Friday, March 24, 2023

बेतरतीब 141 (विद्यार्थी परिषद)

 शुभकामनाएं। सामाज के भौतिक विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर और स्वरूप होता है जो व्यक्तिगत चेतना का निर्धारण करता है। इन सामाजिक मूल्यों को हम वांछनीय अंतिम सत्य और स्वाभाविक मानकर आत्मसात कर लेते हैं। इन विरासती मूल्यों को हम संस्कार कहते हैं, जिन्हें हम बिना किसी चैतन्य इच्छा के जस-का तस ग्रहण कर लेते है (the values which we acquire without any conscious will)। सामाजिक चेतना के रूप में अनायास (बिना प्रयास) ग्रहण किए गए मूल्यों से मिथ्या चेतना का निर्माण होता है, जिन पर हम सवाल नहीं करते और आजीवन उसका शिकार बने रहते हैं।


शिक्षा संस्थान ज्ञान नहीं देते, ज्ञान जो पढ़ाया जाता है उससे नहीं प्राप्त होता बल्कि, उस पर सवाल करने से प्राप्त होता है।(knowledge does not emanate from what is taught but from questioning, what is taught) जिसे हमारे अभिभावक और शिक्षक प्रोत्साहित करने की बजाय हतोत्साहित करते हैं। आप सबको पूरे छात्र जीवन में एकाध ऐसे शिक्षक जरूर मिले होंगे जिन्होंने ज्यादा सवाल पूछने वाले छात्र को बोला होगा कि अपना दिमाग ज्यादा मत लगाओ। जबकि उसे कहना चाहिए लगातार हर बात पर निरंतर दिमाग लगाओ। क्योंकि ज्यादातर शिक्षक शिक्षक होने का महत्व नहीं समझते जब कोई नौकरी नहीं मिलती तो जुगाड़ से शिक्षक बन जाते हैं। इलाहाबाद विवि में मॉडर्न अल्जेब्रा के एक लोकप्रिय शिक्षक अक्सर कहा करते थे कि अभी ईश मिश्र ग्रुप (फील्ड या रिंग) का कोई अजूबा मॉडल पेश कर देंगे। उनकी लोकप्रियता का कारण परीक्षोपयोगी शिक्षण था। राजनीति में शोध के दौरान कुछ दिन गणित पढ़ाने में भी मैं प्रायः सामाजिक संबंधों से गणितीय संबंध तथा फंक्सन पढ़ाता था, जो बच्चे आसानी से समझ जाते थे (विस्तार में जाने की न गुंजाइश है न जरूरत या सार्थकता)। वैसे वे बहुत अच्छे इंसान थे जिनसे मेरे अच्छे नजी संबंध थे। अच्छा इंसान होना अच्छे शिक्षक की आवश्यक शर्त है किंतु पर्याप्त नहीं। केमिस्ट्री के एक शिक्षक सवालों से इतना घबराते थे कि उन्होंने अपना सेक्सन ही बदलवा लिया था। खैर कमेंट इतना लंबा होता जा रहा है कि लगता है एक कमेंट बॉक्स में अंटेगा नहीं।
