general is smarter. In Hindu mythological world the progress is so regressive that it begins with the "climax" -- Satyuga and rolls down to the lowest stage -- the Kaliyuga in which even the Shudra will assert rights and scholarship. That is followed by Treta symbolised by an "ideal", Lord Rama, without going into comprehensive details of this period, when a Shudra, Sambuk was meditating in the forest , it seemed the clamity had fallen on the system he represented, and instead of sending his trusted leftinents --Hanum , laxman, ..... -- went himself to kill him. In the next best phase, an ideal teacher destroys the talent by cutting the thumb of a tribal boy trying to learn archery, but tribals learnt the art of shooting arrows without the use of thumb. And historical golden period is Gupta period during which the Varnashram system got consolidated and Manusmriti, one of the most reactionary scriptures perpetuated its inhuman commandments. In Islam, Mohammad, an intelligent poor Arab with potentialities of great mass mobilization declared hiself to be the last prophet in the sequence of many preceding and found misery-stricken people simple enough to be3lieve him and hence the golden period. He combined the religious and political authorities in a single person Imam/emir whose most barbaric culmination was the fascist Khomeini. It was such a golden period that followers and kinsmen waged a bloody battle for the seat of power. therefore let us care for the struggles of today for justice and basic human rights against corporate-led plunder of the earth in connivance with their political agents across the countries. Religion by definition is retrogressive as it looks to past for inspiration an does not allow question and radical doubt.

SH@ what is difference between "sruggle" and 
Upendraprasad Singh THESE TWO ARE DIFFERENT WORDS HAVING DIFFERENT MEANINGS

The conflict is the contradictions of the interests -- class interest in the present context and struggle is to comprehend the contradiction and fight it out to eventually end it. This conflict is not matter of economic bargain but a social relation of domination and subjugation. As domination occurs at various levels -- economic; cultural; political; juridical......... hence the struggle takes place at various levels and is ongoing process. We are contributing to it our bit (positively/negatively) through our each word and action. revolutions and uprisings are its most visible manifestations.

Upendraprasad Singh You are very correct that the beginning sentences of the Manifesto contain "class struggle". The overt-covert struggle is regarding irreconcilable conflict of class-interest. The notion of Class and Class conflict had been invented by liberals for whom it was a problem to be solved, Marx and Engels contribution is specification of conflict that is irreconcilable as the antagonists don't represent as individuals but some total of social relations in which they stand -- the Relations of Production. I use the class-conflict and Class-struggle interchangeably, now on I shal be careful.
(Bahir's comment on Marxism and revolutionary nature of Islam is probably deleted.)
Mr. Abdul Baseer, if you are really interested in any meaningful deliberations, please read and discern the post and subsequent comments and refrain from putting your words & fantasies in other's mouth. We are authentic atheist and materialist for whom truth has to be proved in practice, anything that can not be proved is not truth. Let me ask you one simple question, what do you know about socialism, from what source? or for that matter what do you know about capitalism from what source? I am asking this question because many people without knowing ABC of a concept come out with judgmental statements, fatwas and I agree with Anton Chekhov, that Art for Art sake is crime. We don't live in fantasies that is the area of excellence of ecclesiastical scholars and theologians who obfuscate the reality by philosophically abstracted concepts, dogmas and myths. Giving you a lecture on historical materialism would be out of place and waste of time (Don't take it as my vanity). History of capitalism, that began with the promise of heaven, is over 500 years old, would you tell me when was/is its golden period unless its attributes are unprecedented crime of expropriation of peasantry; unprecedented colonial plunder and extermination of majority of native populations of Americas and Australia; Plunder/occupation of African communities and re-institution of Slavery, the most vulgar, barbaric, inhuman form of exploitation of human beings by "inhuman beings"; the unprecedented bloodshed for imperialist division of the world. The history of socialist experiments, that began with the shaking the world in 10 days, is not even a century old, there are setbacks, stalemates but no going back, it's a continuous process. The Socialism is the inevitable alternative of Capitalism, that has to, according to the laws of dialectics has to go. Historically, anything that exists is destined to perish, that is true of capitalism. Long live Revolution.

Monday, October 17, 2016

महिषासुर 1

पुस्तक समीक्षा:
महिषासुर: एक जननायक
संपादक: प्रमोद रंजन
प्रकाशक: द मार्दिनलाइज्ड, वर्धा, 2016


