Monday, May 31, 2021

शिक्षा और ज्ञान 309 (विज्ञान की संभावनाएं)

 जगत की ही तरह ज्ञान और विज्ञान की संभावनाएं भी अनंत है, आज जो जगत ज्ञात है कल तक वह अज्ञात था। ध्वनियों और इशारों से भाषा का अन्वेषण हुआ जो कि एक क्रांतिकारी अन्वेषण था, शब्दों के अन्वेषण ने भाषा को समृद्ध किया और ज्ञान की प्रक्रिया आगे बढ़ी। पाषाण युग में विज्ञान की सीमा पाषाण के यांत्रिक उपयोग की थी और पाषाण से अग्नि का अन्वेषण एक क्रांतिकारी अन्वेषण था जिसने नई चेतना विकसित की और ज्ञान की प्रक्रिया आगे बढ़ी। फल-फूल, कंदमूल से आगे शिकार जब आजीविका का साधन बना तो तीर-धनुष का अन्वेषण एक क्रांतिकारी अन्वेषण था। हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी की उपलब्धियों को सहेज कर आगे बढ़ाती है तथा निरंतर प्रक्रिया में असीमित जगत को जानने की सीमित विज्ञान की पुरानी सीमाएं टूट कर नई सीमाएं बनती हैं। असीमित जगत का काफी हिस्सा विज्ञान द्वारा ज्ञात है, काफी अभी ज्ञात होना है। असीमित जगत को जानने की निरंतर प्रक्रिया में सीमित ज्ञान-विज्ञान की संभावनाएं अनंत हैं। जगत की ही तरह विज्ञान भी स्थिर नहीं गतिशील है और इतिहास की तरह अपनी यात्रा के गतिविज्ञान के नियम निरंतर विकसित करता रहता है।

बेतरतीब 103 (विवाह पुराण 5)

 सालगिरह की एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाब:


जी वयस्कता या विवाह की वैधानिक उम्र के लिहाज से हमारा बालविवाह था। उस समय भी हमें यह भान था कि बाल विवाह एक सामाजिक कुरीति है। मैं इंटर की परीक्षा दिया था लेकिन आगे की पढ़ाई भी करनी थी। कहीं लिखा है कि हमारा विरोध क्यों असफल हो गया। लेकिन जब विवाह के लिए राजी हो गए, भले ही under protest तो उसे निभाना भी था।

हमने विवाह के समय ही शादी निभाने का फैसला कर लिया था, इपिक्यूरियन दर्शन का प्रकृतिवाद बाद में पढ़ा कि प्रकृतिक नियमों (इस मामले में सामाजिक उत्तरदायित्व) और इच्छाओं की स्वतंत्रता में समन्वय स्थापित करना चाहिए। मेरी जब भी किसी लड़की से घनिष्ठता की गुंजाइश होती तो संदर्भ निर्मित कर उसे अपने वैवाहिक स्थिति और उसे निभाने के फैसले से अवगत करा देता था जिससे उसे भी पता रहे कि प्रेम की गुंजाइश में शादी की गुंजाइश नहीं है। इलाहाबाद में एक बहुत अच्छी दोस्त थी आशिकी की घनिष्ठता की गुंजाइश की मुझे कोई आशंका नहीं थी, इसलिए शादी की बात उसे नहीं बताया था। शादी के तीसरे साल जब गौना आया तो उसे लड्डू का डिब्बा दिया। उसे गौना का मतलब नहीं मालुम था बताने पर बहुत भला-बुरा सुनाया और इतना नाराज हुई कि वह हमारी आखिरी मुलाकात साबित हुई। गौने को सेकंड मैरेज कहने का तुक मुझे भी नहीं समझ में आता।

जेएनयू में पढ़ते हुए एक बार एक क्रांतिकारी संगठन की एक स्त्रीवादी कॉमरेड को मुझसे कुछ संगठनात्मक राजनैतिक डील करनी थी। उसके लिए उन्होंने भावनात्मक रूट पकड़ा। मैं हॉस्टल में married bachelor की तरह रहता था। उन्होंने अंदाज लगाया होगा कि पत्नी से अलग होना चाहता हूंगा, कमजोर नस समझ हाथ रख दिया, "Ish, your is kind of child marriage. You can easily get divorce". उनके स्त्रीवाद पर मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, "Com, what is your interest. I have never flirted with or proposed you. In fact we have never shown any non-pollical interest towards each other. And what you are suggesting effectively means that if two people are victims of some regressive social custom, one co-victim should further victimize the more co-victim. And in patriarchy the woman is more co-victim. Great Marxist feminism!!!" झेंपकर सफाई देने लगीं कि मजाक कर रही थीं। खैर एक बात यहां साफ कर दूं कि मेरा नहीं सरोज जी का बड़प्पन है कि मेरे जैसे आवारा के साथ उन्होंने adjust किया। मेरे सभी स्त्री-पुरुष मित्र उनके प्रशंसक हैं।

मार्क्सवाद का एक प्रमुख सिद्धांत है, करनी-कथनी की एका (unity of theory and practice), जिसे मैं उसूलों को जीना (living the principles) कहता हूं। यदि आप पुरुषवादी व्यवस्था के अन्यायपूर्ण चरित्र को समझते हैं या यों कहें, यदि आप स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास करते हैं तो वह दादी-मां, पत्नी-बेटियों के साथ आपके व्यवहार में परिलक्षित होना चाहिए। आपके सिद्धांतों की असली परख तभी होती है जब वह आप पर लागू हों।1988 में जब मुझे दूसरी बेटी के पैदा होने की खबर मिली तो मेरी जेब में 10 रु. की नोट थी, लेकिन लगा कि यदि अभी बेटी पैदा होने का तुरंत उत्सव नहीं मनाया तो लोग कहेंगे कि बड़ा स्त्रीवादी बनता है, दूसरी बेटी पैदा होते ही दब गया! तुरंत बाइक स्टार्ट किया और 1 हजार उधार लेने एक दोस्त के ऑफिस पहुंच गया। उस समय 1000 काफी होता था। यह कहानी कहीं लिख चुका हूं, कभी शेयर करूंगा। लंबा कमेंट हल्के-फुल्के नोट पर खत्म करता हूं। जेएनयू में एक बार अपनी एक बहुत अच्छी दोस्त से मजाक में पूछा कि यदि लड़कपन में मेरी शादी न हुई होती तो वह मुझसे शादी करती? उसने पलट कर जवाबी सवाल किया तुमसे दुनिया की कौन लड़की शादी करती?

Sunday, May 30, 2021

लल्ला पुराण 381 (भारतीय राष्ट्रीयता)

 स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब साम्राज्यवाद-विरोधी विचारधारा के रूप में भारतीय राष्ट्रवाद आकार ग्रहण कर रहा था तो औपनिवेशिक शासकों की शह पर उनकी बांटो-राज करो की नीति को कार्यरूप देने के लिए उनके दलालों ने हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद के नाम पर उसे विकृत और विखंडित करना शुरू कर दिया, जिसकी परिणति देश के विखंडन में हुई।

शिक्षा और ज्ञान 308 (चिकित्सा पद्धति)

 यह सही है कि स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक रवायत को जारी रखते हुए आधुनिक (एल्योपैथी) चिकित्सा पद्धति जितना पारंपरिक (आयुर्वेद, यूनानी) चिकित्सा पद्धति में शोध को प्रोत्साहित नहीं किया गया, जबकि चीन में क्रांति के बाद पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा पद्धतियों को समन्वित किया गया और एक दशक में चीन की चिकित्सा सुविधा की गणना दुनिया के सर्वोत्तम चिकित्सा सुविधाओं में होने लगी। 1970 तक ग्रामीण इलाकों में हर जगह ज्यादा-से-ज्यादा एक किमी पर प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्र स्थापित हो गए थे। यहां आयुर्वेद के शिक्षण प्रतिष्ठानों के डॉक्टरों और प्रोफेसरों ने भी पद्धति के आधुनिककरण में उत्साह नहीं दिखाया। ज्यादातर आयुर्वेद की डिग्री वाले डॉक्टर एल्योपैथी की दवा-इंजेक्सन देते हैं। जैसे गुरु का मंत्र गुप्त रखा जाता है वैसे ही जाने-माने वैद्य अपना ज्ञान अपने में समेटे रहे जब कि बांटने से ज्ञान बढ़ता है। किशोरावस्था में मैंने तो बनारस के मशहूर सीताराम वैद्य द्वारा टिटनेस के इलाज का चमत्कार देखा है। आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के लिए उस स्तर पर भारतीयता के नामपर सियासी धंधा करने वालों ने भी उस स्तर की कोई पहल नहीं की जिस स्तर पर धर्मांधता और सांप्रदायिक नफरत के प्रचार-प्रसार की। जनता सरकार (1977-80) ने आयुर्वेद के डॉक्टरों को एल्योपैथी के डॉक्टरों के समतुल्य दर्जा और वेतन का प्रवधान बनाया, लेकिन ढाक के तीन पत्ते ही रह गए। रामदेव जैसे क्रोनी कैपिटलिस्ट आयुर्वेद की प्रगति में नहीं उसे धर्मांधता का जामा पहनाकर सरकार की मदद से देश के कोने-कोने में जमीनें कब्जाने और धंधा बढ़ाने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

