Friday, October 30, 2020

मार्क्सवाद 229 (मार्क्सवादी अहंकार)

 एक सज्जन ने मार्क्सवादियों के वैचारिक श्रेष्ठतावाद के अहंकार पर एक पोस्ट शेयर किया, उस पर मेरे इस जवाब


जो विचारशील होगा और उसमें अतार्किक श्रेष्ठताबोध नहीं होगा। ज्ञान से विनम्रता आती है, अहंकार नहीं। आपने किस मार्क्सवादी को वैचारिक अहंकार से परेशान देखा है? मार्क्सवादी सर्वहारा यानि आमजन की आमजन द्वारा मुक्ति में विश्वास करता है और इसलिए मार्क्वाद और श्रेश्ठतावाद पारस्परिक विरोधाभसी हैं। मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है आत्मालोचना, जो बौद्धिक विकास की अनिवार्य पूर्व शर्त भी है। मार्क्सवादी तो वैचारिक अहंकार से नहीं परेशान रहता लेकिन इस पोस्ट के लेखक समेत इस ग्रुप के बहुत से लोग, मार्क्सवाद के बारे में बिना कुछ जाने इस शब्द से ही परेशान दिखते हैं। मैंने किसी श्रेष्ठताबोध में नहीं, शिक्षक होने के नाते मार्क्सवाद पर सरल भाषा में कई लेख शेयर किया, लेकिन लगता नहीं उन्हें ज्यादा लोगों पढ़ा होगा। बात-बेबाक बिना संदर्भ के कई लोगों पर मार्क्सवाद और वामपंथ का दौरा जरूर पड़ता रहता है। मैं ईमानदारी से स्वीकारता हूं कि मेरे अंदर कोई श्रेष्ठताबोध नहीं है तो निराधार श्रेष्ठताबोध कहां से होगा। शिक्षक होने के नाते किसी पोस्ट पर आंय-बांय से विषयांतर करने वालों को शुभेच्छुभाव से पढ़ने की सलाह जरूर दे देता हूं। मैं भी संस्कारगत ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध से ओतप्रोत था, पढ़ने में तेज समझे जाने से सोने में सुहागा वाली स्थिति थी। 10-11 साल की उम्र में एक घटना ने मेरे अंदर के ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध को झकझोर दिया तथा मन को आत्मावलोकन तथा चिंतन-मनन की प्रक्रिया में ढकेल दिया। आदत धीरे धीरे छूटती है, दसवीं में पहुंचते-पहुंचते जनेऊ अनावश्यक लगने लगा और मैंने तोड़ (उतार) दिया। रूपक में कहता हूं कि तबसे बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया। मार्क्सवाद आमजन द्वारा अपनी मुक्ति की विचारधारा है जो पूंजीवाद की जगह वैज्ञानिक समाजवाद का विकल्प पेश करता है।

पर--

उन्होंने रूस में बहुत दिन रहे किसी के वेदांती होने और देश-विदेश के कई विद्वानों से संवाद और अपने चचेरे नाना के 'भयंकर कम्युनिस्ट' होने और उनके द्वारा गरीबों के नाम पर जमीन कब्जा करने और जमींदारों से समझौता कर गरीबों को धोखा देने की मिशाल दिया।

मैं इस पोस्ट के लेखक के मार्क्सवाद के सैद्धांतिक और धरातलीय ज्ञान के बारे में उसके फैसलाकुन वक्तव्य (फतवेबाजी) से ही जानता हूं। कैन कितने साल रूस में रहकर वेदांती (वह जो भी होता हो) हो गया या देश-विदेश के कितने व्यक्तियों से आपने क्या-क्या सीखा आप ही जाने।

आपके परिवार में कितने मार्क्सवादी हुए और आपने उनसे क्या सीखा आप ही जानें। जमींदारों की जमीन पर दिन में गरीबों का कब्जा कराकर, 'पीछे से जाकर जमींदारों बातकरके' गरीबों से गद्दारी करके कम दाम पर जमीन अपने नाम लिखाने वाले 'भयंकतर कम्युनिस्ट' आपके चचेरे नाना मार्क्सवाद के प्रतिनिधि नहीं मार्क्सवाद के नाम पर दलाली करने वाले मार्क्सवादी शब्दावली में लंपट सर्वहारा थे। ऐसे ही लोग कम्युनिस्ट शब्द को कलंकित करते हैं।

पोलैंड और यूक्रेन में कम्यून में पले आपके मित्र होने से मार्क्सवाद के बारे में आपके फतवे प्रामाणिक नहीं हो जाते। सादर।

मार्क्सवाद 228 (धर्मांधता)

 जो लोग फ्रांस के राष्ट्रपति के विरुद्ध सड़कों पर उतर रहे हैं क्या वे एक धर्मांध द्वारा एक शिक्षक का सिर कलम करने के खिलाफ सड़क पर उतरे थे? या दूसरे धर्मांध द्वारा चर्च में 3 निर्दोषों की हत्या के विरुद्ध? या कुछ साल पहले किसी पैगंबर का कार्टून छापने वाली पत्रिका के दफ्तर पर कोहराम मचाकर कई निर्दोषों के हत्यारों के विरुद्ध? वह कौन सी अफीम है जिसके नशे में इंसान नर से नरपिशाच बन जाता है? आतंकवादी हिंसक तांडव से सरकारें नहीं डरती, आमजन डरता है, सरकारों को तो आमजन पर शिकंजा कसने का बहाना मिल जाता है। मूल (आर्थिक) मुद्दों जन-असंतोष का सामना कर रही मैक्रोन सरकार को आतंकवाद से लड़ने के लिए जनसमर्थन मिल गया जो वक्त की जरूरत है।


दूसरी बात फ्रांस में इस्लामी धर्मांधों के जघन्य कुकृत्यों पर हाय तौबा मचाने वाले क्या हिंदू अंधविश्वास-धर्मांधताओं की आलोचना के लिए मातम मनाए थे या उत्सव मना रहे थे? क्या वे तार्किकता का अभियान चलाने के लिए तर्कवादी विद्वान नरेंद्र डाभोलकर की हत्या पर आंसू बहाए थे या हत्यारे नरपिशाचों के पक्ष में कुतर्क गढ़ रहे थे? क्या वे राजनैतिक धर्मोंमाद और जातिवादी अमानवीयता के विरुद्ध कलम चलाने वाली गौरी लंकेश के मातम में शामिल हुए थे या उन्हें कुतिया कह कर उनकी हत्या का जश्न मनाने में शामिल थे?

दोस्तों कलम और किताब से बौखलाकर हिंसक तांडव मचाने वाले हर तरह के धर्मांध और धर्माोंमादी नरपिशाचों की एक ही प्रजाति है, गौरी लंकेश के हत्यारों की पक्षधरता आपको फ्रांसीसी शिक्षक के हत्यारे के समर्थकों की जमात में खड़ी कर देती है। बल्लभगढ़ की लड़की की हत्या का विरोध करना है तो हाथरस की लड़की के हत्या-बलात्कार के आरोपियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन बंद कर उनके विरुद्ध खड़ा होना पड़ेगा। हर किस्म के धर्मांध और कट्टरपंथी मानवता के समान रूप से दुश्मन एक दूसरे के पूरक तथा सहोदर हैं। कट्टरपंथ और धर्मांधता का विरोध समग्रता में करना पड़ेगा तभी मानवता को बचाया जा सकेगा। विभिन्न प्रकार के नरपिशाचों में मात्रात्मक फर्क हो सकता है, उनमें कोई गुणात्मक फर्क नहीं है।

लल्ला पुराण 362 (ठाकुर)

 एक सज्जन ने लिखा कि ठाकुरों की एक अच्छी बात है कि उनमे वामपंथी नहीं होते। उस पर:

वामपंथ क्या होता है? क्या ठाकुरों की कोई समरस कोटि है? मेरे बड़े भाई इस्लामोफोबिया से परेशान हिंदू-मुसलमान करते रहते हैं। मैंने एक बार उनसे पूछा कि हम कितने भाई हैं, उन्हें सवाल समझ नहीं आया फिर भी संख्या बता दिया। मैंने पूछा सब एक जैसे हैं? अब क्या कहते? मैंने कहा जब चंद सगे भाई एक जैसे नहीं होते तो आप करोड़ों, लाखों, हजारों की एक समरस कोटि कैसे बना सकते हैं? दुर्भाग्य से ऐसी कोटि बनाने की मूर्खता बहुत से विश्विद्यालय के शिक्षित लोग करते हैं। इसी लिए कहता हूं कि पढ़े-लिखे जाहिलों का अनुपात अपढ़ जाहिलों से ज्यादा है।

लल्ला पुराण 362 (मॉडरेटर)

 मैंने भावात्मक दबाव में, चुंगी का मॉडरेटर बनना स्वीकार कर लिया, मुझे मालुम नहीं कि मॉडरेटर का काम क्या होता है, इसलिए फिलहाल कुछ नहीं करूंगा। इस ग्रुप के भी कई लोग मेरी ब्लॉक लिस्ट में हैं जिन्हें मैं एक एक कर एक बार अनब्लॉक करता हूं, कभी कभी दुबारा भी। मैं अमर्यादित भाषा में निराधार निजी आक्षेप करने वालों को ही ऐसा न करने के 2-3 आग्रह के बाद इसलिए ब्लॉक करता हूं कि कहीं यह भूलकर कि 45 साल पहले 20 साल का था उन्हीं की भाषा में जवाब देकर अपनी भाषा भ्रष्ट करके पछताना न पड़े। मैं दिल्ली विवि से रिटायर्ड शिक्षक हूं और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की रिटायरमेंट की उम्र 65 साल है। कई लोग उम्र कामजाक उड़ाते कमेंट करते हैं जैसे कि वे आजीवन युवा बने रहेंगे। इसे मैं बेहूदी बदतमीजी मानतता हूं। हम लोग तो बुजुर्गों से कभी बदतमीजी की बजाय अतिरिक्त सम्मान करते थे। मॉडरेटर बनने से लगता है ब्लॉक लिस्ट के लोगों की पोस्ट-कमेंट दिखने लगते हैं। जो पोस्ट दिखी उनमें से एक सज्जन को ब्लॉक करना याद नहीं था, अनब्लॉक कर दिया। एक को एक बार अनब्लॉक किया था दुबाराे इलाहाबाद में दिखने पर हाथ पांव तोड़ने की धमकी देने पर ब्लॉक किया। वैसे तो मैं गुंडे-मवालियों से कभी डरा नहीं लेकिन उनसे दूर ही रहना चाहिए। दूसरे सज्जन ने स्थान-विशेष के बाल उखाड़ने की चुनौती दी, ऐसी चुनौती कौन स्वीकार करे। मैं पहली बार ब्लॉक किए लोगों को खोजकर अनब्ल़क करूंगा और निवेदन करूंगा कि पोस्ट के विषय का खंडन-मंडन करें, निराधार निजी आक्षेप की नीचता नहीं। निजी आलोचना करें लेकिन गाली देने के लिए नहीं तथ्य-तर्कों के आधार पर, उम्रका मजाक बिल्कुल न करें नहीं करें कि आवेश में भूल न जाऊं कि 45 साल पहले 20 साल का था।


