Wednesday, April 15, 2020

गोरख पांडेय 1

गोरख भावुक तो थे ही लेकिन विक्षिप्तता का भावुकता से अलग कुछ क्लिनिकल पहलू भी होता होगा, नहीं तो समाज और उसकी द्वंद्वात्मक संरचना की इतनी पैनी समझ, बदलने का जुनून और तकलीफों की सहनशक्ति के बावजूद, हत्या के खिलाफ कविता लिखकर आत्महत्या करना समझ के परे है। यह तो एक साप्ताहिक के लिए फौरी श्रद्धांजलि लिखा गयी थी, उसके अंग्रजी संस्करण वाला लेख ढूंढ़ना पड़ेगा। एम्स में बिजली का शॉक भी दिया गया था। कई बार गोरख बिल्कुल बच्चों सा व्यवहार करते, कई बार उन्हें हैल्यूसिनेसन होता। एक बार बस में चलते हुए इलाहाबाद से आए एक साथी (रामजी राय) को तेजी से धक्का दिए 'ऊपर क्यों चढ़े आ रहे हैं'। ऐसी कई घटनाएं हैं। सार्त्र के अलगाववाद पर उनकी थेसिस पर परीक्षक का एक पंक्ति की टिप्पणी थी, 'यह एक मौलिक काम है'। मेनस्ट्रीम में अपनी गाइड के एक लेख की बखिया बखेरते हुए बहुत सुंदर लेख लिखा था। सीपीआई की थीं, गोरख को जोएनयू में नौकरी मिल जाती तो हो सकता पढ़ाने में भटकाव से मन को भटकाव मिलता। खैर जो नहीं हुआ उसकी क्या बात? काफी समय के लिए एम्स में भर्ती थे, वहां से आने के बाद बहुत सामान्य लग रहे थे, पोस्टडॉक्टरल पंजीकरण हो गया था, डाउन कैंपस में मैरिड ह़ॉस्टल में कमरा मिल गया था (पोस्ट डॉक्टरल फेलो को मैरिड हॉस्टल में अटैच्ड बाथरूम का कमरा मिलता था), फेलोशिप अप्रूव हो गयी थी 5-6 महीने की इकट्ठे मिलने वाली थी। मैं उन दिनों परिवार के साथ मयूरविहार में रहता था, जेएनयू जाना थोड़ा कम हो गया था। उनकी मृत्यु के 3-4 दिन पहले सुबह सुबह उनसे मिलने का मन हुआ। दाढ़ी ट्रिम कराने जेएनयू ही जाता था, दाढ़ी भी बढ़ गयी थी। शनिवार या रविवार था क्योंकि छुट्टी थी, उन दिनों इग्नू में नौकरी करता था, जिसे दिवि की अस्थाई नौकरी के लिए छोड़ना कमनिगाही का आत्मघाती कदम था। (यह कहानी फिर कभी) कमरे का दरवाजा खोलते ही गद गद हो गए। अकेलेपन की अनभूति मिलने के हाव-भाव स्पष्ट थी।डाउन कैंपस में कुछ ही विभाग और मैरिड हॉस्टल ही बचे थे। लाइब्रेरी लगभग शिफ्ट हो गयी थी लेकिन फिर भी काफी बची थी, कैंटीन और माता जी का ढाबा भी चालू थे। ओल्ड सोसल साइंस (मैरिड हॉस्टल) के बगल फ्रांसिस का ढाबा भी बचा था। मैं इग्नू के लिए आधुनिक भारतीय राजनैतिक चिंतन की भूमिका लिख रहा था। राजाराम मोहन रॉय और ब्रह्म समाज आंदोलन पर चर्चा में कई बातें उन्होंने बताया जो मुझे नहीं मालुम थीं। गोरख जनसंस्कृति मंच के संस्थापक सेक्रेटरी थे, बल्कि अगर यह कहना कि यह उन्हीं के दिमाग की उपज था अतिशयोक्ति न होगी। लाइब्रेरी की कैंटीन में चाय पीने चलने का अनुरोध उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि 'साथी मैं एन्ज्वॉय नहीं कर पाऊंगा'। फ्रांसिस के ढाबे से चाय-इडली बोलकर आया। समझदारों का गीत सुनाने का आग्रह टालकर उन्होंने 'य़े सदी बीसवीं सदी सुनाया...'। बुआ को चिट्ठी समेत 1970 के पहले के लिखे कई भोजपुरी गीत सुनाया। 2-3 घंटे उनके कमरे पर साथ बिताने के बाद मैं दाढ़ी बनवाने न्यू कैंपस जाने के लिए उठा तो बोले वे भी चलेंगे, लेकिन मोटर साइकिल से नहीं, बस से। बस से हम गंगा उतर कर कमल कांप्लेक्स गए, मैं दाढ़ी बनवाने लगा वे गीता बुक सेंटर में किताबें और पत्रिकाएं देखने लगे। दाढ़ी बनवाने के बाद हमलोग कावेरी के पीछे पहाड़ी रास्ते से नई लाइब्रेरी गए। कैंटीन के बाहर बैठकी जम गयी, बहुत लोग आ गए और दार्शनिक गप्पों के साथ उन्होंने अपनी और स्पेनी क्रांतिकारी कवि लोर्का की कुछ कविताएं सुनाया, जिनका हिंदी अनुवाद उन्होंने किया था। काफी समय वहां बिताने के बाद हम लोग पैदल पहाड़ियों में चलकर ओल्ड कैंपस उनके कमरे पर आए। क्या पता था वह आखिरी मुलाकात होगी। 3-4 दिन बाद, सुबह स्टेट्समैन के प्रंट पेज पर कोने में खबर थी, 'हिंदी पोएट कमिट्स सुसाइड'। 44 साल के भी नहीं थे। उनकी डायरी में एक कविता मिली, 'हत्या के विरुद्ध', शायद अंतिम कविता। 'स्वर्ग से बिदाई' मरने के बाद उनका संकलन छपा। लाल सलाम।

गोरख और राहुल सांकृत्यायन (केदार पांडेय) में एक समानता यह थी कि दोनों बनारस संस्कृत विवि में कर्मकांड पढ़ने आए और दर्शन एवं साहित्य की तरफ भटक गए और दोनों मार्क्सवादी बन गए।

No comments:

Post a Comment