Sunday, June 30, 2013

क्या गगनचुम्बी इरादे और जज्बे हैं

क्या गगनचुम्बी इरादे और जज्बे हैं
 इस सांवले लडकी के
 निकली है जो सपनो को साकार करने
एक नया इतिहास गढ़ने

Saturday, June 29, 2013

Kautilya

The first paragraph of this post is a post on fb and the rest the comments on the comments on that post.

Kautilya’s Arthshastra, the immortal work on statecraft is unique Indian contribution to the history of Political Theory in the sense that apart from other things, for the first time it provides a definition of state – Saptang theory -- in terms of its constituent elements with incisively comprehensive treatment of each. It devotes quite sizeable space to warfare – the Mandal theory—and the system of espionage, the secret service. Kautilya seems so contemporary and relevant through ages. He advises the prudent king to  avoid a direct war with Snghas (probably referring to the confederation of what is called post Vedic republics in the north of Ganga region) but secret wars (Mantra yuddha). A sizeable number of secret agents consisted of prostitutes and charming women along with holy men and women. Out of 4 principles (Sam-dam-bhed-danda) of foreign policy, he thinks bhed(dissension) is more effective. One of the methods he suggest that a charming agent finds access to interact with 2 closely related republican chiefs in separate “coincidences” and in separate “mutual spontaneity” falls in love with each of them and creates such an animosity between them that it becomes matter of public knowledge. If they do not try to kill each other, she secretly kills one and blames the other. The infighting will weaken the republic that become easy to take over. Does Kautilya’s this doctrine has any meaning in contemporary times.

Philosophers do not create justices or injustices, they already exist in the society. Philosophers only respond and react to them. By 4th century BC, patriarchy; gender -- its ideology; genderized notions of sexuality along with taboos and inhibitions meant to control female sexuality and thereby personality, was an established fact. Plato was revolutionary revolutionary in this regard to allow women equal right to education, public offices and even to become philosopher queen. He is rebuked by his student for giving away the enslavement of women, one of the historic achievements of man. In ancient India too, patriarchy  and prostitution were established facts. Prostitution was a recognized, prevalent institutions. Nevertheless prostitutes, widows and single women enjoyed much better rights and state protection. Care and livelihood of widows and single women was state responsibility. Many prostitutes and single women were secret agents and enjoyed good salary and many other privileges including legal immunity in many fields. Kautilya was not interested in social change but to maintain it well. His interest was creation and expansion of state -- monarchy -- attaining/retaining/expanding power. Using existing superstitions and prejudices in the interest of the state as part of Apaddharma. Ensuring observance of Vedic Dharma, i.e. Varnaashram Dharma was also part of Rajdharma.

Thanks Debu! for your enlightening, scholarly intervention. True it was not for general consumption but for specialists. NARENDRAARTHE. Not only it does not trace  the divine origin of state and statecraft but also does not give any space to religion or priest in his definition of state in terms of 7 constituent elements. I also agree with you that it was writtenWe find many references in Arthashastra itself of many previous traditions, schools and teachers of the statecraft. Kautilya  sounds a contemporary scholar. He begins his building theoy with the literature review. He would conclude the citations of other teachers by "nesti kautilya" and wouild conclude his vies with "iti kautliya".  

JNU 11

With a vision free from superstitious and irrational beliefs and bondage to corporate profits. Last time the rain fall density was, according to a study, was 7 times but the devastation was much less. The islands which were created in Bhagirathi were to be clearee and for that 60 crore Rupees had been sanctioned last time due to which less rain caused more devastating floods. The newly being developed JP township has been blatantly violating all the ecological and environmental norms. Since the formation of Uttarakhand that was supposed to guarantee right of the people of this Himalayan region over their resources,  it has been opened for mindless plunder by  corporate and land mafia in connivance with the politicians and bureaucrats for kickbacks. That needs freedom from the fantasy of profit centered development in favor of people oriented development.


और भी काम हैं तुम्हारी यादों के सिवा
फेसबुक भी तो है इस आभासी दुनिया में

Thursday, June 27, 2013

JNU 10

मैं डीआईआर से छूटा था और मीसा में वारंट था. आपात काल की उत्तरार्ध में सरकार गिरफ्तारी पर उतना जोर नहीं दे रही थी जितना फासीवादी माहौल बनाकर निष्क्रिय ने की. सीपीआई के एक मित्र जो इलाहाबाद के एक सुरक्षित मोहल्ले राजापुर में रहता था मैं कई दिन-रात उसके साथ बिताता था. बहुत बच्छेई कवितायें लिखता था. बहस में एक दिन उसने कहा पुलिस को फोन करूँ. ऐसा आतंक कि मैं दुविधा में पद गया कि हो सकता है यह महज मजाक न हो और उसके यहाँ जाना बंद कर दिया. भूमिगत आश्रय तलाशते जब जनेवि पहुंचा वहां भी एक मित्र ने यही धमकी दी थी और वैसी ही दुविधा हुई थी, जो फिर कभी.

