Wednesday, February 28, 2018

लल्ला पुराण 192 (रैगिंग)

रैगिंग पर

हा हा मैं अपनी रैगिंग के बारे में फिर कभी लिखूंगा, परसंतापी मूर्खता की हद थी। कई सामंती प्रवृत्ति के सीनियर फ्रेशर्स से नौकर का काम कराते थे, वे इनकी इज्जत करेंगे? एक बार हमारे एक दोस्त (नाम नहीं लिख रहा हूं, उप्र सरकार का रिटायर्ड, राजपत्रित अधिकारी) को उसके हॉस्टल के एक सीनियर ने उसे ताले में चाभी लगवाने भेजा। खुले पैसे नहीं थे 100 रु. की नोच दिया था। हम लोग उसे को ठाकुर कहते थे। नौकर के काम से उसका ठाकुर इगो हर्ट हुआ। यूनिवर्सिटी रोड पर मिला और साथ कटरा चौराहे तक चलने को कहा। रास्ते भर गालियां देता रहा, उस सीनियर को। कटरा चौराहे पर देखा तो ताला वाले की दुकान बंद थी। हमलोगों के दिमाग मे एक आइडिया आया कि नेतराम में पूड़ी कचौड़ी खाकर लस्सी पीते हुए चाभी बनाने की दुकान खुलने का इंतजार करें। उन दिनों (1972-73) 100 रु. बहुत होते थे। आम लड़कों के 200 मनीऑर्डर आता था। नेैतराम पर कार्यक्रम खत्म होने तक चाभी बनाने वाला नहीं आया। हम लोग 'फ्रेसर' थे, चाभी बनाने के की एक ही दुकान मालुम थी नए शहर में दूसरी दुकान कहां खोजते और सीनियर का काम किए बिना कैसे लौटते? फिर हम लोगों ने सोचा कि पैलेस में फिल्म देख लें, मैं पैदल चलने के मूड में था ठाकुर ने कहा रिक्शे में चलें। 8 आना सिविल लाइंस का किराया होता था, हमें लगा यह कम है और गरीब की मदद करना सब धर्म सिखाते हैं तो हमने उसे 2 रु. दिया, उसे समझ नहीं आ रहा था, हमें क्या, हम तो दूसरे के पुण्य के लिए परमार्थ कर रहे थे। फिल्म देखने तक नेतराम की कचौड़ी पच गयी थी। वैसे तो हमें सोनी के छोले-भटूरे भी बहुत अच्छे लगते थे, लेकिन वे सानियर सीनियर ही नहीं थे ठीक-ठाक बड़े भैय्या भी थे और एक जातीय गुट के नेता। प्रोटोकोल का मामला यह था सस्ती दुकान पर खाकर हम भैय्या की शान में गुस्ताखी नहीं कर सकते थे। हमने कभी एल्चिको में नहीं खाया था, सोचा भैय्या के सौजन्य से यह शौक भी पूरी कर लें। वापस कटरा पहुंचे तो चाभी बनाने वाला आ गया था और हम लोग एक या डेढ़ रुपए में चाभी बनवाकर आ गए और बचे पैसे ठाकुर ने सर को लौटा दिया। उसके बाद किसी सर ने ठाकुर को सिगरेट-चाय लेने नहीं भेजा।

Tuesday, February 27, 2018

बगावत की पाठशाला 3 (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद)


बगावत की पाठशाला:
संघर्ष और निर्माण
पाठ 3: मार्क्सवाद क्या है?
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद 2
 द्वद्वात्मक भौतिकवाद पर पहले पाठ के कुछ सवालों के जवाब अगली क्लास के लिए छोड़  दिया था, यह पाठ उन्ही सवालों से शुरू करता हूं। एक मित्र ने पूछा जड़ वस्तु से विचार कैसे पैदा हो सकता है?

 पाठ 1 में बताया गया था कि विचार हवा से नहीं आते भौतिक वस्तुओं के इंद्रियबोध पर चिंतन से। इमा (मेरी छोटी बेटी), बहुत छोटी थी (3 साल के कम), जिद कर बैठी की उसे फल खाना है। जो भी फल दो तो “अमरूद नहीं फल”; अंगूर नहीं फल” ........ बड़ी समस्या? मैं उसे लेकर फल लेने निकल पड़ा। एक ठेले पर रसभरी बेचने वाला दिख गया, उसने शायद  तब तक रसभरी खाया नहीं होगा। मैंने कहा भाई यह एक “झोंपा फल दे दो”, और फल खाकर वह चुप हो गई। अगर रसभरी के बारे में अंगूर की तरह जानती होती, तो मैं क्या खिलाता? फल नाम की कोई ठोस वस्तु तो होती नहीं। फल वस्तु नहीं बल्कि वस्तु का अमूर्त विचार है। अगर आम, अमरूद जैसी विशिष्ट समानधर्मा वस्तुओं का विचार है। यानि सार्वभौमिक, अमूर्त विचार एक खास तरह की विशिष्ट वस्तुओं का सामान्यीकरण (जनरलाइजेसन) है। विशिष्ट से सामान्य की व्युत्पत्ति को आगमात्मक (इंडक्टिव) और सामान्य से विशिष्ट की व्युत्पत्ति को सिद्धांत की निगमात्मक पद्धति कहते हैं। (यह सामान्य जानकारी जानकारों के लिए नहीं है।) यह उदाहरण मैं प्लेटो के विचारलोक का सिद्धांत पढ़ाते समय देता हूं। इमा उसका अब रॉयल्टी मांगती है, मैं उसकी नाजायज मांग मानता नहीं यह अलग बात है।