दुर्गा-महिषासुर के मिथक का एक पुनर्पाठ
ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक सांस्कृतिक विद्रोह
ईश मिश्र
एक मशहूर अफ्रीकन कहावत है, “जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, इतिहास शिकारी का ही महिमामंडन करता रहेगा.” इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडेय ने सही कहा है कि इतिहास अतीत की स्मृतियों का संकलन होता है और इसलिए उसका चरित्र संकलनकर्ता की वैचारिक निष्ठा पर निर्भर करता है. सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास की दिशा निर्धारण में मिथकों और उन पर आधारित पर्वों तथा रीत रिवाजों की अहम भूमिका होती है. कोई भी मिथक निर्वात से नहीं पैदा होता बल्कि यथार्थ का ही खास परिप्रेक्ष्य से अमूर्तन होता है, कभी कभी उसमें फंतासियों और अतिशयोक्त की प्रचुरता यथार्थ को अदृश्य बना देती हैं. यथार्थ कुछ समय के लिए अदृश्य हो सकता है, खत्म नहीं, सूक्ष्म अवलोकन से सामने आ ही जाता है. महिषासुर मर्दिनी, चंडी दुर्गा का मिथक सुर-असुर (आर्य-अनार्य) संघर्ष के ऐतिहासिक य़थार्थ से अमूर्तित मिथक है. पिछले 2-3 दशकों में दलित प्रज्ञा और दावेदारी में अभूतपूर्व उफान के फलस्वरूप, ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व के प्रतिरोध स्वरूप व कुछ दलित बुद्धजीवियों ने मिथकों का पुनर्पाठ शुरू किया. शुरुआत 20011 में जेयनयू में इस मिथक के पुनर्पाठ के लिए महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन से हुई.
सुविदित है कि           24 फरवरी 2016 को संसद में जेयनयू को देशद्रोह का अड़्डा की भगवा ब्रगेड की घोषणा और हैदराबाद विवि तथा जेयनयू में जारी सरकारी दमन के औचित्य के पक्ष में, तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री, श्रीमती स्मृति इरानी ने लगभग आधे घंटे का बयान दिया. यह भी सुविदित है जेयनयू के देशद्रोह का अड्डा होने के दस्तावेजी सबूतों में 2014 में जेयनयू में महिषासुर शहादत दिवस के अवसर पर जारी एक पर्चा पेश किया था, जिसे पढ़ने के पहले ‘इस पाप’ के लिए उन्होंने ईश्वर से अग्रिम माफी मांग ली. यह पर्चा दुर्गा-महिषासुर मिथक का वैकल्पिक पाठ है. उपरोक्त कहावत के संदर्भ में शेरों के अपने इतिहासकार पैदा हो गए जिन्होंने इतिहास में शिकारियों के महिमामंडन का खंडन शुरू कर दिया. इस पर्चे में लिखा है कि महिषासुर एक न्यायप्रिय, शक्तिशाली असुर (अनार्य) राजा था जिसे युद्ध में परास्त करने में असमर्थ सुर (आर्य) छल से एक औरत के जाल में फंसाकर धोखे से मार दिया और चंडी दुर्गा नाम देकर उसकी पूजा करने लगे.
जैसा कि सोसल मीडिया में बहुचर्चित है कि आदिम जाति के तौर पर दर्ज असुर समेत तमाम आदिवासी तथा अन्य वंचित समुदाय, मीडिया की दृष्टिसीमा से परे दुर्गापूजा के दिन महिषासुर शोक दिवस मनाते आ रहे हैं. वे अपने को महिषासुर का वंशज मानते हैं. मामला तूल पकड़ा तथा जब जेयनयू के कुछ क्षात्र समूहों ने महिषासुर शहादत दिवस पर सार्वजनिक कार्यक्रमों का आयोजन शुरू किया. शेरों के इतिहासकारों का इतिहासबोध शिकारियों को नागवार लगना लाजमी है. समीक्षार्थ पुस्तक, महिषासुर: एक जननायक, पिछले लगभग पांच सालों के अंतराल में विभिन्न लेखकों द्वारा दुर्गा-महिषासुर मिथक की भिन्न पाठों पर लेखों का संकलन है. उपरोक्त अफ्रीकी कहावत के संदर्भ में, यह शेरों द्वारा शिकारियों के इतिहास को चुनौती देते हुए वैकल्पिक इतिहास लेखन के शुरुआती दौर की एक महत्वपूर्ण कड़ी है.
 देश के विभिन्न भागों में पिछले 4 सालों से विभिन्न दलित, आदिवासी तथा पिछड़े वर्ग के समूहों द्वारा महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जारी सांस्स्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बन गया है. “दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जब 25 अक्टूबर, 2011 को महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया था, तब शायद किसी ने सोचा नहीं होगा कि यह दावानल की सिद्ध होगा. महज चार सालों में ही इन आयोजनों ने न सिर्फ देशव्यापी सामाजिक आंदोलन पैदा कर दिया है बल्कि ये आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के बीच सांस्कृतिक एकता का साझा आधार भी बन रहे हैं. इस साल देशभर में 300 से ज्यादा स्थानों पर महिषासुर शहादत या महिषासुर समृति दिवस मनाया गया. (पृ.79)
पौराणिक कथा का पुनर्पाठ क्यों? इस सवाल का पुस्तक के संपादक तर्कसम्मत जवाब देते हैं. “किसा भी कथा ....... के निहितार्थ को समधने के लिए उसके पाठ का विखंडन जरूरी है. आप किसी भी ब्राह्मण पौराणिक कथा को विखॆडित करते हुए पाएंगे कि वहां नायक-नायिकाओं द्वारा किए गए अन्यायों और छलों को स्पष्टता से स्वीकार किया गया है तथा उन्हें ही उनका शौर्य बताकर अतिशयोक्ति ढंग से महिमामंडित किया गया है. इससे यह तो स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों की नैतिकता मुख्य रूप से शक्ति पर आधारित रही है. न्याय जैसी अवधारणा से उनका दूर दूर तक का वास्ता नहीं था.” (पृ. 13) दर-असल हर युग में मिथकों और उनपर आधाकित उत्सवों का इस्तोमाल वैचारिक/सांस्कृतिक वर्चस्व का एक प्रमुख आधार रहा है. “वस्तुतः यह पुनर्पाठ न्याय की अवधारणा और मनुष्योचित नैतिकता की स्थापना के लिए है. सामर्थ्य पर सच्चाई की विजय के लिए है.” पौराणिक सुर असुर संघर्षों के बारे में राहुल सांकृत्यायन समेत तमाम विद्वानों ने सुर-असुर संघर्षों को आर्य-अनार्य संघर्षों का पौराणिककरण बताया है. “जिस तरह युद्धों के छलों का विवरण पौराणिक कथाओं में मिलता है, उससे प्रतीत होता है कि महिषासुर अपने समयके शूर-वीर तथा उस सामाजिक तबके के सामाजिक-राजनैतिक नेतृत्वकर्ता थे जिनके जीवन मूल्य सुरों (ब्राह्मण/आर्यों) से भिन्न थे. उनके पास सुरों से अधिक शक्ति, साधन और धन भी था. उन्हें हरा पाना सुरों के ले संभव नहीं हो पा रहा था. अतः उन्हें पराजित करने के लिए सुरों ने महिला का छलपूर्वक उपयोग कियौर वे सफल रहे.” (पृ.14) अनादिकाल से आर्थिक-राजनैतिक वर्चस्व के लिए, शासक वर्ग सांस्कृतिक वर्चस्व का इस्तेमाल करते आए हैं. जैसा कि मार्क्स ने जर्मन आइडियालॉजी में लिखा है कि शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, जिसे युगचेतना कहते हैं. पूंजीवाद महज माल का ही नहीं विचारों का भी उत्पादन करता है. जातिवाद के विनाश के लिए अस्मिता गत दलित चेतना का जनवादीकरण जरूरी है, और सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए जातिवाद का विनाश जरूरी है. मिथक और पौराणिक कथाएं  ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व को खाद-पानी प्रदान करते हैं. पुस्तक के संपादन प्रमोद रंजन ठीक कहते हैं कि महिषासुर का पुनर्पाठ ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक ‘सांस्कृतिक क्रांति” का उद्घोष है. जैसा ऊपर कहा गया है, शेरों ने शिकारियों का इतिहास मानने से इंकार कर वैकल्पिक इतिहास लिखना शुरू कर दिया है.
पुनर्पाठ
किताब और विषयवस्तु के परिचयात्मक. ज्ञानवर्धक लेखों के बाद पुनर्पाठ की शुरुआत प्रेमकुमार मणि के शोधपूर्ण, तर्कसम्मत लेख, किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन? से होती है. “..... शक्ति की आराधना का पुराना इतिहास रहा है, लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है. ....... सिंधु घाटी सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने के बाद नहीं रहा. पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल में शक्ति के केंद्र अथवा प्रतीक बदलते रहे. आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा, उसके विविध रूप हमारे सामने आए.” (पृ.17) वे सिंधु घाटी सभ्यता को द्रविड़ों की सभ्यता मानते हैं जिनकी, “सभ्यता में शक्ति पूजा का कोई माहौल नहीं था.” “शक्ति पूजा का माहौल बना आर्यों के आगमन के बाद. सिंधु सभ्यता के शांत-सभ्य गोपालक द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर पीछे धकेल दिया. द्रविण आसानी से पीछे नहीं गए होंगे. भारतीय मिथकों में ये जो देवासुर संग्राम है वह इन द्रविड़ों और आर्यों का ही संग्राम है.” (पृ.18) इसके बाद वाला लेख भी प्रेमकुमार मणि का है जिसमें वे वाजिब सवाल उठाते हैं, “हत्याओं का जश्न क्यों?”
यद्यपि ब्राह्मणवादी पाठ के इन वैकल्पिक पाठों में महिषासुर और दुर्गा के प्रतीकों की व्याख्या में मतैक्य नहीं है, लेकिन इस बात पर आम सहमति है कि महिषासुर अनार्य, मूलनिवासियों, असुरों का एक लोकप्रिय और जनपक्षीय राजा या गणनेता था जिसे आर्य (सुर) युद्ध में न पराजित कर सके तो एक महिला के इस्तेमाल से छल-कपट से उसे मार दिया. मधुश्री मुखर्जी का शोधपरख लेख, संथाल संहारक दुर्गा अपने शोध और पुस्तकों के हवाले से इस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं, “कुल मिलाकर दुर्गा और महिषासुर की कथा आर्यों और आस्ट्रो-एशियाई कबीलों के बीच प्रागैतिहासिक संघर्ष की कथा है. संभव है संघर्ष के पहले ही दुर्गा को मुख्यधारा में शामिल कर लिया गया होगा और वे वर्चस्ववादीसंस्कृति की प्रतीक बन गयी होंगी.” ब्रजरंजन मणि का लेख, दलित-बहुजन दृष्टिकोण और महिषासुर विमर्श ब्राह्मवादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण पर करारी चोट करते हुए, बताता है, “इसका मूल ग्रंथ ‘देवी माहात्म्य’ जो पांचवीं से सातवीं य़ताब्दी के बीच मार्कंडेय पुराण में एक कविता के रूप में लिखा गया है. ....... यह युद्ध की देवी उन पुरानी जादूगरनियों की परंपरा को एक हिंसक ऊंचाई तक उठा ले जाती है.जिसमें मोहिनी (वेश परिवर्तित विष्णु) और तिलोत्तमा (एक अलौकिक सुंदरी) असुरों या अनार्यों को मोहित करती है ताकि सुर या आर्य ब्राह्मण उन्हें पराजित कर सकें.”(पृ.38)  ब्राह्मणवादी ग्रंथों के हवाले से इस सुव्याख्योयित लेख में, मणिजी बहुत प्रासंगिक सवाल उठाते हैं, “भारतीय ब्राह्मणों ने सिर्फ इतिहास-पुराण क्यों लिखे, जो ऐतिहासिक दस्तावेजों के विपरीत मनगढ़ंत विवरण भर होते हैं और जो सच्चाई को उजागर करने की बजाए उसे छिपाते अधिक हैं.” (पृ.40)
ऐतिहासिक सच्चाई है कि ब्राह्मणवाद ने वर्चस्व के लिए इतिहास को मिथकीय, पौराणिक और अलौकिक पात्रों और चमात्कारिक काल्पनिक घटनाओं के जंजाल में कैद कर, समाज के आर्थिक-बौद्धिक विकास को जड़ बनाए रखा. ऐसा वह ज्ञान को निहित स्वार्थों की सीमाओं में परिभाषित कर, शिक्षा के माध्यम से उस पर एकाधिकार स्थापित कर सका. ज्ञान की ब्राह्मणवादी परिभाषा को सर्वमान्य बनाने के लिए जरूरी था ज्ञान की अन्य परिभाषाओं तथा प्रतीकों को नष्ट करना. गौर तलब है कि पुष्यमित्र शुंग द्वारा छल से आखिरी मौर्य सम्राट की हत्या कर मगध सम्राट बनने के साथ ही लोकायत की भौतिकवादी ज्ञान प्रणाली और बौद्ध ग्रंथों तथा संस्थानों-प्रतीकों को नष्ट करने की प्रायोजित शुरुआत हुई. जाने माने चिंतक राम पुनियानी अपने लेख दुर्गा महिषासुर व जाति की राजनीति में पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या की जटिलता की बात स्वीकार करते हुए, मैसूर को महिषासुर के नाम पर रखा बताते हैं. मिथकों की ब्राह्मणवादी व्याख्या पर विवेचना में वे कार्ल मार्क्स को प्रतिध्वनित करते हैं. “वर्चस्वशाली विमर्श हमेशा वर्चस्वशाली जातियों/वर्गों द्वारा निर्मित और प्रायोजित होता है.” (पृ.91) वे मिथकों की इन वैकल्पिक व्याख्याओं को ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध विमर्श का हिस्सा मानते हैं. “यह व्याख्या उस सामाजिक परिवर्तन के साथ उभरी, जिसका आगाज पददलित वर्गों द्वारा अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष शुरू करने से हुआ.”(पृ.92)
पुस्तक में, जेयनयू में 2011 में पहले चर्चित आयोजन के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में महिषासुर की याद में आयोजित कार्यक्रमों तथा मीडिया और सोसल मीडिया में उस पर चले विमर्श का विस्तृत लेखा-जोखा के बीच प्रेमकुमार मणि का भारत को समझो मोदी जी के जरिए उनसे “झूठ के लाक्षागार” से निकलने का आग्रह, रेगिस्तान में मोती की तलाश सा लगता है. इसी पौराणिकता की आड़ में तो उनका उल्लू सीधा हो रहा है, वे इस लाक्षागार से खुद नहीं निकलेंगे. “वर्चस्व प्राप्त लोग उपनी पौराणिकता के बहाने अपने वर्स्व को धार देते हैं, समाज के पीछे रह गए लोग अपनी पौराणिकता की नई व्याख्या कर सांस्कृतिक प्रतिकार प्रतिरोध करते हैं. वर्चस्व प्राप्त लोग राम की पूजा करने को कहते हैं, हमें अपने संबूक की याद आती है जिसकी गर्दन राम ने केवल इसलिए काट दी कि वह ज्ञान हासिल करना चाहता था.”(पृ.97)           
  