Wednesday, June 26, 2013

अपने जन्म-दिन पर 1

विभिन्न मंचों पर, मेरी टाइमलाइन और इनबाक्स में बधाइओ की भरमार हो गयी और मैं आभासी दुनिया में इतने अप्रयाषित  शुभेच्छु पाकर मेरा दिल गार्डन-गार्डन हो गया. जिनकी बधाई पर अलग से आभार नहीं जता सका उनसे क्षमा-प्रार्थना के साथ हार्दिक आभार.  वैसे मैं आज तक नहीं समझ पाया की मैंने जन्मदिन मनाना क्यों शुरू किया सिवाय इसके कि मयनोशी के लिए तिनके की आड़ का सहारा नहीं लेना पड़ता. आज का प्रबंध मेरी बेटी की हाथ में है, उम्मीद (डर) है कि आज के जश्न में आचमन का कार्यक्रम रद्द कर दिया जाएगा. "पराधीन सुख सपनेव नाहीं", इसीलिये मैं कल ही प्रेसक्लब चला गया था.  एक साल के लेखा-जोखा के बाद, हर बार पीछे देखता हूँ और काबिल-ए-जश्न बात ढूँढता हूँ तो कुछ दिखता नहीं! दिल बहलाने को ख़याल आता है, "जीवन का कोइ जीवनेतर उद्देश्य नहीं होता. एक अच्छी ज़िंदगी जीना अपने आप एक सम्पूर्ण उद्देश्य है, बाकी अनचाहे परिणामों की तरह खुद-ब-खुद साथ चलते हैं.और कई बार अनचाहे  परिणाम, लच्छित परिणामों से ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं". मेरे दोस्तों की शिकायत रहती है कि मैं हर बात पर कहानी सुनाने लगता हा तो  लेकिन पैदा होने और उसके जश्न पर तो कहानी जरूरी हो जाती है. मैंने पहली बार २६ साल के होने पर जन्म-दिन मनाया क्योंकि पहले मुझे सही सही अपना जन्म-दिन मालुम नहीं था. प्रमाण-पत्र में टंकित जन्म-तिथि प्रामाणिक नहीं है क्योंकि मैं प्राइमरी में काफी कूद-फांद  करके जल्दी कर गया हेड मास्टर ने हाईस्कूल परीक्षा में रोका न जाऊं इस गणना से सनद बना दिया था.   मेरे दादाजी पंचांग के विद्वान माने जाते थे इसलिए हम सब भाई-बहनों की जन्म कुण्डलियाँ बनी हैं,कुण्डली के अनुसार  मेरा जन्म आषाढ़, कृष्ण-पक्ष दशमी संवत २०१२ को हुआ था. मेरे बचपन और किशोरावस्था में पूर्वी उत्तर-प्रदेश के गाँवों में जन्मदिन मानाने का प्रचालन नहीं था, इसलिए कभी विक्रम सदी को ईश्वी शदी में तबदीली की जरूरत नहीं महसूस हुई. १९७० के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रावासों में भी ज्यादातर विद्यार्थी ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही थे इसलिए वहां भी जन्मदिन मनाने पर जोर नहीं था. २४ जून १९८० में किसी शोध के सन्दर्भ में तीनमूर्ति लाइब्रेरी में १९५० के दशक के कुछ हिन्दी अखबारों की माइक्रोफिल्म देख रहा था. उन दिनों हिन्दी अखबारों में विक्रम सदी भी छपती थी, मन में आया अपना जन्मदिन भी क्यों न पता कर लूं. और फिर वापस आकर जन्म दिन पता होने का जश्न मनाया कुछ दोस्तों के साथ और फिर २६ जून को जे.एन.यु. के पार्थसारथी प्लेटो पर जमकर जश्न मनाया. तभी से हर साल २६ जून को दोस्तों के साथ "वैध" रूप से मयनोशी करता रहा. इस वर्ष मयनोशी का कार्यक्रम एक दिन पहले हो गया क्योंकि मेरी बेटी-दामाद ने सिर्फ परिवार के साथ जश्न  का फिसला किया लेकिन फोन पर और फेसबु पर इतनी बधाइयां मिलीं की मैं खुशी से ओत-प्रोत हो गया. 

सभी मित्रों का कोटिशः आभार, अपने हर तरह के विद्यार्थियों का खासकर.

Tuesday, June 25, 2013

लाशों की लड़ाई


दो लाशें जब लडती हैं
एक शहीद होती है
और एक ख़ाक में मिल जाती है
[ईमि/०२.०५.२०१३]

Sunday, June 23, 2013

गम-ए-जहां की बेचैनी

है ये चेहरे पर गम-ए-जहां की बेचैनी
समझना इसे घबराहट है सरासर गलतफहमी
इश्क गर हो जहां से
हमनवां मिलते हैं कहाँ कहाँ से
सच है कुछ नहीं मिलता खैरात में
लड़ के लेना पड़ता है हक और तबदीली हालात में
नहीं है मजबूरी जीने की ज़िंदगी निज चुनाव है
मत समझो इसे मुह छिपाना खुशियों से
बस खोखली उत्सवधर्मिता का अभाव है.
[ईमि/२३.०६.२०१३]

Friday, June 21, 2013

गुस्सा


खतरनाक हैं लोग जिन्हें आता नहीं गुस्सा
उनसे भी खतरनाक वे जो जताते नहीं गुस्सा
मुझे तो हर बुरी बात पर आता है गुस्सा
इस बात पर भी कि लोगों को क्यों नहीं आता गुस्सा
[ईमि/२२.०६.२०१३]

Wednesday, June 19, 2013

दस्तूर-ए-तारीख

यही है दस्तूर-ए-तारीख जब से सभ्य हुआ समाज
गरीब पर ही गिरती रही है गम-ए-जहां की गाज
[ईमि/१९.०६.२०१२]

उदासी में ही छिपा है खुशियों का सबब




उदासी में ही छिपा है खुशियों का सबब 
पतझड़ से सीखती है बहार गुलशन का अदब 
[ईमि/१९.०६.२०१२]

