Monday, July 31, 2017

मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां

इसीलिए मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां
जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं
तोड़ते हुए आगे बढ़ती है
पाजेबों को तोड़कर झुनझुना बना लेती है
और आंचल को को फाड़कर परचम
मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां
जो मर्दवाद को देती हैं सांस्कृतिक संत्रास
वह सब कह और कर के
जो उन्हें नहीं कहना-करना चाहिए
जरूरत है इस संत्रास की निरंतरता की
मटियामेट करने के लिए
मर्दवाद का वैचारिक दुर्ग
(ईमि: 01.08.2017

लिखता रहेगा मेरा कलम हर्फ-ए-बगावत

भूल गये हों लोग जब हर्फ-ए-सदाकत
लिखता रहेगा मेरा कलम हर्फ-ए-बगावत
चारणों का काम है लिखना बाइजाजत
करते है जो हुक्मरानों की बाअदब इबादत
लिखता है मेरा कलम हमेशा बेइजाजत
नहीं है फासीवाद में इसे तोड़ने की ताकत
जब भी करोगे मेरे कलम पर जुल्मी प्रहार
और पैनी हो जाएगी इसकी विप्लवी धार
करता है मेरा कलम बेपर्द फरेब सारे खुदा-नाखुदाओं का
कत्ल का जश्न मनाते अमानवीय कमीनगी के आकाओं का
और देता है चुनौती धनपशुओं के चाकर शगूफेबाजों को
ललकारता है देशभक्ति का चादर लपेटे अमरीकी दलालों को
करता है नवजान-छात्र; किसानों का आह्वान
तोड़ पूंजी की गुलामी लाने को एक नया बिहान
(ईमि: 01.08.2017)

Saturday, July 29, 2017

बेतरतीब 16 (गोरख पांडे को याद करते हुए)

एक ग्रुप में गोरख पांडे से संबंधित विेमर्श में अपने कमेंट्स का संकलन शेयर कर रहा हूं। कुछ कॉपी करने के पहले पोस्ट कर दिया था वे कॉपी नहीं हो पाए।

मैं आखिरी दिनों में लगभग हर हफ्ते मिलता था। अवसाद खत्म नहीं हो रहा था। अंतिम मुलाकात, (अंत से 3-4 दिन पहले) में वे बहुत खुशमिजाज और उत्साहित थे बहुत दिनों बाद सार्त्र के दर्शन की प्रासंगिता पर हमने बात की। लाइब्रेरी कैंटीन चाय के लिए चलने के प्रस्ताव पर उन्होने कहा, नहीं साथी मैं एन्ज्वाॉय नहीं कर पाता। फिर फ्रांसिस को कमरे में लाने को सांभर-बड़ा और चाय बोलकर आया। मैंने 'बीसवीं सदी' सुनने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि उनकी नई कविता सुनूं। शायद वह उनकी अंतिम कविता थी। आखिरी दिनों में गोरख गज़लें लिख रहे थे। उस कविता में मौत का जिक्र था लेकिन हताशा या निराशा कतई नहीं थी। नामवर सिंह और उनकी गाइड रही सुमन गुप्ता की क्रांतिकारी समझ पर कुछ चुटकुले सुनाया, मेरे लिए गोरख का यह नया साहित्यिक रूप था। मैंने हिंदी अंग्रजी ब्लिट्ज के लिए एक एक लेख लिखे थे। साथी, आपने तो नास्टैल्जिक यादों की दुनिया में ढकेल दिया। उर्मिलेश का फोन आ रहा है, वह भी जसम केी संस्थापना सम्मेलन में था। उससे निपटकर फिर थोड़ा और।
दोनों लेखों को टाइप कराकर सॉफ्ट कॉपी सेव करना है। वैसे थे वे जो भी गीत फरमाइश करो मजा लेकर सुना देते थे। लेकिन कभी कभी नखड़े करते थे तो हम लोग अपने तरह से उसे सुनाने लगते, डांटते कि तुम लोगों को कविता पढ़ने का सऊर नहीं है और फिर सुनाते। बाबा(नागार्जुन) के साथ भी हम लोग यही करते थे, उनकी डांट आशिर्वचन लगती।

गोरख को कभी कभी हैल्यूसिनिसेन होता था उन्हें लगता सामने या बगल वाला आदमी उनपर हमला करने वाला है

एक बार हम लोग 620 (बस) में किसी काम से कनाटप्लेस जा रहे थे। उनके पीछे इलाहाबाद के एक साथी (शायद रामजी राय) खड़े थे। एकाएक उन्होंने साथी को पीछे धक्का दिया कि मेरे ऊपर क्यों चढ़े आरहे हो? लेकिन समझाने पर तुरंत मान जाते और खेद प्रकट करते।

एक बार हम लोग लाइब्रेरी कॉरीडोर में बैठे चाय पी रहे थे। वे पेरिस कम्यून की किसी घटना का विश्लेषण कर रहे थे, तभी दुकान का लड़का खाली कप लेने आया, उस पर पैर चला दिया, लगा नहीं। कहने लगे ऊपर चढ़ा आ रहा था, समझाने पर कि ऐसा नहीं था, लड़के को खोजकर लाए और माफी मांगा। एक बार एक टुच्चे ने चांटा मार दिया था हम लोगों ने जवाब में उसे पीटा नहीं सिर्फ जलील किया।

उनकी थेसिस के परीक्षक वही थे जो उनकी गाइड के। गोरख की थेसिस (सार्त्र के अस्तित्ववाद पर) पर एक लाइन का कमेंट था। यह एक मौलिक काम है (दिस इज ऐन ओरिजिनल वर्क)।
1983-84 में समझदारों का गीत और यह खूनी पंजा किसका है, गोरख ने चाय की अड्डे बाजियों में लिखा था बातचीत करते हुए। समझदारों का गीत का शीर्षक कुछ और था, बहस मुवासे के बाद यह शीर्षक रखा। पढ़े-लिखे मध्यवर्ग, खासकर सुविधाजीवी बुद्धिजीवियों पर इतना सटीक कमेंट बस इब्ने इंशां का कुछ कहने का भी वक्त नहीं, कुछ न कहो खामोश ही लगता है।

कई फंसने में मजा आता है। जनसंस्कृति का विचार और नामकरण गोरख पांडेय का ब्रेन चाइल्ड था। स्थापना सम्मेलन में एक जाने-माने प्रगतिशील साहित्यकार भारत की प्राचीन प्रगतिशील कला-साहित्य की परंपराओं की बात करने लगे. मुझसे रहा नहीं गया और पूछ दिया कि बौद्ध परंपराओं की बात कर रहे हैं या तो वेटलिफ्टिंग या तीरंदाजी से औरत हासिल करने, अग्नि परीक्षा, संबूक बध महिमामंडित करने वाली परंपराों की?

यह कमेंट माला समझदारों के गीत की अंतिम पंक्तियों से खत्कम करता हूं वाकी फिर कभी।
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर हो और जनता समझदार
हम समझते हैं
लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते
क्यों नहीं कुछ कर सकते
यह भी हम समझते हैं।

मैं ने हिंदी लेख की शुरुआत, 'जागते रहो सोने वालों की गुहार लगाने वाला जनकवि एक शाम सदा के लिए सो गया, आत्महत्या की विधा से' से किया था और अंत 'तुमारी आंखें हैं तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर, इस दुनियां को जितनी जल्दी हो बदल डालो' के उद्धरण से। अंग्रेजी लेख भी इसी उद्धरण के अंग्रजी अनुवाद से किया था। ‘Your eyes are the surging sea of pain, change this world at the earliest.

अब इतनी बातें हो गयीं तो एक और बात, जेयनयू सिटी सेंटर में गोरख की श्रद्धांजलि सभा थी। एक प3गतिशील, 'नामवर' साहित्यकार ने कहा कि आत्महत्या बहादुरी का काम है, गोरख ने वह बहादुरी करके दिखा दिया। इतना क्रोध आया कि चिल्लाऊं कि तुम क्यों कायर बने हुए हो, लेकिन अवसर नहीं था, इसका।

मार्क्सवाद 73 (ट्रॉट्स्की)

मित्रों यह वक्त स्टालिन - ट्रॉट्स्की डिबेट का नहीं है। सारा संवैधानिक और फासिस्ट बुर्जुआ मशीनरी स्टलिन को खलनायक बता सारे वाम को बदनाम करने पर तुला है, ऐसे में स्टलिन-ट्रॉट्सकी विवाद को हवा देना वर्तमान की भयंकर समस्याओं से विषयांतर होगा और भविष्य के विरुद्ध प्रतिक्रांतिकारी अभियान। जेयनयू का एक चुनाव स्टालिन-ट्रॉट्स्की मुद्दे पर हुआ था, ट्रॉट्सकियाइट्स के समर्थन से उस बार एक फ्रीथिंकर जीता था, उसे बताने में देर लग जाएगी, कल रात भी नहीं सोया था। जैरस बानाजी उनके प्रमख स्पीकर थे जवाब में थे डीपी त्रिपाठी। उस समय के एक समाजवादी विजयप्रताप ने मजाक में पूछा था कि सुना है जेयनयू में कोई पहलवान किताबों का ठेले के साथ ताल ठोंकर सबको चवनौती दे रहा है। उस चुनाव और उससे निकले चुटकुलों की चर्चा किसी अलग पोस्ट में करूंगा। चलो जब बात लंबी हो ही गयी तो एक चुटकुला सुना ही देता हूं। यसयफआई के राजनैतिक शिक्षा पर निशाना साधकर। 'कैंटीन में 4 अभिजात सी दिखती यसयफ आई की कॉमरेड्स आपस में बात कर रहीं थी। एक ने कहा , हेएए व्बाई दे आर अटैकिंग स्टालिन सोओओओ मच? दूसरी - मस्ट बी हैविंग सम परनल गसूज. तीसरी -- बट व्हू इज़ दिस गॉय़े? चौथी -- नो आइडिया, माइट हैव बीन सम पॉर्मर जेयनयूयसयू प्रेसिडेंट। शुभरात्रि।

मार्क्सवाद 72 (1942)