अंत में यह कि मॉडरेटर होना उसी तरह के दबाव में स्वीकार किया जैसे 48 साल पहले विवाह करना। मैं इंटर की परीक्षा देकर घर आया तो शादी का कार्ड छप चुका था, मेरी विद्रोही प्रवृत्ति जाग गयी। मेरी अइया (दादी) रोने लगीं कि किसी लड़की की इज्जत का मामला है कार्ड छपने के बाद उसकी इज्जत पर धब्बा लग जाएगा। मैं शादी करने को राजी हो गया लेकिन अंडर प्रोटेस्ट, शादी का जोड़ा-जामा नहीं पहना। वह कहानी फिर कभी। 8-9 साल पहले लल्ला का चौराहा पर किसी ने पूछा था कि क्या मैंने बाकी बातों की तरह शादी भी अपनी मर्जी से की थी? मैंने कहाथा कि शादी तो मर्जी से नहीं की थी लेकिन निभाने का फैसला मेरा चुनाव था। अब तो शादी के 48 और गौने के 45 साल हो गए तथा निरंतर साथ रहते 33। शादी निभाना तो सामाजिक दायित्व की नैतिकता थी लेकिन मॉडरेटरी कभी भी छोड़ दूंगा।

लल्ला पुराण 361 (वैचारिक श्रेष्ठतावाद)

 जो विचारशील होगा और उसमें अतार्किक श्रेष्ठताबोध नहीं होगा। ज्ञान से विनम्रता आती है, अहंकार नहीं। आपने किस मार्क्सवादी को वैचारिक अहंकार से परेशान देखा है? मार्क्सवादी सर्वहारा यानि आमजन की आमजन द्वारा मुक्ति में विश्वास करता है और इसलिए मार्क्वाद और श्रेश्ठतावाद पारस्परिक विरोधाभसी हैं। मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है आत्मालोचना, जो बौद्धिक विकास की अनिवार्य पूर्व शर्त भी है। मार्क्सवादी तो वैचारिक अहंकार से नहीं परेशान रहता लेकिन इस पोस्ट के लेखक समेत इस ग्रुप के बहुत से लोग, मार्क्सवाद के बारे में बिना कुछ जाने इस शब्द से ही परेशान दिखते हैं। मैंने किसी श्रेष्ठताबोध में नहीं, शिक्षक होने के नाते मार्क्सवाद पर सरल भाषा में कई लेख शेयर किया, लेकिन लगता नहीं उन्हें ज्यादा लोगों पढ़ा होगा। बात-बेबाक बिना संदर्भ के कई लोगों पर मार्क्सवाद और वामपंथ का दौरा जरूर पड़ता रहता है। मैं ईमानदारी से स्वीकारता हूं कि मेरे अंदर कोई श्रेष्ठता नहीं है तो निराधार श्रेष्ठताबोध कहां से होगा। शिक्षक होने के नाते किसी पोस्ट पर आंय-बांय से विषयांतर करने वालों को शुभेच्छुभाव से पढ़ने की सलाह जरूर दे देता हूं। मैं भी संस्कारगत ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध से ओतप्रोत था, पढ़ने में तेज समझे जाने से सोने में सुहागा वाली स्थिति थी। 10-11 साल की उम्र में एक घटना ने मेरे अंदर के ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध को झकझोर दिया तथा मन को आत्मावलोकन तथा चिंतन-मनन की प्रक्रिया में ढकेल दिया। आदत धीरे धीरे छूटती है, दसवीं में पहुंचते-पहुंचते जनेऊ अनावश्यक लगने लगा और मैंने तोड़ (उतार) दिया। रूपक में कहता हूं कि तबसे बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया। इस ग्रुप के सक्रिय लोगों के बहुमत को लगता है, मेरी बातों से कष्ट है, मैं ग्रुप में सक्रियता कम कर कम-से-कम कष्ट देने की कोशिस करूंगा। सादर।

Fundamentalist attack in France

 What ever happened in France is despicable and heineous and cannot be condoned under any pretext. But it's not the clash of civilizations but conflict of religious fundamentalism and critical rationality. Clash of civilization is imperialist bogy as was the burden of civilization in colonial era. This fundamentalist reaction is qualitatively no different than communal intolerance by Hindutva zealots of rational critique of religious orthodoxy and superstition that culminated into killings of kalburgi, Dabholkar, Gauri Lankesh and Pansare or even the mob lynching's by so-called cow vigilante. These murders have been justified on fb groups of even universities. Europe. particularly France has travelled long way towards religious tolerance owing to the movements like Renaissance and Enlightenment, which were basically intellectual revolutions. 4 centuries ago even in Europe critical rationality was not tolerated. Scientist-philosopher Bruno was burnt alive on the cross roads of Rome under the church judgement. Galileo spent major part of life under house arrest for his scientific inventions. Many Enlightenment philosophers including Voltaire, Rousseau and Thomas Pain were persecuted. The house of Thomas Pain in US was put ablaze the publisher of his book in London was arrested. The rulers of Pakistan, Turkey and Saudi Arab are critical of French President's assertion of defending peoples' right to freedom of expression is not due to civilizational but political reasons.

Sunday, October 25, 2020

लल्ला पुराण 360 (बाभन से इंसान)

  हम इल्जाम नहीं लगा रहे हैं, आइना दिखा रहे हैं। यह बहुत पुरानी तकनीक है, किसी चोर की बात करने पर उस चोर के समर्थक और भी चोरों का हवाला देते हैं। शिक्षक होने के नाते शिक्षा की प्रक्रिया पर अफशोस होता है कि हम उच्च शिक्षा के बावजूद बाभन (या लाला) से विवेकशील इंसान बन अपनी जाति-धर्म की पक्षधरता के पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से मुक्त हो वस्तुनिष्ठ तार्किकता से क्यों नहीं सोच पाते? सारे अंध भक्त सभी बुराइयों की जिम्मेदारी 73 साल पहले की नींव पर डाल देते हैं। खुद को जतीय-सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त करने की बजाय उन्ही में गोताखोरी करते हैं। एक गीत हम लोग गाते हैं -- तू खुद को बदल, तू खुद को बदल तब ही तो जमाना बदलेगा। आप से भी आग्रह है कि हिंदू-मुसलमान (लाला) से निखालिस इंसान बनिए, आनंद आएगा।

Friday, October 23, 2020

नारी विमर्श 13 (मर्दवाद)

 इस तर्क से कि जन्म देने वाली भी स्त्री है, किसी को स्त्री विरोेधी नहीं होना चाहिए, समाज में बलात्कार एवं अन्य किस्म की यौन हिंसा का नामोनिशान नहीं होना चाहिए क्योंकि सभी की जन्मदात्री स्त्री ही होती है। मैं दुहराता रहता हूं कि मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं, नित्य-प्रति की जीवनचर्या और विमर्श में निर्मित-पोषित होने वाली विचारधारा है तथा विचारधारा उत्पीड़क को ही नहीं, पीड़ित को भी प्रभावित करती है। प्रायः दहेज उत्पीड़न जैसी परिघटनाओं में पति और ससुर ही नहीं, सास और ननद भी शामिल होती हैं। इस पर विस्तार से, कभी, बाद में लिखूंगा, अभी इतना ही कहूंगा कि सामाजिक विकास के हर चरण की भौतिक परिस्थितियों के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर और स्वरूप होता है। मनुष्य के चैतन्य प्रयास से परिस्थितियां बदलती हैं और परिणाम स्वरूप सामाजिक चेतना भी और तदनुसार सांस्कृतिक परिवेश। आज से 38 वर्ष पहले मेरे गांव में सामाजिक चेतना तथा सांस्कृतिक परिवेश ऐसा था जिसमें कि किसी लड़की का घर से दूर जाकर पढ़ाई करने की बात अकल्पनीय थी। पैदल की दूरी पर बड़ी क्लास की पढ़ाई के स्कूल कॉलेज नहीं थे तथा अपनी आठवीं बहन की आगे की पढ़ाई के लिए मुझे पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। आज हर मां-बाप आर्थिक मजबूरी के अलावा बेटी को उच्चतम संभव शिक्षा दिलाना चाहेगा। स्त्रियों की साज-सज्जा की वरीयता या भाषा की सांस्कृतिक आदतों की स्वतंत्रता के उनके अधिकार का सम्मान करना चाहिए। मैं अपनी बेटियों समेत सभी लड़कियों को छोटे बाल रखने की सलाह देता हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि बाल सवांरने का समय उन्हें और कामों में लगाना चाहिए। मैं इसी तर्क से दाढ़ी रखता (नहीं बनाता) हूं। मेरी बात कोई नहीं मानती, तो मैं मेरी बात न मानने के उनके अधिकार का सम्मान करता हूं। जरूरत स्त्रियों को लेकर सोच को बदलने की है, उन्हें स्त्री की बजाय, पुरुषों के समान इंसान मानने की है। उनके प्रति सहानुभूतिक नहीं, समानुभूतिक दृष्टिकोण विकसित करने की है। दूसरे शब्दों में हमें पुरुष से इंसान बनने की जरूरत है। हमें किफायती कपड़ों में लड़कियां इस लिए असहज लगती हैं क्योंकि ऐसा देखने की हमारी आदत नहीं है। जरूरत हमें अपनी आंखों की आदत बदलने और पहनावे के उनके चुनाव के अधिकार का सम्मान करने की है। यदि किफायती कपड़े यौन हिंसा का कारण होते तो साड़ी और सलवार-सूट पहनने वाली स्त्रियां क्यों हिंसा का शिकार होतीं? गांवों की जिन स्त्रियों के साथ यौन हिंसा की खबरें मिलती हैं, वे तो शायद हॉट पैंट वाली नहीं, सलवार-साड़ी वाली ही होती होंगी। क्षमा कीजिएगा संक्षेप भी थोड़ा विस्तार ही हो गया।