लल्ला पुराण ९२

वैसे निजी तो नहीं कुटुंब की निजी संपत्ति सर्वप्रथम पशुधन के रूप में अस्तित्व में आई, दूध-उद्पादन या कृषि में उपयोग के लिए नहीं, आपातकालीन संरक्षित भोजन के लिए. ऋग्वेद के कबीलाई युद्धों में पशुधन की लूट और चोरी का जिक्र मिलता है. उपहार भी प्रायः पशुधन के रूप में ही दिया जाता था . खेती की शुरुआत होने के बाद भी कबीले/कुटुंब के हर सदस्य श्रम करते थे और उदपाद मिल-बांटकर खाते थे. बाद में खेती के औजारों के विकास के साथ (लोहे का आविष्कार आग के ही आविष्कार की तरह क्रांतिकारी आविष्कार था) पारास्परिक सहायता की परम्परा के सन्दर्भ में पारिवारिक श्रम से खेती होने लगी. खेती में निजी संपत्ति का संस्थाकरण अंगरेजी नराज में हुआ. हमारे बचपन तक पारस्परिक सहायता का रिवाज़ जारी था. श्रम से  संपत्ति निर्माण का तर्क  सत्तरहवीं शताब्दी   के दार्शनिक जान लाक ने उस समय दिया जब श्रम से संपत्ति बनाने वाले किसानों और शिल्पकारों को उजाड़ा जा रहहा था और पूरा अंगरेजी समाज श्रम के साधनों से मुक्त मजदूरों और सामंती सत्ता की मिली भगत से  उन्ही के श्रम की लूट से संचित पूंजी के बदौलत श्रम के साधनों पर काबिज पूंजीपतियों में ऊर्ध्वाधर विभाजित हो चुका था. असीमित संपत्ति के अधिकार के सिद्धांत के लिए लाक ने संपत्ति के श्रम सिद्धांत का प्रतिपादन किया. मैं कई बार कह चुका हूँ कि पूंजीवाद एक दोगली व्यवस्था है, यह जो कहती है कभी नहीं करती और जो करती है कभी नहीं कहती. निजी संपत्ति की उत्पत्त का संतोषजनक सिद्धांत अठारहवीं सड़ी के आवारा दार्शनिक रूसो ने  दिया. "पहला व्यक्ति इन के एक टुकड़े को घेर कर खुद को उअका मालिक घोषित कर दिया और लोग इतने सीधे थे की उसकी बात मान लिए, वही व्यक्ति इस सभ्यता का जनक है."

लल्ला पुराण ९१

Shailendra Singh हम लोग इस लोकतात्र को तथाकथित लोकतंत्र कहते हैं जिसमें पूंजी की तानाशाही चलती है. हर ५ साल में हम चुनते हैं की शासक वर्ग के दलालों का कौन खेमा उनके लिए हमारा दमन-शोषण करेगा. यह जनतंत्र नागनाथ-सांपनाथ में चुनाव का विकल्प देता है. यह जनतंत्र जनता की सरकार नहीं उसका भ्रम प्रदान करता है, जनता के जनतंत्र के लिए जन-चेतना की दरकार है जो अब बन रही है. Mayank Awasthi मैं कोशिस करके पुराने लेख ल्होजकर स्कैन कर डालने का प्रयास करूंगा. मुख्य मांग समाजवादी आज़ादी थी जो छात्रों ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान हासिल किया था जिसे पूंजीवाद के रास्ते पर अग्रसर नेत्रित्व कम्युनों को विघटित  करके समाप्त कर रहा था और जिसके चलते गूलर का फूल हो चुकी बेरोजगारी/भिखारीपन/वेश्यावृत्ति.... की पुनर्वापसी हो रही थी. छात्रों का आन्दोलन माओवाद के प्रतीकों और नारों का इस्तेमाल कर रहा था.

दिल्ली में १९८४ और २००२ में गुजरात नरसंहार इसलिए इतिहास में बड़े कलंकों के रूप में जाने जायेंगे कि इन्हें राज्य के देख रेख में समाज के लम्पट तत्वों द्वारा अंजाम दिया गया और देश/प्रदेश में लोगों की धार्मिक-साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़का कर फासीवादी किस्म के ध्रुवीकरण के जरिये चुनावी फ़ायदा उठाकर इस तरह के अमानुष कार्यों को वैधता दी गयी. दूसरी बात यह कि कुछ प्यादों को छोड़कर किसी प्रमुख दोषी को कोई सजा नहें मिली, ८४ को बीते लगभग  ३ दशक हो गए. मामला अभी चल ही रहा है. इस फासीवादी साज़िश को रोकने के लिए लोगों को सजग करते रहना है; पाखण्ड और अंधविश्वास; इहलोक-उहलोक जैसी मान्यताओं और चमत्कारी "आत्माओं" के प्रति अटूट श्रद्धा के  वैचारिक श्रोतों और संसाधनों पर लगातार हमले करते रहना है. "अटूट श्रद्धा का आलम यह है कि एक बलात्कारी पाखंडी के पक्ष में उग्र भाव में खड़े हो जाते हैं; और इसे माफी माँगने की सलाह देने वाले अन्य पाखंडी जो पढ़े-लिखे लोगों को जीने की कला सिखाता है, उसके तो सदक्षिणा भक्तों की संख्या और आयाम तो इससे भी कई गुना है. जब तक लोगों का कुतर्क और पाखंड से मोहभंग नहें होगा, इस तरह के मुट्ठी भर लोग उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे.

Sunday, June 16, 2013

Internal Proletariat 38

Its not about looking tough. One's consciousness and cultural habits are part of one's material conditions and socialization and changed material conditions and the changed consciousness is product of changed material conditions. But the material conditions do not change on their own owing to Newtons laws of motion, they are changed by conscious human effort. The  motion of the history i determined by the dialectical unity of the two--material condition and consciousness-- with primacy of the former. I used "quite American", humorously. There cant be any uniform category of Americans or Indians, WE ALL ARE SAME KIND OF HUMAN BEINGS IRRESPECTIVE OF SKIN  or geography but not irrespective of history.  am an odd man out in my own family. I feel closer to American comrades than to Indian agents of imperialism, who are nearer enemy than the center of imperialism. Any future revolution of human emancipation would mostly depend on the level of working class consciousness in the imperialist countries. Hopefully, the US working majority would soon be disillusioned with jingoistic nationalism and realize that  how imperialism is not only against the workers of other countries but against their own and  that their interst lies in solidarity with the workers of the world.