लल्ला पुराण 380 (असमानता)

असमानता की विकट समस्या का समाधान जवाबी असमानता नहीं, समानता है, उसी तरह जैसे जातिवाद की भीषण समस्या का समाधान जवाबी जातिवाद नहीं, जातिवाद का विनाश है। लोग यदि समता के अद्भुत सुख की गरिमा समझ लें तो लिंग-जाति-धर्म आदि पर आधारित भेदभाव की समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी।

समानता एक गुणात्मक अवधारणा है, मात्रात्मक नहीं। असमानता के विचारक भिन्नता को असमानता के रूप में परिभाषित करते हैं और फिर घुमावदार तर्क(कुतर्क) का इस्तेमाल करते हुए उसी परिभाषा से असमानता प्रमाणित करते हैं। पांचों उंगलियां भिन्न होती हैं असमान नहीं, भौतिक असमानता वैसे ही है जैसे आपसे लंबा आदमी आपसे श्रेष्ठ नहीं है। महाभारत की पौराणिक कथा में द्रोणाचार्य को एकलब्य की आकार में सबसे छोटी अंगुली अंगूठा ही सबसे अधिक खतरनाक लगा था।

Saturday, May 29, 2021

बेतरतीब 102 ( विवाह पुराण 4)

 पत्नी और बेटियों के साथ 6साल पहले फरहत की खीची एक तस्वीर पर यह इंट्रो लिखा कि तस्वीर गायब हो गयी और फोटोज में खोजने पर भी नहीं मिल रही है।


यह तस्वीर मेरे 60वें जन्मदिन (2015) की है, जिसे मैं अपने और सरोज जी की शादी के 49वीं सालगिरह (2021) पर शेयर कर रहा हूं। वैसे शादी के पहले, शादी के समय या उसके बाद लगभग 3 साल तक हमलोगों ने एक-दूसरे को देखा ही नहीं था। 1972 में जब मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा देकर जौनपुर से घर आया तो पता चला कि शादी का कार्ड छप चुका था। विद्रोह के प्रयास की असफलता के बाद शादी निभाने का फैसला अपनी मर्जी से किया। गभग 3 साल (2साल 9 महीने) बाद 28 फरवरी 1975 को जब हमारा गवन हुआ तो मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था और आपातकाल में भूमिगत रहने तथा रोजी-रोटी की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आ गया और 1977 में आपातकाल के बाद जेएनयू में प्रवेश लिया। विवाह के बाद अपरिहार्य कारणों से लंबे समय तक हम लोग मैरिड बैचलर की ही तरह रहे, छुट्टियों में घर जाने पर हमारी मुलाकातें होती थीं। मेरी बड़ी बेटी जब 4 साल की हो गयी तब से हम साथ रह रहे हैं और साथ रहते हुए अब हमें 33 साल हो गए।


Thursday, May 27, 2021

शिक्षा और ज्ञान 307 (बुद्ध और युद्ध)

 कुछ लोग विदेशी आक्रमणों के लिए बुद्ध के अहिंसा की शिक्षा को जिम्मेदार मानते हैं। इसी तरह के एक सज्जन ने एक पोस्ट में बुद्ध की शिक्षा को विदेशी आक्रमणों और 'हजार साल की गुलामी' का जिम्मेदार बताया। उस पर :


हजार साल की गुलामी कब से मानते हैं? 2000 साल से भी पहले से बौद्ध क्रांति के विरुद्ध पुश्यमित्र से शुरू ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति 1300 साल पहले शंकराचार्य तक पहुंचते पहुंचते अपनी तार्किर परिणति तक पहुंच चुकी थी, शाखा के बौद्धिक का अफवाहजन्य कुज्ञान फैलाकर समाज को प्रदूषित न करें। बुद्ध अहिंसक जीवन शैली के प्रवर्तक थे, देश और समाज के सुरक्षातंत्र के भी समर्क थे। अपराधियों को कड़ी-से-कड़ी सजा के सिद्धांत के प्रवर्तक थे जो लोगों को अपराध करने से हतोत्साहित करने की मिशाल बने। राज्य के बौद्ध सिद्धांत के लिए कृपया दीघ निकाय और अनुगत्तरा निकाय पढ़ें ऑनलाइन उपलब्ध हैं। राज्य की उत्पत्ति का बौद्ध सिद्धांत, दैविक नहीं, सामाजिक संविदा का सिद्धांत है तथा राज्य के प्रचीनतम सिद्धांतों मे एक है। अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन जैसे बौद्ध शासकों की गणना प्रचीन भारत के पराक्रमी सम्राटों में होती है। राज्यों की पराजय और समाज के पतन का कारण बौद्ध नहीं वर्णाश्रमी संस्कृति रही है। जिस समाज में शस्त्र और शास्त्र का अधिकार मुट्ठीभर लोगों को ही हो तथा कारीगर और श्रमजीवी बहुजन (शूद्र) को मनुष्यत्व के अधिकार से वंचित रखा जाता हो, उस समाज को नादिरशाह जैसा चरवाहा भी 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंद-लूट कर वापस जा सकता है और और हमारे शूरवीर भजन गाते रह जाते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान औपनिवेशिक दलाल आंदोलन के गुरुत्व को कम करने के लिए हजार साल की गुलामी का भजन गाने लगे। पहले राज्य तलवार के बल पर स्थापित होते थे और तलवार के धनी महान शासक माने जाते थे चाहे वह सिकंदर हो या अशोक, समद्रगुप्त हो या अकबर। अंग्रेज विजेता अलग थे, वे तलवार से राज्य स्थापित करने नहीं बल्कि गुलाम मानसिकता के हमारे ही पूर्वजों को वर्दी पहनाकर, जमींदार या बाबू बनाकर उन्ही के बल पर हमें गुलाम बनाकर लूटने आए थे और 200 साल तक लूटते रहे। मध्ययुग में विदेशी आक्रांताओं के समक्ष देशी राजाओं की पराजय का कारण बुद्ध की शिक्षा नहीं वर्णाश्रमी व्यवस्था थी।

Monday, May 24, 2021

मार्क्सवाद 244 (भौतिकवाद)

 शरीर के सुख के रूप में भौतिकवाद की व्याख्या भौतिकवाद का माखौल उड़ाने सा है। ब्राह्मणवाद ने चारवाक के दर्शन की अवमानना के लिए उनके नाम से यावत् जीवेत् सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतम् पीवेत की किंवदंति प्रचलित की। भौतिकवाद का मूल है कि सभी घटनाओं-परिघटनाओं, सांस्कृतिक मान्यताओं का आधार अमूर्त विचार नहीं मूर्त भौतिक विश्व है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद घटनाओं-परिघटनाओं, मान्यताओं की व्याख्या भौतिक परिस्थितियों और उनसे उत्पन्न विचारों में एकता के रूप में करता है। मोक्ष की अवधारणा को शोषण-दमन से मुक्त मानव मुक्ति का मार्क्सवादी अवधारणा के प्राचीन संस्करण के रूप में समझा जा सकता है। मैं अपने छात्रों को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत की मिसाल से समझाता था। सेब तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के आविष्कार के पहलेन भी गिरते थे। लेकिन इस भौतिक परिघटना के अवलोकन से हम क्या का जवाब दे सकते थे। क्यों और कैसे का नहीं। इस भौतिक परिघटना के अवलोकन से न्यूटन के दिमाग में क्यों और कैसे के सवाल पैदा हुए जिनका जवाब उन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत में खोजा। संपूर्ण सत्य का गठन सेव गिरने की भौतिकता और उससे निकले गुरुत्वाकर्षण के सिद्केधांत के विचार की द्वंद्वात्मक एकता से होता है। इससे वस्तु की विचार से श्रेष्ठता नहीं, प्राथमिकता साबित होती है।