1942 में कम्युनिस्टों की भूमिका के विवाद पर मैंने हिंदी अंग्रेजी में सोवियत संघ के पतन के बाद और बाबरी विद्धवंश के पहले एक-एक लेख लिखे थे, दर-असल यह अरुण शौरी और नभाटा के एक सहायक संपादक (नाम भूल रहा हूं) जैसे देशभक्त पत्रकार वामपंथियों को 1942 के हवाले इतिहास में झांकनेॆ की नसीहतें दे रहे थे, ये लेख उन्हीं के जवाब में लिखे थे। 'सांप्रदिका और इतिहास' समकालीन तीसरी दुनिया में छपा थान उसे मैंने टाइप कराके ब्लॉग में सेव कर लिया है। जब हम इतिहास की गतिमान प्रक्रिया में सहभागी होते हैं और जब हम इतिहास की समीक्षा कर रहे होते हैं, दोनों स्थिितयों में बहुत फर्क होता है। मार्क्स ने लिखा है कि हर देश के संगठन अपने कार्यक्रम और नीति-रणनीतियां वहां की विशिष्ट परिस्थियों के अनुरूप बनाएंगे, लेकिन सीपीआई ही नहीं, कॉमिंटर्न से संबद्ध दुनिया की सभी कम्यनिस्ट पार्टियां अंतरराष्ट्रीय मद्दों पर(सीपीआई के मामले में राष्ट्रीय भी) कॉमिंटर्न यानि सीपीयसयू के स्टैंड के अनुरूप अपने कार्य-क्रम-नीति रणनीतियां बनाते थे। कॉमिंटर्न की दूसरी कॉंग्रेस में औपनिवेशिक मसलों पर यमयन रॉय की बजाय लेनिन की थेसिस के अनुसार उपनिवोशों में राष्ट्रीय आंदोलनों में अपनी अस्मिता बरकरार रखते हुए, प्रगतिशील तत्वों को अपनी विचारधारा की तरफ खींचने की कोशिस करते हुए, भरपूर शिरकत करनी चाहिए। इसमें लेनिन की पैनी अंतर्दृष्टि दिखती है। इसके विपरीत यमयन रॉय की थेसिस थी कि राष्ट्रीय आंदोलन समझौता परस्त है और औद्योगिक सर्वहारा अपने अकेले दम पर बुर्जुआ डेमाक्रेटिक और सोसलिस्ट क्रांतियां साथ साथ संपन्न करेगा। उद्योग और औद्योगिक सर्वहारा लगभग नदारत थे। क्मयुनिस्ट पार्टी 1928 तक डब्ल्युपीपी के रूप में आंदोलन में शिकत करती रही। छठी (1928) कांग्रस ने रॉय की थेसिस अपना लिया और रॉय को कामिंटर्न से निकाल दिया। 6 साल आंदोलन से बार रहना पार्टी को मंहगा पड़ा। 1934 में कामिंटर्न ने यंयुक्त मोर्चा की नीति अपनाई लेकिन तब तक दो-दो मुकदमों के बाद पार्टी थोड़ा कमजोर हुआ थी और अवैध। 1942 का हवाला देने वालों से पूछिए किस पार्टी, पूरी पार्टी पर अंग्रेजी सरकार ने 2-2 मुदमें चलाए? संयोग से उसी समय कुछ प्रगतिशील कांग्रेसी युवाओं जिनमें नरेंद्र देव, जेपी जैसे कुछ मार्क्सवादी भी थे। गटन दस्तावेज इस वाक्य से शुरू होता है, "कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का गठन म4र्क्वादी विचारधारा से प्रभावित कांग्रेसियों द्वारा किया गया......." इसमें पार्टी के सदस्यों के निजीनतौर पर शामिल होने का अवसर था। नंबूदरीपाद सहसचिव थे। सब प्रदेशों में मजदूर-किसान संगठनों का निर्माण शुरू हुआ, किसान सभा और ऐटक मजबूत मंच थे। सीयसपी ने युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म बनाया जो हिटलर के रूस पर हमले से 1942 में टूट गया और सीयसपी भी टूट गयी। सीपीआई वैध हो गयी। सॉरी, भूमिका बहुत लंबी हो गयी। अब हम अपनी ऊपर की बात पर आते हैं, इतिहास बनाने और समीक्षा की परिस्थितियों पर। यह अलग बात है कि पार्टी का स्टैंड कॉमिंटर्न निर्देशित था, यह भी अलग बात है कि पार्टी के युद्ध समर्थन से युद्ध की वास्तविक स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन हम उस स्थिति को देखें कि जापानी सेनाएं असम तक आ गयी थीं। और यह भी सच है कि बुर्जुआ उपनिवेशवाद की तुलना में बुर्जुआ फासिस्ट उपनिवेशवाद से लड़ना ज्यादा मुश्किल होता। दस्तावेजों से पता चलता है इस फैसले पर बहुत लंबी हबस हुई थी। नेताओं के पास न तो लेनिन सी अंतर्दृष्टि थी न स्वतंत्र निर्णय का आत्मविश्वास। यह नीयतगत नहीं नीतिगत गलती थी, नीयतगत नहीं। लेकिन गलती वतो थी ही जिसे आत्मालोचना के सिद्धां पर ,लकर पार्टी ने मान लिय़ा। 1942 की गलती की आलोचना की जा सकती है, भर्त्सना नहीं।

Friday, July 28, 2017

मार्क्सवाद 71 (जनाधार)

इस पर मैंने समाजवाद-6 (समयांतर अगस्त) लेख में लिखा है। पेरिस कम्यून के पास सर्वहारा का हिरावल दस्ता था। एक लाख नेसनल गार्ड थे जिनके पास राइफलें ही नहीं तोपें भी थीं। थियर के दस्ते में बगावत के बाद 27,000 सैनिक थे। मार्क्स कम्यून के नेताओं को संदेश भेजते रहे कि पूंजीवादी दलालों की बातों पर न यकीन कर हमला करने की, लेकिन सेंट्रल कमेटी ने उसे और धनपशुओं को शुकून से वर्साय जाने दिया और कम्यून के खिलाफ दुनिया के प्रतिक्रांतिकारियों को एकजुट होने का मौका दिया। कम्यून के नेताओं में मार्क्सवादी कोई नहीं था, उनमें सैद्धांतिक स्पष्टता और सामरिक रणनीति का अभाव था। नेसनल गार्ड में कमांड को लेकर आपसी गुटबाजी भी थी।

मार्क्सवाद 70 (जनाधार)

साथी मैं सिर्फ यही कह रहा हूं कि क्रांतियों का इतिहास हमें यही बताता है कि जनसमर्थन के बिना क्रांतियां अति अल्पजीवी रही हैं इसीलिए प्राथमिकता जनांदोलनों के जरिए सामाजिक चेतना का जनवादीकरण होनी चाहिए जिससे क्रांतिकारी जनाधार बने। यचयसआरए के पास अगर जनाधार होता तो 1930 के दशक में सर्वहारा क्रांति हो चुकी रहती। हमारा काम है समाजवादी चेतना का प्रसार, जिससे सर्वहारा में बुर्जुआ पार्टियों के जनाधार को तोड़कर क्रांतिकारी कतार में खड़ा किया जा सके। मेरी बात को निजी मत लीजिए।

मार्क्सवाद 69 (जनाधार)

साथी जितेंद्र ,मैंने कब कहा कि जनाधार से क्रांति होती है? फिर तो बोर्नापार्ट, हिटलर या इंदिरा गांधी.... क्रांति कर चुकी होते, क्रांति के लिए सैद्धांतिक स्पष्टता अनिवार्य है लेकिन सिदधांतो से ही क्रांति होती तो मार्क्स के नेतृत्व में फर्स्ट इंटरनेसनल के तत्वाधान में 19वीं सदी में कम्युनिस्ट क्रांति हो गयी होती. मार्क्स ने सामाजिक चेतना के स्वरूप को देखते हुए इंटरनेसनल के उद्बोधन की भाषा को मेनिफेस्टों की तुलना में लचीली बनाया। लेकिन बिना जनाधार के क्रांति फिलहाल असंभव है। क्रांति के लिए बगावत जज्बात जरूरी है लेकिन जज्बात क्रांति नहीं होती जैसा भगत सिंह ने कहा है उस पर क्रांतिकारी विचारेों की शान चढ़ानी पड़ती है औक क्रांतिकारी विचारों से भी क्रांति नहीं होती उन्हें जनता में प्रसारित करने से होती है। इसलिए क्रांति के लिए जनाधार जरूरी है और क्रांतिकारी विचार भी। दोनों के द्वंद्वात्मक योग से ही क्रांति होती है। इसी लिए मैं बार बार मौजूदा सड़ांध मारती सामाजिक चेतना के जनवादीकरण पर जोर देता हूं।

Thursday, July 27, 2017

मार्क्सवाद 68

निश्चित ही सर्वप्रथम यचयसआर ने ही स्पष्ट क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाया लेकिन इसके पास न तो जनाधार था न जनसमर्थन। भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद ही देशभक्त के रूप में जनसमर्थन मिला, क्रांतिकारी कार्यक्रम के नाते नहीं। इसका स्पष्ट कारण है, सामाजिक चेतना का स्वरूप, जिसे मार्क्स पेरिस मैन्युस्क्रिप्ट से शुरू कर जर्मन आइडियालॉजी, मैनिफेस्टो, फ्रांस में वर्ग संघर्ष, एटींथ ब्रुमेयर, राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा के प्रक्कथन, पूंजी, फ्रांस में गृहयुद्ध और बाद के लेखों में दुहराते रहे हैं. सामाजिक चेतना के स्वरूप का स्तर हमारे छात्र काल की तुलना में, जनवादीकरण की दृष्टि से नीचे गिरा है। मेरी राय में सभी क्रांतिकारी संगठनों का फोकस, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानि सामाजवादी चेतना (वर्गचेतना का प्रसार ) पर होनी चाहिए, जिसके कार्यक्रम और रणनीति स्थानीय परिस्थितियों और सामाजिक चेतना के स्तर को देखते हुए बनना चाहिए। भगत सिंह सामाजिक चेतना के स्वरूप के स्तर की दृष्टि से वक्त से आगे थे , गांधी वक्त के साथ। मैं गलत हो सकता हूं और राय बदलने को उत्सुक रहूंगा।

मार्क्सवाद 67

शायद मैं अपनी बात ढंग से नहीं रख पाया, जनाधार का मतलब कतई क्रांतिकारी होना नहीं है। 1848 की क्रांति में क्रांतिकारी पार्टी और सही लाइन ब्लांकी के नेतृत्व में सर्वहारा संगठनों का था लेकिन सामाजिक चेतना के तत्कालीन स्तर के लिहाज से व्यापक, खासकर ग्रामीण जनाधार बोनापर्टवादियों का था और 2 चुनावों के बाद 1851 में संसद भंगकर वह सम्राट बन गया। जाहिर है गांधी दलालों के साथ थे और इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैं गांधी को सही और भगत सिंह को गलत बता रहा हूं, मैं हमेशा भगत सिंह के विचारों के साथ रहा हूं गांधी के नहीं। जहां तक मेहनतकश की बात है उसका बहुमत मिथ्याचेतना के चलते भगवा अंगोछा लपेट कर बजरंगी लंपट बना हुआ है, इसीलिए मैं लगातार सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की बात को रेखांकित करता रहा हूं। क्योंकि क्रांति सर्वहारा ही करेगा लेकिन वर्गचेतना से लैस हो संगठित होने के बाद।

मार्क्सवाद 66

हमारी औकात होती तो 70 के दशक के मुक्ति का दशक होने के नारे सिर्फ लिखते नहीं, मुक्ति प्राप्त कर लेते, लेकिन जनमत इंदिरा गांधी के साथ था। यहां के कम्युनिस्टों ने अपने चुनावी जनाधार को संख्याबल से जनबल में बदलने की कभी कोशिस नहीं की और पार्टी लाइन से हांकते रहे। पार्टी लाइन एक मार्क्सवाद विरोधी अवधारणा है। इसीलिए प्राथमिकता राजनैतिक शिक्षा यानि जनांदोलनों के माध्यम से सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है।

