Saturday, March 16, 2024

शिक्षा और ज्ञान 349 (सांप्रदायिकता)

 सावरकर की ही तरह जिन्ना भी धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। मैं इलाहाबाद के अपने शुरुआती दिनों में नास्तिक होने के बावजूद एबीवीपी में था। कोई पूछता है तो कहता हूं, मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। जिन्ना और सावरकर जैसे चतुर-चालाक लोग लोगों की धार्मिक भावनाओं को उद्गारित कर उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। धार्मिक लोग धर्मोंमाद में आसानी से उल्लू बन जाते हैं।

बेतरतीब 175 (लेखन)

 इलाहाबाद में कुछ तुकबंदियां करता था लेकिन विज्ञान का छात्र था, सोचता था कि लेखक किसी और ग्रह से आते होंगे। दिल्ली आने के बाद कुछ कहानियां लिखने की कोशिश की, आपराधिक रूप से बुरे संरक्षणबोध के चलते इधर-उधर हो गयीं। 1983 में, आत्मविश्वास की कमी के चलते जनसत्ता में एक लेख छद्म नाम से लिखा, छपने के बाद लोगों की प्रशंसा से लेखकीय आत्मविश्वास की अनुभूति शुरू हुई। 1973 में घर से पैसा लेना बंद किया तो गणित के ट्यूसन से आजीविका चलाने लगा। 1985 में डीपीएस में पढ़ाना छोड़ने के बाद भूखों-मरने की नौबत आने तक गणित से आजीविका न कमाने का गलत निर्णय लिया तथा कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा तथा कई संयोगों के टकराव के चलते 1995 में हिंदू कॉलेज (दिल्ली विवि) में नौकरी मिलने के बाद पूरक आय के लिए। ज्यादातर लेखन असंरक्षित रहने के चलते इधर-उधर हो गया।

Friday, March 15, 2024

बेतरतीब 174 (पारंपरिक सामूहिकता)

 मित्र Ranjan Sharma ने पुराने समय में बिना टेंट हाउस, डीजे और कैटरिंग व्यवस्था से पारस्परिक सहयोग और सहकीरिता-सामूहिकता से शादी-व्याह संपन्न होने की एक पस्ट शेयर किया, उसपर मेरा कमेंट:


मेरी शादी और उसके बाद तक ऐसा ही होता था। एक बात आप भूल गए, शादी तीन दिन की होती थी, पहले दिन द्वारपूजा और विवाह की रश््में तथा कोहबर। दूसरे दिन बहार होता, दोपहर भोजन के बाद महफिल सजती, नौटंकी या पतुरिया या कथक का नाच होता। महफिल के बाद मा़व में खिचड़ी की रश्म होती जिसमें दहेज के सामान (घड़ी, साइकिल, कलम, रेडियोआदि और बर्तन) सजाए जाते। लड़का खिचड़ी छूने के लिए नखरे करता फिर कोई चाचा/मामा या ऐसे कोई बड़ा आकर लड़के को इशारा करता तब लड़का खिचड़ी छूता और जयनाद होती, बंदूक से हवा में गली दागी जाती। तब दूल्हा, उसके मित्र, सहबाला और छोटे भाई आदि मिठाई आदि खाकर वापस बारात में जाते। अगले दिन नाश्ते के बाद बारात विदा होती थी। ववाह में दोनों पक्षों में विवाद की स्थिति से निपटने के लिए बारात में बैल गाड़ी पर एक दिन के भोजन की सामग्री तथा लाठी-भाला भी जाता था । मेरी शादी पर खिचड़ी पर एक अजीब बात हुई थी जिसके बारे में फिर कभी।

बेतरीब 173 (संयुक्त परिवार)

 हम 9 भाई बहन (7 भाई 2 बहन) थे और बचपन में, गांव में संयुक्त परिवार में 4 चचेरे भाई-बहन, कुल 13 भाई बहन थे। बुआओं के बच्चे भी आतो रहते थे तो 18-20 हो जाते थे। लेकिन अब तो संयुक्त परिवार नाम को है, सब अपने अपने शहर में हैं। अब हम सगे-चचेरे मिलाकर 10भाई बहन हैं, मेरे छठें नंबर के भाई की 22 साल की उम्र में लखनऊ विवि में हत्या हो गयी थी, मुझसे छोटा 1996 में सड़क दुर्घटना में चल बसा और बड़े भाई पिछले दिसंबर में बीमारी से चले गए। मेरी 2 बेटियां हैं और एक नतिनी। उसी में खुश हैं।

Sunday, March 10, 2024

शिक्षा और ज्ञान 349 (बहुजन विमर्श)

 एक मित्र ने प्रकारांतर से सामाजिक न्याय की अवधारणा को अनैतिहासिक तथा मानवता विरोधी बताया, उस पर कमेंट:


बहुजन हिताय; बहुजन सुखाय की अवधारणा का प्रतिपादन प्राचीन काल में बुद्ध ने किया था। ऐतिहासिक रूप से हर युग में कामगर ही बहुजन रहा है। वर्णाश्रम व्यवस्था में शूद्र कामगर यानि बहुजन रहे हैं । वर्णाश्रम व्यवस्था के विचारकों ने कामगर वर्ग यानि शूद्र (बहुजन) समुदाय को श्रेणीबद्ध जातियों में बांट दिया जिसमें सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। इसी ढर्रे परपूंजीवाद ने बहुजन यानि कामगर वर्ग (भौतिक या बौद्धिक श्रम शक्ति बेचकर रोजी कमाने वाला) को श्रेणीबद्ध आर्थिक कोटियों में बांट दिया जिसमें सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। इस मामले में मार्क्सवाद बहुजन हिताय का दर्शन है। प्राचीन यूनान में प्लेटो ने सामाजिक न्याय का सिद्धांत प्रतिपादित किया लेकिन उसका सामाजिक न्याय बहुजन हिताय न होकर अभिजन हिताय है। आधुनिक काल में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में अफर्मेटिव ऐक्सन की अवधारणा प्रकारांतर से सामाजिक न्याय की ही अवधारणा है।

Saturday, March 2, 2024

बेतरतीब 172 (किताब)

 1983 में रस्टीकेट होने के बाद भी मैं जेएनयू में ही रहता था। मेरी बेटी डेढ़ साल की हो गयी तो 1985 में मैंने सरकारी कर्मचारियों की कॉलोनी, पुष्पविहार (साकेत) में सबलेटिंग पर एक फ्लैट ले लिया। खैर तभी डीपीएस की नौकरी से भी निकाल दिया गया और उस लड़ाई में फंस गया तथा बेटी के साथ रहने की योजना फिर टल गयी। यह भूमिका इसलिए कि रस्टिकेसन के चलते फेलोशिप तो बंद थी ही, नौकरी की आमदनी भी बंद थी। गीता पर लुकास की History and Class Consciousness का पेपर बैक संस्करण आया था ले लिया। एक दिन एक क्रांतिकारी कवि (अब दिवंगत) किसी नामी हस्ती से मिलने साकेत आए थे तो रात गुजारने मेरे फ्लैट पर आ गए। किताब देखकर बोले, 'तुम इसका क्या करोगे?' मुझे उनका सवाल अजीब लगा कि गरीबी में भी कोई अपेक्षाकृत मंहगी किताब पढ़ने के लिए ही खरीदेगा। मैंने कहा कि इंटेलेक्टुअल बनने का शौक है रोज एक एक पन्ने पआड़कर कुछ कुछ करता रहूंगा। खैर अगली सुबह जाते समय वे वह किताब छिपाकर लेते ही गए। कई बार मांगा लेकिन वे लौटाना टालते रहे।

Wednesday, February 28, 2024

बेतरतीब 171 (बहुजन विमर्श)

प्रमोद रंजन संपादित बहुजन सैद्धांतिकी की पोस्ट पर कमेंटः 

मैं तो बहुत पहले से बहुजन विमर्श को वर्गीय विमर्श के रूप में रेखांकित कर रहा हूं। हर ऐतिहासिक युग में श्रमजीवी ही बहुजन रहा है, भारत में जातिव्यवस्था की जटिलता ने इसे अतिरिक्त जटिल बना दिया है। श्रमविभाजन के साथ श्रमिक विभाजन का मुद्दा पैदा कर दिया है। विचारधारा के परिप्रक्ष्य से शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं। मार्क्सवाद श्रमजीवियों की मुक्ति को ही मानव मुक्ति मानता है, इसलिए मार्क्सवाद आधुनिकयुग की पहली व्यवस्थित सैद्धांतिकी है। यह बात अंबेडकर और मार्क्सवाद (फार्वर्ड प्रेस) लेख में मैंने रेखांकित करने का प्रयास किया है। अपने ब्लॉग में मैंने इसे भाग 1 के रूप में संरक्षित किया है, सोचा था इस पुस्तक के लिए आपसे किये वायदे का लेख भाग 2 होगा लेकिन बौद्धिक आवारागर्दी और अनुशासनहीनता के चलते अक्षम्य वायदा खिलाफी हो गयी और यह काम अनंतकाल के लिए टल गया। बहुजन विमर्श, जैसे कि खगेंद्र जी ने कहा है बहुजन की अवधारणा जातिवादी नहीं वर्गीय अवधारणा है तथा बुद्ध से लेकर मार्क्स तक इसके सैद्धांतिकी की निरंतरता देखी जा सकती है।

पूंजीवाद और भारतीय जाति-व्यवस्था में एक समानता है। दोनों में सबसे नीचे वाले को छोड़कर, हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल ही जाता है। पूंजीवाद में यह विभाजन आर्थिक है और जाति व्यवस्था में सामाजिक-सांस्कृतिक लेकिन सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक संरचनाएं आर्थिक संबंधों की ही बुनियाद पर टिकी होती हैं।