Monday, August 31, 2020

गांधी होते होते क्या हो गए

पेंसन

 Markandey Pandey इन देशों में ये सुविधाएं जनसंघर्षों से हासिल की गयी हैं, जैसा पारितोष जी ने बताया लोगों से सोसल सेक्योरिटी टैक्स लिया जाता है, जिस संचित कोष का इस्तेमाल सामाजिक सुरक्षा -- वृद्धावस्था पेंसन, बेरोजगारी भत्ता, कमआयु की अविवाहित लड़कियों के बच्चों की देखभाल -- आदि मदों में किया जाता है। उसी ढर्रे पर राजीव गांधी के शासन में (शायद) यहां इंदिरा गांधी वृद्धावस्था पेंसन योजना शुरू की गयी, अभी का पता नहीं लेकिन पहले कुछ 300 या 500 रुपए मिलते थे वह भी 'वृद्धावस्था' के प्रमाणपत्र के बाद। अब तो सेना को छोड़कर हर विभाग में 2004 (अटल जी के शासन में) से सेना को छोड़कर सबकी पें,न खत्म कर दी गयी लेकिन पुरानी पेंसन योजना में भी पेसन कोष कर्मचारी की भविष्यनिधि से नौकरी की अवधि में काटा गया संचित कोष ही होता था। पहले रिटायरमेंट के बाद ज्यादातर लोग कम जीते थे तो सरकार का फायदा होता था लेकिन अब ज्यादा जीने लगे तो पेंसन बंद कर दिया।

Saturday, August 29, 2020

मार्क्सवाद 227 (चुनावी वाम एकता)

 राजनैतिक शिक्षा और जनांदोलनों के माध्यम से अपना जनबल तैयार करने की बजाय पिछले 55 सालों से कम्युनिस्ट पार्टियां इस या उस शासकवर्ग की पार्टी का पुछल्ला बनकर अपना क्षरण करती जा रही हैं। आज तीनों पार्बिटियों का संसदीय आधार 1964 में सीपीआई की संसदीय शक्हाति का 10% भी नहीं रह गया है। में महागठबंधन में शामिल होने की बजाय क्रांतिकारी उन्हें एक मजबूत वाम विकल्प तैयार करना चाहिए। वक्त की जरूरत है तीनों संसदीय पार्टियां आपसी गठबंधन से एक ताकतवर ब्लॉक बनाएं तथा एक ताकतवर स्थिति से फासीवाद-विरोधी दलों से सीटों का चुनावी समझौता करें तथा जनांदोलनों की रणनीति की छोटी कम्युनिस्ट पार्टियां चुनाव में इस ब्लॉक का समर्थन करें। मेरी राय में राममनोहर लोहिया-दीनदयाल उपाध्याय के कांग्रेस विरोधी समझौते के तहत 1967 में कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों का भारतीय जनसंघ के साथ संविद प्रयोग भयानक भूल थी जिससे आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के सामाजिक समवीकार्यता की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। बिहार आंदोलन में जेपी द्वारा आरएसएस को अपना प्रमुख सहयोगी बनाने, प्रगतिशील छवि बनाने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में उसे प्रमुखता से निशाना बनाना तथा 1977 में जनता सरकार के प्रयोग में उसकी अहमियत से आरएसएस की सांप्रदायिकता पर सामाजिक स्वीकार्यता की मुहर लग गयी। मेरे ख्याल से बिहार चुनाव में तानों पार्टियों को मजबूत गठबंठन बनाकर जनता के प्रमुख समस्याओं के चुनावी मुद्दों पर लड़ना चाहिए। चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर महागठबंधन का सरकार बनाने में समर्थन करना चाहिए। अस्मिता की राजनीति ने बिहार के क्रांतिकारी आंदोलनों को बहुत क्षति पहुंचाया है।

फुटनोट 241 (सीएजी)

 सरकार राज्यपाल की ही तरह सीएजी की नियुक्ति भी स्वामिभक्ति के आधार पर करती है लेकिन उसमें कुछ संविधान के प्रति निष्टावान निकल जाते हैं और कुछ सरकार के अंतिम दिनों में परिवर्तन की हवा देखकर आगामी संभावित सरकार के हाथों बिक कर संभावना को घटना में बदलने में मददगार होते हैं। जैसे मनमोहन सरकार के अंतिम दिनों में सीएजी ने 2 जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में सैकड़ों करोड़ के घाटे की रिपोर्ट दी थी जो सरकार गिरने के बाद अदालत में बेबुनियाद पायी गयी। नव चयनित सीएजी, मुर्मू शायद वही है जिसे मनोज सिन्हा के पहले जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया था। सीएजी के रूप में " अच्छा " काम किया तो सेवानिवृत्ति के बाद मनमोहन सरकार पर कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिए गए भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले तत्कालीन सीएजी विनोद राय की तरह फायदे के पद पर नियुक्ति हो जाएगी। यूपीएससी की तैयारी करते समय सभी उम्मीदवार देश की सेवा करने के शगूफे छोड़ते हैं, चयनित होने के बाद ज्यादातर अपनी और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा करते हैं। ऐसे अभागे अधिकारी आजीवन ईमानदारी की ताकत की अनुभूति से वंचित रह जाते हैं।

सिर उठाकर चलना नतमस्तक समाज में

 सिर उठाकर चलना नतमस्तक समाज में

हिम्मत का काम है

हर्फ-ए-सदाकत लिखना नटों-भांटों के राज में
हिम्मत का काम है
भूल गए हों जब सच बोलना सारे दानिशमंद
बुलंद करना है हमें नारा-ए-बगावत

Wednesday, August 26, 2020

शिक्षा और ज्ञान 296 (बाल विवाह)

 मुसलमानों के डर से बचपन में लड़कियों के विवाह की बात सही नहीं है। यह अपनी कुप्रथाओं पर पर्दा डालने का ब्राह्मणवादी कुप्रचार लगता है। स्त्रियों की आजादी को खतरनाक मानने वली तथा उनको सदैव पिता, पति और पुत्र के अधीस्थ रखने की आचार संहिता की मनुसेमृति बहुत पहले लिखी गयी थी। बहुपत्नी प्रथा बहुत पहले सी थी। बिंदुसार की 100 पत्नियों की बात तो किंवदंती लगती हैं लेकिन कई पत्नियां तो थींं। अशोक अपने तमाम सौतेले भाइयों को मारकर राजा बने थे, उनकी भी कई पत्नियां थीं। बहुपत्नी प्रथा को चुनौती मिली ब्रह्मसमाज आंदोलन से और कानूनी रोक आजाद भारत केसंविधान के प्रवधानों से। राणा प्रताप की 11 पत्नियां थीं। अकबर के साथ तमाम राजपूतों ने स्वेच्छा से अपनी बेटियों के विवाह किए थे। यह सही है कि राणा प्रताप और रानी दुर्गावती के अलावा सारे राजपूत रजवाड़े अकबर के दरबारी बन गए थे। पूरे राजपुताने में अकेले राणा प्रताप अकबर और उसके सहयोगी राजपूतों की संयुक्त शक्ति से आजीवन लोहा लेते रहे, हर पराजय के बाद फिर से शक्ति अर्जित करते और हमला करते। राणा प्रताप के अपने सौतेले भाई जयमाल और शक्ति सिंह अकबर के साथ थे। शक्ति सिंह हल्दीघाटी में चेतक की मृत्यु के बाद राणा प्रताप को अपना घोड़ा दिए। ........... यदि राजपुताने के बाकी रजवाड़े प्रताप के विरुद्ध अकबर का साथ न देते तो राणा प्रताप अजेय रहते। ...........उसी तरह जैसे यदि 1857 में सिंधिया तथा ओरछा, पटियाला, हैदराबाद आदि के रजवाड़े अपनी सेनाओं के साथ 1857 की किसान क्रांति के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ न देते तो तभी देश आजाद हो जाता। यहां के सामंती शासकवर्गों ने हमेशा जनता की आजादी के विरुद्ध गद्दारी की है।

मार्क्सवाद 226 (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद)

 ऐतिहासिक रूप से द्रव्य विचार के बिना भी रहा है और उसी से विचार की उत्पत्ति हुई। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम से सेब गिरना नहीं शुरू हुए, वे पहले से गिरते ते, उन्हें देखकर न्यूटन के दिमाग में गिरने के कारण जानने का विचार आया। लेकिन सत्य की समग्रता दोनों के द्वंद्वात्मक मेल से बनती है। सेब का गिरनी संपूर्ण सत्य नहीं है और सेब न गिरते तो न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम अस्तित्व में न आता। सवाल पहले मार्क्स या हेगेल का नहीं क्योंकि मार्क्स हेगेल और फॉयरबाक दोनों का संज्ञान लेते हैं और दोनों को ्र्धसत्यों को जोड़कर सत्य की समग्रता रचते हैं। वैसे सवाल होना चाहिए पहले हेगेल या फॉरबाक। ( उपनिषद या चार्वाक जिनका द्वंद्वात्मक मेल बुद्ध में दिखता है।) हेगेल के वास्तविक पूर्ववर्ती प्लेटो हैं।


द्वंद्वात्मक भौतिकवाद यांत्रिक भौतिरवाद को चुनौती देता है तथा तब्दील करता है। चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली चेतना बदली परिस्थितियों का लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलती बल्कि मनुष्य का चैतन्य प्रयास उसे बदलता है। अतः सत्य द्वंद्वात्मक है तथा भौतिकता उसका अंश है समग्रता नहीं, समग्रता चेतना के द्वंद्वात्मक मिलन से बनती है।

Monday, August 24, 2020

मार्क्सवाद 225 (वामपंथ)