पिछले दोनों पाठों में मार्क्स के ‘थेसेस ऑन फॉयरबाक के हवाले से बताया गया है कि यथार्थ वस्तु और विचार की द्वंदवात्मक एकता है। इस द्वंद्व को भी न्यूटन के गति के सिद्धांतों से समझा जा सकता है। गति का न्यूटन का दूसरा (शायद, फीजिक्स की किताब छुए 44 साल हो गए) नियम है कि स्थिर वस्तु को गतिमान बनाने के लिए या गतिमान वस्तु को रोकने के लिए वाह्य बल की जरूरत होती है। वस्तु का विचार अस्तित्व में आने के बाद वाह्य बल बन जाता है और इतिहास और वस्तु तथा विचार के निरंतर द्वंद्व से इतिहास आगे बढ़ता है। लते हैं – प्रगतिशील और प्रतिगामी। इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता, लेकिन खतरनाक अस्थाई यू टर्न्स आ सकते हैं। लेकिन इतिहास अंततः आगे ही बढ़ता है, पाषाणयुग से साईबर युग तक मानव विकास की यात्रा इसका चश्मदीद गवाह है।

 गति के न्यूटन के  तीसरे सिद्धांत के अनुसार, हर क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है। प्रतिक्रिया वस्तु की यथास्थिति में बने रहने की जड़ता की होती है, यानि वस्तु के आंतरिक प्रतिरोध की। यथास्थिति की जड़ता की प्रतिक्रिया से अधिक विचारों के प्रगतिशील वाह्य बल लगते हैं तो इतिहास आगे बढ़ता है, वरना अस्थाई जड़ता में जकड़ जाता है। विचार तो अमूर्त है, उसकी मूर्त अभिव्यक्ति मानव के चैतन्य प्रयास में होती है। लौकिक यथास्थिति वस्तु है जिससे निकले विचार वस्तु को बदलने का प्रयास करते हैं। यथास्थिति (वस्तु) से बरकरार रखने  में विशेषाधिकार प्राप्त तत्वों के निहित स्वार्थ जुड़ जाते हैं क्योंकि उन्हें अपने विशेषाधिकार किसी-न-किसी तर्क से समुचित लगते हैं जो इसे बदलने के चैतन्य मानव प्रयासों का विरोध करेंगे। इसी क्रिया-प्रतिक्रिया में उतार चढ़ाव के साथ इतिहास आगे बढ़ता है। मसलन विश्वविद्यालय व्यवस्था प्रोफेसरों की आजीविका का साधन है, इसमें बदलाव का वे विरोध करेंगे। आइए एक और परिचित उदाहरण लेते हैं। हिंदू शब्द ऊंची-नीची जातियों के एक समुच्चय की अभिव्यक्ति है। जातिवाद (यथास्थिति – वस्तु) से विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के निहित स्वार्थ जुड़े हैं, वे इसे बरकरार रखने की कोशिस करेंगे और इसकी विसंगतियों से अवगत जातियां और लोग इसे बदलने की। हमारे छात्र जीवन से अब तक क्रिया-प्रतिक्रिया की यह यात्रा यहां तक पहुंची है कि जहां दलित को अछूत माना जाता था वहां कोई सार्वजनिक मंच से नहीं कह सकता कि वह जात-पांत में विश्वास करता है कितना बड़ा जातिवादी क्यों न हो। वही हाल पित्रिसत्तात्मकता (मर्दवाद) का है। हमारे छात्रजीवन में लोग लड़कों को पढ़ने बार भेजते थे लड़कियों को नहीं। मैंने पहले पाठ के एक सवाल के जवाब में मैंने बताया था कि मुझे अपनी बहन को पढ़ाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी। लड़की ज्यादा पढ़कर क्या करेगी? कलेक्टरी थोड़े ही करानी है आदि-आदि। लड़कियों की आजादी को लेकर लोगों के दिमाग में एक अजीब अमूर्त भय था (आज भी है)। लेकिन जेंडर समानता के विचार, लड़कों के समान लड़कियों के शिक्षा के अधिकार के विचार और पितृसत्तामक सामाजिक ढांचे के द्वंद्वात्मक क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप आज किसी का साहस नहीं है कि कहे वह बेटा-बेटी में फर्क करता है। एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है।

उपरोक्त परिचित मिशालों से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दो नियम निकलते हैं। पहला, परिवर्तन प्रकृति का स्थाईभाव है। निरंतर, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन एक अवस्था के बाद क्रांतिकारी, गुणात्मक परिवर्तन की तरफ बढ़ते हैं। मार्क्सवादी शब्दावली में व्यवस्था के अंतर्विरोध परिपक्व हो जाते हैं और क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन का पथ प्रशस्त करते हैं। वैसे तो कोई भी परिवर्तन विशुद्ध मात्रात्मक नहीं होता।  स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी; दलित प्रज्ञा और दावेदारी का उफान क्रमिक, मात्रात्मक परिवर्तन के ज्वलंत उदाहरण हैं। क्रांति कारी गुणात्मक परिवर्तन तो क्रमशः मर्दवाद और जातिवाद से विनाश के बाद ही होगा।

आज की क्लास बहुत लंबी हो गयी। मॉफी चाहता हूं। ऊपर जिक्र कर ही दिया तो दूसरे नियम का परिचय दे दूं, विस्तृत चर्चा अगली क्लास में। यह वाद-प्रतिवाद-संवाद (थेसिस-एंटीथेसिस-सिंथेसिस) का चर्चित नियम है। दो विपरीतों के निषेध तीसरा तत्व पैदा होता हैं जो दोनों से भिन्न होता है लेकिन दोनों के तत्व इसमें होते हैं। इसे केमिस्ट्री के हाइड्रोक्लोरिक एसिड (एसिटिक) और सोडयम हाइड्राक्साइड की रासायनिक क्रिया के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है।
HCl + NaOH=NaCl+H2O
दो विपरीत रासायनिक गुणों वाले तत्व पारस्परिक निषेध की क्रिया से तीसरे बिल्कुल भिन्न तत्व पैदा करते हैं। शरीर को हानिकरक दो विपरीत तत्वों की द्वंद्वात्क एकता से तीसरा तत्व बना जो जीवन के लिए अनिवार्य है।

हेगेल और मार्क्स के बारे में एक अच्छा सवाल एक साथी ने पूछा है, उसका जवाब अगली क्लास में, दर-असल तभी क्लास शुरू होगी परिभाषा के साथ, समाज-विज्ञान में परिभाषा अनिवार्य है। वैसे क्लास भूमिका (ओरियंटेसन लेक्चर) से छोटा भी हो सकता है।