क्या है जिंदगी

ज़िंदगी एक अमूर्त विचार है
जिसके कई कई प्रकार हैं
अमूर्त नहीं पैदा होता किसी निर्वात से
और सार्वभौमिक बन जाता किसी दैवीय प्रकाश से
पैदा होता विचार किसी खास और दृष्टिगोचर पदार्थ से
पूछो अगर किसी धनपशु से कि जिंदगी है क्या?
प्रजातिक दोगलेपन में बोलेगा नहीं सच
कि उसकी ज़िंदगी का मतलब है
लूट-खसोट से भरना तिजोरी
कहेगा जिंदगी मतलब
देश की सेवा और सदाचार
राजनेता तो दोगलेपन के जलाशय में नहाता है
लुटाता है देश धनपशुओं को
और बताता है ज़िंदगी का मतलब
सबका विकास सबका साथ
नहीं है दोगलेपन पर शासकवर्गों का एकाधिकार
लंपट सर्वहारा भी होता है इस रोग का शिकार
पूछो किसी बजरंगी लंपट सर्वहारा से कि क्या है ज़िंदगी?
कभी नहीं कहेगा कि मकसद है ज़िंदगी का गोरक्षी आतंकवाद
ऐलान करेगा कि फैला रहा है वह गोपुत्रीय राष्ट्रवाद
जिंदगी क्या है के जवाब हैं अनंत
विचार के प्रकारों का न आदि है न अंत
पूछो ग़र यह सवाल एक इंकिलाबी से
मुक्त है जो कथनी-करनी के दोगलेपन की खराबी से
देगा वह साफ और सच्चा जवाब
मकसद-ए-ज़िंदगी है एक समतामूलक समाज
नामुमकिन हो जिसमें शोषण-दमन का रिवाज।
(ईमि : 827.07.2017)

Tuesday, July 25, 2017

बेबाक कलम

वह डराना चाहता है हमारे कलम को
लेकिन ये कलम जेयनयू की ही तरह डरना जानता ही नहीं
तोड़ने की हर कोशिस नाकाम कर और बेबाक हो जाता है
इसकी निडर मुखरता से वह डर जाता है
और बौखलाहट में ऊल-जलूल हरकतों से
करता है उंमादी आत्मघात
(ईमि: 26.07.2017)

पिजड़े तोड़ती इंकलाबी बेटियों को सलाम

पिजड़े तोड़ती इंकलाबी बेटियों को सलाम

क्या नारे लगा रही हैं लड़कियां
कर रही हैं किस-पिज़ड़े की बात?
यह कैसा अजीबोगरीब गीत है
रीति-रिवाज़ जिससे भयभीत है?
यह कैसा आज़ादी का नारा है
मां-बाप तक को ललकारा है?
धज्जी-धज्जी कर गौरवशाली संस्कार
डफली की धुन पर गाती-नाचतीं भरे बाजार?
मांगती अगर महज पढ़ने-लिखने का अधिकार
किया जा सकता है उस पर साहानुभूतिक विचार
मांग रही हैं लेकिन ये प्यार भी करने का अधिकार?
इन पर भी हावी है आजादी का जेयनयू-विचार

जी हां ये लड़कियां मांग नही रही हैं आजादी
जंगे आजादी का ऐलान कर रही हैं
तोड़ कर सारे पिजड़े
चाहे वे सोने-चांदी के ही क्यों न हों
मर्दवाद को खबरदार कर रही हैं
आजादी की नई परिभाषा गढ़ रही हैं
स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के रथ को दिशा दे रही हैं
मर्दवाद के दुर्ग पर लगातार प्रहार कर रही हैं
नए नए गीत लिख रही हैं
अपनी आजादी को मानव मुक्ति से जोड़ रही हैं
पिजड़े जार-जार करती बहादुर बेटियों को इंककलाबी सलाम।
(ईमि:25.07.2017)

Monday, July 24, 2017

मार्क्सवाद 65

मैंने एक पोस्ट डाला है, 1871 में कम्यून के ब्लांकीवादी और प्रूदोंवादी नेताओं के पास सैद्धांतिक स्पष्टता होती या वे मार्क्स के संदेशों के अनुसार रणनीति बनाते तो शायद दुनिया का इतिहास अलग होता, लेकिन यह त्रासदी 1848 से भी भयानकतम साबित हुई गणतंत्र और फ्रांसीसी गौरव का पाखंड करने वाले हरामजादे थियर और उसके चट्टे-बट्टे; कुत्ते-बिल्लियां पेरिस पर हमला न करने की कसमों के बावजूद बिस्मार्क तलवे चाटकर सैन्य शक्ति अर्जित कर अपनी ही राजधानी पर तोपों से एक हफ्ते तक बमबारी करते रहे। यह सप्ताह इतिहास में काले सप्ताह के रूप में जाना जाता है। 30,000 मजदूरों को कत्ल कर दिया गया हजारों को बिना मुकदमा चलाए देशनिकाला दे दिया गया, हजारों को उपनिवेशों में भेज दिया गया। सब राष्ट्रवाद के नाम पर, पेरिस के मजदूर राष्ट्र के दुशमन थे। क्रांति को बर्बरता से कुचलने के बाद भी गस्ती पुलिस और 'देशभक्त' भीड़ किसी को भी कम्यून का सहयोगी कह कर छिट-पुट मारती रही वैसे ही जैसे गोरक्षक और हिंदू वाहिनी मार्का देशभक्त पुलिस की उपस्थिति में किसी पर भी गोभक्षक या पाकिस्तान की क्रिकेट में जीत का जश्न मनाने वाला कह कर हमला कर देती है।यदि कम्यून के नेताओं के पास सैद्धांतिक सूझबूझ होती और नेसनल गार्ड्स के पास सामरिक रणनीति होती तो सर्वहारा जीतता, वह सामाजिक चेतना के स्तर का एक स्वरूप था। बावजूद इसके पेरिस कम्यून सर्वहारा क्रांति का संदर्भ बिंदु बना रहेगा। कम्यून के शहीदों को लाल सलाम। साथी इतिहास की समीक्षा पर मैं इसी लिए जोर देता हूं कि सैद्धांतिक समझ क्रांति की पूर्व शर्त है।

मार्क्सवाद 64

साथी, रवींद्र पाटवाल, पार्टी में न होना आवश्यक रूप से समय गंवाना ही नहीं है। पार्टी में नहीं रहे हैं लेकिन आंदोलनों में रहे हैं। 2 दशकों से अधिक समय से 'जनहस्तक्षेप: फासीवादी मंसूबों के विरुद्ध एक मुहिम', नामक मानवाधिकार संगठन के सदस्य के रूप में इस मोर्चे पर लगातार काम करते रहे हैं। हम लोग विस्थापन, सांप्रदायिक-जातीय उत्पीड़न के मामलों को उजागर करते रहे हैं। लेकिन इस कठिन समय में इतना नाकाफी है। आज हाशिए खिसक गयी दुनिया की पारंपरिक कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक हो गयी हैं, उन्होने एरिक हॉब्सब़ॉम की मार्क्स फिर से पढ़ने की सलाह नजरअंदाज कर दिया। नेताओं के निजी आचार के अलावा भारत की संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों और बुर्जुआ संसदीय पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया है। इसे मानने का साहस इनके पास नहीं है और आत्मालोचना की मार्क्सवादी अवधारणा महज औरों के लिए है, अपने लिए नहीं। सीपीयम ने अपनी कांग्रेस में दुर्गति की वस्तुनिष्ट समीक्षा की बजाय 'निष्क्रिय' सदस्यों को पर्ज करने का प्रस्ताव पारित किया, बिना इस पर बहस किए कि अतिसक्रिय निष्क्रिय क्यों हुए। इसलिए साथी जरूरत एक नए मंच की है, एक नए सैद्धांतिक समझ की है। आदर्श स्थिति तो यह होती कि सारे वामपंथी (बेदल तथा दलछुट समेत)और अंबेडकरवादी (नवब्राह्मणवादियों को छोड़कर) संगठन मिलकर मैराथन चिंतन-मनन, वाद-वावाद करते और जयभीम लाल सलाम नारे के सैद्धांतिक संश्लेषण और उस पर आधारित एक व्यापक, जनतांत्रिक साझा मंच तैयार करते! जेयनयू आंदोलन ने एक मौका दिया था, लेकिन बीच में पार्टी लाइन आ गयी। पार्टी लाइन एक मार्क्सवाद विरोधी अवधारणा है जो एक अलग भक्तिभाव पैदा करती है और 'अपने-आप में वर्ग' से 'अपने-लिए वर्ग' के रास्ते की बहुत बड़ी बाधा मार्क्स ने कहा था कि अपनी मुक्ति की जंग मजदूर खुद लड़ेगा। इस पर खुली बहस को पार्टी अनशासन के नाम पर कोई तैयार नहीं है और न ही 'जनतांत्रिक केंद्रीयता' के सिद्धांत की व्यवहार में 'अधिनायकवादी कांद्रीयता' की तब्दीली पर। पेरिस कम्यून की पराजय का प्रमुख कारण सैद्धांतिक स्पष्टता का अभाव था।

मार्क्सवाद 63

Sunil Kumar Suman बाबा साबह से जातिगत नफरत करने वाले, ये नव ब्राह्मणवादी मूर्ख हैं और अग्रगामी दलित प्रज्ञा और दावेदारी के रास्ते के स्पीडब्रेकर। हमारे यहां एक अंबेडकरवादी हैं वह बाबा साहब की ऐसी व्याख्या करता है कि अंबेडकर होते तो मार्क्स की तरह कहते, 'शुक्र है खुदा का मैं अंबेडकरवादी नहीं हूं'। ये मौजूदा संसदीय कम्युनिस्टों की तरह अपने आप अप्रासंगिक हो जायेंगे। लेकिन साथी! इतिहास का यह बहुत कठिन, अंधकाकारमय दौर है, इतिहास की गाड़ी एक अंधेरी सुरंग में फंस गयी है, निकालना है। फासीवाद के रूप में दुश्मन बहुत मजबूत है, सारी स्टेट मशीनरी के साथ इसके पास अंधभक्तों का एक बहुत बड़ा जनाधार है, उस जनाधार को तोड़ना है। मैं बार बार कह-लिख रहा हूं, खासकर जेयनयू आंदोलन के बाद से, फासीवाद के विरुद्ध एक व्यापक मोर्चे की जरूरत है, जयभीम - लाल सलाम नारे की एकता के सैद्धांतिक संश्लेषण और उसके आधार पर एक व्यापक, संयुक्त फासीवादविरोधी सशक्त मंच की सख्त जरूरत है।

