Monday, June 29, 2015

यह औरत

कल्पना  नहीं हकीकत है यह औरत
भावी इतिहास की नसीहत है यह औरत
छुई-मुई नहीं वाचाल है यह औरत
आज्ञाकारी नहीं दावेदार है यह औरत
जी हां, ख़ौफनाक है यह औरत
मर्दवाद के पैरोकारों के लिए
परंपरा के रखवालों के लिए
सरमाए के किलेदारों के लिए
हो रहा है मुखर उसका कलम 
बढ़ रहा है आगे उसका कदम 
खाई है मानव-मुक्ति की कसम
रुकेगी नहीं जब तक है दम
(एक अजन्मी कविता का प्राक्कथन)
(ईमिः 30.06.2015)

इक्कीसवीं सदी कीऔरत

यह इक्कीसवी सदी की मूर्तिभंजक औरत है
जिसने बंद कर दिया है किस्मत का रोना-गाना 
 प्रज्ञा से बना दिया है मर्दवाद को  हास्यास्पद खिलौना
तोड़ती है सब प्रतिबंध सेंसर, कर्फ्यू और वर्जना
करता है कलम इसका बेबाक बुलंद सिंह गर्जना
इक्कीसवी सदी की यह औरत नहीं है अब अकेली
सारा कायनात है अब इसके संघर्षों की सहेली
नहीं करती पूज्या बन किसी मंदिर में अंतर्नाद
न ही बन भोग्या किसी गैर का घर आबाद
जलाकर करती है रीति-रिवाज़ों के बंधन बर्बाद
लगाती है अब नारा-ए-इंक़िलाब ज़िंदाबाद 
नहीं गाती यह अब नगाड़े की चोट पर नौटंंकी की बहर
लाती नई सबा गढ़ती नया खुशनुमा सहर
इसके हाथ में श्रृंगार की डिबिया नहीं बंदूक होती है
यह औरत कॉफी नहीं बनाती क्रांति करती है
(ईमिः 29.06.2015)

मार्क्सवाद 7

चेतना भौतिक परिस्थितियों क परिणाम है, आधिभौतिकीय नहीं. न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियमों से सेबों का गिरना नहीं शुरू हुअा, बल्कि गिरते सेबों को देख वस्तुओें के ऊर्ध्वाधर पतन का कारण खोजने का विचार न्यूटन के दिमाग में आया. सेबों के गिरने की भौतिक परिघटना सत्य का आधार है, संपूर्ण सत्य नहीं. संपूर्ण सत्य इस आधारभूत परिघटना के न्यूटन के विचारं के साथ द्वंद्वात्मक संश्लेषण से निर्मित होता है.

Sunday, June 28, 2015

लिखता रहूंगा कविता

नहीं जानता क्यों लिखता हूं कविता
लेकिन लिखता हूं कविता
इल्म नहीं बिंब-प्रतीकों के तिलस्म का
फिर भी लिखता हूं कविता
नहीं मालुम अमिधा-व्यंजना का रहस्य
तब भी लिखता हूं कविता
नावाकिफ हूं छंद-ताल के नियमों से
मगर छोड़ता नहीं लिखना कविता
अनभिज्ञ हूं मात्रा-लय कि मजमून से
बावजूद इसके लिखता हूं कविता
कह सकूं मन की बात
शायद इसीलिए लिखता हूं कविता
भले ही लोग कहें सपाटबयानी
जब तक करेगा मन लिखता रहूंगा कविता
(ईमः29.06.2015)

अात्मप्रेम

आत्मप्रेम
मैंने तो बचपन के बाद ही त्याग दिया आत्मप्रेम
जानते हुए कि यह नैसर्गिक इंसानी प्रवृत्ति है
याद हैं वे दिन 
जब गर्मी की छुट्टियों में चरवाही के दरम्यान
संठे से जमान पर उकेरता अपना नाम
सभी ज्ञात भाषाओं में
और कोई कल्पित पदनाम
जैसे जैसे मालुम होती गयीं कमियां
एहसास होता गया अपने दुर्गुणों का
कैसे रख सकता जारी प्यार ऐसे अपात्र से
न तो देखने-सुनने में किसी लायक
ऊपर से सद्गुणों से विपन्न
संगीतशून्य और खेदकूद में लद्धड़
शहरी भेष में छिपे न जिसका देहातीपन
सिंगल पसली की काया
फूहड़ मजाक लगता बाहुबल का कोई दावा
दुर्गुणों फेहरिस्त लंबी  इतनी
कि पागल उपनाम दिलाया
मैं क्या कैसे कर सकता है प्यार कोई भी समझदार
ऐसे किसी सर्वदुर्गुणसंपन्न शख्स से
पागल कहने वाले लोग मुझे समझदार भी कहते थे
नहीं समझ पाता था रहस्य इस शाब्दिक विरोधाभास का
शक करता था पागलपन पर
मान लिया था मगर समझदार होने की बात
सो छोड़ दिया खुद से प्यार 
और करने लगा जमाने से 
क्योंकि प्यार के बिना कोई रह भी तो नहीं सकता

(ईमिः 29.06.2015)

Saturday, June 27, 2015

अपने जन्मदिन पर 2

                                                                  