 कोई वामपंथी मनोवैज्ञानिक कारणों से नहीं, अध्ययन एवं चिंतन-मनन के आधार पर समाज के अंतविरोधों की वैज्ञानिक समझ के आधार पर बनता है क्योंकि उसे शोषण-दमन और भेदभाव की व्यवस्था अनुचित और अमानवीय लगती है। यह उसी तरह है जैसे बहुत से पुलिस मर्दवादी समाज की समुचित समझ के चलते स्त्रीवादी बन जाते हैं। मैंने 1987 में एक पेपर लिखा, "Woman's Question in communal Ideologies: A Study into the ideologies of RSS and Jamat-e-Islami". प्रशंसा के ज्यादातरकर पत्र, खासकर विदेशों से, Dear Ms. Mishra के संबोधन से थे। मैं जवाब "Incidently, I am a man" से शुरू करता था। यदि आप मर्दवादी समाज की विडंबनाएं और स्त्रियों के अधिकारों के तर्क समझ सकते हैं तो बिना स्त्री हुए स्त्रीवादी हो सकते हैं। जहां तक वामपंथी के आर्थिक अस्मिता का सवाल है तो एंगेल्स जैसे अपवादों को छोड़कर, ज्यादातप @मोटे तौर पर श्रमिक वर्ग से ही होते हैं। जो भी श्रम (बोद्धिक या भौतिक) बेचकर आजीविका कमाता है वह श्रमिक ही है। एक प्रोफेसर मजदूर ही होता है। लेखक भी मजदूर होता है, इसलिए नहीं कि वह विचार की रचना करता है, बल्कि इसलिए कि वह प्रकाशक के लिए अतिरिक्त मूल्य (surplus value) पैदा करता है जिसे वह मुनाफे के रूपमें उगाहता है। मैंने लंबे समय तक कलम की मजदूरी से ही घर चलाया। ज्यादा मजदूरी पाने वाले मजदूर शासक वर्ग का हिस्सा होने का मुगालता पालते हैं, उन्हें, लैटिन अमेरिका में साम्रज्यवाद के दलालों के लिए गढ़े एंडी गुंटर फ्रैंक की लंपट बुर्जुआ की कोटि में रखा जा सकता है। मेरी कोई बात बुरी लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूं।

Sunday, August 23, 2020

शिक्षा और ज्ञान 296(बाबर)

मुगल (बाबर का) आक्रमण तो दिल्ली सल्तनत (इब्राहिम लोदी) पर हुआ था तब ज्ञान की संस्कृत और फारसी की दो परंपराएं थीं। विदेशी आक्रमण (मौर्य काल के बाद शक-हूंणों की बात छोड़कर) और शासन तो मुगलों के आने से लगभग 500 साल पहले से शुरू हो गए थे। तब से लेकर अंग्रेज शासकों तक चंद विदेशी विजय से विशाल जनसमुदाय पर सत्ता स्थापित करते रहे जिसके आंतरिक कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। मेवाड़ को छोड़कर राजपुताने की सारी रियासतें अकबर की अधीनस्थ सहयोगी थीं। अकबर के बाद जहांगीर अयोग्य शासक था जिसने अकबर के दरबार के सभी विद्वानों एवं रणनीतिकारों को दरकिनार कर दिया और मुगल शासन का पतन शुरू हो गया जो 17वीं शताब्दी तक इतना कमजोर हो गया कि बनियों की एक कंपनी ने यहीं के लूट के संसाधनों से यहीं के लोगों की सेना बनाकर उसे अधीनस्थ बना लिया। यदि प्राचीनकाल से अब तक इतिहास पर नजर डालें तो देखते हैं कि किसी समाज के बौद्धिक, आर्थ्क एवं सामरिक विकास परस्पर समानुपाती होते हैं। 16वीं शताब्दी तक इंगलैंड यूरोप में हाशिए का नगण्य महत्व का देश था। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक हमारा समाज राजनैतिक रूप से बिखंडित तथा बौद्धिक विकास की दृष्टि से कमजोर समाज था जिसमें शिक्षा के जरिए इतिहास एवं ज्ञान के मिथकीकरण की अपनी भूमिका थी। मुगल काल के अंतिम चरण में सामाजिक-बौद्धिक क्षरण के परिणाम स्वरूप अंग्रेज उपनिवेशवादी हमें गुलाम बना सके। शिक्षा के प्रसार से स्वतंत्रता की चेतना का विकास हुआ और परिणाम स्वरूप उपनिवेशवाद का अंत। औपनिवेशिक शासक जाते जाते देश का बंटवारा करने और सांप्रदायिकता का विषवृक्ष रोपने में सफल रहे जिसमें नवउदारवादी गुलामी के फल लगना शुरू हो गए हैं। अशिक्षा और कुशिक्षा के मंसूबों वाला हाल ही में कैबिनेट से मंजूर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का दस्तावेज उसी का ब्लूप्रिंट है। 2015 में भारत सरकार ने 1995 के विश्वबैंक के गैट्स के जिस मसौदे पर दस्तखत किया है, उसमें शिक्षा और कृषि को व्यापारिक सेवा (ट्रेडेबल सर्विसेज) के रूप में शामिल किया गया है। अब विवि अनुदान आयोग कि जगह उच्च शिक्षा वित्तीय एजेंसी की स्थापना का प्रावधान है। सरकार अब विश्वविद्यालयों को अनुदान नहीं, उधार देगी जिसे उन्हें किश्तों में लौटाना होगा और विश्वविद्यालय फीस बढ़ाकर ही ऐसा कर सकता है।

बाकी बाद में......

Saturday, August 22, 2020

प्लेटो का कम्यून

 प्लेटो के रिपब्लिक में शासक वर्गों के लिए कम्यून की व्यवस्था का प्रावधान है जिसमें किसी का निजी परिवार नहीं होगा। स्त्री-पुरुष के समागम का उद्देश्य संतानोपत्ति था तथा जोड़े का चुनाव राजा लॉटरी द्वारा करता था। समागम जब-तब नहीं बल्कि शुभ मुहूर्त में होता था। उसका मानना था कि योग्य स्त्री-पुरुष के समागम से योग्य संतानें पैदा होती हैं, इसलिए राजा को सलाह देता है कि लॉटरी में हेरा फेरी करके जोड़ों का चयन इस प्रकार करे कि योग्य स्त्री-पुरुषों का समागम अधिक-ससे अधिक हो और अयोग्य का कम-से-कम। लॉटरी यानि भाग्य का मामला है तो कोई शिकायत नहीं कर सकता। मां का अपने बच्चे से स्तनपान का ही संबंध रहेगा। पैदा होते ही सब बच्चों को राज्य पोषित-नियंत्रित नर्सरी में डाल दिया जाएगा जहां प्रशिक्षित दाइयां उनका देखभाल करेंगी। कोई न किसी का मां/बाप होगी/होगा न कोई किसी का बेटा/बेटी। सारे स्त्री-पुरुष सभी बच्चों के मां-बाप होंगे और सभी बच्चे सबके बेटा-बेटी और आपस में सब भाई-बहन। उसका चेला उसके परिवार के साम्यवाद की आलोचना में कहता है कि सैकड़ों सगे-भाई बहनों से बेहतर है दूर के एकाध-भाई-बहन। मुझे इस व्यवस्था में यदि युगलबंदी राज्य नियंत्रि न हो तो यह वांछनीय लगती है। जो बच्चे राज्य-नियंत्रित समागम से बाहर की पैदाइश होंगे या अयोग्य होंगे उनकी जिम्मेदारी राज्य की नहीं होगी, उन्हें या तो कहीं किसी अंधेरे कोने में गाड़ दिया जाएगा या निम्न वर्गों के परिवारों को दे दिया जाएगा। (परिवार नियोजन की अनूठी तजबीज)। प्लेटो के आदर्श राज्य में श्रमविभाजन वर्णाश्रम व्यवस्था की अनुकृति है। समाजवाद के पहले चरण में बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी समाज की होगी क्यों कि बच्चे समाज की संपदा होते हैं तथा समाज के समुचित विकास के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की सर्जक उत्पादकता की आवश्यकता होगी। वैसे प्लेटो का आदर्श राज्य कभी ठोस रूप नहीं ले सका, इसीलिए इसे यूटोपिया कहा जाता है, वैसे भविष्य की आदर्श व्यवस्था की अवधारणा वर्तमान की व्यवहारिक सीमाओं से परे होती है। वैसे फिलहाल परिवार कितनी भी प्रतिक्रियावादी व्यवस्था क्यों न हो लेखिन इसकी समाप्ति अभी अव्यवहारिक है लेकिन इसके जनतांत्रिककरण से इसकी बेहतरी न केवल संभव है बल्कि वांछनीय भी।

Thursday, August 20, 2020

फुटनोट 240 (कलान चौराहा)

 हाईस्कूल और इंटर में पढ़ते हुए ट्रेन पकड़ने बिलवाई स्टेसन के रास्ते में कलान चैराहे पर चाय पीते जाते थे। तब उसे बिलवाई चौराहा ही कहा जाता था। बिलवाई बाजार वहां से एक-डेढ़ किमी उत्तर है और बिलवाई स्टेसन डेढ़-दो किमी पश्चिम।ग्राम-समाज की जमीन में कलान के एक ठाकुर ने चंदे से एक स्कूल बनवाया थो जो अब पीजी कॉलेज बन चुका है।स्कूल के हेड मास्टर हमारे गांव के बगल के गांव के राम सूरत सिंह थे, वे वहां से छोड़कर अपने गांव की ग्रामसमाज की जमीन पर चंदा करके स्कूल बनवाया, तब हम इलाहाबाद पढ़ते थे, स्टेसन जाते समय कभी कभी गणित का एक कलास लेते जाते थे। वह स्कूल भी अब डिग्री कॉलेज बन गया है। संस्थापक राम सूरत सिंह तो अब रहे नहीं, उनके पिताजी के परोक्ष नाम पर कॉलेज अभी भी है। उनके पिताजी का नाम राम सेवक सिंह था, स्कूल का नाम उन्होंने जनसेवक विद्यालय रखा था।

बेतरतीब 78 (बचपन 16)

 परिचय (भाग 2)