1984

 1984 भारतीय राजनीति का एक निर्णायक विंदु साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख नरसंहार की पृष्ठभूमि में संजय गांधी की असामयिक मृत्यु से पैदा राजनैतिक निर्वात भरने कॉमर्सियल पाइलट से राजनीतिज्ञ बने राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व संसदीय जीत से चुनावी राजनीति में सांप्रदायिक चुनावी ध्रुवीकरण का प्रतिस्पर्धी दौर शुरू हुआ। कांग्रेस में हमेशा हिंदूवादी सांप्रदायिक प्रवृत्ति के गुट रहे। बालगंगाधर तिलक, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, राजेंद्र प्रसाद आदि उस श्रृंखला की कड़ियां हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध अंग्रेजों को कुछ दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी मुसलमानों द्वारा मुस्लिम लीग बनवाने का मसाला शुरू में कांग्रेस विरोध के रूप में ही मिला, बाद में उन्हें इस तरह के हिंदू तत्व भी मिले जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध हिंदू सभा और आरएसएस बनाया। आजादी के बाद वामपंथी आंदोलनों का प्रभाव तथा नेहरू के व्यक्तित्व व नेतृत्व के गुरुत्व के चलते ही ही था कि भारत राष्ट्र-राज्य की प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष बुनियाद रखी जा सकी। अनचाहे ही लंबी भूमिका हो गई, अब मुद्दे पर आते हैं।

रोटी बनाने के लिए कमेंट बीच में छोड़कर उठना पड़ गया था। आज बिल्कुल गोली तो नहींपेक्षाकृत गोली रोटियां बनी और सब फूलकर कुप्पा। रोटी लगभग गोली बन जाती है तो खुशी होती है और फूलकर कुप्पा हो जाे तो बहुत खुशी होती है।

ऊपर के कमेंट को आगे बड़ाते हुए --

1970 के दशक में, खासकर राजनीति में संजय गांधी के आगमन के बाद से आरएसएस और इसकी संसदीय शाखा भारतीय जनसंघ ने सामाजिक स्वीकार्यता के मकसद से आक्रामक सांप्रदायिकता छोड़कर रक्षात्मक सांप्रदायिकता का रवैया अपनाना शुरू कर दिया था। बिहार आंदोलन में जयप्रकाश नारायण ने आरएसएस और इसकी छात्र शाखा एबीवीपी को अपना प्रमख सहयोगी बनाकर अपने राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी राजनैतिक गलती की। इसके पहले लोहिया यही गलती 1960 के दशक में तत्कालीन जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय से कांग्रेस के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने का समझौता करके की थी, जिसकी परिणति कांग्रेस के बिघटित तत्वों, जनसंघ और समाजवादियों के गठजोड़ से 1967 की संविद सरकारों के गठन में हुई थी। बिहार आंदोलन से मिली समाजिक-राजनैतिक स्वीकार्यता आपातकाल के बाद जनता पार्टी के गठन में हुई जनसंघ जिसका प्रमुख घटक था। जनता पार्टी की सरकार में हिस्सेदारी के माध्यम से आरएसएस ने मीडिया, शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में अच्छी पैठ बना ली। ऊपर के कमेंट पर अनचाही लंबी भूमिका पर खेद जताने के बावजूद यहां भी भूमिका के विस्तार में ही इतनी जगह खर्च हो गयी।

1980 में जनता पार्टी के विघटन और सरकार के पतन के बाद इसके जनसंघ के घटक ने भारतीय जनता पार्टी के रूप में खुद का पुनर्गठन किया और सांप्रदायिकया के एजेंडे को छिपाकर व्यापक राजनैतिक स्वीकार्यता के मंसूबे से बिना परिभाषित किए गांधीवादी समाजवाद को अपना वैचारिक आधार बनाया। अब 1984 और इस पोस्ट के विषय के मुद्दे पर आते हैं।

1984 में प्रायोजित सिख जनसंहार के बाद कांग्रेस की चुनावी सफलता से आरएसएस और इसकी संसदीय शाखा भाजपा के कान खड़े हो गए कि दशकों से हिंदू-मुसलमान वे करते आए हैं तथा कुछ सिखों की हत्या से कांग्रेस ने बाजी मार ली तथा उन्होंने आक्रामक सांप्रदायिक एजेंडे का फैसला किया और गोविंद बल्लभ पंत और महंत दिगविजयनाथ की मदद से बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति रखने से शुरू विवाद को राम मंदिर के एजेंडे के तहत पुनर्जीवित करने का फैसला किया। देश भर की दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' और जिस हिंदू का खून न खौला वह पानी है नारे लिखे जाने लगे। भाजपा तथा विहिप नेताओं ने मंदिर के लिए शिलापूजन यात्राओं का आयोजन शुरू कर दिया। राजीव गांधी और चिदंबरम् जैसे उनके सांप्रदायिक सलाहकारों को भी लगा कि धार्मिक तुष्टीकरण से चुनावी लांबंदी की जा सकती है। मुस्लिम कड्डरपंथियों को खुश करने के लिए शाहबानो मामले में सुप्रीमकोर्ट के प्रगतिशील फैसले को रद्द करने के लिए संसदीय बहुमत का इस्तेमाल कर कानून बना दिया दूसरी तरफ भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता का खेल खेलते हुए मस्जिद का ताला खुलवा दिया, चबूतरे के लिए भूमि अधिग्रहण किया, मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा प्रायोजित किया। दुश्मन (भाजपा) के हथियार (सांप्रदायिकता) से उसी के मैदान में उससे लड़ना चाहा। हार निश्चित थी।

वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल की घो,णा के बाद आडवाणी कमंडल लेकर राम मंदिर की रथयात्रा पर निकल पड़े और उसके बाद भाजपा का राजनैतिक आरोहण शुरू हुआ जो अब इतिहास बन चुका है। इसलिए कहता हूं कि 1984 में भारतीय राजनीति ने निर्णायक मोड लिया और धर्मनिरपेक्षता से सांप्रदायिकता में संक्रमण भविष्य का पथप्रदर्शक बना।

Sunday, May 23, 2021

लल्ला पुराण 379 (वाम)

इस देश में वामपंथ लगभग नावजूद है और इस ग्रुप को वामपंथ का कोई खतरा नहीं है, न ही ग्रुप में कोई मुखर मुसलमान है, लेकिन कुछ लोग समाज की ज्वलंत समस्याओं पर विमर्श की बजाय या तो हिंदू-मुसलमान नरेटिव से सांप्रदायिक विद्वेष का विषवमन करते रहते हैं या बेबात वाम वाम करने लगते हैं। ऐसे लोगों से आग्रह है कि अनायास हर जगह वाम या मुसलमान के भूत की पीड़ा का भजन गाने की बजाय, सांप्रदायिकता और वाम पर अलग अलग विस्तृत विमर्श कर लें।

Saturday, May 22, 2021

लल्ला पुराण 378 (भारतीयता)

 Markandey Pandey इतिहास गतिमान है और और अपने गतिविज्ञान के नियम खुद बनाता है। संवैधानिक जनतंत्र के पहलेभारत औपनिवेशिक राज्य था तथा उपनिवेवादियों एवं उनके कारिंदों के लिए औपनिवेशिक कानूनों का पालन भारतीयता थी तथा उपनिवेशविरोधियों के लिए, राष्ट्रीय आंदोन के प्रतिप्रतिबद्धता भारतीयता थी। उसके पहले भारतीयता महज भौगोलिक और सभ्यतामूलक अवधारणा थी, राजनैतिक रूप से रजवाड़ों के प्रति वफादारी ही राजनैतिक निष्ठा थी।


Markandey Pandey बचपन से तो हमको भी वही समझाया गया था जो आपको, मैं आत्मावलोकन, आत्मालोचना एवं आत्मसंघर्ष से विरासती मिथ्याचेतना की अफीम के असर से मुक्ति पा ली, लेकिन लगता है कामचोरी की आदत के चलते आपने मिथ्या चेतने के भ्रम से मुक्ति का प्रयास नहीं किया तथा शाखा के बौद्धिक में प्राप्त अफवाहजन्य कुज्ञान के दलदल में फंसे रह गए। विवेक को गतिमान कीजिए, इस दलदल से निकल पाएंगे।

लल्ला पुराण 377 (भारतीयता)