मैं 1968 में दसवीं कक्षा में, 13 साल की उम्र में, जौनपुर में गोमती किनारे एक प्राइवेट हॉस्टल (कामता लाज) में रहते हुए एक सुपर सीनियर (बीए के छात्र) के प्रभाव में कबड्डी तथा खो खेलने नदी तट पर एक बगीचे में जाने लगा। शहर के बच्चों पर तरस भी आया कि उनका खेलों का भंडार इतना सीमित था! उनके अजीबो गरीब आचार (पहुंचते ही एक दूसरे से दुआ सलाम की बजाय झंडे के सामने छाती पर हाथ रखने का कर्मकांड आदि), न समझ में आने वाले संस्कृत में ड्रिल के कमांड तथा प्रर्थना असंबद्ध होने के बावजूद ब्राह्मणीय संस्कारों के अनुरूप। इसलिए अच्छे लगे। ड्रिल और वर्दी मुझे पसंद नहीं थे इसलिए मैंने निक्कर नहीं लिया र शाखा में जाना कम कर दिया लेकिन वैचारिक रूप से शाखामृग बना रहा। गोल्वल्कर को सुनने बनारस गया उनका पुरोहिती प्रवचन की तरह समझ नहीं आया फिर भी अच्छा लगा। बाद में (1986) सांप्रदायिकता पर एक शोध के लिए जब उनके छपे विचार पढ़े तब लगा कि 99% स्वयंसेवक उनके प्रति भक्तिभाव की आस्था के बावजूद उन्हें पढ़ते नहीं। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि कि इस ग्रुप के 99% शाखामृग न तो गोलवल्कर के छपे विचार पढ़े हैं न बुद्ध को मातृधर्म का गद्दार मानने वाले दीनदयाल उपाध्याय के। चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है और बदली चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन न्यूटन के नियम के अनुसार, अपने आप कुछ नहीं बदलता, भौतिक परिस्थितियां चैतन्य मानव प्रयास से बदलती हैं। अतः वास्तविक यथार्थ की संपूर्णता भौतिक परिस्थितियों और चेतना के द्वंद्वात्मक मिलन से बनता है। 1972 में इवि में आने पर शाखा तो कभी कभी ही जाता था लेकिन ब्राह्मणीय संस्कारों (मिथ्या चेतना) के प्रभाव में वैचारिक रूप से शाखामृग बना रहा। जब शाखा जाना शुरू किया तब तक जनेऊ से मुक्ति पा चुका था। ज्ञान की तलाश में सवाल करने की प्रवत्ति के चलते तंत्र-मंत्र, कर्मकांड, धार्मिक रीति-रिवाज आदि पर सवाल करते रहने के कारणनास्तिकता की यात्रा इवि में साल बीतते बीतते पूरी हो चुकी थी। इवि में 1972 में परिस्थितिजन्य कारणों से, छात्रसंघ के तत्कालीन महामंत्री (बाद के अध्यक्ष तथा 1991 में कल्याण मंत्रिपरिषद में मंत्री) ब्रजेश कुमार के प्रयास से विद्यार्थी परिषद का सदस्य ही नहीं पदाधिकारी बन गया। मैं धार्मिक नहीं था, लेकिन सांप्रदायिक था। तब यह भी नहीं जानता था कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिर विचारारा है। जारी।