मार्क्सवाद 62

मार्क्सवादी हूं कि नहीं मैं नहीं जानता लेकिन लेनिन की परिभाषा में कम्युनिस्ट नहीं हूं क्योंकि लगभग 3 दशक से किसी पार्टी में नहीं हूं। मार्क्सवाद एक गतिमान विज्ञान है, एंगेल्स ने कहा है कि मार्क्सवादी मार्क्स के उद्धरण देना वाला नहीं बल्कि वह है जो खास हालात में वही करे जो मार्क्स करते।वर्चस्व और शासक का हमला हमेशा की स्तरों पर होता है, इसलिए प्रतिरोध भी हर स्तर पर होना चाहिए। नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजी, जैसाकि विश्वबैंक के रखैल नव-राजनैतिक अर्थशास्त्री मानते है कि संकट की इस घड़ी मे अधिनायकवादी शासनों की बैशाखी पर ही खड़ी रह सकती है, इस लिए सभी मोर्चों पर लड़ने की जरूरत है, लेकिन मार्क्स का कहना है कि जनता अपनी लड़ाई खुद लड़ेगी लेकिन उसके लिए सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की जरूरत है जो अभी तो मोदी-योगी मय है। तीनों मोर्चों पर -- आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक -- लड़ना पड़ेगा, जयभीम लाल सलाम नारे को सैद्धांतिक संगठनात्मक रूप देना पड़ेगा। एक बार जनता लड़ाई के लिए मन बना ले, संशोधनवादी खुद-ब-खुद अदृश्य हो जायेंगे। लंबा रास्ता है, नई शुरुआत की जरूरत है।

Sunday, July 23, 2017

मोदी विमर्श 61

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले गलत भी होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के एक बेंच के फैसले दूसरी बेंच पलट भी देती है। एक न्यायालय ने अमित शाह को तड़ी पार किया था दूसरे ने पेशी पर निजी हाजिरी की छूट से इंकार कर दिया था। उस जज का तबादला हो गया नये ने क्लीनचिट देदी और रिटायर को पट्टाधारी होने के ईनाम के तौर पर राज्यपाल बन गया। इनमें से पहले दो जज गलत थे कि तीसरा? अदालत की क्लीनचिट के बावजूद भक्तों समेत (जो अपनी दोगली प्रवृत्ति के चलते मन की बात जुबान पर लनहीं लाते) सब जानते हैं राजनैतिक ध्रुवीकरण के लिए 2002 के बाद के सारे दंगे और गोरक्षी अपराध मोदी-शाह के इशारे पर हो रहे हैं। कुछ दिमाग खुल रहा हो तो ठीक, नहीं तो विदा लीजिए, पंजीरी खाकर भजन गाइए।

मोदी विमर्श 60

सारी दुनिया जानती है कि गोधरा प्रायोजित कर सियासी ध्रुवीकरण के लिए मोदी के दिशा-निर्देश में गुरात में अभूतपूर्व नरसंहार हुए जो 3 महीने चलते रहे जब कि कोई भी सरकार चाहे तो आधे घंटे में दंगे रोक सकती है, क्लीन चिट के बावजूद सब जानते हैं कि अमित शाह ने फर्जी मठभेड़ें करवाई, मोदी सरकार का मंत्री संजदीव बालियान मुजफ्फरपुर का नायक था और योगी सरकार का मंत्री उसका सहायक, क्या हुआ इन बेनकाबियों का? यह हत्या का उत्सव मनाने वाला मुर्दा परस्त समाज है, जब तक इस देश में धर्माधता मौजूद रहेगी, यह मुल्क लुटेरों के शासन को अभशप्त है। यहां पढ़े-लिखे जाहिलों का प्रतिशत अपढ़ों से अधिक है जो सर्वोच्च शिक्षा के बावजूद, तर्कशील इंसान बनने में अक्षम, न सिर्फ अपनी जीवनवैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठ नहीं पाते हैं, (जिसे मैं रूपक मे कहता हूं, बाभन से इंसान नहीं बन पाते), बल्कि गर्व करते हैं, पूर्वज चाहे अंग्रेजों के दलाल ही क्यों न रहे हों! जब तक मुल्क में अवैज्ञानिक, और अधोगामी सामाजिक चेतना का माहौल रहेगा, यह मुल्क मानसिक-आर्थिक गुलामी को अभिशप्त है।

Saturday, July 22, 2017

मुस्कराहट

मुस्कराहट कुछ बताती नहीं
या तो कुछ छिपाती है
या पूछती है सवाल कोई अबूझ
या फिर अभिवादन का पर्याय होती है
मुस्कराहटों का नहीं होता कोई समरूप समुच्चय
मुस्कराहटों के होते अलग अलग भाव और संदेश
कई मुस्कराटें चिढ़ाती हैं
तो कई समानुभूति का कराती हैं एहसास
कई कुटिलता का परिचय देती हैं
तो कइयों से टपकता है भाईचारे का विचार
कई मुस्कराहटें धमकी भरी होती हैं
तो कई लगती हैं आश्वस्ति किसी कठिन समय में
कई छल की मशीहा होती हैं
कई निश्छल संवेदना की सूत्रधार
(ईमि: 22.07.2017)

Friday, July 21, 2017

समाजवाद 6

रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: (भाग 6 )
कामगर अंतर्राष्ट्रीयता के अंतर्विरोध
ईश मिश्र
पहले इंटरनेसनल की स्थापना को याद करते हुए मार्क्स ने बाद में (1871) में लिखा, “इंटरनेसनल की स्थापना तमाम समाजवादी और अर्धसमाजवादी पंथों और संप्रदायों की जगह संघर्षों के लिए मजदूर वर्ग के वास्तविक संगठन के मकसद से की गयी”। आज के हालात में भारत और दुनिया के संधर्म मार्क्स का यह विचार ज्यादा प्रासंगिक लगता है। मार्क्स के नेतृत्व में इंटरनेसनल ने ट्रेडयूनियन बनाने और हड़ताल के अधिकारों; 8 घंटे काम के दिन तथा अन्य जनपक्षीय प्रस्ताव तो पारित किया ही, मजदूरों के तत्कालीन आंदोलनों के साथ सक्रिय एकजुटता दिखाया – चाहे वह फ्रांस के पीतल उद्योग के मजदूरों का संघर्ष हो, जेनेवा के निर्माण मजदूरों का या बेलजियम में कोयला खदान मजदूरों का संघर्ष हो। जब एडिनबर्ग और लंदन के वस्त्र उद्योग के दर्जियों ने हड़ताल किया तो इंटरनेसनल के सक्रिय हस्तक्षेप के चलते मालिकों के जर्मनी और यूरोप के अन्य देशों से हड़ताल तोड़ने के लिए गुंडे और मजदूर ले आने के प्रयास विफल हो गये थे। संगठन के जुझारू तेवर के पीछे मार्क्स के नेतृत्व की भूमिका अहम थी। अंतरिम नियमावली के प्राक्कथन की शुरुआत में ही मार्क्स समाजवाद की क्रांतिकारी, जनतांत्रिक अंतरदृष्टि और समझ पेश करते हैं। “मजदूर वर्गों अपनी मुक्ति का मोर्चा खुद फतह करना होगा”। मदूर वर्गों की आत्म-मुक्ति पर जोर इंटरनेसनल में समाजवाद की संभ्रांततावादी दृष्टिकोण को खुली चुनौती थी। इनमें ग्लैडस्टोन की योजना के तहत सासंद बनने को तैयार, इंग्लैंड के सम्मानित ट्रेडयूनियन नेताओं से लेकर ब्लांकी के अतिक्रांतिकारी समर्थक तक थे, जो 1840 के दशक के मजदूरों के अनुभव से सीख ले नये चिंतन विकसित करने की बजाय, क्रांति के 1789 के जैकोबिनवादी रास्ते पक्षधर थे। लेकिन 1871 में पेरिस में सपल मजदूर विद्रोह और पेरिस कम्यून की स्थापना तक मजदूरों की आत्म मुक्ति की अवधारणा अमूर्त और अस्पष्ट थी। मजदूरों की यह क्रांति, पहले इंटरनेसनल के कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण परिघटना थी। यद्यपि यह एक शहर के सर्वहारा का विद्रोह था और कम्यून शीघ्र ही अभूतपूर्व, बर्बर क्रूरता के साथ कुचल दिया गया, लेकिन इसने कामगरों के स्वशासन की क्षमता के बारे में प्रचलित तमाम भ्रांतियों को तोड़ दिया। मार्क्स फ्रांस में गृहयुद्ध में लिखते हैं, “पहली बार सर्वहारा ने राजनैतिक सत्ता संभाला,  ..... अंततोगत्वा राजनैतिक स्वरूप की खोज हो गयी जिसके तहत मजदूरों की आर्थिक मुक्ति के अभियान चलाए जा सकते हैं”। कम्यून के उदय, अस्त और इसमें इंटरनेसनल की भूमिका की संक्षिप्त चर्चा आगे की जाएगी।
      1848-51 की रक्तरंजित क्रांति-प्रतिक्रांतिकारी परिघटनाओं तथा 1852 में कम्युनिस्टलीग के बाद मार्क्स को क्रांतिकारी परिस्थितियों की परिपक्वता के अपने आकलन की गलती का आभास हुआ और काफी दिन मार्क्स की राजनैतिक सक्रियता लेखन-पठन तक सिमटी रही। 1864 में कामगरों के अंतर्राष्ट्रीय संघ (इंटरनेसनल) के गठन से मार्क्स को दुनिया को ‘समझने’ के साथ ‘बदलने’ के अभियान के लिए तथा सिद्धांत को कार्यरूप देने के प्रयोग के लिए एक समुचित मंच मिल गया और संगठन को एक प्रतिभाशाली, सक्षम नेतृत्व। मार्क्स और एंगेल्स शुरू से ही विचारों के प्रसार और क्रियान्वयन के लिए संगठन आवश्यक मानते थे और मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के प्रयास में थे। कम्युनिस्ट लीग का भी चरित्र अंतर्राष्ट्रीय था, इंटरनेसनल उस दिशा में अगला कदम। 1848-49 के त्रासद परिणामों की सीख से 1859 में राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान के प्राक्कथन में भौतिक उत्पादन के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना के स्वरूप पर जोर देते हैं और सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानि मजदूरों में वर्गचेतना के संचार की जरूरत को रेखांकित करते हैं। मार्क्स ने शुरू से ही सामाजिक चेतना के विकास के स्तर पर युगचेतना के प्रभाव की अहमियत को स्वीकारा है तथा उसके जनवादीकरण की जरूरत को रेखांकित किया, जिसकी संक्षिप्त चर्चा इस श्रृंखला के भाग 4 में की गयी है। सामाजिक चेतना की निर्णायक भूमिका के एहसास के चलते विभिन्न ‘मजदूर आंदोलनों की चेतना के अनुरूप’ इंटरनेसनल के उद्घाटन भाषण का तेवर नरम है और कार्यक्रम सामाजिक जनतांत्रिक।