पुस्तक के संपादक प्रमोद रंजन इस सांस्कृतिक क्रांति को ब्राह्मणवादियों तथा मार्क्सवादियों से बचाने की सदिक्षा जाहिर किया है. मेरी राय में रोहित बेमुला की शहादत से उपजे जयभीम-लालसलाम नारों की एकता के साथ चल रहा छात्र आंदोलन एक नए सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत का द्योतक है. समकालीन तीसरी दुनिया में जेयनयू के छात्र आंदोलन पर दो लेखों – भारत में नवमैकार्थीवाद: जेयनयू और देशद्रोह (अप्रैल, 2016) और जेयनयू का विचार तथा संघी राष्ट्रोंमाद (मई, 2016) में इस लेखक ने जय भीम – लालसलाम के नारे के साथ जारी छात्र आंदोलन को एक ब्राह्मणवाद और नवउदारवाद के विरुद्ध एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत बताया है. जेयनयू में नवगठित संगठन भगत सिंह अंबेडकर स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेसन का इस नई क्रांति की सैद्धांतिक यात्रा की प्रतीकात्मक शुरुआत की है. इसका मुख्य नारा है, “जाति के विनाश बिना क्रांति नहीं, क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं.” राम पुनियानी जी की बात से बिल्कुल सहमत हूं कि मिथकों की वैकल्पिक व्याख्याएं एक नई दलित चेतना की द्योतक है. वंचितों को अहसास हो गया है कि जिन शास्त्रों के बल पर ब्राह्मणवाद ने समाज को जाति-व्यवस्था का गुलाम बनाए रखा, उसका विखंडन जरूरी है. मिथकों की नई व्याख्याएं इसी प्रक्रिया की कड़ियां हैं. चूंकि वर्चस्व सब स्तरों पर होता है, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक, प्रतिरोध भी सभी स्तरों पर होना चाहिए, लेकिन एक दूसरे से अलग-थलग नहीं, मिलकर. जय भीम – लाल सलाम नारे की एकता सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की लड़ाइयों की एकता का प्रतीक है. गुजरात और पंजाब में हाल दलित आंदोलनों में कुछ सफलताएं मिलीं क्योंकि प्रतिष्ठा की लड़ाई जमीन की लड़ाई से एकीकृत हो गयी. वामपंथियों और सामाजिक न्यायवादियों दोनों को समझना पड़ेगा कि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रहे हैं और जैसा कि भगत सिंह ने कहा है, जातिवाद और सांप्रदायिकता की विचारधाराओं का विनाश वर्गचेतना के प्रसार से ही होगा.