परिचय की पिछली किश्त में गांव में स्कूल की शिक्षा का जिक्र किया था। मेरा गांव तो आजमगढ़ जिले में पड़ता था, लेकिन आज़मगढ़ शहर से बहुत दूर, यातायात के सीधे संपर्क के बिना। मैं आजमगढ़ शहर पहली बार 1974 में गया था और दूसरी बार 2008 में, यात्राओं के कारणों के विस्तार में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है। मेरा गांव एक छोटी सी नदी मझुई के किनारे है जो हमारे बचपन में बारमासी प्रवाहमय थी तथा नहाने के घाटों पर मई-जून में भी बहुत गहराई तक पानी रहता था। 5-6 साल तक पहुंचते-पहुंचते सारे लड़के-लड़कियां तैरना सीख जाते थे। खैर जिन गांवों में नदी नहीं थी वहां के बच्चे तालाब में तैरना सीख लेते थे। सितंबर-अक्टूबर तक नाव चलती थी, उसके बाद बांस के पायों पर चह (कच्चा पुल) बन जाती थी। हम बच्चे कई बार सूर्यास्त के बाद उल्टी धारा में नाव कुछ दूर ले जाते थे और वापस धारा के साथ बहने को छोड़कर गाते-गप्पियाते वापस आते थे। एकाधबार डांट भी खा लेते थे। मझुई 20-25 किमी दूर दुर्बासा नामक तीर्थस्थान पर टौंस नदी में मिल जाती है जो आजमगढ़ होते हुए बलिया (या गाजीपुर) जिले में गंगा में मिलती है। दुर्बासा के बारे में कहा जाता है कि वहीं नदीमें विष्णु के चक्र-सुदर्शन ने क्रोधी दुर्बासा ऋषि के सिर को फाड़ा था। वहां कार्तिक की एकादशी (या पूर्णिमा) को बहुत बड़ा मेला लगता है। मैं उस मेले में पहली और अंतिम बार बचपन में गया था और खो गया था, जो कहानी फिर कभी (मेरे ब्लॉग में है, कमेंट बॉक्स में शेयर करूंगा)। नदी इस पार मेरा गांव आजमगढ़ में पड़ता है और उस पार फैजाबाद (अब अंबेडकर नगर)। नदी पार घना जंगल था हम लोग समूह में शाम को दिशा-मैदान उस पार जाते थे। उस पार वालों से कहते थे कि हम रहते आजमगढ़ में हैं और टट्टी-पेशाब करने फैजाबाद में जाते हैं। गांव से नजदीक दो बाजारें थीं -- 2-3 किमी पश्चिम-दक्खिन मिल्कीपुर (आजमगढ़ जिले में) तथा 2-3 किमी उत्तर-पूर्व परकौली (फैजाबाद जिले में)। 6 मील दूर एक जगह है बिलवाई जो 4 जिलों की सीमा पर पड़ता है। बिलवाई गांव आजमगढ़ में पड़ता है, बाजार जौनपुर में, शिवमंदिर (जहां शिरात्रि को बहुत बड़ा मेला लगता है), फैजाबाद में तथा बिलवाई स्टेसन (बीबीगंज) सुल्तानपुर में। चुनाव के सीजन में मेला पड़ने पर वहां 4 प्रत्याशियों के तंबू लगते हैं। 1967 तक जब संसद-विधानसभा के चुनाव साथ होते थे तब 8 के। सोचा था बचपन के गांव के अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक समाजशास्त्र तथा इतिहास के बारे में बात करूंगा, लेकिन भूगोल पर ज्यादा समय खर्च हो गया, उनके बारे अगले भाग में। यह किश्त इस बात से खत्म करता हूं कि नवीं क्लास में पढ़ने शहर जाने के बाद हर रविवार को अपने गांव से 7 मील दूर बिलवाई स्टेसन पैदल ट्रेन पकड़ने आता था और हर शनिवार रात स्टेसन से घर। वेसे स्टेसन वास्तव में एक दूसरे गांव-बाजार बीबीगंज में पड़ता था लेकिन नाम बिलवाई था। छोटा नाम बड़े में समाहित हो जाता है। स्टेसन से घर तक की शनिवारी रात्रि यात्राओं नामी-गिरामी भूतों से मुठभेड़ और भूत-प्रेत के भय से मुक्ति की कहानी भी अगले भाग में। सादर।


Wednesday, August 19, 2020

बेतरतीब 77 (बचपन 15)

 आजादी के आठवें साल (1955)में आजमगढ़ जिले के एक शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े इलाके में, एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मम परिवार में मेरा जन्म हुआ। आर्थिक व्यवस्था तथा सास्कृतिक परिवेश मध्ययुगीनता और आधुनिकता के संक्रमणकाल से गुजर रही थी। वर्णाश्रम व्यवस्था में मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के चलते शिक्षा की सैद्धांतिक रूप से सार्वभौमिक सुलभता तथा छुआछूत के विरुद्ध संवैधानिक प्रावधानों के चलते छोटी-मोटी दरारें पड़ना शुरू हो गयी थीं। खेती-बाड़ी, पशुपालन एवं अन्य काम हलवाहों-चरवाहा एवं मजदूर के परिश्रम से होता था। कम उम्र में ही बड़े भाई के साथ गाव के प्राइमरी स्कूल जाने लगा तथा गदहिया गोल (प्री-प्राइमरी) में 3-4 महीने ही पढ़ा कि पंडित जी ने मेरे अंकगणित के पता नहीं किस ज्ञान से प्रभावित होकर मुझे कक्षा -1 में प्रोमोट कर दिया। कक्षा 4 में डिप्टी साहब मुआयना करने आए और अंकगणित के किसी मौखिक सवाल के जवाब में कक्षा 5 में प्रोमोट कर दिया। 1964 में 9 साल में प्राइमरी पास किया और 8 किमी दूर मिडिल स्कूल से आठवीं पास किया तो पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहीं था और साइकिल पर पांव नहीं पहुंचता था। प्रतिकूलता में अवसर (ब्लेसिंग इन डिस्गाइज)। हाई स्कूल की पढ़ाई करने नजदीकी शहर जौनपुर चला गया और 1972 में जब इलाहाबाद विवि में बीएस्सी में दाखिला लिया। मैं विवि पढ़ने जाने वाला अपने गांव का पहला लड़का था। 1972 में इंटर की परीक्षा देकर घर गया तो मेरे विवाह का निमंत्रण कार्ड छप चुका था और मेरा विद्रोह का प्रयास नाकाम रहा। बाकी परिचय अगली किश्त में।

Saturday, August 15, 2020

अन्याय मूर्ति

सर्वोच्च न्यायालय में बैठे अन्यायमूर्ति पर
उंगली उठाने के अपराध की सजा सुनाई जाएगी
और मुल्क से न्याय की अर्थी उठाई जाएगी
कविता भी कैद कर ली जाएगी

लेकिन आज भी गूंजता है इतिहास के पन्नों में
1917 में चंपारण की अदालत में दिया
अंतरात्मा की आवाज का गांधी का बयान
लेकिन कोई नहीं जानता उन्हें सजा सुनाने वाले जज का नाम

कोई नहीं जानता एथेंस की अदालत के उन जजों के नाम
जिन्होंने मौत की सजा सुनाया था सुकरात को ढाईहजार साल पहले
लेकिन आज भी सच्चाई के लिए जान देने की प्ररणा देते हैं
अदालत में दिए गए सुकरात के बयान

जब लिखा जाएगा जनतांत्रिक भारत के पतन का इतिहास
रेखांकित होंगे इन अन्यायमूर्तियों के नाम
(ईमि: 15.08.2020)

Tuesday, August 11, 2020

धरती मां

 धरती (देश नहीं) और नदी को पालनहार के अर्थ में मां कहने का रिवाज सभी पारंपरिक समाजों, खासकर जनजातियों में, पुराना है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में देश को माता-पिता कहने का कोई जिक्र नहीं है। यूरोप में आधुनिक राष्टोंमाद की नीयत से फादरलैंड (पितृभूमि) कहा जाता था सावरकर ने उन्ही नकल पर पितृभूमि की अवधारणा दी। भारत माता की अवधारणा भी औपनिवेशिक शासकों की नकल है। विक्टोरिया के शासन काल में रानी की चमचागीरी में उन्हीं की छवि में मदर ब्रिटानिका की अवधारणा गढ़ी गयी। भारत माता की जय तो बहुत बोल चुके हैं। आप अभी क्यों बुलवाना चाहते हैं? किस बात की परीक्षा लेना चाहते हैं? परीक्षा की मेरी अवस्था नहीं है। मैं तो नास्तिक हूं किसी देवी-देवता की जय नहीं बोलता। वैसे भारत माता कौन है?

Black Lives Matter

 

‘Black lack  Matter’: Slavery and racism in the historical context

ISH MISHRA

 

Racism, like communalism, Brahmanism (casteism) and the gender, is not an attribute of biology but an ideology that is constructed, reconstructed, nurtured and perpetuated in the day-to-day life and intellectual discourses, says Ish Mishra

 

A sense of superiority or supremacy is one of the key elements of the hegemony. In the colonial era, the European colonizers harbored the sense of civilizational superiority over the colonized and responsible for civilizing them, giving the rise to the proverb, “the burden of civilization”.  Eventually, he feels entitled to lord over them. The genesis of racism lies in the feeling of superiority. Needless to say, the same factors and the same thinking inform Indian society as well. Ish Mishra endeavours to analyze these factors, beliefs and ideologies from the sociological perspective. This is the first article in a series. - Editor   

A sociological analysis of ideologies of racism and slavery

A fierce anti-racism movement swept the world following the brutal murder of George Floyd, an African American accused of using a forged bill, in the custody of a white policeman in the city of Minneapolis, in Minnesota, USA, on 29 May 2020. This movement seeks to challenge the very idea that legitimized the system of slavery in the colonial era. The symbols of that era are being attacked and destroyed. In Boston, a statue of Christopher Columbus was uprooted and dumped in a lake. In other US cities, too, busts and statues of Columbus and other apologists of slavery were vandalized. In Bristol, England, the bust of Edward Colston, a 17th-century slave trader, was torn down and thrown into a river. Several statues of Queen Victoria were defaced in Britain. The mayors of many British towns are mulling over whether the symbols and statues of the colonial era should be pulled down. This is a defining moment for the white supremacists who boast of having civilized the world. Tearing down the statues of colonialists, advocates of slavery and slave traders won’t change history but it can lead to a re-interpretation of the chronicles of past which describe how certain people civilized the others and that re-interpretation, in turn, can teach us valuable lessons. Many states and cities in the US have begun considering new laws to change the way the police function.