 यह तो पंडीजी के प्रवचन किस्म का अमूर्त आख्यान हो गया। 5हजार साल पहले यहां के निवासियों में तो आदिवासी और द्रविणही बचे हैं। सिंधु सभ्यता के वारिश कौन हैं? विवादित मामला है, वैदिक आर्य तो लोकमान्य तिलक समेत तमामा पुरातत्ववादियों के अनुसार 4000 साल पहले आए तथा 1500 ईशापूर्व तक आर्यव्रत सप्तसैंधव ( पंजाब की 5 नदियों समेत सिंधु-सरस्वती का क्षेत्र) में ही रहे तथा सरस्वती के सूखने के बाद पूरब बढ़े। अफवाहजन्य इतिहासबोध ही इस वैविध सभ्यता को संघी एकरसता में विकृत करता है। संवैधानिक जनतंत्र में संविधान के प्रति निष्ठा ही राष्ट्रवाद (भारतीयता) है और उसका उल्लंघन राषाट्रद्रोह (अभारतीयता) है। जो भी धर्मनिरपेक्षता समेत संविधान के प्राक्कथन के प्रावधानों का उल्लंघन करता है वह राष्ट्रद्रोही यानि अभारतीय है।

Tuesday, May 18, 2021

लल्ला पुराण 376 (एससी-एसटी ऐक्ट)

 एससी-एसटी ऐक्ट तथा दहेज उत्पीड़न विरोधी कानूनों पर एक विमर्श में एक सज्जन ने कहा कि मेरा ज्ञान किताबी है, कभी फंसूंगा तब समझ आएगा। उस पर:


हम लगातार सिद्धांत और व्यवहार में एकता का प्रयास करते हैं। जब लोगों के पास तर्क नहीं होता तो किताबी ज्ञान की बात बताकर सैध्दांति औचित्य को खारिज करने का ऐसा ही कुतर्क करते हैं। आपको किसी स्त्री ने दहेज या यौन उत्पीड़न के या किसी दलित ने एससी-एसटी ऐक्ट के झूठे मामले में फंसाया क्या? इन कानूनों के डर से इन अपराधों में कमी आई है। फर्जी मामलों की जांच करना तथा गलत मुकदमा करने वालों को दंडित करना प्रशासन और न्यायालय का काम है। प्रशासनिक या न्यायिक प्राधिकरण की अक्षमता की जिम्मेदारी अपराध निवारक कीनूनों की नहीं है।

लल्ला पुराण 375 (श्रम)

 Markandey Pandey इस पोस्ट पर उनके कमेंट तो दिख नहीं रहे हैं। उन्हें निकाल तो नहीं दिया गया? पहले आरक्षण की मलाई का तंज हो रहा था, जब पता चला अमेरिका में बिना आरक्षण के कुछ कर रहा है तब उसके काम का मजाक। सुखद संयोग से अमेरिका में श्रम की वैसी अवमानना नहीं होती जैसी हमारे यहां। लाइनमैनी की तो छोड़िए सफाई कर्मचारी को भी अपमान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। प्रोफेसर और सफाई कर्मचारी के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते हैं। हम सब श्रमशक्ति बेचकर रोजी चलाते है, हुनर और उपलब्धता के अनुसार कोई कुछ कर रहा होता है, कोई कुछ और। श्रम ही जीवन की आत्मा है, हमें श्रम का सम्मान करना चाहिए, अपमान नहीं।

Monday, May 17, 2021

शिक्षा और ज्ञान 306 (श्रम)

 एक मित्र ने अपने छात्र जीवन के एक सीनियर के खाना बनाने वाली की कहानी शेयर किया जिसने उनकी जूठी प्लेट माजने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह पंडित हैं उनका काम खाना बनाना है, बर्तन माजना नहीं, उस पर:


इस पोस्ट की समीक्षा में कई दार्शनिक बातों पर बातें की जा सकती हैं। लेकिन लंबा लेख लिखने का समय और धैर्य नहीं है। लेकिन इतना ही कहना चाहूंगा कि ज्यादातर मुख्यधारा दार्शनिक विचारधाराएं श्रम तथा श्रमिक को अवमाननापूर्ण हेय दृष्टि से देखता है, जब कि मानव इतिहास के विभिन्न चरणों में श्रम ही निरंतरता की कड़ी है। अपनी आजाविका के उत्पादन एवं पुनरुत्पादन यानि श्रम करने की योग्यता की विशिष्टता से मनुष्य ने स्वयं को पशुकुल से अलग किया। मानव संस्कृति की प्रगति का इतिहासमूलतः श्रम के साधनों (उपकरणों) के विकास का इतिहास है। समतामूलक आदिम उत्पादन पद्धति के अंत के साथ भरण-पोषण की व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन की व्यवस्था में बदल गयी तथा समाज परजीवी तथा श्रमजीवी वर्गों में बंट गया। अतिरिक्त उत्पादन पर कब्जा करने वाला परजीवी वर्ग शासक वर्ग बना तथा उसी वर्ग से आने वाले दार्शनिकों ने श्रम को अवमानना के काम के रूप में चित्रित किया।

वर्णाश्रम व्यवस्था में श्रमजीवियों (कारीगर तथा मजदूर) की विभिन्न कोटियां शूद्र वर्ण में समाहित हैं। पाश्चात्य दर्शन में भी रूसो को अपवाद को छोड़कर श्रम को अवमानना की बात के रूप में हेय दृष्टि से वर्णित किया गया है। श्रमिकों के जैविक बुद्धिजीवी कार्ल मार्क्स श्रम को जीवन की आत्मा मानते हैं।

इस कहानी की एक बात तो यह कि खाना बनाने की संविदा की कर्मचारी से जूठा बर्तन धुलवाना गलत है। वैसे आदर्श रूप से सभ्यता का तकाजा तो यह है कि सबको अपनी जूठी प्लेट खुद धोना चाहिए। घर जाने पर गांव में जब भी अपनी थाली धोकर रखता हूं तो सबकी आपत्ति का सामना करना पड़ता है। घर में बर्तन धोने वाला/वाली भी हो तो जूठा पानी से धोकर सिंक में रखना चाहिए। विभिन्न प्रकार के श्रम को भी श्रेणीबद्ध किया गया है, बर्तन धोने को खाना बनाने से छोटा काम माना जाता है। मुझे तोरसोई के कामों में बर्तन धोना सबसे आसान काम लगता है।

दूसरी बात यह कि क्या कहानी तब भी उतनी ही मार्मिक होती यदि खाना बनाने वाली वह स्त्री 'पंडित' नहीं होतीं? क्योंकि वह यह कहने के साथ कि उनका काम खाना बनाना है, बर्तन मांजना नहीं, वे पंडित हैं। यहां जोर पंडित पर दिया गया है।

Sunday, May 16, 2021

मार्क्सवाद 244 (जातिवाद)

 यह वक्तव्य हास्यास्पद लगता है कि आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास के चलते जातीय उत्पीड़न खत्म हो गया होता। मेरे छात्र जीवन में जब आरक्षण प्रभावी नहीं था तो जातीय भेदभाव अपने वीभत्सतम रूप में था। आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास समाज की के बड़े हिस्से की प्रतिभा के योगदान से वंचित रह जाता, जैसे मर्दवादी वंचनाओं के चलते स्त्रियों की अकूत प्रतिभा हजारों साल घर की चारदीवारी में कैद रही। अर्थ ही मूल है, आर्थिक रूप से सशक्त तपकों की सामाजिक राजनैतिक सशक्तीकरण की आकांक्षा जगी, जिससे जातिवादी भेदभाव की व्यवस्था के लाभार्थी प्रतिक्रिया में बौखला उठे और यह सामाजिक तनाव उसी का परिणाम है। वैसे महेंद्र तो अमेरिका में रहते हैं और शायदआरक्षण की तथाकथित मलाई के बिना ही कुछ कर रहे होंगे। किसी सवर्ण का आरक्षण विरोध का जज्बा उसके स्वार्थबोध के परमार्थबोध पर तरजीह देने के चलते होता है। यदि वह परमार्थबोध को स्वार्थबोध परल तरजीह दे तो उसकी आरक्षणविरोध की सनक कम होगी। यह वक्तव्य हास्यास्पद लगता है कि आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास के चलते जातीय उत्पीड़न खत्म हो गया होता। मेरे छात्र जीवन में जब आरक्षण प्रभावी नहीं था तो जातीय भेदभाव अपने वीभत्सतम रूप में था। आरक्षण न होता तो आर्थिक विकास समाज की के बड़े हिस्से की प्रतिभा के योगदान से वंचित रह जाता, जैसे मर्दवादी वंचनाओं के चलते स्त्रियों की अकूत प्रतिभा हजारों साल घर की चारदीवारी में कैद रही। अर्थ ही मूल है, आर्थिक रूप से सशक्त तपकों की सामाजिक राजनैतिक सशक्तीकरण की आकांक्षा जगी, जिससे जातिवादी भेदभाव की व्यवस्था के लाभार्थी प्रतिक्रिया में बौखला उठे और यह सामाजिक तनाव उसी का परिणाम है। वैसे महेंद्र तो अमेरिका में रहते हैं और शायदआरक्षण की तथाकथित मलाई के बिना ही कुछ कर रहे होंगे। किसी सवर्ण का आरक्षण विरोध का जज्बा उसके स्वार्थबोध के परमार्थबोध पर तरजीह देने के चलते होता है। यदि वह परमार्थबोध को स्वार्थबोध परल तरजीह दे तो उसकी आरक्षणविरोध की सनक कम होगी।