लल्ला पुराण 359(जिन्ना)

 जिन्ना को खलनायक बनाकर बंटवारे की औपनिवेशिक परियोजना में शासकों के एजेंटों के वारिसों को बलि का बकरा मिल जाता है। गांधी जी ने औपनिवेशिक शासन की अपनी समीक्षा में लिखा था कि अपनी दुर्गति के कारण हमें बाहर ही नहीं अपने अंदर भी ढूंढ़ना चाहिए। जिन्ना लंबे समय तक कांग्रेसी थे, उन्होंने इंगलैंड में पढ़ाई करते हुए दादाभाई नौरोजी की इंगलैंड की संसद सदस्यता के लिए छात्रों की लामबंदी की थी। वे और तिलक एक दूसरे के प्रशंसक थे थे 1905 में वे तिलक पर लगे राजद्रोह के मुकदमें में उनके वकील थे। वे नास्तिक थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में जिन्ना ने 1916 में हिंदू-मुस्लिम एकता को पैरोकार के तौर पर प्रवेश किया तथा लखनऊ समझौते में अहम भूमिका निभाया था। मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय आदि के साथ कोकोरी कांड के क्रांतिकारियों की सजा कम कराने का वायसराय को ज्ञापन देने में जिन्ना भी थे। सावरकर जब वफादारी के वायदे के साथ अंग्रेजी सरकार की वजीफाखोरी कर रहे थे और गोलवल्कर उनकी क्रांतिकारी राजनीति में खामियां निकाल रहे थे तब जिन्ना ने जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह और उनके साथियों का मुद्दा नेनल असेंबली में जोरदार ढंग से उठाया था। कांग्रेस में मुस्लिम हितों की उपेक्षा के चलते जिन्ना मुस्लिम लीग में शरीक हो गए तथा हिंदू महासभा के दो राष्ट्र सिद्धांत के बाद, अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते वे पाकिस्तान की मांग के समर्थक बन गए। कांग्रेस के नेतृत्व में जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तब अंग्रेजों की एजेंट हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में साझा सरकारें चला रही थीं। अंग्रेजी शासन द्वारा बंटवारे के प्रस्ताव के बाद हिंदू और मुस्लिम दोेनों ही समुदायों के सांप्रदायिक नरपिशाचों ने हिंसा का जो तांडव मचाया उसमें कांग्रेस को बंटवारे के प्रस्ताव को पारित करना पड़ा। बंटवारे के चलते दोनों ही समुदायों के सांप्रदायिक संगठनों को सत्ता की मलाई मिली, मुस्लिम फिरकापरस्तों को पाकिस्तान में तुरंत और उनके हिंदू मौसेरे भाइयों को, ऐतिहासिक कारणों से, हिंदुस्तान में आजादी के आधी सदी बाद। धर्म के नाम पर बंटवारा कितना अनैतिहासिक और अतार्किक था वह बंटवारे के 25 साल से कम समय में ही बांगलादेश के निर्माण से साबित हो गया। ऐतिहासिक परिघटनाओं की विवेचना में क्या होता तो क्या होता व्यर्थ की बात होती है, लेकिन मुझे लगता है कांग्रेस को बंटवारे के प्रस्ताव पर मुहर न लगाने पर अड़ जाना चाहिए था, थोड़ी और हिंसा भले ही होती लेकिन बंटवारे के साथ हुए तांडव और दोनों तरफ अभूतपूर्व विस्थापन से कम होता तथा भविष्य की पीढ़ियों को सांप्रदायिकता के नासूर का दंश दशकों न झेलना पड़ता। यदि बंटवारा न होता तो आरएसएस और जमातेइस्लामी जैसी ताकतें कभी सत्ता में न आ पातीं।


Wednesday, October 21, 2020

बेतरतीब 90 (ईश्वर)

 एक मित्र ने ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने पर संशय जताते हुए लिखा कि वह इतना भारी पत्थर बना सकता है जो उससे खुद न उठे, उस पर यह कमेंट लिखा गया।


10 साल हो गया, एक स्टूडेंट घर आई थी, नींबू की चाय बनाते हुए किचेन में आधा नींबू ढूंढ़ना शुरू किया, नहीं मिला, बगीचे से दूसरा नीबू तोड़ने जाने के रास्ते में मैंने कहा कि आस्तिक होता तो भगवान से आधा नींबू खोजने में मदद मांगता, उसने भगवान को इतना छोटा काम देने पर मेरी आलोचना की थी।(दिल्ली में अपने बगीचे से नींबू तोड़ने के अद्भुत सुख की अनुभूति, भूतपूर्व हो गयी, हर वर्तमान कालांतर में भूत हो जाता है) वैसे उसके 35 साल पहले इलाहाबाद में अपनी खोई पेन खोजने में मदद मांग कर अंदाज चुका था। तभी लग गया था कि यदि ईश्वर है भी तो किस काम का? जब मेरी खोई कलम खोजने जितना छोटा काम नहीं कर सकता तो और क्या कर सकता है? खैर सुबह सुबह भगवान के अस्तित्व पर शक करने का पाप आपने करवा दिया, खैर वह तो जानता ही है कि इस पाप का दोषी मैं नहां आप हैं। वैसे यूरोपीय प्रबोधन काल के फ्रांसीसी दार्शनिक वोल्तेयर ने ईश्वर की क्षमता पर सवाल उठाकर सबको भौंचकक्का कर दिया था। समाज में मौजूद और जारी बुराइयों के संदर्भ में उन्होंने कहा था कि 3 बातें हो सकती हैं: 1. ईश्वर बुराइयां दूर करना तो चाहता है लेकिन कर नहीं सकता, फिर सर्वशक्तिमान कैसा? 2. कर तो सकता है लेकिन करना नहीं चाहता, तो यह तो दुष्टता है और 3. न करना चाहता है, न कर ही सकता है तो यह तो दुष्टता और सर्वशत्तिमान होने का निषेध दोनों है। ईश्वरवादियों के पास इसका जवाब नहीं था तो गणितज्ञ लाइब्निट्ज ने कहा कि इह-लोक की नाइंसाफी का हिसाब उह-लोक में होता है। वोल्तेयर ने जीवन का कफी समय जेल में बिताया था, उसके डेढ़ सौ साल पहले (1600 में) ईश्वर पर सवाल करने के लिए वैज्ञानिक ब्रूनो को चर्च के आदेश पर रोम में चौराहे पर तमाशबीनों के समक्ष जिंदा जला दिया गया था। मुनष्य बहुत खुराफाती है वह अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से ईश्वर को बनाता, बदलता रहता है।इस उम्र में सुबह सुबह ईश्वर का भजन करना चाहिए और आपने ईश्वर की सर्वशक्तिमानता पर मन में संदेह पैदा करके जो पापकर्म किया है उसके लिए प्रार्थना करता हूं कि वह अपनी प्रकृति के प्रतिकूल आपको क्षमा कर दे।

लल्ला पुराण 358 (कौटिल्य और महाभारत)

 Raj K Mishra कौटिल्य के अर्थशास्त्र में महाभारत का जिक्र नहीं है इसके कुछ पात्रों की किंवदंतियों का जिक्र है. किंवदंतियों के युधिष्ठिर नामक एक जुआरी चरित्र का जिक्र है। वह विजिगिषु (विजयाकांक्षी राजा) को सलाह देता है कि विजय अभियान पर निकलने के पहले उसे देवताओं (अरुण, वरुण, इंद्र आदि वैदिक देवता ) की अभ्यर्थना करनी चाहिए तथा विपत्तियों से बचने के लिए दानवों की। दानवों की कोटि में कंस और कृष्ण का वर्णन एक साथ करता है। उसीका समकालीन मेगस्थनीज कृष्ण का वर्णन सूरसेन (मशुरा) क्षेत्र के किंवदंतियों के स्थथानीय नायक के रूप में करता है (आरएस शर्मा, Perspectives on Political Ideas and Institutions in Ancient India)। जैसे बाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम को तुलसीदास के रामचरितमानस ने भगवान बनाया वैसे ही महाभारत कृष्ण को गीता ने।

Monday, October 19, 2020

गांधी

 एक मित्र ने सवाल किया कि क्या गांधीजी 1942 तक कांग्रेस के लालकृष्ण अडवानी बन चुके थे? उस पर:


वर्णाश्रमी, धार्मिक होते हुए गांधी की अपपील अडवाणी की तरह धर्मोंमादी नहीं, उपनिवेशविरोधी जनांदोलन की थी। मैं गांधीवादी नहीं हूं, गांधी के परिप्रेक्ष्य में द्वंद्वात्मकता का अभाव न होता और भारतीय सामाजिक चेतना का स्तर थोड़ा उच्चतर होता तो गांधी के नेतृत्व में रूसी क्रांति से बड़ी युगांतरकारी क्रांति हो जाती, सत्ता का परिवर्तन ही नहीं। लेकिन क्या होता तो क्या होता किस्म का विमर्श अनैतिहासिक और व्यर्थ है। किसी ऐतिहासिक पुरुष का मूल्यांकन उसके ऐतिहासिक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में ही करना चाहिए। गांधी न गरीब थे न अशिक्षित, लंगोटी में आमजन की जीवनशैली स्वैच्छिक थी।अंग्रजी पढ़े लोगों के सालाना सम्मेलनों तक सिमटे राष्ट्रीय आंदोलन को गांधी ने जनांदोलन बना दिया। गांधी अपने समय के सबसे समझदार राजनीतिज्ञ (स्टेट्समैन) थे। वे जानते थे कि कब आंदोलन शुरू करना है, कब वापस लेना है। मार्क्सवादी, सामाजशास्त्री-इतिहासकार एआर देसाई ने सही लिखा कि गांधी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक महामानव के रूप में शरीक हुए और आजीवन वैसा ही बने रहे। (Gandhi joined the Indian movement like a titan and remained so all his life) अहिंसा और सत्याग्रह उनकी सुविचारित मौलिक रणनीति थी।जनतंत्र का सामुद्रिक वृत्त का उनका सिद्धांत, रूसो के 'जनरल विल' की तरह सरल ग्रामीण समाज के लिए ही भले उपयुक्त हो लेकिन एक वैकल्पिक, सैद्धांतिक मॉडल है। उनकी राजनैतिक सोच दक्षिण अफ्रीका से शुरू होकर लगातार विकसित होती रही है। गांधी की स्थिति कभी अडवाणी की नहीं हुई जो पहले अटल बिहारी के वर्चस्व में रहे और बाद में मोदी के। गांधी के व्यक्तित्व का करिश्मा अंत तक बना रहा। हो सकता है यदि गोडसे उनकी हत्या न करता तो आजाद भारत में पहला असहयोग आंदोलन गांधी के नेतृत्व में होता। देश का बंटवारा गांधी के आंदोलन की एक असफलता थी, लेकिन अंग्रेजों की दलाल, सांप्रदायिक ताकतों ने हिंसा का जो माहौल बना दिया था, उसमें गांधी एआईसीसी की बैठक में बंटवारे का प्रस्ताव पारित होने से रोक न सके। काश! रोक पाते जैसे इतना खून-खराबा वैसे थोड़ा और, जो बंटवारे की विभीषिका से कम होता और आजादी के बाद तीन-चौथाई सदी तक एक-से तीन बने मुल्कों में सांप्रदायिक नासूर बन सालता न रहता। अभी कितनी पीढ़ियां इस नासूर का दंश झेलती रहेंगी, कहना मुश्किल है। हमारे जीवनकाल में तो असंभव दिखता है,उम्मीद है शीघ्र ही तीनों मुल्कों की हमारी आने वाली पीढ़ियों में सद्बुद्धि आएगी और इस नासूर को वे निकाल फेंकेंगी। इसमें सबसे बड़ी बाधा अखंड भारत का पाखंड करने वाली, बिघटनकारी ताकतें हैं।

फुटनोट 251 (अच्छा बाप)

 स्त्रीवादी मुद्दों पर एक विमर्श में एक मित्र ने बेटियों के पढ़ने-लिखने में मेरे सहयोग का जिक्र किया, उस पर --


जी, बेटियों के बढ़ने और पढ़ने लिखने में निश्चित ही मैंने सहयोग किया। हर मां-बाप पलने-बढ़ने-पढ़ने में अपने बच्चों का यथासंभव सहयोग करते हैं या यों कहिए उनके साथ बढ़ने के सुख का आनंद उठाते हैं। यही ऐतिहासिक विकास चक्र है।बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा का केंद्र परवरिश का परिवेश ही होता है। बच्चे अपने परिवेश का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं और तेज नकल्ची तथा चालू होते हैं। शिक्षक की ही तरह मां-बाप को भी प्रवचन से नहीं व्यवहार (उदाहरण) से बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। उनके सोचने के अधिकार का अतिक्रमण कर उन पर अपने विचार थोपने की बजाय उनकी चिंतन-शक्ति के विकास क्रम में मददगार होना चाहिए। मानव इकिहास के विकासक्रम में, जैसा कि मैं कहता रहता हूं, हर अगली पीढ़ी, सामान्यतः, तेजतर होती है जिससे हमारा इतिहास पाषाणयुग से साइबरयुग तक की यात्रा कर चुका है। हर पीढ़ी अपने पूर्वजों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है। और इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता कभी प्रतिगामी शक्तियों के ड्राइवर की सीट पर काबिज होने से से लंबे यू टर्न भले ले ले, लेकिन अंततः आगे ही बढ़ती है। जब मैं बाप बना तो सोचने लगा कि मैं तो आवारा इंसान हूं, अच्छा बाप कैसे बना जा सकता है। स्कूल में शिक्षक के पूछने पर कि क्या बनना चाहता हूं, कह दिया था अच्छा। अब अच्छा तो कर्म नहीं, कर्म का प्रत्यय है। अच्छा, अच्छे कर्म से ही बना जा सकता है, जिसमें अच्छा बाप भी बनना भी शामिल है। उस समय जो सोचा: 1. Be democratic, at par (parity is not quantitative entity but qualitative concept) and transparent 2. Don't torture children by being over caring, over protective and over expecting and learn to respect child rights and wisdom.3 Don't arrogate their right to think. बाकी देखा जाएगा।

Sunday, October 18, 2020

दलित विमर्श

 दलित प्रज्ञा और दावेदारी (Dalit scholarship and assertion) के अभियान से सवर्णवादी यथास्थिति को गंभीर चुनौती मिल रही है, इसीलिए वर्णवादी सवर्णों की बौखलाहट की प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। वही हाल स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान से मर्दवादी खेमें की बौखलाहट का है। पिछले 20-25 सालों में छात्रों में देख रहा हूं कि लड़कियां लड़कों के सापेक्ष बहुत अच्छा कर रही हैं, वही हाल दलित लड़कों की है। मेरा विश्लेषण है कि वंचना और भेदभाव की यादें अभी ताजा हैं, मौके को वे चुनौती की तरह ले रही/ रहे हैं। हम यदि निहित स्वार्थ के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचेंगे तभी दूसरे (दलित और स्त्री) के बारे में न्यायपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। आज जिस तरह मुसलमान की देशभक्ति पर सवाल किया जाता है, उसी तरह दलित की प्रतिभा पर या स्त्री के खान-पान की आदतों और पहनावे पर।

शिक्षा और ज्ञान 299 (मर्दवाद)

 कितने लोग सुबह पत्नी को चाय बनाकर पिलाते हैं? हा हा। मर्दवाद (जेंडर) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही 'सूरज पूरब में उगता है' जैसा कोई साश्वत विचार है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चला आया है। मर्दवाद विचार नहीं, विचारधारा है जो हमारे नित्य प्रति के व्यवहार और विमर्श में निर्मित-पोषित होता है। इस पोस्ट का विचार इसी ग्रुप में मर्दवाद के बहाने स्त्रियों के खाने-पीने (सिगरेट-शराब) तथा पहनावे पर अवमाननापूर्ण तंज तथा उनकी आजादी पर कटाक्ष के कमेंट पढ़कर दिमाग में आया। आप लोग सही कह रहे हैं कि बहुत फर्क आया है, लेकिन वह मर्दवादी मर्दों की कृपा का नहीं स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के जारी निरंतर अभियान का परिणाम है। 1982 में मुझे अपनी बहन के उच्च शिक्षा के अधिकार के लिए पूरे खानदान से संघर्ष करना पड़ा था। आज किसी बाप की औकात नहीं है कि सार्वजनितक रूप से स्वीकार करे कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। मैं अपनी बेटियों तथा छात्राओं को कहा करता था कि वे लोग भाग्यशाली हैं कि 1-2 पीढ़ियों बाद पैदा हुए, नहीं तो अपनी दादी और मां की सामाजिक चेतना के स्तर के साथ अपनी तुलना कर लें। लेकिन जिन अधिकारों और आजादी का वे आनंद ले रही हैं, वे खैरात में नहीं मिले हैं बल्कि पिछली पीढ़ियों के सतत संघर्षों के परिणाम हैं। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता, हक के एक एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है। उन्हें यह भी कहता था कि पिछली पीढ़ियों के संघर्षों को आगे बढ़ना उनकी जिम्मेदारी है। कुछ लोग कह रहे हैं कि स्त्रियों के साथ भेदभाव स्त्रियां ज्यादा करती हैं। विचारधारा की ऐक खासियत यह होती है कि वह उत्पीड़क और पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। न केवल मेरे पिताजी ही सोचते थे कि उनकी आवाज सुनकर दौड़ पड़ना मां का कर्तव्य है, बल्कि मां भी ऐसा ही सोचती थी। मेरी पीढ़ी की ज्यादातर कामकाजी स्त्रियां डबल रोल करती हैं, फुरटाइम प्रोफेसनल और फुलटाइम हाउस वाइफ। स्थितियां अब बदल रही हैं। शादी के बाद कुछ स्त्रियों ने पति का सरनेम ग्रहण करना बंद कर दिया है कुछ ने मधयमार्ग अपनाकर अपना छोड़े बिना पति का भी ले लिया है। किसी लड़की को बेटा कहकर हम ही साबाशी नहीं देते हैं बल्कि लड़कियां भी उसे साबाशी के रूप में ही लेती हैं। इस दृष्टांत का प्रयोग मैं अपने छात्रों को यह समझाने के लिए करता था कि किस तरह एक मिथ्या चेतना के रूप में विचारधारा हमारे नित्यप्रति की जीवनचर्या में निर्मित-पोषित होती है और उत्पीड़क तथा पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। मैं किसी बेटी को बेटा कहकर साबाशी नहीं देता। मेरी बेटियों को कोई बेटा कहता है तो अकड़कर जवाब देती हैं कि Excuse me I don't take it as a complement.