Even as the “Black Lives Matter” movement was spreading like wildfire in America and Europe and the people were seething with anger over police brutalities, a Dalit youth was done to death by upper-caste men in a village in Amroha district of Uttar Pradesh, India, on 6 June 2020. The murder followed a dispute over performing puja in a temple. Over the past three years, the Uttar Pradesh police have killed many people in cold blood on the pretext of eliminating crime. In different parts of the country, blood-thirsty mobs of communalists and religious fanatics have lynched members of the minority community. But these incidents have evoked only muted protests. 

Be that as it may, comparing the reaction of the common man to almost identical developments in India and the West is not the subject matter of this article. It warrants an article of its own. Though popular resistance to the injustice rooted in racism is as old as racism itself and has been evolving with time, the wide canvas and the geographical expanse of the ongoing movement seems to indicate that it may strike a decisive blow against the ideology of racism.   

A reference to communal, casteist discrimination and violence in India in the context of the global movement against racism is meant just to underline the commonalities – that all three are rooted in historical factors and that their elimination is not only possible, but also inevitable. The Varnashramvad (casteism or Brahmanism) – an ideology constructed to perpetuate the hegemony of the parasitic (upper-caste) class – is thousands of years old. The history of racism goes as far back as the ancient Greek philosopher Aristotle, who pioneered the idea that humans are unequal. In the modern era, its genesis can be traced to the 18th century, when slaves became the engine of growth of the American economy.

Aristotle considered slavery indispensable and natural and believed that the “barbarians” (non-Greeks) were born slaves. The ideology of communalism in India is a little more than 150 years old. It was created by the British colonial rulers to further their policy of divide and rule. Shaken to the core by the peasant revolution of 1857, the British concluded that they can perpetuate their rule only by dividing Indians along communal lines. After their exit from the Indian subcontinent, the communal forces, both in India and in Pakistan, used it as a rallying point. The theory of dialectical materialism tells us that the death of every existent ideology is a certainty and the aforementioned ideologies are not exceptions. A comparative study of racism – an ideology crafted in America and Europe for enslaving the people of African origin; Varnashramvad (Brahmanism) – an ideology of upper-caste supremacism; and communalism – an ideology used by religious fanatics for political mobilization and which is a political version of Brahmanism – is eminently desirable. But there is little scope for it here.

The Black Lives Matter protests are a continuation of the movement that began with the American civil war of the 1860s. This movement seeks to assert the identity of the non-whites. The Civil Rights Movement of the 1950-60, which began with Rosa Parks, a black woman, refusing to vacate her seat on a bus for a white man, was a major milestone of this movement.   

Other milestones of this movement include the protests that followed the acquittal of the policemen who had tortured black American citizen Rodney King in 1992, the 500th year of the arrival of Columbus in America, and the release, in 2013, of George Zimmerman, a policeman responsible for the murder of a black minor boy Trayvon Martin in 2012. The movement was reignited in Ferguson and New York with the hashtag #BlackLivesMatter and by 2014, had assumed the form of a nationwide campaign on social media.

Racism is not a biological tendency, nor is it an eternal truth like “Satyamev Jayate” (Truth alone triumphs) that has been passed on from one generation to another. Racism, like communalism, Brahmanism (casteism) or male chauvinism, is not a belief; it is an ideology which is constructed, reconstructed and nurtured both in day-to-day life and intellectual discourse. An ideology represents a false consciousness in the sense that it presents and portrays a certain historical construct as the final or the obvious truth. In America, the ideology of racism can be seen as a legacy of Columbus.  

Driven by his desire for gold and silver, Columbus, a Spanish trader, set out for India. But he lost his way and, in October 1492, landed in America and “discovered” the “New World”. This “discovery” inaugurated a new historical era – an era of imperialistic exploitation, loot and pogrom, which is yet to see its end. The “discovery” of the New World by Columbus is itself a myth. America had been discovered thousands of years before Columbus stepped on its shores and boasted of a flourishing and advanced civilization. What was “new” about Columbus’ discovery was that it led to an unprecedented mass slaughter of the indigenous inhabitants of America and the destruction of the majestic Aztec Civilization. Transporting and enslavement of Africans followed and the fashioning of the ideology of racism to legitimize it.  

Following worldwide protests, Derek Chauvin, the policeman who murdered George Floyd, was charged with second-degree murder, a crime punishable with a minimum sentence of 12 years in jail. However, in 1992, when Europe and America were celebrating 500 years of Columbus’ “discovery”, the white policemen who had assaulted a black American, Rodney King, were acquitted by the white judges of Los Angeles. The judgment not only underscored the racist bias of the American justice system but also proved that the judgments of American courts are not based on evidence but on the white supremacist ideology of the judges. However, the way people rose in their millions to protest the murder of George Floyd at the hands of the racist police shows that we are well past the era when the people of African origin could be enslaved and driven like animals. The humanistic consciousness against racism has gained so much strength that denial of justice to victims of racial barbarism such as a Floyd or a King is bound to be met with stiff resistance.       

Also read: Why India’s deprived fail to unite like the African Americans

In 1992, when the custodians of justice turned a deaf ear to the plaintive cries of Rodney King, the simmering anger against racism spilt onto the streets of American cities, though its intensity and spread was much less than the ongoing Black Lives Matter movement.

Starting at Minneapolis, this movement has engulfed vast parts of the world and is posing a tough challenge to the legacy of Columbus. It would be a digression to discuss how Columbus’ so-called discovery was followed by the destruction of advanced civilizations like Aztec and Inca and the barbaric massacre of the indigenous inhabitants of America. Dee Brown’s Bury My Heart at Wounded Knee provides a moving description of the lofty moral principles and valour of the indigenous inhabitants and the unspeakable monstrosities perpetrated on them by the barbaric Europeans.  

The white supremacists of European origin believe that the blacks are racially prone to criminality and hold them responsible for the crimes in America. Over the past couple of decades, the anti-racism sentiment has grown so strong that editors of many publications have had to pay with their jobs for making adverse comments about the anti-racism movement. In 1992, Andrew Sullivan of the Daily Telegraph, while shedding copious tears on the deleterious fallouts of the anti-racism protests, tried to obliquely justify the merciless thrashing of Rodney King. Baring his racist mindset, he wrote that the judgment of the Los Angeles court should be seen in the wider context of “who commits more crimes” and, employing statistical jugglery, tried to prove that the people of African origin are “born criminals”.

In January 1988, Jimmy The Greek, a sports commentator for an American TV network, claimed that the whites wouldn’t get any place in basketball teams if the coaches were non-whites. He also said that the blacks are better basketball players because they have bigger thighs. He went on to flaunt his knowledge of biological evolution by claiming that “during the slave trading, the owner, the slave owner, would breed his big woman so that he would have a big black kid”. 

This biological interpretation of race was not limited to sports commentators like The Greek. Those claiming to be educated and living off the claim weren’t far behind. Richard Cohen, a well-known liberal journalist of Washington Post, came out in support of The Greek and mocking anthropologists and biologists propounded the theory of “white genes. Journalists like Sullivan and Cohen sought to define physical features in terms of race and used convoluted logic to prove that one race was superior to another.

This biological understanding of race was by no means the exclusive preserve of half-baked journalists. In May 1987, a group of Arabic and Jewish citizens of America filed a petition in the Supreme Court of the country seeking protection under the Civil Rights Act, 1888. Instead of disposing of the plea on the basis of the well-established democratic principle of the State not discriminating against anyone, the Supreme Court sought to know how the Arabs and the Jews were racially different from the Caucasians and said that they would be entitled to protection under the act only if they were different. It went on to say that Arabs, Jews and many other nationalities were considered racial groups till the 19th century, so they could be considered the same even 100 years later.

The American Supreme Court probably did not have an option. After all, it is also a part of the American legacy, the foundation of which has been plastered with the blood of innumerable Red Indians, indentured servants and slaves. Most of the white Americans consciously or subconsciously believe in the crooked theory that the people of African origin are a different class of human beings, whose actions, words and thoughts are all dictated by their race. The white intellectuals find the word European Americans contrived but African Americans natural. Just as the application forms for many secular educational institutions in India have boxes for the religion and the caste of the applicants, similarly application forms for American educational institutions also ask for the applicant’s race. That is why America hasMiss America and Miss Black America contests. That is why some are simply poets while others are “black poets. That is why John Updike is a writer while Toni Morrison is a “black writer. That is why George Bush is a “presidential candidate and Barack Obama, a “black presidential candidate. However, thanks to the evolution of collective social consciousness in the five decades since the 1950s, Obama was elected president. And mind you, he got issue-based support from all sections of American society. It was not that only the African Americans backed him.

The absence of the words like white and black in the American Constitution, which came into being in 1789 after the anti-colonialism revolution, should not be a cause for any surprise. The Constitution used the words free persons and other persons (a euphemism for slaves). However, the Constitution did say that three fifths of all other persons (ie slaves) will be counted for both taxation and representation. The problem with the American Constitution-makers was that they held the Statue of Liberty in one hand and the profits from the slave trade in the other. In 1776, some colonies in North America had attained freedom but not the slaves in these colonies. Even during the civil war, both the opponents and the supporters of the slavery system did not consider it a legacy of Columbus. Both considered slavery as natural and racism as axiomatic.