ईश मिश्र
17 बी विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007
     




Saturday, October 15, 2016

शिक्षा और ज्ञान 93




दिवि के शिक्षकों के एक ग्रुप में इस कविता:

हमारा वक़्त इतिहास का एक खास वक़्त है
इंसानों को जलाने वाले जमानत पाते हैं
आतताइयों के पुतले जलाने वाले जेल
(ईमिः14,10.2016)

पर एक स्वघोषित 'अंबेडकरवादी' भक्त को इस कविता में ब्रह्मणवाद दिखने लगा, कन्हैयाकुमार भूमिहार और साध्वी प्रज्ञा ओबीसी. अंत में उन्होंने यह कमेंट किया:

Abhishek Singh Ek taraf ham ambedkarvadi desh aur sanaatan unity ka prayas kare aur Mishra jee aur goel jee samaj me jahar phailaaye...kuchh unity ke liye kaam kar le...janm Safal Ho jaayega.. Jai bhim jai Patel hai Bharat...
Like · Reply · 10 hrs

मेरा जवाब:
Ish Mishra
आप जैसे नवब्राह्मणवादी लोग अंबेडकर को वैसे ही बदनाम करते हैं जैसे ब्राह्मणवादी उनकी मूर्ति पर माला चढ़ाकर. अंबेडकर हिंदू (ब्राह्मण) धर्म की सनातनाका विनाश चाहते थे, उसकी श्रेणीबद्धता की एकता नहीं. कम-से-कम 'जाति का विनाश' पढ़ लें. अंबेडकर जाति और जातिवाद का विनाश चाहते थे, जातियों की धर्मोंमादी एकता नहीं. अंबेडकर हर तरह के जातीय--धार्मिक भेदभाव से मुक्त समतामूलक जमाज चाहते थे असमानता से बजबजाते हिंदू समाज का पुनरुत्थान नहीं. प्रोफाइल में शिक्षक लिखा है, तो पढ़ाने-बोलने के लिए थोड़ा पढ़ भी लीजिए, अपनी नवब्राह्मणवादी विकृति को अंबेडरवाद की खोल में लपेटने के लिए अंबेडकर के उद्धरण की जरूरत नहीं होती, लेकिन बौद्धिक विमर्श के लिए होती. अन्यथा हवाबाजी को बौद्धिक लंपटता कहते हैं.
Like · Reply · Just now
Ish Mishra

Write a comment...