सांगठनिक अंतर्विरोध और वैचारिक टकराव
      जैसा कि पिछले लेख में बताया गया है, इंटरनेसनल अपने गठन के समय से ही मतभेदों और  वैचारिक टकराव से ग्रस्त रहा है। पहले जेनेवा, 1866 सम्मेलन में सशस्त्र तख्ता पलट के हिमायती, ब्लांकी के अनुयायी, पूंजीवाद में सुधार के पैरोकार प्रूदोंवादियों का बोनापार्ट के दलाल कह कर विरोध किया था। सम्मेलन ने जनरल कौंसिल से पारित कार्यक्रम और सांगठनिक ठांचे को मंजूरी दी तथा सम्मेलन के दौरान काम के 8 घंट्टे का मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा। इस सम्मेलन में 5 देशों के 46 प्रतिनिधियों तथा मैत्रीपूर्ण संगठनों के 14 पर्यवेक्षकों ने शिरकत की थी। इंटरनेसनल का दूसरा सम्मेलन 2-8 सितंबर, 1867 में लुसाने (स्विटजरलैंड) में हुआ। पूंजी के अंतिम रूप देने की व्यस्तता के चलते सम्मेलन में नहीं शरीक हो सके थे। प्रूंदोवादी नेतृत्व पर कब्जा कर पाने में नाकाम रहे और सम्मेलन ने दुबारा उन्ही सदस्यों को चुना। क्रांतिकारी संगठनों में गुटबाजी एक ऐतिहासिक विरासत है जिसे उसके दावेदार बरकरार रखते आए हैं। जनरल कौंसिल के सभी प्रयासों के बावजूद प्रूदोंवादी प्रतिनिधि सहकारिता और ऋण से संबंधित अपने प्रस्ताव पारित कराने में सफल रहे, लेकिन सम्मेलन ने आर्थिक संघर्षों और हड़तालों के जेनेवा सम्मेलन के प्रस्तावों पर फिर से मुहर लगा दिया। सम्मेलन ने सामाजिक मुक्ति के लिए राजनैतिक मुक्ति की अपरिहार्यता को रेखांकित करते हुए, धर्मनिरपेक्षता को संगठन के सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया। विनिमय और यातायात के राष्ट्रीयकरण के साथ पहली बार संगठन ने पूंजीवादी कंपनियों की लूट के उन्मूलन के लिए सामूहिक स्वामित्व के सिद्धांत को औपचारिक मान्यता प्रदान की। इसमें जनरल कौंसिल के शांति और स्वतंत्रता की लीग (लीग ऑफ पीस एंड फ्रीडम) से असंबद्धता के प्रस्ताव के विपरीत अगले दिन से जेनेवा में होने वाले इसके सम्मेलन में शिरकत का प्रस्ताव पारित हो गया और बहुत से संगठन के कई सदस्यों ने नजी हैसियत में इसमें शिरकत की। यहां इस लीग पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश तो नहीं है, लेकिन दो शब्द जरूरी है।    
शासक वर्ग समाज के मूलभूत, आर्थिक अंतर्विरोध की धार कुंद करने के लिए या विषयांतर के लिए कृतिम, वायवी अंतर्विरोधों को पूरी ताकत से उछालता है। यूरोप के बौद्धिक हलकों में मजदूरों के नेतृत्व में क्रांति की अवधारणा नई थी जिसे पचाना उनके लिए मुश्किल था। इतने कम समय में, यूरोप और अमेरिका के मजदूरों में इंटरनेसनल की लोकप्रियता देख शासक वर्गों की पार्टियों और उनके बुद्धिजीवियों के कान खड़े हो गये। मजदूरों का उदारवादी विचारों से मोह भंग हो रहा था। इंग्लैंड के काफी मजदूर नेता शासकवर्ग के दलों की गिरफ्त से निकलकर इंटरनेसनल की तरफ आकर्षित हो रहे थे और कई देशों में इंटरनेसनल की इकाइयां स्थापित हो गयी थीं। शासकवर्ग सर्वसंसाधन संपन्न होता है और शाम-दाम-भेद-दंड सब तरीके अपनाता है। ऐतिहासिक संदर्भ में लीग की विवेचना करने पर हम पाते हैं कि स सम्मेलन का आयोजन इंटरनेसनल के प्रभाव को कम करने; फूट डालने और इसके द्वारा उठाए गए मुद्दों से विषयांतर के लिए एक समानांतर संगठन के लिए खड़ा किया गया। आयोजकों ने इंटरनेसनल की सभी शाखाओं तथा मार्क्स जनरल कौंसिल सभी सदस्यों को आमंत्रण भेजा। इसके आयोजन में जाने-माने उदारवादी चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल, जिन्हें कुछ लोग गलती से उदार समाजवादी कहते हैं; गिसेप्प गैरीबाल्डी; लुई ब्लांक; एड्गर क्विनेट; अलेक्जेंडर हर्जन समेत बहुत सी जानी-मानी हस्तियां शरीक थीं। गैरीबाल्डी की अध्यक्षता वाले इस सम्मेलन में सर्वाधिक लोकप्रिय वक्ता थे। वैसे जरूरी तो नहीं है, फिर भी दो शब्द जॉन स्टुअर्ट मिल के बारे में।
मिल को पहला स्पष्ट जनतांत्रिक उदारवादी चिंतक माना जाता है। वे जनतांत्रिक राज्य को व्यक्ति और समाज के नैतिक विकास के लिए आवश्यक मानते थे तथा स्त्रियों समेत सार्वभौमिक मताधिकार के सशर्त समर्थक थे, लेकिन सबके समान मत के नहीं। काबिल लोगों के मत का मूल्य आमजन के मत से अधिक होना चाहिए। ये काबिल लोग ‘संयोग से’ संपत्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा के भी स्वामी होते हैं। गौरतलब है कि 1867 में इंगलैंड में समान सार्वभौमिक पुरुष अधिकार का कानून बन चुका था। सभी समुदाय जनतंत्र के पात्र नहीं होते केवल प्रबुद्ध समुदाय। यह भी गौरतलब है कि मिल ईस्टइंडिया कंपनी की लंबी मुलाजमत (1823-58) कर चुके थे और सांसद (1865-68) थे तो उपनिवेशों में जनतंत्र की  बात कैसे करते? वे ‘बर्बर’ पर ‘सभ्य’ के वर्चस्व के नस्लवादी कुतर्क से ‘सभ्यता के बोझ’ के सिद्धांत के सहारे उपनिवेशवाद का औचित्य साबित करते हैं। सभी प्रमुख आयोजकों की चर्चा की यहां गुंजिश नहीं है। लुई ब्लांक और हर्जन की चर्चा पिछले लेखों में की गयी है। मिल की इतनी चर्चा महज आयोजकों की नीयत स्पष्ट करने के लिए कर दिया। सम्मेलन में इसमें शिरकत को लेकर मार्क्स के वक्तव्य के हवाले से कई वक्ताओं ने उनका मजाक उड़ाने की कोशिस की। मार्क्स ने लिखा था, इंटरनेसनल के सदस्य निजी हैसियत से सम्मेलन में शरीक हो सकते हैं, संगठन के सदस्य की हैसियत से नहीं। “अंतर राष्ट्रीय कामगरों का सम्मेलन (इंटरनेसनल) अपने-आप में एत शांति सम्मेलन है। विभिन्न देशों के कामगर वर्गों को अंततः अंतर-राष्ट्रीय युद्धों को असंभव बना देना होगा। यदि जेनेवा सम्मेलन के आयोजक इसे सही मानते हैं तो उन्हें टरनेसनल में शरीक हो जाना चाहिए था”। 1868 के ब्रुसेल्स सम्मेलन ने लीग से न जुड़ने के मार्क्स की रणनीति को मंजूरी दे दी और एक सशक्त युद्ध विरोधी मोर्चा बनाने के लिए दुनिया के मजदूर वर्गों का आह्वान किया। इस सम्मेलन में मिखाइल बकूनिन के इंटरनेनल एलायंस ऑफ सोसलिस्ट डेमोक्रेसी (समाजवादी जनतंत्र का अंर्राष्ट्रीय गठबंधन) ने इंटरनेसनल से संबद्धता का आवेदन किया, इसके कार्यक्रमों से असहमति के बावजूद मार्क्स ने जनरल कौंसिल की तरफ से इसे संगठन की एक शाखा के रूप में जुड़ने की अनुमति दे दी। 1869 में ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में आयोजित चौथे सम्मेलन की खास बात प्रूदों के पारस्परिकतावादी अनुयायियों और सामूहिकतावादियों के बीच टकराव था। मार्क्स के प्रतिनिधि और बकूनिन सामूहिकता के पक्ष में साथ थे और बेलजियम से समाजवादी नेता पायपे के समर्थन से प्रूदोंवादी अलग-थलग पड़ गए। 1970 में जर्मनी-फ्रांस युद्ध में इंटरनेसनल के सदस्य युद्धविरोधी अभियान में लगे थे। मार्क्स लगातार जर्नल कौंसिल की तरफ से वक्तव्य जारी कर रहे थे जो बाद में इंटरनेसनल की तरफ से फ्रांस में गृहयुद्ध शीर्षक से जारी किया गया। मार्क्स ने लिखा कि जब जर्मनी और फ्रांस की सेनाएं आमने-सामने थीं तब दोनों देशों के मजदूर एक दूसरे को शुभकामनाएं भेज रहे थे।
1869-72 के दौरान इंटरनेसनल में बकूनिन के अराजकतावादी समर्थकों और मार्क्स के समर्थकों में मतभेद गहराते गए। मार्क्स राज्य पर सर्वहारा के अधिकार के हिमायती थे और बकूनिन राजनीति से दूरी के। दर-असल मार्क्स को संगठन के अंदर दो वैचारिक मोर्चों पर संघर्ष करना था। एक तरफ पूंजीवादी उदारवाद से समझौते को उद्यत अवसरवादी ट्रेडयूनियन नेताओं के सुधारवादी विचार थे तो दूसरी तरफ बकूनिन और ब्लांकी के चरमपंथी विचार। पेरिस कम्यून के त्रासद अंत के बाद ब्लांकी के ज्यादातर समर्थक मार्क्स के साथ आ गये। आज भी किसी सही मार्क्सवादी संगठन के सामने वही समस्याएं और शत्रु हैं, नाम बदल गये हैं। प्रूदों और बकूनिन दोनों राजनैतिक संघर्षों के विरुद्ध थे। प्रूदों प्रगतिशील ऋणप्रणाली और छोटे उत्पादकों की सहकारिता से समाजवाद लाना चाहते थे और बकूनिनका मानना था कि आतंकवादी और छोटी-मोटी, छिटपुट सशस्त्र कार्वाइयां आम सामाजिक क्रांति का पथ प्रशस्त करेंगी। मार्क्स और बकूनिन के समर्थकों में टकराव का प्रमुख मुद्दा सांगठनिक संरचना था। बकूनिन ने जनरल कौंसिल पर अधिनायकवादी ढंग से काम करने का आरोप लगाया लेकिन इंटरनेसनल पर पिरामिडीय पदानुक्रम में गठित भूमिगत संगठन के संरक्षण के हिमायती थे, जिसके मुखिया वे खुद हों। राज्यों के दमन के बाहरी संकट और अराजकतावादियों के विरोध के आंतरिक संकट के चलते मार्क्स और एंगेल्स ने जनरल कौंसिल के अधिकारों में बढ़ोत्तरी की दलील दी। बकूनिन को स्विटजरलैंड, स्पेन और इटली से पर्याप्त समर्थन मिला। बकूनिन के काफी समर्थक, मार्क्स की शब्दावली में लंपट सर्वहारा थे। पेरिस कम्यून के बाद इंटरनेसनल की हर इकाई पर राजकीय दमन बढ़ता गया। पेरिस कम्यून की संक्षिप्त चर्चा आगे की जाएगी। बकूनिन और मार्क्स की इसकी अलग-अलग व्याख्याएं थी। मार्क्स समेत टरनेसनल के तमाम सदस्य कम्यून के पतन के बाद शरणार्थियों के राहत काम में लग गए। 1972 के द हेग सम्मेलन में दोनों पक्ष आमने-सामने थे। संगठन के अंदर एक भूमिगत संगठन के गठन और संगठनिक अनुशासन के उल्लंघन के आरोप में बकूनिन को ब्लांकी के अनुयायियों के समर्थन से गइंटरनेसनल से निष्कासित कर दिया गया। इसमें मार्क्स को ब्लांकी के अनुयायियों का समर्थन मिला। इसी सम्मेलन में बहुत हल्के बहुमत से संगठन का मुख्यालय न्यूयॉर्क स्थांतरित करने का भी प्रस्ताव पारित किया. यह दर-असल इंटरनेसनल के अंत की घंटी थी जिसकी औपचारिक घोषणा 1976 में फिलाडेल्फिया में की गयी। बकूनिन के समर्थकों ने अलग सम्मेलन कर निष्कान को अमान्य कर खुद को संगठन का असली वारिस बताया। ‘अधिनायकवाद विरोधी’ यह इंटरनेसनल शुरू से अराजकता का शिकार रहा, 1877 तक आते-आते बिखरने की प्रक्रिया शुरू हुई और 1881 में पूरी हो गयी और मजदूरों की अंतरराष्ट्रीयता का पहला चरण ‘बीरगति’ को प्राप्त हो गया।
इस तरह हम देखते हैं कि पहला इंटरनेसनल मार्क्सवादी बल्कि मजदूरों के हितों की हिमायत करने वाले विभिन्न संगठनों और विचारों का व्यापक मंच था। समाज, इतिहास और क्रांति की समझ तथा रणनीतियों के मतभेद न सुलझने वाले सबित हुए और संगठन के अंत के कारण। आज जब दुनिया में मानवता और मानवीय मूल्यों पर फासीवाद के नवोदय या पुनरुत्थान से एक अभूतपूर्व खतरा पैदा हो गया है और हर देश में, व्यापक संयुक्त मोर्चों की जरूरत है लेकिन इंटरनेसनल के अनुभव से सीख लेते हुए प्रतिरोध की ताकतों के बीच मूलभूत सैद्धांतिक सहमति और असहमतियों पर सहिष्णु संवाद अनिवार्य है। सामाज के भौतिक उत्पादन के उस चरण और तदनुरूप युगचेतना से प्रभावित सामाजिक चेतना से स्वरूप के संदर्भ में तत्कालीन परिस्थितियों में अपनी यथासंभव ऐतिहासिक भूमिका निभाने के बाद कामगरों का पहला इंटरनेसनल तो बिखर गया लेकिन मानव मुक्ति के लिए दुनिया के मजदूरों के व्यापक अंतर्राष्ट्रीय संगठन की जरूरत का सवाल छोड़ गया और जवाब खोजने की प्रक्रिया में 1889 में दूसरे अंर्राष्ट्रीय की स्थापना हुई।