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Many American historians interpret slavery as a system that defined racial relations and also that its objective was not the production of tobacco, rice[1] , tea, cotton and sugar but the establishment of white supremacy. The complexion of the Irish people was no different from that of the English. But still, the English used the same barbaric arguments to justify their oppression as they used to justify the oppression of the people of African, Asian and American origin. In ancient Greece and Rome, masters and slaves were not distinguishable by the colour of their skin or their physical features. Those who met a horrific end in Hitler’s gas chambers included not only the Jews and the gypsies but also the Communists and other political opponents of the Fuehrer, who were of the German (Aryan) race. Racism is not about colour of skin or facial features. It is an ideology of capitalism, which came into existence in a particular epoch of history to serve economic and political interests, and that makes its obliteration possible.

At the beginning of the 17th century, when the British colonialists discovered that Virginia’s land was suitable for cultivation of tobacco and had the potential of fetching untold riches to them, they brought indentured servants from England to work the fields. And these serfs – who could be sold, bought, stolen, abducted, gifted and gambled away – were white-skinned like them. They were subjected to the same brutalities as slaves. However, they were somewhat better off than the African slaves who came later in the sense that their future generations were not condemned to slavery and some of the fortunate ones among them could hope to get away alive after the expiry of their contract. Some particularly rapacious landowners doctored the indentures to deny freedom and freedom money to them. Others served them poisoned food, thrashed them mercilessly and even killed them.

Neither their white skin nor their British nationality could save the indentured servants from extreme exploitation and inhuman treatment. If the British colonialists did not enslave the indentured servants it was not because they were hesitant to exploit fellow Europeans beyond a certain limit. The indentured servants were armed and their numbers were very large. Any attempt to enslave them could have triggered an uprising and, taking advantage of the fissures in the colonists’ camp, the indigenous inhabitants of America, who were lying in wait, could have mounted an attack. Moreover, if this news reached England, there was a possibility of the supply of indentured servants drying up. Oppression can only be countered with resistance. The British lower classes did not owe their freedom to the benevolence of the elite. Every little concession was obtained through fierce struggles and it took them centuries to secure complete freedom. The slavery system did not become history because the owners had had a change of heart or because they had turned democrats overnight. The slaves won their freedom in bits and pieces through a long and sustained struggle. Every new battle was meant to preserve and protect the freedom obtained through the last one and to get something more. The ongoing anti-racism protests in America are the latest in the series of those long and difficult struggles.

Marx believed that economic motives drive all men. The slavery system was born of the economic needs of colonial America. The ideology of racism, which seeks to justify and legitimize it, followed.

The supply of indentured servants began drying up as the news of the hard labour and the miserable conditions in which they had to live reached England. To make up for the shortfall and to maintain production levels, the number of Africans and Afro-Caribbean people, who were forcibly brought to America from the Caribbean and Africa, began increasing. This was even better for the owners because while the British lower class had, over the years, managed to win many concessions and facilities through dialogues and struggles, the Africans, who were thousands of miles away from their people, had to begin their struggle from the scratch. It was easier to push them into slavery.

By the 1670s, the vast army of white youth, who were free, landless, resentful and armed, had started to become a threat to the rulers of Virginia. In 1676, these youth joined hands with indentured servants and slaves and revolted. Though this rebellion fell short of giving that powerful historical jolt to those in power, it did make the powerful and the rich suspicious of the lower-class whites. Employing Europeans as servants started being considered a risky proposition. 

The changed equations of the colonial economy led to a big jump in the number of slaves of African origin and the need arose for an institutional framework for the slavery system. That was also when the ideology of racism was crafted as a justification for the slavery system. The roots of modern racism go back up to the Columbus’ “discovery” but its systematic development as an ideology that discriminates between men on the basis of their looks, began after the slavery system assumed an institutional form. The history of the racism that links a man’s status to the colour of his skin is only as old as the American Constitution. The people of African origin were made a part of society but without any liberty and rights. It is said that those who are believed to be naturally low can be easily oppressed.  

In the 19th century, when cotton and textile production became the vehicles of prosperity in America, the African slaves formed the backbone of the economy, just as they did in colonial America. This led to a situation in which the free persons (white Americans) could do without exploiting each other. Class exploitation was given the ideological veneer of racism. Slavery system began to be defined in terms of racial relations and was justified in the name of “natural ineptitude and intrinsic incompetence” of the people of African origin. The ideology of racism became the excuse for perpetuating the slavery system in a republic that was based on the revolutionary ideas of liberty and natural rights. It was used to justify the denial of natural rights to a certain people, although they continued to be natural rights for everyone else.

While the European Americans used the ideology of racism to reconcile the inherent contradictions of liberty and slavery, the African Americans called for an end to slavery to resolve these contradictions and declared that liberty was their birthright, too. Slavery is dead but racism is still alive. The murder of George Floyd is ample proof. However, anti-racism consciousness has reached a new high and the worldwide movement challenging Columbus’ legacy is a testament to it.   

References

Kolchin, Peter. (1987). Unfree Labour: American Slavery and Russian Serfdom. Cambridge:  The Belknap Press of Harvard University Press.

Jordan, Winthrop D. and Leon F. Litwack. (1983). The United States: Conquering a Continent (5th Edition). Englewood Cliffs, New Jersey. Prentice Hall.  

Jordan, Winthrop D., Christopher Leslie Brown and Peter H. Wood. (1968). White over Black: American Attitudes Toward the Negro, 1550-1812. Chaplin Hill: University of North Carolina Press.

Brown, Dee. (1970). Bury My Heart at Wounded Knee. New York: Holt, Rinehart and Winston 

Morgun, Edmund. (1975). American Slavery, American Freedom: The Ordeal of Colonial Virginia. New York: W.W. Norton & Company

Rose, Willie Le. (Ed) (1976). A Documentary History of Slavery in North America. New York: Oxford University Press

(Translation: Amrish Herdenia)

Captions:

Hero-turned-villain: Columbus’ status bites the dust

People hold a demonstration holding pictures of George Floyd in New York.

A demonstration seeking justice for John Floyd.

 


corn and wheat instead?

Sunday, August 9, 2020

लिंकन

 अमेरिका में लिंकन के खिलाफ बहुत लिखा गया है। उत्तरी अमेरिका में अमेरिकी मूलनिवासियों (रेड इंडियन्स) का अत्यंत क्रूर नरसंहार लिंकन के शासनकाल में हुआ था। पकड़े गए उनके सरदारों को पिंजड़े में बंद कर प्रदर्शनी लगाया जाता था। 1980 के दशक में छपी डी ब्राउन की पुस्तक 'बरी माई हार्ट एट वुंडेड नी' में इसका बहुत जीवंत वर्णन है। लिंकन की जनता श्वेत अमेरिकी जनता थी। दोगलापन यह है कि एक तरफ हम वसुधैव कुटुंबकम् की बात करेंगे दूसरी तरफ हिंदू-मुसलिम नरेटिव से फिरकापस्ती के नफरत का जहर फैलाएंगे। गर्व से हिंदू होने का उद्घोष करेंगे और आरक्षण एवं शूद्रों (ओबीसी एवं दलित जातियां) के विरुद्ध तमाम तरह के कलुष एवं अवमाननापूर्ण वक्तव्य देंगे। किसी भी व्यक्ति या समुदाय के विकास के लिए आत्मावलोकन और आत्मालोचना आवश्यक है वरना विदेशी कर्ज से लदे, कैंची और नेलकटर के लिए भी विदेशों पर निर्भर रहते हुए बाभन, भुइंहार, अहिर ...... हिंदू, मुसलमान होने पर गर्व करते रहेंगे। यूरोप में नवजागऱण (रेनेसां) तथा प्रज्ञा (एनलाइटेंमेंट) क्रांतियों का केंद्रबिंदु आस्था एवं प्रथा के विरुद्ध तर्क और विवेक की दावेदारी थी। बोद्ध बौद्धिक क्रांति के भी यही केंद्रबिंदु थे। तर्क तथा वैज्ञानिकता के रास्ते पर आगे बढ़ने की बजाय हम धर्मोंमादी,अंध-आस्था तथा धर्मांधता के अधोगामी पथ पर अग्रसर हैं।

Saturday, August 8, 2020

नई शिक्षा नीति और नई चुनौतियां

 ज्ञान, शिक्षा और वर्चस्व (भाग 1)

नई शिक्षा नीति और नई चुनौतियां
ईश मिश्र
“हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है बौद्धिक शक्तियों पर भी वही बौद्धिक शक्ति पर भी शासन करता है। भौतिक उत्पादन के साधन जिस वर्ग नियंत्रण में होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं विचारों के आधीन रहते है। शासक विचार, विचारों के रूप में गठित प्रभुता के भौतिक संबंधों की आदर्श अभिव्यक्ति ही है; यानि उन संबंधों की अभिव्यक्ति जो एक वर्घ को शासक वर्ग बनाते हैं – प्रभुता के विचार। ...... शासक वर्ग के लोग ....... अन्य चीजों के अलावा विचारों के उत्पादक के रूप में शासन करते हैं और इसलिए अपने युग के विचारों के उत्पादन और वितरण का नियंत्रण करते हैं; इस प्रकार उनके विचार युग के विचार होते हैं।” (कार्ल मार्क्स, जर्मन विचारधारा)