Choose File

सियासत 23

ये सोचते हैं अगला 3 साल युद्धोंमादी राष्ट्रोंमाद के सहारे काट लेंगे. इनके पास कोई मुद्दा ही नहीं बचा है. यही हाल पाकिस्तानी हुक्मरानों का है. लेकिन राष्ट्रोंमाद, धर्मोंमाद से भी ज्यादा खतरनाक होता है. यहां तो दोनों की खिचड़ी है. उप्र के चुनाव के मद्देनजर हिंदुओं के पलायन और गोरक्षा के शगूफों को कमतर पड़ते देख इन्होने कश्मीर में आग लगा दी जो दावानल बन चुका है. पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्लाकर सारे मुद्दों से ध्यान बंटाने में फिलहाल तो ये सफल होते दिख रहे हैं. जंगखोरी का राष्टोंमाद कितना भी फैला लें, दोनों ही मुल्कों के हुक्मरानों में से कोई भी युद्ध की घोषणा नहीं कर सकता क्योंकि अमेरिका (भूमंडलीय पूंजी) को अपने दोनों चाकरों की सेवाओं और वाजारों (शिक्षा समेत) की जरूरत है. हबीब जालिब ने सही कहा है, 'न मेरा घर है खतरे में, न तेरा घर है खतरे में/वतन को कुछ नहीं खतरा, निजाम-ए-ज़र है खतरे में.'

Friday, October 14, 2016

हमारा वक़्त

हमारा वक्त इतिहास में खास तवज्जो पाएगा
गोहत्या की अफवाह पर कत्ल होता है इंसान
कातिल को दिया जाता है तिरंगे का सम्मान
(ईमि:14.10.2016)

Thursday, October 13, 2016

वक़्त का गतिविज्ञान

वक़्त का गतिविज्ञान है एक सास्वत सत्य
काश न होते न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के कमबख़्त नियम
दुनिया कहां से कहां पहुंच जाती
अन्याय के रूप ही न बदलते
विलुप्त हो गया होता शब्दकोश से
अन्याय नाम का शब्द
अवरोधक न होतीं यदि
यथास्थिति की अधोगामी प्रतिक्रिया
विप्लवी अग्रगामी क्रिया की
नहीं बदलता गुलामी का महज आकार-प्रकार
हो गया होता अबतक
मानव मुक्ति का सपना साकार
मगर कुछ भी नहीं स्थाई परिवर्तन के सिवा
अबकी होगी जब क्रिया जंग-ए-आज़ादी के परचम की
नाकाम हो जाएगी प्रतिक्रियावाद की सब प्रतिक्रिया
तब पढ़ा जाएगा
आकार-प्रकार का ही गुलामी के सार का मर्शिया
और वक्त बढ़ता जाएगा.
(ईमि: 14.10.2014)



Wednesday, October 12, 2016

I am alive


I am alive for my longing to live to create
I am alive for my dreams
Dreams to change the
ugly world into a beautiful planet
A planet without miseries, hunger and starvation
A planet that knows no bloodshed, only humane empathy
A planet without fear
A planet where
kaleidoscopic sky of ideas flow freely
A planet free from jingoism and 'national' hatred
A planet that knows no alienation only creation
A planet free from inhuman exploitation and subjugation
A planet that knows no wage slavery only praxis
A planet free from orthodoxy
and the burden of the corpses of the dead generations
A planet that knows no competition only human cooperation

I am alive because I dream
I am alive to fulfill the dream of emancipation
going on for the ages
I am alive because of my conviction in the theory change
I am alive to live meaningfully
As life has no extra-living end
Living a quality life is an end in itself
Rest follow as inadvertent consequences.
(ha ha, don't know its a prose or poetry -- the product of pen's vagabondage )
(Ish/13.10.2016)


