Wednesday, June 30, 2021

शिक्षा और ज्ञान 322(गणित)

 हमारे समय में तो कक्षा 9 में विषय-चुनाव का विकल्प था और हमने तभी जीवविज्ञान के बदले संस्कृत ले लिया था, इसलिए इंटर और बीएससी में गणित या जीवविज्ञान में चुनाव की दुविधा नहीं थी। वैसे डीपीएस के मेरे गणित पढ़ाए छात्रों के परिचित मिलते हैं तो कहते हैं गणित में रुचि के लिए मुझसे पढ़ लें। मैंने 36 साल से गणित की किताब नहीं छुई है। स्कूल में लगता था कि गणित जैसे आसान विषय में कोई कैसे फेल हो सकता है?

शिक्षा और ज्ञान 321 (स्त्री प्रतिभा)

 मैं ब्रेन के जीवैज्ञानिक आयामों के बारे में तो नहीं जानता लेकिन बहुत लंबे छात्रजीवन और कम लंबे शिक्षक जीवन के अनुभव से यह जान पाया हूं कि प्रतिभा और बुद्धिमत्ता में लैंगिक भिन्नता की कोई भूमिका नहीं होती। पिछले 25-30 सालों में लड़कियां लड़कों से बेहतर कर रही हैं, इसलिए नहीं कि लड़कियों का ब्रेन ज्यादा विकसित होता है, बल्कि इसलिए कि लड़कियों में भेदभाव और वंचना की यादें अभी ताजी हैं, अवसर मिलने पर वे नई चुनौतियां स्वीकार करने और देने को उत्सुक हैं।

Tuesday, June 29, 2021

शिक्षा और ज्ञान 320 (शिक्षक)

 दुर्भाग्य से, बहुत से लोग सारी नौकरियों की प्रतियोगिताओं से खारिज होकर, उच्च शिक्षा में मठाधीशी के चलते जुगाड़ से शिक्षक बन जाते हैं। इनमें से बहुत से शिक्षक शिक्षक होने का महत्व नहीं समझते, नहीं तो क्रांति का पथ वैसे ही प्रशस्त हो जाता। लेकिन अध्यापकों की इफरात तनख्वाह और कामचोरी का कुप्रचार, धनपशुओं की शिक्षा की दुकानों के दलालों की सोची-समझी चाल है। मेरी पत्नी कहती थीं कि इससे अच्छा तो ऑफिस की नौकरी करते, 9 बजे के पहले और 10 बजे का बाद घर पर तो रहते। शिक्षक की नौकरी 24 घंटे की होती है। मैंने तो 8 तक टाट-पट्टी वाले और उसके बाद लगभग मुफ्त की फीस वाले सरकारी संस्थानों से पढ़ाई की है। निजी दुकानों की फीस देने की कभी औकात ही नहीं रही। लाखों फीस देकर निजी स्कूलों से पढ़े लोगों को चुनौती देता हूं। निजी संस्थानों में आज जितनी फीस देकर पढ़ना होता तो अपढ़ ही रह जाते। उच्च शिक्षा में मठाधीशी के चलके बहुत से अवांछनीय तत्व घुस गए हैं लेकिन सामान्यीकरण उचित नहीं है। आज भी शिक्षा और छात्रों के प्रति निष्ठावान शिक्षकों की कमी नहीं है। राष्ट्रपति ने आयकर की बात झूठ बोला है।

शिक्षा और ज्ञान 319 (युद्ध)

 जी चाहे सिकंदर हो, चंद्रगुप्त या शिवाजी, लूट युद्धों का ऐतिहासिक रिवाज रहा है। युद्ध हिंदू-मुसलमान नहीं, राजनैतिक होते थे। अगर इतिहास आपने पढ़ा हो तो शिवाजी जी की सेना में चौथ-विवाद की बात पढ़ा होगा, वैसे संघियों का इतिहासबोध, आम तौर पर तथ्यात्मक नहीं अफवाहजन्य होता है। राजशाहियों में सैनिक प्रायः mercenary (भाड़े के) होते थे। मध्यकाल में मौजूदा केंद्रीय बिहार सैनिक आपूर्ति का गढ़ होता था। शेर खान (जो बाद में शेरशाह शूरी नाम से मशहूर, अप्रतिम अंतर्दृष्टि का शासक बना जिसने अपने बहुत कम समय के शासन में यातायात, लगान, डाक व्यवस्था, सिंचाई आदि क्षेत्रों में अभूतपूर्व योगदान दिया) बहुत सैनिक ब्रोकर था। बक्सर सैनिक-व्यापार (मिलिट्री ट्रेड) का बहुत बड़ा केंद्र था। औरंगजेब की सेना में भी भोजपुरिया सिपाहियों का बोलबाला था और शिवाजी की सेना में भी।


शिवाजी क्षत्रपति बनने के बाद अपनी सेना में सुधार के रूप में सैनिकों की 'चौथ' खत्म कर वेतन बढ़ाने और चौथ खत्म करने का प्रस्ताव रखा। भोजपुरिया सैननिकों ने तलवारे म्यान में डाला और शिवाजी को जयराम बोलकर उनकी सेवा छोड़कर किसी और राजा की सेवा में जाने की योजना बनाने लगे। बोले कि वे प्रमुखतः 'चौथ' के लिए ही लड़ते हैं। क्या था यह 'चौथ' का रिवाज? युद्ध में लूट के माल (booty) का चौथाई सैनिकों में बंटता था।

ऊपर शेर खान जिक्र आया तो दो शब्द उसके बारे में ही। शेर खान विभिन्न राजाओं को भोजपुरिया सैनिक सप्लाई करता था। उसे लगा कि शासन तलवार यानि सेना के बल पर ही स्थापित किया जाता है। और वह दूसरों के लिए सेना तैयार करता है तो अपने लिए ही क्यों न करे? और उसने अपनी सेना तैयार करने का निर्णय कर लिया और बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं के क्षेत्रों पर हमले से कब्जा शुरू कर दिया तथा बक्सर की निर्णायक युद्ध के बाद वह दिल्ली के तख्त पर काबिज हो गया।

लगे हाथ शेरशाह के बारे में सासाराम इलाके में प्रचलित एक किंवदंति की भी चर्चा कर दूं। बक्सर युद्ध के पहले शेरशाह के सैनिक खंदक खोद रहे थे। हुमायूं के वजीर ने सोचा शेरशाह से बातचीत के जरिए मामला सुझाव दिया। हुमायूं ने उसे शेरशाह के पास भेजा। उसने शेरशाह का टिकाना पूछने के लिए खंदक खोद रहे एक मजदूर को बुलाया। उसने पलड़ा (टोकरी) पलटकर उसे बैठने को कहा और हाथ-मुंह धोकर आ गया। वजीर यह देखकर बहुत हैरान हुआ और वापस जाकर हुमायूं को यह कहते हुए युद्ध न करने की सलाह दी कि जो राजा खुद खंदक खोद रहा हो उससे जीतना मुश्किल है। हुमायूं ने दुश्मन की तारीफ करने के लिए वजीर को डांट दिया। और बक्सर की निर्णायक लड़ाई का इतिहास सब जानते हैं।

कहने का मतलब यह कि मध्यकाल तक युद्धों के इतिहास में लूट-पाट का रिवाज अपवाद नहीं नियम था।

24.06.2021

Sunday, June 27, 2021

बेतरतीब 108 (बेटी)

 Ram Chandra Shukla हम 6 भाइयों के बाद बहन पैदा हुई थी, मुझसे लगभग 12 साल छोटी। जो न हो वह मिल जाए तो खुशी ज्यादा होती है। वह 6 महीने की थी तो मैं शहर पढ़ने चला गया और छुट्टियों में ही मुलाकात होती थी। मैं उसे सिर पर बैठाकर घुमाता था। मां और दादी कहतीं लड़की को सिर पर बैठा रहे हो, बेटियां ही होंगी। वह जब 8वीं पास की तो पढ़ाई बंद कराके उसकी शादी खोजी जाने लगी। मैं उस समय जेएनयू में एमफिल का छात्र था तथा डीपीएस में गणित पढ़ाने लगा था। पूरे खानदान से लड़-झगड़ कर अड़ कर उसे ले जाकर वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में एडमिसन कराया जहां से उसने एमए बीएड की पढ़ाई की। दूसरी बेटी पैदा हुई तो उधार लेकर उत्सव मनाया कि लोगों को यह न लगे कि दूसरी बेटी होने से दब गया। नतिनी का नाम पेट में थी तभी माटी रख दिया था। छोटी बेटी ने कहा कि बेटा हुआ तो ढेला रखेंगे? मैंने कहा तब देखेंगे। आई माटी ही। पिछले कई सालों, बल्कि दशकों से लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों से आगे हैं, क्योंकि उनके मन में वंचनाओं और भेदभाव की यादें ताजा हैं। वे नई चुनौतियों के लिए तैयार हैं। मैंने शाहीन बाग पर लेख में इस परिघटना को नये नव जागरण का प्रतीक कहा था। मेरे ख्याल से भारत के भावी नए नवजागरण की नायिकाएं देवांगनाएं, नताशाएं तथा शरूफाएं होंगी और स्त्री प्रज्ञा तथा दावेदारी से लैश स्त्रीवादी चेतना इसका विशिष्ट आयाम होगी।

शिक्षा और ज्ञान 318 (नवजागरण)

 मानवीय चेतना का विकास निरंतर, सतत, द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है जिसके केंद्र में सदा से ही उहलोक (ईश्वर) तथा इहलोक (विवेक) का द्वंद्व रहा है। नवजागरण के तमाम ऐतिहासिक चरण रहे हैं। वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल में लोकायत (चारवाक) बौद्धिक आंदोलन भी नवजारण ही था तथा बौद्ध बौद्धिक क्रांति भी। मध्ययुग में सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के संदेश का कबीर का आंदोलन भी नवजागरण का एक चरण था जो अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। दिल्ली विश्वविद्यालय में स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के रूप में लड़कियों के पिंजड़ातोड़ आंदोलन से शुरू होकर 20016 के छात्रआंदोलन में गति प्राप्त करते कोविड से बाधित, शाहीनबाग सी परिघटनाओं में परिलक्षित सीएए विरोधी आज के आंदोलन एक नए नवजागरण की भावी प्रक्रिया के अंग हैं। यह नवजागरण नया इसलिए है कि इसका नेतृत्व स्त्रीचेतना से लैश युवतियां कर रही हैं। नताशाएं और देवागनाएं इस नए नवजागरण की नायिकाएं हैं।

बेतरतीब 107 (जन्मदिन)

