जेएनयू के 1983 आंदोलन में हम लोगों ने बहुत रचनात्मक पोस्टरबाजी की थी, तमाम कालजयी कविताएं या कविता अंश, बड़े-बड़े दार्शनिको तथा क्रांतिकारियों के उद्धरण जेएनयू की दीवारों की शोभा बढ़ा रहे थे। उसी में मैंने एक कविता '14 इंजक्शनों का डर' चेंप दी थी, उस पर डॉ. ओपे (दिवंगत) ने खून टपकते सिरिंज का स्केच बना दिया था, इस ग्रुप में गोरख की कविता पर एक कमेंट लिखते हुए वह याद आ गयी:
मुझे बॉस से नहीं बॉस के कुत्तों से डर लगता है
जो हर आने-जाने वाले पर बेबात भौंकते हैं
अपनी ही जमात की पीठ में छुरा घोंपते हैं
कुर्सी का आश्रय पाते ही ऐंठ जाते हैं
जरा सा टुकड़ा पाते ही दुम हिलाकर बैठ जाते हैं
रथ के नीचे चलते हुए सोचते हैं रथ इन्ही के सहारे चल रहा है
अनुशासन का ज़ीरो पॉवर बल्ब इन्ही की रोशनी से जल रहा है
इनकी प्यार-पुचकार में भी 14 इंजक्शनों का डर होता है
मुझे बॉस से नहीं बॉस के कुत्तों से डर लगता है।
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