Sunday, August 31, 2014

तानाशाह 2

तानाशाह 2
वह निकलता नहीं बाहर
हथियार बंद बंद मानव मशीनों के सुरक्षा कवच से
वह डरता है इस बात से कि मशीनें सोचने न लगें
अौर बदल जाय बंदूक की नली का रुख़
डरता है ज्ञान की शक्ति से
जला देता है लाइब्रेरी
वह डरता है इतिहास से
विकृत करता है उसे गल्प-पुराणों के महिमा मंडन से
वंचित करता है नई पीढ़ियों को उनके इतिहास से
लेकिन हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है
तोड़ देती है तानाशाह की कुचेष्टा का मकड़जाल
इन विघ्नों के बावजूद नया इतिहास रचती है
तानाशाह का मर्शिया लिखती है
डरता है तानाशाह नई पीढ़ियों से
निर्बल बनाता है उन्हें कुशिक्षा अौर कुज्ञान से
लेकिन हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है
अागे ही निकलती है 
तोड़कर कुज्ञान अौर कुशिक्षा के सारे ब्यूह 
मटियामेट हो जाता है तानाशाह
                             जागता है जब अौर जागता ही है अावाम का ज़मीर                          
(ईमिः30.08.2014)

डर डर कर नहीं जी जाती ज़िंदगी

डर डर कर नहीं जियी जाती ज़िंदगी
डर डर कर नहीं जियी जाती ज़िंदगी
डर में जीने वाले लोग
जीने मे मंद गति से मरते हैं
धीरे धीरे बार बार लगातार
किसी पुरानी रुमानी फिल्म के निराश नायक की तरह.
नामुमकिन की ही तरह
डर भी एक सैद्धांतिक अवधारणा है
शासन का मूलमंत्र है
शासक की शासित के शोषण की साधना है
जब से आया पूंजी की दुनिया में भूमंडलीकरण का दौर
डर बन गया आवारा पूंजी का स्थायी ठौर
मौत का ही नहीं मौत के बाद का भी डर दिखाया जाता
 जीवन बंद हो जाता है बीमाओं के निगमों में
 मौत के एकमात्र अंतिम सत्य है
अनिश्चित अौर निराकार
अनिश्चित अौर अमूर्त सच्चाई का कैसा डर
जिस पर नहीं जोर अपना
उसकी क्योंकर करें फिकर
 ज़िंदगी  एक निश्चित सच्चाई है कयानात की
इंसानी रिश्तों के खूबसूरत बयानात की
मक्सद है जीना इक खूबसूरत ज़िदगी
जी जा सकती है जो हो निडर
डर डर कर जियी नहीं जाती ज़िंदगी
खिंचती है वह मौत के इंजार में.
(ईमिः31.08.2014)


डर डर कर नहीं जियी जाती ज़िंदगी

म“यह बात” मैं पहले कह चुका हूं, लेकिन ब्लॉग में किस नाम से सेब किया है और कब, याद  नहीं और  खोजने में वक़्त लगेगा. और वर्ड फाइल्स दुर्घटना की शिकार हो गई. कारणों, कारकों आदि के विवरण से भूमिका लम्बी हो जायेगी. शाफ्ट वेयर इंजीनियर मलवे से अवशेष निकालने की कोशिस में लगे हैं. “यह बात” वाली कविता किसी खास संदर्भ में फेस्बुक की एक पोस्ट पर कमेंट के रूप में पोस्ट करने का मन हुआ. खोजने की जहमतों के वर्गीकरण और विश्लेषण से भूमिका और लम्बी हो जायेगी. आखिर “यह बात” है क्या? क्यों कविता का विषय बनी? और मैंने जो लिखा था और जो याद नहीं, कविता है या नहीं आदि की संक्षिप्त चर्चा भी से भूमिका इतनी लंबी हो जायेगी कि कथ्य अदृश्य हो जायेगा. तो सीधे मुद्दे पर बात करते हैं (अब तक?). “यह बात” है डर, जिसके सहारे शासक, शासितों को शोषित होते रहने के लिये “राजी” करती है.

उपरोक्त पैराग्राफ लफ्फाजी का एक छोटा सा नमूना है -- जहाँ कुछ भी कहने की जरूरत न हो वहाँ “कुछ न कहने” के अंदाज़ में इतना कुछ कह जाना.

डर डर कर नहीं जियी जाती ज़िंदगी
डर डर कर नहीं जियी जाती ज़िंदगी
डर में जीने वाले लोग
जीने मे मरते हैं बार बार, दर-असल
धीरे धीरे मंद गति से
किसी पुरानी रुमानी फिल्म के निराश नायक की तरह.
नामुमकिन की ही तरह
डर भी एक सैद्धांतिक अवधारणा है
शासन का मूलमंत्र है
शासक की शासित के शोषण की साधना है
जब से आय पूंजी की दुनिया में भूमंडलीकरण का दौर
डर बन गया आवारा पूंजी का स्थायी ठौर
डर मौत का ही नहीं मौत के बाद का भी
बंद हो जाते हैं जीवन बीमाओं के निगमों में
मौत ही इकलौता अंतिम सत्य है
जिसका वक़्त अनिश्चित है
लेकिन ज़िंदगी तो इक सुंदर ज़िंदा सच्चाई है
मक्सद है जीना इक खूबसूरत ज़िदगी
जी जा सकती है जो हो निडर
डर डर कर जियी नहीं जाती ज़िंदगी
खिंचती है वह मौत के इंजार में.
(ईमिः31.08.2014)
तानाशाह 1
तानाशाह हर बात से डरता है
अपने पाप से डरता है
अपने आप से डरता है
हमारे गीतों से डरता है
अपने भीतों से डरता है
कायर कुत्तों की तरह 
झुंड में शेर हो जाता है
पत्थर उठाने के नाटक से ही 
दुम दबाकर भाग जाता 