वर्चुअल दुनिया का यह क्लास लंबा हो गया, अब वास्तविक दुनिया के क्लास की तैयारी कर लूं। पहली स्त्री दार्शनिक, मेरी वॉलस्टोनक्रॉफ्ट (1759-1797) के सेक्स और नैतिकता पर विचार पढ़ाना है। मैंने वॉलस्टोनक्रॉफ्ट की जीवनी पर अपना एक लेख (अंग्रेजी में) शेयर किया था, फिर कर दूंगा, यदि कोई साथी हिंदी अनुवाद का समय निकाल सकें तो आभारी रहूंगा।
    

पाठशाला विमर्श

जी इसे मैंने अगली कड़ी के लिए छोड़ा है। यथार्थ की संपूर्णता में प्रथमिकता पदार्थ की है, सापेक्ष अहमियत। यह संपूर्ण जैविक है। यह द्व्ंद्वात्मक युग्म रासायनिक मिश्रण नहीं योगिक (कंपाउंड) है। मनुष्य के पास प्रजाति-विशिष्ट गुणों में एक है कल्पना शक्ति। वास्तुकार भवन की रूप-रेखा पहले कल्पना में तैयार करता है, फिर उसे कागज पर उतारता है, फिर जमीन पर। राइट ब्रदर्स के दिमाग में उड़ने का विचार दृष्टव्य उड़नशील पदार्थों (पक्षियों) को देखकर ही आया होगा। वस्तु पर चिंतन से विचार पैदा होते हैं। पहला सवाल क्यों? फिर कैसे? उन्हें लगा कि पक्षियों के पास पंख है और उन्हें हिला सकने की प्रजाति-विशिष्ट शक्ति है जिससे वह हवा को काट कर ऊपर उड़ सकता है (चिंतन भी मनुष्य का प्रजाति-विशिष्ट गुण है, जो इसे मुल्तवी कर देता है, व्यजना में कहें तो वापस पशुकुल में शरीक हो जाता है)। मनुष्य को औजार निर्माता जीव कहा गया है। मानव इतिहास का विकास औजार निर्माण का विकास रहा है। पक्षी के पंख सा हवा काटने वाला कोई औजार बन जाय तो मनुष्य हवा में उड़ सकता है। बाकी फिर। वस्तु से विचार पैदा होता है और विचार वस्तु को बदलता है।

Monday, February 26, 2018

बगावत की पाठशाला 2 (मार्क्सवाद 2)

बगावत की पाठशाला
विद्रोह रचनाशीलता की शर्त है; संघर्ष निर्माण का फर्ज है
पाठ 2
मार्क्सवाद क्या है? 2
स्वतंत्रा और मार्क्सवाद 1

पूर्वकथ्य:
पहली क्लास में प्रतिक्रियाओं, सवालों और बहस से प्रोत्साहित हो मुझे लगा कि क्लास ज्यादा नियमित होनी चाहिए। इस पोस्ट पर कुछ लंबे उत्तर मैं अलग से पोस्ट कर देता हूं, उसे भी क्लास का हिस्सा माना जाए। मैं गदगद हूं। विषय पर आने के पहले बता दूं मैं क्यों गदगद हूं? इसका जवाब मैं एक अनुभव से देता हूं। वैसे टेक्स्ट के पहले फुटनोट नहीं होना चाहिए, फिर भी। 1990 के दशक के अंतिम सालों की बात है। मैं मयूरविहार में रहता था, मोटरसाइकिल से चलता था। 9 बजे से एमए की एक क्लास थी जो हफ्ते में 2 ही दिन होती थी। रास्ते में बारिस शुरू हो गयी, रास्ते में कई जगह रुकने की गुंजाइश थी लेकिन समय नहीं था। वैसे भी चोट लगने वाली धार की बारिस न हो तो बाइक में कोई कष्ट नहीं होता। उम्मीद के प्रतिकूल क्लास खचाखच भरी देख बहुत प्रसन्नता हुई रूसो और उपयोगिता वादियों की प्रसन्नता की तुलनात्मक अवधारणाओं पर क्लास थी। पंखे के नीचे शर्ट सूखती रही, पढ़ाने में मजा आता रहा। कुछ करने में आपको मजा आने लगे तो समझिए काम अच्छा हो रहा है। मैंने क्लास के अंत में उन्हें बताया कि यही फर्क है स्व के न्यायबोध को स्व के स्वार्थबोध पर तरजीह देने की प्रसन्नता की रूसोवादी अवधारणा में और खाओ-पिओ-मस्त रहो की उपयोगितावादी अवधारणा में। एक शिक्षक के स्व का न्यायबोध बोधगम्य भाषा में विद्यार्थियों को समझाना और पढ़ने को प्ररित करना। इलाहाबाद के प्रयागराज प्रोफेसरों को क्लास न लेने में सुख मिलता है, यह सुख उपयोगितावादी है। मैं अगर सोफर ड्रिवेन बीयमडब्लू में आता और क्लास खाली या आधी मिलती तो शायद, सुख की जगह दुख मिलता। द्वंद्वात्म भौतिकवाद पर अगली क्लास की तैयारी जब तक करूं, सोचा 2012 में मार्क्सवाद और आजादी के अंतर्विरोध के सवाल के जवाब के रूप में छ साल पहले का लेक्चर दे दूं। मार्क्सवाद और आजादी एक अहम विषय है, इसलिए इल पर अलग से 4-5 क्लासेज की जरूरत पड़ेगी। तब तक कॉपी-पेस्ट:

