महामारी से निपटने के उपायों की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने नेहरू की तरफ इशारा करते हुए कमेंट किया कि जिस तरह बैंक के लोन पीढ़ी-दर-दर पीढ़ी वसूले जाते हैं उसी तरह देश की लूट से ऐश करने वाले राजनैतिक परिवारों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वसूलना चाहिए, उस पर:
बैंक का 2-4 या 10-20 लाख का लोन पीढ़ी-दर-पीढ़ी तो आम आदमियों से वसूला जाता है, सरकारों को जेब में रखने वाले और शासक वर्ग की पार्टियों-नेताओं का वित्तपोषण करने वाले धनपशुओं (राडिया टेप) के लाखों-करोड़ों के लोन को तो अनुत्पादक संपदा (एनपीए) करार देकर बट्टाखाते मे डाल दिया जाता है या हजारों करोड का लोन के रूप में देश का संपत्ति पर डाका डालकर माल्या और नीरव, ललित मोदी जैसे धनपशु सरकार की मिलीभगत से विदेश भाग जाते हैं। कुछ राजनीतिज्ञ ऐसे हुए हैं जो देश की कोई संपत्ति हड़पने की बजाय अपनी अमूल्य संपत्ति देश को सौंप दिए। ऐसे ही एक राजनेता का नाम है, मोतीलाल नेहरू जो इलाहाबाद में रहते थे और देश के जाने-माने वकील थे। 1894 में उन्होने 19 बीघे के परिसर में स्थित एक कोठी राजा जय किशनदास से खरीद कर एक आलीशान भवन बनाया ौर तिलक के नारे 'स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है' से प्रभावित हो उसका नाम स्वराज भवन रख दिया। कांग्रेस की महत्वपूर्ण बैठकें उसी भवन में होने लगीं। जिसे 1920 के दशक में कभी (सही तारीख के लिए दस्तावेजों की पड़ताल करनी पड़ेगी) मोतीलाल ने वह भवन कांग्रेस (जो व्यवहारतः अंग्रेजी राज के समानांतर देशी सरकार मानी जाती थी) को सौंप दी तथा उसी परिसर में उससे छोटा किंतु आलीशान दूसरा भवन बनाया जिसका नाम आनंद भवन रखा। 1930 के कांग्रेस अधिवेशन में पारित पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू ने इसी भवन में रहते हुए लिखा था। नेहरू का निजी खर्च उनकी किताबों की रॉयल्टी से चलता था। 1967 में प्रधान मंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने आनंदभवन नेहरू स्मारक ट्रस्ट को सौंप दिया। स्वराज भवन तथा आनंद भवन राष्ट्रीय आंदोलन के संग्रहालय हैं तथा देश को राजस्व प्रदान करने वाले इलाहाबाद के पर्यटक स्थल।
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