मार्क्सवाद 228 (जाति का विनाश)

 समाज की प्रगति के लिए जन्मगत सामाजिक विभाजन, हमारे संदर्भ में जातिप्रथा, का अंत आवश्यक है। यूरोप में नवजागरण आंदोलन ने जन्म-आधारित भेदभाव समाप्त कर दिया और उसके बाद से ही यूरोप वैज्ञानिक अन्वेषणों के आधार पर आगे बढ़ा। अंबेडकर की पुस्तक, 'जाति का विनाश' में एक अध्याय है -- श्रम विभाजन या श्रमिक विभाजन -- जिसमें दिखाया है कि जातियों में बंटे श्रमिकों की एकता जाति के विनाश के बिना कितनी मुश्किल है। हमारे यहां सामाजिक और आध्यात्मिक एकता के संदेश के साथ शुरू कबीर का नवजागरण किस्म का आंदोलन अपनी कार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। दलित एवं तथाकथित पिछड़ी जीातियों में शिक्षा के प्रसार, वैज्ञानिक चेतना के विकास तथा अंतर्जातीय विवाहों से जातिवाद की धार थोड़ा कुंद हुई है लेकिन उसको खत्म करने के लिए क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है। क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं और जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं। जेएनयू आंदोलन से निकले जय भीम लाल सलाम के प्रतीकात्मक नारे को व्यावहारिक रूप देने में आज की समस्या का समाधझान है।

Saturday, October 17, 2020

लल्ला पुराण 356 (लव जेहाद)

 Arun Kumar Singh लिखने की एक विधा होती है व्यंग्य, मार्कंडेय जी को लड़की के ब्रनवाश की सलाह उसी विधा में दी गयी है। लव जेहाद कुछ होता नहीं, मर्दवादी, राष्ट्रद्रोही, नफरती फिरकापरस्तों के दिमाग के फितूर के अलावा। 'उस वर्ग' और 'अपना वर्ग' की सोच ही देश को टुकड़े करने वाली विध्वसंक सोच है। आप किसी लड़की का ब्रेनवाश करने की कोशिस कीजिए, आप खुद ब्रेनवाश हो जाएंगे। 1984 में हम जेएनयू के कुछ लड़के-लड़कियां आरकेपुरम् में एक धर्मोंमादी सिख-संहार के विरुद्ध कामयाब कोशिस के बाद लौट रहे थे। मुनिरका में कुछ नफरती चिंटुओं से बस हो गयी। बीच बहस में एक ने कहा, जाओ, 'अपने भाई' हो छोड़ दे रहे हैं, हमलोगों ने कहा, हम तुम्हारे जैसे आतताइयों के भाई नहीं हैं, जो करना हो कर लो। खैर तो मुझे इस फिरकापरस्त 'अपने .. वर्ग से' निकाल दीजिए। आपके वर्ग में वह फिरकापरस्त आतताई है जिसने पेरिस में अपने शिक्षक का सिर कलम कर दिया। हर किस्म के फिरकापरस्त, मानवता दुश्मन, सहोदर हैं। क्या हाथरस वे दलित भी आपके 'अपने' वर्ग में शामिल हैं जिनके विरुद्ध इस ग्रुप के तमाम सवर्ण लामबंद हो गए हैं।

Friday, October 16, 2020

लल्ला पुराण 355(दलित लड़की की हत्या)

 'बाराबंकी में भी एक दलित लड़की की बलात्कार हत्या ...' की पोस्ट पर कुछ लोग सवाल करने लगे मेरी संवेदनाएं चयनित क्यों हैं और यह कि लड़की के साथ दलित विशेषण के पीछे मेरे जातीय पूर्वाग्रह हैं.... हाथरस मामले पर जांच के पहले ही सरकार को संदेह के घेरे में खड़ा करने पर सवाल किया, उस पर --


मैं सारे अपराधिक कृत्यों का विरोध करता हूं। अपराध रोकना सरकार की जिम्मेदारी है ऐसा न कर पाना सरकार की नाकामी है। अपराधों के भुक्तभोगी दलित या अन्य कमजोर तपकों के लोग ज्यादा होते हैं क्योंकि कमजोर का शिकार आसान होता है। जाति-धर्म के पूर्वाग्रहों के आधार पर पीड़ित के साथ संवेदना की बात होती तो मुझे तो सवर्णों के साथ हाथरस कांड के आरोपियों को निर्दोष साबित करने के सवर्ण अभियान में शामिल होना चाहिए या उन्हें बचाने के सरकारी प्रयासों का समर्थन करना चाहिए। सारे अखबारों में यही खबर है। जातीय पूर्वाग्रहों के चलते आपको मेरी संवेदनाएं वर्ग विशेष के पीड़ितों के साथ ही दिखती हैं, बलिया में पुलिस-प्रशासन की उपस्थितिमें एक दबंग द्वारा गोलीबारी पर भी हमने लिखा। पीड़ित अक्सर एक वर्ग विशेष से हो तो उसके वर्णन से इतना गुस्सा क्यों? पिछले दिनों हत्या-बलात्कार की शिकार स्त्रियों में अधिकतर दलित ही क्यों रही हैं? दलित उत्पीड़न के आरोपियों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन करने वालों में सारे सवर्ण ही क्यों? एक कविता की दो पंक्तियां हैं, 'सहती हूं जब भी जुल्म, होती हूं अक्सर दलित; अजीबोगरीब है संयोगों का यह अंकगणित'।

सरकार ही आरोपियों को बचाने में लगी है, पुलिस-प्रशासन के आला अधिकारियों के पास हाईकोर्ट की फटकार का कोई जवाब नहीं था। उनके सवर्ण पैरोकार और मृदंग मीडिया मृतक पीड़िता के मरने के पहले के बयान को दरकिनार कर पीड़ित परिवार को ही मुल्जिम साबित करने के सबूतों का अन्वेषण करने पर तुले हैं। पूर्वाग्रहों को त्यागकर ही मैं बाभन से इंसान बन सका हूं।

आरोपियों को बचाने की जांच एजेंसियों और सरकार की नीयत शुरू से ही साफ है। हाईकोर्ट को पुलिस और प्रशासन की अवैध कार्रवाइयों का स्वतः संज्ञान लेना पड़ा और पुलिस आला अधिकारी के पास अदालत की फटकार का कोई जवाब नहीं था कि जांच के पहले ही वे प्रेस कान्फरेंस करके कैसे घोषित कर दिए कि बलात्कार हुआ ही नहीं? पीड़ित परिवार के मानवाधिकार का हनन करते हुए, अवैध रूप रूप से लाश को चुपके से जला देने के कुकृत्य का भी कोई जवाब नहीं था।बिना पूछे डीएम का बयान कि ऊपर से बिना किसी आदेश के स्थानीय स्तर पर लाश को परिजनों की सहमति के बिना जलाने का सामूहिक फैसला लिया गया, दाल में काले का संकेत देता है। राज्य प्रशासन से अदालत ने यह भी पूछा कि यदि सामूहिक फैसला था तो केवल एसपी को क्यों निलंबित किया गया? सच्चाई पता होने पर संदेह के घेरे में नहीं खड़ा किया जाता, आपोप लगाया जाता है। लंदेह के घेरे में संदिग्ध आचरण से खड़ा किया जाता है। सच्चाई जानने के लिए संदेह करना और सवाल करना जरूरी होता है।

Thursday, October 15, 2020

बेतरतीब 89 ( राजेश विवेक से मुलाकात)

 इलाहाबाद में १/२ चाय या ३/५ चाय की भाषा प्रचलित थी. १९७६ में डीआईआर से छूटा था और मीसा में वांछित. आपातकाल के आतंक से बचने के लिए "भूमिगत" अस्तित्व की संभावनाएं तलाशता दिल्ली आया और इलाहाबाद के एक सीनियर (डीपी त्रिपाठी) को तलाशते जेयनयूं पहुँच गया वे तो जेल में थे एक और सीनियर से मुलाक़ात हो गयी और मैं बिना दाखिले के ही जेयनयुआइट हो गया. खैर यह परिहार्य लम्बी भूमिका इसलिए हो गयी कि अक्सर जेयनयु बस से लंच के बाद मंडी हाउस आ जाते थे. साहित्य अकेडमी और सप्रू हाउस के पुस्तकालयों (गर-सदस्य भी पढ़ने की अनुमति पा जाते थे) और इर्द-गिर्द(श्रीराम सेंटर/त्रिवेणी/बहावलपुर हाउस) के चायखानों में वक़्त बिता/खर्च कर शाम की बस से वापस चला जाता था. कोई पसंदीदा नाटक चल रहा हो तो देखकर सुपर बाज़ार जाकर ६२० से डाउन कैम्पस और अरावली की पगडंडियों से वापस अप कैम्पस. एक दिन बहावलपुर हाउस के कोने के पार्क के फव्वारे की जगत पर ३ लोग (२ दाढ़ी वाले) और एक इन लोगों से जूनियर दिखने वाला लड़का सामने खडा था. मैं चाय बोलने वाला था तभी एक गगनचुम्बी अट्टहास सुनायी दिया और कुछ ही दिन पहले पुराने किले में देखे "अंधायुग" में अश्वत्थामा की याद आ गयी. मुड़कर देखा तो एक चेहरा कुछ परिचित सा दिखा, जौनपुर के मेरे एक बहुत सीनियर सहपाठी, राजेश उपाध्याय सा -- मैं हाई स्कूल में था और वे बीए में. एक ही मनेजमेंट का होने के नाते इन्टर और डिग्री कॉलेज के कई कार्यक्रम संयुक्त होते थे और हास्टल भी साझे थे. उस साल उन्हें "बेस्ट बाडी बिल्डर" की पुरस्कार मिला था. मैंने हिम्मत जुटाकर"उपाध्याय जे नमस्कार" बोल दिया. उधर से कड़क हंसी के साथ आवाज आयी, "कस में जउनपुर के हो का भैया?" मैं पुलकित हुआ कि मुझे इन्होने पहचान लिया और चहक कर बोला , "पहचान लिया आपने"? वे बोले, "अरे नहीं! इहाँ हम्में राजेश उपाद्धयाय के नाम से कोई नहीं जानता, यहाँ मैं राजेश विवेक हूँ". चाय वाले को आवाज दिया, "अरे भाई ३५ चाय भेजो, हमारे शहर का लड़का मिल गया है". मैं सकपकाया, ३५ चाय? और पूछ ही दिया, "३५?". अब हंसने की बारी बिना दाढ़ी वाले की थी. तब पता चला ३/५ यहाँ ३५ थी. इसी को कहते हैं बतूडी. अंतिम २ वाक्य कहने के लिए बहुत वाक्यों की भूमिका और अब फूटनोट भी देना ही पड़ेगा. मैंने जब अश्वत्थामा के हँसी का ज़िक्र किया तो हंसने की बारी दूसरे दाढ़ी वाले की थी जिनका परिचय नसीरुद्दीन शाह और बिना दाढ़ी वाले का ओम शिवपुरी(दिवंगत) के रूप में कराया. अंधा युग के उस कालजयी मंचन में अश्वत्थामा की भूमिका राजेश विवेक ने ही की थी.