नास्तिक हूँ, काफिर नहीं

नास्तिक हूँ, काफिर नहीं, जज्बा है खुदा के वजूद से बगावत का
कुफ्र है नतीजा दीगर खुदाओं-नाखुदाओं की आपसी अदावत का
[ईमि/१६.०६.२००१३]

लल्ला पुराण ९०

Rajesh Kumar Singh कुछ सुबुद्धिजीवियों की आँखों पर भगवा जहालत का ऐसा चश्मा लगा होता है की बात कुछ भी हो उनके सर पर नाक्सावाद का भूत सकवार हो जाता है. उन्हें यह भी नहीं मालुम कि 'नक्सली' शब्द सिर्फ दकियानूसी दिमागों में होता है. इस शब्द की व्युत्पत्ति का भी उन्हें ज्ञान हो जाता है जहां भी तर्क और जनपक्ष की बातें करो इन लोगों के सर पर नाक्सालवाद का भूत सवार हो जाता है, यह पता नहीं वे  किनसे पूछ रहे होते हैं क्योंकि मुझे तो यहाँ कोइ माओवादी नज़र नहीं आता? मुझे तो उनकी रणनीति से मूल-भूत सैद्धांतिक मतभेद हैं. मैं तो एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय का एक सुविधा संपन्न प्रोफ़ेसर हूँ. इलाहाबाद के अन्य मंचों पर भी मैं यही आग्रह करता रहा हूँ कि पढ़े लिखे लोगन की तरह तथ्यों-तर्कों के साथ बात करें भारतीय राजनीति के नेताओं की तरह हवाबाजी नहीं.  एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता होने के नाते हर मासून की मौत चिंता का विषय है.. सीपीआई(माओवादी) नक्सलबाड़ी की विरासत के कई दावेदारों में सिर्फ एक हैं जो भारतीय राज्य के विरुद्ध संघर्षरत हैं. दो युद्धरत समूहों में कौन किसको कितना मारता है वह रक्शाविग्यानियों की समीक्षा का विषय है, मेरा सरोकार नाक्सालवाद के नाम पर कारपोरेट की लूट के लिए मासूम आदिवासियों के जनसंहार और बलात्कार से है. कई कमेंट्स में जहालत का इतना आधारहीन अहंकार दिखता है कि बहस समय की बर्बादी लगती है. विषय है अपराध और दंड नक्सलवाद और लाल-पीला चश्मा नहीं.

लल्ला पुराण ८९

हिन्दुस्तान में १८५७ के किसान विद्रोह में शामिल अंगरेजी फौज के हिन्दुस्तानी सिपाही, फ़र्ज़ निभा  रहे थे या गद्दारी कर रहे थे? होलकर/सिंधिया/निजाम जैसे हिन्दुस्तानी सामंटन की सेना अंग्रेजों की कुत्तागेरी करने न पहुंचते तो अंग्रेज १८५७ में भाग गए होते, जुनके वंशज साम्राज्यवाद की दलाली करते हुए सत्ता पार्टियों में मौजूद हैं, वे राजभक्त थे या देशद्रोही? एक नागरिक की ह्त्या करने वाले नक्सल हमले पर अलग बात हो सकती है उससे विषयांतर होगा लेकिन हजारों  आदिवासियों का बलात्कार और ह्त्या करने वाले पुलिस वाले और सलवाजुडूम किस्म के निजी गिरोह फर्ज अदायगी करते हैं या अपराध. एक आदिवासी या करमा जैसे माफिया की मौत पार आंसू बहाने वालों का दिल क्या तब भी पसीजता है जब कलिंगनगर के शान्तिपोर्न प्रदर्शनकारियों पर जालिआवाला बाग़ करके १६ आदिव्वासियों की नृशंस ह्त्या हो जाती है? गोली चलाने वाले वर्दीधारी और टाटा की दलाली में गोली चलाने का आदेश देने वाले एसपी और डीएम कर्त्तव्य निभा रहे थे या अपराध कर रहे थे? कितने लोगों की आँखों से आंसू छलके थे जब अरवल में निहत्थे किसानो की शांतिपूर्ण सभा को चारों और से घेर कर दर्जनों किसानों को भून दिया था. गोलीबारी कराने वाला डायर का वंशज फर्ज निभा रहा था या अपराध कर रहा था? शासक वर्ग और शासक दल का फर्क मैं एक विस्तृत लेख में समझाऊंगा.

Saturday, June 15, 2013

जिन किसी ने कभी जानू कहे हैं

ऐसे कितने जमाने गुजरे हैं
कितनी बार यह शब्द सुने हैं
सभी याद रहेंगे जीवनभर 
जिन किसी ने कभी जानू कहे हैं 
[26.09.2012 /5.30 AM]

लल्ला पुराण ८८

मित्र शैलेन्द्र, आप बातें निजी तौर पर लें. मैं मयंक जी से बिलकुल सहमत हूँ और शशांक की बात शत-प्रतिशत सत्य है कि भ्रष्ट और बेईमान नेता/नौकरशाह/सुरक्षा अधिकारी/थैलीशाह इन्ही शिक्षण-संस्थानों से पढ़े हैं और वे कैसे बनते हैं इसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष शिक्षकों का अहम्  योगदान है. शिक्षा-संस्थान ज्ञान-केंद्र की बजाय व्यवस्था के कल-पुर्जे बनाने वाले कारखाने हैं. शिक्षक नौकरी कर रहा है और शिक्षक होने के महत्त्व से अनभिग्य हो गया है. चूँकि अपराध और दंडनीयता  ताकत की बात हो रही थी इस लिए बात दंडाधिकारी के कर्तव्यबोध पर चली गयी. शिक्षक भी इसी भ्रष्ट समाज से आते हैं और ९९.९% शिक्षकों की नियुक्तिया शिक्षण-इतर योग्यताओं पर होता है. यदि वे शैक्षणिक रूप से भी योग्य हो  तो यह अतिरिक्त योग्यता है. १% संयोगों के योग की दुर्घटना से.(मुझसे जब कोइ मेरे बहुत देर से नौकरी मिलने की बात करता है तो मैं कहता हूँ  सवाल उलटा है, देर से सही मिल कैसे गयी?)बहुत से लुच्चे-लफंगे सभी प्रतितोगी परीक्षाओं से ख़ारिज होने के बाद किसी फादर/गाड फादर की कृपा से गुरु द्रोण बन जाते हैं. वैचारिक भ्रष्टता आर्थिक भ्रष्टता से भी अधिक खतरनाक है. शिक्षकों को आर्थिक भ्रष्टाचार के अवसर कम होते हैं तो वे शेयार्बाजारी/कोचिंग या अन्य क्षेत्रों की दलाली करते हैं. भ्रष्ट अफसरों की ही तरह भ्रष्ट शिक्षकों को भी मैं अभागा मानता हूँ कि मुफ्त में बिकते हैं. इस पर फिर कभी. एक प्रोफ़ेसर/अधिकारी  का वेतन बहुत आराम से महीना गुजारने के लिए पर्याप्त है, पत्नी-पति दोनों प्रोफ़ेसर हों तो टेंसन होना चाहिए की इतने पैसों का क्या करें?  सबसे अधिक सुधार शिक्षा में करने की जरूरत है लेकिन शिक्षा की नीति-निर्धारण पर बाज़ार का कब्जा होने से शिक्षा व्यवसाय बन गयी है और  बनती जा रही है. इस पर विस्तार से फिर कभी लिखूंगा. अभी अपनी बात-चीत एक बार एक चीनी सहयात्री की बात के साथ ख़त्म करता हूँ, "चीन में सिर्फ शीर्षस्थ लोग भ्रष्ट हैं, भारत में सभी", मैं उसकी बात आगे बढाते हुए कहता हूँ की भ्रष्टाचार मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित पूंजीवाद की खामी नहीं है, अभिन्न अंग.