 जन्मदिन

परसों 25 जून को रात 11.40 बजे सिर पर घुंघराले घने बालों वाली 35-36 साल पुरानी तस्वीर के साथ 26 जून शुरू होने यानि 66 वर्ष का हो जाने से 20 मिनट पहले से ही जन्मदिन की बधाइयों की चाहत जाहिर करते, यह सोचकर पोस्ट डाल दिया कि सुबह एक छोटा सा विवरण लिखूंगा। वैसे मुझे पोस्ट डालने की जरूरत नहीं थी क्योंकि फेसबुक तो वैसे ही जन्म दिन की सार्वजनिक घोषणा कर देता है। जेएनयू में मेरे लोकल गार्जियन रह चुके, अग्रज अनिल चौधरी (Anil Chaudhary समेत कई मित्रों ने फेसबुक से मेरी किसी तस्वीर के साथ लेकिनं चाय-नाश्ते के बाद से ही मित्रों और छात्रों के इतने फोन आने लगे कि फुर्सत ही नहीं मिली और फिर इमा (छोटी बेटी) और विकास लंच पर आ गए तथा फोनों का सिलसिला फिर शुरू हो गया। अनिल ने जेएनयू के पुराने छात्रों के जमावड़े के ग्रुप फोटो के साथ बधाई की पोस्ट शेयर किया उनका बहुत बहुत आभार। जन्मदिन की सूचना की पोस्ट के अलावा फेसबुक मेमरी से जितनी तस्वीरें शेयर किया सभी पर बधाइयों की भरमार हो गयी। सभी का बहुत बहुत आभार। जेएनयू के सहपाठियों, हिंदू कॉलेज और डीपीएस के मित्रों, पत्रकारिता दिनों के तथा प्रेस क्लब के मित्रों के अलावा बहुत से फेसबुक मित्रों ने भी इनबॉक्स और आउट बॉक्स में बधाइयां दीं। सभी का तहेदिल से आभार व्यक्त करता हूं। वैसे दस्तावेजों में दर्ज मेरी अधिकारिक जन्मतिथि 3 फरवरी है, जिसके अनुसार मैं फरवरी 2019 में नौकरी से रिटायर हो गया। सही जन्मतिथि (26 जून 1955) लिखी होती तो मैं जून 2020 में रिटायर होता, लेकिन कोई पछतावा नहीं। वैसे पहली बार मैंने जन्मदिन 25 साल का होने पर मनाया। बचपन में उस समय गांवों में जन्मदिन मनाने का रिवाज नहीं था। मुझे जन्मकुंडली वाली विक्रम कैलेंडर की जन्मतिथि (आषाढ़, कृष्णपक्ष दशमी, संवत 2012) मालुम थी, रोमन कैलेंडर की नहीं। प्राइमरी 2 कक्षाओं की छलांग ( प्रि-प्रराइमरी यानि अलिफ [गदहिया गोल] से कक्षा 1 तथा कक्षा 4 से 5) के चलते1964 में मैंने 9 साल में ही प्राइमरी कर लिया। मेरे दादाजी (बाबा) पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे उनकी सुंदर लिखावट के नमूने के तौर पर जन्मकुंडली संभाल कर रखा हूं। उस जमाने में हाई स्कूल की परीक्षा की न्यूनतम आयु 15 वर्ष थी, 1 मार्च 1969 को 15 साल का करने के लिए बाबू साहब ( हमारे प्राइमरी स्कूल हेड मास्टर बासदेव सिंह) के मन में 1954 फरवरी की जो भी तारीख (3) दिमाग में आई लिख दिया। मेरे पिताजी फैल गए कि लोग तो 2-3 साल कम लिखाते हैं और उन्होने मेरी डेढ़ साल ज्यादा लिख दिया? बाबू साहब के समझाने पर वे मान गए। उन दोनो की वार्तालाप से पता चला कि मेरी पैदाइश 1955 की होगी। बहुत दिनों बाद (जेएनयू में पढ़ते हुए) देखा कि जन्मकुंडली के पीछे 26 जून 1955 लिखा था। तब से जन्मदिन मनाने लगा। तीनमूर्ति लाइब्रेरी में माइक्रोफिल्म पर पुराने अखबार पढ़ने के दौरान 1955 के हिंदी अखबारों से इसकी तस्दीक कर लिया। उन दिनों के हिंदी अखबारों में विक्रम और शक संवत की भी तारीखों छपती थीं। तभी से हर साल २६ जून को जन्मदिन मनाता रहा। जश्न की कुछ अड्डेबाजियों तो अविस्मरणीय हैं। मेरी तस्वीरों, मित्रों की बधाई पोस्टों और इनबाक्स में अनगिनत बधाइओं की भरमार हो गयी। इतना प्यार पाकर मेरा दिल गार्डन-गार्डन हो गया. जिनकी बधाई पर अलग से आभार नहीं जता सका उनसे क्षमा-प्रार्थना के साथ हार्दिक आभार। मेसेज बॉक्स की आधे से अधिकबधाइयों का निजी आभार व्यक्त कर सका, बाकियों का अब एक साथ। कुछ मित्रों/स्टूडेंट्स ने बधाई के लिए फोन किया। सबका हार्दिक आभार। बाकी फिर।

बेतरतीब 106 (इलाहाबाद)

 सही कह रहे हे हैं हिंदू कॉलेज के छूट चुके मेरे आवास के पीछे का, लगभग 200 साल पुराना यह विशालकाय बरगद का पेड़ इलाहाबाद विवि के लोगो में दिखने वाले बरगद सा ही है। हिंदी विभाग के पीछे कुंए के चबूतरे को छाया देने वाला है भी ऐसा ही विशालकाय बरगद का पेड़ (या शायद पाकड़ का)। हमने उसके नीचे चबूतरे पर दोस्तों के साथ बहुत अड्डेबाजी की है, अब 49-45 साल पहले किसके किसके साथ क्या-क्या बातें करते थे, सब भूल गया है, कुछ नाम छोड़कर सब भूल गए हैं। उसी चबूतरे से छात्रों की बहुत सी सभाओं में शिरकत की है। 1974 की एक ऐतिहासिक सभा का वर्णन कभी करूंगा। हेमवंतीनंदन बहुगुणा उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बन कर आए थे, हम लोग पीडी टंडन पार्क में प्रदर्शन करके काला झंडा दिखाने वाले थे। उस समय कत्ल के इल्जाम में बंद, बाहुबलियों में सबसे बड़े 'भैया' हरिनारायण सिंह पेरोल पर छूट कर आए थे। छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष, एबीवीपी के ब्रजेश कुमार समेत कई प्रमुख छात्र नेताओं के भाषण हो चुके थे। तभी अनुग्रह नारायण सिंह (इलाहाहाद से कई बार विधायक) आदि लोग किसी बहाने ब्रजेश, विवि के बयोवृद्ध छात्रनेता जगदीश दीक्षित (जिनके बारे में फिर कभी, उनके रस्टीकेसन को निरस्त करने के आंदोलनों -- जगदीश दीक्षित नहीं, चुनाव नहीं -- के चलते नहीं हुए थे। छात्रसंघ के 1971-72 के पदाधिकारियों का कार्यकाल [अध्यक्ष, अरुण कुमार सिंह 'मुन्ना' (कांग्रेस), महामंत्री ब्रजेश कुमार (एबीवीपी)] 1972-73 में भी जारी था), समाजवादी नेता ब्रहमानंद ओझा आदि को हिंदी विभाग के पीछे लेजाकर बंदूक की नोक पर अपहृत कर लिया, कुछ देर उन्हें जीएन झा में रखा गया, फिर बहुगुणा जी की मीटिंग खत्म होने तक उन्हें यमुना में नौकाविहार कराया गया। अफवाह फैल गयी कि अध्यक्ष भाग गया, लेकिन शीघ्र ही सबको सच्चाई पता चल गयी, लेकिन तब तक सभा तितर-वितर हो चुकी थी। हम कुछ लोग बहुगुणा की सभा में जेब में काला झंडा लेकर छिटक कर शामिल हो गए। पुलिस वाले भी सादी वर्दी में लाठियों के साथ शामिल थे। लाठी खाकर सभा से लौटकर हॉलैंड हॉल के परिसर में परमानंद मिश्र ( आपातकाल के बाद में छात्रसंघ का महामंत्री) के साथ भैया लोगों से घेरे जाने की कहानी फिर कभी। एबीवीपी के नेता के रूप में वह मेरे जीवन का अंतिम चरण था। अगले दिन बहुत बड़ा जुलूस निकला, लोग बताते हैं कि 1942 के बाद वह सबसे बड़ा जुलूस था। जुलूस सर्किट हाउस जा रहा था, रास्ते में मोटर वाहनों को आग के हवाले किया गया, सिविल लाइंस में तमाम दुकानों के साथ लकी स्वीट हाउस की लूट देखकर उस आंदोलन से मेरा मोहभंग हो गया। इस आंदोलन और उसके बाद के दमन और गिफ्तारियों के बारे में फिर कभी। आपातकाल के पहले छात्रों की गिरफ्तारी सम्मान के साथ होती थी।

Friday, June 25, 2021

शिक्षा और ज्ञान 317 (नवजागरण)

 यूरोप के नवजागरण आंदोलन का एक जनतांत्रिक आयाम यह था जन्मगत सामाजिक भेदभाव समाप्त कर दिया था, नए भेदभाव पैदा कर दिए थे, वह अलग विमर्श का मुदादा है। प्रबोधन क्रांति ने उसे पुख्ता कर दिया था। इसी लिए कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में मार्क्स-एंगेल्स ने लिखा कि पूंजीवाद ने सामाजिक विभाजन को सरल कर समाज को पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों मेंबांट दिया है। भारत में कबीर के साथ शुरू नवजागरण, ऐतिहासिक कारणों से, अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। सामाजिक क्रांति का यह अधूरा एजेंडा भी कम्युनिस्ट आंदोलन के जिम्मे था, जिसे अंबेडकर ने उठाया। भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं। इस बात को कम्युनिस्ट पार्टियों और अस्मितावादियों दोनों ने नजरअंदाज किया। अब सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के आंदोलनों को ्लग अलग चलाने का समय नहीं है। अस्मिता की राजनीति की लामबंदी सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानि वर्ग चेतना के प्रसार के रास्ते का सबसे बड़ा अवरोधक बन गया है। इसे तोड़ने का रास्ता जेएनयू के छात्रों ने दिखाय़ा दोनों को मिलाकर जय भीम-लाल सलाम का नारा दिया। जयभीम के दक्षिणपंथी विचलन को नजर अंदाज कर उसके जातिवाद विरोधी क्रांतिकारी आयाम को लाल सलाम के साथ मिलाने की जरूरत है।

शिक्षा और ज्ञान 316 (कबीर-तुलसी)