साठवें जन्मदिन पर
25 मई की सुबह एक लगभग हम-उम्र दोस्त की साठवें जन्मदिन की अग्रिम बधाई मिली। सठियाने की पूर्वसंध्या पर बेदर्दी से आत्मावलोकन करते हुए  मैं पहले से ही बहुत उदास था, उदासी पर एक क्षणिका लिखा गई. उदासी विलासिता (लक्ज़री) है तथा हम गरीब हैं. यह डायलागा पता नहीं किस बात पर 40 साल पहले बोल दिया था. उदासी करुणा, समानुभूति, आदि की तरह एक मानवीय प्रवृत्ति है, उसी तरह जैसे शर्म एक क्रांतिकारी फीलिंग है. उदासी का सबब था आत्मकथा लिखने की सामग्री का अभाव. उसने ढाढ़स दिया कि आत्मकथा की सामग्री नहीं तो जिसकी है उसकी लिखो. लगता है जिंदगी में ऐसा कुछ किया ही नहीं जिसे वर्णित किया जाय. उसने मेरे जितने काम गिनाया, लगा वे तो मेरे जीने के तरीके का हिस्सा है. और मुझे अपना ही एक और डायल़ॉग याद आया, जो मैं अपने औपचारिक-अनौपचारिक स्टूडेंट्स से शेयर करता रहता हूं. ‘’ ज़िंदगी जीने का कोई जीवनेतर उद्देश्य नही है। एक सार्थक, नैतिक, ईमानदार जिंदगी जीना अपने आप में एक संपूर्ण उद्देश्य है। बाकी अनचाहे उपपरिणामों की तरह साथ लग लेते हैं।मेरे विचार से करनी-कथनी की एका का निरंतर प्रयास नैतिक जीवन की अनिवार्य शर्त है. शाम 5.30 बजे गांधी शांति प्रतिष्ठान में आपातकाल की बरसी पर जनहस्तक्षेप-पीयूसीयल की सालाना मीटिंग के संचालन की याद ने उदासी से मुक्ति को मजबूरी बना दिया. रूसो ने कहा है कि किसी को भी जनहित का उल्लंघन नहीं करने दिया जायेगा. दूसरे शब्दों में हर किसी को जबरन आज़ाद किय़ा जायेगा। चाय बनाकर प्रस्ताव लिखने बैठ गया। मीटिंग अच्छी हुई। विषय था, आपातकाल की आहट? इस उम्र में कुलदीप नैय्यर तथा कुलदीप नैय्यर सरीखों की सक्रियता प्रेरणादायी है. इस तरह के कार्यक्रमों में समय-निवेश की बावत इस अंधे युग में जनवादी चेतना के प्रसार में इनके प्रभाव पर मैं हमेशा खुद से सवाल करता हूं तथा खुद ही जवाब देता हूं कि न करके भी क्या कर लेंगे?

सठियाने  का भौतिक-बौद्धिक असर पहले ही दिन से दिखने लगा। दिन में बैठा मित्रों का आभार व्यक्त करने और देने लगा प्रवचन। मेरी बेटी तो कहती है कि मैं बहुत पहले से सठियाया हुआ हूं। फेसबुक पर तथा फोन पर इतनी बधाइयां मिलीं कि गद गद हो गया. सारे दोस्तों का तहे दिल से शुक्रया अदा करता हूं।  


Thursday, June 25, 2015

Emergency in offing?

Janhastakshep: A campaign against Fascist Designs
Delhi

Press Release

Emergency in offing?

“The attack on citizen’s rights, particularly on the rights of peasants and workers by the present Modi government brings the memories of Emergency back” said Justice (retired) Rajinder Sachchar, addressing the meeting jointly organized by Janhastakshep, Delhi PUCL (Peoples’ Union for Civil Liberties); CFD (Citizens for Democracy) and the Champa Foundation at Gandhi Peace Foundation, New Delhi to mark the imposition of Emergency by the then Indira Gandhi government in 1975. The Janhastakshep convener, Ish Mishra, while introducing the subject, expressed the apprehension of new kind of emergency kind fear with the concentration and centralization of  power by PMO under Narendra Modi in its eagerness to serve the global corporate, including the ones under the dispensation of the Indian capitalist by anti labor laws and land acquisition ordinances aimed at dispossession of peasants and the tribal population and attack on right to expression and dissent as exemplified by the ban on study circle in Madras IIT. The meeting presided by Delhi PUCL president was addressed by Justice Sachchar;  the veteran journalist Kuldip Nayar, one of the very few journalists who did not succumb to the threats; national president of IFTU(Indian Federation of Trade Unions), senior journalist Seema Mustafa; Dr, Aparna and the senior Supreme Court lawyer, Dr. Ashok Panda. All the speakers expressed the apprehension of authoritarianism on present government’s acts of dismantling or subverting the constitutional, cultural and academic institutions by installing RSS cadres with redoubtable credentials at their heads.

Seema Mustafa made an incisive comparison of present situation under the “macho militaristic PM with no respect for democracy following the might is right principle and instilling fear among the people” with pre emergency days. She also talked about how all the decisions of the various ministries are being controlled by the PMO in Indira-Sanjay Gandhi style and the literal ban on ministers to speak to media and media being disallowed in the ministries. She also expressed the need to combat the declared communalism and fascism. Kuldip Nayar while presenting the graphic picture of the Government’s attempt to dictate terms to media leading to his arrest and the inhuman treatment in the jail and succumbing of journalists to the threats compared with the present scenario of corporate controlled media singing the eulogy of the perceived invincible PM and appealed to the journalists and intellectuals to take u[on the new challenges and challenge the politics based on religion and the caste. Dr. Aparna pointed out that the restrictions on common people prevailing in the normal times just get extended to the bourgeois opposition too. She also pointed out that the Indian corporate is subservient to imperialist corporate and aids to its plunder of the peoples’ resources and also that in the matters of corruption and black money BJP  and Congress have convergence of interests citing the cases of corruption surfacing against the ministers of Modi Government. In the context of Land Acquisition Ordinance, she expressed optimism about mobilization of peasants, workers and other democratic forces, citing the various ongoing, though under reported anti-displacement movements in various parts of the country. Dr. Ashok Panda apart from other things pointed to Government’s attempt to scuttle and control the judiciary through dangerous designs of controlling the judiciary by the acts like NJAC for the self preservation as was done by Indira Gandhi during the emergency.

