Monday, March 25, 2024

शिक्षा और ज्ञान 351 ( hypotheses और theory)

 hypotheses और theory के अंतःसंबंधों की एक पोस्ट पर एक कमेंटः


भौतिक/ जैविक/ प्राकृतिक/ सामाजिक/ मानसिक विज्ञान की पूर्वमान्यताएं (hypotheses) विशिष्ट क्षेत्र की विशिष्ट परिघटना की बारंबारता के इंद्रियबोध से प्राप्त अनुभव को दिमाग द्वारा विश्लेषण/ मनन के आधार पर बनती हैं, जो सत्यापित या स्थापित सिद्धांतों के आधार पर प्रमाणित होने के बाद सिद्धांत बन जाती हैं। जब तक सत्यापित/प्रमाणित नहीं हो पाते hypotheses hypotheses ही बने रहते हैं, सिद्धांत नहीं बनते।

उसी पोस्ट पर एक कमेंट का जवाबः

विचार निर्वात से नहीं, वे वस्तु के चेतन या अवचेतन इंद्रियबोध से ही आते हैं। न्यूटन के दिमाग में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज का विचार वस्तुओं के ऊर्ध्वाधर पतन के इंद्रियबोध से आया Write brothers के दिमाग में हवाईजहाज की तकनीक की खोज का विचार पंख वाले जीवों (पक्षियों) को उड़ते देखकर आया।

Sunday, March 24, 2024

मार्क्सवाद 299 (मेरठ केस)

 1920-30 के दशकों में मजदर नेताओं पर चले मेरठ-षड्यंत्र मुकदमें पर Dr. Bhagwan Prasad Sinha की एक ज्ञानवर्धक पोस्ट पर कमेंट:


अंग्रेजों के तत्कालीन दलाल और आज बिना अर्थ जाने राष्ट्रभक्ति की सनद बांटने वाले कम्युनिस्टों पर तमाम ऊलजलूल लांछन लगाते रहते हैं, कम्युनिस्ट पार्टी एक मात्र पार्टी है जिस पर पार्टी के रूप में, औपनिवेशिक शासन द्वारा दो-दो मुकदमे (कानपुर-मेरठ) चलाए गए, जिसके सदस्य, काला पानी समेत लंबे समय तक जेलों की यातनाएं सहे लेकिन टूटकर माफीवीर नहीं बने; एक मात्र पार्टी है जो औपनिवेशिक शासन में प्रतिबंधित रही। जब धर्म के नाम पर बरगलाए गए युवक, औपनिवेसिक आकाओं के आशिर्वाद से आरएसएस की शाखाओं में खुलेआम लट्ठ भांजते थे तब कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भूमिगत रहकर मजदूरों को संगठित कर रहे थे। मजदूरों की गजब की अंतरराष्ट्रीयता था, ब्रेडले और स्पार्ट (अंग्रेज कैदीियों ) ने औपनिवेशिक शासन के प्रलोभनों को ठुकराकर अपने हिंदुस्तान साथियों के साथ औपनिवेशिक जेलों के जुल्म को चुना। कानपुर और मेरठ केस के क्रांतिकारियों को सलाम। मजदूरों के अंतरराष्ट्रीय भाईचारे को सलाम।

Thursday, March 21, 2024

शिक्षा और ज्ञान 350 (प्लेटोनिक लव)