शिक्षा और ज्ञान 305 (विषमता)

 और देशों में भी विषमताएं हैं लेकिन किसी अन्य देश में जन्म (जाति) आधारित विषमता नहीं है। यूरोप में जन्मआधारित सामाजिक विभाजन नवजागरण और प्रबोधन (Renaissance & Enlightenment) क्रांतियों के दौरान समाप्त हो गया था, भारत में ऐसी क्रांतियां अभी बाकी हैं। जातिवाद हमारे समाज की एक वीभत्स सच्चाई है जिस पर परदा डालकर नहीं, जिसे उजागर कर ही उसका विनाश किया जा सकता है। जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं, क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं। मुर्गी अंडे के द्वंद्वात्मक संबंधों में द्वंद्वात्मक एकता की जरूरत है। जाति प्रमाणपत्र जारी करने या न जारी करने से जातिवाद खत्म नहीं होगा, जातिवाद सामाजिक चेतना के जनवादीकरण से खत्म होगा।

बेतरतीब 101 (1984)

एक मित्र ने कहा कि हमास और इज्रायल के अंतःसंबंध पर लिख कर वे अपनों में कलह नहीं फैलाना चाहते, उस पर:

अपने लोग कौन हैंं? मेरे लिए तो इंसाफ की जंग लड़ते दुनिया के सारे लोग अपने हैं और आवाम पर जुल्म करने वाले और उन्हें लूटने वाले सारे लोग दुश्मन। अमेरिका, यूरोप या दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद या हिंदुस्तान-पाकिस्तान में सांप्रदायिकता के विरुद्ध आवाज उठाने वाले लोग अपने हैं तथा नस्लवादी या सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले लोग दुश्मन। जीवन के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले फिलिस्तीनी युवा अपने हैं और उनपर साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की शह पर नस्लवादी अतिक्रमण की कहर ढाने वाले दुश्मन। पाकिस्तानी या अमेरिकी मजदूर हमारे उतने ही अपने हैं, जितने हिंदुस्तानी मजदूर तथा मजदूरों का खून चूसने वाले अमेरिकी या पाकिस्तानी सरमाएदार उतने ही दुश्मन है जितने मजदूरों का खून चूसने वाले तथा सरकारी शह पर मुल्क लूटने वाले अंबानी-अडानी जैसे हिंदुस्तानी सरमाएदार।

1984 की एक घटना याद आ गयी। दिल्ली में सिखविरोधी सांप्रदायिक हिंसा का कहर पसरा था। पगड़ी दुश्मन की आसान पहचान थी। 'सिख होते ही ऐसे हैं', किस्म का वातावरण बना हुआ है। जो छवि आज मुसलमानों की है, वैसी ही सिखों की थी। जेएनयू में हमने सुना कि पास के आरकेपुरम् सेक्टर-4 में कुछ उपद्रवी सिखों पर हमला करने आ रहे हैं। उत्पातियों के पास उस सरकारी कॉलोनी में कौन घर सिखों के हैं की सही जानकारी की थी। हम लगभग 200-250 लोग कैंपस में इकट्ठा हुए और दंगा रोकने आरकेपुरम् की तरफ प्रस्थान किए। गेट तक पहुंचते-पहुंचते बाकी लोग 'कैंपस की सुरक्षा' के लिए पीछे रुक गए, हम 20-25 लोग आरकेपुरम् पहुंचे। तर्क और सच का हथियार हो तो 20-25 लोग भी लाठी, सरिया, कुल्हाड़ी, पेट्रोल और मिट्टी के तेल आदि हथियारों से लैश 200-300 उपद्रवियों के मंसूबे पस्त कर सकते हैं। विस्तार में न जाते हुए, निष्कर्ष यह कि माल का पूरी तरह तो नहीं लेकिन जान का नुक्सान पूरी तरह रोकने में हम सफल रहे। अफवाहों की दंगों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 1985 में एक पाक्षिक में मैंने 1984 के दंगों की अफवाहें और हकीकत पर एक पाक्षिक में एक लेख लिखा था, जिसे ढूंढ़ना तो मुश्किल होगा लेकिन कभी उन ससंस्मरणों को समय मिला तो लिखूंगा। 2017 में एक लेख लिखा था, '1984 के आइने में 2017' वह मेरे ब्लॉग में होगा, नीचे लिंक शेयर करूंगा। खैर भूमिका में टेक्स्ट छूट ही गया बात अपनों की हो रही थी। उसके पहले अफवाहों की छोटी सी बात एक दंगाई ने कहा कि पंजाब से आने वाली किसी गाड़ी से 100 हिंदुओं की सिर कटी लाशें तुगलकाहाद स्टेसन पर पड़ी हैं। मैंने तुरंत हवा में तीर चलाया कि पंजाब से दिल्ली तो 5 दिन से गाड़ियां ही नहीं आ रही हैं तो उसने आंखों देखी घटना को कानों सुनी कहकर टाल दिया।

अब असली मुद्दे पर आते हैं, अपनों वाले। वहां से लौटते हुए मुनिरका में किसी से बहस हो गयी, सइर पर पगड़ी न होने की पहचान से उसने कहा, 'जाओ अपने हो, छोड़ दे रहा हूं'। मैंने कहा, हम तुम्हारे जैसे आतताइयों के अपने नहीं हैं, लेकिन मॉबलिंटिंगके डर से वहां से निकल लिए। जो दंगों में शिरकत कर रहे थे वही नहीं सांप्रदायिक थे, उनके मूक समर्थक भी सांप्रदायिक थे।

Saturday, May 15, 2021

बेतरतीब 100 (लल्लू बाबा)

लल्ला पुराण 374 (कालक्रम)

 हमारा पौराणिक काल विभाजन ऐतिहासिक न होकर मिथकीय है। सभी समाज प्रगतिपथ पर नीचे से ऊपर चढ़ते हैं हमारा पौराणिक कालक्रम ऊपर (सतयुग) से नीचे (कलियुग) अधोगमन करता है। सतयुग भी ऐसा कि उसमें गाय-भैंस की तरह इंसानों की खरीद-फरोख्त की खुली बाजार थी, तभी तो राजा हरिश्चंद्र खुद के साथ अपने बेटे और बीबी को बेच सके थे।

बेतरतीब 99 (उम्र)

 कुछ लोग अक्सर मेरी उम्र पर अवमाननापूर्ण तंज करते हैं। अस्तित्व और अंत के अंतःसंबंधों के बारे में प्रकृति की द्वंद्वात्मकता का एक नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत अवश्यंभावी है, चाहे बचपन, जवानी, बुढ़ापा और जीवन सबका। जन्म कुंडली के हिसा से मैं जून 1955 ( मां के शब्दों में बड़की बाढ़ के पहले) पैदा हो गया था तो आगामी जून में 66 साल का हो जाऊंगा। अभी दिमाग ठीक-ठाक काम करता है और याददाश्त भी ठीक-ठाक है। जो लोग अभी अपेक्षाकृत कम उम्र के हैं वे दिन-ब-दिन ज्यादा के हो जाएंगे। बुढ़ापा वैसे भी मात्रात्मक इकाई नहीं, गुणात्मक अवधारणा है, संकीर्ण पोंगापंथी प्रवृत्ति के चलते कुछ का 25-30 में ही आ जाता है तथा वक्त से आगे चलने वाले मेरी तरह के लोगों का कभी आता ही नहीं। उम्र का तंज करने वाले लोगों को कुछ आत्मावलोकन करना चाहिए कि मुझसे बाद पैदा होने के बावजूद कहीं मुझसे बहुत पहले ही बुड्ढे तो नहीं हो गए।