पिछले कमेंट से आगे:

ऊपर मैं बता रहा था कि किस तरह विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर विकसित होता है। और यह कि मनुष्य की चेतना से उसकी भौतिक परिस्थियों का निर्धारण नहीं होता बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है, बदली हुई चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के सोचे-समझे, चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। कहने का मतलब कि मनुष्य सायास अपनी परिस्थितियां बदलता है और बदली परिस्थितियां उसकी चेतना बदलती हैं तथा यह द्वंद्वात्मक क्रिया निरंतर प्रक्रिया है। 1972 में ब्राह्मणीय संस्कारों तथा आरएसएसीय परिवेश के सामाजिककरण की परिस्थियों के परिणाम स्वरूप परिवर्तित चेतना (जिसे अब मिथ्याचेतना कहता हूं) के चलते छात्रसंघ के तत्कालीन महासचिव और भावी अध्यक्ष के प्रभाव में मैं विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया। शाखा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन चेतना में संघ की विचारधारा के अवशेष बचे थे जिससे मोहभंग के लिए नई परिस्थितियों का इंतजार था। विद्यार्थी परिषद में प्रवेश के संस्मरण पर दो शब्द जरूरी है। जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि मैं तब तक लगभग नास्तिक बन चुका था ।

पिछले कमेंट से आगे:
ऊपर मैं बता रहा था कि किस तरह विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर विकसित होता है। और यह कि मनुष्य की चेतना से उसकी भौतिक परिस्थियों का निर्धारण नहीं होता बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है, बदली हुई चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के सोचे-समझे, चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। कहने का मतलब कि मनुष्य सायास अपनी परिस्थितियां बदलता है और बदली परिस्थितियां उसकी चेतना बदलती हैं तथा यह द्वंद्वात्मक क्रिया निरंतर प्रक्रिया है। 1972 में ब्राह्मणीय संस्कारों तथा आरएसएसीय परिवेश के सामाजिककरण की परिस्थियों के परिणाम स्वरूप परिवर्तित चेतना (जिसे अब मिथ्याचेतना कहता हूं) के चलते छात्रसंघ के तत्कालीन महासचिव और भावी अध्यक्ष के प्रभाव में मैं विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया। शाखा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन चेतना में संघ की विचारधारा के अवशेष बचे थे जिससे मोहभंग के लिए नई परिस्थितियों का इंतजार था। विद्यार्थी परिषद में प्रवेश के संस्मरण पर दो शब्द जरूरी है। जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि मैं तब तक लगभग नास्तिक बन चुका था यानि धार्मिकता से मेरा मोह भंग हो चुका था लेकिन सांप्रदायिकता से नहीं। और यह कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है। समाजिककरण से बनी चेतना को हम अंतिम सत्य की तरह आत्मसात कर लेते हैं तथा उनपर तार्किक प्रश्न करने से कतराते हैं। समाजीकरण से निर्मित मेरी चेतना ने आरएसएस टाइप अपरिभाषित राष्ट्रवाद ्ंतिम सत्य के रूप में आत्मसात किया हुआ था, जिसे मैं उसी तरह नहीं परिभाषित कर सकता था जैसा इस ग्रुप में राष्ट्रभक्ति और गद्दारी की सनद बांटने वाले कुछ लोग। बाकी, सुबह, अभी साढ़े 9 ही बजे हैं लेकिन लगता है, बुढ़ापा आ ही गया है, दिमाग थका लग रहा है।

जारी

25.03.201

Wednesday, March 22, 2023

शिक्षा और ज्ञान 399 (हिटलर)

 ऐसा नहीं है कि नाज़ी जर्मनी में हिटलर के उभार के दौरान सबकी बुद्धि को लकवा मार गया था. वहां साहित्यकार भी थे, मीडिया भी था, साइंटिस्ट थे, प्रोफेसर थे लेकिन बावजूद इसके एक औसत आदमी सिर्फ प्रोपेगेंडा करते हुए उनका नेता बन गया. इसमें हिटलर का बोलने का हुनर जितना काम आया उतना ही निर्णायक शक्ति लिए बैठे वर्ग की चुप्पी काम आई. हिटलर को वॉक ओवर दिया गया.. सिर्फ इसलिए क्योंकि हर इंसान उसके उभार में अपना फायदा देख रहा था. जिन्हें फायदा ना था वो इसलिए ही मूक रहे क्योंकि विकल्प के नाम पर वही बूढ़े ओर करप्ट नेता चुने नहीं जा सकते थे. उस वक्त संविधान या इंसानियत पीछे छूट गए थे. अपने घरों में काम करनेवाले यहूदियों को सबने मौन होकर यातना शिविरों में जाते देखा. जो खिलाफ बोला वो गद्दार कहलाकर सड़कों पर पीटा गया क्योंकि हिटलर अब जर्मनी का पर्यायवाची बन गया था. हिटलर ने सपने दिखाकर अभियान छेड़े. लोगों ने भरोसा किया. हिटलर ने जर्मन सेना की विजय की झूठी कहानियां गढ़ीं लोग भरोसा करते रहे.. हिटलर ने खिलाफ बोलनेवालों को ईश्वरीय भय दिखाया और लोग मान गए. आखिर में बिन परिवार का हिटलर जर्मनी को ज़ख्मी छोड़ झोला उठाकर चल दिया, जनता के नहीं सोवियत सेना के डर से बंकर में छिपकर खुदकुशी करने.

बेतरतीब 140 (अनुशासन)

 6 साल पहले एक पोस्ट पर अपने एक स्टूडेंट के एक कमेंट का जवाब (कॉपी-पेस्ट)


गलत सही का कोई साश्वत नियम नहीं है. सत्य प्रमाण मांगता है. खास परिस्थिति में विवेक के इस्तेमाल से, तथ्य-तर्कों के आधार पर, सही गलत का निर्णय लिया जाता है, आस्था या सामाजिक आदत के आधार पर नहीं. कोई भी बात प्रमाणित होने तक असत्य है.