तानाशाह 2
वह निकलता नहीं बाहर
हथियार बंद बंद मानव मशीनों के सुरक्षा कवच से
वह डरता है इस बात से कि मशीनें सोचने न लगें
अौर बदल जाय बंदूक की नली का रुख़
डरता है ज्ञान की शक्ति से
जला देता है लाइब्रेरी
वह डरता है इतिहास से
विकृत करता है उसे गल्प-पुराणों के महिमा मंडन से
वंचित करता है नई पीढ़ियों को उनके इतिहास से
लेकिन हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है
तोड़ देती है तानाशाह की कुचेष्टा का मकड़जाल
इन विघ्नों के बावजूद नया इतिहास रचती है
तानाशाह का मर्शिया लिखती है
डरता है तानाशाह नई पीढ़ियों से
निर्बल बनाता है उन्हें कुशिक्षा अौर कुज्ञान से
लेकिन हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है
अागे ही निकलती है 
तोड़कर कुज्ञान अौर कुशिक्षा के सारे ब्यूह 
मटियामेट हो जाता है तानाशाह
                             जागता है जब अौर जागता ही है अावाम का ज़मीर                          
(ईमिः30.08.2014)

Friday, August 29, 2014

तानाशाह 1

तानाशाह 1
तानाशाह हर बात से डरता है
अपने पाप से डरता है
अपने आप से डरता है
हमारे गीतों से डरता है
अपने भीतों से डरता है
कायर कुत्तों की तरह 
झुंड में शेर हो जाता है
पत्थर उठाने के नाटक से ही 
दुम दबाकर भाग जाता है

(ईमि/तारीख याद नहीं)


Bipan Chandra

RIP. We have been lucky to know him talked to him and even quarreled with. A historian, who made a mark as a lading historian and a great teacher in his youth itself and kept writing for almost half a century. Salutes to you Sir! Prof. Bipan Chandra!! Generations of teachers shall continue prescribing Freedom Struggle as the first reading on Colonialism and Nationalism in India. SALUTES.

नया अफ़साना

बचता नहीं कुछ जब पुराने में शुरू होता है नया अफ़साना 
बचा है बहुत कुछ इस जमाने में जनने को एक नया ज़माना 
मत हो  रुख्सत ऐ दिल इस जमाने से होकर मायूस-ओ-हताश  
बनाने को इसे और भी खूबसूरत करते रहना है सतत प्रयास  
(इमि/२९.०८.२०१४)

Wednesday, August 27, 2014

मोदी-राजनाथ प्रकरण

मोदी-राजनाथ प्रकरण प्रसार
नगपुरिया अंतःकलह का सार
मोदी ने किया कूटनैतिक प्रहार
ठाकुर साहब हो गये लाचार
एक तीर से दो शिकार
दुश्मन घायल अौर दावा-ए-सदाचार
(ईमिः28.08.2014)

Neo-Machiavellianism 3

मैक्यावली अाज अगर होता तो जीवंत मिशाल के तौर पर कार्डिनल रोड्रिगो बोर्जिया की जगह मोदी की मिशाल देता. इस पर लिखूंगा कभी. रोड्रिगो के पास  अपनी जेल थी अौर अपने जल्लाद.उसके poisoners बहुत व्यस्त रहते थे. अागे चल कर  वहपोप अलेक्ज़ेंडर षष्टम बना. बस युद्ध का स्वरूप बदल गया है.

विलोम

क्या चलन है विलोमवाद का
सदाचार को लोग गुनाह कहते हैं
ज्यादातर लोग सिर के बल पैदा होते हैं
जो पैदा हुअा सीधा उससे विलोम कहते हैं.
(ईमिः28.08.2014)

Monday, August 25, 2014

चिंतनमुक्त मुक्तचिंतक(संपादित संस्करण)

चिंतनमुक्त मुक्तचिंतक

होते हैं जो मुक्त चिंतन से कहलाते हैं मुक्त चिंतक
करते हैं जो दावा विचारधारा से मुक्ति का होते हैं बिन पेंदे के लोटे
तोते हैं शासक विचारों के, देते हैं दर्जा वस्तुनिष्ठ सच्चाई का                                                                             अनभिज्ञ ज्ञान-प्रक्रिया की निरंतरता से चिल्लाते हैं विचारधारा का अंत
है इनका शोषण में नगण्य सहभाग पालते हैं वहम शासक का
डरते हैं परिवर्तन के गतिविज्ञान से अलापते हैं इतिहास का अंत
करते हैं मुनादी समाजवाद की असफलता की, त्रस्त हैं मगर मार्क्स के भूत से
जब भी होती है सचमुच की आज़ादी बात अभुआने लगते हैं मार्क्स्वाद मार्क्स्वाद.
इस धरा के चिंतन-मुक्त मुक्तचिंतकों को प्रणाम, शत-शत प्रणाम कोटिक प्रणाम.
(ईमिः25.08.2014)