कार्ल मार्क्स का यह कथन आज नवउदारवादी संदर्भ में कम-से-कम उतना ही प्रासंगिक है जितना 1945 में इसके लिखे जाने के वक्त. शासक वर्ग का विचार ही युग का विचार या युग चेतना होता है. युगचेतना मिथ्या चेतना होती है क्योंकि यह एक खास संरचना को सार्वभौमिक तथा अंतिम सत्य के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करती है। पूंजीवाद औद्योगिक उद्पादन प्रक्रिया में एक तरफ उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करता है दूसरी तरफ बौद्धिक उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादन के वैचारिक साधनों से विचारों का उत्पादन करता है। शिक्षा बौद्धिक उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण साधन है तथा शिक्षा संस्थान इसके सबसे महत्वपूर्ण कारखाने।
1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा को एक व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स (जनरल ऐग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज़) में शामिल कर लिया है। वैसे मनमोहन सरकार भी इस दस्तावेज पर दस्तखत करने को सिद्धाततः सहमत थी लेकिन किया मोदी सरकार ने। साम्राज्यवाद का नवउदारवादी दौर उदारवादी औपनिवेशिक दौर से इस मामले में भिन्न है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गए हैं। कांग्रेस तथा भाजपा सरकारें, विश्व बैंक की मातहदी में एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी हैं। शासक वर्ग समाज के मुख्य अंतरविरोध की धार को कुंद करने के लिए राज्य के वैचारिक उपकरणों से अपने आंतरिक अंतरविरोधों को समाज के मुख्य अंतरविरोध के रूप में प्रचारित करता है। उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला गैट्स को लागू कर, शिक्षा को पूरी तरह कॉरपोरेटी भूमंडलीय पूंजी के हवाले करने की भूमिका है। गैट्स के विभिन्न प्रावधानों या शासक वर्गों के विभिन्न प्रतिस्पर्धी प्रतिनिधि समूहों की विश्लेषणात्मक चर्चा की गुंजाइश (स्कोप) यहां नहीं है लेकिन खेल के सम मैदान (लेबेल प्लेइंग फील्ड) प्रावधान की संक्षिप्त चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी। यानि अगर सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय को अनुदान देती है तो लब्ली विश्वविद्यालय को भी दे नहीं तो दिल्ली विश्वविद्यालय का भी अनुदान बंद करे। जब तक सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थान रहेंगे तो निजी खिलाड़ियों के ‘खुले’ खेल में दिक्कत होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय तथा अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक और छात्र शिक्षा को बचाने के लिए सालों से आंदोलित हैं। विस्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को समाप्त करके उसकी जगह उच्च शिक्षा वित्तीय अधिकरण (हायर एजूकेसन फाइनेंसिंग एजेंसी – हेफा) का गठन किया गया है। सरकार अब विश्वविद्यालयों तथा उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान नहीं देगी बल्कि हेफा के माध्यम कर्ज देगी, जिसे संस्थानों को किश्तों में लौटाना पड़ेगा। जाहिर है विश्विद्यालय तता अन्य शिक्षा संस्थान इस भुगतान के लिए छात्रों से भारी फीस वसूलेंगे। यह पिछले दरवाजे से विश्वविद्यालयों के निजीकरण का रास्ता है। अब खेल के मैदान समान (लेवेल प्लेयिंग फील्ड) होंगे। पैसा फेंको, तमाशा देखो। औपचारिक रूप से समाप्ति के बिना आरक्षण वैसे ही अप्रासंगिक हो जाएगा। पैसा हो तो पढ़ो या भविष्य गिरवी रखकर कर्ज लेतकर पढ़ो। हम लोगों ने स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा लगभग मुफ्त में प्राप्त किया वरना हमारे जैसे साधारण किसान परिवारों के बच्चे शायद अशिक्षित ही रह जाते, अत्यंत गरीब, दलित आदिवासियों की बात ही छोड़िए।
कोरोना संक्रमण के चलते फैली महामारी के प्रकोप से दुनिया की बहुत सी सरकारों को अपने संकीर्ण राजनैतिक एजेंडों के लिए आपदा को असर में बदलने का बहाना मिल गया है। हमारी सरकार और शासक पार्टी ने आपदा को कई तरह से राजनैतिक अवसर में बदलना शुरू कर दिया है, आर्थिक संकट से निपटने की अयोग्यता का बहाना तो मिल ही गया है। महामारी की आपदा को मजदूर विरोधी कानूनों के अध्यादेश, महामारी के सांप्रदायिककरण या संविधान में सांप्रदायिक संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन के कार्यकर्ताओं के दमन के अवसर में बदलने के प्रयासों पर चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है। यहां मकसद महज यह बताना है कि किस तरह महामारी की आड़ में सरकार शिक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही है। स्कूली बच्चों पर “पढ़ाई का बोझ” हल्का करने के नाम पर उनके पाठ्यक्रम से समाज और राजनीति से संबंद्धित नागरिकता, राष्ट्रीयता, संघवाद, मानवाधिकार, विधिक सहायता एवं स्थानीय स्वशासन जैसी कई मूल अवधारणाएं तथा दिमाग को गतिशीलता प्रदान करने वाले गणितीय तार्किकता जैसे अध्याय हटा दिये गये हैं। सामाजिक वर्चस्व की स्थापना एवं उसे बनाए रखने में “ज्ञान” की अहम भूमिका होती है तथा शासक वर्ग के वर्चस्व के “ज्ञान” या विचारों का उत्पादन शिक्षा से किया जाता है। इसीलिए सभी सर्वाधिकारवादी सत्ताएं सत्ता पर काबिज होते ही सबसे पहले शिक्षा पर ध्यान केंद्रिकत करती हैं। भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व शिक्षा पर एकाधिकार के जरिए अनुकूल “ज्ञान” (विचारों) का उत्पादन रहा है। बौद्ध बौद्धिक क्रांति का प्रमुख आधार उसकी सामासिक, जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली थी। ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति का मुख्य निशाना इसकी शिक्षा व्यवस्था ही थी जिसने संघों की सामूहिकतावादी जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर उसकी जगह ‘गुरुर्देवो भव’ के सिद्धांत पर आधारित एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी गुरुकुल प्रणाली की स्थापना की।
धर्मशास्त्रीय शिक्षा पर आधारित सामंतवादी वर्स्व के विरुद्ध पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति के बाद नए शासक वर्ग, नवोदित पूंजीवादी वर्ग के वर्चस्व के लिए आस्था एवं परंपरा की बजाय तर्क एवं विवेक पर आधारित वैज्ञानिक शिक्षा की आवश्यकता थी। स्वतंत्रता के बाद स्थापित भारतीय गणतंत्र के कल्याणकारी राज्य के अंतर्गत राष्ट्र निर्माण के लिए भी, गुरुकुल या मदरसा प्रणाली की शिक्षा की बजाय आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली अपनाई गयी। 1950 में संविधान सभा द्वारा निर्मित-पारित संविधान के स्थान पर मनुस्मृति की हिमायती हिंदुत्ववादी ताकतें सदा से ही इस शिक्षा प्रणाली को ‘भारतीयता’ के विरुद्ध मैकाले और वामपंथियों की साजिश बताकर इस पर हमलावर रही हैं। जब जब ये ताकतें सत्ता में आयीं शिक्षा को ‘भारतीयता’ प्रदान करने की दिशा में ठोस कदम उठाती रहीं। 1998 में केंद्र में अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी तो मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने का वीड़ा उठाया और शुरुआत स्कूली पाठ्यक्रम मेंसामाजिक विज्ञान के विषयों – खासकर इतिहास के पाठ्यक्रम से छेड़-छाड़ से किया। इतिहास की जगह तीर्थाटन, कर्मकांड, पौरोहत्य और जातिवाद एवं वर्णाश्रम को औचित्य का सामग्री पाठ्यक्रम में प्रविष्ट किया गया। विश्विद्यालयों में ज्योतिष को बीए और एमए के पाठ्यक्रम में डालने का प्रयास किया गया। 2014 में पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज होने के बाद शिक्षा प्रणाली के तथाकथित भारतीयकरण की मुहिम तेज हो गयी। निजीकरण और व्यापारीकरण के रास्ते शिक्षा के अनुकूलीकरण के लिए नई शिक्षा नीति का दस्तावेज तैयार किया गया जिसकी प्रस्तावना गुरकुकुल के संदर्भ से शुरू होती है। प्रचीन भारत के गौरव और महानताओं के अन्वेषण के लिए इतिहास पुनर्लेखन समिति गठित की गयी, जिसका मूल उद्देश्य, रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों को ऐतिहासिक साबित करके इतिहास का पुनर्मिथकीकरण है ।