मैं, तुम जानते हो, किसी चीज को अकारण गलत सही नहीं कहता. मैं यह नहीं कहता क्लास में मत खड़े हो. कोई भी कर्म तभी सार्थक कर्म होता है जब वह सुवाचारित, सकारण हो. यदि तुम्हारे पास पुरुखों से रटा-रटाया नहीं अपना विवेक सम्मत औचित्य हो तो खड़े हो. मैं चरणस्पर्श को अभिवादन के आदान प्रदान का प्रतिक्रियावादी, सामंती तरीका मानता हूं. यह बड़े-छोटे; ऊंच-नीच के बीच अभिवादन मानता हूं और समानता के औचित्य ही नहीं उसके सुख पर भी जोर देता हूं. विधवा आश्रम की ही तरह, पैरों पर गिर कर या जमीन पर लंबलेट होकर, अभिवादन की पद्धति महज ब्रह्मण परंपरा में है क्योंकि इस परंपरा में लोग पैदा ही छोटे-बड़े होते हैं. चरणस्पर्श की नैतिकता विरासत में मिली नैतिकता है, विवेक से अर्जित नैतिकता नहीं है. और जानते ही हो विवेक ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है. पारंपरिक नैतिकता सर पर पुरखों की लाशों के बोझ की तरह होती है जिससे बहुत लोग इतना दब जाते हैं कि सीधे खड़े होने में असमर्थ हो जाते हैं. यह दार्शनिक नहीं एक वैज्ञानिक वक्तव्य है.

22.03.2017

Tuesday, March 21, 2023

मां-बाप की देखभाल

 ऐसे कुछ लोग हैं जो बुढ़ापे में मां-बाप का ख्याल नहीं रखते या उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। लेकिन सौभाग्य से ऐसे लोगों का अनुपात अधिक नहीं है। मेरी जानकारी में, अब भी मां-बाप की समुचित देखभाल करने वाली औलादों का ही बहुमत है। गांव से शहर आने वाीली पहली-दूसरी पीढ़ी के लोगों के मां-बाप को कई बार अपने परिवेश से कटकर शहर में बच्चों के पास रहना पड़ता है जो कि अपने आप में कष्टप्रद है। देखने में आता है कि मां-बाप के साथ दुर्व्यवहार करने वालों के बच्चे भी उनके बुढ़ापे में उनके साथ भी वैसा ही करते हैं। बच्चे तो बड़ों से ही सीखते हैं। मेरी दादी भी साथ रहती थीं, उनकी सबसे ज्यादा दोस्ती मेरी छोटी बेटी से थी। जो किस्से सुनते मेरा बचपन बीता था वही सुनते उसका भी। मैं बेटियों सो कहता था कि लोग अपनी दादी के साथ नहीं रह पाते और तुम लोग कितने भाग्यशाली हो कि अपने बाप की दादी के साथ रह रही हो। मां-बाप की अनदेखी करने वाले या उनसे दुर्व्यवहार करने वाले अभागे होते हैं। मेैरी पत्नी बच्चों की एक बात आज भी उद्धृत करती रहती हैं। दोनों बेटियाीं क्रमशः 5 और 10 साल की थीं। एक बार दोनों अपनी मां से एक साथ बोल पड़ीं, " मम्मी आप अइया ( मेरी दादी) और माई (उनकी दादी) के साथ जैसा करेंगी वैसा ही हम लोग भी आपके साथ करकेंगे।" मां-बाप की देखभाल कर पाना सौभाग्य की बात है।

बेतरतीब 139 (कुमायूं 1995-96)