भगवा अौर तिरंगा

भगवा अौर तिरंगा बनते रहते हैं अदल-बदलके एक दूजे के काल
दोनों ही हैं लेकिन साम्राज्यवाद की कोख से जन्में पूंजी के जुड़वा लाल
जब तक लाल लाल नहीं लहरायेगा. ऐसा ही अच्छा दिन अाेगा.
(ईमिः26.08.2014)

Sunday, August 24, 2014

चिंतनमुक्त मुक्तचिंतक

चिंतनमुक्त मुक्तचिंतक

होते हैं मुक्त चिंतन से
मगर बनते हैं मुक्त चिंतक
बिन पेंदे के लो’टे की इनकी फितरत
कहते हैं मुक्त हैं विचारधारा से
तोते हैं ये शासक विचारों के
बताते हैं उन्हें निज के मुक्त विचार
हैं अनभिज्ञ ज्ञान की प्रक्रिया की निरंतरता से
चिल्लाते हैं विचारधारा का अंत
है इनका शोषण में नगण्य टुकड़े का सहभाग
समझते हैं खुद को शासकवर्ग का अभिन्न भाग
डरते हैं परिवर्तन के गतिविज्ञान से
अलापते हैं इतिहास के अंत का राग
करते हैं मुनादी समाजवाद की असफलता की
रहता है सवार सिर पर हरदम मगर
भूत मार्क्स-माओ का
जब भी होती है सचमुच की आज़ादी बात
अभुआने लगते हैं मार्क्स्वाद मार्क्स्वाद.
इस धरा के चिंतन-मुक्त मुक्तचिंतकों को प्रणाम
शत-शत प्रणाम कोटिक प्रणाम.
(ईमिः25.08.2014)

उल्लू की शिनाख़्त

होगी ही एक-न-एक दिन हर एक शाख के एक-एक उल्लू की शिनाख़्त 
किया जायेगा बर्बादी-ए-गुलिस्ताँ के एक-एक हिसाब की दरियाफ्त
(ईमिः24.08.2014)

उठो एकलव्यों धनुष उठाओ

एक बुड्ढा नवजवान ललकारता है
मुर्दानगी-ए-जवानी को फ़टकारता है
उठो एकलव्यों धनुष उठाओ
प्रत्यंचा उसपर प्रज्ञा की चढ़ाओ
करो बिन अंगूठे के ऐसे सरसंधान
कि लगायें द्रोणाचार्य मदद की अजान
(ईमिः24.08.2014)

Saturday, August 23, 2014

तन्हा शामें

तन्हा शामें अौर एक छलकता हुअा जाम
याद-ओ-ख़याल करते हमप्यालों का काम
सोचते हैं कुफ्र बाख़याल-ए-अंज़ाम
करना है हर शाख के उल्लू का काम तमाम
मिटाना ही है धरती से ज़र का निज़ाम.
(हाहा ये तो शायरी सी हो गयी)
(ईमिः24.द8.2014)

Tuesday, August 19, 2014

दंगा तथा मतदान


जब भी करता हूँ पड़ताल कुछ इंसानो की हैवानियत की
दिल का ज़ख्म लहू बन उतर आता है आंखों में
ज़ख़्म के आंशुओं से धुले हमीदा के चेहरे पर
शुक्र के भी भाव थे अपने ज़ालिमो के लिये
कर दिया सब कुछ खाक पर जान बक्श दी जो
याद आयी 2002 में ज़िंदगी की भीख मांगती
गुजरात की परिभाषा बन गयी इरफान की तस्वीर
जब भी करता हूँ  पड़ताल फिरकापरस्त हैवानियत की
याद आती है गोरख की वह कविता
करती है जो बात
बड़े दंगों से मतदान  की अच्छी फसल की
(ईमि/21.08.2014)

Friday, August 15, 2014

लल्ला पुराण 169

Sanjay Singh आपके सवाल कि लड़के को बहुत सी लड़कियों के नंबर के साथ एक नेट्वर्क विहीन  कमरे में और लड़की को जेवर औरश्रृंगार की सामग्री के साथ दर्पणविहीन एक कमरे में बंद कर दिया जाय और तो क्या करेंगे?,value loaded हैं जो मानकर चलते है कि लड़कों की रुचि लड़कियां पटाने तक रहती है  और लड़कियों की बन-संवरकर सुंदर दिखने में. लड़का अगर मर्दवादी सूअर (यमसीपी) नहीं हुआ तो एकांत(solitude) का फ़ायदा उठाकर रोमांस में कार्पोरेटी  नेटवर्क की पगबाधा पर एक लेख लिखेगा और लडकी यदि समझदार हुई तो जेवरों के बोझ की व्यर्थता और श्रृंगार की डिबिया थमाने की मर्दों की चाल का विश्लेषण करेगी  और हाथ में श्रृंगार की डिबिया की जगह  कलम और बन्दूक के विकल्प पर विचार करेगी. हा हा चुहल में भी  राजनीति?