मार्क्सवाद व्यक्तिगत आज़ादी का विरोधी नहीं, सभी की वास्तविक व्यक्तिगत आज़ादी का घोर हिमायती होने के ही चलते उदारवादी आज़ादी के भ्रम को तोड़ता है क्योंकि व्यक्ति के स्वायत्त अस्तित्व की अवधारणा एक भ्रम है, कोई भी व्यक्ति गुलाम या मालिक व्यक्ति के रूप मे नहीं बल्कि समाज में, समाज के द्वारा, समाज के स्थापित संबंधों के तहत, समाज के अभिन्न रूप के रूप में वह गुलाम या आज़ाद होता है. व्यक्ति सदा स्वार्थपरक होकर निजी इच्छाओं की पूर्ति को ही जीवन का उद्देश्य मनाता है, यह भी एक पूंजीवादी विचारधारात्मक दुष्प्रचार है. यह आज़ादी औरों से सहयोग की नहीं अलगाव की, दूसरों की आज़ादी की बेपरवाही की, बेरोक-टोक लूट और संचय की अजादी है. सवाल उठाता है क्या किसी परतंत्र समाज में कोई निजी रूप स स्वंतत्र हो सकता है? निजी स्वंत्रता समाज की स्वतंत्रता से जुड़ी है. आज़ाद होना चाहते हैं तो समाज को आज़ाद करें. मेरे विचार से मार्क्सवाद का मूल मंत्र है कि आज़ाद होना चाहते हो तो आज़ाद समाज का निर्माण करो, व्यक्तिगत आज़ादी सामाजिक आजादी का अंग है।
“किसी भी समाज में श्रमशक्ति और रचनाशीलता को लूटना और खसोटना कह के” मैंने कभी नहीं संबोधित किया. बल्कि सारी समस्ययायें और एलीनेसन श्रमशक्ति और रचनाशीलता पर स्वाधिकार के क्षरण से होता है. श्रमशक्ति के फल पर और अंततः श्रमशक्ति पर खरीददार –पूंजीपति का अधिकार होता है. कोई भी श्रमिक कितना भी अधिक वेतन पाता हो संचय नहीं कर सकता, संचय के भ्रम में रहता है, संचय तो सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है. श्रम-शक्ति को उपभोक्ता सामग्री के दर्जे से मुक्ति दिलाना और उसे रचनाशीलता के रूप मे सम्मानित करना मार्क्सवाद का मकसद है. जी हाँ स्वायत्त अस्तित्व की धारणा विशुद्ध भ्रम है. ऐतिहासिक विकास के दौरान मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ अपनी इच्छा से स्वतन्त्र सम्बन्ध स्थापित करता है. मार्क्सवाद मनुष्य के behavioral aspect को नकारता नहीं बल्कि चेतना के रूप में उसकी वैज्ञानिक व्याख्या करता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद, जिसे मार्क्सवाद का विज्ञान कहा जाता है, निरंतर शोध और अन्वेषण के जरये तथ्यों-तर्कों पर आधारित प्रमाणित और सत्यापित किए जा सकने वाले प्रमेयों का समुच्चय है. सत्य किसी पूर्वाग्रह/पोंगापंथ/ईश्वर की इच्छा या मार्क्स के वक्तव्य पर नहीं आधारित है, सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके. विकास के हर चरण की भौतिक परिस्थियां और तदनुसार समाजीकरण के अनुसार मानव चेतना का निर्माण होता है और बदली चेतना बदली भौतिक परिस्थियों का परिणाम है. लेकिन परिस्थियां स्वयं नहीं बल्कि सचेत मानव प्रयास से बदलती हैं. अतः सत्य भौतिक स्थितियों एवं चेतना का द्वंदात्मक संश्लेषण है.

28.02.2012

बगावत की पाठशाला 1 (मार्क्सवाद क्या है 1)

मैं इस मंच पर एक पाठशाला खोल रहा हूं, सरल शब्दों में जब मौका मिला एक छोटा (लगभग 500 शब्द) क्लास लूंगा। क्लास में कही गयी या उससे जुड़े सवालों का जवाब दिया जाएगा। असंबद्ध सवालों या निजी आक्षेपों को डिलीट कर दिया जाएगा। हाजिरी स्वैच्छिक है, पहला पाठ है मार्क्सवाद क्या है? इसे 5-6 क्लासों में पूरा किया जाएगा।

मार्क्सवाद क्या है?
पाठ 1
(द्वंद्वाद्मक भौतिकवाद-1)
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को मार्क्सवाद का दर्शन कहा जाता है जिसका मार्क्सवाद के विज्ञान, ऐतिहासिक भौतिकवाद के साथ पारस्परिक पूरकता और पुष्टि के संबंध है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का एक नियम है कि प्रकृति की संरचना द्वंद्वात्मक है तथा उसकी गति वस्तु तथा विचार की द्वंद्वात्मक एकता से संचालित होती है। इस द्वंद्वात्मक युग्म में प्राथमिकता वस्तु की होती है। वस्तु से विचार पैदा होता है, विचार से वस्तु नहीं। वस्तु विचार के बिना रह सकती है तथा ऐतिहासिक रूप से विचार की उत्पत्ति वस्तु से होती है। इब्ने इंशा ने ‘उर्दू की आखिरी किताब’ में लिखा है कि न्यूटन ने सेब तोड़ने के लिए गुरुत्वाकर्षण नियम का आविष्कार किया। अच्छा, स्वस्थ, व्यंग्य लिखना सबके बस की नहीं है। इब्ने इंशा शायरी भी व्यंग्य में ही करते हैं, “हक अच्छा पर हक के लिए कोई और लड़े तो और अच्छा” पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह, जियाउल को जनता को उनका यह नेक संदेश खतरनाक लगा। हर फासीवादी या तानाशाह विचारों से डरता है, खासकर उनकी व्यंग्य या कार्टून में अभिव्यक्ति से। वह नरपिशाच इतना घबरा गया कि इब्ने इंशा में जेल में ठूंस दिया, करो अब शायरी। शायरी तो वे तब भी करते रहे, लेकिन जेल की तकलीफों ने ज़िंदगी कम कर दी। ‘राष्ट्रवाद’ के रहस्य उजागर करने के राष्ट्र-द्रोह में हबीब जालिब का भी वही हश्र हुआ। वे लोगों से कह रहे थे, “हिंदुस्तान भी मेरा है, पाकिस्तान भी मेरा है/दोनों ही देशों में लेकिन अमरीका का डेरा है” ; “न मेरा घर है खतरे में न तेरा घर है खतरे में/ वतन को कुछ नहीं खतरा, निजाम-ए-जर है खतरे में”; और तो और, “गर फिरंगी का दरवान होता..................... वल्लाह, सदर-ए-पाकिस्तान होता”। टेक्स्ट के बीच में लंबे फुट के लिए मॉफी।