एक सदी से अधिक बाद शुरू हुए यूरोपीय नवजागरण आंदोलन की ही तरह सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के प्रमुख संदेश देने वाले कबीर के साथ शुरू हुए नव जागरण आंदोलन को वर्णाश्रमी गतिरोध के चलते कला, विज्ञान, राजनीति आदि क्षेत्रों में वैसा समर्थन नहीं मिला तथा उसके बाद आर्थिक प्रगति (सोने की चिड़िया) एवं अकबर द्वारा राजनैतिक एकीकरण के बावजूद न तो यूरोप की तरह यहां पूंजीवादी आर्थिक विकास हुआ न ही प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) आंदोलन जैसी कोई बौद्धिक क्रांति हुई। इनके ऐतिहासिक कारणों के गहन विश्लेषण की दिशा में डीडी कोशांबी, केएम पानिक्कर जैसे इतिहासकारों ने प्रशंसनीय प्रयास किए हैं। मुझे लगता है कि जन्म की जातीय/वर्णाश्रमी अस्मिता को तोड़ने के कबीर के सामाजिक-साहित्यिक आंदोलन के फलीभूत होने में तुलसी के रामचरितमानस की वर्णाश्रमी यथास्थितिवादी कहानी और मान्यताओं व्यापक लोकप्रियता ने बहुत बड़े अवरोधककाम किया। मार्क्स ने लिखा है कि शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं। मर्दवादी, वर्णाश्रमी मान्यताओं के पोषक रामचरित मानस की पंक्तियां स्त्रियों और अवर्णों में भी उतनी ही लोकप्रिय हैं, जितनी पुरुषों और सवर्णों में। पूंजीवाद के विकास और फलस्वरूप उदारवाद के सदृश तार्किक दर्शन के विकास के अवरोध में औपनिवेशिक दखलंदाजी की भूमिका अहम रही है। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशक तक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब था भारत और पूर्व एशिया, प्रमुखतः चीन के सामानों का व्यापार। औपनिवेशिक दखलंदाजी ने, मार्क्स की अपेक्षा के प्रतिकूल एशियाटिक उत्पादन पद्धति के आर्थिक विकास में पूंजीवादी संबंधों को प्रोत्साहित करने की बजाय देशज उद्योंगों के विनाश तथा वर्णाश्रमी सामंतवाद को तोड़ने की बजाय औपनिवेशिक लूट में उसका इस्तेमाल किया। भारत में वर्णाश्रमी सामंतवाद के विरुद्ध नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियां अभी बाकी हैं, लेकिन अब सामाजिक और आर्थिक न्याय की क्रांतियों के अलग अलग क्रियान्वयन का समय नहीं है, जरूरत दोनों को समागम यानि द्वद्वात्मक एकता की है। 2016 के जेएनयू आंदोलन से जय भीम-लाल सलाम नारे के साथ इस प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है, जरूरत इसकी सैद्धांतिक और राजनैतिक व्याख्या की है। यह तो मैंने एक चलताऊ वक्तव्य दे दिया, इस पर गहन विचार-विमर्श की जरूरत है।

कबीर जयंती पर जय भीम - लाल सलाम नारे को व्यवहारिक अर्थ देकर हम कबीर को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

Sunday, June 20, 2021

लल्ला पुराण 393 (इश्क)

  इलाहाबाद में हमारे एकाध लफड़े विवि के बाहर थे। विवाह तक पहुंचने की प्रतिबद्धता से किसी दीर्घकालीन इश्क की गुंजाइश नहीं थी, जब मैं इवि में आया तो विवाह हो चुका था गवन नहीं आया था। जिस भी लड़की से ज्यादा दोस्ती होती उसे संदर्भ गढ़कर विवाह और विवाह निभाने के फैसले की बात बता देता था। एक बहुत अच्छी दोस्त थी, सिविल लाइन्स तिकोने पार्क के पास (हीरा हलवाई चौराहा) ब्रिटिश कालीन सरकारी कोठी में अपने चाचा के साथ रहती थी। साइकिल से उसके साथ हीरा हलवाई की दुकान तक जाते थे वहां से चाय-वाय के बाद वह घर चली जाती और मैं वापस हॉस्टल। बीएससी के बाद वह चली गयी फिर कुछ पता नहीं चला। एक बार (आखिरी मुलाकातों में) उसने पूछा कि मैं उससे प्यार करता हूं क्या? मैंने कहा कि तुम इतनी अच्छी दोस्त हो तुमसे प्यार कैसे कर सकता हूं? उसने पीठ पर थापी देकर पूछा कि प्यार दुश्मन से करूंगा क्या? हो सकता है हमारे बीच कुछ रहा हो जिसे हमें पता नहीं चला। एक और दोस्त को गवन के बाद घर से लाया लड्डू दिया, पहले तो उसे गवन का मतलब समझाना पड़ा फिर वह ऐसी नाराज हुई कि वह हमारी अंतिम मुलाकात बन गयी। मैंने ऊपर एक कमेंट में बताया कि उन दिनों किसी लड़के-लड़की का साथ दिखना ही एक संज्ञेय परिघटना होती थी। 2016 में किसी कार्यक्रम में इलाहाबाद की यात्रा में एजी ऑफिस के पास महात्मा गांधी विवि के गेस्ट हाउस में रुका था, एक शाम याद ताजा करने हारा हलवाई के चौराहे पर चाय पीने चला गया। वहां नियमित अड्डेबाजी करने वाले दो लोगों ने 42 साल बाद मुझे पहचान लिया और हमारे साथ जो लड़की आती थी उसके बारे में पूछने लगे। मैं उन्हे क्या बताता?

सही कह रहे हैं। इवि में उन दिनों (1970 का दशक) जिसे जो लड़की अच्छी लगती वह उसे अपना माल मान लेता। बीएससी में मेरे क्लास की एक लड़की कई लोगों की 'माल' थी। कुछ लोगों ने हमें फीजिक्स से केमिस्ट्री विभाग या केमेस्ट्री से गणित विभाग क्लास करने साथ आते-जाते और एकाध बार मालवीय कैफे मे चाय पीते देखा था। उन दिनों लड़का-लड़की का साथ दिखना ही संज्ञेय परिघटना थी। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं उन सब लोगों का दुश्मन बन गया था। कई साल बाद वह जब यूपीएससी का इंटरविव देने दिल्ली आयी तो जेएनयू में रुकी। मैंने मजाक में कहा कि यार बिना किसी चक्कर के इतने लोगों का दुश्मन बन गया था तो अब से चला लो उसने भी उसी लहजे में कहा था कि तब तक देर हो चुकी थी। उसके बहुत दिनों बाद, अटल जी के शासन के पहले कार्यकाल के दौरान सहारा के दफ्तरों में आयकर छापा डालने के बाद उसे छुट्टी पर भेजे जाने की खबर पढ़ कर अपनी दोस्ती पर फक्र हुआ।


चाय के साथ कभी कभी जलेबी और समोसा भी खाते थे। पैसे कभी मैं देता था, कभी वह। वह अपने घर से पैसे लेती थी मैंने घर से पैसा लेना बंद कर दिया था। मैं एक अखबार में पार्ट-टाइम प्रूफरीडिंग करता था और गणित के एकाध ट्यूसन पढ़ाता था। वैसे शहर में कई दुकानों पर चाय-सिगरेट की उधारी भी चलती थी। पिताजी से मेरे भविष्य की योजना पर विवाद हो गया। मार्क्स ने कहा है, 'अर्थ ही मूल है', यदि विचारों में स्वतंत्र होना चाहते हैं तो आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करो। उन दिनों किसान पिता के लिए हर महीने नकदी का इंतजाम वैसे भी आसान नहीं था। मैंने पिताजी से पैसा न लेने का फैसला कर लिया। घर से इलाहाबाद आते हुए दिमाग में ये पंक्तियां गूंजी -- 'जंगल तो हमें वैसे भी जाना है, वह हमें चुने उससे बेहतर, उसका हमसे चुना जाना है'। मैं अपनी छात्राओं को कहता था कि पढ़-लिखकर पहले आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करें। बाकी देखा जाएगा।

Saturday, June 19, 2021

सुरेश सलिल

 

  जनपक्षीय कवि, लेखक, पत्रकार सुरेश सलिल की 80वीं वर्षगांठ

ईश मिश्र


हिंदी, साहित्य और पत्रकारिता में अमूल्य योगदान करने वाले 19 जून 1942 को जन्मे जनपक्षीय कवि, लेखक सुरेश सलिल आज 80वां साल गिरह है।1980 के दशक के मध्य के वर्षों में युवकधारा में सलिल जी के संपादकत्व में पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा (सीपी) उन्हें, आदि विद्रोही की तर्ज पर आदि संपादक कहते हैं।1960 के दशक से कवि कर्म तथा लेखन में तल्लीन, “हवाएं क्या-क्या हैं” समेत कई कविता संकलन तथा अन्य कालजयी रचनाएं छप चुकी हैं।

 

भारतेंदु हरिश्चंद्र से तब तक लगभग 150 साल के हिंदी कविता एवं कवियों के सर्वेक्षण को समेटे ‘कविता सदी’ शीर्षक से 2018 में राजपाल एंड संस से छपा ग्रंथ, हिंदी साहित्य का अनमोल खजाना है। यह ग्रंथ हिंदी कविता के 150 साल के विभिन्न आंदोलनों, प्रवृत्तियों और शैलियों के सजीव चित्रण का दस्तावेज है। इसमें नवजागरण काल की कविताएं प्रतिध्वनित होती हैं तो छायावाद का स्वर भी सुनाई देता है; हिंदी कविता के प्रगतिशील आंदोलन की झलक मिलती है और प्रयोगवाद तथा नई कविता की विशिष्टता की भी। इसमें दलित और स्त्री अस्मिता की कविताएं हैं तथा प्रमुख समकालीन कवियों की भी चर्चा है।

 

 सलिल जी ने 6 मौलिक कविता संग्रहों के अलावा कई काव्य अनुवाद प्रकाशित किए हैं, जिसमें ‘बीसवीं सदी की विश्व कविता का वृहत् संचयन: रोशनी की खिड़कियां’ प्रमुख है। हाल में ही उनकी संपादित ‘कारवाने गजल’ (800 वर्षों की गजलों का सफरनामा) सराहनीय है। 1920 के दशक में औपनिवेशिक शासन द्वारा प्रतिबंधित चांद का फांसी अंक भी सलिल जी ने ही संग्रहित संपादित, पुनर्प्रकाशित किया था। स्वतंत्रता सांग्राम के महानतम हिंदी पत्रकार ‘गणेश शंकर विद्यार्धी संचयन’; ‘पाब्लो नेरूदा: प्रेम कविताएं’; इकबाल की जिंदगी और शायरी’ भी उल्लेखनीय रचनाएं हैं।

 

कल सीपी (सुमन) से बातचीत में हम लोगों को लगा कि सलिल जी के 80वें जन्मदिन पर उनका सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए। कोरोना काल के बाद हम लोग सलिल जी के सम्मान में सार्वजनिक अभिनंदन आयोजित करने की कोशिस करेंगे। छात्र जीवन में हम लोग एक चुटकुला सुनते-सुनाते थे कि किसी ने किसी कवि या लेखक से पूछा “क्या करते हो”? “कवि/लेखक हूं”। “वह तो ठीक है, लेकिन करते क्या हो”? कार्ल मार्क्स आजीवन गर्दिश में रहे। सलिल जी भी इस उम्र में लगभग गुमनामी में लगभग गर्दिश की जिंदगी जी रहे हैं। मेरा सलिल जी से 1985 में, विलिंगटन क्रिसेंट के युवकधारा के दफ्तर परिचय हुआ। जिसे कल राजेश जोशी की सलिल जी के 80वें जन्मदिन की बधाई की पोस्ट पर कमेंट में लिखा था, इस लेख का समापन उसी को संपादित कर जोड़कर करना अनुचित नहीं होगा।

 