All the speakers expressed the concern over continuing attacks on minorities, particularly the Muslims and their religious places in RSS attempt to maintain and enhance the communal polarization and to divert the attention from anti people policies and need to stand up against it. They also shared the need to stand against the democratic rights of all the sections.  All the speakers also shred the need of developing alternative media and of using the social media channels to expose the government and to mobilize people in the defense of democratic rights of the all the sections of the society and support the peoples’ movements, wherever they are and would take place. The meeting ended with the vote of thanks by N.D. Pancholi and unanimously adopting the resolution stressing the need to “support and invigorate the struggles for civil liberties and democratic rights” and to “vigorously oppose the attacks on religious minorities and the minority nationalities, which are being targeted by Modi government.” (a copy of the resolution attached).

Sd

N D Pancholi, President, Delhi PUCL

Ish Mishra, Convener, Janhastakshep.


Monday, June 22, 2015

भूपत के पास जमीन नहीं है

भूपत के पास जमीन नहीं है
लेकिन गांव में घर पर बीबी बच्चे हैं
और दिल्ली में अपना खुद का रिक्शा
भूपत 30 साल से यही करता है
विश्वविद्यालय गेट पर रिक्शा लगाता है
खा-पीकर जो बचता है घर भेज देता है
जून की हर छुट्टी में गांव चला जाता है
भूपत का कभी कभी निरूलाज़ जाने का मन कहता है
मगर याद कर गांव में बच्चों की भूख
फुटपाथ के छोले-कुल्छे से काम चलाता है
व्यर्थ ही पूछते हो गरीब की रुचि या स्वाद
मिलता उसे जो भी समझता उसे परमात्मा का प्रसाद 
अब भूपत सवारी छोडने के बाद
निरूलाज़ के अदर झांकता नहीं हैं
कभी भी उसका मन निरूलाज़ जाने को नहीं होता 
भूपत के पास जमीन नहीं है
(ईमिः23.06.2015)

विवाह पुराण 2

मित्रों, पिछले महीऩे मैंने 43 साल पहले 17 साल की उम्र में अपनी शादी का ज़िक्र विवाह पुराण शीर्षक से एक पोस्ट में किया था. शादी का फैसला तो मेरा नहीं था लेकिन शादी निभाने का फैसला मेरा था। किसी सामाजिक कुरीति के एक “victim”द्वारा  more  “co-victim”  को further victimize करना अमानवीय होता. एक पुरुष प्रधान समाज में महिला more  “co-victim”  है. इसीलिये मैंने दूसरी शादी का कभी विचार नहीं किया. कुछ लोग मेरे ऊपर एक मर्दवादी होने की तोहमत लगाकर नारीविरोधी छवि बनाने की नाकाम-नापाक साज़िश कर रहे हैं. कई सामाजिक-राजनैतिक आंदोलनों से  रहा हूं. घोषित रूप से वामपंथी राजनीति का पैरोकार रहा हूं, ब्यक्तिगत तथा राजजनैतिक रूप से मानता हूं कि लैंगिक तथा सामाजिक समानता आज का युग धर्म है.  वैसे तो छात्र आंदोलनों में शिरकत के लिए छोटी-मोटी कई जेल यात्राएं की है, आपातकाल में कई महीनों का. मैं राजनीतिशास्ज्ञ का विद्यार्थी तथा शिक्षक हूं. जहां तक मुझे पता है हिंदू विवाह कानून के तहत सरकारी नौकरी करने वाला कोई भी व्यक्ति बगैर तलाक के दूसरी शादी नहीं कर सकता. मुझे हाल ही में पता चला है कि इसी विवि में पढ़ाने वाले, अतिविनम्र अतिमृदुभाषी नाऱी व्यथा से व्यथित होने वाले एक शिक्षक की पहली शादी मेरी ही तरह गांव में ही हो गयी थी, लेकिन दिल्ली आने के बाद बिना तलाक लिए उन्होंने दूसरी शादी कर ली. पहली शादी से उन्हें एक पुत्र भी था, जो पिता के अनैतिक व्यवहार को बर्दाशत न कर सका तथा अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ. मित्रों बतायें, आदर्श, नैतिकता तथा मर्यादा की दुहाई देने वाले शिक्षक का यह काम अमर्यादित तथा गैरकानूनी है या नहीं? उनकी प्रथम वैधानिक पत्नी आज भी पति से तिरस्कृत जीवन इनके गांव में ही बिता रही हैं. हमारी सहानुभूति उनके साथ है.

जब होता है मन उदास





जब होता है मन उदास
मौसम भी उदास दिखता है
होता है जो बहुत दूर
मन के पास दिखता है
मगर मन पर
नाक का सम्मान भारी पड़ता है
तब औपचारिक वार्ता का
कोई उचित बहाना खोजता है
चहता बस एक हल्की बयार
आंधी-तूफां की बात करता है
डूबने को बहुत है एक चुल्लू
सागर में कूद पड़ता है
जब होता है मन उदास
मौसम भी उदास दिखता है
(ईमिः23.06.2015)









EMERGENCY IN OFFING?

JANHASTAKSHEP: campaign against fascist designs

Invites you to a meeting on the anniversary of the imposition of emergency in 1975 on:

The Emergency in offing?