ईश्वर विमर्श 100 (अस्तित्व)

 जब ईश्वर होता ही नहीं तो किसी का कारण कैसे हो सकता है? यदि है तो उसका कारण क्या है? ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य अपने ऐतिहासिक संदर्भ में ऐतिहासिक कारणों से ईश्वर की अवधारणा निर्मित करता है, इसीलिए वह देशकाल के हिसाब से बदलती रहती है। पहले ईश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था अब सबल की। (God helps those who help themselves.) जिन्हें अपने स्व (आत्मबल)की अनुभूति हो जाती है उन्हें किसी ईश्वर या खुदा की बैशाखी की जरूरत नहीं होती। आइंस्टाइन ईश्वर की उत्पत्ति का कारण भय मानते हैं, उसमें अज्ञान जोड़ देना चाहिए। हमारे ऋगवैदिक पूर्वजों ने जीवन पर आमूल प्रभाव डालने वाली इंद्र [जल] सूर्य, वायु, अग्नि आदि प्राकृतिक शक्तियों को ईश्वर मान लिया था।

ईश्वर विमर्श 99 (श्रृष्टि)

 अगर श्रृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया तो ईश्वर का निर्माण किसने किया? ईश्वर ने श्रृष्टि का निर्माण नहीं किया बल्कि मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिक परिस्थितियों में ईश्वर के विशिष्ट स्वरूप की रचना की। इसीलिए उसका स्वरूप और चरित्र देश-काल के अनुसार बदलता रहता है।

Monday, May 10, 2021

लल्ला पुराण 373 (भाषा की तमीज)

Shashi K Chaturvedi आप का आभारी हूं कि मेरी पोस्ट पर नहीं आते। मैं कभी अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं करता अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने वालों से भाषा की तमीज का श्रोत पूछ लेता हूं। आपको भी बहुत बार यही सलाह दिया कि सांप्रदायिक नफरत का विषवमन करने और आईटी सेल का रटाया भजन गाने की बजाय विवेकशील इंसान की तरह तर्क-तथ्यपरक बातें करें। मुझे ब्राह्मण परिवार में पैदा होने का कोई पछतावा नहीं है क्यों कि कौन कहां पैदा हो गया उसमें उसका न तो योगदान है न अपराध। बाभन से इंसान बनना जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेक सम्मत इंसान की अस्मिता अर्जित करने का मुहावरा है। मुहावरा समझने के लिए दिमाग लगाने की जरूरत पड़ती है। बाभन से इंसान बनने को भूमिहार, ठाकुर, अहिर... या हिंदू मुसलमान से इंसान बनना भी कहा जा सकता है। जरूरी नहीं सभी मुहावरे को चरितार्थ करें, जो इंसान न बनना चाहे उनपर कोई दबाव नहीं है। लिखे पर बोलने की बजाय अलिखे की शिकायत करना थेथरई है जिसे आम भाषा में टुच्चई भी कहा जा सकता है। सादर।

लल्ला पुराण 372 (भाषा की तमीज)

 यदि कोई आपसे पूछता है कि भाषा की तमीज मां-बाप से सीखा याकहीं और से? और आपको अपनी भाषा की तमीज समुचित लगती है तो उस तमीज का श्रोत बताने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। मैं बहुत सीनियर हूं लेकिन किसी की उम्र पर तंज करना कमानगी मानता हूं, क्योंकि पैदा होने के बाद सबकी उम्र प्रतिदिन बढ़ती रहती है। आप जिसकी उम्र पर लतंज करते हैं स्वयं भी कभी उसकी उम्र में पहुंचेंगे। मैं तो अपने पिताजी के चरणस्पर्श करता था था तर्क में कोई रियायत नहीं देता था। विचारों की स्वतंत्रता के लिए बीएससी के दूसरे वर्ष से उनसे पैसा लेना बंद कर आत्मनिर्भर हो गया था। यह इसलिए बता रहा हूं कि तर्क में सीनियार्टी की रियायत नहीं चाहता, लेकिन बेहूदगी बर्दाश्त करने की शक्ति कम है तो ऐसा न करने का आग्रह जरूर करता हूं। तथ्य-तर्कों के आधार पर बहस कीजिए, भाषा की बदतमीजी करेंगे तो कोई ऐसा न करने का आग्रह करे तो मान लेना चाहिए। शुभ कामनाएं।

लल्ला पुराण 371 (भाषा की तमीज)

 


यह पूछना कि भाषा की तमीज मां-बाप से सीखा या कहीं और से? व्यंग्यात्मक प्रश्न है। यदि अपनी भाषा मर्यादित है तो उसका श्रोत बताने में हर्ज नहीं होना चाहिए। कह दीजिए कि मां-बाप से नहीं स्वयं या मित्रमंडली में सीखा।
बच्चे प्रवचन से नहीं पर्यवेक्षण (Observation) से सीखते हैं। Children are very keen observer and imitators. बिल्कुल सही कह रहे हैं, "स्वयं का प्राकृतिक संस्कार संगत व परिस्थिति उसके व्यक्तित्व का विकास करती हैं"। बिल्कुल सही कह रहे हैं, इसमें एक बात और जोड़ लीजिए, परवरिश और परिवेश एवं खुद का सचेत प्रयास। व्यक्तित्व पर पहला प्रभाव परिवार का पड़ता है। चंबल के डाकू का बेटा बाप के सिखाने से नहीं, बाप और उसके साथियों के व्यवहार को देखकर सीखता है। संगत और स्कूली शिक्षा आदि के माहौल के साथ परिवार का भी प्रभाव पड़ता है। मेरी बेटियां छोटी थीं तो कभी कोई फोन आता तो कभी मन करता कि उनसे यह बोलने को कहदूं कि घर पर नहीं हूं। फिर सोचता कि अगर इन्हें कभी झूठ न बोलने की सीख दूंगा तो सोचेंगी कि देखो झूठ न बोलने की सीख देता है और अपने काम से झूठ बोलने को कहता है और मैं खुद फोन अटेंड करता। शिक्षक और मां-बाप को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना चाहिए। एक बाक एक पसिद्ध इतिहासकार और प्रोफेसर ने किसी बात पर कहा कि उनका बेटा गुंडा निकल जाए तो वे क्या करसकते हैं। (वैसे उनके बेटे बहुत ही अच्छे इंसान और विद्वान हैं।) मैंने कहा था कि ऐसे में उन्हें अपनी परवरिश पर पुनर्विचार करना चाहिए। खैर छोड़िए। मित्र, यहां किसी का किसी से खेत-मेंड़ का झगड़ा नहीं है, मर्यादित भाषा और मर्यादित आचरण से हमलोग इस मंच को विमर्श का सार्थक मंच बना सकते हैं।

मार्क्सवाद 243 (बंगाल )

 कॉमरेड Bhagwan Prasad Sinha जी एक पोस्ट पर कॉमरेड Ish Mishra जी की इन तीन कमेन्ट पर आप क्या कहेंगे?

