आरक्षण ने जातिवाद का निर्माण नहीं किया बल्कि पहले से ही मौजूद जातिवाद और जाति आधारित वंचनाओं और भेदभाव का संविधान निर्माताओं ने संज्ञान लिया तथा उसमें सुधार के प्रावधान किया। आरक्षण क्रांतिकारी नहीं सुधारवादी कदम है। शिक्षा के निजीकरण, नौकरियों के संविदाकरण तथा सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के विनिवेश से आरक्षण वैसे ही अप्रासंगिक होता जा रहा है। अंबेडकर जाति का विनाश चाहते थे प्रतिस्पर्धी जातिवाद नहीं। प्रतिस्पर्धी जातिवाद (नवब्राह्मणवाद) आरक्षण का नहीं जातिवाद की जवाबी दावेदारी का परिणाम है। 1970 के दशक में जब हम इलाहाबाद विवि में पढ़ते थे तो गैर सवर्ण जातियों की उपस्थिति नगण्य थी, लेकिन जातिवाद अपने वीभत्स रूप में चरम पर था। आरक्षण से पहुंचे अनुसूचित जातियों के थोड़े-बहुत छात्रों का सरकारी ब्राह्मण कहकर उपहास उड़ाया जाता था। शिक्षकों में ब्राह्मण और कायस्थ लॉबी और छात्रों में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय लॉबी, बाहुबली भी इन्ही जातियों के थे। अब विश्वविद्यालयों की जनसंख्यात्मक संरचना बदल गयी है, बाहुबलियों की भी, और जातिवादी तनाव का स्वरूप भी बदल गया है।
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