Venue: Gandhi Peace Foundation, Deendayal Upadhyay Marg, near ITO
New Delhi

Date: 25 June 2015

Time: 5.30 PM

Speakers:
• Justice (Retired) Rajinder Sachchar
• Kuldip Nayar, Senior Jounalist
• Ashok Panda, Advocate, Supreme Court
• N.D. Pancholi, President, Delhi PUCL
• Dr. Aparna, National Secretary, IFTU
• Ish Mishra, Convener, Jahastakshep

Organizers:
PEOPLES’ UNION FOR CIVIL LIBERTIES (PUCL), Delhi
CENTRE FOR DEMOCRACY (CFD), Delhi
JANHASTAKSHEP, Delhi
Champa Foundation, Delhi

Emergency in offing?
Friends,

History never repeats itself, it echoes. Present echoes are terrible. 40 years ago, on 25 June, 1975, Indira Gandhi declared emergency amidst the upheaval created by the anti corruption movements and loss of the credibility of the government. The constitutional rights were suspended. Strict censorship was imposed and the editors, who were asked to bend down prostrated. Thousands were incarcerated. Notorious 42nd constitutional amendment gave unlimited power to the Prime Minister. The process of the concentration and the centralization of power that had begun with her assuming the power reached the zenith by 1974 with a loyal Congress President declaring India to be Indira and vice versa. Her populist policies and slogans like eradication of poverty had earned her a charismatic image. The Congress veterans known as syndicate, who had organized themselves as Congress (O) were politically eliminated in the Indira wave of war jingoism in the aftermath of what is known as the Bangladesh war in 1971. The unprecedented majority in the parliament made her more authoritarian and arrogant and the members of Parliament acted as the bunch of minions and zealots. But just the slogans can’t keep the popularity forever. Soon the charisma fizzled out and the government faced popular movement, particularly by students. Faced with the possibility of Supreme Court upholding the Allahabad High Court decision of debarring her from holding to constitutional position, she declared emergency and the country witnessed the silence of graveyard. Dissenting voices were coercively muted. The notion of committed judiciary was implemented and the conscientious judges of the Supreme Court had resigned in protest. With Modi emerging as the sole leader of the country with the slogan of the development and sidelining the BJP veterans and the functioning of one year sounds serious alarms for democracy and democratic institutions of the country. As said above, history never repeats but echoes that are being louder and the emergency seems to be in offing, may be the undeclared.

Indira Gandhi’s path political ascendance to power, in an economically distressed conditions and rising poverty caused by draughts and social unrest was paved by her not only Garibi Hatao (eradicate poverty) slogan but also by seem singly pro-people policies like abolition of the privy puratses and the nationalization of the banks and war-patriotism. The path Modi’s ascendance to political supremacy in the face of corruption tented Congress misrule and anti-people policies and absence of a narional alternative, was paved by chauvinistic communal polarization by successfully organizing unprecedented communal pogroms, gang rapes and consequent exodus of Muslims and their ghettoization. But for the Muzaffarnagar-Shamli communal mayhem on the eve of the parliamentary elections, this kind of unprecedented electoral success fought in the “Indira is India” style would not have been possible by the development demagoguery. The first year of the Modi government has been the year of dismantling the institutions like planning commission and making them subservient to the government; desperation to disposes peasants by land acquisition ordinances; plans to subvert the higher education by not only by budgetary cuts to grants but also by introducing Central University Act and CBCS, continuity of old and introducing new methods of creating communal tension and displacement and ghettoization of the minorities. The way the criticism and the dissent is being dealt with as manifested in the banning of Periyar -- Ambedkar study circles; punitive action against students and teachers of St. Stephan’s and Hindu colleges respectively and the attacks on revolutionary cultural groups by Sangh Parivar is quite alarming. Indira Gandhi had only state’s coercive apparatuses on her disposal to silence the dissent and pursue her draconian policies; Modi has in addition to that the organized force of VHP-Bajarangdal kind of lumpen forces on his disposal.

It is in this context, we have chosen the topic of the Emergency in offing for this year’s commemoration of this black day. Please join us in the discourse.

Sd

N D Pancholi, President, Delhi PUCL
Ish Mishra, Convener, Janhastakshep

आपातकाल की आहट?