शिक्षा और ज्ञान 93

Shivshanker Dwivedi "मिश्र जी!'बात कुछ हजम नहीं हुयी,आप यदी कहते कि वेद पुराण स्मृति ग्रन्थ रामायण महाभारत आदि तो गोरगपुर की गीताप्रेस में छपे थे तो कुछ तार्किक लगता।" आपका हास्यबोध भी पौराणिक ही लगता है. पुरातात्विक, भाषाशास्त्रीय तथा ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित हो चुका है कि वैदिक ज्ञान परमपरा त्रुति ज्ञान परंपरा थी लगभग 7वीं शताब्दी ईशापूर्व वैदिक आर्यों के वंशजों नेंलिपि ज्ञान हासिल किया. यह काल ब्राह्मणवादी कर्मकांड के विरुद्ध गौतम बुद्ध द्वारा वैकल्पिक मत के प्रचार के आसपास का काल है. वैदिक ऋचाएं बाद में संकलित की गयीं. रामायण, महाभारत का रचनाकाल निश्चित रूप से पहली शताब्दी ईशापूर्व के बाद का है, कम-से-कम मौर्यकाल के बाद का तो है ही. शासनशिल्प की कालजयी कृति, 'अर्थशास्त्र' के रचयिता कौटिल्य बहुत ही व्यवस्थित लेखक थे. वे किसी विषय पर अपने पूर्ववर्ती और समाकालीन सभी धाराओं के विचारों का उल्लेख करते हैं उसके बाद लिखते हैं, नेस्ति कौटिल्य. उन विचारों के विश्लेषण के बाद अपनी राय देते हैं और लिखते हैं, इति कौटिल्य. यदि महाभारत या रामायण उसके पहले की कृतियां होतीं, तो कौटिल्य उनका जिक्र जरूर करते. महाभारत का शांति पर्व तो लगभग पूरा-का-पूरा शासनशिल्प और राजधर्म-अपद्धर्म पर है, यदि महाभारत कौटिल्य (चौथी-तीसरी शताब्दी ईशा पूर्व) के समय के पहले लिखा गया होता तो वे उसका जिक्र जरूर करते. महाभारत-रामायण अंतिम मौर्य सम्राट की धोखे से हत्याकर सत्ता हथियाने वाले पुष्यमित्र सुंग द्वारा शुरू हिंसक, बौद्धविरोधी, ब्राह्मणवादी अभियान की बौद्धिक कड़ियां हैं. हमलोगों की बचपन से अधोगामी इतिहासबोध की आदत है जो शिखर के गर्त की उल्टी यात्रा करता है. हम किसी भी पौराणिक मिथकीय घटना, रचना या कपोल कल्पना को लाखों साल पहले स्थापित कर देते हैं, कभी-कभी तो पाषाणयुग के पहले. वर्तमान से हताश, प्राचीनता में सारी महानताएं ढूढ़ने वाले, दर-असल वर्तमान की समस्याओं से विषयांतर के माध्यम से ध्यान विचलित करते हैं और जाने-अनजाने भविष्य के विरुद्ध शाज़िस. ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता. यू टर्न हो सकता है, कभी कभी. और यह कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है. इन्ही कारकों से मानव इतिहास पाषाणयुग से साइबर युग तक पहुंचा है. अधोगामी इतिहासबोध खतरनाक होता है. सादर.

Tuesday, October 11, 2016

अनंत विचार

काश खुद-ब-खुद लिखा जाते
मन में आते अनंत विचार
लग गया होता अब तक
ग्रंथों का विशालकाय अंबार
हा हा
(ईमि: 12.10.2016)

शिक्षा और ज्ञान 92

वैदिक काल 3000-1000 ईशापूर्व माना जाता है. हमारे ऋगवैदिक पूर्वजों को लिपिज्ञान नहीं था, श्रुतिज्ञान के भरोसे काम चलाते थे, इसीलिए वैदिक ज्ञान परंपरा को श्रुति और स्मृति परंपरा कहा जाता है. ऋगवैदिक आर्यों के वंशजों के लिपिज्ञान का काल लगभग बुद्ध का काल है. गुरुकुलों की शुरुआत हो गई थी, लिखना बाद में शुरू हुआ. शुरुआत में लिखित बौद्ध ग्रंथ अधिक थे, महाभारत, रामायण, मनुस्मृति पहली से पांचवी शताब्दी के बीच बौद्ध समतामूलक दर्शन के विरुद्ध लिखे गये प्रतीत होते हैं. रामायण इतिहास नहीं है बल्कि किवदंतियों और जनश्रुतियों पर आधारित मिथकीय महाकाव्य हैं जो पितृसत्तात्मक वर्णाश्रमी मूल्यों का पोषण करते हैं. आर्य जब सप्त-सैंधव (सिंध और पंजाब) क्षेत्र में रहते थे, उस समय की, वेदों में राजा सुदास और उनके पुत्र राजा दिबोदास की कहानी मिलती है. विश्वामित्र सुदास के मुख्य पुजारी थे, दिबोदास ने उन्हें हटाकर वशिष्ठ को मुख्य पुजारी बना दिया. विश्वामित्र क्रुद्ध होकर 10 राजाओं का सैनिक गठजोड़ बनाकर दिबोदास पर हमला कर दिया लेकिन दिबोदास ने इन्हें पराजित कर दिया. फिर समझौते के तहत दोनों को ही दिबोदास ने पुजारी रख लिया. वैदिक साहित्य में में यह घटना दसराज्ञ युद्धं नाम से जानी जाती है.

Marxism 21

Being atheist and feminist are logical corollaries of being Marxist. Self-criticism and praxis are two key concepts of Marxism. As Marx said, 'to be radical is to grasp the root.'. Being a Marxist is not easy as one has to practice theory, but living the theory is the ultimate pleasure. As far participation in rituals and festivals is concerned, it is a tricky question. Most of the major festivals have been festivals of agricultural communities, generally the festivals of harvesting. In course of time, the vested ideological interests, in our case, the Brahmanism, linked them with myths of their own construct and gave them religious connotation. Holi in JNU used to be the superb. Ideologies are perpetuated in and through our everyday discourse and rituals. One should strictly not participate in directly anti-feminist rituals like Karvachauth. Mahishasur celebrations, now being observed at many places, has initiated a new discourse on the Myth of Chandi Durga. As far using foreign goods are going to US or elsewhere does not have any contradiction with being a Marxist. The entire economy is controlled by imperialist capital that is global, i.e. not geo-centric either in terms of source or investment. The worker has no nation, nationalism is his intoxication administered by the ruling classes. The worker is free from means of labor and hence free to sell labor at "market price" or starve. To be a Marxist is to react to one's situation, the Marx would have reacted, i.e to take a scientific stock of the situation and locate one's own role to contribute one's bit in the process of radical changes. Just go ahead, to be a Marxist is to be a good sensitive human, rest follow as inadvertent consequences.

Marxism 20

Monami Basu Lets learn and unlearn together. I like the honesty in your writings, I had and still have many such confusions. Once someone, long back, during JNU days, why do I roam around with some vague people? my instant reply was, "vagueness is a better state of mind than false clarity. It gives an opportunity to question acquired moralities, unlearn them and replace them with rational ones. (on a lighter note: then we collectively replaced vagueness with confusion and constructed a concept, 'Confusium' --museum of confusions. In institutional system we make our students to learn and discourage them to unlearn that is more important process of the knowledge system. Unlearning has to be accomplished by oneself by independent efforts.