न्यूटन के नाम पर इब्ने इंशा याद आ गए, जिया का डर बेबुनियाद नहीं था। अरे भाई सेब तो अनादि काल से गिरते रहे हैं। सेब के गिरने की भौतिक घटना (वस्तु) को गिरते देख न्यूटन के दिमाग में सवाल आया क्यों? और वे वस्तुओं के ऊर्ध्वाधर पतन के कारणों की खोज में लग गए। तमाम प्रयोगों के जरिए उन्होंने गुरुत्वाकर्षण के नियमों का आविष्कार किया, जिससे हम किसी भी निश्चित मात्रा की किसी ऊंचाई से गिरने के किसी भी विंदु उसके वेग, त्वरण, गतिज ऊर्जा तथा तद्जनित बल की बिल्कुल सही सही गणना कर सकते हैं। न्यूटन के नियमों के पहले सेब गिरने की भौतिक घटना (वस्तु) की व्याख्या में महज क्या? सवाल का जवाब दे सकते थे, क्यों?; कैसे?; और कितना? का नहीं। यह अपूर्ण यथार्थ था, न्यूटन के नियमों ने उसे संपूर्णता प्रदान की। दूसरे शब्दों में कहें तो यथार्थ वस्तु और विचार का मिलन है, जिसे मार्क्सवादी शब्दावली में, द्व्वंद्वात्मक एकता कहते हैं। विचार और वस्तु एक दूसरे के पूरक हैं।

थेसेस ऑन फॉयरबाक में मार्क्स लिखते हैं, चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना वाह्य बल के कोई वस्तु हिलती भी नहीं। भौतिक परिस्थितियां आपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से। अतः इतिहास की गति का निर्धारण भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना की द्वंद्वात्मक एकता से होता है, किसी ईश्वर, पैगंबर, अवतार की इच्छा या कृपा-दुष्कृपा से नहीं।

मनुष्य ईश्वर की रचना नहीं है, ईश्वर मनुष्य की रचना है। विकास के हर चरण में मनुष्य अपनी खास ऐतिहासिक परिस्थितियों, खास ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से अपने शब्द; मुहावरे; कहावतें; किंवदंदियां; उपमा-अलंकार; अतिशयोक्तियां अफवाहें; धर्म और ईश्वर की अवधारणाओं की रचना करता है। चूंकि ईश्वर की अवधारणा मनुष्य-निर्मित, ऐतिहासिक अवधारणा है, इसीलिए देश-काल के परिवर्न के साथ इसका स्वरूप बदल जाता है। पहले ईश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था अब उसकी करता है जो खुद अपनी मदद कर सके। (सामाजिक डार्विनवाद)।
....... जारी
26.02.2017




Sunday, February 25, 2018

लल्लाा पुराण 192 (असहमति)

मैं अपने उन विद्यार्थियों को ज्यादा प्यार से याद करता हूं जिन्होंने कभी कुछ असहज सवाल पूछे। असहमति से ही स्वस्थ विमर्श होता है। असहमति व्यक्त विचारों से होती है, गाली-गलौच से नहीं। कुछ लोग जो लिखा है, उसपर वात करने की बजाय यह आदेश देने लगते हैं आप इस पर क्यों नहीं लिखते? जैसे लिखना इतना आसान है। खुद बकलोली के अलावा एक वाक्य नहीं लिखेंगे। मैं महीने में औसतन 40-50 हजार शब्द तो लिखता ही हूं। पढ़कर जानकारी हासिल कीजिए, जो बात असंगत लगे उस पर सवाल करिए। विषय की प्राथमिकता तय करने का अधिकार लेखक का है, आप उससे अन्य विषय पर लिखने का तकाजा करने की बजाय उस पर खुद लिखें। मैं 33 सालों से लिख रहा हूं, फिर भी लिखना जीवन का सबसे कठिन काम लगता है। लिखना शुरू कीजिए, लिखना आ जाएगा बस आपके पास तथ्य हों और पूर्वाग्रह से मुक्त सोचने का साहस। कुछ अन्य लोग लिखा पढ़ने की बजाय, अलिखे पर गाली देने लगते हैं या कौमनष्ट के भूत से पीड़ित हो जाते हैं, ओझा के पास जाने की बजाय मेरी पोस्ट पर अभुआते हैं। विचारों की असहमति और उसपर पूर्वाग्रहमुक्त विमर्श ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। लेकिन ये तो लगता है विचारों से ही मुक्त हैं। बाकी शिक्षक हूं, हर मंच का इस्तेमाल शिक्षा के लिए करता हूं, फेसबुक का भी। जब नौकरी नहीं थी तब तेवर से शिक्षक था।

लल्ला पुराण 191 (बंद दिमाग)

मैं अपने उन विद्यार्थियों को ज्यादा प्यार से याद करता हूं जिन्होंने कभी कुछ असहज सवाल पूछे। असहमति से ही स्वस्थ विमर्श होता है। असहमति व्यक्त विचारों से होती है, गाली-गलौच से नहीं। कुछ लोग जो लिखा है, उसपर वात करने की बजाय यह आदेश देने लगते हैं आप इस पर क्यों नहीं लिखते? जैसे लिखना इतना आसान है। खुद बकलोली के अलावा एक वाक्य नहीं लिखेंगे। मैं महीने में औसतन 40-50 हजार शब्द तो लिखता ही हूं। पढ़कर जानकारी हासिल कीजिए, जो बात असंगत लगे उस पर सवाल करिए। विषय की प्राथमिकता तय करने का अधिकार लेखक का है, आप उससे अन्य विषय पर लिखने का तकाजा करने की बजाय उस पर खुद लिखें। मैं 33 सालों से लिख रहा हूं, फिर भी लिखना जीवन का सबसे कठिन काम लगता है। लिखना शुरू कीजिए, लिखना आ जाएगा बस आपके पास तथ्य हों और पूर्वाग्रह से मुक्त सोचने का साहस। कुछ अन्य लोग लिखा पढ़ने की बजाय, अलिखे पर गाली देने लगते हैं या कौमनष्ट के भूत से पीड़ित हो जाते हैं, ओझा के पास जाने की बजाय मेरी पोस्ट पर अभुआते हैं। विचारों की असहमति और उसपर पूर्वाग्रहमुक्त विमर्श ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। लेकिन ये तो लगता है विचारों से ही मुक्त हैं। बाकी शिक्षक हूं, हर मंच का इस्तेमाल शिक्षा के लिए करता हूं, फेसबुक का भी। जब नौकरी नहीं थी तब तेवर से शिक्षक था।