आपातकाल की आहट?
साथियो,
इतिहास खुद को दोहराता नहीं, सिर्फ उसकी प्रतिध्वनि सुनाई देती है। और 40 साल पहले लगाए गए आपातकाल की मौजूदा प्रतिध्वनि वाकई भयावह है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से पैदा उथलपुथल और अपनी सरकार की विश्वसनीयता धूल में मिल जाने से बौखलाई इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया था। इसके तहत सांवैधानिक अधिकारों को मुलतवी कर दिया गया था। सख्त प्रेस सेंसरशिप के जरिए संपादकों को सरकार की मर्जी के आगे नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया गया था। प्रधानमंत्री ने संविधान के 42वें संशोधन के तहत असीमित अधिकार हथिया लिए थे। सरकार की अलोकतांत्रिक नीतियों का विरोध करने वाले हजारों लोगों को कैदखानों में डाल दिया गया था।
इंदिरा गांधी की सत्ता के अपने हाथों में केन्द्रीकरण की मुहिम 1974 तक चरम पर पहुंच चुकी थी। यहां तक कि उनके वफादार एक कांग्रेस अध्यक्ष ने ‘इंदिरा और इंडिया’ को एकदूसरे का पर्याय बता दिया था। ‘गरीबी हटाओ’ जैसे लुभावने नारों ने इंदिरा गांधी को एक करिश्माई छवि दी थी। वर्ष 1971 की बंगलादेश की लड़ाई के बाद युद्धोन्माद के माहौल में उनकी ऐसी आंधी चली कि सिंडिकेट के नाम से मशहूर कांग्रेस (ओ) के दिग्गजों के पांव उखड़ गए। संसद में अभूतपूर्व बहुमत ने इंदिरा गांधी को अधिक तानाशाह और बदमिजाज बना दिया। सांसद उनके चापलूसों की फौज में तब्दील हो गए। लेकिन सिर्फ नारों से कोई कितने समय तक लोकप्रिय बना रह सकता है? इंदिरा गांधी का करिश्मा घटने लगा और उनकी सरकार को खास तौर से छात्रों के लोकप्रिय आंदोलन का सामना करना पड़ा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के कोई भी सांवैधानिक पद संभालने पर रोक लगा दी थी। उसके इस फैसले की उच्चतम न्यायालय से पुष्टि की संभावना के बीच उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी और समूचे देश में मौत का सन्नाटा छा गया। विरोध की आवाजों को कुचल दिया गया। अदालतों में सरकार के प्यादे न्यायाधीशों को भरा जाने लगा जिसके विरोध में उच्चतम न्यायालय के जमीर वाले जजों ने इस्तीफा दे दिया।
2014 में नरेन्द्र मोदी विकास के नाम पर प्रचंड बहुमत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए देश के एकमात्र नेता के तौर पर उभरे। उनका पिछले साल भर का कार्यकाल लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए गंभीर खतरा साबित हुआ है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, इतिहास खुद को नहीं दोहराता मगर मौजूदा समय में एक अघोषित आपातकाल की आहट साफ-साफ सुनी जा सकती है।
इंदिरा गांधी का राजनीतिक उदय अकालों और सामाजिक अशांति के कारण बढ़ती गरीबी और आर्थिक विपत्ति की स्थिति में हुआ। ‘गरीबी हटाओ’ के लुभावने नारे और युद्धोन्माद के अलावा प्रिवी पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जनपक्षीय नीतियों ने भी उन्हें जबर्दस्त लोकप्रियता दी। दूसरी ओर मोदी के राजनीतिक उदय का रास्ता भ्रष्टाचार में लिपटी कांग्रेस के कुशासन और उसकी जनविरोधी नीतियों तथा उसके राष्ट्रीय विकल्प के अभाव की स्थिति में खुला। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी चुनावी सफलता के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया जिसके तहत बड़े पैमाने पर जनसंहारों, सामूहिक बलात्कारों और अल्पसंख्यकों को उनके घरों से बेदखल करने के अभियानों को अंजाम दिया गया। लोकसभा चुनावों से पहले मुजफ्फरनगर-शामली जैसे साम्प्रदायिक खूनखराबे नहीं कराए गए होते तो तथाकथित विकास पुरुष को अभूतपूर्व सफलता मिलना असंभव था।
मोदी ने अपने साल भर के शासन में योजना आयोग जैसी संस्थाओं को सरकार का चाकर बना दिया है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद जैसी संस्थाओं में संदिग्ध योग्यता वाले संघ परिवार समर्थकों को भरा जा रहा है। सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के जरिए किसानों को लूटने में लगी है। बजटीय अनुदान घटा कर तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय कानून और सीबीसीएस के माध्यम से उच्च शिक्षा को नष्ट किया जा रहा है। साम्प्रदायिक तनाव फैलाने और अल्पसंख्यकों को डरा-धमका कर उनके घरों से बेदखल करने के नए-नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। पेरियार-अंबेडकर स्टडी सर्किल पर पाबंदी तथा दिल्ली में सेंट स्टीफन और हिंदू काॅलेज के छात्रों और शिक्षकों के खिलाफ कार्रवाई की घटनाएं दिखाती हैं कि सरकार आलोचना और विरोध की आवाज को खामोश करने पर आमादा है। क्रांतिकारी सांस्कृतिक संगठनों पर संघ परिवार के हमले गंभीर चिंता का विषय हैं। असंतोष और अपनी तानाशाही नीतियों के विरोध को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी के पास सिर्फ दमनकारी सरकारी तंत्र था। मगर मोदी के पास सरकारी दमनतंत्र के अलावा विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के गुंडों के बड़े गिरोह भी हैं।
इस संदर्भ में हमने इमरजेंसी की वर्षगांठ के काले दिवस पर विचार विमर्श के लिए ‘आपातकाल की आहट?’ को विषय चुना है। आपसे अनुरोध है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर इस सभा में शिरकत करें।

कार्यक्रम
इमरजेंसी की वर्षगांठ पर सभा
आपातकाल की आहट?
तारीखः 25 जून, 2015 (गुरूवार)
समयः शाम 5.30 बजे
स्थानः गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली
(नजदीकी मेट्रो स्टेशनः आईटीओ)
वक्ताः न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) राजिन्दर सच्चर, कुलदीप नैयर (वरिष्ठ पत्रकार), अशोक पांडा (अधिवक्ता, उच्चतम न्यायालय), एनडी पंचोली (अध्यक्ष, दिल्ली पीयूसीएल), डा0 अपर्णा (राष्ट्रीय सचिव, इफ्टू) और ईश मिश्र (संयोजक, जनहस्तक्षेप)।
आयोजकः पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल), सेंटर फार डेमोक्रेसी (सीएफडी), जनहस्तक्षेप और चंपा फाउंडेशन।
ह0/
एनडी पंचोली (अध्यक्ष, दिल्ली पीयूसीएल)
ईश मिश्र (संयोजक, जनहस्तक्षेप)

कहीं और चलें

इसी लिए कहता हूं चलो कहीं और चलें
कहीं ऐसी जगह जहां तुम कह सको
और मैं समझ सकूं तुम्हारी बात
यहां की दीवारों से टकरा कर आने वाली प्रतिध्वनि 
शोर बन जाती हैं 
चलो वहां चलें जहां दीवार न हो
न हो जहां डीजे का कान फाड़ू तमाशा
या भगवती जागरण का हो-हल्ला
न हों जहां गांव के चौपाल की शातिर तिकड़में
या शहरी मशक्कत की भागमबाग
अफवाहों की गर्म बाजार न हो
शतरंज की सियासी चाल न हो
जहां हम हों और हमारा जमीर
चलो कहीं और चलें
जहां सुन सकूं तुम्हारे मुखर मौंन की आवाज़
और कह सकूं मन की बात
यहां तुम कुछ कह नहीं पाती 
और मैं अनकहा सुनकर भी समझ नहीं पाता
(ईमिः 22.06.2015)