आपके फतावानुमा निजी विशेषणों का शुक्रिया. मित्र, किसी ईश्वर/अवतार/मशीहा/गुरु/ग्रन्थ की औकात नहीं है की मेरी ही तरह उन्मुक्त मेरे मष्तिष्क पर कब्जा कर सके. आप से बिलकुल सहमत हूँ एक बुरे व्यक्ति की शिक्षक पद पर नियुक्ति कई पेधियों के साथ अन्याय है, मैं फासीवादी शिक्षक हूँ या लोकतांत्रिक, इसका निर्णय आप नहीं मेरे छात्र करेंगे. मेरी दृष्टि सीमा में मछली की अंक नहीं पूरी मछली होती है, एक कोण नहें पूरा वृत्त होता है लेकिन शायद दृष्टि-सीमा की सीमाओं के चलते आपको एक अंश का कोण ही दिखता है. देश की अवधारणा के बारे में मेरा कन्फ्य्जन दूर कर सकें तो अति कृपा होगी. देश क्या है?

Mayank Awasthi आपकी बात रह गयी. क्लास न लेने वाले अभागे प्रोफेसरों पर तरस आने चाहिए. पिछले साल इलाबाद गया तो प्रोफेसरों की प्रयागराज कोटो के बारे में पता चला. कुछ प्रोफ़ेसर दिल्ली में रहते हैं और कभी कभी सुबह प्रयागराज से आ जाते हैं और रात वाली से वापस चले जाते हैं. एक ला ले प्रोफ़ेसर से मुलाक़ात हुई जिन्होंने कहा की वे अपनी इज्ज़त बचाने के लिए छात्रों से दूर रहते हैं. मैंने यह कहने से अपने को रोका कि बचाई तो वह चीज जाती है जो हो, जब कमाया ही नहीं तो होगी कहाँ से. दिल्ली विश्व विद्यालय में कईयों को जनता हूँ जो पढ़ाने के अलावा सब कुछ करते हैं. कई बार असमंजस में होता हूँ कि इन तिकडमबाजों का क्लास लेना विद्यार्थियों के हित में है की न लेना. 

Wednesday, June 12, 2013

इश्का-खिसका

लिखती रहोगी दिल पर इश्का-इश्का
समझेंगे लोग है दिमाग कुछ खिसका
तुम तो हो ही दूसरी दूनिया की जब
इस जग की पाबंदी की चिंता क्या तब
[ईमि/१३.०६.२०१३]

इंसानों की खरीद-फरोख्त

 आओ ख़त्म कर दें मिलकर ऐसे निजाम
इंसानों की खरीद-फरोख्त को हो जिसमे इंतज़ाम
सतयुग से ही चलता आ रहा है यह वीभत्स रिवाज़
बीबी-बेटे के साथ बिक गए थे जब हरिश्चंद्र महराज
[ईमि/१३.०६.२०१३]

आसमान की हदबंदी

जग की क्या मज़ाल लगा सके उस लडकी पर पाबंदी
उड़ान की बुलंदी जिसकी तोड़ दे आसमान की हदबंदी.
[ईमि/१३..२०१३]

लल्ला पुराण ८७

मनाने की बात पर  बचपन की  एक याद आप लोगों से साझा करता हूँ. गाँव के  संयुक्त परिवार में जो भाई बहन थोड़ा नखड़े करते, रूठते, उनकी खूब मनौव्वल होती, यथा संभव उनकी इच्छाएं भी पूरी की जातीं. मैं इस सुख से हमेशा वंचित रहता था. एक दिन मैंने भी सोचा कुछ मनव्वल का जुगाड़ करूँ. और कोइ बात खोजकर रूठ कर छत पर चला गया. बच्चों को खिलाते हुए माँ ने मुझे भी बुलाया अपनी तरफ से नारागी के अंदाज़ में मैंने कहा, भूख नहीं है. और  ने मान लिया. इसके बाद सबसे अंत में मान-दादी वगैरह खाने जाने लगीं तब फिर माँ ने खाने को पूंछा, भूख तो लगी थी, लेकिन असफल नहीं होना चाहता था, मैंने नाराज़गी का तेवर तेज करते हुआ भूख न होने की बात दुहरा दी. वे लोग भी खाने बैठ गए. ऐसे में भूख ज्यादा ही लग जाती है. अपनी अयिग्यता पर पश्चाताप करते हुए मैंने छत पर खंखारना शुरू किया. दादी ने कहा आओ खा लो. छत से सीधे उतर कर दादी की थाली के पास पहुँच गया.