16.10.2014

बेतरतीब 87 (इगनू) -- 3



बेतरतीब 87 (इगनू) -- 3

इग्नू में काम करने और आने-जाने के अनुभव के संस्मरण याद करके फिर लिखूंगा, लेकिन इतना कह सकता हूं क्लासरूम की पढ़ाई न होने के बावजूद पाठ्यसामग्री की तैयारी में शिक्षकत्व का आनंद आ रहा था। नवंबर, 1989 में हिंदू कॉलेज (दिल्ली विवि) में इंटरविव था। उसके पहले वहां दो इंटरविव (शायद 1985 एवं 1987 में) दे चुका था। एक तो खानापूर्ति था, एक के संस्मरण रोचक हैं, फिर कभी। विभागाध्यक्ष थे एक दक्षिणपंथी मठाधीश प्रो. आरबी जैन, जिनके बारे में एक 'बेतरतीब' संस्मरण में जिक्र कर चुका हूं। एक्सपर्ट थे एक वामपंथी मठाधीश प्रो. मनोरंजन मोहंती। मैं एक तरह से इंचरनल कैंडीडेट था क्योंकि उस समय वहां गेस्ट लेक्चरर के रूप में पढ़ा रहा था और लगता था छात्र भी खुश थे। कॉलेज के तत्कालीन विभागाध्यक्ष, प्रो. केके मिश्र की मेरे पढ़ाने की गुणवत्ता के बारे में राय अच्छी थी। इंटरविव बहुत अच्छा हुआ, लेकिन, तब तक पक्का तो नहीं पता था लेकिन थोड़ा बहुत अंदाज था कि चुनाव के लिए इंटरविव गौड़ होता है। लगभग 14 साल इंटरविव के अनुभव में, सापेक्षतः, इंटरविव अक्सर अच्छा ही होता था। मैं इंटरविव के लिए मित्रों और छात्रों को 'खोने को कुछ नहीं है' मनोवृत्ति ('Nothing to loose attitude') से इंटरविव देने जाने की सलाह देता हूं। इंटरविव पैनल में पहले नंबर मेरा नाम होना मेरे लिए तो उतना नहीं, मठाधीश प्रोफेसरों के प्रिय शिष्यों की जानकारी वाले अन्य कैंडिडेटों के लिए अधिक आश्चर्य का विषय था। उस इंटरविव में मेरे चुनाव ने मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा कर दिया। मेरे पास इग्नू की लगभग स्थाई नौकरी थी क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने एकेडमिक एसोसिएट कैडर समाप्त कर आवश्यक औपचारिकता के बाद उन्हे स्थाई लेक्चरर में तब्दील करने का नीतिगत फैसला ले लिया था। तब मुझे दिवि के एकेडमिक कौंसिल का यह प्रस्ताव नहीं मालुम था कि किसी लीव वैकेंसी पर किसी की नियुक्ति छुट्टी की अवधि या उस पद पर नियमित नियुक्ति होने तक के लिए होती है। लेकिन मेरा चुनाव एक साल के लिए किया गया जो कि अनैतिक और अवैध था। लेकिन मैं यह जानता नहीं था।

मैं इग्नू छोड़ने और हिंदू कॉलेज ज्वाइन करने के फैसले के धर्मसंकट में फंस गया। मेरी पत्नी सहजबोध से इग्नू छोड़ने के सख्त खिलाफ थी। अधिकतर मित्रों की भी यही राय थी। इसके बाद लगभग 15 दिन मैं हिंदू में गेस्ट लेक्चरर के रूप में एक क्लास लेकर इग्नू जाता वहां प्रो. नायक, डॉ. गोपाल एवं अन्य सभी मित्र सहकर्मी इस्तीफा न देने की सलाह देते।
जैसा कि बाद में पता चला कि मेरा चुनाव दोनों मठाधीशों के हितों के टकराव (Conflict of interst) के चलते हुआ। प्रो. आरबी जैन एक अन्य दक्षिणपंथी प्रो. महेंद्र कुमार की बेटी की नियुक्ति करना चाहते थे, जो उस समय करोड़ीमल कॉलेज में अस्थाई पद पर पढ़ा रही थीं और मोहंती साहब अपने एक प्रिय शिष्य मनींद्र नाथ ठाकुर (अभी जेएनयू में प्रोफेसर) का। पैनल में दोनों के नाम क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबरलपर था। थोड़ा पहले संपन्न करोड़ीमल कॉलेज में हुए इंटरविव में दोनों का क्रमशः पहला और दूसरा नंबर था। बाद में जैसा लगा कि मोहंती साहब चाहते थे कि मैं इग्नू छोड़कर हिंदू कॉलेज न ज्वाइन करूं जिससे यदि मनीषा अग्रवाल (महेंद्र कुमार की बेटी) हिंदू ज्वाइन करें तो उनके चेले को करोड़ीमल में मिल जाती अन्यथा हिंदू में। मोहंती साहब की मैं वामपंथी और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मैं बहुत अधिक इज्जत करता था। वे मेरा परिचय मित्र के रूप में कराते थे, इसलिए मैं उनसे सभी बातें सहजता से करता था। मनींद्र से कुछ साझे मित्र-परिचितों के साथ किसी कार्यक्रम में मेरी मुलाकात मंडी हाउस में हुई, घुमा-फिराकर अहंकार के साथ अवमानना के लहजे में मुझे इग्नू न छोड़ने की सलाह दी। मेरे दो वास्तविक शुभ चिंतक प्रोफेसरों प्रो एसके चौबे और प्रो. बीबी सरकार ने पत्नी से सलाह करने की सलाह दी। अंत में मैं मित्रवत सलाह के लिए मोहंती साहब के पास गया। वे इग्नू न छोड़ने की मित्रवत सलाह देते तो मैं साभार मान लेता। लेकिन उन्होंने मेरी बौद्धिक क्षमता को चुनौती देते हुए अवमाननापूर्ण लहजे में हिंदू कॉलेज न ज्वाइन करने की परोक्ष सलाह दी। वह परिदृश्य 31 साल बाद भी किसी फिल्म की रील की तरह आंखों के सामने घूम जाता है। दिल्ली विवि की आर्ट्स फैकल्टी और टैगोरहाल के बीच ग्राउंड में हमारा बातचीत हो रही थी। मैंने बहुत ही सम्मान के साथ सहजभाव से इस बारे में उनकी राय जानना चाहा। वे बोले, "Somehow I feel you don't fit into Hindu College structure, though I want you to be somewhere in Delhi University structure. I think there is something wrong with JNU training itself." फौरी प्रतिक्रिया में मैं बहुत अपमानित महसूस किया, जब कि इसकी जरूरत नहीं थी। मैंने जवाब दिया, "I don't think there is anything wrong with JNU training. During 4 semester of MA, owing to the system of continuous internal evaluation, a JNU student acquires the experience of writing and/or presenting around 2 dozen term papers/book review/seminar papers, which gives JNU students an edge over the students of traditional universities. There may be something wrong with me personally. I shall try to overcome that by hard work.

और आवेग में मैंने इग्नू छोड़कर हिंदू कॉलेज ज्वाइन करने का आत्मघाती फैसला ले लिया। काश दिल (आवेग में) की बजाय दिमाग (विवेकसम्मत) से फैसला लेता। एक साल बाद वाम-दक्षिण मठाधीशों के हितों की एकात्मकता (Concurrence of interest) से मेरी नौकरी छूट गयी (या कानूनन निकाल दिया गया), जो कहानी फिर कभी (अगले बेतरतीब संस्मरण में)।

Wednesday, October 14, 2020

बेतरतीब 87 (इग्नू) -- 2

 इग्नू के विद्यार्थियों के लिए आधुनिक भारतीय राजनैतिक चिंतन पाठ्यक्रम के परिचयात्मक अध्याय के लिए काम करना बहुत लाभकारी रहा। विभाग के अन्य कामों के साथ यह यूनिट पूरा करने में ढाई-तीन महीने लग गए। हस्तलिखित मूल पांडुलिपि विभाग के टाइपिस्ट को दे दिया था जिसका एक प्रिंट आउट मेरे कागजों के बिवावान में कहीं होगा जिसे खोजना मुश्किल है छपा हुआ ब्लॉक (पुस्तिका) किसी को दे दिया था, कभी इग्नू के किसी केंद्र पर जाने का मौका मिला तो लेकर रखने की कोशिस करूंगा। वहां के काम के अनुभवों और समाजीकरण के विस्तृत संस्मरण कभी मौका मिला तो लिखूंगा। कई बार अकेले कई बार और भी लोगों के साथ पहाड़ी पर निर्माणाधीन भवनों के इर्दगिर्द घूमते हुए अब बन चुके भवनों का पूर्वानुमान लगाता था। अगस्त 1989 में प्रो. मनोरंजन मोहंती के जरिए वहां के राजनीति विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. केके मिश्र से हिंदू कॉलेज में गेस्ट लेक्चरर का ऑफर मिला। केके मिश्र अच्छे बुद्धिजीवी, लोकपर्रिय शिक्षक और नियायत हू अच्छे इंसान थे। मयूरविहार से दिल्ली विवि फिर वहां से मैदान गढ़ी आना-जाना हर रोज काफी दूरी तय करना आसान तो नहीं था लेकिन क्लासरूम की लालच छोड़ नहीं सका और हां कर दिया। उन दिनों 30 रुपया गेस्ट लेक्चर का प्रति क्लास भुगतान मिलता था। मोटरसाइकिल से जाकर हिंदू कॉलेज पहली क्लास (8.50-9.40) में राजनैतिक सिद्धांत पढ़ाकर, 10.30 बजे तक इग्नू पहुंच जाता। वहां की नई बन रही लाइब्रेरी काफी समृद्ध थी। क्लास की कुछ तैयारी वहां करता कुछ सुबह उठकर घर। मेरी स्कूल दिनों से ही सुबह दल्दी दगने की आदत है। जग तो अब भी जल्दी जाता हूं, लेकिन उठता हूं 5.30 बजे के बाद। क्लास की तैयारी कभी जेएनयू तो कभी मंडी हाउस की अड्डेबाजी और इग्नू का काम सब मिलाकर मेहनत काफी करनी थी, लेकिन मेहनत करने में मजा भी खूब आ रहा था। मैं अब भी काम करके नहीं थकता, काम न करके थक जाता हूं। 1 अक्टूबर से दिल्ली विवि में 15 दिन की छुट्टी हो जाती थी। कुल मिलाकर औपचारिक क्लासरूम की प्रणाली की नौकरी न होने के बावजूद इग्नू का माहौल काफी जीवंत रूप से शैक्षणिक था, अन्यान्य विषयों के शिक्षकों से आनंददायक अंतरविषयक चर्चाएं होती थीं। नवंबर में हिंदू कॉलेज में अस्थाई पद के लिए इंटरविव था, जिसमें मेरा चुनाव मेरे लिए आजीविका के लिहाज से काफी आत्मघाती साबित हुआ, जिसके बारे में अगले बेतरतीब संस्मरण में।