ज्ञान का इतिहास शिक्षा के इतिहास से पुराना है. आदिम कुनबों तथा कबीलों में ज्ञानी माने जाने वाले ही कबीले का मुखिया, पुजारी या सेनापति होते थे। मानव जाति ने भाषा; आग; धातुविज्ञान; पशुपालन; विनिमय/विपणन तथा आत्मघाती युद्ध का ज्ञान किसी भी शिक्षा व्यवस्था के पहले ही हासिल कर लिया था। प्रकृति से अनवरत संवाद से अर्जित अनुभवों तथा प्रकृति के साथ प्रयोगों और उनपर चिंतन-मनन से मनुष्य अनवरत रूप से ज्ञानाजर्न करता रहा है तथा इसके माध्यम से श्रम के साधनों का विकास। इसीलिए कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता बल्कि ज्ञान एक अनवरत प्रक्रिया है। हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है। निजी संपत्ति के आगाज के चलते कबीलाई ज़िंदगी के विखराव के दौर में, सामूहिक संपत्ति के बंटवारे में ज्ञानियों की चतुराई से सामाजिक वर्ग-विभाजन के बाद वर्चस्वशाली वर्गों ने वर्चस्व की वैधता के लिए ज्ञान को अपने वर्गहित में परिभाषित किया। ज्ञान की इस सीमित परिभाषा को ही अंतिम ज्ञान के रूप में समाज पर थोपने के मकसद से ज्ञान को शिक्षाजन्य बना देशकाल के अनुकूल शिक्षा प्रणालियों की शुरुआत की। मार्क्स के उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पूंजीवाद महज उपभोक्ता माल का ही नहीं, विचारों भी उत्पादन करता है। शासक वर्ग के विचारक, शासक विचारों को राज्य के वैचारिक उपकरणों से अंतिम सत्य बता, युग के विचार के रूप में प्रतिष्ठित कर युग चेतना का निर्माण करते है। ये विचार प्रकारांतर से यथास्थिति को यथासंभव सर्वोचित तथा सर्वाधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था के रूप में स्थापित करते हैं।
इस तरह की मिथ्या चेतना का निर्माण जरूरी नहीं कि छल-कपट के भाव से किया जाता हो। प्रायः ये बुद्धिजीवी खुद को धोखा देते हैं, क्योंकि वे खुद मिथ्या को सच मानने लगते हैं। ये तमाम तर्क-कुतर्कों से बताते हैं कि पूंजीवाद ही सर्वोत्तम व्यवस्था है जिसमें हर किसी को योग्यतानुसार पुरस्कृत या दंडित किया जाता है। समाजवाद वगैरह के विकल्प अव्यावहारिक हैं और असफल साबित हो चुके हैं। जाने-माने मार्क्सवादी विचारक ऐंतोनियो ग्राम्सी ने अपने वर्चस्व के सिद्धांत में खूबसूरती से दर्शाया है कि किस तरह युगचेतना के प्रभाव में, शोषित सहमति से शोषित होता है। शासक वर्गों के हाथ में संस्थागत शिक्षा युगचेतना के निर्माण का एक प्रमुख उपकरण है। यह ज्ञान को परिभाषित और सीमित करती है। प्राचीन कालीन यूनानी चिंतक अरस्तू, शिक्षा की भूमिका नागरिकों में खास ढंग से, सोचने की आदत डालना तय करता है। इसीलिए सभी सरकारें शिक्षा के अनुकूलन का प्रयास करती हैं। आधुनिक शिक्षा में शैक्षणिक डिग्रियों को आम तौर पर किसी के ज्ञान का मानदंड मान लिया जाता है। उच्च शिक्षा प्राप्त भक्तों की भीड़ देख, लगता है कि पढ़े-लिखे अज्ञानियों का प्रतिशत काफी है.
कृषि तथा शिल्प के विकास के साथ हमारे अर्धखानाबदोष ऋगवैदिक पूर्वजों की पशुपालन की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित हो गयी और वे स्थाई गांवों में रहने लगे। कुछ चतुर-चालाक लोगों ने श्रम विभाजन के नाम पर समाज को वर्गों(वर्णों) में बांटकर पवित्रतता-अपवित्रता के सिद्धांत गढ़कर जन्मजात बना दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था के औचित्य तथा वैधता के लिए ग्रंथ लिखे गये जिन्हें ज्ञान का श्रोत मान लिया गया और शिक्षा के द्वारा उनमें समाहित विचारों को प्रचारित किया गया। अमानवीय वर्गविभाजन को दैविक रूप देकर शासक वर्गों (वर्णों) के हित में युगचेतना के निर्माण के लिए शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली शुरू हुई। समूचे प्राचीन तथा मध्ययुगीन इतिहास में, समतामूलक बौद्ध समुदायों को छोड़ दें तो शिक्षा तथा ज्ञान की दावेदारी शासित वर्गों के लिए वर्जना ही रही है। मुग़लकाल के पहले शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी। शिक्षा तथा उससे प्राप्त ज्ञान पर, ब्रह्मा की इच्छानुसार, ब्राह्मण पुरुषों का एकाधिकार था। जैसा कि मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है, शूद्रों तथा महिलाओं द्वारा शिक्षा का प्रयास घोर दंडनीय उपराध था। आम जन की भाषा पाली में लिखे बौद्ध ग्रंथों तथा बौद्ध संघों की जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली की मिसाल छोड़ दिया जाय, तो प्राचीन तथा मध्यकालीन इतिहास में शायद ही कहीं आमजन की भाषा ज्ञान की भाषा या शिक्षा का माध्यम रही हो। इंगलैंड में कैंब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में क्रमशः 1892 और 1894 में विषय तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को शामिल किया गया। गौरतलब है कि इंग्लैंड के निम्न वर्गों ने लंबे संघर्ष के बाद 1860 के दशक में मताधिकार हासिल किया था। भारत में अंग्रेजी शासक भाषा थी, इंग्लैंड में आमजन की। मुगलकाल में शासकीय भाषा फारसी होने से ज्ञान की भाषा बन गयी. ‘पढ़े फारसी बेचे तेल, ये देखो कुदरत का खेल’ एक मशहूर कहावत है। चूंकि मध्य युग में सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म वैधता की विचारधारा, धर्म-ग्रंथो में वर्णित ज्ञान ही ज्ञान था एवं धर्म ग्रंथों का अध्ययन ही शिक्षा का विषय। इसलिए पाठशालाओं तथा मदरसों पर क्रमशः ब्राह्मण पुजारियों तथा मौलवियों का नियंत्रण होता था। औपनिवेशिक शासन में अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम और ज्ञान की भाषा बन गयी। शिक्षा के सार्वभौमिक संवैधानिक प्रावधान से शिक्षा की ब्राह्मणवादी वर्जनाएं खत्म हुईं। राजकीय तथा केंद्रीय विश्वविद्यलयों तथा अन्य उच्च शिक्षा के संस्थानों में वंचित तपकों के लड़के-लड़कियां पहुंचने लगे। शिक्षा के जरिए ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी। विश्व बैंक की इच्छा के अनुकूल, शिक्षा को प्रकांतर से पूर्णरुपेण व्यावसायिक सामग्री बनाकर, सरकार की नई शिक्षा नीति नये तरह की वंचना तथा वर्जना की साज़िश है। सिर्फ अमीर ही शिक्षा प्राप्त कर सकेगा। गरीबों को भी शिक्षा चाहिए तो कर्ज़ लेकर पढ़े जिसे चुकाने के लिए भविष्य गिरवी रखना पड़ेगा।