फ़रिश्ते से इश्क

उसी तरह बेवजूद हैं फ़रिश्ते भी जैसे खुदा
खाबों में ही हो सकती है इनसे मुलाक़ात
[ईमि/१३.०६.२०१३]

Tuesday, June 11, 2013

International Proletarit 37

The ieology of race dates back to Aristotle the great grand ancestor of all the future ideologies od all kinds of inequalities, including gender. He constructed the ideology of race to justify slavery, the basis of Egyptian, Greek and Roaman "glories". With colonial plunder nd black hunting by Europeans and "the invention of the new land", slavery again became, by the mid 18th century, the basis of American, i.e. settlers economy after drying up of the indentured labor resources in Europe. To justify slavery the ideology of race was revived on Aristotleian  model. Please read the history of America, a popular istory text book in 1980s, by a historically duffer Winthrope, explained the 3/5 clause of American constitution as: 3 whites=5 blacks. The clause is about taxation and representaion on behalf of the slaves by their owners that one would have 3/5th representation and pay 3/5th tax on behalf of total number of slaves. The founders of American constitution had statue of liberty in one hand and the purse of slave trade in the other.

मुहब्बत बन जाती है जब इबादत


पूजते हैं जिसको वह भगवान होता है
पा नहीं सकते उसे
क्योंकि कल्पना का  होता नहीं कोई मुकाम
मुहब्बत बन जाती है जब इबादत
प्रेमी प्रेमी नहीं रहते
बन जाते हैं भक्त और भगवान
[ईमि/११.०६.२०१३]

Monday, June 10, 2013

बेटी की विदाई पर


बेटी की विदाई पर

ईश मिश्र

बहुत रोया तुम्हारे जाने के बाद बेटू!
जो आंसू गालों को नम किये
और करते रहते हैं गाहे-बगाहे
जब भी याद आती है तुम्हारी कोई ख़ास बात
खासकर वे बातें
जिन पर गर्व होता है मुझे बाप के नाते
और वे भी
जो मुकम्मल दास्ताँ हैं तुम्हारे साथ नाइंसाफियों के
जिन पर शर्म आती है खुद पर बाप होने के नाते
वे भी
जो गवाह हैं तुम्हारी उसूल-पसंद नेक इंसानियत के
जिन पर फक्र है मुझे एक बाप होने के नाते.
कह नहीं सकता इन आंसुओं में
कितना अनुपात
तुम्हारी ज़िंदगी की नई उड़ान की शुरुआत की खुशी के हैं
ऐसी उड़ान गढ़ेगी जो ऊंचाई की नई परिभाषा
और नहीं पहचानेगी किसी आसमान की कोइ सीमा
मगर बनी रहेगी दृष्टि-सीमा में जीवनदायी धरती;
यह भी कह नहीं सकता ठीक ठीक
कि इनमें कितना अनुपात
ऐसी बेटी की विदाई के गम का है
जो एक आवारा बेपरवाह बाप को करती हो
कष्टदायक हद तक प्यार;
इन आंसुओं में कुछ अनुपात तो
एक बाप के फ़र्ज़-फरोशी के अपराध-बोध का भी है
कह नहीं सकता कितना.
                                  २
तुम्हे तो याद नहीं होगा
कि जश्न नहीं मना था तुम्हारे पैदा होने पर
तुम्हारे दादा यानि मेरे पिता ने घोषणा जरूर किया था
कि यह करते और वह करते
लाखों खर्च करते जन्मोत्सव में यदि तुम लड़का होती
                           खुशी से पागल हो गया था मैं
   सुनकर खबर तुम्हारे आने की
और तुम्हारे पास न होने के दुर्भाग्य से मायूस भी
कुछ दिन बाकी थे विश्वविद्यालय से निष्कासन में
मनाना था जश्न एक आवारा के बाप बनने का
खोल दिया था दोस्तों ने चंदे से
पार्थसारथी प्लैटो पर मधुशाला
रात भर हम पीते रहे पिलाते रहे
नाचते रहे और गाते रहे
जानता हूँ कितना नापसंद है तुम्हे जश्न का यह तरीका
जीवन का यथार्थ है किन्तु, विलोमों की द्वंद्वात्मक एकता
जश्न मनाते रहे एक आवारा के बाप बनने का
एक अनजान जान के भविष्य के सपने का
इस मर्दवादी समाज में तुम्हारे आने पर
अनदेखी बेटी के फक्रमंद इस बाप ने
लिखा था तुम्हे एक लंबा ख़त
सम्हाल न सका जिसे तुम्हारे बड़ी होने तक
सोचा था यह अनदेखी बेटी करेगी मेरे कुछ सपने साकार
करेगी मर्दवाद के दुर्ग पर अविरल प्रहार
निकलेगी जब साथ मेहनतकश के
लेकर मुक्ति की मशाल
लगेगा हो गयी हैं सब दिशाएं लाल
शब्दातीत है वह खुशी
हो जाता हूँ अतिशय गदगद
सच होते देख रहा हूँ जब अपनी बातें अब
लोग कहते हैं हो भगत सिंह पैदा लेकिन पड़ोसी के घर 
गर्व होता है देख बेटी को चलते भगत सिंह की राह पर
देखता हूँ जब तुम्हारे जनपक्षीय उदगार  
होता है मुझे तुम पर गर्व अपार
जब भी  कोई छोटा बच्चा देखता
करने लगता तुम्हारी सूरत की अमूर्त कल्पना
आज भी ताजी हैं यादें निज-वंचना के एहसास की
जन्मते ही सर पर न बैठाने के अपराध की
शिशुओं को भी तो होता होगा वंचना का एहसास
तुम्हारी वंचना का था महज कल्पित आभास
जब भी तन्हाई में सोचता था तुम्हारी बात
आती थी टैगोर की ‘काबलीवाला’ कहानी याद
अब लगता है नहीं थी वह तुलना ईमानदार
खोज रहा था शायद आत्म-औचित्य का आधार
रोजी-रोटी के चलते था उसका निर्वसन
मेरा था, अब लगता है, आत्म-चयन
न था शायद खुद पर बाप की भूमिका का भरोसा
दिल बहलाने को करता था जीवन संघर्षों को कोसा
चार साल जो तुमसे दूर रहा
किसी का नहीं सिर्फ मेरा कसूर रहा
यादों में फिल्म की रील सी घूमती हैं हमारी चंद मुलाकातें
बाल-बुद्धिमत्ता की तुम्हारी मासूम बातें 
आँखों से ओझल नहीं होते वे परिदृश्य
 साथ चलते हैं सब शाया सदृश्य
बोलती थी तोतली भाषा में, बहुत छोटी थी तुम
गोद में आते ही मेरे हो जाती थी गुमसुम
यह था शायद एक बच्चे का विरोध प्रदर्शन
शैशव काल में था अभी तुम्हारा विद्रोही मन 
किसी तरह हुआ जब शुरू तुमसे संवाद
बात बढाने को पूंछा था मैंने कौन है तेरा बाप?
तुतलाती भाषा में लिया था तुमने मेरा नाम
मगन होकर बोला, तो मैं हूँ तुम्हारा बाप?
“भप्प” कह कर प्यार से तुमने दिया था डांट
तब न समझा था मैं मर्म एक बच्ची की पीड़ा की
उम्र थी जो बाप के साथ अनवरत क्रीडा की
नहीं देखा ढंग से तुम्हारा बढ़ता बचपन
सोचकर यह बात बेचैन हो जाता है मन
यद्यपि हुईं तुम्हारे बचपन में हमारी मुलाकातें बहुत कम
फिर भी ढेर सी बातें याद आती हैं हरदम
याद है जब भी बीच बीच में घर जाता था
कभी मूंगफली से तो कभी किस्सों से तुम्हे पटाता था
मान जाती थी तुम थोड़ा प्रोटेस्ट के बाद
शुरू होता था फिर तुमसे रोचक संवाद
वह बात तो तुम्हे है याद ही
हवाला देती हो जिसका तुम आज भी
“सिखाओगे जब दो साल की बच्ची को जंग-ए-आज़ादी के गाने
जानते नहीं थे बड़ी होकर रचेगी कैसे अफ़साने”
तुमने कहा था जब सिखाने को गाना
सुना दिया था मैंने इब्न-बतूता का तराना
था याद हो गया तुम्हे वह गीत तुरंत
तुम्हारी जिज्ञासा का नहीं था लेकिन कोई अन्त
मुझे बच्चों का कोई और गाना नहीं था याद
तैयार नहीं थी लेकिन तुम मानने को बात
सुनाया तब मैंने तुम्हे फैज़ की वह इन्किलाबी ग़ज़ल
मांगती है सारी दुनिया पर जो मेहनतकश का दखल
  तभी से गाने लगी वह गीत तुम लहराते हुए हवा में हाथ
सीखी फिर “ये जंग है जग-ए-आज़ादी” की बात
अतीत तो फिर से जिया नहीं जा सकता 
खोया सुख तो कभी पाया नहीं जा सकता
उसकी भरपाई में आओ करें दोनों ऐसा काम
गर्व करें सुनकर जिससे एक-दूजे का नाम 