(1) "आपके विश्लेषण से लगभग सहमत हू। ज्योति वसु को प्रधानमंत्री न बनने को ब्लंडर की बात के अलावा। एक राज्य में 25 साल से अधिक मुख्यमंत्री रहकर जब कोई मिसाल नहीं कायम कर सके, तो प्रधानमंत्री बन कर कौन सी तोप मार लेते। चुनावी संख्याबल को जनबल में तब्दील कर सके होते तो वह संख्याबल भाजपा में न जाता। "
(2) " पार्टी ने यदि शिक्षक की भूमिका निभाया होता और सामाजिक चेतना का जनवादीकरण किया होता तो चुनावी संख्याबल जनबल बनता और वह फिर संख्याबल बन मौकापरस्त न होती।"
(3) "यदि सिंगूर-नंदीग्राम टाल सकते तो ममता न आती। दरअसल सीपीएम तथा अन्य बुर्जुआ पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया था।"
मुझे लगता है कि इश मिश्रा जी की बात में दम तो है।

शिक्षा और ज्ञान 304 (1857)

 1857 की एकताबद्ध सशस्त्र किसान क्रांति से सहमे औपनिवेशिक शासकों ने आवाम की एकता तोड़ने के लिए धार्मिक आधार पर बांटो और राज करो की नीति अपनाया उसके लिए दोनों समुदायों के प्रतिक्रियावादी तत्वों को पटाना शुरू किया और उन्हें आपस में एक दूसरे के खिलाफ भड़काना शुरू किया। इन प्रतिद्वंदी औपनिवेशिक दलालों ने खुद को संगठित रूप देना शुरू किया। मुस्लिम लीग का गठन 1906 में हुआ और हिंदू महासभा का 1915 में। दोनों में जो बात साझा थी वह था राष्ट्रीय आंदोलन का विरोध। औपनिवेशिक शासन की शह पर एक ने भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध निजाम-ए-इलाही का नारा बुलंद किया, दूसरे ने हिंदू राष्ट्र का। इन विभाजनकारी ताकतों के निरंतर विषवमन के फलस्वरूप देश का अनैतिहासिक बंचवारा हुआ जिसके घाव नासूर बन अब तक रिस रहे हैं। यदि देश का बंटवारा न होता तो इस्लाम के नाम पर न पाकिस्तान बन पाता न भारत में हिंदुत्व की ताकतें सत्ता हासिल कर पातीं। सोचिए यदि सिंधिया, पटियाला, निजाम जैसे भारतीय शासकों ने किसान क्रांति के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ न दिया होता तो किसान क्रांति की सफलता के साथ 1857 में ही औपनिवेशिक शासन का अंत हो जाता और इतिहास अलग होता। ऊपर और नीचे के कमेंट बॉक्स में मेरे 30 साल पहले लिखे लेख पढ़ें तो आभार होगा।

शिक्षा और ज्ञान 303 (सांप्रदायिकता)

 सांप्रदायिकता हर तरह की बुरी होती है लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की बात एक मिथक है। तुष्टीकरण की बात सच होती तो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में अधिक नहीं तो अपनी आबादी के समानुपाती तो होता। लेकिन ऐसा नहीं है। दिल्ली विवि के शिक्षकों में मुसलमानों की संख्या मुश्किल से 1-2 प्रतिशत होगी। चुनावी जनतंत्र में तुष्टीकरण सदा बहुसंख्यक समुदाय का होता है। 1984 के बाद राजनैतिक नौसिखिए राजीवगांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने, हिंदू तुष्टीकरण के चक्कर में प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता की राजनीति में फंसकर आत्मघात कर लिया। 1980 में आरएसएस की सांप्रदायिकता रक्षात्मक मोड में थी। जनता पार्टी के विघटन के बाद भाजपा का गठन में अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को अपना वैचारिक आधार घोषित किया। 1984 में राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व संसदीय सफलता से इनका माथा ठनका। कि 50-60 साल से हिंदू-मुसलमान वे कर रहे हैं, दंगे वे करवाते आ रहे हैं और कांग्रेस ने 2000 सिख मार कर बाजी मार ली। फिर संघ परिवार ने राममंदिर का मुद्दा उठाया। चिदंबरम् जैसे मूर्खों की सलाह पर राजीव गांधी सरकार ने प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता की नीति अपनाया। चिदंबरम् मुझे कांग्रेस में आरएसएस का एजेंट लगता था। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया। रामलला चबूतरे के लिए जमीन का अधिग्रहण किया। मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा प्रायोजित किया। दुश्मन से उसी के मैदान में उसी के हथियार से लड़ना चाहा। हार निश्चित थी। अडवाणी की रथयात्रा के बाद उप्र से सांप्रदायिकता की फसल काटना शुरू किया और 2014 तक दिल्ली पर काबिज हो गया। हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकताएं पूरक हैं, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की बात मिथकीय शगूफा है।

शिक्षा और ज्ञान 302 (अंतरात्मा)

 प्रदूषणविहीन अंतरात्मा हमेशा सही रास्ता दिखाती है। दरअसल व्यक्तित्व का चारित्रिक/ नैतिक निर्माण विवेक और अंतरात्मा के द्वंद्वात्मक योग से होता है। किसी वर्ग (विभाजित) समाज में व्यक्तित्व स्व से स्वार्थबोध और स्व के न्यायबोध (परमार्थबोध) में विभक्त होता है। अप्रदूषित अंतरात्मा विवेक को निर्देश/ परामर्श देती है कि सुख की प्राप्ति स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थ बोध को तरजीह देने से होती है। प्रदूषित अंतरात्मी इसका उल्टा निर्देश/ परामर्श देती है। इसलिए हमें अंतरात्मा को प्रदूषणमुक्त रखने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। वास्तविक सुख परमार्थ में है, स्वार्थ का सुख भ्रम (illusion) होता है। सादर।

Saturday, May 8, 2021

नारी विमर्श 16 (समता का सुख)

 यह सवाल ही बेमानी है कि समानता के अधिकार से स्त्री पुरुषों की तरह स्वच्छंद हो जाएगी। स्त्री की समानता के अधिकार पर आघात करनेकी बजाय पुरुषों के सुधार की जरूरत है। स्त्री पहले ही अवसर मिलने पर पढ़ाई-लिखाई कर ही रही है और एक शिक्षक के अनुभव से कह सकता हूं कि पुरुषों से बेहतर। वह हर क्षेत्र में मजदूरी भी कर ही रही है, तथाकथित पुरुषों के एकाधिकार समझे जाने वाले क्षेत्रों में भी। सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों में भी वह नेतृत्व की भूमिका निभा रही है। शोषण और निरकुंशता के विरुद्ध स्त्री-पुरुष का आपस में नहीं साझा संघर्ष है। दोनों को कदम से कदम मिलाकर मिलकर काम करने तथा कंधे-से-कंधा मिलाकर लड़ने की जरूरत है। संबंध जनतांत्रिक होंगे तो भावनात्मक शुद्धि-अशुद्धि के प्रश्न निरर्थक हो जाएंगे। जिसे समता के सुख का एक बार स्वाद लग जाता है उसे और कोई सुख उतना अच्छा नहीं लगता। इसीलिए सुखी जीवन के लिए पत्नी-बच्चों और यदि शिक्षक हैं तो छात्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध वांछनीय हैं।

नारी विमर्श 15 (मर्दानी)

 स्त्रियों की बहादुरी को मर्दानगी कहना मर्दवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति है। मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं विचार धारा है जिसे हम रोजमर्रा के जीवन और विमर्श में निर्मित-पुनर्निर्मित और पुष्ट करते हैं। विचारधारा न सिर्फ उत्पीड़क को प्रभावित करती है बल्कि पीड़ित को भी। लड़की को जब हम बेटा की साबाशी देते हैं तो वह भी उसे साबाशी ही के ही रूप में लेती है। ऐसा करके हम दोनों ही अनजाने में बेटी होने की तुलना में बेटा होने की श्रेष्ठता बताकर कर अनचाहे ही मर्दवाद की विचारधारा को पुष्ट करते हैं। मेरी बेटियां बेटा कहने पर कहती हैं, Excuse me I don't take it as complement. कई साल पहले मेरी बड़ी बेटी अपनी पहली तनख्वाह में से अपनी मां को 1000 पॉकेटमनी कहकर दिया। सरोज जी ने भावुकतामें कह दिया कि मेहा तो मेरा बेटा है, उसने पैसा वापस लेते हुए बोला कि जाओ बोटे से लो। उनके सॉरी बोलने पर लौटा दिया। मैं कभी किसी लड़की को बेटा कहकर साबाशी नहीं देता।

Thursday, May 6, 2021

मार्क्सवाद 242 (सीपीएम)

 Bhagwan Prasad Sinha आपकी इन बातों से भी सहमत हूं। वर्गादार आंदोलन और धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने ही वह समर्थन आधार प्रदान किया जिससे पार्टी 1978 से 2006 तक लगातार जीतती रही। लेकिन सत्ता में रहते हुए इसने शासकवर्ग की अन्य पार्टियों की प्रवृत्तियां अख्तियार कर चुनाव को क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के मंच के रूप में इस्तेमाल करने 1950 के दशक के चुनाव में जाने के तर्क को दरकिनार कर दिया और धीरे धीरे इसमें और अन्य चुनावी पार्टियों का गुणात्मक फर्क धुंधलाता गया। कॉमिंटर्न के निर्देश में बनी-बढ़ी अन्य देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह यहां की कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने में नाकाम रहीं। वैसे 1996 में ज्योति बसु कतो प्रधानमंत्री न बनने देने के निर्णय का मैं विरोधी था और सोमनाथ चटर्जी के साथ पार्टी में दुर्व्यवहार का भी। लेकिन ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने से लगता नहीं बहुत फर्क पड़ता।