लल्ला पुराण १६८

इंदिरा गांधी का छद्म जगजाहिर है, और "बीबी इंदिरा हो तू तो लोकतंत्र की रानी ...." प्रदर्शनों में हम लोगों का ख़ास गीत होता था. मोदी के संघी छद्म से तुलना करने पर यही कहना पड़ता है की "इससे अच्छा तो इसका बाप ही था". ये सारे मैक्यावेलियन चरीत्र मंच से लफ्फाजी करते हैं और पीछे अम्बानी अदानी और वालमार्ट की दलाली. बाकी रचना आनंद की पोस्ट पर मेरा कमेन्ट यहाँ जोड़ लो. होनहार विवान के होत चीकने पात. २ महीने में ही मुल्क बेचने की हडबडी कर दिया है. अब तक तो लगता है की मोदियाने का मजाक कर रहे हो लेकिन कोदियापे के कुछ लक्षण तो दिखने लगे हैं. हा हा

मैंने कलकत्ता में २००७ में नंदीग्राम पर सम्मलेन में मैंने कहा था कि बुद्धादेब वैसे ही कम्युनिस्ट हैं जैसे मुलायम सोसलिस्ट. लेकिन यहाँ उनकी बात कहाँ से आ गयी? यहाँ तो बात मोदी के युग्द्रष्टा होने की और अभूतपूर्व भाषण की हो रही थी, जो एक सस्ती लफ्फाजी थी.

क्षणिकाएं 29 (501-512)

क्षणिकाएं(511-13)
501
आ्रयेगी ही अमन-ओ-चैन की ईद कभी-न-कभी
कहीं नहीं होगा मातम मनायेंगे खुशियां सभी.
(ईमिः29.07.2014)
502
एकतरफा नहीं होता कभी कोई प्यार
हो नहीं पाता कभी कभी इश्क़-ए-इज़हार
(ईमिः20.07.2014)
503
बन गयी है रवायत सर झुकाकर रहने की
सर की हां में हां मिलाकर अपनी बात कहने की
सर की बात सदा प्रतिध्वनित करने की
यही है मूलमंत्र छोटे सर से शुरुआत करने की
भूल जाते हैं जो अभागे हेकड़ी में यह मूलमंत्र
दूर ही रखता है उन्हें यह त्रिशंक्व ज्ञानतंत्र
झुकाकर सर सर भी मिलाते हैं हां में हां
बड़े सर होते हैं जब भी कभी वहां
बड़े सर भी रहते हैं झुकाकर सर
मिलते हैं जब कभी और बड़े सर
चलता है सिलसिला सर-सरों का
सबसे बड़े और छोटे-बड़े बड़ों का
नहीं समझ पाता यह साक्षात बात
समकोण त्रिभुजों का शंकु है कयानात
(ईमिः29.07.2014)
504
एक तरफा चाहत का है ये शुकून-ए- मरम
पाने की न तमन्ना थी तो खोने का क्या ग़म
दरअसल यह प्यार नहीं, है महज सम्मोहन
सबका होता है कभी-न-कभी कोई मनमोहन
(ईमिः29.07.2014)
505
जिन्ना-सावरकर भाई मौसेरे
मौदूदी-गोलवलकर जुड़वे
अंग्रेजों का था सर पर हाथ
निकले देश तोड़ने साथ
खत्म हुआ जब अंग्रेजी राज
अमरीका बन गया इनका बाप
अंग्रेजों का था जैसा संदेश
एक से बन गये तीन देश
छोड़ेंगे नहीं ये कुछ भी शेष
बन गया भारत नव-उपनिवेश
(ईमिः29.07.2014)
506
हो सकता है सम्मोहन कभी किसी की किसी खास बात से
प्यार मगर उगता है दिलो-दिमाग के आपसी जज़बात से
करता है कोई जब सम्मोहित होता ही है मनमोहन
प्यार की पारस्परिकता पर खरा नहीं उतरता सम्मोहन
(ईमिः29.07.2014)
507
क्यों होती है इंसान में
इतनी कमनिगाही
और इतनी छोटी याददाश्त
कैसे भूल जाता है वह इतनी जल्दी
नस्ल-ए-आदम के लहू का दरिया
और किनारे से जाते साफ दिखते
कातिल के पैरों के निशान
स्वागत करता है
ज़ुल्म के पुनरावृत्ति की
नहीं करता सिर्फ बर्दाश्त
क्यों कि
इतिहास कभी दुहराता नहीं खुद को
प्रतिध्वनित होता है
पुराने वायदों की
नयी पैकिंग-व्रैंडिंग करता है
फंसा लेता है फिर मायाजाल में
और फंसता है इंसान जान-बूझकर
गवाह बनता है
इंसानी जज़्बातों के नये कब्रगाह का
और पीड़ित भी बन जाता है सूत्रधार
मानवता के रक्तपात का
क्यों होती है इंसान में
इतनी कमनिगाही
और इतनी छोटी याददाश्त
(ईमिः 04.08. 2014)
508
मत कहो कि यह दिनेश का हनुमान है
सीधे-सीधे यह रामायण का अपमान है
करोगे के अगर लैपटॉप घोटाले की बात
होगी यह अराजक तत्वों की खुराफात
करोगे अगर ओबीसी विस्तार की बात
घायल होगे अंतर्ध्वनि के जज़्बात
(ईमिः05.08.2014)
509
थे जो हिमायती हिटलर के
बन गये हैं अब बिनोबा
गैस चैंबर को चाहिए अब
भूदान की आब-ओ-हवा
(ईमिः05.08.2014)
510
खोजते हैं जो हर जुल्फ में जलवा-ए-आशिकी
महरूम रहते हैं शकून-ओ-खलूस-ए- मुहब्बत से