Thursday, June 18, 2015

तस्वीर

ढूढ़ रहा था तुम्हारी यही तस्वीर
उतारा था जिसे कविता में
तुमसे मिलने से पहले ही
और थमा दिया था लाल फरारा
कल्पना करो उस कवि की खुशी के आलम का
साकार हो जिसकी कल्पना
लेकिन तुम तो पहले ही
उठा चुकी थी इंकिलाबी परचम
कविता की कल्पना के पहले
कल्पना यथार्थ का ही अमूर्तिकरण है
(ईमिः 18.06.2015)

ईश्वर विमर्श 35

Pushpa Tiwari मित्र मुझे हिंदू या किसी धर्म से कोई दिक्कत नहीं है न इसे मानने वालों से, धर्मों के कठमुल्लेपन से है. वैसे तो सारे धर्म विवेक पर आस्था को वरीयता देने के चलते प्रतिगामी होते हैं. मेरा तो बचपन गीता के शलोक तथा रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयां जपते बीता. अाज भी बहुत से श्लोक याद हैं. 20 साल की उम्र में दोनों ग्रंथो को सजग दिमाग से पढ़ा. ऋगवेद तथा कुरान भी. बाकी की बात अभी नहीं करता. जो लोग गीता को सद्गुण की खान मानते हैं, उन्होने या तो गीता पढ़ा नहीं या दिमाग बंद कर भक्तिभाव से पढ़ा है. गीता अंधभक्ति को बढ़ावा देने वाला मर्दवादी-वर्णाश्रमी मूल्यों का पोषक ग्रंथ है

गीता पाठ

गीता पाठ
वह कहता है लोग गीता पढ़ें करें और योग
धनपशु जिससे कर सकें बेखटक राजभोग
गीता है महाभारत में एक मनुवादी प्रक्षेपण
देती है जो विवेक की तालाबंदी का प्रशिक्षण
मेहनतकश की तो दिनचीर्या ही है संपूर्ण योग
जरूरत यह उनकी करते जो बिन मेहनत भोग
एक ग्वाला जब धनुर्धर का सारथी बन जाता
जादू के सम्मोहन में विकराल रूप दिखाता
खुद को सर्वज्ञ और सृष्टि का श्रोत बतलाता
चमत्कृत धनुर्धर हो वशीभूत दंडवत हो जाता
मदारी को माता पिता गुरु सबकुछ मान लेता
बन स्वयंभू विधाता देता धनुर्धर को उपदेश
बिन सोचे समझे मानो प्रभुओं का आदेश
धर्मयुद्ध के नाम पर करवाता जनसंहार
भरता दिलों में युद्धोंमादी हिंसक विचार
हिंसा से विरक्ति को बतलाता जघन्य पाप
मरने वाला कोई भी हो दादा भाई या बाप
चिंता के बिन फल के देता कर्म का उपदेश
दुनया को देता रक्तपात का पुनीत संदेश
फेकता है भक्तिभाव का एक मोहक जाल
बुनता है तब स्वर्ग-नर्क का जटिल मायाजाल
पूंजीवाद की तरह पैदा करता है मन में वहम

बढ़ने के लिए आगे बनना है बिल्कुल बेरहम
जीतने पर देता है छलावा भोगने का संसार
हारने पर खुल जायेंगे बैकुंठलोक के द्वार
दिखाता डर पिछड़ने का लगाने पर दिमाग
दुनिया में मची है जीतोड़ भागम्भाग
छिपा लेता है चुपड़ी बातों में युद्ध का निहितार्थ
कि पीछे है इसके शासक वर्गों के निजी स्वार्थ
जंग तो खुद है एक खतरनाक ऐतिहासिक मसला
ये क्या साधेगा कोई भी सामाजिक मामला
कि जीतता नहीं कोई भी जंग में हारता है आवाम
रक्तरंजित धरती बन जाती है भयावह शमसान
हर तारीक़ी दौर में जंग चाहता है जंगखोर
निःसंकट राज करे आवाम पर जिससे हरामखोर
और भी बहुत कुछ छिपाता है यह विधाता
भक्तिभाव में जिसको भी बाधक है पाता
हर शासक आवाम को पढ़ाता है गीता
इससे ठगने में लोगों को होती जो सुभीता
पढ़ो गीता मगर लगा कर दिमाग
छल-फरेब के जाल में लगा दो आग
अंत में भक्त जनों को देता हूं यह संदेश
बिन विचारे मानो मत किसी प्रभु का आदेश
चिंतनशक्ति है विशिष्ट इंसानी प्रवृत्ति
अन्यथा करता वह खुद की पशुवत पुनरावृत्ति
चिंतन जब मुल्तवी कर देता इंसान
खींचता है ज़िंदगी पशुओं के समान
जीना है अगर इंसानी सम्मान के साथ
गीता के उपदेशों को मारो तगड़ा लात
(ईमिः 19.06.2015)

नोटः कल रात फेसबुक पर एक कमेंट में ठीक-ठाक कविता लिखा गई थी ई-अल्पज्ञान के चलते गायब हो गयी. सारी सुबह, काफी कोशिस के बात भी वह बात नहीं आ पायी. वही बात वैसे भी बीते पलों की तरह दुबारा नहीं आती. 

Tuesday, June 16, 2015

मोदी को मारा मोदी ने

मोदी को मारा मोदी ने दोनों हैं दुश्मन-ए आवाम
एक ने किया दलाली दूजे ने किया मुल्क नीलाम
(ईमिः16.06.2015)

Monday, June 15, 2015

गहराई तथा किनारे

ऐसा नहीं कि गहराई का किनारों से कुछ लेना नहीं
वही तो है जो किनारों को मिलने नहीं देती
(ईमिः 15.06.2015)

सियासत 18

मोदी सरकार के मंत्रियों द्वारा सगे-संबंधी अपराधियों की मदद करना राष्ट्र-भक्ति है तथा  90 फीसदी विकलांग, व्हीलचेयर वाले मानवाधिकार के हिमायती प्रोफेसर को जेल की अमानवीय  यातना से बचाना देशद्रोह. अच्छे दिन में सारी परिभाषाएं बदल गयी हैं.