Saturday, February 24, 2018

ईश्वर विमर्श 49 (अस्तित्व)

जब ईश्वर है नहीं तो वह कुछ करेगा कैसे? जिनके पास पर्याप्त आत्मबल नहीं होता वे अदृश्य शक्ति के सहारे जीते हैं, जिनके पास विचारों का बल (आत्मबल) होता है उन्हे किसी खुदा का संबल या धर्म की बैशाखी की जरूरत नहीं होती। जिन्हें सचमुच की खुशी मिलती है उन्हें खुशफहमी की जरूरत नहीं होती। मैंने गीता कई बार पढ़ा है मुझे उसमें कोई तर्क नहीं मिलता। रजनीश की तरह एक आदमी आकर कहता है वह भगवान है, उसके बाद प्रश्न और तर्क की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है।

ईश्वर विमर्श 48 (ईश्वर)

समाज में बुराइयां हैं, इसे सब जानते-मानते हैं। मेहनतकश 10,000 की औसत दिहाड़ी में आधा-चौथाई पेट खाकर गुजारा कर रहा है भाजपा का सांसद विजय माल्या 11 हजार लेकर भाग गया मोदी के पालक धनपशुओं में उनकी विदेश यात्राओं का साथी नीरव मोदी कुछ लोग कह रहे हैं 21 हजार करोड़ लेकर भाग गया। उत्तरप्रदेश की पुलिस हत्यारों का गिरोह बन गयी है। हत्या-बलात्कार रोजमर्रा की बात है। समाज में बुराई है सब मानते हैं, जो न माने उलकी समझ और संवेदनशीलता बुराइयों का समर्थक है। अगर भगवान है तो 3 संभावनाएं हैं: 1. वह बुराई दूर तो करना चाहता है, लेकिन कर नहीं सकता, तो कैसा सर्वशक्तिमान? 2. दूर करने में सक्षम है लेकिन करना नहीं चाहता, यह तो दुष्टता है। 3. न करना चाहता है न कर सकता है, दुष्टता और शक्तिहीनता का संगम।

लल्ला पुराण 190 (धर्म)

मैं धर्म को गाली नहीं देता, महज जन्म के संयोग की अस्मिता सेऊपर उठकर विवेकशील अस्मिता निर्माण का निवेदन करता हूं। कभी धैर्य खोकर तैश में ऊपर जैसा कमेंट लिख देता हूं, बाद में पछताता हूं क्योंकि धैर्य खोकर, तैश में आकर आक्रामक भाषा का प्रयोग एक शिक्षक को शोभा नहीं देता। ऊपर के कमेंट के लिए माफी। आक्रामक भाषा के कमेंट इसलिए डिलीट नहीं करता कि गलती का एहसास रहे। आत्मालोचना, मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है तथा बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त।

लल्ला पुराण 189 (सुख-दुख)

Laxman Tiwari Benaam सही कह रहे हैं, हर व्यक्ति के लिए सुख अलग अलग है, किसी को रसगुल्ला खाने में ज्यादा सुख मिलता है किसी को कविता लिखने में। खाओ-पियो-मस्त रहो का आनंद क्षणभंगुर होता है, अपने अंदर की संभावनाओं के सर्जनशील क्रियान्वयन का आनंद और अतीत की मुश्किल समय में भी नतमस्तक न होने के साहस की याद का सुख दूरगामी। कभी सुख-दुख पर अनुभवजन्य लेख लिखूंगा।

लल्ला पुराण 188 (धर्म)

माधवी शर्मा के एक कमेंट पर सेंटिया कर यह लिखा गया:

बेटी, मैं तो अपने लेख और तुकबंदियां पोस्ट ही करता रहता हूं। धर्म से जुड़ी पोस्ट तो किसी के कमेंट पर कमेंट थे जिसे मैंन पोस्ट के रूप में डाल देता हूं। मेरा धर्म से नहीं धर्मोंमाद, धार्मिक अंधविश्वास और धार्मिक कुरीतियों से विरोध है क्योंकि इससे व्यक्ति का बौद्धिक विकास कुंद होता है। मेरी पत्नी बहुत धार्मिक हैं। धर्म पर मैं अपना लेख शेयर कर चुका हूं जिसमें मैंने लिखा है कि धर्म को तब तक नहीं खत्म किया जा सकता है जब तक इसके कारण नहीं खत्म होते। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, किसी को सचमुच की खुशी दिए बिना उसकी खुशफहमी नहीं छीनी जा सकती। हमारी कोशिस ऐसा समाज बनाने की है जिसमें खुशफहमी की जरूरत न रहे। मैं शिक्षक हूं, मेरा काम अपने विद्यार्थियों को विवेकशील इंसान बनाना है। लेकिन आदर्श शिक्षक नहीं हूं, जिसे मैं अपनी कमी मानता हूं। गाली-गलौच करने वाले विद्यार्थियों को पढ़ाने का अनुभव नहीं है इसलिए ऐसे विद्यार्थियों को पढ़ाने में धैर्य खो देता हूं और तैश में भूल जाता हूं कि 42 साल पहले 20 का था। अपनी भाषा भ्रष्ट होने से बचाने के लिए इन्हें अदृश्य कर देता हूं। यह भी मेरी एक कमी है। कुछ लोग इस मंच पर आस्था आहत होने के नाम पर, मुझे नीचा दिखाने के लिए दंगाई लामबंदी करने लगे। आस्था भावना का मामला है और भावनाओं को भड़काना विवेक को जागृत करने से ज्यादा आसान है। मेरी कोशिस विवेक को जगाने की होती है, कई बार रणनीति गलत हो जाती है। इस कमेंट का शुक्रिया। धर्म वाह्य ढांचा है और अर्थ बुनियाद। कभी कभी वाह्य इतना आच्छादित हो जाता है कि बुनियाद को ढक देता है, इसलिए इसकी धुंध हटाना आवश्यक हो जाता है। ध्वनि-सौंदर्य के लिए अपनी कमियों कीअंग्रेजी में स्वीकारोक्ति लिखूं तो I lack the senses of proportion; priority;preservation and patience. कभी असजग हुआ तो कमियां हावी हो जाती हैं। खूब पढ़ो-लड़ो-बढ़ो; बोलने का साहस करो कोई आंख दिखाने की जुर्रत नहीं करेगा। मैं अपने सभी बच्चों को यही सिखाने की कोशिस करता हूं।