नाग बन जाते हैं ऐसे दिलफेक नाकाम आशिक
जोड़ी जमेगी खूब इनकी साथ पहाड़ी नागिन के

बददिमाग-ओ-बदमिज़ाज़ होते हैं ऐसे आशिक
जुल्फों में खोजते हैं जो माशूक की सख्सियत

कुंद कर देती है नैसर्गिक प्रवृत्ति विवेक इनका
दरकिनार कर दिमाग वापस जाते् पशुकुल में

समझते हैं जो महबूब को संग-ए-इबादत
होश ठिकाने लायेगी वही पहाड़ी नागिन ही
(ईमिः07.08.2014)
511
अभी तो ये अंगड़ाई है
आगे गहरी खाई है
अच्छे दिन में केवल अच्छी बाते
नहीं चलेंगी जॉकी-कार्टूनी खुराफातें
करत हों चाहे चोरी या दलाली में मुंह काला
आखिर आवाम ने बनाया है इन्हें वज़ीर-ए-आला
हैं गर सचमुच के अच्छे दिन के अरमान
करनी ही होगी आज़ादी कुर्बान
सोच समझ कर ज़ुबान खोलो
जब भी बोलो जयभारत-जयमोदी बोलो
चाह्ते हैं गर रखना लब आज़ाद
आइये मिलकर बोलें इंक़िलाब ज़िंदाबाद.
(ईमिः15 अगस्त 2014)
{kf.kdk,a
512
अच्छे  दिu
अभी तो ये अंगड़ाई है
आगे गहरी खाई है
अच्छे दिन में केवल अच्छी बातेेेे
नहीं चलेंगी जॉकी-कार्टूनी खुराफातें
करत हों चाहे चोरी या दलाली में मुंह काला
आखिर आवाम ने बनाया है इन्हें वज़ीर-ए-आला
हैं गर सचमुच के अच्छे दिन के अरमान
करनी ही होगी आज़ादी कुर्बान
सोच समझ कर ज़ुबान खोलो
जब भी बोलो जयभारत-जयमोदी बोलो
चाह्ते हैं गर रखना लब आज़ाद
आइये मिलकर बोलें इंक़िलाब ज़िंदाबाद.
(ईमिः15 अगस्त 2014)

बुजुर्गीयत की जवानी

बुजुर्गीयत की जवानी
युवा उमंगों की रूमानी अठखेलिओं में, 
बुड्ढ़े भी लेते हैं रस बन दर्शक और श्रोता
मगर आती नहीं कभी यह बात मन में
 काश मैं भी आज तुमसा जवान होता
होती है जवानी लबालब सर्जक ऊर्जा से
 बुजुर्गीयत की जवानी का है अलग मजा
रस्क है अपने चाँद-ओ- सफ़ेद दाढ़ी से
रह नहीं सकती थी जो काली सदा 
चाहत है बस एक ही इस अदना ज़िंदगी में
मिले न कभी किसी को बुढापे की सज़ा
[इमि/१५ अगस्त २०१४]

अच्छे दिन

अच्छे  दिन

अभी तो येे अंगड़ाई है
आगे गहरी खाई है
अच्छे दिन में केवल अच्छी बातेेेे
नहीं चलेंगी जॉकी-कार्टूनी खुराफातें
करत हों चाहे चोरी या दलाली में मुंह काला
आखिर आवाम ने बनाया है इन्हें वज़ीर-ए-आला
हैं गर सचमुच केेेे अच्छे दिन के अरमान
करनी ही होगी आज़ादी कुर्बान
सोच समझ कर ज़ुबान खोलो
जब भी बोलो जयभारत-जयमोदी बोलो
चाह्ते हैं गर रखना लब आज़ाद
आइये मिलकर बोलें इंक़िलाब ज़िंदाबाद.
(ईमिः15 अगस्त 2014)

Wednesday, August 13, 2014

लल्ला पुराण 167

Chandra Bhushan Mishra मेरे मन की वे भी बाते लोग जान लेते हैं,जो मैं भी नहीं जानता. हा हा.जो इंसान दुनिया से मोहब्बत करता हो वह किसीके भी इश्क़ क़ा मुखालिफ कैसे हो सकता है? हाँ,सम्बंधो में जनतांत्रिक पारस्परिकता और आज़ादी का हिमायती होने केनाते इश्क़ में मल्कियत-भाव के खिलाफ हूँ,परिवार में भी.  जनतंत्र मतदान तक नहीं सीमित है, एक समग्र जीवन दर्शन है जिसे आत्मसात कर इंसान समता और  समानुभूति के अद्भुत आनंद के अनुभूति कर सकता है.शायरी इश्क़ तक नहीं सीमित होती.

DU 39

Mihir Mishra मार्क्सवादी नास्तिक होता है. वह किसी की पूजा नहीं करता. हम छात्रों के साथ क्या करते हैं यह तो मेरे छात्र ही बतायेंगे, कभी सौभाग्य से आपकी मुलाक़ात हो जाए त्यों आपकी जानकारी कुछ बढ़ जायेगी. मार्क्सवादी आपकी तरह बिना पढ़े-लिखे, बिना तथ्य--तर्क के फतवेबाजी नहीं करता क्योंकि मार्क्सवाद अमूर्त दर्शन नहीं, विज्ञान है जिसमें शोध-सत्यापन से प्रमाणित बात ही सत्य होती आस्था के कुतर्क नहीं. थोड़ा पढ़-लिख लेते  तो जानते स्टालिन पर सबसे अदिक आलोचनात्मक बहस मार्क्सवादियों द्वारा ही हुई है. अगर आपको हिटलर और माओ में फर्क नहीं नज़र आता तो विज्ञान का विद्यार्थी समझ आपकी अफवाह्जन्य अवैज्ञानिक ऐतिहासिक समझ पर तरस खाने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता.