 सुमन  की ही तरह मैंने भी युवकधारा से ही पत्रकारिता शुरू किया था। विलिंगटन क्रेसेंट स्थित सांसद, तारिक अनवर की कोठी के पिछवाड़े के सर्वेंट्स क्वार्टर्स में स्थित युवकधारा के उसी दफ्तर से। 1985 में डीपीएस से निकाले जाने के बाद तय कर लिया कि अब जब तक भूखे मरने की नौबत न आए तो रोजी-रोटी के लिए गणित का इस्तेमाल नहीं करूंगा। मंडी हाउस की एक दिन की अड्डेबाजी में पंकज भाई (दिवंगत जनकवि पंकज सिंह) ने पूछा कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिख सकता हूं क्या? न कहने की अपनी आदत नहीं थी। श्रीराम सेंटर के बाहर बाबूलाल की दुकान से चाय पीने के बाद ऑटो से युवकधारा के दफ्तर पहुंचे। वहां सलिल जी (संपादक) के साथ अमिताभ, सुमन (जेएनयू के सहपाठी) तथा राजेश वर्मा (युवकधारा से निकलकर सुमन और राजेश यूनीवार्ता ज्वाइन कर लिए और अमिताभ दिनमान) वहां उपसंपादक थे। अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर 'विश्व परिक्रमा' कॉलम लिखने का मौखिक अनुबंध हुआ। तब तक लिखने का अनुभव सीमित था। अपने लेखन की गुणवत्ता पर अविश्वास इतना था कि 1983-84 में जनसत्ता में 'खोज खबर-खास खबर' पेज पर शिक्षा व्यवस्था पर पहला लेख छद्म नाम से लिखा। छपने के बाद लोगों की तारीफ से अपने लेखन की गुणवत्ता पर यकीन हुआ। जेएनयू से निकाले जाने से फेलोशिप बंद हो गयी थी, डीपीएस से निकाले जाने पर वेतन। गणित से धनार्जन के आसान रास्ते पर न चलने का फैसला कर लिया था। ऐसे में 300 रुपए मासिक (150 रु. प्रति लेख) की आश्वस्ति भी ठीक थी। लिंक में जेएनयू के सहपाठी, प्रद्योत लाल (दिवंगत) ने सुधीर पंत से मिलवाया और फिर लिंक में लगभग हर हफ्ते तथा किसी अंक में दो लेख लिखने लगा। लिंक से भी प्रति लेख 150 रुपया मिलता था। युवकधाराके लेख के लिए कभी कभी जेएनयू की लाइब्रेरी में बैठता था लेकिन प्रायः उसके दफ्तर में ही। सलिल जी टॉपिक का चयन कर रिफरेंस मैटेरियल दे देते थे और बाहर धूप में बैठकर लिखता था। छपने के बाद अंक लेने जाता तो अमिताभ और राजेश कहते कि सबसे पहले यह अपना लेख पढ़ेगा, जो सही था। छपने के बाद अपना लेख पढ़ने की बाल सुलभ उत्सुकता होती थी। राजेश, अमिताभ और सुमन के वहां निकलने के बाद, मेरा लिखना भी बंद हो गया। कुछ लेख अभी भी मेरे पास कहीं होंगे। 2-3 टाइप कराकर किसी फाइल में सेव किया है।

खैर बात सलिल जी की करनी थी और अपनी करने लगा। सलिल जी ने मुझे लिखना सिखाया। शब्द गिनने का तरीका बताया। सलिल जी की कविताएं अद्भुत थी। सलिल जी के माध्यम से बहुत से अंतर्राष्ट्रीय कवियों की कविताओं से परिचय हुआ। अदम गोंडवी और सलभ श्रीराम सिंह से पहली बार इन्हीं के साथ मुलाकात हुई थी। सलिल जी मंडी हाउस की साहित्यिक अड्डेबाजी के स्थाई सदस्य थे। सलिलजी, पंकज सिंह, पंकज विष्ट, असगर वजाहत, आनंद स्वरूप वर्मा, कभी कभी ब्रजमोमोहन और सलभ श्रीराम सिंह आदि की संगति बहुत ज्ञानवर्धक होती थी। सलिल जी की कविताओं एवं अन्य लेखन की समीक्षा फिर कभी लिखूंगा। अभी उनकी सक्रिय और स्वस्थ दार्घायु की शुभकामनाओं के साथ यह लेख यहीं खत्म करता हूं।

Friday, June 18, 2021

बेतरतीब 105 (सुरेश सलिल )

 कवि, लेखक, पत्रकार श्री Suresh Salil कल 80 साल के हो जाएंगे, सोचा था कल उनके जन्मदिन की बधाई की पोस्ट शेयर करूंगा, लेकिन मित्र Rajesh Joshi आज ही युवकधारा से पत्रकारिता की शुरुआत के सिलसिले में सलिल जी को याद करते अपने रोचक संस्मरण के साथ उनके 80वें जन्म दिन पर बधाई की पोस्ट शेयर किया। राजोश की पोस्ट पर निम्न कमेंट लिखा गया जिसे यहां शेयर कर रहा हूं। सलिल जी पर अलग पोस्ट कल डालूंगा।

यह तो युवकधारा के दिनों कीही तस्वीरहै। मैं सलिल जी का जन्मदिन 19 जून जानता था और आज सलिल जी को कल इनकी 80वीं वर्षगांठ की बधाई की पोस्ट डालने की सोच रहा था। मैंने भी युवकधारा से ही पत्रकारिता शुरू किया था। तारिक अनवर की कोठी के पिछवाड़े के सर्वेंट्स क्वार्टर्स में स्थित युवकधारा के उसी दफ्तर से। 1985 में डीपीएस से निकाले जाने के बाद तय कर लिया कि अब जब तक भूखे मरने की नौबत न आए तो रोजी-रोटी के लिए गणित का इस्तेमाल नहीं करूंगा। मंडी हाउस की एक दिन की अड्डेबाजी में पंकज भाई (दिवंगत पंकज सिंह) ने पूछा कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिख सकता हूं क्या? न कहने की अपनी आदत नहीं थी। श्रीराम सेंटर के बाहर बाबूलाल की दुकान से चाय पीने के बाद ऑटो से युवकधारा के दफ्तर पहुंचे। वहां सलिल जी के साथ अमिताभ, सुमन (सीपी झा) तथा राजेश वर्मा (युवकधारा से निकलकर सुमन और राजेश यूनीवार्ता ज्वाइन कर लिए और अमिताभ दिनमान) वहां उपसंपादक थे। अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर 'विश्व परिक्रमा' कॉलम लिखने का मौखिक अनुबंध हुआ। तब तक लिखने का अनुभव सीमित था। अपने लेखन की गुणवत्ता पर अविश्वास इतना था कि 1983-84 में जनसत्ता में 'खोज खबर-खास खबर' पेज पर शिक्षा व्यवस्था पर पहला लेख छद्म नाम से लिखा। छपने के बाद लोगों की तारीफ से अपने लेखन की गुणवत्ता पर यकीन हुआ। जेएनयू से निकाले जाने से फेलोशिप बंद हो गयी थी, डीपीएस से निकाले जाने पर वेतन। गणित से धनार्जन के आसान रास्ते पर न चलने का फैसला कर लिया था। ऐसे में 300 रुपए मासिक (150 रु. प्रति लेख) की आश्वस्ति पर्याप्त थी। लिंक में प्रद्योत लाल (दिवंगत) ने सुधीरपंत से मिलवाया और फिर लिंक में लगभग हर हफ्ते तथा किसी अंक में दो लेख लिखने लगा। लिंक से भी प्रति लेख 150 रुपया मिलता था। युवकधाराके लेख के लिए कभी कभी जेएनयू की लाइब्रेरी में बैठता था लेकिन प्रायः उसके दफ्तर में ही। सलिल जी टॉपिक का चयन कर रिफरेंस मैटेरियल दे देते थे और बाहर धूप में बैठकर लिखता था। छपने के बाद अंक लेने जाता तो अमिताभ और राजेश कहते कि सबसे पहले यह अपना लेख पढ़ेगा, जो सही था। छपने के बाद अपना लेख पढ़ने की बाल सुलभ उत्सुकता होती थी। राजेश, अमिताभ और सुमन के वहां निकलने के बाद, मेरा लिखना भी बंद हो गया। कुछ लेख अभी भी मेरे पास कहीं होंगे। 2-3 टाइप कराकर किसी फाइल में सेव किया है। खैर बात सलिल जी की करनी थी और अपनी करने लगा। सलिल जी ने मुझे लिखना सिखाया। शब्द गिनने का तरीका बताया। सलिल जी की कविताएं अद्भुत थी। सलिल जी के माध्यम से बहुत से अंतर्राष्ट्रीय कवियों की कविताओं से परिचय हुआ। अदम गोंडवी और सलभ श्रीराम सिंह से पहली बार इन्हीं के साथ मुलाकात हुई थी। सलिल जी मंडी हाउस की साहित्यिक अड्डेबाजी के स्थाई सदस्य थे। सलिलजी, पंकज सिंह, पंकज विष्ट, असगर वजाहत, आनंद स्वरूप वर्मा, कभी कभी ब्रजमोमोहन और सलभ श्रीराम सिंह आदि की संगति बहुत ज्ञानवर्धक होती थी। बाकी सलिल जी को 80वीं वर्षगांठ की बधाई की अलग पोस्ट डालूंगा। उनकी सक्रिय और स्वस्थ दार्घायु की शुभकामनाओं के साथ यह कमेंट खत्म करता हूं।

Thursday, June 17, 2021

शिक्षा और ज्ञान 315 (1857)

 1857 पूर्वनियोजित किसान क्रांति थी, नियत समय के पहले धार्मिक कारणों से रायफल की कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी होने की खबर से रायफल विरोध के विद्रोह ने योजना बाधित किया। इसके बावजूद किसानपुत्र सैनिकों और किसानों के क्रांतिकारी जज्बे ने औपनिवेशिक शासन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। आवामी एकता के बलबूते क्रांति की सफलता की दुंदुभि बजने ही वाली थी कि शासकवर्गों के कई राजघराने (सिंधिया, निजाम, पटियाला, ,,,,,,,) अपनी सेना के साथ क्रांति के विरुद्ध अंग्रेजों के पक्ष में खड़े हो गए। भारतीय सामंती शासक वर्गों ने अपने किसानों की आजादी की बजाय अंग्रेजों की गुलामी चुना और जनता के उन गद्दारों के वंशज देशभक्ति के ठेकेदार बन गए हैं। यदि सिंधिया सरीखे रजवाड़े औपनिवेशिक शासकों की दलाली में क्रांति के साथ गद्दारी न करते तो 100 साल पहले औपनिवेशिक लूट खत्म हो गयी होती और हिंदुस्तान का इतिहास अलग होता।

17.06.2020

Wednesday, June 16, 2021

लल्ला पुराण 392 (उम्र)

 मेरे कई बार आग्रह के बाद भी कुछ लोग अपमानजनक लहजे में उम्र का तंज करने से बाज नहीं आते। मैं 10 दिन बाद 66 साल का हो जाऊंगा तथा बौद्धिक सक्रियता अन्य कारणों से कम हो सकती है, लेकिन लगता नहीं उम्र के जीववैज्ञानिक कारण की उसमें प्रमुख भूमिका है। ऐसा मत सोचिएगा कि मैं कोई विक्टिम इमेज बनाने की कोशिस कर रहा हूं, ऐसा मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है। यह पोस्ट प्रकृति के इस सुविदित नियम की याद दिलाने के लिए किया है कि पैदा होने के बाद समय बीतने के साथ हर व्यक्ति बचपन, किशोरावस्था, जवानी और बुढ़ापे के पड़ावों से होते हुए मृत्यु के अवश्यंभावी सत्य की अंतिम मंजिल तक की यात्रा करता है। मेरी बातों का खंडन-मंडन तार्किक आधार पर करें बढ़ती उम्र के हवाले नहीं। तर्क में उम्र या सीनियार्टी की कोई रियायत न करता हूं न चाहता हूं। अवधी में एक कहावत है, 'पते में कौन ठकुरई'। विवि के ग्रुम में भाषा की न्यूनतम मर्यादा की अपेक्षा जरूर रखता हूं।

Tuesday, June 15, 2021

शिक्षा और ज्ञान 314 (दर्शन)