पेरिस कम्यून  
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इतिहास की पहली सफल सर्वहारा क्रांति के बाद, पूंजीवादी राज्य मशीनरी को ध्वस्त कर स्थापित पहले सर्वहारा राज्य की मिशाल, पेरिस कम्यून पर क्रांति के भागीदारों और समकालीनों से लेकर आज तक  बहुत लिखा जा चुका है। मार्क्स ने  इंटरनेसनल की जनरल कौंसिल की तरफ से जारी फ्रांस में गृहयुद्ध (सिविल वार न फ्रांस ) इसकी वैज्ञानिक व्याख्या और समीक्षा है। फिर भी कम्यून की संक्षिप्त चर्चा के बिना, बात अधूरी रह जाएगी। कुछ इतिहासकारों ने इसे रूसो के सामूहिक इच्छा (जनरल विल) के सिद्धांत के औद्योगिक युग में रूपांतरण बताया तो कुछ ने वास्तविक सहभागी जनतंत्र की मिशाल। बकूनिन और अनके अराजक अनुयायियों ने इसे राज्यविहीन अराजक समाज के अभियान के कदम के रूप में देखा और एंगेल्स ने सर्वहारा की तानाशाही की जीवंत मिशाल के। कम्यून के ज्यादातर नेता इंटरनेसनल के सदस्य थे, जिनमें ब्लांकी और प्रूदों के अनुयायियों की संख्या काफी थी। जो भी हो पेरिस कम्यून मजदूरों की की पीढ़ियों के लिए मजदूर क्रांति का संदर्भ-बिंदु और प्रेरणा श्रोत बना हुआ है।
 क्रांति पर मार्क्स के विचारों को समझने के दो प्रमुख श्रोत हैं – कम्यनिस्ट घोषणा पश्र और फ्रांस में गृह युद्धघोषणा पत्र 1848 की क्रांति के पहले लिखा गया था और भविष्य के अनुमानित वर्गसंघर्ष की रूपरेखा पेश करता है। घोषणापत्र के आक्रामक तेवर की जगह फ्रांस में गृह युद्ध में दो क्रांतियों के अनुभव की परिपक्ता है। यह तब लिखा गया जब वर्ग-संघर्ष का विकास इस स्तर हो चुका था कि इसने कम्यून की एक नई अवधारणा को जन्म दिया। न तो किसी यूटोपियन समाजवादी ने, न ही भौतिकवादी मार्क्स और एंगेल्स ने ही इसकी कल्पना की थी। र्मार्क्स और एंगेल्स 1872 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के नए संस्करण की भूमिका में इस बात का संज्ञान लेते हुए स्वीकार करते हैं, “1848 के बाद पूंजीवाद के विकास की विराटता और परिणामस्वरूप मजदूर वर्ग के बेहतर और विस्तारित संगठनों के परिदृश्य तथा फरवरी क्रांति और खासकर पेरिस कम्यून के अनुभवों को देखते हुए जिसमें सर्वहारा पूरे दो महीने सत्ता पर अधिकार बरकरार रहा; कुछ मायनों में यह (घोषणापत्र का) पुरातन पड़ गया है। कम्यून ने एक बात खास तौर पर साबित किया कि मजदूर वर्ग पहले से मौजूद राज्यतंत्र पर कब्जा करके उसका उपयोग अपने उद्देश्य नहीं कर सकता”। राज्यतंत्र को विघटित करना ही पड़ेगा। इस बात को 1971 मे जनरल कौंसिल के अपने दो संबोधनों तथा फ्रांस में गृहयुद्ध में मार्क्स ने और भी स्पष्ट किया है। इसीलिए मार्क्सवाद कोई स्थिर विचारधारा नहीं, दुनिया को समझने-बदलने का गतिमान विज्ञान है। 20 साल बाद 1891 में फ्रांस में गृह युद्ध के नए संस्करण की भूमिका में एंगेल्स लिखते हैं, “हाल के दिनों में कई टुटपुजिया सामाजिक जनतंत्रवादी, सर्वहारा की तानाशाही जैसे शब्दों का हौव्वा खड़ा करने में लगे हैं। ठीक है आप जानना चाहते हैं कि सर्वहारा की तानाशाही कैसी होती है? पेरिस कम्यून देखिए, वह सर्वहारा की तानाशाही थी”।
कम्यून के इतिहास, मार्क्स और एंगेल्स तथा अराजकतावादी एवं उदारवादी बुद्धिजीवियों की इसकी व्याख्याओं की व्यापक समीक्षा की यहां गुंजाइश नहीं है, लेकिन कम्यून के उदय की पृष्ठभूमि; मजदूरों की सशस्त्र क्रांति; मार्क्स के कम्यून नेताओं के नाम संदेश; कम्यून की गलतियों और अमानवीय बर्बरता से दमन पर एक सरसरी निगाह डालना लाजमी है। सोवियत संघ के प्रोग्रेस प्रकाशन से प्रकाशित पेरिस कम्यून (1971) में संकलित  1870 में फ्रांस-जर्मनी (प्रैंको-प्रसियन) युद्ध पर इंटरनेसनल में मार्क्स के संबोधन; जनरल कौंसिल द्वारा जारी फ्रांस में गृहयुद्ध; और इसकी तैयारी के प्रारूपों;  मार्क्स एंगेल्स के तत्कालीन लेखों, पत्रों, पूंजीवादी प्रेस तथा संगठनों के दुष्प्रचार के जवाब, कम्यून के उदय-पतन की प्रामाणिक कहानी बयान करते हैं और क्रांतिकारियों की गलतियों की समीक्षा। मार्क्स युद्ध पर अपने पहले संबोधन की शुरुआत इंटरनेसनल में अपने उद्घाटन संबोधन के उद्धरण से करते हैं कि किस तरह शासक वर्ग राजनैतिक सत्ता पर आए संकट से निपटने के लिए युद्धोंमादी राष्ट्रवाद का माहौल बनाकर रक्तपात में समाज की संपदा नष्ट करते हैं। यह आज भी उतनी सही है, जितनी तब थी। “इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि विभिन्न वर्गों के संघर्षों का फायदा उठाकर सत्त्ता हड़पने और समय-समय पर विदेशी युद्धों द्वारा उसे बरकरार रखने वाला नैपोलियन बोर्नापार्ट शुरू से ही इंटरनेसनल को अपना सबसे खतरनाक दुश्मन मानता है। जनमत संग्रह की पूर्वसंध्या पर उसने फ्रांस में अंतर्राष्ट्रीय कामगर संघ (इंटरनेसनल) को उसकी हत्या की साजिश रचने वाला गुप्त संगठन संगठन बताकर, देश भर में इसके पदाधिकारियों की धर-पकड़ का आदेश जारी कर दिया। ........... ........ दरअसल वे फ्रांसीसी जनता से खुलेआम जोर-शोर से मतदान के बहिष्कार की जोर-शोर से अपील कर रहे थे क्योंकि मतदान का मतलब है देश में तानाशाही और दूसरे देशों से युद्ध का समर्थन है”।
बोनापार्ट के कुशासन और उसके सैनिकों के अनाचार तथा बैंकरों, कारखानेदारों और व्यापारियों की लूट से जनअसंतोष चरम पर था। इंटरनेसनल के कार्यक्रम और प्रचार मजदूर असंतोष को दिशा दे रहे थे। बोर्नापार्ट युद्ध का माहौल बना रहा था और इंटरनेसनल के नेता और कार्यकर्ता युद्धोंमाद के विरुद्ध जनमत तैयार कर रहे थे। फ्रांस की गरिमा के तथा ‘शत्रु’ जर्मनी से अपनी जमीन वापस लेने के नाम पर जब 15 जुलाई 1870 को बोर्नापार्ट ने युद्ध की घोषणा की तो इसकी चारों तरफ निंदा हुई। इंटरनेसनल की फ्रांसीसी इकाई ने “सभी देशों के कामगरों” के नाम 12 जुलाई को घोषणापत्र जारी किया। “राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए, राष्टीय सम्मान के यूरोपीय संतुलन के नाम पर एक बार फिर दुनिया के अमन-चैन पर खतरे घने बादल मड़राने लगे हैं। फ्रांस, जर्मनी, स्पेन के कामगर साथियों! आइए हम एकजुट होकर युद्ध के विरुद्ध आवाज बुलंद करें। …….. यह युद्ध वर्चस्व या सल्तनत का युद्ध है। कामगरों की टृष्टि से यह एक आपराधिक बेहूदगी है। ....” कई शहरों में मजदूरों ने शांति मार्च आयोजित किया। इंटरनेसनल की जर्मन इकाई के कार्यकर्ताओं ने भी युद्ध का विरोध किया। नतीजतन जब दोनों ही देशों की सेनाएं आमने-सामने थीं तब वहां के मजदूर एक दूसरे को शांति-संदेश भेज रहे थे। युद्ध और युद्ध विरोधी अभियानों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। इसका बोनापर्ट की पराजय से शर्मनाक अंत हुआ। 2 सितंबर 1870 को देश की पूर्वी सीमा, सेडान में बोनापार्ट की सेना की पराजय के बाद बिस्मार्क की सेना ने ‘सम्राट’ को उनके 100,000 सैनिकों के साथ बंदी बना लिया। पेरिस की सड़कों पर नारे लगाते, नाचते-गाते कामगरों का जनसैलाब उमड़ पड़ा। यह जनसैलाब राजशाही के अंत और गणतंत्र की स्थापना की मांग कर रहा था।
तथाकथित गणतंत्रवादी विपक्ष कामगरों के इस आंदोलन से सकते में आ गया लेकिन जनमत के दबाव में उसे मजबूरन गणतंत्र और अंतरिम राष्ट्रीय सुरक्षा की की सरकार की घोषणा करनी ही पड़ी। इस सरकार के प्रमुख पदों पर पूंजीवाद समर्थक गणतंत्रवादी थे। मार्क्स फ्रांस का गृहयुद्ध में लिखते हैं, “जब पेरिस के मजदूरों ने गणतंत्र की घोषणा की तो तुरंत ही पूरे फ्रांस में ऐसी निर्विरोध घोषणाएं हुईं। मौके की ताक में बैठे कुछ बैरिस्टर होटल द विल्ले (संसद) पर काबिज हो गए, थियर उनका नेता था और थ्रोचू जनरल। .............. हड़पी हुई अपनी सत्ता की वैधता के लिए पेरिस के प्रतिनिधित्व का अप्रासंगिक हो चुका जनादेश ही काफी समझा”। मार्क्स ने उपरोक्त लेख में सरकार के मंत्रियों के वक्तव्यों के हवाले से बताया है कि सरकार तो समझौता करना चाहती थी लेकिन लोगों और नेसनल गार्ड की देशभक्ति के बुलंद जज्बे को देखते हुए, हिम्मत न कर सकी उल्टे शगूफा छोड़ दिया, “न तो एक इंच जमीन छोड़ेंगे, न ही जर्मनों को किले की एक ईंट ले जाने देंगे”, और जर्मन सेना ने पेरिस पर  घेरा डाल दिया। आश्चर्यजनक हलचलों के बीच, जबकि मजदूरों के असली नेता अब भी बोनापार्ट की जेलों में थे, जर्मन सेना पहले ही पेरिस की तरफ कूच कर चुकी थी, पेरिस ने इस शर्त के साथ बागडोर संभाला कि उसका द्देश्य महज राष्ट्रीय सुरक्षा था। लेकिन पेरिस की सुरक्षा मजदूर वर्ग को हथियारबंद कर प्रभावशाली बल में संगठित किए बगैर नहीं हो सकती, युद्ध अपने आप उन्हें प्रशिक्षण दे देगा। लेकिन हथियारबंद पेरिस का मतलब था क्रांति को हथियारबंद करना”। पूंजीवाद के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली इस सरकार को जर्मनों से ज्यादा खतरा हथियारबंद मजदूरों से था। उनसे निपटने की तैयारी का उसे समय चाहिए था। उसे लगता था कि लंबी घेराबंदी के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव से मजदूरों का क्रांतिकारी जज्बा ठंडा पड़ जाएगा। सरकार एक तरफ राष्ट्रोंमादी लफ्फाजी कर रही थी दूसरी तरफ बिस्मार्क से गुप्त वार्ता। लेकिन नेसनल गार्ड के  रूप में संगठित पेरिस के 200,000 हथियारबंद मजदूरों की जनसेना ने पेरिस की सुरक्षा का दायित्व अपने हाथों मेंले लिया। नगर की सुरक्षा सुनिश्चित कर, हथियार डालने से इंकार कर, अपने ही शासकों पर तान दिया और धरती पर पहले सर्वहारा राज्य को जन्म दिया। तबसे कहीं भी किसी भी शासकवर्ग ने मजदूर वर्ग को हथियारबंद करने की गलती नहीं की।
युद्ध अक्सर, खासकर, पराजय की स्थिति में, क्रांतिकारी परिस्थितियां पैदा करता है। युद्ध से लोगों की रोजमर्रा की दिनचर्या तहस-नहस हो जाती है। सरकार के कर्त्ता-धर्ताओं; परजीवी राज्य मशीनरी; सेना; मीडिया तथा सत्ता के अन्य स्तंभों के क्रियाकलापों का परीक्षण में लोगों की निगाहों का पैनापन कई गुना बढ़ जाता है। संसद में बहुमत पूंजीवादी गणतंत्रवादियों और बोनापार्टवादियों यानि दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों का था। लोगों ने कुछ दिन राष्ट्रीय एकता के नाम पर सरकार का समर्थन किया लेकिन धीरे-धीरे असंतोष फिर फैलने लगा। मजदूर वर्ग जब क्रांति की तैयारी कर रहा था तब यह गिरोह प्रतिक्रांति की।