 Platonic Love का प्रयोग लोग प्रायः इसका मंतव्य बिना ही वासना या यौन-आकर्षण विहीन आध्यात्मिक संबेध के अर्थ में करते हैं। प्लेटो नैतिकतावादी है, शुद्धतावादी (puritan) नहीं। सेक्स अपने आप में बुराई नहीं है, बल्कि संतानोपत्ति के लिए आवश्यक और अपरिहार्य। लेकिन यदि इसके चलते व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए तो यह बुराई बन जाती है। इसीलिए वह अपने आदर्श राज्य में शासक वर्गों के बीच नियंत्रित और नियोजित सेक्स की व्यवस्था करता है। उसके आदर्श राज्य में सेक्स भावी शासक पैदा करने का एक टूल है। राज्य तय करता है कि कौन, कब, किस पवित्र अवसर पर किसके साथ सोएगा। दार्शनिक राजा लॉटरी में हेरा-फेरी से सुनिश्चत करता है कि योग्य पुरुष और योग्य स्त्री के बीच समागम अधिकतम हो और अयोग्यों के बीच न्यूनतम तथा सेक्स पार्टनर्स के बीच कोई भावनात्मक लगाव न हो। मां बच्चे को दूध पिलाने के अलावी उससे कोई भावनात्मक लगाव न रखे। राज्य नियंत्रित शिशुशालाओं में बच्चों का समुचित पालन-पोषण हो तथा व्यक्तिगत रूप से न कोई किसी का बेटा/बेटी होगा न कोई किसी का भाई-बहन। सब बच्चे आपस में भाई-बहन हैं और सभी प्रौढ़ उनके माता-पिता। इनसेस्ट संबंध रोकने का कोई उपाय नहीं बताया है। इस पर विस्तार से फिर कभी । राजनैतिक दर्शन के इतिहास में आदर्शवाद का प्रवर्तक प्लेटो वास्तविकता का सार पर्थिव (भौतिक) विश्व में नहीं विचारों की दुनिया में स्थापित करता है, सौंदर्य वस्तु की नहीं उसके विचार का होता है। वह कामदेव (इरोज) कभी शारीरिक संबंधों के अर्थ में करता है तो कभी शिव (good) की प्राप्ति की प्रबल उत्कंठा के रूप में करता है। वह भावना (emotion) या जूनून (passion ) को व्यक्तितव का निम्नतर तत्व मानता है तथा विवेक को श्रेष्ठतर इसलिए भावना या जुनून पर विवेक के सख्त नियंत्रण या दिल पर दिमाग के राज की हिमायत करता है। इंद्रियो द्वारा महसूस की जाने वाली वस्तु का सार वस्तु में नहीं उसके विचर में स्थापित करता है। इसलिए प्यार नहीं प्यार का विचार सत्य है। वह यह नहीं बताता कि प्यार (वस्तु) के बिना उसका विचार कैसे और कहां से आता है?

Saturday, March 16, 2024

शिक्षा और ज्ञान 349 (सांप्रदायिकता)

 सावरकर की ही तरह जिन्ना भी धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। मैं इलाहाबाद के अपने शुरुआती दिनों में नास्तिक होने के बावजूद एबीवीपी में था। कोई पूछता है तो कहता हूं, मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। जिन्ना और सावरकर जैसे चतुर-चालाक लोग लोगों की धार्मिक भावनाओं को उद्गारित कर उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। धार्मिक लोग धर्मोंमाद में आसानी से उल्लू बन जाते हैं।

बेतरतीब 175 (लेखन)

 इलाहाबाद में कुछ तुकबंदियां करता था लेकिन विज्ञान का छात्र था, सोचता था कि लेखक किसी और ग्रह से आते होंगे। दिल्ली आने के बाद कुछ कहानियां लिखने की कोशिश की, आपराधिक रूप से बुरे संरक्षणबोध के चलते इधर-उधर हो गयीं। 1983 में, आत्मविश्वास की कमी के चलते जनसत्ता में एक लेख छद्म नाम से लिखा, छपने के बाद लोगों की प्रशंसा से लेखकीय आत्मविश्वास की अनुभूति शुरू हुई। 1973 में घर से पैसा लेना बंद किया तो गणित के ट्यूसन से आजीविका चलाने लगा। 1985 में डीपीएस में पढ़ाना छोड़ने के बाद भूखों-मरने की नौबत आने तक गणित से आजीविका न कमाने का गलत निर्णय लिया तथा कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा तथा कई संयोगों के टकराव के चलते 1995 में हिंदू कॉलेज (दिल्ली विवि) में नौकरी मिलने के बाद पूरक आय के लिए। ज्यादातर लेखन असंरक्षित रहने के चलते इधर-उधर हो गया।

Friday, March 15, 2024

बेतरतीब 174 (पारंपरिक सामूहिकता)

 मित्र Ranjan Sharma ने पुराने समय में बिना टेंट हाउस, डीजे और कैटरिंग व्यवस्था से पारस्परिक सहयोग और सहकीरिता-सामूहिकता से शादी-व्याह संपन्न होने की एक पस्ट शेयर किया, उसपर मेरा कमेंट:


मेरी शादी और उसके बाद तक ऐसा ही होता था। एक बात आप भूल गए, शादी तीन दिन की होती थी, पहले दिन द्वारपूजा और विवाह की रश््में तथा कोहबर। दूसरे दिन बहार होता, दोपहर भोजन के बाद महफिल सजती, नौटंकी या पतुरिया या कथक का नाच होता। महफिल के बाद मा़व में खिचड़ी की रश्म होती जिसमें दहेज के सामान (घड़ी, साइकिल, कलम, रेडियोआदि और बर्तन) सजाए जाते। लड़का खिचड़ी छूने के लिए नखरे करता फिर कोई चाचा/मामा या ऐसे कोई बड़ा आकर लड़के को इशारा करता तब लड़का खिचड़ी छूता और जयनाद होती, बंदूक से हवा में गली दागी जाती। तब दूल्हा, उसके मित्र, सहबाला और छोटे भाई आदि मिठाई आदि खाकर वापस बारात में जाते। अगले दिन नाश्ते के बाद बारात विदा होती थी। ववाह में दोनों पक्षों में विवाद की स्थिति से निपटने के लिए बारात में बैल गाड़ी पर एक दिन के भोजन की सामग्री तथा लाठी-भाला भी जाता था । मेरी शादी पर खिचड़ी पर एक अजीब बात हुई थी जिसके बारे में फिर कभी।