 दर्शन का उद्गम समस्याएं ही हैं, विश्व में मौजूद समस्याओं पर विचार ही दर्शन है। इससे मार्क्सवादी दर्शन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के इस नियम की पुष्टि होती है कि विचार की उत्पत्ति का स्रोत वस्तु है। जैसा कि युवा कार्ल मार्क्स को लगा था कि पारंपरिक दर्शन की समस्या विभिन्न तरीकों से दुनिया की व्याख्या रही है, द्वद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन की समस्या दुनिया की व्याख्या के साथ उसे बदलने की है। मध्यकालीन सामंती युग में दर्शन की धुरी धार्मिक मान्यताएं थीं, पूंजीवादी युग की दार्शनिक समस्या सामंती दार्शनिक मान्यताओं को खारिज कर उनकी जगह नई प्रस्थापनाएं स्थापित करना था जिसके लिए व्यक्ति केंद्रित वैज्ञानिक कलेवर के साथ उदारवादी दर्शन का उदय हुआ। उदारवाद का मकसद औद्योगिक पूंजीवाद की बौद्धिक पुष्टि थी। प्रमुख पैराडाइम के रूप में पूंजीवाद की स्थापना के बाद उदारवाद अप्रासंगिक हो गया तथा धार्मिक दार्शनिक मान्यताओं से लड़ने की बजाय पूंजीवाद के नवउदारवादी दौर में उसने धार्मिक मान्यताओं को नवउदारवादी दर्शन का सहयोगी बना लिया। नल्लवाद तथा धार्मिक कट्टरतावाद (सांप्रदायिकता) नवउदारवादी दर्शन के सहायक बन गए। समकालीन शासक वर्ग के दर्शन की समस्या पूंजी के नवउदारवादी मूल्यों का पोंगापंथ के साथ संश्लेषण है तथा उसके वैकल्पिक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन की समस्या उपरोक्त संश्लेषण को बेनकाब कर उसके विरुद्ध नई जनवादी वैज्ञानिक चेतना का निर्माण यानि नवउदारवादी युग चेतना से निर्मित सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है। यानि दर्शन को दुनिया की यथास्थितिवादी व्याख्या तथा यथास्थिति के औचित्य की स्थापना के साधन से दुनिया की वैज्ञानिक व्याख्या तथा जनपक्षीय परिवर्तन के साधन में बदलना है, जिसकी पूर्व शर्त है नस्ल, धर्म, जाति, Ethnicity, लिंग आधारित मिथ्या चेतनाओं से मोहभंग है।


जैसा मैंने कहा कि ऐतिहासिक रूप से मुख्यधारा के दर्शन का मकसद यथास्थिति की वर्चस्वशाली वर्गों के हितों के अनुकूल व्याख्या तथा बौद्धिक औचित्य प्रदान करना रहा है तथा उसकी वैकल्पिक व्यवस्था के दर्शन का उद्देश्य भी वही (व्याख्या तथा औचित्य) होता है। जीवन जगत को संपूर्णता के लिए जरूरी है कि संपूर्णता को नस्ल, लिंग, धर्म आदि कृत्रिम आधारों खंडित करने वाली मान्यताओं का निषेध हो। विभक्त दुनिया में दृष्टिकोण भी विभक्त होंगे, क्योंकि व्यक्तित्व विभक्त होता है। अपने दृष्टिकोण और परिप्रक्ष्य के निर्धारण में यदि हमअपने स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह दे सकें तो एकांगी दृष्टि से बच सकते हैं। मसलन, पितृसत्तात्मक (मर्दवादी) समाज में पुरुष होने की, वर्णाश्रमी समाज में ब्राह्मण होने की प्रिविलेजेज को त्याग कर समताभाव से परिघटनाओं पर विचार करें तो एकांगी दृष्टि से बच कर समष्टिमूलक दृष्टि विकसित कर सकते हैं। पुरुष होने के नाते प्राप्त विशेषाधिकारों को त्यागने का मतलब पुरुष विरोधी होना नहीं है।

Sunday, June 13, 2021

बेतरतीब 104 (कैंपस का घर)

 जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर प्रवीण झा और उनकी पत्नी स्मिता गुप्ता जेएनयू के हमारे सहपाठी रहे हैं। आज फेसबुक पर स्मिता ने अपने जेएनयू आवास के बगीचे से चीकू के फलों की टोकरी की तस्वीर शेयर किया। तो मुझे नौकरी से रिटायर होने के साथ छूट चुके दिवि में हिंदू कॉलेज कैंपस के अपने घर के बगीचे की याद आ गयी जिसमें मेरे लगाए चीकू पर पास के रिज के बंदरों की फौज फलों के बड़े होने-पकने तक बचने ही नहीं देती थी। मैं कैंपस के घर के अनुभवों के संस्मरणों पर, समय मिलने पर, कभी एक श्रृंखला लिखूंगा, जिसकी शुरुआत हॉस्टल के वार्डन के तीन साल के कार्यकाल से शुरू हुई। वे तीन साल मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत दिन थे। मैं विरले शिक्षकों में होऊंगा जो कहे कि हॉस्टल के वार्डन के कार्यकाल का उसने जमकर आनंद लिया हो। I thoroughly enjoyed my tenure as hostel warden. हॉस्टल के मेरे छात्र भी उन तीन सालों को बहुत प्यार और सिद्दत से याद करते हैं। उनमें से ज्यादातर मेरी फेसबुक लिस्ट में भी हैं। वे मेरे उतने ही अजीज हैं, जितने क्लास के मेरे छात्र। हर रोज 2-4 से फोन पर बात हो जाती है, कई बार ग्रुप में। उस आवास के बगीचे में एक जामुन दो आम, 2 कटहल और एक नीबू के पेड़ पहले से थे, मैंने एक आड़ू, एक आंवला, एक अनार, एक बेल, एक नीबू समेत 15 पेड़ लगवाए थे, मेरे बाद वाले वार्डन ने उनमें से कई पेड़ खत्म हो जाने दिए। बाद में जिस घर में आए उसमें 2 आम के विशाल पेड़ पहले से थे। मैंने एक चीकू, एक अनार, 2 आंवला, दो नीबू, एक हरसिंगार, एक आम्रपाली समेत लगभग 10 पेड़ लगाए। पहली बार जब नीबू और अनारके फल आने लगे तो रोज सुबह मैं गिनता था। अनार कितने बड़े होते हमें पता नहीं लगा, क्योंकि गिलहरिया छोटे से ही खाना शुरू कर देती थीं। लेकिन समझदार थीं, एक अनार खत्म करके ही दूसरी पर जुटती थीं। नीबू न बंदर खाते थे न गिलहरी। एक कलमी नीबू था, पतले छिलके का लगभग नारंगी जितना बड़ा होता है, दूसरा लंबाकार, गंधराज जिसे बंगाली और असमी भात के साथ विशेष स्वाद से खाते थे। उसमें से मैं अपने बंगाली तथा असमी मित्रों और छात्रों आमंत्रित करके देता था और बच्चे पेड़ से तोड़कर आह्लादित होते थे। भूमिका लंबी हो गयी, चीकू की तस्वीर की स्मिता की पोस्ट पर निम्न कमेंट लिखा गया:


मैंने भी हिंदू कॉलेज के कैंपस के अपने घर के कंपाउंड में चीकू का पेड़ लगाया था, फल लगते तो बहुत थे लेकिन रिज के असंख्य बंदर बतिया ही तोड़कर गिरा देते थे। बढ़ने देते तो वे भी खाते और हम भी। लेकिन दिमाग इतना विकसित हो गया होता तो बंदर हीरह जाते। एक बार पकने तक 3 चीकू बचे थे एक-एक बेटियों को मिला और आधा-आधा सरोज जी को और मुझे। उसके बाद हर साल 4-5 बच जाते। 2019 में घर में रहने के आखिरी साल 10-12 बचे रह गए छात्रों के साथ बांट कर खाया। दो पुराने आम के पेड़ थे तथा मेरे लगाए 2 नीबू, 2 आंवला और एक अनार कई चाइना ऑरेंज। जबतक कैंपस में रहे कभी नींबू नहीं खरीदा आगंतुकों को जबरन नींबू का उपहार देते। आम हम किसी को तोड़ने नहीं देते थे, बंदर, तोते, गिलहरी के खाने से बचकर जो गिरते हम आंचार-खटाई बनाते और बांटते तथा बाल्टी में धोकर चूसते हुए गांव में देशी आम के सामूहिक भोज की याद में नस्टेल्जियाते। एक बार जब हॉस्टल में वार्डन थे तो मेरे एक जन्मदिन (26 जून) पर जो मुझे याद नहीं था, बच्चे और पत्नी गांव गए थे, आधी रात को कुछ स्टूडेंट्स केक वगैरह लेकर आ गए। अब इतनी रात को उन्हें क्या खिलाते तभी याद आया कि कर्मचारियों ने एक टोकरी आम बीन कर रख दिया था। रिटायर होने का सबसे अधिक कष्ट कैंपस का घर छूटने का ही है।

Saturday, June 12, 2021

लल्ला पुराण 391 (वाम)

 कुछ लोगों को बात-बेबात और हर बात पर वाम का दौरा पड़ता रहता है। इनके लाभार्थ मैंने कई बार 'वाम क्या है' पर विमर्श के लिए पोस्ट शेयर किया। लेकिन दौरे से पीड़ित या तो विमर्श से दूर रहे या कुछ ऊल-जलूल निरर्थक कमेंट के विषयांतर से विमर्श विकृत करने का प्रयास किए। एक बार थोड़ा सार्थक विमर्श चला जिसके कुढ हिस्से अध्ययनशील, युवा मित्र Raj K Mishra ने अपने ब्लॉग में संकलित किया। इनके ब्लॉग से लिंक कॉपी कर, उस विमर्श को फिर से जारी रखने के लिए यहां शेयर कर रहा हूं।

विमर्श की शुरुआत मैं ग्रुप में सावित्री बट पूजा के बहाने संस्कृति के नाम पर प्रथा की पक्षधरता पर विमर्श के संदर्भ में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान वाम शब्द की उत्पत्ति के व्यापक अर्थ में इस बात से करता हूं कि प्रथा के यथास्थितिवाद के समर्थक दक्षिणपंथी हैं तथा उसकी आलोचनात्मक समीक्षा के पक्षधर वामपंथी। गौरतलब है जब सती प्रथा और बालविवाह जैसी कुरीतियों के विरुद्ध कानन बने थे तो उनका भी विरोध संस्कृति और परंपरा के नाम पर हुआ था। आज मुझे नहीं लगता कोई भी सती प्रथा या बालविवाह का समर्थन करेगा। स्व और स्व के इतिहास दोनों ही अर्थों में विकास के लिए आलाचनात्मक, आत्मावलोकन आवश्यक है। पुरातन का मोह हमें यथास्थिति के पक्ष में तर्क-कुतर्क गढ़ने को प्रेरित/बाध्य करता है। जी हां, पतियों के लिए पत्नियों के व्रत के पर्वों की पितृसत्तात्मक संस्कृति की पक्षधरता दक्षिणपंथ है और उनकी आलोचनात्मक समीक्षा वामपंथ।

लल्ला पुराण 390 (मर्दवाद)

 मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि विचारधारा है, जो उत्पीड़क (प्रभुत्वशाली) तथा पीड़ित (अधीनस्थ) दोनों को प्रभावित करती है, जो एक खास निर्मिति (construct) को हमारे दिलो-दिमाग में स्वाभाविक तथा अंतिम सत्य के रूप में प्रत्यारोपित कर देती है। यह स्वाभाविक सांस्कृतिक रूप से थोपा अस्वाभाविक होता है। पतियों के लिए स्वैच्छिक त्याग दरअसल सांस्कृतिक वर्चस्व का परिणाम है। मर्दवादी होने के लिए मर्द होना जरूरी नहीं है, उसी तरह जैसे स्त्रीवादी होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है।

हमारी पीढ़ी की तमाम स्त्री प्रोफेसनल फुल टाइम प्रोफेसनल होने के साथ फुल टाइम हाउस वाइफ (स्वेच्छा से) भी हैं। आर्थिक परिवर्तन का असर राजनैतिक-कानूनी परिदृश्य पर तुरंत पड़ता है लेकिन सांस्कृतिक मूल्य हम अंतिम सत्य के रूप में, व्यक्तित्व के अभिन्न अंग की तरह आत्मसात कर लेते हैं, इसलिए आर्थिक परिवर्तन का असर उनपर धीमी गति से पड़ता है। गांवों में जहां स्त्री ग्राम प्रधान हैं वहां कई मामलों में प्रधान पति होते हैं जो धीरे धीरे विलुप्त हो रहे हैं। इस तरह की परिघटनाओं की व्याख्या के लिए एंतोनियो ग्राम्सी ने सांस्कृतिक वर्चस्व का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। सादर ।

शिक्षा और ज्ञान 313 (वट सावित्री पूजा)

 एक सज्जन ने वट सावित्री पर्व में पतियों की दीर्घायु के लिए पत्नियों के व्रत के औचित्य में लिखा कि किस तरह पति सत्यवान को दिल का दौरा पड़ने पर पत्नी सावित्री ने उनके सीने पर माथा पटक पटक कर "वैज्ञानिक" तरीके से उनकी जान बचाई थी तथा यह पर्व किस तरह पर्यावरण के संरक्षण का पर्व है। सभी किस्म के धार्मिक अपनी धार्मिक प्रथाओं तथा रीतियों और आस्थाओं को वैज्ञानिक प्रमाणित करने की नाकाम कोशिस करके विज्ञान की श्रेष्ठता प्रमाणित करते हैं। उस पर:


सांस्कृतिक वर्चस्व, वर्चस्वशाली वर्ग के बुद्धिजीवी तैयार करते हैं, उन मूल्यों की पुष्टि के लिए साहित्य रचते हैं। प्राचीन यूनानी बुद्धिजीवी अरस्तू ने उस समय के यूनानी सामाजिक मूल्यों की रक्षा में गुलामी और स्त्री की अधीनस्थता के सिद्धांत गढ़ने के लिए उस तरह के दृष्टांत रचे क्योंकि उसे अपने समकालीन यूनानी यथास्थिति का औचित्य साबित करना था। उसके गुरु प्लेटो ने स्त्रियों में प्रतिभा की संभावनाओं का आविष्कार किया और अपने कालजयी ग्रंथ रिपब्लिक में उनकी शिक्षा एवं शासन के अधिकार का सिद्धांत दिया तो उनपर कुपित हो गए कि स्त्रियों को गुलाम बनाने की पुरुषों की ऐतिहासिक उपलब्धि को उन्होंने कलम के एक झोंके में गंवा दिया। अरस्तू ने दास-श्रम पर पल्लवित यूनानी मर्दवादी समाज में दासता के औचित्य के ही नहीं, स्त्रियों के दोयम दर्जे के औचित्य के भी सिद्धांत गढ़े। हर लेखन सोद्देश्य होता है, मैं कुछ भी निरुद्देश्य नहीं लिखता, न ही आप लोग। मुझे पतियों के लिए पत्नियों के एकतरफा व्रत के त्योहार में विषमता दिखती है, इंगित करता हूं, जिन लोगों को यथास्थिति की हर बात उचित ही लगती है, वे उसका महिमा मंडन करते हैं। हमारी कोई खेत-मेड़ की लड़ाई नहीं है, विचारों की असमति का द्वंद्व है और प्रकृति तथा ब्रह्मांड ही द्वंद्वात्मक हैं। प्राचीन यूनान या तमाम अन्य समाजों की ही तरह हमारा समाज भी पितृसत्तात्मक (मर्दवादी) समाज रहा है तथा सामाजिक मूल्यों के बौद्धिक एवं दार्शनिक औचित्य के लिए पुराण और शास्त्र रचे जाते रहे हैं। सावित्री या सीता की पतिव्रतत्व की पौराणिक कहानियां तथा तदनुसार व्रतों एवं पर्वों की प्रथाएं इसी तरह के सांस्कृतिक वर्चस्व की परियोजना के हिस्से हैं। पति द्वारा पत्नी के लिए यमराज से लड़ने या पर-स्त्री से संपर्क के संदेह में घर या देश से निष्कासन की कोई पौराणिक कहानियां नहीं मिलतीं, क्योंकि पत्नीव्रता का नहीं बहुपत्नी प्रथा के सामाजिक मूल्य रहे हैं। ये बातें किसी की भावनाओं को आहत करने के लिए नहीं लिखा हूं, फिर भी किसी की भावना आहत हुई हो तो क्षमाप्रथना। सादर।

Friday, June 11, 2021

लल्ला पुराण 389 (आरक्षण)

 आर7म क्रांतिकारी नहीं, सुधारवादी कदम है। लाभ उटाने वाले नवशोषक नहीं, शोषित ही हैं। फर्क बहुत पड़ा है। हमारे समय में छात्रों में असवर्ण छात्रों की संख्या नगण्य थी, बाहुबलियों की गिरोबबाजी ब्राह्मण-राजपूत लाइन पर थी। शिक्षकों में असवर्ण प्रतिशत लगभग नहीं के बराबर था और गिरोहबाजी कायस्थ-ब्राह्मण लॉबी में थी. प्रोफेसरों में इस तरह की जातिवादी गिरोहबाजी देखकर कल्चरल शॉक लगा था। आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है। असवर्ण लड़के-लड़कियां छात्रसंघ का चुनाव भी जीतने लगे हैं। बाहुबलियों का समीकरण भी बदल गया है। यथास्थिति को जब भी धक्का लगता है, हलचल मचती है ही है। दिल्ली में 1990 में कैंपसों की संरचना आज जैसी होती तो मंडल विरोधी उंमाद एकतरफा नहीं होताब बल्कि बराबर का मुकाबला होता। इस परिवर्तन में दलित (बहुजन) प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के अलावा आरक्षण की भी भूमिका है। मंडल विरोधी उंमाद में मिश्र होकर मंडलविरोध के साथ मेरे न होने से मेरे शिक्षक मित्रों और छात्रों को कल्चरल शॉक लगा था। नौकरी में भी दिक्कतें आयी थीं।उस मसय के अनभवों से प्रेरित होकर मेरिट पर नवभारत टाइम्स में 3े लेख लिखे थे, उनका अभी मिलना तो मुश्किल है, लेकिन उस समय के अनुभव याद करने की कोशिस करूंगा।

नारी विमर्श 17 (पर्व)

 प्रकृति संरक्षण की सावित्री वट पूजा जैसे सारे पर्व पति के लिए पत्नी के व्रत वाले ही क्यों हैं? पत्नी के लिए पति के व्रत के किसी व्रत की कोई परंपरा क्यों नहीं है? मर्दवाद (लिंग आधारित भेदभाव) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि एक विचाराधारा है जो हमारे नित्य-प्रति के क्रिया-कलापों, पर्व-त्योहारों एवं विमर्श में निर्मित-पुनर्निर्मित एवं पुष्ट होती है। विचारधारा उत्पीड़क और पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। केवल पुरुष को ही नहीं लगता कि रसाई संभालने, बच्चे पालने और पति की देखभाल का दायित्व स्त्री का होता है, स्त्री को भी ऐसा ही लगता है। बेटा के संबोधन को बेटी भी साबाशी के रूप में ही लेती है।

लल्ला पुराण 388 ( पर्व और पुरुषवाद)

 पतियों के लिए पत्नियों के व्रत के पर्वों की एक पोस्ट पर, बनस्पतिविज्ञान में शोध छात्र, एक युवा मित्र ने इसके लिए स्त्रियों के स्वभाव एवं स्वैच्छिकता का तर्क दिया। स्वैच्छिकता स्वाभाविक नहीं, सांस्कृतिक वर्चस्व के तंत्रों द्वारा कृतिम रूप से निर्मित होती है। उस पर:


लैंगिक असमानता की इस तरह की सोच सदियों से प्रत्यारोपित की जाती है। आप तो जीवविज्ञान की छात्र हैं और जानना चाहिए कि वैचारिकी का निर्धारण लैंगिक विभिन्नता से सामाजीकरण और सामाजिक प्रश्रिक्षण से निर्धारित होता है। पैदा होते ही लड़के-लड़की में असमानता की प्रवृत्तियों की घुट्टी पिलाई जाती है जिसे हम अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेते हैं। बच्चे पालने में स्तनपान के अलावा कौन सा काम पिता नहीं कर सकता? लेकिन हम कहते हैं कि बच्चे मां ही पाल सकती हैं। मेरा छोटी बेटी जब बहुत छोटी थी और मां के साथ कभी नों-झोंक होती तो तंज करती कि आपने मेरा क्या किया है, सबकुछ डैडी ने किया है। उसकी दूध की जरूरत ज्यादातर बोतल के दूध से पूरी होती थी। मदर डेयरी के दूध की आदत के बाद गांव गयी तो गाय का शुद्ध दूध उसे रास ही नहीं आता था। खैर उसके तंज में अतिशयोक्ति थी, उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी में उसकी मां की भूमिका अधिक थी और है, प्यार की गहनता भी उनके साथ ज्यादा है।

एक अन्य युवा मित्र ने कहा कि पति व्रत रखते तो युद्ध या शिकार करने, पैसा कमाने कौन जाता? , उस पर :

लैंगिक श्रमविभाजन एक मर्दवादी परियोजना ही थी, प्राचीनकाल में उत्तवैदिक गणतंत्रों में तथा बहुत से आदिवासी समुदायों में स्त्रियां भी पुरुषों के साथ युद्ध एवं शिकार में भाग लेती थीं। आज तो सेना समेत कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें स्त्रियां पुरुषों से किसी मायने में पीछे हों।

Wednesday, June 9, 2021

मार्क्सवाद 246 (ऐतिहासिक भौतिकवाद)

 एक मित्र ने समता और सामूहिकता पर तंज किया कि उसका इंतजार तो 1848 (कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो लिखे जाने का वर्ष) से ही हो रहा है। ऐसा उन्होंने अल्पज्ञता के चलते किया क्योंकि समता-स्वतंत्रता-सामूहिकता के अभियान का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना वर्गीय असमानता तथा वर्ग वर्चस्व का है। प्राचीन यूनान में जहां एक तरफ प्लेटो और अरस्तू जैसे असमानता और दासता के पैरोकार थे तो दूसरी तरफ डेमोक्रेटस, स्टोइक्स और इपिक्यूरियस जैसे स्वतंत्रता, समानता और सामूहिकता के भी पैरोकार थे। प्रचीन भारत में जहां एक तरफ वर्णाश्रमी वर्चस्व के पैरोकार थे तो दूसरी तरफ चारवाक और बुद्ध जैसे समानता और सामूहिकता के पैरोकार थे। उनके तंज पर मेरी प्रतिक्रिया:


क्रांति कोई सत्य नारायण की कथा नहीं है कि घंटे भर में पंडित जी समापन कर स्वाहा बोल देंगे। हजारों साल की सामंती उत्पादन पद्धति (भारत के मामले में वर्णाश्रमी या एसियाटिक उत्पादन पद्धति) के बाद 500 साल पहले समानता, स्वतंत्रता, भाईचारे के नारे और सबकी समृद्धि के नारे के साथ पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का संक्रमणकाल शुरू हुआ जो अभी भी अधूरा है क्योंकि संभावनाएं शेष हैं। अधिकतम मुनाफा के सिद्धांत पर आधारित पूंजीवाद भी अपने पूर्ववर्ती वर्ग व्यवस्थाओं की तरह, इस मामले में, दोगली व्यवस्था है कि यह जो कहती है, कभी नहीं करती और जो करती है कभी नहीं कहती। इसने सामंतवाद से निपटने के लिए नारा तो समानता, स्वतंत्रता, भाई चारे का दिया लेकिन असमानता, श्रमशक्ति बेचने की गुलामी (वेज स्लेवरी) तथा शोषण दमन मुनाफा कमाने के इसके मौलिक सिद्धांत में ही अंतर्निहित है। 500 सालों में भी अभी तक सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीवादी क्रांति अधूरी ही है, भारत में तो पूंजीवाद ने वर्णाश्रमी सामंतवाद से लड़ने की बजाय इसका दामन थामकर अपना क्रोनी (सरकार की मदद से लूट) विकास कर रहा है। पूंजीवाद भूमंडलीय व्यवस्था है तथा उसका भविष्य का विकल्प भी भूमंडलीय ही होगा। छिटपुट-समाजवादी क्रांतियों का इतिहास तो अभी लगभग 100 साल ही पुराना है। सामंतवाद से पूंजीवाद का संक्रमण एक वर्ग समाज से दूसरे वर्ग समाज का संक्रमण है। पूंजीवाद से साम्यवाद का संक्रमण गुणात्मक रूप से भिन्न एक वर्ग समाज से वर्गविहीन समाज का संक्रमण है, जो जाहिर है ज्यादा जटिल होगा। लेकिन प्रकृति का द्वंद्वात्मक नियम है कि जिसका भा अस्तित्व है, उसका अंत निश्चित है तथा पूंजीवाद अपवाद नहीं है। इसका कोई टाइमटेबल नहीं तय किया जा सकता क्योंकि इतिहास की गति ज्योतिष की भविष्यवाणी से नहीं निर्धारित होती, वह (इतिहास)अपने गतिविज्ञान के नियम अपनी यात्रा में खुद विकसित करता है। निराश मत होइए, पूंजीवाद का अंत अवश्यंभावी है तथा भविष्य के समतामूलक समाज की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां खुद तैयार करेंगी। हमारा काम
भक्तिभाव से मुक्ति के इंसानियत के अभियान में अपना योगदान करते रहना है। सादर।

मार्क्सवाद 245 ( पुरातन की जगह नवीन)

 इतिहास गवाह है कि पुरातन व्यवस्था के खंडहरों पर नवीन का निर्माण होता है, जैसे दास प्रथा के खंडहर पर बना सामंती व्यवस्था का भवन लगभग 2000 साल बाद पूंझीवाद की आंधी में ढह गया जिसके खंडहरों पर खड़ा हुई पूंजीवाद की इमारत 500 साल पुरानी हो गयी है। यह ऐतिहासिक युगों की बाते हैं, जहां तक विध्वंसक लंपटों की बात है वे कुछ नया निर्माण करने में असमर्थ हैं इसलिए निर्मित को तोड़ते हैं वह कहीं भी निर्मित हो चाहे पुराने की जगह चाहे नई जगह। जो नया शहर नहीं बसा सकते वे पहले से बसे का नाम बदलकर रचनाशीलता का पाखंड करते हैं।

Sunday, June 6, 2021

लल्ला पुराम 387 (बाभन से इंसान)

 एक मित्र ने पश्चिम अफ्रीका के एक देश में किसी धर्मोंमादी इस्लामी आतंकवादी द्वारा अपने 100 हमवतन, हममजहब इंसाने की निर्मम हत्या की न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर का लिंक शेयर किया। उस पोस्ट पर इंसानों की अमूल्य जिंदगी की अपूरणीय क्षति पर नहीं सारा ध्यान कम्युनिस्टों के जेहादी समर्थन की गल्पकथाओं, सेकुलरों के तथाकथित दोहरे मानदंड और इंसानियत की मुहिम की निंदा के रोजमर्रा के रटे भजन पर है। उस पोस्ट पर मेरे कुछ कमेंट:

कोन लोग? जिनकी मर्शिया पढ़ते हैं उन्ही से हर बात पर कार्रवाई की उम्मीद में उन्हें गरियाते रहते हैं। आपको अपने से अधिक औरों की चिंता रहती है। मानवता विरोधी ऐसे नरपिशाच सब जगहों पर पाए जाते हैं, धर्मोंमाद हमेशा विनाशकारी ही होता है। इस ग्रुप में बात-बेबात वामपंथ के भजन के आधार पर कोई निष्कर्ष निकाले तो पाएगा कि देश की सबसे बड़ी ताकत वामपंथ है और सबसे अधिक खतरा मुसलमानों से है। नकारात्मकता से निकलिए। दूसरों के काम का लेखाजोखा की बजाय अपने काम देखिए।
इस तरह के धर्मोंमादी कुकृत्य की निंदा से अधिक चिंता लगता है लोगों को बाभन से इंसान बनने के संकट से है। चिंता मत करिए कोई भी जबरदस्ती किसीको इंसान नहीं बना सकता, जब तालिबानी जेहादी इंसान नहीं बन सकते तो आपलोग क्यों पीछे रहें? इस बात से किसी की दाढ़ी में तिनका महसूस हो तो उसीकी जिम्मेदारी है।
हम तो श्रीकृष्ण की तरह न तो त्रिकालदर्शी हैं, न महाभारत के संजय की तरह दिव्य दृष्टि रखते हैं। कोरोना काल की अतिरेक सावधानी से अखबार पढ़ने से भी स्लवैच्छिक रूप से वंचित हैं। आत्मीय जनों समेत तमाम लोगों के बारे त्रासद खबरों से मन इतना उद्वेलित है कि फेसबुक भी 10-12 घंटे बात खोलता हूं, तो हर खबर से भिज्ञ न हो पाना और फौरी प्रतिक्रिया न दे पाना मानवीय विवशता हो सकती है, अपराध नहीं। हर बात पर फैौरी प्रतिक्रिया न दे पाने को सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों को सेकुलरिज्म को निशाना बनाने औक समाज में फिरकापरस्ती की नफरत फैलाकर देश तोड़ने केे अपने कम्यूनल एजेंडे को आगे बढ़ाने का बहाना मिल जाता है। इस पोस्ट में आतंकवादियों द्वारा अपने 100 सहधर्मियों की हत्या की चिंता पर सरोकार तो घड़ियाली आंसू सा है, मुख्य एजेंडा इस बहाने इंसानियत की मुहिम को निशाना बनाना है। धर्मोंमादी पातकी सभी समुदायों में पाए जाते हैं, सबकी निंदा औरलविरोध होना चाहिए।
हम तो श्रीकृष्ण की तरह न तो त्रिकालदर्शी हैं, न महाभारत के संजय की तरह दिव्य दृष्टि रखते हैं। कोरोना काल की अतिरेक सावधानी से अखबार पढ़ने से भी स्लवैच्छिक रूप से वंचित हैं। आत्मीय जनों समेत तमाम लोगों के बारे त्रासद खबरों से मन इतना उद्वेलित है कि फेसबुक भी 10-12 घंटे बात खोलता हूं, तो हर खबर से भिज्ञ न हो पाना और फौरी प्रतिक्रिया न दे पाना मानवीय विवशता हो सकती है, अपराध नहीं। हर बात पर फैौरी प्रतिक्रिया न दे पाने को सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों को सेकुलरिज्म को निशाना बनाने औक समाज में फिरकापरस्ती की नफरत फैलाकर देश तोड़ने केे अपने कम्यूनल एजेंडे को आगे बढ़ाने का बहाना मिल जाता है। इस पोस्ट में आतंकवादियों द्वारा अपने 100 सहधर्मियों की हत्या की चिंता पर सरोकार तो घड़ियाली आंसू सा है, मुख्य एजेंडा इस बहाने इंसानियत की मुहिम को निशाना बनाना है। धर्मोंमादी पातकी सभी समुदायों में पाए जाते हैं, सबकी निंदा और विरोध होना चाहिए।

शिक्षा और ज्ञान 312 (तुलसी)

 बाल्मीकि का मकसद बौद्ध संस्कृति के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की बौद्धिक पुष्टि थी, तुलसी का उद्देश्य भक्ति आंदोलन के समतामूलक संदेश का खंडन-मंडन। भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रही हैं, तथा जैसा मार्क्स ने लिखा है शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं। शासक जातियों द्वारा तुलसी को सिर पर बैठाना तो स्वाभाविक है लेकिन शासित जातियां भी उन विचारों के प्रभामंडल से चकाचौॆध हैँ।

लल्ला पुराण 386 (बाभन से इंसान)

 निजी संपत्ति को चोरी और असमानता को मानवता पर मनुष्यनिर्मित अभिशाप मानने वाले 18वीं शताब्दी के दार्शनिक रूसो अपनी कालजयी कृति सोसल कॉनट्रैक्ट की शुरुआत इस वाक्य से करते हैं, "मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है और अपने को बेड़ियों में जकड़ा हुआ होता है"। इन बेड़ियों को तोड़ने के लिए, सामाजिक संविदा के जरिए वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता था, जिसमें लोग " उतने ही स्वतंत्र हों जितना पहले"। युगांतरकारी सपने भविष्य की पीढ़ियां पूरा करती हैं। उसी तरह हम सब पैदा समान इंसान होते हैं, पैदा होते ही समाज हम पर बाभन-ठाकुर-दलित का विभाजनकारी ठप्पा लगाता है, बाभन से इंसान बनने का मुहावरा एक ऐसे समाज के सपने का रूपक है जिसमें हम समाज के थोपे कृतिम ठप्पे से मुक्त होकर वापस इंसान बन सकें।


Saturday, June 5, 2021

लल्ला पुराण 385 (बाभन से इंसान)

 इस ग्रुप के कई जातिवादी सवर्ण मुझसे परेशान रहते हैं वे प्रत्यक्ष-परोक्ष बनाकर 'तमीजदार' भाषा में निजी आक्षेपों से मुझे निशाना बनाकर अपनी जातिवादी कुंठा निकालते हैं। परोक्ष रूप से मुझे निशाना बनाकर बाभन से इंसान बनने के मुहावरे की प्रतिक्रिया में एक सज्जन ने बाभन-ठाकुरों के लिए चुंगी पर अकादमी खोलने की एक पोस्ट डाला और उस पर कई कमेंट्स की भाषा की तमीज से इवि के शिक्षा के स्तर पर दुखद आश्चर्य हुआ। पोस्ट के लेखक का आभारी हूं कि तंज कसने की तर्ज पर ही सही, बाभन से इंसान बनने के मुहावरे को विमर्श का विषय बनाया। अंतिम सत्य नहीं होता, सापेक्ष सत्य वाद-विवाद-संवाद से ही अन्वेषित होता है। उस पोस्ट पर मेरा एक कमेंट:


वैसे पोस्ट का लेखक लगता है असाहित्यिक व्यक्ति है मुहावरे की भाषा नहीं समझता तथा उनकी शाब्दिक व्याख्या करता है। बाभन से इंसान बनना जातिवादी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर, सही मायने में एक शिक्षित व्यक्ति की तरह निखालिश विवेकशील इंसान बनने का मुहावरा है। बाभनों की ही तरह ठाकुरों, भूमिहारों, लालाओं, बनियों, अहिरों, कुर्मियों आदि को भी इंसान बनने की जरूरत है। जातिवादी भेदभाव का जवाबी जातिवाद भी इंसानियत के लिए समान रूप से घातक है। औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति का मकसद ज्ञान का प्रसार नहीं सरकारी नीतियों का बौद्धिक आधार और सरकारी मशीन के कल-पुर्जे तैयार करना था। विरासत में मिली औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति बिना किसी आमूल बदलाव के उसी उद्देश्य को आगे बढ़ा रही है, वस सरकार का स्वरूप बदल गया है, सार नहीं। शिक्षा संस्थानों में ज्ञान नहीं मिलता वहां छात्रों को व्यवस्था चलाने के लिए जरूरी सूचनाओं (information) और (skills) से लैश किया जाता है। ज्ञान के लिए अलग से प्रयास करना पड़ता है क्योंकि ज्ञान जो पढ़ाया जाता है, उससे नहीं, उस पर सवाल करने सो मिलता है, जिसके लिए स्वयं प्रयास करना पड़ता है। ज्यादा प्रयास करने वालों को जेएनयू, बीएचयू, हैदराबाद के विद्यार्थियों की तरह दमन झेलना पड़ता है। दमन झेलना भी ज्ञान-प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसा क्या ज्ञान जो हमें यह तक नहीं सिखा पाता कि व्यक्तित्व का निर्माण जन्म के संयोग के परिणाम स्वरूप जातीय प्रवृत्तियों से नहीं, समाजीकरण के परिणाम स्वरूप कर्मों और विचारों से होता है? मुहावरे की भाषा में जो हमें बाभन से इंसान नहीं बना पाता? सबसे अधिक अवैज्ञानिक सोच दुर्भाग्य से विज्ञान के विद्यार्थियों की होती है क्योंकि हम विज्ञान विज्ञान की तरह नहीं, दक्षता (skill) की तरह पढ़ाते हैं। मैं हॉस्टल का वार्डन था तो परीक्षा के दिन सुबह हनुमान जी का आशिर्वाद लेने जाते 15 बच्चों में 11-12 विज्ञान को होते और उनमें आधे भौतिकी के, जबकि भौतिकी बुनियादी विज्ञान (basic science) है जो किसी बात का संज्ञान नहीं लेता जिसमें भौतिकता न हो, जो करण-कारण ढांचे से बाहर हो, जो प्रमाणित न की जा सके। बाद में इसे एक लेख के रूप में विकसित करके शेयर करूंगा। अभी नहाकर, नाश्ता कर दवा खाकर, केंद्रीय विश्वविद्यालय तेजपुर (असम) के पीएचडी छात्रों को इसी से संबद्ध विषय 'अस्मिता विमर्श' पर एक ऑनलाइन लेक्चर देना है। लेकिन चिंता न करिए, इस पोस्ट और पर मुझे निशाना बनाते जातिवादी कुंठा से निकले निजी आक्षेप के पोस्ट्स-कमेंट्स की तरह के आक्षेपों को धैर्य की सीमा में झेलते हुए, इंसान बनाने का उपक्रम जारी रखूंगा। कुछ कमेंट्स पढ़कर इवि के स्तर पर आश्चर्य होता है, आप सबसे आग्रह है कि मुझे इस तरह के आश्चर्य से वंचित करें। सादर।

Friday, June 4, 2021

शिक्षा और ज्ञान 311 (संघी-मुसंघी)

संघी सांप्रदायिकता का मुस्लिम समतुल्य मुसंघी है। आपको किसी सेकुलर का यह नामकरण न पसंद हो तो कुछ और रख लीजिए, जैसे तालिबानी बजरंगी। वैसे मुसंघी से आपको क्या दिक्कत है? इसमें आप को संघी सांप्रदायिकता का अपमान नजर आता है या मुसंघी सांप्रदायिकता का सम्मान?

पहले तो आप अपने आप को स्पष्ट कीजिए कि आपको परेशानी
धर्मनिरपेक्षता से है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता से? यह भी (अपने आप से) स्पष्ट कीजिए कि आपका धर्मनिरपेक्षता की विकृति से है या संघी सांप्रदायिकता की आलोचनासे? तमाम सांप्रदायिक लोग अपने सांप्रदायिक चरित्र को छिपाने के लिए सेकुलरिज्म को टार्गेट करते हैं क्योंकि टार्गेट करने के लिए मुसलमान कम हो गए हैं। उनकी कुंठा यह है कि जब वे सांप्रदायिक बनने से नहीं बच सके तो और कोई कैसेबचान रह सकता है। अपना संघी सांप्रदायिक चरित्र छिपाने के लिए मुसंघी सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता की ओट मत लीजिए। हिम्मत कर कहिए कि इस्लामी सांप्रदायिकता को मुसंघी कहना आपको इसलिए खलता है कि आप संघी सांप्रदायिकता के पक्षधर हैं। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही पड़ेंगे। अंत में, मुक्तिबोध के ही शब्दों में आपकी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर? इसे अन्यथा न लें संस्कारगत और समाजीकरण से आत्मसात किए पूर्वाग्रहों से मुक्ति बहुत आसान नहीं है, लेकिन आसान काम तो कोई भी कर लेता है।

Raj K Mishra मेरी न तो कोई पार्टी है न ही पार्टीगत चेतना है, 32-33 साल पहले पार्टी लाइन को अमार्क्सवादी बताते हुए एक लंबा लेख लिखकर एक पार्टी छोड़ा था। भक्तिभाव हमेशा अधोगामी होता है चाहे वह दक्षिणपंथी हो या वामपंथी। पूर्वाग्रहों से मुक्ति निश्चित ही आसान नहीं है, लेकिन आसान काम तो कोई भी कर सकता है। इसके लिए दुर्लभ साहस के साथ सघन आत्मावलोकन, आत्मालोचना के साथ गहन एवं निरंतर आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। लेकिन सिद्धांतों को जीने (करनी कथनी में एका बैठाने) के लिए उठाया गया कष्ट सुखद होता है। जैसे यदि आप स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास रखते हैं तो किचेन में काम करने का कष्ट सुखद होता है। इसके लिए पत्नी को भी प्रथा के विपरीत सोचने की आदत डालना भी कष्टप्रद होता है। लेकिन मुक्तिबोध के शब्दों में अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही पड़ेंगे, तोड़ने ही पड़ेंगे हठ और मठ। किसी को झट से नहीं कह देता कि वह पूर्वाग्रहों से ऊपर नहीं उठ पाया, सोच-विचार कर कहता हूं। मंडलविरोधी उंमाद के दौरान, जातीय पूर्वाग्रह से उबरने के लिए स्व के स्वार्थबोध से ऊपर उठकर स्व के परमार्थबोध के तहत आरक्षण विरोध के विरोध के लिए सघन आत्मसंघर्ष करना पड़ा था। उसी विरोध के चलते अस्थाई नौकरी चली गयी थी। मेरे विभागाध्यक्ष ने कहा था, People don't express their opinions as long as they are temporary but probably, that's not in your personality. मैं तो चाहता हूं आप मेरी पॉलिटिक्स के दूध का दूध पानी का पानी कर दें, लेकिन दुर्भाग्य से आप इसका उल्टा करते हैं क्योंकि आपने unlearning का कष्ट उतनी सिद्दत से उठाया ही नहीं और पूर्वाग्रहों के वशीभूत काम करते हुए उनसे मुक्ति का मुगालता पालते रहे। मैं फन्ने कसाई का हमदर्द नहीं बनता लेकिन वीरेश्वर द्विवेदी के कुकर्मों के भंडाफोड़ में अपने सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के चलते आपको उससे मेरी हमदर्दी दिखती है। आम आदमी का (या आम हिंदू का) एकमात्र प्रवक्ता बनने वाले दुष्टों का पीछा करना ही चाहिए क्योंकि अपनी मुक्ति की लड़ाई आमआदमी (कामगर) वर्गचेतना से सैश हो खुद लड़ेगा, उसे किसी प्रवक्ता की जरूरत नहीं है। मेरा भी कमेंट लंबा हो गया पार्टनर, लेकिन मैं कभी आक्षेप नहीं लगाता, शिक्षक कर्म की आदत से मजबूर निर्ममता से विश्लेषण करता हूं।

कमेट लंबा हो गया तो बाकी अगले कमेंट बॉक्स में... 


15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी। 15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी। 15-16 साल की उम्र में बड़े बाबू (ताऊ) जी से लंबी बहस हो गयी थी और मेरी गुड ब्वाय की छवि एकाएक धराशायी हो गयी थी कि बड़ों से सवाल-जवाब करता हूं। लेकिन पते में कौन ठकुरई। दर असल विरासत में मिले जातीय, धार्मिक (सांप्रदायिक), वैचारिक पूर्वाग्रहों की जड़े मन-मष्तिष्तक में इतनी गहरी पैठी होती हैं कि उनसे मुक्ति के लिए, स्व के स्वार्थबोध को त्यागकर बहुत ही कष्टदायक आत्मसंघर्ष से स्व का परमार्थबोध कार्यरूप देना पड़ता है। इंटर में पढ़ता था तो मेरे पिताजी के एक कम्युनिस्ट मित्र थे निहायत ही बेहतरीन इंसान मैंने उनसे पूछा आप इतने अच्छे होकर भी कम्युनिस्ट क्यों हैं? उन्होंने प्रत्यक्ष दृष्टांत से बहुत तार्किक रूप से समझाया, जिस संस्मरण को लिखा हूं, कभी शेयर करूंगा, लेकिन मुझे लगा था कि मुझे बंहका रहे हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण से नास्तिकता और संघी प्रतिक्रियावादी से मार्क्सवाद की यात्राएं भी बहुत ही कठिन एवं साहसिक आत्मसंघर्ष की यात्राएं रही हैं। यदि स्व के स्वार्थबोध से मुक्त न हो सका होता तो मैं भी आरक्षण, साम्यवाद और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध विषवमन कर रही होता। लेकिन मैं रूसो से सहमत हूं कि वास्तविक सुख स्व के स्वार्थबोध (self's sense of self interest) पर स्व के परमार्थबोध ( self's sense of right or justice) को तरजीह देने में है। इतना कमेंट लिखते लिखते अभी हमारे एक सीनियर (इवि और जेएनयू) त्रिनेत्र जोशी जी का फोन आ गया तो यह कमेंट 40-41 साल पहले कही गयी उनकी एक बात से करता हूं। जेएनयू पुराने कैंपस की कैंटीन में मेरे बारे में कुछ बात हो रही थी, त्रिनेत्र भाई ने कहा, 'दर असल ईश ने सत्यम् ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात् .....' वाले श्लोक की पहली लाइन पढ़ा और दूसरी नहीं। तब ध्यान आया था कि अप्रिय सत्य (जाहिर है सापेक्षता सिद्धांत के साथ) बोलने की बचपन से आदत थी।