लल्ला पुराण 370 (हिंदू कॉलेज)

 Raj K Mishra हिंदू कॉलेज के नाम में ही हिंदू है काम में वह सरकार पोषित दिल्ली विश्वविद्यालय का कॉलेज है। मेरा नाम ईश है, लेकिन मेरे अंदर ईश के किसी गुण की तो बात ही छोड़िए, मैं तो ईश के अस्तित्व को ही नकारने वाला एक प्रामाणिक नास्तिक हूं। अगले महीने 66 साल का हो जाऊंगा तो बुढ़ापे में हारे को हरिनाम की कहावत को चरितार्थ करते, इस जीवन में ईश्वर की शरण में जाने की गुंजाइश कम ही दिखती है। मैंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी इंटरविव दिया था, लेकिन उच्चशिक्षा में मठाधीशी की प्रथा के चलते इंटरविव से नौकरी नहीं मिलती। जामिया मिलिया इस्लामिया में तो इलाहाबाद विवि की ही तरह इंटरविव इतना अच्छा हुआ था कि उसी तरह नौकरी मिलने की खुशफहमी हो गयी थी। मैंने यह नहीं कहा कि हिंदू कुछ नहीं होता बल्कि हिंदू कोई नहीं होता। बाभन, ठाकुर, अहिर, .......... पिराडिमाकार जातियों का समुच्चय हिंदू होता है। नामों का इतिहास होता है। 1899 में चावड़ी बाजार में किसी ईशाई मिशनरी ने सेंट स्टीफेंल कॉलेज खोला उसकी प्रतिक्रिया में एक राष्ट्रवादी व्यापारी लाला श्रीराम गुड़वाले ने चंदा करके उसीके सामने हिंदू कॉलेज खोला। दिल्ली विवि 1925 में शुरू हुआ ये कॉलेज तब लाहौर विवि से संबद्ध थे। बाद में दोनों ही कश्मीरी गेट आ गए और आजादी के बाद दोनों आमने सामने अपनी मौजूदा जगहों पर हैं। पूंजीवाद में हम सभी उपलब्ध खरीददार को अपनी श्रमशक्ति बेचने और एलीनेडेड श्रम करने को अभिशप्त हैं, क्योंकि श्रमिक के पास श्रमशक्ति होती है श्रम के साधन नहीं। शिक्षक की नौकरी एक ऐसी नौकरी है जिसमें एलीनेसन खत्म तो नहीं कम कियाजा सकता है। खत्म तो पूंजीवाद के खात्मे के साथ ही होगा, क्योंकि एलीनेसन भी बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की तरह पूंजीवाद का नीतिगत दोष नहीं बल्कि अंतर्निहित प्रवृत्ति (immanently innate attribute) है। 1984 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लगभग डेढ़ घंटा लंबा संतोषजनक इंटरविव हुआ था, 6 पद थे मेरा नाम पैनल में सातवें स्थान पर था। छठें पर होता तो मेरा सौभाग्य होता और आपको यह सवाल पूछने का मौका न मिलता कि मैंने हिंदू कॉलेज में पढ़ाते हुए उसके नाम से असहजता क्यों नहीं महसूस किया। वैसे आपने सही याद दिलाया कि पेट का सवाल नाक के सवाल से पहले आता है।मार्क्स ने भी कहा है, अर्थ ही मूल है।

लल्ला पुराण 369 (हिंदू-मुसलमान)

 न हिंदू जहर फैलाता है न मुसलमान, दोनों ही किस्म की सांप्रदायिक ताकतें जहर फैलाती हैं। हिंदू-मुसलमान नरेटिव अपनेआप में जहर फैलाने की मुहिम है। यहां हिंदू-मुसलमान की बात ही नहीं की गयी है, दाढ़ी में तिनकेकी अनुभूति अपने आप में सांप्रदायिक प्रवृत्ति का द्योतक है। मुल्क का आवाम जब भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में संघर्,रत था तब औपनिवेशिक शासकों की शह पर बनी-बढ़ी सांप्रदायिक ताकतें भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध हिंदू-राष्ट्र और निजामे इलाही के नाम पर समाज में सांप्रदायिक नफरत का जहर फैलाकर औपनिवेशिक दलाली कर रही थीं। हिंदू तो कोई होता नहीं ऊंची-नीची जातियों के अंतर्विरोध को ढंकने के लिए हिंदुत्व का शगूफा छोड़ा जाता है। इस ग्रुप में ही लोगों के जातिवादी पूर्वाग्रह देख लीजिए कुछ लोगों को जातीय प्रवृत्तियोॆ के दुराग्रह और आरक्षण के नाम पर नीचा दिखाने की कोशिस की जाती है। इसीलिए यहां धर्म ही नहीं जाति के नाम पर भी विद्वेष न फैलाने का आग्रह किया गया है। सभी से आग्रह है कि बाभन-अहिर और हिंदू-मुसलमान से ऊपर उठकर विवेकशील इंसान के रूप में विमर्श में शिरकत करें। सौहार्द से समाज और मुल्क आगे बढ़ेगा नफरत से टूटेगा।

Saturday, May 1, 2021

लल्ला पुराण 368 (विमर्श की स्तरीयता)

 मित्रवर Raj K Mishra ने एक पोस्ट में कुसदस्यों द्वारा ग्रुप में विमर्श की स्तरीयता पर रंज का जिक्र किया, उस पर अपना कमेंट शेयर कर रहा हूं।

किनको रंज है मुझे नहीं पता, मैं देश-दुनिया और करीबियों के हालात से क्षुब्धता से अशांत (disturbed) मानसिक स्थिति के चलते कुछ नया गंभीर लिख नहीं रहा हूं, लेकिन जब भी हिंदी या अंग्रेजी में कुछ गंभीर लेख पोस्ट करता हूं 2-3 लाइक मिलते हैं, कमेंट या तो कोई करता नहीं या बिना पढ़े लेख के विषय से इतर वामपंथ और सेकुलरिज्म के 'कुकृत्यों' अपरिभाषित अभुआहट के कमेंट दिखते हैं या अपरिभाषित राष्ट्रद्रोह के लाक्षण। असहमति के विचारों का तार्किक खंडन के बजाय प्रत्यक्ष-परोक्ष बेहूदे निजी आक्षेप कई सक्रिय सदस्यों (पूछने पर नाम बता सकता हूं) की प्रवृत्ति बन गयी है। जिन लोगों की जातीय अस्मिता उनके सरनेम से नहीं जाहिर होती कुछ लोग अपने शोध से उनकी जाति पताकरके अवमाननापूर्ण निजी जातिवादी आक्षेप करते हैं। कुछ तथाकथित सम्मानित सदस्यों की चांपने-पेलने-लतियाने-पिछवाड़ा लाल करने की गुंडे-मवालियों की भाषा निश्चित रूप से इवि की शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर सवाल उठाती है। मैं फेसबुक पर कम समय दे पा रहा हूं लेकिन यदा-कदा ऐसे कमेंट. पोस्ट रिपोर्ट करता हूं। मॉडरेटर होने के नाते मैं ऐसे कमेंट डिलीट करके एडमिन समूह के जवाबदेही का पात्र बनने की जहमत उठा सकता हूं लेकिन जनतांत्रिक कार्यपद्धति के तकाजे के तहत ऐसा करता नहीं। कई लोग बात-बेबात राष्ट्रवाद, देशद्रोह, वामपंथ, सनातन शब्दों का भजन गाते रहते हैं। इन अवधारणाओं पर गंभीर विमर्श के लिए मैंने कई बार पोस्ट पोस्ट किया लेकिन या तो लोग विमर्श में शामिल नहीं हुए या निजी आक्षेप के विषयांतर से विमर्श विकृत करने लगे। कई करीबियों के असमय महामारी के मुंह में समा जाने की खबरों से मन के व्यथित होने से कलम में जंग सा लग गया है, छुड़ाने की कोशिस में हूं। आइए इस ग्रुप को सामाजिक सरोकारों पर गंभीर विमर्श का सार्थक मंच बनाने का सामूहिक प्रयास करें। ऊपर के कमेंट में परोक्ष रूप से किसी जादो जी को याद करने का स्तरीय काम करके सम्मानित सदस्य ने अपना स्तर प्रदर्शित किया है।