सियासत 17

On compassionate, humanitarian ground, India's foreign minister pleads with the British government for Lalit Modi, of IPL scams fame, that has been granted. Is it corruption to help a criminal to evade arrest? Can these nationalists have some compassionate, humanitarian feeling for 90% disabled Delhi University professor G Naga Saibaba​ rooting in the egg cell of Nagpur jail under oppressive conditions? Saibaba is not a criminal or involved in scams causing harm to state treasury but a champion of human rights of the oppressed. They would say he is a Maoist. Is action taken for acts or ideas? Recent judgement of Kerala high court ruled out that no action can be taken just for being a Maoist. Would courts of this country, which for an accident by a e-Ricksa jeopardized the livelihood of lakhs of self employed poor, would take the suo-moto action to help the wheel chaired professor? Answer is no, because neither her husband is friend of Saibaba nor her daughter is his lawyer. It is to be noted that the husband of the external affairs minister is friend of Modi and her daughter is his lawyer. Does helping family friend-crimnals come under the category of corruption? Devotees are silent. jai shriram

सियासत 16

Nishant Gupta इतिहास के बारे में यह न होता तो क्या होता का कयास बेमानी है. इतना जरूर है यदि कांग्रेस सरकार ने देश की नीलामी तथा विश्वबैंक की मातहती में शिक्षा व्यवस्था की ऐसी की तैसी न की होती तो अाज एक जघन्य नरसंहार का आयोजक देश का मुखिया न होता. दर-असल कांग्रेस तथा भाजपा दोनों ही भूमंडलीय पूंजी के एजेंट हैं. फर्क है कि कांग्रेस के पास विहिप-बजरंग दल जैसे लंपट गिरोह नहीं हैं. राडिया डेप में मुकेश अंबानी ठीक ही कहता है कि दोनों उन्हीं की दुकानें हैं. बाजपेयी सरकार ने नरसिंह राव की नीतियों को त्वरित किया तथा मोदी अाक्रामकता के साथ मनमोहन यानि विश्वबैंक की नीतियों को त्वरित कर रहा है. विश्व बैंक के रखैल अर्थशास्त्रियों का एक गिरोह है जो खुद को स्कूल ऑफ न्यू पोलिटिकल इकॉनमी कहता है, उसका मानना है कि विकासशील देशों में नवउदारवादी संक्रमण के लिये निर्ममता से बल प्रयोग की जरूरत है, जिसके लिये अधिनायकवादी सरकार ज्यादा उपयुक्त है. इन देशों के राजनेता जाहिल हैं और किसी भी कीमत पर सत्ता में रहना चाहते हैं इस लिये "अच्छे लोगों की भलाई" के लिए बुरी सरकार खरीद लो. वह यह भी कहते हैं कि इन नीतियों को लागू करने के लिये जनविरोधी कदम उठाने की जरूरत होगी तथा बेरहमी से बलप्रयोग की. सरकारी दल जाहिर है बदनाम हो जायेगा, दूसरी दुकान को आगे कर दो. वह सारी बुराइयों का ठीकरा पिली सरकार के सिर फोड़ कर सफाई के बहाने समय के तर्क पर काम आगे बढ़ाये. इस तरह पालतू मोहरों को अदल-बदल कर इन देशों का विकास(विनाश) जारी रहना चाहिये. हर युग के शासक वर्ग अपने गौड़ तथा अक्सर कृतिम अंतरविरोधों को बढ़ा-चढ़ा कर समाज के प्रमुख अंतर्विरोध के रूप में पेश करता है जिससे समाज का वास्तविक, रोजी-रोटी के अंतरविरोध की धारअंरविरोध की धार कुंद की जा सके. आज जब कि प्रमुख अंतरविरोध भूमंडलीय साम्राज्यवाद तथा भूमंडलीय आवाम के बीच है, कॉरपोरेटी मीडिया तथा बुद्धिजीवी साम्राज्यवाद की दो एजेंट फार्टियों के कृतिम आंतरिक अंतर्विरोध को ही उछाल रहे हैं. लेकिन दुनिया का आवाम जिस दिन मुकेश अंबानी के दावे का निहितार्थ समझ जायेगा, कॉरपोरेटी पूंजीवीद के साथ उसके ज़रखरीद वफादारों का भी अंत कर देगा. तब तक दोनों खेल लें आपस में कंचा.

इल्ज़ाम का तबादला इंसानी फितरत है

वे इल्ज़ाम किसीअौर पर डाल देते है
बुझाकर दीप हवा का नाम लगा देते हैं
बताते हैं इसे साश्वत इंसानी फितरत
रखते हैं  ईमानदार कहलाने की हसरत
मगर मानेगा न गलती तो सीखेगा कैसे
करता रहेगा गलतियां पहले ही जैसे
ले ले इल्जाम अगर इंसान खुद पर
हो दिल से शर्मिदा अपने किये पर
संजीदगी से खुद से संवाद करेगा
खुलेदिल से बेबाक सच बात कहेगा
शर्म में नहीं है कोई शर्म की बात
शर्मिंदगी है एक क्रांतिकारी एहसास
बेचैनी नहीं है  दोष व्यक्तित्व का
सनद है ये सर्जक कृतित्व का
शर्मिंदा होती है जब बेचैन आत्मा
होता है पिछली गल्तियों का खात्मा
ले सीख गलतियों से बनाती नई डगर
बढ़ती है उस पर बिना किसी अगर-मगर
मिलते राह में नये नये हमसफर
आसान हो जाती है मुश्किल सी डगर
जब भी अंधेरे के लिये बुझाओ चिराग
मासूम हवाओं पर न लगाओ दाग
(ईमिः 15.06.2015)