सहने की आदत

छोड़ोगी नहीं अगर आदत
सहने की छोटी-छोटी बातें
देर नहीं लगती
छोटी से बड़ी बात बनने में

ईश्वर विमर्श 40

राम की तुलना में रावण का एपिकीय चरित्र बौद्धिक-नैतिक आधार पर राम के एपिकीय चरित्र से श्रेष्ठतर है जो बहन का अंगभंग करने वाले से बदला लेने के लिए उसकी बीबी का अपहरण कर लेता है औरफाइव-स्टार गेस्टहाउस में रखता है और कभी बल प्रयोग नहीं करता. वह चोरों की तरह छिप कर किसी बाली को नहीं मारता जिसने उसका कुछ न बिगाड़ा हो. वह अपनी पत्नी की अग्नि परीक्षा नहीं लेता न ही गर्भवती कर घर से निकालता है. वह मरते मरते भी दुश्मन को भी ज्ञान देता है न कि स्वतः ज्ञान की चेष्टा में जुटे किसी संबूक को मारता है. वैसे भी किसी की हत्या का उत्सव मनाना अमानवीय है.

Monday, October 10, 2016

शिक्षा और ज्ञान 91 (एक इतिहास के अलग अलग पाठ)

पिछले दिनों एक सेमीनार के चलते इलाहाबाद यात्रा के दौरान रोजगार की चिंता के बावजूद कुछ सार्थक करने को बेचैन, युवा उमंगों से लैस कुछ नए जिज्ञासु युवक-युवतियों से संवाद हुआ. उन्ही में से एक भले, जिज्ञासु विद्यार्थी ने सभी तरह की तालिबानी प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए, धर्मों की अच्छाई की दुहाई देते हुए फेसबुक पर एक लेख पोस्ट किया जिसमें बहुत मासूमियत और निरपेक्ष भाव से विभाजन की सारी जिम्मेदारी जिन्ना पर डाल दिया. उस पर मेरा कमेन्ट:
मित्र आपकी तरह ज्यादातर हिन्दुस्तानी विभाजन के लिए जिन्ना को ही कसूरवार मानते हैं.1947 में देश के बंटवारे के साथ न सिर्फ भूगोल विखंडित हुआ बाकि इतिहास भी. दोनों ही देशों के बच्चों को एक ही इतिहास दो अलाग-अलग तरीकों से पढ़ाया जाने लगा. युद्धोन्मादी राष्ट्रभक्ति का पाठ वैचारिक दिवालियेपन के शिकार दोनों मुल्कों के हुक्मरानों की जरूरत बन गयी. गुरुदेव मुरली मनोहर जोशी जी जब देश के ज्ञानाध्यक्ष बने तो उन्होंने बच्चों को इतिहास पढने की झंझट से ही मुक्त कर दिया था. उसके बदले अच्छे संस्कारों के लिए उन्हें पर्व, परम्पराओं और तीर्थस्थलों का ज्ञान दिया जाता था. किसी पीढ़ी को अधीनास्थ रखना है तो उसे उसके इतिहास से वंचित कर दो. अगर ये बच्चे जान जायेंगे कि व्यापार (निवेश) के लिए आयी एक ईस्ट इंडिया कंपनी जब २०० साल तक गुलाम बनाकर मुल्क लूटती रही तो सोचने न लगें कि आमंत्रित सैकड़ों विशालकाय कारपोरेट मुल्क का क्या हाल करेंगे? औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और भूमंडलीय साम्राज्यवाद में फर्क यह है की अब किसी लार्ड क्लाइव की जरूरत नहें है, सरे सिराज्जुद्दौला भी मीर जाफर बन गए हैं.

मुल्क तोड़ने और इस भूखंड का इतिहास खंडित करने की जितनी जिम्मेदारी जिन्ना की है उतनी ही सावरकर की; जितनी जिम्मेदारी मौदूदी की है उतनी ही गोलवलकर की. मजहब के नाम पर सियासत दोनों ही मुल्कों में जारी है, धर्म के नाम पर आस्थावान को आसानी से उल्लू बनाया जा सकता है क्योंकि आस्था विवेक के धार को कुंद करती है और अंध-आस्था बन विनाशकारी ही नहीं आत्मघाती भी होती है. हिन्दू राष्ट्र; पाकिस्तान और खालिस्तान एक दूसरे की तार्किक परिणतियां हैं. जहां मुल्क की तमाम ताकतें अंगरेजी हुकुमत से लड़ रही थीं तब जमात-ए-इस्लामी और मुस्लिम लीग ही नहीं आरयसयस और हिन्दू महासभा भी मजहबी नफ़रत के नाम पर युवकों को आन्दोलन से भटका कर अंग्रेजी हुकूमत की सेवा कर रहे थे. हर तरह की फिरकापरस्तियां मौसेरी नहीं पूंजीवाद की कोख से उपजी सहोदर संताने हैं, मजहब इनके लिए सियासी हथियार है. साप्रदायिकता धर्मोन्मादी राजनैतिक लामबंदी पर आधारित एक विचारधारा है जिसे हम अपने रोमार्रा के समाजीकरण तथा संवाद और संवादविहीनता से पोषित करते हैं. वैसे मजहब आपस में बैर करना ही सिखाता है. कम-से-कम इतिहास तो हमें यही बताता है. सभ्यता के इतिहास में धरती पर अधिकतम रक्तपात भगवानों और उनके मजहबों के नाम पर हुआ है. ये भगवान् आपस में ही क्यों नहीं निपट लेते इंसानों पर क्यों रक्तपात का कहर ढाते हैं? और अगर भगवान एक ही है तो उसके इतने परस्पर विरोधी मजहबी भेष क्यों? जार्ज बुश भगवान् से आज्ञा लेकर इराक पर हमला करते हैं, सद्दाम हुसैन भगवान् के मजहब की रक्षा में मारे जाते हैं और अब भगवान् ने मोदी जी को चुना है कि वे देश को मुश्किल हालात से निकालकर भूमंडलीय पूंजी के कार्पोरेटी हवालात में बंद कर दें और मेहनतकश को भगवान के रहम-ओ-करम पर छोड़ दें.