प्रतिक्रियावादियों की यह सरकार अपनी जनविरोधी नीतियों से पेरिसवासियों, खासकर मजदूरों और नेसनल गार्ड के सदस्यों को लगातार उकसाती रही। कुछ नेसनल गार्डों के का भत्ता  रोक दिया  गया और उन्हें “काम में क्षमता” प्रमाणित करने को कह गया। शहर के घेरे से बहुत लोग बेरोजगार हो गए थे। भुखमरी तो नहीं भुखमरी जैसे हालात पैदा हो गए थे। सभी बकाया किराया और कर्ज 48 घंटे में जमा करने का फरमान जारी हो गया, जिससे छोटे-मोटे व्यापारियों पर दिवाएपन का खतरा मड़राने लगा। फ्रांस की राधानी पेरिस से वर्साय स्थांतरित कर दी गयी। इन और इन सी अन्य जनविरोधी नीतियों ने गरीबों को दरिद्र बना दिया लेकिन इन्ही की प्रतिक्रिया स्वरूप मध्यवर्ग की सामाजिक चेतना का जनवादीकरण हुआ। थियर की प्रतिक्रियावादी सरकार को उखाड़ फांकना ही पेरिस की मुक्ति का रास्ता था। जुझारू प्रदर्शन शुरू हो गए और मजदूर वर्ग ने विद्रोह का ऐलान कर दिया -- थियर जैसे तथाकथित गणतंत्रवादी और राजशाही समर्थक गद्दारों के खिलाफ आर-पार की लड़ाई। प्रसियन सरकार के समक्ष समर्पण और राजशाही के पुनरुद्धार के खतरों ने आग में घी का काम किया। नेसनल गार्ड क्रांति के अग्रदूत बन गए। 215 बटलियनों के प्रतिनिधियों ने ‘नेसनल गार्डों के महासंघ की केंद्रीय कमेटी’ का चुनाव हुआ। केंद्रीय कमेटी की सत्ता तुरंत सर्वमान्य हो गयी और थियर सरकार द्वारा नियुक्त कमांडर को इस्तीफा देना पड़ा। जर्मन सेना शहर के एक कोने में 2 दिन डेरा डालकर वापस चली गयी। थियर सरकार की फौरी चिंता पेरिस के हथियारबंद मजदूर थे। मजदूरों के अधिकार में तोपों का होना पूंजीवाद के लिए “कानून-व्यवस्था” की समस्या थी। दुनिया के सभी प्रतिक्रियावदियों की आंख की किरकिरी बन गया हथियारबंद पेरिस। थियर ने नियमित सेना के 20 हजार सैनिक भेजा तोपों पर कब्जा करने जो उन्होंने आसानी से कर लिया लेकिन उनके पास उन्हें ले जाने का इंतजाम करते, धीरे-धीरे वे मजदूरों की भीड़ से घिरते गये। नेसनल गार्ड्स भी पहुंच गए। भीड़, सैनिक, नेसनल गार्ड सब गड्ड-मड्ड हो रहे थे। सेना के कमांडर ने भीड़ पर गोली चलाने का हुक्म दिया लेकिन सैनिकों ने गोली चलाने से इंकार कर दिया। कई सैनिक नेसनल गार्ड्स को गले लगा रहे थे। क्या अद्भुत दृश्य रहा होगा। कमांडतर लॉकमते और नेसनल गार्ड के पूर्व कमांडर क्लेमांत थॉमस को गिरफ्तार कर लिया गया जिन्हें क्रुद्ध सैनिकों ने मार दिया। थॉमस ने 1848 की क्रांति में मजदूरों पर गोली चलवाई थी। इस परिघटना में केंद्रीय कमेटी की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन परिस्थिति ने उसे सरकार की स्थिति में बैठा दिया। थियर और उसके मंत्रियों की हालत खराब हो गयी। सैनिक हुक्म मानने की बजाय सोचने लगे यानि विद्रोह कर दे, यह बात उन्होने सपने भी नहीं सोचा था। भयभीत हो आनन-फानन में पेरिस से वरसाय भाग गया और सेना तथा प्रशासनिक कर्मियों को शहर खाली कर देने का हुक्म दे दिया। थियर का पीछा कर उसकी बची-खुची सेना को भी नष्ट करने के प्रस्ताव को केंद्रीय कमेटी ने नहीं माना। बाद में देखने पर लगता है कि यह एक ऐतिहासिक गलती थी। दरअसल केंद्रीय कमेटी ज्यादातर सदस्यों में सैद्धांतिक परिपक्वता का अभाव था और वे अपनी ऐतिहासिक भूमिका लिए तैयार नहीं थे। पेरिस में अब नेसनल गार्ड सरकार की स्थिति में था तथा केंद्रीय कमेटी ने सारे सामरिक स्थानों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। मजदूरों के निहत्था करने की सरकार की नाकाम कोशिस के बाद पेरिस के मजदूरों और वारसाय में छिपी सरकार के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। “18 मार्च की भोर कम्यून जिंदाबाद के नारों की गर्जना से हुई। केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी घोषणापत्र में कहा गया, “शासक वर्गों की नाकामियों और गद्दारियों को देखते हुए, पेरिस का सर्वहारा समझ गया है कि वक्त आ गया है कि सार्वजनिक मसलों को संचालन वह अपने हाथ में ले ले। ……….. वह समझ गया है कि यह उसका परम कर्तव्य और असंदिग्ध अधिकार है कि वह सरकारी सत्ता पर काबिज हो अपनी भाग्य का विधाता वह स्वयं बने”।
केंदीय कमेटी, क्रांति के जज्बे के प्रसार के बजाय अपने लिए पहला काम तय किया कम्यून का चुनाव कराना। क्रांति की निरंतरता की बजाय कीमती समय चुनाव के प्रबंधों में लगा दिया और थियर बिस्मार्क से मिलकर प्रतिक्रांति की तैयारी करता रहा और सैन्यशक्ति और मनोबल बढ़ाता रहा। केंद्रीय कमेटी को लगा कि उनके पास शासन का वैध जनमत नहीं था। 90 सदस्यीय, निर्वाचित कम्यून में अधिकतर क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़े लोग थे और ब्लांकी के अनयायियों मार्क्सवादियों को मिलाकर लगभग एक-चौथाई इंटरनेसनल के सदस्य। जोशो-खरोश  से ओत-प्रोत, कार्रवाई को सदा उद्यत ब्लांकी के अनुयायियों के पास स्पष्ट सैद्धांतिक समझ का अभाव था, कम्यून के पतन के बाद, बचे-खुचे ब्लांकीवादी मार्क्सवाद की तरफ उद्यत हो गये थे। ब्लांकी स्वयं एक प्रांतीय जेल में थे। वरसाय में थियर सरकार से वार्त्ता में कम्यून ने तमाम अपनी कैद से तमाम पादरियों की रिहाई के बदले सिर्फ ब्लांकी माना था लेकिन पूंजी का दलाल थियर तो वार्त्ता में विषयांतर के लिए उलझा रहा था जिससे कम्यून के खिलाफ सारे प्रतिक्रियावादियों को लामबंद कर सके। निर्वाचित चंद दक्षिणपंथियों किसी-न-किसी बहाने इस्तीफा दे दिया और कुछ को गिरफ्तार कर लिया गया जब पता चला कि वे पुलिस के मुखबिर या जासूस थे। मार्क्स ने एटींथ ब्रुमेयर में लिखा था कि पूर्ववर्ती क्रांतियों ने राज्य-मशीनरी को नष्ट करने की बजाय उन्हें मजबूत किया और फ्रांस में गृहयुद्ध में लिखते हैं, “मजदूर वर्ग पहले से ही मौजूद राज्य मशीनरी पर मात्र कब्जा करके उसे अपने वर्गीय हितों के निये प्रयोग नहीं कर सकता। चूँकि उसकी राजनैतिक गुलामी का हथियार कभी उसकी मूक्ति का यंत्र नहीं बन सकता"
सत्ता संभालते ही कम्यून ने राज्य मशीनरी के सारे विशेषाधिकार खत्म कर दिए; किराया और कर्ज की अदायगी पर अप्रैल तक के लिए रोक लगा दी; बंद कारखाने कामगरों के नियंत्रण में शुरू किए गये; रात्रिकालीन काम को न्यूवतम करने तथा गरीब और बीमार के भरण-पोषण सुनिश्चित करने के प्रावधान बनाए। कम्यून ने घोषित किया कि उसका उद्देश्य समाजवादी आदर्श का प्रसार और “पूंजीपतियों के फायदे के लिए मजदूरों का आपसी अराजक प्रतिस्पर्धा का अंत करना है”।  नेसनल गार्ड में भर्ती शारीरिक रूप से सक्षम हर व्यक्ति के लिए खुली थी और जैसा ऊपर बताया गया है, उसकी संरचना पारदर्शी तौर पर जनतांत्रिक थी। खुद को लोगों से अलग-थलग और ऊपर समझने वाली सेना तथा पुलिस को अवैधानिक करार कर, भंग कर दिया गया। चर्च को राज्य से अलग कर धर्म को निजी मामला घोषित किया गया और चर्चों की बेशुमार संपत्ति जब्त कर ली गयी। प्रशासनिक अधिकारी, आम मजदूर के समान वेतन पर काम करने वाले कम्यून द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि थे, जिन्हें वापस बुलाया जा सकता था। बेघरों के लिए सार्वजनिक भवनों और भगोड़ों के अधिगृहित घर अधिगृहित किए गए। शिक्षा, प्रेक्षागृह और ज्ञान तथा संस्कृति के सारे केंद्र सार्वजनिक रूप से सभी को सुलभ करा दिए गये। विदेशी कामगरों को तुरंत ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूरों के सार्वभौमिक गणतंत्र’ के सदस्य के रूप में मान्यता दी गयी। गौरतलब है कि कम्यून के निर्वाचित सदस्यों में भी कई प्रवासी थे। सामाजिक जीवन के तमाम पहलुओं को ‘साझे हित’ में व्यवस्थित करने के लिए दिन-रात हजारों लोगों की सभाएं लिए होने लगीं। कम्यून और नेसनल गार्ड की छत्र-छाया में विकसित हो रही व्यवस्था का चरित्र निस्संदेह समाजवादी था। कम्यून की भयानकतम गलतियों में वार्साय की जवाबी हमलों को नजर अंदाज करना और केंद्रीय बैंक पर कब्जा करने की मार्क्स की सलाह को न मानना था जो थियर को कम्यून को कुचलने की तैयारी के लिए लाखों फ्रैंक मुहैया कराता रहा। लेनिन के नेतृत्व में 1917 में यह गलती बॉल्सेविकों ने नहीं दुहराया, सबसे पहले उन्होने ने बैंकों और प्रसारण संस्थानों को कब्जे में लिया था।
1848 में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा था कि यूरोप के सिर पर कम्युनिज्म का भूत मड़राता रहता है और 1871 में पेरिस कम्यून के रूप में वह भूत उन्हें साक्षात दिख गया। यूरोप के प्रतिक्रियावादी खेमें में बौखलाहट मच गयी। मार्क्स ने कम्यून को अपने संदेश में स्पष्ट किया था कि पेरिस के बाहर अड्डा जमाए प्रशियन सैनिक या तो थियर की मदद करेंगे या खुद कम्यून पर हमला कर देंगे। मार्क्स यह स्पष्ट समझ रहे थे कि सर्वहारा की इस क्रांति को पुख़्ता करने के लिए ज़रूरी है कि पेरिस की कामगारों की सेना पेरिस में प्रतिक्रान्ति की हर कोशिश को कुचलकर, बिना रुके वर्साय की ओर कूच कर जाना चाहिए था। वर्साय में ही थियेर सरकार के साथ ही पेरिस के सभी धनपशुओं ने शरण ले रखी थी। उस समय थियर की कमान में मात्र 27 हजार हतोत्साहित सानिक थे और सर्वहारा की फौज में एक लाख नेशनल गार्डस। पेरिस की नकल पर कई और कम्यून बने थे। वार्साय पर झंडा गाड़ने के बाद क्रांति को देशव्यापी बनाया जा सकता था। लेकिन किसी ऐतिहासिक मिशाल; सैद्धांतिक परिपक्वता; ठोस, संगठित नेतृत्व; ठोस स्पष्ट कार्यक्रम के अभाव और घेराबंदी की अफरा-तफरी में, पेरिस का मजदूर जमीनी हकीकतों के संदर्भ में, सर्वहारा के हित में नये समाज के गठन की प्रक्रिया में फूंक-फूंक कर कदम रख रहा था। इसीलिए, लगता है, कम्यून क्रांति को पुख्ता किए बिना क्रांति के बाद के समाज के ताने-बाने में फंस गया। छोटी मोटी झड़पों में वारसाय सेना द्वारा कुछ कम्युनार्डों को पकड़कर कत्ल कर देने की घटना के बाद, नेसनल गार्ड के दबाव में कम्यून ने वरसाय पर 3 मोर्चों से हमला करने का फैसला लिया। अपनी सामरिक कमजोरी को जानते हुए, थियर कम्यून से वर्तालाप का नाटक कर रहा था, और जैसा कि मार्क्स को पूर्वाभास था, कम्यून को कुचलने के लिए बिश्मार्क से गुप-चुप सौदे बाजी। और अंततः जब पुनर्गठित सेना के साथ पेरिस पर भारी तोपों के साथ हमला बोला तो राजनैतिक और सामरिक अनुभव और अंतर्दृष्टि की कमी के चलते, सर्वहारा की फौज को लड़ते हुए पीछे हटना पड़ा और एक सप्ताह तक पेरिस पर बमबारी होती रही, इसे इतिहास में काला सप्ताह नाम से याद किया जाता है। सेना का चरित्र वैतनिक हत्यारों सा होता है, थियर की सेना किसी विदेशी सेना का नहीं, अपनी विद्रोही जनता का। इसके बाद प्रतिक्रियावादियों ने सड़कों पर दमन का जो तांडव किया वह बेमिशाल है। पेरिस लाशों से पट गया। लगभग 30 हजार क्रांतिकारियों ने शहादत दी, जिसमें बच्चे-बूढ़े-महिलाएं सब थे। कम्युनार्ड लड़े तो भूतपूर्व बहादुरी से लेकिन सामरिक योजना में अपरिपक्वता के चलते 28 मई को 2 महीने का कम्यून पराजित हो गया। सशस्त्र दस्ते जून में पेरिस की सड़कों पर गस्त करते रहे और किसी को भी कम्यून के सहयोगी के संदेह में गोली मार देते थे। कम्यून के पतन के बाद सभी देशों में इंटरनेसनल के सदस्यों और शाखाओं पर दमन बढ़ता रहा और संगठन में टकराव, जैसा ऊपर कहा गया है, जिसके नतीजतन संगठन दो फाड़ हो गया और अंततः विगठित।