Friday, February 23, 2018

कोई बात बेबुनियाद नहीं होती

कोई बात बेबुनियाद नहीं होती
हक की लड़ा बेबात नहीं होती
नहीं आते अमूर्त विचार किसी निर्वात से
निकलते हैं वे वस्तुगत पर दृष्टिपात से
पाता है यथार्थ संपूर्णता दोनों के द्वंद्वात्मक संवाद से
न देती तुम ग़र एकता की आवाज
लगाता न मैं इंकिलाब जिंदाबाद
(ईमि: 24,02.2018)

लल्ला पुराण 187 ( हबीब जालिब)

Shailendra Gaur सहमत। सवाल-दर-सवाल; जवाब-दर-सवाल ही विकास का मूलमंत्र है, सर्वज्ञ फतवेबाजी नहीं। कई सवाल सवाल नहीं होते, मानसिक संरचना की अभिव्यक्ति होती है। इनका यह सवाल नहीं अज्ञानतापूर्ण ज्ञान है। किसी भी देश का मार्क्सवादी उस देश के मजहब का शत्रु माना जाता है। इऱफान हबीब (इतिहासकार) पर मुसंघियों के अनंत हमले हुए। पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब ने ज्यादा वक्त जिया की जेलों में बिताया। वाम के भूत से संघी-मुसंघी दोनों परेशान रहते हैं। 'न मेरा घर है खतरे में, न तेरा घर है खतरे में/वतन को कुछ नहीं खतरा, निजाम-ए-जर है खतरे में'। 'बहुत सुन ली आपकी तकरीर मौलाना, बदली नहीं मगर मेरी तकदीर मौलाना/हकीकत क्या है ये तो आप जानें या खुदा जाने, सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना'। 'हिंदुस्तान भी मेरा है, पाकिस्तान भी मेरा है/दोनों मे ही लेकिन अमरीका का डेरा है'। (जालिब) हर समझदार व्यक्ति युद्धविरोधी है और अपने देश की जंगखोरी की सरकार के लिए देशद्रोही। जंग चाहता जंगखोर, ताकि राज कर सके हरामखोर। अफवाहजन्य इतिहास बोध से उपजी अफवाहगोई देश की अखंड़ता और सामासिक एकता के लिए खतरनाक होता है।

लल्लापुराण 186 ( स्व के न्याय और स्वार्थबोध)

स्वयं को ही बेहतर मानने का कोई इगो नहीं है। मेरी बेटी के साथ मेरे संवाद को कोई सुने तो दांत तले उंगली दबा ले। कभी कहता हूं कि अपने बाप से ऐसा करती हो? दूसरे के बाप के साथ ऐसा करने में खतरे की बात करती है। ज्यादा कुछ कहने पर कहती है, उसके बाप ने यही सिखाया है। हम बहुत अच्छे दोस्त हैं। मैं समानता के सुख को सर्वोच्च सुख मानता हूं।

मिडिल स्कूल में टीचर ने पूछा क्या बनोगे, अह 11-12 साल के गांव के लड़के को क्या मालुम क्या बनेगा? मैंने कहा अच्छा। अच्छा तो प्रेडिकेट है अपने आप में कुछ नहीं, अच्छा इंसान, अच्छा शिक्षक, अच्छा बाप, अच्छा वार्डन। अच्छा बनने के लिए लगातार अच्छा करना पड़ता है। अच्छा करने के लिए 'क्या अच्छा है?' जानना पड़ता है। जानने का कोई फॉर्मूला नहीं है, खास परिस्थिति में दिमाग के इस्तेमाल से जाना जा सकता है।

सभ्य (वर्ग) समाज व्यक्तित्व को विखंडित करता है -- स्व का न्यायबोध और स्व का स्वार्थबोध में। स्व के न्यायबोध की प्रथमिकता स्व के स्वार्थबोध की प्राथमिकता से ज्यादा सुखद है। सोचने का साहस और सोच के परिणामस्वरूप समझ को व्यवहार में सामाजिक प्रचलन की परवाह किए व्यवहार में अमल करने की जुर्रत, अच्छा करना है। बिल्ली के गले में घंटी बांधना ही है तोमैं ही क्यों नहीं? मैं निजी आक्षेप और मेरा नाम देखते ही पंजीरी खाकर भजन गाने वालों से कोफ्त हो जाती है, अपनी भाषा की मर्यादा और समय बचाने के लिए उन्हें अदृश्य कर देता हूं। अच्छा होने के सुख का मूलमंत्र है, करनी-कथनी में एका का लगातार प्रयास।

लल्ला पुराण 185 (जोहरा बेगम)