प्राचीन यूनान में प्लेटो की एकॆडमी की स्थापना के पहले अमीर नागरिक अपने बच्चों की शिक्षा की निजी व्यवस्था करते थे। प्लेटो की एकेडमी पहला सार्वजनिक शिक्षा संस्थान था। प्लेटो के ग्रंथ रिपब्लिक में शिक्षा को इतना अधिक स्थान दिया गया है कि जन-संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक 18वीं शताब्दी के दार्शनिक रूसो ने उसे शिक्षा पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है। करनी-कथनी के अंतर्विरोध का दोगलापन पूंजीवाद की ही नहीं, सभी वर्ग समाजों के इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहा है। यह दोगलापन सर्वाधिक उसकी शिक्षा व्यवस्था में परिलक्षित होता है। एक तरफ प्लेटो कहता है कि शिक्षा का काम विद्यार्थी को बाहर से ज्ञान देना नहीं है। मष्तिष्क गतिशील है तथा उसके पास अपनी आंखें हैं। शिक्षा काम सिर्फ प्रकाश दिखाना है, यानि मष्तिष्क की गतिशीलता के लिए परिवेश (एक्सपोजर) प्रदान करना है। वह खुद-ब-खुद ज्ञान के विचारों की तरफ चुंबकीय प्रभाव से आकर्षित होगा। दूसरी तरफ जन्म से ही शुरू होने वाली शिक्षा व्यवस्था के लिए सख्त पाठ्यक्रम की योजना पेश करता है, सख्त सेंसरशिप से चुनी गयी विषय वस्तु के साथ। वर्णाश्रम की तर्ज पर उसके आदर्श राज्य में ज्ञानी राजा होगा। शिक्षा के माध्यम से श्रम(वर्ग) विभाजन होता है। ज्ञानी (दार्शनिक) राज तकरता है; साहसी सैनिक होता है तथा बाकी भिन्न-भिन्न आर्थिक उत्पादन का काम करते हैं। जैसे ब्रह्मा ने विभिन्न लोगों को अपने शरीर के विभिन्न अंगों से पैदा करके सामाजिक असमानता का निर्माण किया वैसे ही प्लेटो दार्शनिक राजा यह मिथ फैलाता है कि ईश्वर ने लोगों को सोना, चांदी और पीतल-तांबे जैसे तुच्छ धातुओं के गुणों के साथ पैदा किया है जो कि अपरिवर्तनीय है। सोने के गुण वाला दार्शनिक राजा होता है, चांदी वाला सैनिक और तांबे पीतल वाले आर्थिक उत्पादक। अंधकार युग कहे जाने वाले मध्ययुग में और जगहों की तरह यूरोप में भी सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म उसकी विचारधारा। धार्मिक ज्ञान ही ज्ञान था तथा पादरी ही शिक्षक भी था और ज्ञान की परिभाषा का ठेकेदार भी। धार्मिक शिक्षा के ज्ञान के अतिक्रमण के ‘अपराध’ में वैज्ञानिक ब्रूनो को सन् 1600 में रोम में जिंदा जला दिया गया था। उनपर कैथलिक आस्था की कई बुनियादी मान्यताओं के खंडन के आरोप में 7 साल मुकदमा चला था। ज्ञान की स्थापित परिभाषा के उल्लंघन के आरोप में गैलेलियो का हश्र सर्वविदित है। रूसो को अपने उपन्यास एमिली में चर्च नियंत्रित शिक्षा की आलोचना के लिए फ्रांस छोड़कर भागना पड़ा। कहने का मतलब जो भी शासकवर्ग की ज्ञान की परिभाषा का अतिक्रमण करता है उसे दंडित किया जाता है, चाहे वह ब्रूनो, गैलेलिओ, रूसो हों या हैदराबाद विश्वविद्यालय या जेयनयू के शिक्षक-छात्र हों।
नागपुर से संचालित मौजूदा सरकार ने 2014 में पहली बार सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा में तब्दीली शुरू कर दिया। प्रस्तावित शिक्षा नीति को संसद में पेश किए बिना ही, आज्ञाकारी, “स्वायत्त” विश्वविद्यालय आयोग (यूजीसी) तथा मानव संसाधन मंत्रालय के फरमानों के जरिए, उसके प्रावधानों को उच्च शिक्षा संस्थानों में लागू करना शुरू कर दिया। इसके विरोध में शिक्षक तथा छात्र लगातार आंदोलित हैं।
1833 में, ब्रिटिश संसद में भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू करने के पक्ष में बोलते हुए मैकाले ने कहा था कि इससे (शिक्षा पद्धति लागू करने से) बिना अपनी भौतिक उपस्थिति के अंग्रेज 1,000 साल तक भारत पर बेटोक राज कर सकेंगे। कितनी सही निकली मैकाले की भविष्यवाणी। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तथा विश्वबैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश संचालित नवउदारवादी साम्राज्यवाद में यह फर्क है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गये हैं। यानि ऐतिहासिक रूप से, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान को शासक वर्ग हित के सीमित दायरे में परिभाषित कर उस पर एकाधिकार स्थापना से वर्चस्वशाली के वर्चस्व को बरकरार रखना और मज़बूत करना है। ऐंतोनियो ग्राम्सी के शब्दों में, शिक्षा शासक वर्ग के वर्चस्व के लिए जैविक एवं परंपरागत बुद्धिजीवी पैदा करती है। मुख्यधारा से ही विद्रोही धाराएं भी निकलती है, जिसके प्रसार को रोकने का शासक वर्ग हर संभव उपाय करता है। विश्वबैंक के दबाव में भूमंडलीय पूंजी की हितपूर्ति में जो नीतिगत तथा संस्थागत परिवर्तन मनमोहन सरकार, शायद लोकलज्जा की वजह से, मंद गति से कर रही थी, मोदी सरकार ने बागडोर संभालते ही आक्रामक ढिठाई से आगे बढाना शुरू कर दिया।
जहां पिछली शताब्दी के उदारवादी पूंजीवाद के संकट की जड़ में आमजन की क्रयशक्ति की कमी से, अतिरिक्त उत्पादित माल का संकट था, नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजीवाद का संकट फायदेमंद, सुरक्षित निवेश के नीड़ की तलाश में अतिरिक्त पूंजी का है। रीयल यॅस्टेट के बाद शिक्षा को निवेश का सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र माना जा रहा है. कहने का मतलब कि वर्चस्व की हिफाज़त के लिए जैविक तथा पारंपरिक बुद्धिजीवी पैदा करने की शिक्षा की भूमिका में एक अतिरिक्त आयाम और जुड़ गया, व्यावसायिक आयाम। विश्वबैंक द्वारा इसे खरीद-फरोख्त की व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स में शामिल करने के पहले से ही शिक्षा अत्यंत लाभकारी व्यवसाय बन चुका है। धीरे धीरे अन्य उपक्रमों की ही तरह शिक्षा का भी पूर्ण कॉरपोरेटीकरण हो रहा है। उसकी अंतःवस्तु की बात छोड़िए, उच्च शिक्षा गरीब तथा दलित-आदिवासियों की पहुंच से ही बाहर हो जायेगी और शैक्षणिक कर्ज अतिरिक्त आवारा पूंजी का एक और ठिकाना बन जायेगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, राज्य के वैचारिक औजारों द्वारा साम्यवाद विरोधी अभियान के बावजूद अमेरिका के विश्वविद्यालय परिसर क्रांतिकारी विमर्श तथा गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभर रहे थे। शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ आपस में नहीं युद्ध कर रहे थे बल्कि अपने-अपने आंतरिक “शत्रुओं” से निपट रहे थे। शीतयुद्ध के आवरण में सोवियत संघ के साथ साम्यवादी विचारधारा को ही राष्ट्रीय दुश्मन घोषित कर शिक्षा संस्थानों पर हमला बोल दिया था। 1950 के दशक में, मैकार्थीवाद के तहत देशद्रोह का हव्वा खड़ा कर कम्युनिस्टों तथा उनके समर्थकों की धर-पकड़ शुरू हो गयी थी। भारत के मौजूदा यूएपीए की ही तरह खतरनाक पैट्रियाट तथा अन्य काले कानूनों के तहत तमाम बुद्धधिजीवियों, फिल्मकारों, शिक्षाविदों को निशाने पर लिया गया। आइंस्टाइन की निगरानी के लिए एफबीआई में एक अलग सेल थी लेकिन सेलिब्रिटी स्टेटस ने उन्हें बचा लिया। मैनहट्टन प्रयोजना से जुड़े रहे रोजेनबर्ग पति-पत्नी को परमाणु बंम से संबंधित फार्मूला लीक करने के आरोप में मौत की सजा दे दी गयी। हजारों शिक्षकों तथा छात्रों को प्रताड़ित किया जा रहा था। ऩई शिक्षा नीति में प्रणाली तथा पाठ्यक्रम ऐसे बनाए गये जिससे चिंतनशीलता को कुंद कर राज्य पर बौद्धिक निर्भरता सिखाया जा सके। अमेरिकी अपनी शिक्षा पद्धति का मजाक उड़ाते हुए उसे “बहरा बनाने की प्रक्रिया(डंबिंग प्रॉसेस)” कहते हैं।
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा नीति में बदलाव शुरू कर दिया तथा परिसरों पर हमला। जिस तरह कोई अंतिम सत्य नहीं होता, उसी तरह कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता। ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है। वैचारिक द्वंद्व इस प्रक्रिया को गति देता है। मैं अपनी पहली क्लास में, हर साल, कोर्सेतर अन्य बातों के साथ दो बाते जरूर बताता था। पहली कि किसी भी ज्ञान कि कुंजी है, सवाल-दर-जवाब-दर-सवाल, अपने वैचारिक संस्कारों से शुरू कर अनपवाद हर बात पर सवाल। दूसरी बात कि उच्च शिक्षा की ये संस्थाएं ज्ञान देने के लिए नहीं बनी हैं। इनका वास्तविक मकसद विद्यार्थियों को ऐसी सूचनाओं एवं दक्षताओं से लैस करना है जिससे व्यवस्था को बरकरार रखा जा सके, यद्यपि घोषित उद्देश्य चिंतनशील नागरिक तैयार करना है। ज्ञान के लिए अलग से प्रयास करना पड़ता है। इन विश्वविद्यालयों से ही चिंतनशील इंसान भी निकलते हैं तथा विद्रोह की आवाज बुलंद करते हैं, शिक्षा के चलते नहीं शिक्षा के बावजूद।
वैसे तो विश्व बैंक के आदेशानुसार, शिक्षा के पूर्ण उपभोक्तातरण तथा व्यावसायीकरण का सिलसिला कहीं लुके-छिपे, कहीं खुले-आम, उसी समय शुरू हो गया था जब नरसिंह राव सरकार ने 1991 में डव्लूटीओ प्रस्तावित भूमंडलीकरण के प्रस्तावों पर दस्तखत किया था। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में यनडीए सरकार के शासनकाल में, जब शिक्षा मंत्रालय, मानव संसाधन मंत्रालय बन गया तब से यह सिससिला धड़ल्ले से खुलेआम हो गया। पिछले तीन दशकों में इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट के तमाम निजी क़ालेज तथा विश्वविद्यालय कुकुरमुत्तों की तरह देश के कोने कोने में उग आए। दिल्ली में इन शिक्षण दुकानों को संबद्धता दिलाने के लिए, 1998 में भाजपा शासन काल में, राज्य विश्वविद्यालय के रूप में इंदप्रस्थ विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। 1995 में विश्व बैंक ने शिक्षा को सेवाओं के व्यापार पर समस्त समझौता (गैट्स) में व्यापारिक सेवा के रूप में शामिल कर लिया। यूपीए सरकार इस दस्तावेज पर दस्तखत को सिद्धांततः राजी थी लेकिन शायद शैक्षणिक जगत में व्यापक विद्रोह के भय से इस पर दस्तखत नहीं कर पाई। 2015 में नैरोबी में यनडीए सरकार इस पर दस्तखत कर आई। इसके लिए पथ प्रश्स्त करने के लिए सरकार ने शिक्षानीति में व्यापक फेर-बदल शुरू कर दिया तथा उच्च शिक्षा संस्थानों पर तीन तरफा हमला। शिक्षा नीति में परिवर्तन; उच्च शिक्षा संस्थानों के मुखिया के पद पर संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता वाले आरयसयस पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की नियुक्ति तथा शिक्षक-छात्रों के प्रतिरोध का दमन। शिक्षा को छिन्न-भिन्न करने की कवायद यूपीए सरकार के समय ही शुरू हो गयी थी, मौजूदा सरकार उस एजेंडे को और आक्रामक तरीके से लागू कर रही है.
यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में दिल्ली विश्वविद्यालय आनन-फानन में, कोर्स परिवर्न के सारे स्थापित मानदंडों को धता बताते हुए, हड़बड़ी में चार-साला स्नातक कार्यक्रम (यफवाईपी) शुरू कर दिया था जिसका विश्वविद्यालय समुदाय ने व्यापक विरोध किया था। यूपीए शासनकाल के इस विरोध में भाजपा समर्थक संगठन यनडीटीयफ भी था। 2014 में मोदी सरकार के आते ही इसे रामबाण बताने वाले, विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष को यह कार्यक्रम नियमों का उल्लंघन लगा। चारसाला कार्यक्रम रद्द कर उसे तीनसाला में बदल दिया गया तथा कुछ ही साल पहले शिक्षकों तथा छात्रों के विरोध के बावजूद वार्षिक प्रणाली की जगह थोपी गई सेमेस्टर प्रणाली की वापसी हो गई। साल भीतर ही सरकार ने शिक्षानीति में आमूल परिवर्तन शुरू कर दिया। केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम समेत प्रस्तावित उच्च शिक्षाल नीतियों का मकसद विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नष्ट करना है। अब विश्वविद्यालय चिंतन-मनन एवं शोध-अन्वेषण के केंद्र से कुशल कारीगर पैदा करने के कारखाने बन जाएंगे।
यह लेख इस बात से खत्म करना चाहूंगा कि इंसान अनुभव, अध्ययन, प्रयोग तथा दिमाग के प्रयोग से ज्ञान अर्जित करता है। शिक्षा शासक वर्ग के विचारों को युग का विचार बताकर शासक वर्ग के हित में युगचेतना का निर्माण करने तथा बरकरार रखने के मकसद से के ज्ञान को एक खास दिशा में परिभाषित करती है, शासक विचारों के प्रसार से युग चेतना का निर्माण करती है। महामारी के बावजूद देश भर में जारी शिक्षक-छात्र आंदोलन युगचेतना के विरुद्ध सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में निर्णायक पहल हैं।