लाल्लापुराण ८६

मैंने यह पोस्ट तो भुत पहले देख लिया था लेकिन मेरी रुच का विषय न होने से इस पर टिप्पणी करने से बचता रहा. मैंने इलाहाब के अन्य मंच पर इकबाल किया था की मैं एक कट्टर कर्मकांडी परिवार में गीता और रामचरित मानस का जप करते हुए पला बढ़ा.अन्तःसंघर्षों की  लम्बी यात्रा के चलते एक प्रामाणिक नास्तिक बन गया जो भगवान् और भूत दोनों को धर्मभीरु मनुष्य की कल्पना मात्र मानता है. प्राच्य-शास्त्र के विद्वानों का मानना है की गीता महाभारत पर विलंबित प्रक्षेपण है. जब भगवान की अवधारणा ही काल्पनिक है तो उसका अवतार कहाँ से होगा.गीता का उपदेश एक फासीवादी मैनुएल है जिसमे सोचने का अधिकार "ज्ञानियों" के पास है बाकी लोग सिर्फ आज्ञापालन करें, चाहे अपने परिजानों की ह्त्या ही क्यों न करना पड़े. सेना और पुलिस के हमारे जवान वही तो करते हैं. उन्ही दिमाग को ताख पर रखने का प्रशिक्षण मिलता है, गीता की तर्ज़ पर. कांगेस विधायक-दल का नेता कौन होगा यह सोचनी का काम सोनिया गांधी का है या भाजपा विधायक  दल के नेता बारे में सोचने का कम नागपुर का है. विधायक गीता के उपदेश अनुसार चिंतन-शक्ति से वंचित महसूस करते 
हुए अपने  कर्म करते हैं. समय के अनुसार कैसे कोइ साईं या कृष्ण भगवान् बना दिया जाता है.....