Monday, August 11, 2014

Capital[i] Vol. I, Ch, 5

Capital[i] Vol. I, Ch, 5
Contradictions in the general formula of Capital
Summary
“The circulation of commodities is the starting point of the capital. The production of commodities, their circulation and the more developed form of their circulation called commerce form the historical ground work from which it rises. The modern history of capital dates from the creation in the 16th century of a world embracing commerce and a world embracing market.” (CI, Ch4)[ii].

Chapter IV explains the General Formula for Capital -- the transformation of money from money as, the means of payment in the simple circulation (C-M-C) into capital in the capitalist circulation (M-C-M). In the former, the end points are commodities, the use values C-C, involving exchange of 2 qualitatively different commodities of the same value, i.e. the exchange of equivalents. “If the commodities, or the commodities and the money of equal exchange value and consequently equivalents are exchanged, it is clear that no one extracts more value from than he throws into circulation. There is no creation of surplus value.”[iii](Ch 5) In simple circulation the circuit begins and ends with C. One sells a commodity to buy another. The values of the commodities do not expand, “attained at the most a form independent of their use values, i.e. the form of money…… (Ch 4)[iv] In capitalist circulation circuit, M-C-M the process is inverted. The owner of the money buys for sale, the end results are M-M.

 Chapter 5, Contradictions in the General Formula of the Capital explains the contradiction between use value and the exchange value and generation of the surplus value, i.e. the expansion of the value advanced in the form of money.. Two of the three actors involved in the process of circulation -- the producer from whom the buys the commodity C for money M and the consumer whom he sells it for money M’ remain unconcerned with the inversion.  The difference between M and the M’, i.e. the value added to the capital advanced in the beginning of the circulation, M’-M is the surplus extracted by the capitalist in the form of profit. “The circuit M-C-M, buying in order to ell dearer is seen most clearly in genuine merchants’ capital. The merchant “parasitically shoves in between”[v] two producers, who in turn are consumers also. Same is true about money lenders capital also.

“What we have said with reference to merchants’ capital, applies still more to the money lenders capital. ……. In moneylenders’ capital, the form M-C-M is reduced to 2 extremes without a mean, M-M, money exchanged for more money.” This applies still more to contemporary banking system that functions on the formula of peoples’ money controlled by banks and used by the capitalist.

“The form, which circulation takes when money becomes capital, is opposed to all the laws we have hitherto investigated bearing on the nature of commodities, value and money, and even of circulation itself. What distinguishes this form from that of the simple circulation of commodities is, the inverted order of the two antithetical processes, the sale and purchase.”[vi]  

To sum up, no surplus is created in pre-capitalist, simple circulation, involving exchange of commodities of equal values and the money does not take the form of capital but remains as means of payment in the process of exchange. With the inversion of the “order of the two antithetical processes, the sale and purchase”, money acquires the form of capital – the mercantile or the merchant’s capital. This inversion of the circulation circuit marks the beginning of the generation the surplus value and its appropriation by the capitalist and laid the foundation of the subsequent industrial capitalism. Creation of surplus cannot be entirely explained in terms of the circulation that shall be dealt in subsequent chapters but also cannot be explained without it.






[i]  Marx, Karl, Capital, A criticl tudy of Capitalist Production, Vol I, Foreign Languages Publishig House, Moscow. 1977
[ii]P 146
[iii]  P. 160
[iv] P. 154 
[v] P.161
[vi] P.258 (Pebguin edition)

Saturday, August 9, 2014

लल्ला पुराण 166 (Education and Knowledge 10)

The motor of the history does not have back gear. Lamenting on the present with the  Nostalgia of some olden golden past is closing the eyes on the changing realities and a conspiracy against future in the same way as making programs of future revolutions is an excuse to withdraw from the present struggles. Well, Allahabad used to produce more bureaucrats than now most of whom, due to lack of will and/or inability  to go through the process of unlearning remain as learned as at the time of joining the university. For the very long Allahabad has not produced visionaries or luminaries in literature/art/science. A radical student movement is long overdue. The composition of the university is fast changing  in the post Mandal era is fast democratizing in terms of caste equations and the hegemony of the so-called upper caste in the student and teacher politics is being challenged. Therefore predatory caste mobilization among the teachers and students is nothing new. Let us not get into eulogy of some past glory, let us think, how the present may be bettered in terms of student consciousness. One thing is new, cases of teachers' abstention is said to have become a common thing.  .