बेतरीब 173 (संयुक्त परिवार)

 हम 9 भाई बहन (7 भाई 2 बहन) थे और बचपन में, गांव में संयुक्त परिवार में 4 चचेरे भाई-बहन, कुल 13 भाई बहन थे। बुआओं के बच्चे भी आतो रहते थे तो 18-20 हो जाते थे। लेकिन अब तो संयुक्त परिवार नाम को है, सब अपने अपने शहर में हैं। अब हम सगे-चचेरे मिलाकर 10भाई बहन हैं, मेरे छठें नंबर के भाई की 22 साल की उम्र में लखनऊ विवि में हत्या हो गयी थी, मुझसे छोटा 1996 में सड़क दुर्घटना में चल बसा और बड़े भाई पिछले दिसंबर में बीमारी से चले गए। मेरी 2 बेटियां हैं और एक नतिनी। उसी में खुश हैं।

Sunday, March 10, 2024

शिक्षा और ज्ञान 349 (बहुजन विमर्श)

 एक मित्र ने प्रकारांतर से सामाजिक न्याय की अवधारणा को अनैतिहासिक तथा मानवता विरोधी बताया, उस पर कमेंट:


बहुजन हिताय; बहुजन सुखाय की अवधारणा का प्रतिपादन प्राचीन काल में बुद्ध ने किया था। ऐतिहासिक रूप से हर युग में कामगर ही बहुजन रहा है। वर्णाश्रम व्यवस्था में शूद्र कामगर यानि बहुजन रहे हैं । वर्णाश्रम व्यवस्था के विचारकों ने कामगर वर्ग यानि शूद्र (बहुजन) समुदाय को श्रेणीबद्ध जातियों में बांट दिया जिसमें सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। इसी ढर्रे परपूंजीवाद ने बहुजन यानि कामगर वर्ग (भौतिक या बौद्धिक श्रम शक्ति बेचकर रोजी कमाने वाला) को श्रेणीबद्ध आर्थिक कोटियों में बांट दिया जिसमें सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। इस मामले में मार्क्सवाद बहुजन हिताय का दर्शन है। प्राचीन यूनान में प्लेटो ने सामाजिक न्याय का सिद्धांत प्रतिपादित किया लेकिन उसका सामाजिक न्याय बहुजन हिताय न होकर अभिजन हिताय है। आधुनिक काल में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में अफर्मेटिव ऐक्सन की अवधारणा प्रकारांतर से सामाजिक न्याय की ही अवधारणा है।

Saturday, March 2, 2024

बेतरतीब 172 (किताब)

 1983 में रस्टीकेट होने के बाद भी मैं जेएनयू में ही रहता था। मेरी बेटी डेढ़ साल की हो गयी तो 1985 में मैंने सरकारी कर्मचारियों की कॉलोनी, पुष्पविहार (साकेत) में सबलेटिंग पर एक फ्लैट ले लिया। खैर तभी डीपीएस की नौकरी से भी निकाल दिया गया और उस लड़ाई में फंस गया तथा बेटी के साथ रहने की योजना फिर टल गयी। यह भूमिका इसलिए कि रस्टिकेसन के चलते फेलोशिप तो बंद थी ही, नौकरी की आमदनी भी बंद थी। गीता पर लुकास की History and Class Consciousness का पेपर बैक संस्करण आया था ले लिया। एक दिन एक क्रांतिकारी कवि (अब दिवंगत) किसी नामी हस्ती से मिलने साकेत आए थे तो रात गुजारने मेरे फ्लैट पर आ गए। किताब देखकर बोले, 'तुम इसका क्या करोगे?' मुझे उनका सवाल अजीब लगा कि गरीबी में भी कोई अपेक्षाकृत मंहगी किताब पढ़ने के लिए ही खरीदेगा। मैंने कहा कि इंटेलेक्टुअल बनने का शौक है रोज एक एक पन्ने पआड़कर कुछ कुछ करता रहूंगा। खैर अगली सुबह जाते समय वे वह किताब छिपाकर लेते ही गए। कई बार मांगा लेकिन वे लौटाना टालते रहे।