Tuesday, October 13, 2020

बेतरतीब 87 (इग्नू) -- 1

बेतरतीब 87 (इग्नू) -- 1



सारंगा स्वर की नौकरी के बाद सोच लिया कि विवि/कॉलेज की नौकरी के अलावा अब कोई और नौकरी नहीं करूंगा, न मिली तो बाकी जिंदगी कलम की मजदूरी से गुजार दूंगा। जेएनयू के सहपाठी डॉ. डी गोपाल इग्नू में नौकरी करते थे। तब इसका दफ्तर सफदरगंज डेवलपमेंट एरिया में आ गया था। वहीं पास में 'कॉमर्स' (साप्ताहिक)पत्रिका का दफ्तर था, उस समय प्रेमशंकर झा संपादक थे। कॉमर्स में मैं लगभग नियमित लिखता था। एक बार लेख देने गया तो गोपाल ने कुछ अनुवाद दे दिया तथा राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत पर एक यूनिट (अध्याय) लिखने को कहा। फिर तो इग्नू के लिए लिखने और अनुवाद का काम नियमित रूप से करने लगा। इस दौरान इग्नू मैदानगढ़ी अपनी बिल्डिंग में शिफ्ट होना शुरू हो गई। समाजविज्ञान स्कूल के डायरेक्टर प्रो. पांडव नायक को मेरा काम बहुत पसंद आया। तब मेरे घर में फोन नहीं था। एक दिन मैंने पीसीओ से पेमेंट पता करने के लिए फोन किया। नायक साहब ने तुरंत आने को कहा। मैंने दोपहर बाद आने की बात की तो वे बोले, तुम आधे दिन के वेतन का क्यों नुकसान करना चाहते हो? मुझे कुछ समझ में नहीं आया। कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। पूछे कि मुझेचिट्ठी नहीं मिली? खैर मैं मयूरविहार फेज 2 के अपने घर से रिक्शा लेकर मयूरविहार फेज 1 एक दोस्त के घर आया और उससे ऑटो के किराए के लिए 100 या डेढ़ सौ रुपए उधार लिया और मैदानगढ़ी पहुंचा। डॉ. गोपाल, अनुराग जोशी तथा प्रो. नायक ने बहुत खुलूस से स्वागत किया और मुझे एकेडमिकएसोसिएट की डुप्लीकेट नियुक्तिपत्र दिया। टीन के अस्थाई भवन में मेज और कम्यूटर सुविधा। सारा माहौल मित्रवत था। कैंटीन की गपशप जेएनयू की याद दिलाती थी। बाकी अगले कमेंट में।

 इग्नू ज्वाइन करने के बाद मेरी शुरुआती मुलाकात जिन लोगों से हुई उनमें रहमान साहब भी थे उनके और समाजशास्त्र के कपूर साहब के साथ साथ गेट के बाहर चाय पीने गया। कैंटीन के अलावा निर्माणाधीन मुख्य भवन के बाहर भी एक चाय की दुकान थी। राजनीति शास्त्र विभाग में तब प्रो. नायक, डॉ. गोपाल, अनुराग जोशी और जेएनयू के मेरे सीनियर कमल मित्र चेनॉय थे। कमल ने नई मारुति जिप्सी खरीदी थी, कई बार अधचिनी तक उसके साथ लिफ्ट लेकर आता और कई बार उसके साथ जेएनयू चला जाता। उसकी पत्नी अनुराधा गंगा में वार्डन थी। गंगा ढाबे, कमल कॉम्पलेक्स या लाइब्रेरीकैंटीन में कुछ देर अड्डेबाजी के बाद बस से मयूरविहार जाता. 1992-93 तक जेएनयू छात्रों के साथ परिचय और साथ की निरंतरता बनी रही थी। इग्नू में क्लासरूम तो नहीं था लेकिन लगा कि नई जगह में नए काम की गुंजाइश तलाशी जा सकती है। वैसे ज्यादार लोग अड्डेबाजी के अलावा कुछ नहीं करते थे। सीब्लूडीएस के एक सहकर्मी डॉ. देबल सिंह रॉय भी सोसियालजी में एकेडमिक एसोसिएट थे। हम एकेडमिक एसोसिएटों का काम और वेतन लेक्चरर वाला ही था। सभी विभागों में कई कई एकेडमिक एसोसिएट थे। पोलिटिकल साइंस में उस समय मैं ही था। लगता है नियमित नियुत्ति की औपचारिकताओं में बहुत समय लगता और फौरी जरूरतों के लिए एढॉक आधार पर एकेडमिक एसोसिएट एढॉक लेक्चरर की तरह नियुक्त कर लिए गए। शुरू शुरू में बाहर से लिखाए गए अध्यायों (यूनिट्स) एवं उनके हिंदी अनुवादों का संपादन और ब्लॉक (पुस्तिका) में संकलन था। विभाग में कमल और गोपाल के बीच गुटबाजी चलती थी, गोपाल मुझे अपने गुट में शामिल 

फुटनोट 250(सही)

 बहुत साल पहले ऐसे ही कहीं बातचीत चल रही थी तो एक वरिष्ठ मित्र ने कहा, 'दर असल ईश की समस्या यह है कि इसने, "सत्यम ब्रूयात्, प्रियम ब्रूयात, मा ब्रूयात् समत्मप्रियम", श्लोक की दूसरी पंक्ति पढ़ा ही नहीं।' तो अलोकप्रियता को नजरअंदाज कर अप्रिय सत्य बोलने का खतरा उठाता रहता हूं। मैं अपने स्टूडेंट्स से कहता था कि जब भी सही होने और लोकप्रिय होने में चुनाव हो तो सही होना चुनो, लोकप्रियता अस्थाई और परिवर्तनीय होती है और जब भी सही होने में या कठिनाई में चुनाव हो तो सही होना चुनो कठिनाई आसान हो जाएगी या फिर उससे फर्क नहीं पड़ेगा। [Whenever you are faced with the choice between being correct and popularity choose to be correct, popularity is very unstable and changeable and when ever there is choice between being correct and facing difficulty, choose to be correct difficulties ease out or don't matter."]

बेतरतीब 86 (सारंगा स्वर)

 

कमेंट सब अपने आप आगे-पीछे हो गए हैं। सीडब्लूडीएस की नौकरी के दौरान परिवार के साथ रहने का मन बना लिया था। बेटी का चौथा साल लगा था। भाई की जेएनयू में फ्रेंच में 5 साला एमए की पढ़ाई पूरी हो गयी थी तथा वह पर्यटन का काम करने लगा और मैं उसकी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया। बहन वनस्थली में पढ़ती थी। दूसरी बहन (11वीं कक्षा में) और सबसे छोटे भाई (नवीं में) को गांव से ले आकर सरकारी स्कूलों में भर्ती कराकर भाई के पास छोड़ दिया तबसे उनकी पढ़ाई का जिम्मा उसने ही उठाया। पुष्पविहार (साकेत)के तीसरी मंजिल सबलेटिंग के सरकारी घर में पानी की बहुत गंभीर समस्या थी। अकेले के लिए तो किसी तरह काम चल जाता था लेकिन परिवार के सात मुश्किल होता। दक्षिण दिल्ली में दूसरा घर लेना बूते की बात नहीं थी। सपरिवार रहने के लिए, यमुना पार में नए बन रहे मयूरविहार में घर ले लिया। मयूर विहार में अल्कॉन पब्लिक स्कूल नया नया खुला था। वहां की प्रिंसिपल डीपीएस की प्राइमरी की प्रधानाध्यापिका रह चुकी थी और मुझे जानती थी तथा आसानी से बेटी का दाखिला हो गया। एक नयी पाक्षिक पत्रिका शुरू हुई थी 'सारंगा स्वर' जिसके संपादक विजय कुमार मिश्र बिहार कैडर के मेरे एक आईएएस मित्र से मेरे बारे में सुनकर काफी प्रभावित थे। सारंगा स्वर का दफ्तर आईटीओ पर हंस भवन में था। जेएनयू का मेरा मित्र और युवकधारा में उपसंपादक रहा अमिताभ उसमें विशेष संवाददाता था। बिल्ली के भाग से छीका टूटने की तरह उन्होंने मुझे पत्रिका में विशेष संवाददाता की नौकरी के लिए आमंत्रित किया। किसी पत्रिका में काम करने का यह पहला अवसर था। हमारी, अमिताभ और एक अन्य मित्र राजकुमार शर्मा की का फी अच्छी टीम थी। विजय जी संपादकीय के अलावा बच्चों के लिए एक कॉलम लिखते थे। कम्यूटर का जमाना अभी आया नहीं था। प्रूफ और संपादन के बाद ब्रोमाइड बनता था। जिसे काटने चिपकाने का एक आर्टिस्ट होता था। नाम भूल रहा है। टाइपिस्ट का भी नाम भूल रहा है। हम 6 लोगों की टीम थी जिसमें कुछ दिनों बाद एक और पत्रकार श्रीप्रकाश जी जुड़ गए। और भी बाद में राहुलदेव जी माया से निकले थे तो वे संपादकीय परामर्सदाता के रूप में जुड़ गए। वैसे थे तो संपादकीय परामर्शदाता, लेकिन वे परामर्श मालिक को ही देते थे। सारंगा स्वर में पहला काम मेरा सोवियक उत्सव में सोवियक सर्कस पर रिपोर्ट करना था। सेवियत संघ तब तक गोर्बाचोव के हवाले हो चुका था। पत्रिका बहुत ही अच्छा निकल रही थी, एक-दो बार प्रेस में जानेके पहले हम तीनों (मैं, अमिताभ, राजकुमार) देर रात तक काम करते और ढाबे पर खाकर ऑफिस में ही दरी बिछाकर सो जाते। उस पत्रिका में मेरा अंतिम काम था भगत सिंह की साथी, क्रांतिकारी दर्गा भाभी (दुर्गा देवी वोहरा) का इंटरविव और प्रोफाइल थी जो उस अंक की 'क्रांति की दुर्गा' शीर्षक से कवर स्टोरी थी। सारंगा स्वर में नौकरी के संस्मरण विस्तार से अलग से लिखूंगा। दुर्गा भाभी के इंटरलिव के बाद से संपादकीय सलाहकार और मालिक से मेरा विवाद शुरू हो गया, जिसकी परिणति मुझे नौकरी से निकालने, ईशमित्र बहाली समिति के गठन से विरोध संघर्ष, बहाली तथा इस्तीफे में हुई जिसके संस्मरण मैं फिक्सन रूप में लिख चुका हूं जिसे डिफिक्शनलाइज करना है। इसी दौरान जीवन में तूफान खड़ा कर देने वाली एक पारिवारिक त्रासदी घटी, जिसके बारे में फिर कभी अलग से।