Thursday, August 7, 2014

लल्ला पुराण 165

Pradip Singh आपका कथन संघी भाषा की तमीज का जीता-जागता उदाहरण है. भक्ति-भाव के आलोचकों को हरियाली भी दिखायी देती है. ये जाहिल पढ़ते-लिखते नहीं पशुवत नैसर्गिक प्रवृत्तियों का पशुवत अनुशरण करते हैं. नई गालियां भी नहीं ईज़ाद कर पाते दिमाग से पैदल अफवाहों और फतवों पर समझदारी विकसित करते हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ्मूर्त सगूफे और अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित रटी-रटाई  चाओ-माओ से काम चलाते हैं. बौखलाहच में संघियों की गालियों को मैं कॉम्लीमेंट के तौर पर लेता हूं. जिस प्रचारक ने संघ के शिविर में किशोर के साथ दुष्कर्म किया और उसने आत्महत्या की कोशिस की उस नरपिशाच का भंडाफोड़ क्यों नहीं करते? अगर आप बचपन से संघ से जुड़े रहे हैं और आप पर किसी सीनियर संघी ने कभी प्रयास नहीं किया तो या तो आप भाग्यशाली रहे हैं या झूठ बोल रहे हैं. मैं बचपन में संघी था और 17 साल की उम्र में अभाविप का इतना बड़ा नेता था कि भेड़ चाल में चलते हुए तोता रटंत करता रहता तोे आप का भी पूज्य होता. गर्व महसूस करता हूं कि संघी मकड़जाल से निकल सका. यकीन न हो तो मुरली मनोहर जोशी या नरेंद्र सिंह गौड़ या इवि के प्रो. राम किशोर शास्त्री से पूछ लें. मार्क्सवादी विलक्षण प्रतिभा के धनी नहीं होते विवेकशील होते हैं इसीलिए मार्क्सवादी बनते हैं और दिमाग से पैदल जहालत के गर्त से निकलने में असमर्थ संघी, आपकी तरह भेड़ और तोते बने रहते हैं. वैसे ज्यातर संघी बचपन से ही शुरू करते हैं, बच्चों को विवेकशीलता या विवेकहीनता में दीक्षित करना आसान होता है. कुछ बच्चे बड़े होकतर दिमाग का इस्तेमाल करने लगते हैं और अपसंस्कृति की जहालत से निकल पाते हैं.  Sumant Bhattacharya  आपने उनके मंच से क्या कहा मुझधे नहीं मतचलब. संघियों की लफ्फाजी में नहीं, 2 वाक्यों या पैरा में मुझ अज्ञानी को ठोस शब्दों में समझायें कि राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक कोटि क्या है? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तो मुखौटा है, मक्सद मुल्क की नीलामी है.

Sumant Bhattacharyai गैर वर्गीय राजनीति नहीं होती. जातिवाद और सांप्रदायिकता वर्गचेतना को कुंद करने की साज़िशे हैं. जनता का ध्यान भूमि आंदोलन जैसे मूल समस्यायों से भटकाव के उद्देश्य से सरकारी संत विनोवा भावे की गैर दलीय राजनीति करना चाहते हो या कोई नूतन विचार हैं तुम्हारे चिंतन में हो तो रूपरेखा बताओ, हम सब उस पर विचार करें. अतीत में पूंजी के रखैल बुद्धिजीवी विचारधारा औरक इतिहास के अंत के शगूफे छोड़ते रहे ङैं, इनसे अलग कोई बात हो तो बताओ

@ Pradip Singh. No intention to hurt your feelings.  Sorry for losing temper and answering you in your language. Has been edited. There is no final knowledge and no one can be all knowledgeable. One life time is not enough even for reading all that one wants to. Knowledge is an ongoing process it does not belong to any one/group. The ratio of literate (degree holding) duffers (whose education does not help them transcending their identity emanating from the biological accident of birth) exceeds their illiterate counterpart. To me key to any knowledge is questioning anything and everything beginning with one's own mindset  and accepting only that as truth that can be proved.The education should be (is not) about not only learning but unlearning too. Questioning our attributes that we acquire during our growing up without our conscious effort -- the acquired morality -- and if found irrational or socially detrimental must be unlearn and replaced by rational, socially useful morality, which is subtly discouraged by Sangh training. 

जुल्फ में जलवा-ए-आशिकी

खोजते हैं जो हर जुल्फ में जलवा-ए-आशिकी
महरूम रहते हैं शकून-ओ-खलूस-ए- मुहब्बत से

नाग बन जाते हैं ऐसे दिलफेक नाकाम आशिक
जोड़ी जमेगी खूब इनकी साथ पहाड़ी नागिन के

बददिमाग-ओ-बदमिज़ाज़ होते हैं ऐसे आशिक
जुल्फों में खोजते हैं जो माशूक की सख्सियत

कुंद कर देती है नैसर्गिक प्रवृत्ति विवेक इनका
दरकिनार कर दिमाग वापस जाते् पशुकुल में

समझते हैं जो महबूब को संग-ए-इबादत
होश ठिकाने लायेगी वही पहाड़ी नागिन ही
(ईमिः07.08.2014)

Wednesday, August 6, 2014

सियासत 1

धर्मवीर शर्मा &@Ashutosh Yadav: जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है, कुछ लोग इस अंत को ज्यादा दिन टाल जाते हैं. यहां के जनमानस की समृति बहुत छोटी है, कभी भी कुछ भी हो सकता है. मोदी जी पहुचते ही बाप की जागूीर समझ देश बेचना शुरू कर दिए और 5 साल में उपने अगले उत्तराधिकारी को बेचने के लिए कुछ छोड़ेंगे ही नहीं. मुलायम और मायावती भी वही करेंगे. सांप्रदायिकता के जहर का काट जातीयता का जहर नहीं है, जनवादी जनचेतना है. सामाजिक-आर्थिक विकास की जनोन्मुख दृष्टि और किसी अग3गामी नीति-कार्यक्रम के अभाव में वैचारिक दिवालिएपन के शिकार,  दोनों ही जीववौज्ञानिक दुर्घना की अस्मिता के दुराग्रहों पूर्वाग्रहों के आधार पर व्यक्तिपूजा और उंमादी भावुकता के जरिए समाज में अशांति फैलाते हैं और लोगों का ध्यान बंटाकर बिनिवेश के नाम पर देश बेचते हैं. दोनों एक ही थैले के चट्टे बट्टे हैं. सांप्रदायिक फासीवाद और दुराचार से निपटने के लिए आमजन की विवेकसम्मत जनवादी लामबंदी की जरूरत है. आइए अपनी क्षमता के अनुसार जनवादी जनचेतना के विस्तार में हर शब्द और कर्म से अपना यागदान करते रहें. जनता जागेगी ही और कारपोरेटी शासन का अंत करेगी ही, आइए गति को त्वरण दें.