 अगली बार कुमायूं का कार्यक्रम बने तो बताना, मैं भी साथ चलूंगा। अल्मोड़ा मैं बहुत घूमाा हूं, पैदल भी। अल्मोड़ा के पास चेतई में गोल देवता का सबसे बड़ा मंदिर है। गोल देवता या गोलू भगवान कुमायूं के सबसे अधिक लोकप्रिय आराध्य हैं। 1995-96 मैंने एक मित्र प्रोड्यूसर के लिए एक डॉक्यू- ड्रामा का स्क्रिप्ट लिखा था तथा उसके साथ (असोसिएट डायरेक्टर के रूप में) लगभग 20 दिन कुमायूं और गढ़वाल के विभिन्न जगहों पर घूम घूम कर शूट किया था। वह फिल्म कभी बन नहीं सकी, उसके पास कई घंटों का फूटेज है। अलेमोड़ा के एक-डेढ़ घंटे दूर कौशिकी नदी की धारा में चट्टानों पर बैठकर कुमायूं के जाने-माने कवि और डांस एंड ड्रमा डिवीजन के पूर्व निदेशक एएम (शायद) शाह का लंबा इंटरविव शूट किया था। उस यात्रा में सबसे मनोरम जगह मनकोट लगी जो बागेश्वर से तिब्बत की दिशा में लगभग एक घंटा दूर है। ग्लेसियर्स भी वहां से ज्यादा दूर नहीं हैं।

इस यात्रा के संस्मरण मौका मिला तो विस्तार से लिखूंगा। 

Wednesday, March 15, 2023

तन्हाई

 काटने को दौड़ता है अकेलापन यदि तब्दील नहीं हो पाता तन्हाई में

होकर तब्दील तन्हाई में कुम्हार बन कविता निकाल देता है अकेलापन

Sunday, March 12, 2023

मार्क्सवाद 283 (नास्तिकता)

 फेसबुक पर एक नास्तिकता का ग्रुप है, उसके कुछ अग्रणी लोगों ने एकबार (अक्टूबर, 2019) आभासी दुनिया से निकलकर वास्तविक दुनिया में 'गुफ्तगू' नाम से एक कार्यक्रम आयोजित किया था। उसमें मैंने कहा था कि हमारा काम नास्तिकता का नहीं वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करना है। वैसे भी हमारा हमारा प्रमुख सरोकार जनपक्षीयता है और नास्तिकता जनपक्षीयता की गारंटी नहीं है।

शिक्षा और ज्ञान 398 (संविधानेतर गिरफ्तारियां)

 पिछले साल की पोस्ट


अगर आपको 35 साल तक किसी अंधेरी अंधी सुरंग में रहना पड़े... और दफ्तअन, एक दिन कहा जाए कि जाओ अपनी रोशनी वाली ज़िन्दगी में लौट जाओ, और आप 12775 दिन का यह तवील फासला तय कर अपने शहर के अपने मोहल्ले में अपने घर लौटें तो क्या पाएंगे? और क्या महसूस करेंगे? आपको अपना ही शहर किस कदर अनजाना लगेगा? आपको अपना मोहल्ला पहचानने में कितना वक्त लगेगा? आपको अपने ही घर का चौखट कितना क़रीब और कितना अजनबी लगेगा?

सत्ता और सियासत की अपनी रणनीति होती है... क्या पता कब कौन उसका मोहरा बन जाए! कब रात के अंधेरे में आपका या मेरा दरवाज़ा खटखटाए...और जब आप इस दरवाज़े से बाहर जाएं तो दरवाज़ा 20-20, 30-30 साल तक आपके आने का इंतज़ार करने के लिए शापित हो जाए!

ऐसे मकान सैकड़ों हैं जो साल दर साल अपने मकीन का इंतज़ार कर रहे हैं।

ऐसे ही ये सिख भाई हैं जो 35 बरस लंबा अंधेरा काट कर लौटे हैं। उन्हें बेकसूर ठहराया गया है। अगर एक नहीं, दो नहीं, 30-30 लोग 35-35 साल खोते हैं तो इसके लिए किसी को - पुलिस को, सियासत को, इस सिस्टम को, इस निज़ाम को, किसी तो कसूरवार ठहराया जाना चाहिए...किसी को तो इंसाफ के कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए? किसी को तो सज़ा मिलनी चाहिए? या फिर सिर्फ़ बेकसूर सीधे सादे लोग ही सज़ा पाते रहें?