खैर सारंगा स्वर की नौकरी के दौरान मैं दिवि विश्वविद्यालय के कॉलेजों में गाहे-बगाहे इंटरविव भी देता रहा। एकाध जगहों पर तो पैनल में पदों की संख्या से अगले नंबर पर नाम था। जामिया मेंअविस्मरणीय लंबा, अच्छा इंटरविव हुआ। कुलपति महोदय मेरा सांप्रदायिकता का पेपर पढ़ चुके थे आईआईपीए (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेसन) के प्रोफेसर एसएन मिश्र भी एक एक्सपर्ट थे। इंटरविव खत्म होने पर उन्होंने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड भी दिया था। वे और कुलपकति महोदय बहुत रुचि ले रहे थे। इंटरविवि बहुत संतोषप्रद था तथा आधे घंटे से अधिक चला। इलाहाबाद विवि के ढेढ़ घंटे के इंटरविव के अनुभव के बाद बहुत आशान्वित तो नहीं था फिर भी आशा अच्छी लगती है। कुछ महीनों बाद कहीं मुलाकात होने पर पहचान गए और बताए कि वे और वीसी साहब मेरे पेपर और इंटरविव से बहुत प्रभावित हुए और तमाम तर के बावजूद मेरा नाम टौथे स्थान पर रखवाने में सफल हुए। 3 पद थे। जैसे इलाहाबाद विवि के कुलपति को कहा था कि 6 पद थे तो 7वें पर मेरा नाम रखते या सत्तरवें पर क्या फर्क पड़ता? वैसे ही इन्हे भी कहा कि 3 पद थे तो 4 पर रखते या 40 पर क्या फर्क पड़ता। खैर सारंगा की नौकरी के बाद फिर शुरू हुआ तलाशेमाश का एक और दौर और कलम की मजदूरी से घर चलाना, उसी क्रम में शुरू हुआ इग्नू के लिए अनुवाद और लिखना तथा मौजूदा संदर्भ में इतने कमेंटों की भूमिका के बाद टेक्स्ट का कमेंट।

 

बेतरतीब 85 (सीडबलूडीएस)

डीपीएस प्रकरण के बाद अनुवाद समेत कलम की मजदूरी से काम चलने लगा। 1985 में परिवार के साथ रहने यानि पत्नी और डेढ़ साल की बेटी को गांव से बुलाने के मकसद से फ्लैट किराए पर लिया था लेकिन डीपीएस के प्रिंसिपल ने नौकरी से निकाल कर अलग लड़ाई में फंसाकर कार्यक्रम चौपट कर दिया। जेएनयू के सीनियर बालाजी पांडेय आईसीएसआर पोषित, डॉ. वीना मजूमदार (वीना दी) द्वारा स्थापित सेंटफॉर वीमेन्स डेवलेपमेंट स्टडीज (CWDs) में नौकरी करते थे, उनसे पता लेकर, 1986 के अंतिन दिनों में कभी एक दिन उस समय पंचशील एंक्लेव स्थित उसके दफ्तर चला गया। वीना दी बहुत सहजता और स्नेह से मिलीं। मैंने नौकरी की इच्छा जाहिर किया तो उन्होंने सांप्रदायिकता और स्त्री के सवाल (Woman's question and communalism) पर एक परियोजना प्रस्ताव (Project Proposal) लिखकर ले आने के लिए कहा, पीएचडी का रिसर्च प्रपोजल तो लिखा था, प्रोजेक्ट प्रपोजल लिखने का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन मैं जो होगा देखा जाएगा के सिद्धांत पर जीता रहा हूं। अगले दिन जेएनयू की लाइब्रेरी गया, कई अच्छी किताबें मिल गयीं। स्त्रियों की आजादी संबंधित मनुस्मृति के उद्धरण से शुरू कर प्रपोजल लिखने में 2 दिन लग गए। तीसरे दिन प्रपोजल लेकर पहुंच गया। बीना दी पढ़कर बहुत खुश हुईं और उत्साह के साथ डॉ. लतिका सरकार तथा डॉ. मालविका कार्लेकर को बुलाकर दिखाया। इस बात से मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा कि बीना दी को मेरा प्रपोजल इतना पसंद आया। उन्होंने चाय और सिगरेट पिलाया और अगले दिन से काम पर आ जाने को बोल दिया। अगले दिन आकर बीना दी के साथ व्यापक विमर्श के बाद एक बृहद काम की योजना बनी। पहला भाग या पूर्व-कथ्य आरएसएस और जमाते इस्लामी के वैचारिक साहित्य का अध्ययन था। सारा काम जेएनयू और तीनमूर्ति लाइब्रेरी में करना था। कुछ दिन ऑफिस जाकर लाइब्रेरी गया बाकी दिन सीधे लाइब्रेरी जाने लगा। जेएनयू जाता तो कम-सेकम 10 बजे तक लाइब्रेरी में बैठता और तीनमूर्ति 7 बजे बंद होती थी। ऑफिस में कुछ लोगों को बिना ऑफिस में हाजिरी दिए लाइब्रेरी जाना नागवार लगा तो ऑफिस जाकर लाइब्रेरी जाने लगा। जेएनयू और तीनमूर्ति में उपलब्ध आरएसएस और जमाते इस्लामी पर पुस्तकें और उनके के सारे ग्रंथ, मनुस्मृति तथा इस्लामी राजनैतिक सिद्धांत पर कुछ पुस्तकों का अध्ययन करने के बाद लिखना शुरू किया। 1987 के मध्य अप्रैल में इंडियाइंटरनेसनल सेंटर में 'स्त्री, धर्म और कानून' विषय पर आयोजित सेमिनार में पेश करने के लिए पेपर तैयार करना था। शोधपत्र लिखने का आत्मविश्वास जुटाकर लिखना सुरू किया। और समय से पहले, "Women' Question in Communal Ideologies: A Study into the Ideologies of RSS and Jamat-e-Islami" शीर्षक से लगभग 10,000 शब्दों का पेपर तैयार लिखा गया। बीना दी को बहुत पसंद आया। टाइप होने के बाद गोष्ठी में पेश करने के लिए लगभग 2500 शब्दों का उसका सार तैयार किया तथा 400-500 शब्दों का ऐब्स्ट्रैक्ट। इस प्रक्रिया में लेखकीय आत्मविश्वास काफी मजबूत हुआ। मुझे गोष्ठी में पेपर पेश करने के अवसर से अधिक खुशी जस्टिस वीआर कऋष्ण एय्यर के साथ मंच शेयर करने की थी। गोष्ठी में जस्टिस अय्यर समेत सब लोगों ने पेपर की प्रशंसा की, काम की प्रशंसा किसे नहीं प्रिय लगेगी? मेरा शुरुआती अनुबंध विस्तार की संभावनाओं के साथ 6 महीने का था। बीना दी तो मेरे काम और मुझ बहुत खुश थीं लेकिन लगता है वहां के और कुछ महत्वपूर्ण लोगों को अज्ञात कारणों से मुझसे नाराजगी थी। मुझे नौकरी से निकाला तो नहीं गया लेकिन वह प्रोजेक्ट वहीं खत्म हो गया तथा सांप्रदायिकता पर बृहद काम के पूर्वकथ्य के रूप में लिखा गया वह पेपर ही संपूर्ण कार्य रह गया। खैर वह 6 महीने की नौकरी मेरे लिए वरदान साबित हुई उस शोध की बदौलक मैंने सांप्रदायिकता पर हिंदी और अंग्रजी में कई लेख लिखे। वह पेपर पहली बार 1987 में टीचिंग पॉलिटक्स में छपा उसके बाद कई महत्वपूर्ण जर्नलों में और अंत में काउंटरकरेंट वेब पोर्टल में छपा जिसे मैंने ऑनलाइन कई बार शेयर किया। उसे और उस पर आधारित कुछ पेपर कई महत्वपूर्ण सेमिनार-गोष्ठियों में पेश किया। सांप्रदायिकता पर एक संकलन के लिए उसका हिंदी अनुवाद बहुत दिनों से एजेंडा पर है। एक मित्र ने वायदा किया है, देखते हैं। अप्रैल में उस गोष्ठी के बाद बचा बाकी समय दफ्तर आने-जाने और वहीं की लाइब्रेरी में कुछ पढ़ने-लिखने में बीता और फिर से तलाश-ए-माश में मशगूल हो गया। सीडब्लूडीएस में काम करते हुए गोरखपुर विवि, काशी विद्यापीठ तथा दिल्ली विवि के कई कॉलेजों में इंटरविव भी दिया था। सीडब्लूडीएस की नौकरी और उसके लिए पेपर लिखने के अनुभव के संस्मरण विस्तार से फिर लिखूंगा, इग्नू के संस्मरण के रास्ते में इसे यहीं विराम देता हूं। इस दौरान मैंने युवकधारा में कॉलम लिखना बंद नहीं किया था, लेकिन बाकी और जगहों पर लिखना बहुत कम हो गया था। इसी दौरान एक बार जनसत्ता में नौकरी की अर्जी दी उसका रोचक संस्मरण अपने ब्लॉग में संरक्षित किया है।