कम्यून की विसंगतियों और कार्यक्रमों की सैद्धांतिक अस्पष्टता, प्राथमिकताओं के गलत चुनाव के कारण समय और ऊर्जा की बर्बादी आदि कमियों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, उपरोक्त पेरिस कम्यून इसकी समीक्षा का तत्कालीन, प्रामाणिक और वैज्ञानिक समीक्षा है। मजदूरों के पहले अल्पजीवी राज्य के उत्थान-पतन और पतन की एक संक्षिप्त समीक्षा के साथ इस चर्चा को समाप्त करते हैं। मार्क्स ने 18 मार्च के पहले ही कहा था कि तत्कालीन, प्रतिकूल परिस्थियों में सत्ता पर कब्जा करना एक “दुस्साहसिक भूल होगी”। लेकिन इतिहास में स्वफूर्तता की अपनी भूमिका होती है। पेरिस के मजदूर महज अपनी लड़ाई नहीं लड़ रहे थे बल्कि शोषण, वर्गविभाजन, सैन्यवाद और राष्ट्रोंमाद से मुक्त “एक सार्वभौमिक गणतंत्र” की। 1871 की तुलना में आज गहराते पूंजीवादी संकट के संदर्भ में विकसित और विकासशील औद्योगिक देशों में क्रांति की परिस्थियां ज्यादा अनुकूल हैं, लेकिन पहले इंटरनेसनल जैसे क्रांतिकारी संगठन की नामौजूदगी से शासकवर्ग संकट से विषयांतर के लिए नस्लोंमाद; धर्मोंमाद; राष्ट्रोंमाद का सहारा ले रहा है। आज जरूरत ऐसे समाज की ठोस बुनियाद तैयार करने की है जिसके लिए पेरिस के सर्हारा स्त्री-पुरुषों ने कुर्बानियां दीं। कम्यून, अल्पजीविता के बावजूद एक समाजवादी समाज बनाने का ईमानदार प्रयास था और क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर बन गया तथा भविष्य की क्रांतियों का संदर्भविंदु।