जोहरा बेगम के नब्बेवें जन्मदिन पर टीवी पर एक पत्रकार ने पूछा कि उन्हें मौत का डर नहीं लग रहा था उन्होंने उल्टे उससे पूछा, "तुम यकीन से कह सकते हो कि मेरे पहले नहीं मरोगे? जोहरा बेगम तो उसके बाद काफी दिन रहीं, उस पत्रकार का नहीं पता। इस बात की याद इस बात से आई कि कई लोग मेरे बुढ़ापे पर तरस खाकर मेरी मौत की कामना करने लगते हैं। मौत अंतिम सत्य है लेकिन अनिश्चित। जिंदगी निश्चित और ठोस, उसी का आनंद लें। दुर्वाशा का देश है मैं डर जाता हूं क्योंकि मुझे 135 साल जीना है, 72 साल ही अब बचे हैं, किसी के शाप से इससे भी कम हो सकती है। शाप से बचने के लिए उनकी दृष्टि से ओझल हो जाता हूं। 1974-75 में एक बार कटरा पानी की टंकी के पास लल्लू के ठेले पर चाय पीते हुए सब बात-बात में किसी ने कहा वह इतने साल जीना चाहता है, वह इतने, 100 तक कोई पहुंच ही नहीं रहा था। मेरे मुंह से निकला मैं तो 135 साल जिऊंगा (चाहता हूं, नहीं। गणित का विद्यार्थी था, जिसमें कमोबेश कुछ नहीं होता)। तबसे इस संख्या में बदलाव का कोई कारण नहीं मिला। अरो भाई जो अपुने हाथ में नहीं उसकी चिंता क्यों? जो हाथ में है, जो जीवन है, जो अनिश्चित नहीं निश्चित है, उसे सुंदरतम बनाएं, वह विचारों के विकास-विस्तार और उन्हे व्यवहार में अमल करते हुए जीने से संभव है। मुझे वैसे इन बातों का बुरा मानने से ऊपर उठ जाना चाहिए। लेकिन ऋषि-मुनि तो हूं नहीं एक आवारा 'वामी' हूं, कभी-कभी नही उठ पाता ऊपर। भाई मैं 1955 में बिना अपनी मर्जी के पैदा हो गया और बिना अपने प्रयास के उम्र साल-दर-साल बढ़ती ही जाएगी। प्रोफाइल में भी सफेद दाढ़ी की ही तस्वीर शफल करता रहता हूं, कभी कभी नस्टेल्जिया के कोई सिर पर बाल वाली तस्वीर लगा देता हूं, आश्वस्त होने के लिए कि दाढ़ी कभी काली भी थी और सिर पर बाल भी थे। हा हा ।

लल्ला पुराण 184 (समय निवेश)

 इलाहाबाद विवि के एर फेसबुक ग्रुप, लल्ला की चुंगी, पर फेसबुक मित्र पूर्णेंदु शुक्ल से इनबॉक्स में संवाद का अंश:

आप खंगालिए मेरी पोस्ट। कम-से-कम 50 लेख अन्यान्य विषयों पर। इस मंच पर बहुत से सवर्ण पुरुषों के अपनी पोस्ट पर कमेंट देख लगता है इन लड़कों ने जीवन में कुंजी और दैनिक जागरण या पीसीयस कोचिंग नोट्स के अलावा कुछ पढ़ा ही नहीं है। कुछ ऐसे ही लंपट मेरा नाम देखते ही धर्म धर्म--जेयनयू जेयनयू अभुआने लगतै हैं। आप देखिये 3-4 साल की पोस्ट्स में कृष्ण की चर्चा नहीं है। पारितोष दूबे की मां-बहन वाले कमेंट के साथ मेरी पोस्ट के बाद अरविंद राय ने एक पोस्ट डाला कि मैं उनके आराध्य कृष्ण को फरेबी कह रहा था उनकी भावनाएं आहत हुई हैं, टिपिकल संघी साजिश धर्मोंमाद फैलाकर दंगे करवाना, मॉबलिंचिंग करना, जैसे योगी की वाहिनी का वह दीक्षित गाय काटकर कर रहा था। इसे मैं अपढ़ समझता था शातिर नहीं। मैंने सोचा था कि ऐसे अपढ़ों को कुछ पढ़ा दूंगा, लेकिन ये तो आभासी दुनिया के लंपट हैं, सीखने की बजाय शिक्षक को नीचा दिखाने की कोशिस करते हैं। 2 अक्षर अंग्रेजी पढ़ नहीं सकते भाषा की तमीज है नहीं। इन लंपटों पर बहुत समय बर्बाद किया। कल एक लेख का समय इस मंच पर नष्ट कर दिया। इनकी भाषा सड़क छाप गुंडों की भाषा लगती है। मैं इन्हें ब्लॉक इसलिए करता हूं कि मैं कई बार 42 साल पहले 20 का होने की बात भूल कर अपनी भाषा भ्रष्ट कर लेता हूं। कल एक झुंडवीर ने कहा कि सामने होता तो वे मुझे भाषा की तमीज सिखाते, ऐसे जैसे मैं गुंडों और कुत्तों से डरता हूं जो झुंड में शेर हो जाते हैं, वैसे पत्थर उठाने के अभिनय से ही दुम दबाकर भाग जाते हैं।  मैं समय खर्च करता हूं, व्यर्थ नहीं। यहां निवेश के हानिपूर्ण प्रभाव हैं।  इस ग्रुप पर अब ब्लॉग से नए लेख शेयर करने के अलावा सक्रिय सदस्यता समाप्त करता हूं, समय कम है काम ज्यादा। पता नहीं कैसा पालन-पोषण-शिक्षा मिलती है इन्हें, कि बात करने की न्यूनतम तमीज भी नहीं निभा पाते। सानियर-जूनियर की संस्कृति की बात करते हैं और बाप की उम्र के सीनियर की बिन कारण बताए मां-बहन करने लगते हैं, मेरी दुनिया में इलाहाबाद भी है, लेकिन उससे परे भी है। सादर।

Thursday, February 22, 2018

लल्ला पुराण 183 (राम)

Shailendra Singh बाल्मीकि के शूद्र होने की बात ब्राह्मणो द्वारा फैलाई गयी किंवदंति है, जैसे कालिदास के मूर्खता की किंवदंतियां। जी, वर्णाश्रम की शुरुआत तार्किक श्रम विभाजन के रूप में हुई। कालांतर में ब्राह्मणों ने परजीवी वर्गों (सवर्ण) की प्रिविलिजेज अगली पीढ़ियों को हस्तांतरित करने और श्रमजीवियों की अधीनता को स्थाईभाव देने के लिए इसे जन्मजात बना दिया। यह काम अत्रेय ब्राह्मण की रचना तक (लगभग 1000 ईशापूर्व) हो चुका था। बुद्ध के समय तक जन्म आधारित वर्णाश्रम गहरी जड़ें जमा चुका था, बुद्ध का विद्रोह इसी विकृति के विरुद्ध था।