Tuesday, August 5, 2014

संघ पुराण 1

बाल स्वयंसेवकों का शोषण प्रचारकों और मुख्यशिक्षकों का अधिकार सा है, यह बात अलग है कि अक्सर यह शोषण "मर्जी से " यानि पटाकर (सिड्यूस करके) होता है. एक बच्चा जब तक जिसे मशीहा समझता है उसकी हरकतों पर गौर करे तब तक फंस चुका रहता है और आनंद लेता है तथा सीनियर होकर वह भी बालस्वयंसेवकों के साथ वही करता है. संघ के ये बालभक्षी कमीने कार्यकर्ता नहीं अधिकारी कहे जाते हैं. मैं ऐसे सभी संघियों को चुनौती देता हूं जो बालस्वयंसेवक से आगे बढ़े वे ईमानदारी से बतायें कि किसी अधिकारी ने उससे अंतरंगता बढ़ाने का प्रयास किया कि नहीं, जो इंकार करें, वे झूठ बोलते हैं.

हिटलर के हिमायती

थे जो हिमायती हिटलर के
बन गये हैं अब बिनोबा
गैस चैंबर को चाहिए अब
भूदान की आब-ओ-हवा
(ईमिः05.08.2014)

दिनेश का हनुमान

मत कहो कि यह दिनेश का हनुमान है
सीधे-सीधे यह रामायण का अपमान है
करोगे के अगर लैपटॉप घोटाले की बात
होगी यह अराजक तत्वों की खुराफात
करोगे अगर ओबीसी विस्तार की बात
घायल होगे अंतर्ध्वनि के जज़्बात
(ईमिः05.08.2014)

Monday, August 4, 2014

फुटनोट 13

लखनऊ में  जनेश्वर पार्क की तस्वीर की पोस्ट पर मेरे एक कमेंट पर एक मुलायमी हनुमान ने धमकी देना शुरू कर दिया. उनको मैंने यह जवाब दियाः

Suleman Pardesi Samajwadi आपकी सड़कछाप गुंडों की भाषा और अंधभक्ति उसका प्रमाण है मेरी बात का. अगर मुलायम अखिलेश के पास विज़न होता तो उन्हें इतिहास पुरुष बनने का मौका था लेकिन वे तो थैलीशाहों की खिदमत में लगे रहे. अगर मुलायम मोदी से अप्रत्यक्ष गठजोड़कर मुज़फ्फरपुर न होने देते और प्रदेश भर में जातीय सामंती बकैतियों को प्रक्षय न देते तो सपा को उप्र में 75 सीटें मिलती. कांग्रेस तो नटों-भटों की पार्टी बन गयी, वही सपा भी बन रही है आप जैसे भांट गवाही हैं. मेरी औकात जानना आप जैसे सड़क छाप गुंडों और सपाई हनुमानों के बस की नहीं है. गुंडे कुत्तों की तरह कायर होते हैं झुंड में या हथियार के बल पर शेर बन जाते हैं, अकेले में पत्थर उठाने का नाटक करो तो दुम दबाकर भाग जाते हैं. मैं दोनों से नहीं डरता. आपकी बात सही है मोदी लहर मीडिया और मिडिल क्लास की अधोगामी चेतना का परिणाम है मुलायम तो बस छोटे सहयोगी रहे हैं, मोदी की ही तरह छुद्र राजनैतिक स्वार्थ में दंगे होने देकर, प्रशासनिक अक्षमता और बाहुबली संस्कृति को बढ़ावा देकर छोटा सा योगदान किया है. फिर भी अपने खानदान के पांचो सदस्यों को लोक सभा तक पहुंचा ही दिया, छठे के लिए मैनपुरी में तैयारी की जा रही है.

http://ishmishra.blogspot.com/2014/03/muzaffarnagar-siege-within-communalism.html

कमनिगाही

क्यों होती है इंसान में
इतनी कमनिगाही
और इतनी छोटी याददाश्त
कैसे भूल जाता है वह इतनी जल्दी
नस्ल-ए-आदम के लहू का दरिया
और किनारे से जाते साफ दिखते
कातिल के पैरों के निशान
स्वागत करता है
ज़ुल्म के पुनरावृत्ति की
नहीं करता सिर्फ बर्दाश्त
क्यों कि
इतिहास कभी दुहराता नहीं खुद को
प्रतिध्वनित होता है
पुराने वायदों की
नयी पैकिंग-व्रैंडिंग करता है
फंसा लेता है फिर मायाजाल में
और फंसता है इंसान जान-बूझकर
गवाह बनता है
इंसानी जज़्बातों के नये कब्रगाह का
और पीड़ित भी बन जाता है सूत्रधार
मानवता के रक्तपात का
क्यों होती है इंसान में
इतनी कमनिगाही
और इतनी छोटी याददाश्त
(ईमिः 04.08,2014)