मिथक भी अपने समय का आइना होता है. मिथक से इतिहास समझने के लिए उसे रहस्य-मुक्त करना पडेगा. एक अक्षौणी को एक करों माने तो दिल्ली की १०० मील की परिधि में अरबों सैनिक थे तो पूरे इलाके की आबादी क्या रही होगी? अतिरंजना और नीयत की समीक्षा का ध्यान रखा जाय तो महाभारत महाकाव्य के जरिये उस समय का इतिहास समझा जा सकता है जब समतावादी सामुदायिक जीवन  राज्य की स्थापना के साथ श्रेणीबद्ध समाज का रूप ले रहा था. लिंगाधारित भेदभाव शुरू हो रहे थे और वर्नाश्रमी मर्दवाद की विचारधारा असमानताओं को छिपाने के लिए गढ़ी जा रही थी. इस नई व्यवस्था को औचित्य प्रदान करने के लिए गीता का 
  .प्रक्षेपण हुआ

कौटल्य अपने कालजयी ग्रन्थ "अर्थशास्त्र" में विजीगीशु( विजय्कामी) राजा को चाहिए कि किसी अभियान पर निकलने के पहले देवताओं और दानवों की वन्दना कर लेनी चाहिए. देवताओं में वे ऋग्वैदिक प्राकृतिक देवताओं की गणना करते हैं और कंस और कृष्ण को एक साथ दानवों की कोटि में रखते हैं. उन्ही का समकालीन मेगास्थनीज कृष्ण का सूरसेन(मथुरा) क्षेत्र के एक किम्वदंतीय स्थानीय नायक के रूप में करता है. यानि चौथी-तीसरी ईशा पूर्व तक कृष्ण भगवान् क्या एक आर्य नायक भी नहीं थे. कृष्ण तो जोर-शोर से चैतन्य महाप्रभु के जरिये भगवान् बने.

International Proletariat 36

It is not important that how many Americans owned slaves but all of the accepted slavery as a valid system for which the idelogy of Race was constructed by vested intersts and captive intellectuals. During the civil war, the supporters and opponents of slavery concurred that blacks were slaves for their own deffiiciency. 

दिल धडकना तो ज़िंदगी की फितरत है

दिल धडकना तो ज़िंदगी की फितरत है
यादों की कसक कितनी भी सिसकती रहें
रुकता नहीं कारवाने-जूनून
हमराही कितने भी बदलते रहें
[ईमि/११.०६.२०१३]

Friday, June 7, 2013

बेटी की दूसरी तस्वीर पर

कितना मगन है यह उल्लसित युगल
करके पार बर्फ की गुफा लिए हाथों में हाथ
गढ़ रहे हैं मिलकर जैसे नक़्शे
नई मंजिलों और रास्तों के
हासिल करना है जिन्हें दोनों को साथ साथ
[ईमि/०८.०६.२०१३]

बेटी की एक तस्वीर पर

खड़े होकर हिमगिरि के इस उन्नत शिखर पर
किस नई उड़ान के ख्यालों में मगन है यह लडकी?
है नहीं इसके पास ख्यालों की कडकी
चेहरे पर झलकता आत्मबल और संकल्प
तलाश रहा हो जैसे कोइ नया विकल्प
इरादे दिखते बुलंद अंतरिक्ष के उड़ान की
मानेगी नहीं ये कोई सीमा किसी आसमान की
खोयेगी नहीं होश उड़ान के जोश में
धरती को रखेगी सदा नज़रों के आगोश में
दिखी थी उस दिन जुलूस में लगाती इन्किलाबी  नारे
काँप गए थे ज़ुल्म के ठेकेदार सारे
रुकेगा नहीं अब इसका एक नए विहान का अभियान
आते रहें रास्ते में कितने भी आंधी-तूफ़ान
[ईमि/०८.०६.२०१३]

Tuesday, June 4, 2013

निकल चुके हो ज़िंदगी से

निकल चुके हो ज़िंदगी से
ख्यालों से निकलना बाक़ी है
भर गए हैं जिस्म के घाव
मन का घाव भरना अभी बाकी है
[ईमि/०४.०६.२०१३]

कठपुतली

योग-वियोग तो है कुदरती क़ानून 
साथ मिलना-छूटना महज संयोग भी होता है 
पर चिंतित हूँ तुम्हारे कठपुतली बन जाने से 
दिल बैठता है देखकर 
रिमोट कंट्रोल से चलते पाँव
और प्रतिध्वनि के लिए हिलते होठ 
बन जाओगे जिस भी दिन 
कठपुतली से इंसान  
वापस पाओगे खुद की अपनी आवाज़
हम फिर साथ बांचेंगे मसौदे इन्क़िलाब के 
मिलकर देखेंगे ख्वाब
दुःख-दर्द से मुक्त एक नई दुनिया के 
[ईमि/०५.०६..२०१३]

हर मसले पर बोलता हूँ तो वाचाल न समझना

हर मसले पर बोलता हूँ तो वाचाल न समझना
साथ चुनौती के देता हूँ दांव सबके नाप-तौल कर
[ईमि/०.०६.२०१३]

Monday, June 3, 2013

निगाह-ए-कातिल

निगाह-ए- शौक पर चलता है जब हुक्म बेनियाज़ दिल का
इश्क होता है बेपनाह और दिमाग शिकार निगाह-ए-कातिल का
[ईमि/०४.०६.२०१३]

हिम्मत की हिमाकत

उन्होंने साथ चलने की मेरी रज़ा पूछा
बोला उनका मालिक
खड़ा था जो पीछे परदे के
इजाज़त नहीं है इसकी
और वे हिम्मत की हिमाकत पर
सिसकती रहीं
नहीं मालुम खुद की या मालिक की
गुलामों से बड़ा गुलाम होता है
गुलामों का मालिक [ईमि/०३.०६.२०१३]

Sunday, June 2, 2013

मुझे तो भाती है गीली मिट्टी

सोना भाता नहीं मुझको
आता  है जो महज आभूषण के काम
लगता है इसी से उसका ऊंचा दाम
मुझे तो लुभाती है गीली मिट्टी
जिस पर हर घटना कुम्हार बन
कविता निकाल देती है
हो सकता है सोने के होने में न होना
साक्षात साश्वत  है सुगंध मिट्टी की
मिलाना है मिट्टियों को दरिया के आर-पार
करो मजबू पकड़ पतवार पर
बिना डूबे पार करना है
उम्मीदों की यह दरिया
[ईमि/०३.०६.२०१३]

तुम सा हमसफ़र

क्या खूब होता  वह  अनोखा सफ़र
साथ गर कोइ तुम सा हमसफ़र होता

सफ़र की तन्हाई

काश! मेरी कश्ती में कोइ और भी होता
मगर सफ़र की तन्हाई का अपना ही मज़ा है