हमारी शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को सूचना संहिताओ और तकनीकी दक्षताओं से लैस करती है. ज्ञान शक्ति है और कोइ भी हुक्मरान आवाम को शक्तिशाली बनाने का ख़तरा नहीं उठाता. यह शिक्षा उच्च शिक्षितों को भी जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना की अस्मिता से भी नहीं मुक्त करा पाती; हिन्दू-मुसलमान; ब्राह्मण-भूमिहार; ...... से इंसान बनने में नहीं मदद कर पाती. मित्रों, किसी का व्यक्तित्व उसकी जीव वैज्ञानिक प्रवृत्ति का नहीं सामाजीकरण और विवेक तथा अंतरात्मा के द्वद्वात्मक एकता के प्रयासों का परिणाम है. जैसे साधू की कोइ जात नहीं होती वैसे ही सज्जनता और दुर्जनता की भी कोइ जात नहीं होती.

Footnote 3

Agree with Ravi Bhushan, JP's political confusion begins with his Sarvoday Movement. Students movement provided him opportunity of his resurrection, that he wasted owing loss of vision of carrying forward a movement on a progressive path and lack of framework and definition of what he called Total revolution. JP had been writing about fascist character of communalism and RSS, found RSS to be his prominent ally for the Total revolution. Underscoring or conspicuous of not knowing the Machiavellian tricks of RSS facilitated/dictated the formation of Janta party with RSS's parliamentary wing, Jansangh as a major partner. It is not questioning his integrity but political vision without underscoring his heroic role in the national movement with a major role in the formation of CSP that had become the voice of the workers, peasants and other oppressed sections. I may be wrong but it has been my view since 1978. shall like to be further enlightened.

Sunday, October 9, 2016

सियासत 22

जैसा कि फौज के कई भूतपूर्व बड़े अफसरों ने कहा है कि सीमा पर ऐसे ऑपरेसन होते रहते हैं, लेकिन यह सरकार इसका ढोल पीटकर सामरिक नैतिकताओं का उल्लंघन तो कर ही रही है, इसका इस्तेमाल युद्धोंमादी राष्ट्रवाद का हव्वा उप्र के चुनाव के मद्देनज़र कर रही है, क्योंकि सरकार के पास संसाधनों की बिक्री और विश्वबैंक की गुलामी के अलावा दिखाने को कोई उपलब्धि तो है नहीं. मंदिर, गोभक्ति के मसले चुक गए हैं. कश्मीर कार्रवाई उल्टी पड़ गई. अब उप्र चुनाव के लिए पाकिस्तान का मुद्दा ही बचा है. लेकिन मैंने ऊपर कबा है, युद्धोंमाद की खाद हमेशा अच्छी चुनावी फसल नहीं देती. पार्रिक्कर अपनी बहादुरी के बयान के लिए दिल्ली-हैदराबाद नहीं, आगरा और लखनऊ जाते हैं. समझो इनकी चालें. दोनों तरफ के जंगखोर भोंपुओं के बावजूद जंग नहीं होगा क्योंकि अमरीका को अपने दोनों सेवकों की सेवाएं चाहिए.

सियासत 21

छल-कपट से हासिल फ़तह का महिमा-मंडन मानव सभ्यता के इतिहास का अभिन्न अंग रहा है जो प्राकांतर से शासक वर्गों द्वारा आत्म महिमामंडन है. सभ्यता यानि वर्ग समाज के राजनैतिक दर्शन का इतिहास सत्ता और वर्चस्व के लिए छल-कपट और उसके प्रत्यक्ष परोक्ष महिमामंडन का इतिहास रहा है. चौथी-तीसरी शताब्दी (ईशा पूर्व) कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा के लिए इसे अपद्धर्म के रूप में वांछनीय बताया गया है तो यूरोपीय नवजागरण (15वीं-16वीं शताब्दी) के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली इसे अपरिहार्य रूप से वाछनीय शासकीय सत्-गुण बताते हैं. लोग अपने-अपने नायक चुनते हैं और उनके कृत्य-कुकृत्यों का महिमामंडन करते हैं. दोनों ही युद्ध से सत्ता स्थापित करने वाले राजा को सलाह देते हैं की धार्मिक-रीत-रिवाज, धर्मांधता और अंधविश्वास कितने ही कुतर्कपूर्ण और पाखंडमय क्यों न हों, न सिर्फ उनके साथ छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी निरंतरता सुनिश्चित करनी चाहिए. कौटिल्य अपद्धर्म के रूप में धार्मिक अंधविश्वासों तथा चमात्कारों और देववाणी मे लोगों की अंध आस्था के राजनैतिक आर्थिक-राजनैतिक दोहन सलाह देते हैं उसकेलिए चाहे कुछ "अविश्वासियों" को चपकाना ही क्यों न पड़े. उन्ही का समकालीन पूर्ववर्ती अरस्तू, विद्रोह रोकने के लिए निरंकुश राजा को अत्यधिक धार्मिकता का ढोंग करने तथा पूजा-पाठ और बलि में सबसे आगे रहने की सलाह देते है. इससे लोगों गलतफहमी होगी कि ईश्वर का इतना बड़ा भक्त बुरा नहीं हो सकता और दूसरे यह कि लोगों को लगेगा कि जब देवतागण उसके साथ हैं तो उसके विरुद्ध विद्रोह कामयाब नहीं हो सकता. मैक्यावली लोगों को संगठित रूप वफादार बनाए रखने के लिए धर्म को एक कारगर राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की राजा को सलाह देता है. अलग अलग देश-काल के इन दार्शनकों की सलाह आज के राजनेता कितनी तत्परता से मानते हैं, भारत की आधुनिक राजनीति उसका ज्वलंत उदाहरण है. माफी चाहता हूं, लिखना बालि-राम प्रकरण पर 2 लाइनें चाहता था, कलम की आवारगी से विषयांतर हो गया.