सोचें, चर्चा करें, कोई कदम उठाएं। इसलिए भी कि सत्ता अब यह खेल खूब खेल रही है।

यह राज्य के हाथों अन्याय के अनगिनत मामलों में एक है। कितने ही ऐसे मामले हैं जिसमें आतंकवाद के आरोप में 10-12, 15-20 साल जेल में बिताकर निर्दोष छूटते हैं। लाजपत नगर मामले या जयपुर मामले में ठोस सबूत के आधार पर पकड़े गए लड़के सालों जेल की जिल्लत के बाद निर्दोष पाए गए। बटाला हाउस के फर्जी एंकाउंटर में मारे गए या पकड़े गए आजमगढ़ के लड़कों का पता नहीं क्या होगा, कब निर्दोष पाए जाएंगे.....। ऐसे मामलों में न तो कोई क्षतिपूर्ति मिलती है न कोई दोषी पाया जाता है। यह सभी पूंजीवादी जनतंत्रों में ऐसा ही होता है। अमेरिका में मेकार्थिज्म के तहत कस्युुनिस्ट एजंट होने के आरेप में 1950 के दशक में किकतने मार डाले गए, कितने जेल की यातना सहे और कितने रोजगार से निकाल दिए गए, किसी अधिकारी या जज को कुछ नहीं हुआ। 1974 में इंगलैंड में एक बम धमाके के मामले में गिल्डफोर्ड फोर नामक मामले में प्रताड़ना से सबसे इकबालिया बयान लेकर आजीवन कारावास दे दिया गया जिस पर 'डेथ ऑफ फादर' फिल्म बनी, तमाम हो हल्लाके बाद मृतक फादर समेत सभी 1993 (या 1999) में निर्दोष पाए गए, किसी पुलिस वाले का भी कोई दोष नहीं पाया गया। पूंजीवादी राज्य में इसका निदान असंभव लगता है, क्रांति का अभी कोई ठिकाना नहीं है।

12.03.2020

Sunday, March 5, 2023

बेतरतीब 138 (आग जिलाना)

 हमारे बचपन में गांवों में बाजार की पैठ बहुत कम थी। घरों में माचिस रखने का चलन नहीं था, चूल्हे में जल चुके कंडे के नीचे कंडा रख कर आग जिआई (जिलाई) जाती थी। किसी दिन, किसी कारण आग जिंदा न रह पाई तो हम बच्चे लोहे के झन्ने में पड़ोसी के घर आग मांगने जाते थे।

Saturday, March 4, 2023

लंपट सर्वहारा धनपशुओं की दलाली करता है

लंपट सर्वहारा धनपशुओं की दलाली करता है
हक की लड़ाई को हक छिनने की वजह बताता है।

बजरंगी और तालिबानी जेहादियों में हैं कई समानताएं

 बजरंगी और तालिबानी जेहादियों में हैं कई समानताएं

बजरंगी और तालिबानी जेहादियों में हैं कई समानताएं
सबसे बड़ी समानता है दोनों में साम्यवाद के दौरे की
जब भी होती है रोजी-रोटी और शोषण की बात
साम्यवाद का दौरा पड़ता है कभी बारी बारी तो कभी एकसाथ

जिस देश में इंसाफ बुलडोजर करता हो

 जिस देश में इंसाफ बुलडोजर करता हो

जिस देश में इंसाफ बुलडोजर करता हो
जिस देश का हाकिम एंकाउंटर से राज चलाता हो
जिस देश में अपराध का अपराध जवाब होता हो
उस देश में बर्बरता का जंगल राज ही चलता है।

Wednesday, March 1, 2023

शिक्षा और ज्ञान 397 (बाभन से इंसान)

 बाभन से इंसान बनना जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना के आधार पर समाज द्वारा लादी गयी अस्मिता से ऊपर उठकर स्वतंत्र विवेकसम्मत अस्मिता अख्तियार करने का मुहावरा है। पैदा तो सब समान-स्वतंत्र इंसान ही होते हैं लेकिन पैदाहोते ही समाज उन पर बाभन-अहिर; हिंदू-मुसलमान.... के ठप्पे लगा देता है, यह मुहावरा उस ठप्पे की बेड़ियों से मुक्ति का मुहावरा है। रूसो की कालजयी कृति 'सोसल कॉन्ट्रैक्ट' का पहला वाक्य है कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है। उसके सामाजिक अनुबंध का मकसद एक ऐसे समाज की रचना है जिसमें मनुष्य पहले जैसा स्वतंत्र हो सके।