सियासत 15

Nishant Gupta इतिहास के बारे में यह न होता तो क्या होता का कयास बेमानी है. इतना जरूर है यदि कांग्रेस सरकार ने देश की नीलामी तथा विश्वबैंक की मातहती में शिक्षा व्यवस्था की ऐसी की तैसी न की होती तो अाज एक जघन्य नरसंहार का आयोजक देश का मुखिया न होता. दर-असल कांग्रेस तथा भाजपा दोनों ही भूमंडलीय पूंजी के एजेंट हैं. फर्क है कि कांग्रेस के पास विहिप-बजरंग दल जैसे लंपट गिरोह नहीं हैं. राडिया डेप में मुकेश अंबानी ठीक ही कहता है कि दोनों उन्हीं की दुकानें हैं. बाजपेयी सरकार ने नरसिंह राव की नीतियों को त्वरित किया तथा मोदी अाक्रामकता के साथ मनमोहन यानि विश्वबैंक की नीतियों को त्वरित कर रहा है. विश्व बैंक के रखैल अर्थशास्त्रियों का एक गिरोह है जो खुद को स्कूल ऑफ न्यू पोलिटिकल इकॉनमी कहता है, उसका मानना है कि विकासशील देशों में नवउदारवादी संक्रमण के लिये निर्ममता से बल प्रयोग की जरूरत है, जिसके लिये अधिनायकवादी सरकार ज्यादा उपयुक्त है. इन देशों के राजनेता जाहिल हैं और किसी भी कीमत पर सत्ता में रहना चाहते हैं इस लिये "अच्छे लोगों की भलाई" के लिए बुरी सरकार खरीद लो. वह यह भी कहते हैं कि इन नीतियों को लागू करने के लिये जनविरोधी कदम उठाने की जरूरत होगी तथा बेरहमी से बलप्रयोग की. सरकारी दल जाहिर है बदनाम हो जायेगा, दूसरी दुकान को आगे कर दो. वह सारी बुराइयों का ठीकरा पिली सरकार के सिर फोड़ कर सफाई के बहाने समय के तर्क पर काम आगे बढ़ाये. इस तरह पालतू मोहरों को अदल-बदल कर इन देशों का विकास(विनाश) जारी रहना चाहिये. हर युग के शासक वर्ग अपने गौड़ तथा अक्सर कृतिम अंतरविरोधों को बढ़ा-चढ़ा कर समाज के प्रमुख अंतर्विरोध के रूप में पेश करता है जिससे समाज का वास्तविक, रोजी-रोटी के अंतरविरोध की धारअंरविरोध की धार कुंद की जा सके. आज जब कि प्रमुख अंतरविरोध भूमंडलीय साम्राज्यवाद तथा भूमंडलीय आवाम के बीच है, कॉरपोरेटी मीडिया तथा बुद्धिजीवी साम्राज्यवाद की दो एजेंट फार्टियों के कृतिम आंतरिक अंतर्विरोध को ही उछाल रहे हैं. लेकिन दुनिया का आवाम जिस दिन मुकेश अंबानी के दावे का निहितार्थ समझ जायेगा, कॉरपोरेटी पूंजीवीद के साथ उसके ज़रखरीद वफादारों का भी अंत कर देगा. तब तक दोनों खेल लें आपस में कंचा.

संघ पुराण 2

Dinesh Jindal शिशु मंदिर के कठमुल्मुले अाचार्य न सिर्फ नेहरू-गांधी तथा शहीदों के बारे में ब्रेनवाश करते हैं बल्कि मुसलमानों के प्रति नफरत भरने के लिये इतिहास का विकृत पाठ पढ़ाते हैं, दिमाग इस्तेमाल की स्वाभाविक प्रवृत्ति को कुंद कर बच्चे को अाजीवन अपाहिज कर देते हैं, यही काम शाखाओं के  बौद्धिक प्रमुख भी करते हैं. इसका हल वैज्ञानिक शिक्षा के प्रसार तथा जनवादी जनचेतना का विस्तार तथा जनांदोलनों की धार का पैनापन. जब भी जनानांदोलनों की धार कुंद होती है प्रतिगामी ताकतों की मुखरता आक्रामक हो जाती है. मोदी विश्व बैंक तथा कॉरपोरेट के ज़रखरीद गुलाम की तरह तोबड़तोड़ शिक्षा विरोधी जनविरोधी नीतियां लागू कर रहा है, सशक्त विरोध न हुआ तो मुल्क तबाह हो जायेगा. प्रतिरोध-दमन-प्रतिरोध की प्रक्रिया में या तो आवाम जीतेगा या कॉरपोरेट या दोनों का विनाश.

Friday, June 12, 2015

चिराग जलता रहेगा

चिराग जलता रहेगा सहर होने तक
जंग चलता रहेगा अमन अाने तक

डर है कि काले बादलों से न घिर जाये माहताब
दाग़दार न हो जाये इक नई सुर्ख सुबह का ख़ाब

अाम अादमी की भूमिका में थे जब अाप
सोचा था लोगों ने कम होगा कुछ संताप

मगर बनते ही खास अाम से
दफ्न किया नैतिकताअाराम से

उतार फेंका अाम अादमी का चोंगा
अावाम को दुत्कारा कह पंडित पोंगा

अपनाया सत्ता पाने की मैक्यावली की सलाह
किया न मगर चलाने के मशविरों की परवाह

अवश्यंभावी है उसी तरह अापका सर्वनाश
हो रहा है जिस तरह वंशवाद का सत्यानाश

 क्रांति का बीज जब बोयेगा अावाम
होगा सब  फरेबियों का काम-तमाम.
(ईमिः29.03.2015)